किताब : तरुण भटनागर



कथाकार तरुण भटनागर द्वारा यूजेन आयोनेस्क के नाटक लैसन’ के हिंदी अनुवाद पाठ’ पर यह  वक्तव्य पढ़ने योग्य है.



किताब : तरुण भटनागर                                      
(युवा कथाकार तरुण भटनागर की प्रिय किताब)







ब पता चला कि प्रिय किताब पर बोलना है तो एक उहापोह था. प्रिय याने क्या ? कौन सी ? और फिर यह भी कि वह भी एक मात्र हो. एक साथ कई कई किताबें जहन में आईं और लगा कि यह किताबों के साथ ज्यादती है अगर हम कह दें कि कौन सी वह एकमात्र प्रिय है. मुझे किताबों के बारे में इस तरह सोचकर किताबों पर और खुद पर क्षोभ भी हुआ. किताबें इस तरह नहीं हो सकती हैं. बेतरह चाहकर भी मैं कोई एक नहीं निकाल पा रहा था. हां प्रिय थीं. सैंकडों थीं. लेखक के लिए शायद यह और दुरुह है. किसी सुधी पाठक के लिए भी होता हो शायद. वे तमाम किताबें जो हमारे संसार का हिस्सा हो गईं और कई तो इस तरह कि उनके बिना लगता है, कि समय व्यर्थ ही चला जाता अगर वे ना होतीं, वे किसी भी तरह एकमात्र होकर प्रिय नहीं हैं. वे प्रिय हैं, पर एकमात्र नहीं. फिर भी मैंने एक किताब उठाई, उन तमाम में से एक जो प्रिय रही हैं. उसी किताब को उठाने का एक कारण था. पहले मैं संक्षेप में वह कारण बताउंगा और फिर उसके आगे बात करना चाहुंगा, क्योंकी यह बताना मुझे इसलिए लाजमी लगता है, कि इसके बगैर शायद बात पूरी ना हो. आज के समय में सैंकडों प्रिय किताबों में से एक को उठाने के कुछ कारण अवश्य होते होंगे.

मुझे लगता है कि हम किसी कारण से ही किसी विशेष किताब को उठाते हैं. सामान्यतः कोई ऐसा कारण जो समाज के साथ हमारी टकराहट में अनुभवों और महसूस करने के स्तर पर एक साथ जुडता हो. मेरे साथ ऐसा ही है, किसी और के साथ कुछ और हो सकता है. ये अनुभव और महसूस होना एक तरह का विद्रूप रचता है. और सहज तरीके से शायद कह सकें कि कोई वजह जो हमारे अस्तित्व को उसके विद्रूप में हमें समझाती है. सामाजिक कारण वही है, मैं इसे मनुष्य के अस्तित्व की विद्रूपता कहता हूं. कुछ ऐसा जो हमसे अपेक्षित नहीं रहा है और जिसे हम फिर भी करते चले आये या करते रहना चाहते हैं या करते रहना अच्छा लगता है. यू तो मनुष्य का अस्तित्व भी एक विद्रूपता ही है, हम चाहकर वह नहीं हैं, जो हम हैं, हमें बनाया गया है, प्रकृति की ताकतों के विपरीत और समय के तमाम दुराग्रहों के साथ और हम इस तरह आज का मनुष्य बने. यह विद्रूपता कई तरह से गत कुछ महीनों से मुझसे टकराती रही. इस विद्रूपता पर मैं विस्तार से कहना चाहूँगा, क्योंकी यह उस किताब का विषय भी है, जिस पर मुझे बात करनी है और हमारे आज का एक महत्वपूर्ण मुद्दा भी. कह सकते हैं, कि यह वह तरीका है जिसके माध्यम से यह किताब हमारे आज से संवाद करती है. वह कारण भी जिससे मैंने इसे चुना. तो कुछ बातें कुछ महीनों पहले तक मेरे साथ हुईं, जिसकी वहज से मैंने इस किताब को उठाया.
          
हाल में भुवनेश्वर का शताब्दी वर्ष मना और मीराकांत का लिखा एक नाटक भुवनेश्वर दर भुवनेश्वर का मंचन कई जगह हुआ. इलाहाबाद के समानांतर ने इसका मंचन किया और मैंने इसे देखा. पहली बार देखा. वहां गोविंद मिश्र जी भी आये थे. मीडियोक्रेसी पर यह एक बेहद मार्मिक नाटक बन पडा है, जिसके प्रभाव से मैं काफी समय तक रहा. एक फिल्म अमेडियस याद आई जो पश्चिम के प्रसिद्ध कंपोजर वुल्फगैंग अमेडियस मोत्जार्ट पर थी, और मीडियोक्रेसी के शिकार प्रसिद्ध संगीतज्ञ के जीवन के दर्द को बखूबी निभाती है. मीडियोक्रेसी भी वही विद्रूपता है, जिसकी मैंने अभी बात की. मुझे लगा कि इस विद्रूपता पर चर्चा शायद आज का हमारा एक महत्वपूर्ण सरोकार है. ये बात अलग है, कि कुछ अस्तित्ववाद के विरोधी लोगों ने विद्रूपता के विरोध या उसपर लेखन को भी विद्रूप ही कहा. पर यह एक बेहद सकारात्म चीज लगती है. अंगरेजी में इसे द एब्सर्ड कहा जाता रहा है और यह उस एब्सर्ड से अलग है, जिसे हम दैनिक बोलचाल में प्रयोग करते हैं. डिक्शनरी में इसका मतलब मनुष्य और समाज के एब्सर्ड आचरण पर लिखा गया साहित्य बताया गया है. हिंदी में मुझे इसके लिए कोई शब्द समझ नहीं आया, सो इसे मैं विद्रूप ही कह रहा हूं. यद्यपि दोनों के अर्थ में अंतर है, एब्सर्ड अर्थ का अनर्थ या उसका वह अर्थ होना है जो उसका अर्थ नहीं है, पर विद्रूप ऐसा नहीं है. विद्रूप में एक तरह की डिफार्मिटी या किसी चीज की शक्ल को बिगाड देने का अर्थ आता है. इस तरह यह अलग लगता है. विद्रूप साहित्य की बहुत सारी विधाओं में है, पर थियेटर आफ द एब्सर्ड में यह ज्यादा करीने से किया गया. यू तो पूरा साहित्य ही विद्रूप है और मनुष्य मात्र का होना और उसका पूरा विकास भी विद्रूप ही है, यह एक ऐसी बात है जिस पर मैं आगे आऊंगा.
           
तो यही वजह थी, विद्रूपता की समस्या, भुवनेश्वर और थियेटर आफ द एब्सर्ड के माध्यम से अपनी बात कहने की इच्छा जो इस किताब को चुनने का कारण बनी. लैसन आयोनेस्क का पहला एब्सर्ड प्ले है, जिसे मैंने पढा, वह भी हिंदी में, हाल में नरेंद्र जैन ने इसका पाठनाम से अनुवाद किया और यह अनुवाद रचना समय ने एक अलग पुस्तिका के रुप में छापा. यूजेन आयोनेस्क जैसा कि आप लोग जानते होंगे, मूलतः रुमानियाई थे और उन्होंने ज्यादार फ्रैंच में लिखा. मैंने यह भी सुना है कि पेरिस में आयोनेस्क का फैस्टिवल मनाया जाता है, जिसमें यह नाटक हर वर्ष खेला जाता रहा. आयोनेस्क का समय 1909 से 1994 तक का है और यह प्रहसन उन्होंने 1951 के आसपास लिखा था.
         
तो द एब्सर्ड हमारे समय का केंद्रीय चरित्र है. और जैसा कि मैंने कहा मैं इसे विद्रूपता ही कह रहा हूं, यद्यपि  लगता है यह इतना विरोधाभासी नहीं है. खैर. विद्रूपता कैसे ? एक मजेदार वाकया है. एक सज्जन ने मुझे बताया कि हिंदी फिल्में कितनी विद्रूप हैं. अगर कोई विदेशी  भारत आने के पहले कुछ भारतीय फिल्में देखे और फिर भारतीयों के बारे में अपना नजरिया बनाये और उन्हें फिर वास्तव में देखे तो कितनी हास्यास्पद स्थिती बन जायेगी. उनके  आब्जरवेशन बडे मजेदार थे. उसका कहना था कि फिल्मों में कोई व्यक्ति चेहरे पर एक मस्सा या जरा सी दाढी लगा लेने पर ही बदल जाता है और कोई उसे पहचान नहीं पाता, या कोई पुरुष औरत की वेषभूषा पहरकर लोगों को मूर्ख बनाता रहात है, पर उसे कोई पहचान ही नहीं पाता, एक लडकी सरदार बनके लडकों की क्रिकेट टीम में शामिल हो जाती है, पर किसी को शक ही नहीं होता. ये सब चीजें आम जीवन में हो तो कोई भी इस नाटकीयता को पकड ले. पर फिल्मों में हर दर्शक सबकुछ जानकर भी मूर्ख बनने को तैय्यार बैठा है. फिल्मों में हर वह चीज प्रशंसनीय है, जो आम आदमी के जीवन में हो ही नहीं सकती. फिल्मों का सबसे बडा जोकर कौन है ? उन्होंने बताया कि आम आदमी फिल्मों में जाकर या आमोद प्रमोद की किसी चीज की तरह दिखाया जाता है.

किसी भी फिल्म को देख लीजिये साइकिल पर थैला लटकाये सब्जी ले जाते आदमी पर वही आम आदमी हंसता है, जो खुद यह सब अपने जीवन में रोज करता है और जिस पर उसे हंसी नहीं आती. विलेन के सामने हाथ जोडकर घिघियाते आदमी को भी मजाक का पात्र बनाकर प्रस्तुत कर दिया जाता है, जबकि स्वभावतः डरपोक समाज के आम आदमी का चरित्र भी यही है. पर लोगों को यही सब रास आता है. वे उस चीज को अपने से ज्यादा निकट पाते हैं और आनंदित होते हैं, जिससे उनके जीवन की सच्चाई का कोई वास्ता नहीं. जो झूठ है वह बढिया है और जो सच है वह हंसी का पात्र है. फिर कोई आदमी चेहरे पर एक नकली मस्सा ही लगा ले वे उसे ना पहचाने जाने के झूठ का मजा लेने के लिए हमेशा तैयार  हैं. फिल्मों को देखकर समाज का जो चेहरा दीखता है, वह उसका चेहरा नहीं हो सकता है. क्या ऐसा साहित्य में भी है? आप सोच रहे होंगे कि कहीं मैं विषयांतर तो नहीं हो रहा हूं. पर मुझे लगता है, यह बात कि जिसपर हम बात कर रहे हैं, वह हमारे आज में कहां टिकती है, उस पर बात पहले जरुरी है . मुझे यह भी लगता है, कि यह हमारी वह स्थिती है, जो बेतरह है और हमारे आज के साथ साथ हमारे अतीत को भी, इतिहास को भी प्रश्नांकित करती है.

तो क्या साहित्य से भी उस समाज को समझा जा सकता है, जिस समाज के लिए और जिस समाज पर वह लिखा गया है. मुझे लगता है, शायद नहीं और इसका कारण भी वही विद्रूपता है, जो फिल्मों को समाज से अलग करती है. लेखन भी इससे अछूता नहीं. पर यही वह चीज भी है, जो साहित्य को साहित्य बनाती है. और जो मैंने कहा कि विद्रूप के बिना वह संभव नहीं उसका शायद यही आशय भी है. स्वतंत्रता के पहले हिंदी में खासकर कथालेखन में जो कुछ है वह अपने समय से काफी कुछ उसी तरह विमुख है, जिस तरह हिंदी फिल्में. उसमें स्वतंत्रता आंदोलन नहीं, किसानों के आंदोलन नहीं, मजदूर यूनियनों की लडाइयां नहीं, हरिजनों के मंदिर प्रवेश के संघर्ष नहीं, अंगरेजों की सत्ता नहीं, प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध नहीं, बीस और चालीस के दशक के अकाल नहीं, आदिवासियों की लडाइयां नहीं,.......अगर हैं भी तो एक बहुसंख्य चरित्र की तरह नहीं. लेखक जिस तरह से समाज को देखता है और देखना चाहता है, क्योंकि एक मोह होता है जिससे विलग होना शायद लेखक के लिए भी संभव नहीं, वह एक तरह का विद्रूपता है, एक आइना जो उससे वह लिखवाता है जो समय से काफी विलग होता है. मध्यमवर्गीय चेतना एक केंद्रीय बात रही, जो एक आइना है, पर सच नहीं, एक नजरिया जो कई कई मामलों में बहुसंख्य चरित्र और वास्तविक समस्या से दूर रह आया. हां वह समाज की करुणा और व्यंग्य को सामने लाता है, पर वह वास्तविक नहीं है. कम से कम असका अर्थ वह नहीं है, जिस अर्थ में वह चीज खुद है. ठीक वैसे ही जैसे प्रेमचंद के साहित्य और प्रेमचंद के काल के इतिहास में बहुत बडा अंतर है, हम प्रेमचंद को पढकर उसके समय को नहीं समझ सकते. यह प्रेमचंद की महानता को प्रश्नांकित नहीं करना है, मुझे माफ करें, मैं सिर्फ उस विद्रूपता की बात कर रहा हूं जो हर जगह है.....और जो साहित्य के लिए ही क्या शायद हर प्रकार के सृजन के लिए एक सकारात्मक बात रही है.. प्रेमचंद पर मुझे एक बात याद आती है. एक बार मैं शिवपुरी से अशोकनगर लौट रहा था. रात के तीन बजे थे. बेतरह ठण्ड थी. हड्डी गला देने वाली ठण्ड. मैंने देखा फिर भी दूर दूर तक खेतों में कहीं कहीं मचानों पर कुछ किसान डटे थे. हम एक जगह रुके थे. उनमें से किसी से मैंने पूछा था, कि तेज ठण्ड पडने पर क्या वे गर्मी के लालच में अपने खेतों को किसी जानवर के लिए चरने को छोड सकते हैं. वे मेरी बात पर वे हंसने लगे. यह सामन्य चरित्र है, यह वह चरित्र नहीं है जो पूस की रात में है. बहुसंख्य चरित्र वही होगा जो साहित्य में नहीं है. प्रेमचंद के किसान को खेत को जानवरों के चरने के लिए छोडना ही है, वरना वह कहानी होगी ही नहीं, वह एक आम किसान के आचरण का विवरण मात्र रह जायेगा.   
             
आयोनेस्क ने कहा मानव अस्तित्व ही अविचारणीय और अकल्पिनीय है... मैं उसकी बात कर रहा हूं जो हर लेखक को उसके मनुष्य होने के कारण इस विद्रूपता का रचनाकार बनाता है. इसी वजह से यह माना जा सकता है, कि साहित्य समाज का दर्पण नहीं होता है, क्योंकी उसमें लेखक की दृष्टि होती है और लगता है अंततः वह दृष्टि ही रह जाती है और वह दृष्टि विद्रूप है. वह वह सच नहीं जो समाज में है, वह उस सच के अर्थ में से नया अर्थ निकालना है. जिस तरह से कोई कैमरा फिल्म बनाता है उसी तरह लेखक भी देखता है, वे तमाम चीजें जो आम हैं साहित्य और फिल्म दोनों में ही हंसी हैं और जो अकल्पनीय है, झूठ है वही मान्य है. यह आज का एक ऐसा सच है, जो हमें बार बार सोचने पर विवश करता है और हम हर बार नये विद्रूप बनाते जाते हैं. इस पर बात करना लाजमी भी है और प्रासंगिक भी.

एब्सर्ड वह जगह है, जहां यह तय नहीं कि एक ही बात पर हंसा जाय या रोया जाय . फिल्मों में साइकिल पर सब्जी ले जाने वाला साधारण आदमी. उसी साधारण आदमी की नजर में जोकर है और किसी लेखक याने असाधारण आदमी की नजर में दया या करुणा का विषय भी हो सकता है. एक ही चीज अपने में हजारों भाव लिये है, पर इतना तय है, कि अगर वह देखने समझने वाले के चरित्र जैसा है तो कुछ नहीं और विलग है तभी विशिष्ठ है. इसलिए चीजों को इस तरह से नहीं देखा जा सकता है, कि वे दुःखद हैं या प्रसन्नता का विषय हैं. हंसी दुःख से भी ज्यादा भयावह हो सकती है. मैं फिर आयोनस्क की बात करुंगा. आयोनेस्क की ही क्योंकी उसकी ही किताब पर मैं बात कर रहा हूं. वह कहता है व्यंग्य ट्रेजेडी से ज्यादा भयावह है, क्योंकि नियति और नियमों का उल्लंघन ट्रेजेडी का कारण है, अर्थात ट्रेजेडी सकारण है उसके नियम हैं, पर व्यंग्य या हास्य का कोई नियम नहीं है. यह बात व्यंगय और ट्रेजेडी के बीच की सीमा को नहीं गिराती है, बल्कि उससे भी आगे चली जाती है, जहां व्यंग्य, ट्रेजेडी से ज्यादा भयावह लगने लगता है. बहरहाल यह माना जा सकता है, कि विद्रूप हमारी आज की एक बडी चिंता है, क्योंकी यह मानव मात्र के अस्तित्व को चुनौती देती है और पहचान भी, यह एक ऐसा पारदर्शी रास्ता भी बनाती है जहां से चीजों को ज्यादा सटीक तरीके से देखा जा सकता है. एब्सर्ड वह एकमात्र तरीका लगता है, जो असंभव होते जा रहे मनुष्य और समाज को, उसके मन को, उसके कारण और निहितार्थ को खोलता है. इसलिए इसकी बात करना लाजमी लग रहा है.

Image from Shimer College production

यूजेन आयोनेस्क के तमाम एब्सर्ड नाटकों में से एक यह है, लैसन. शायद आपमें से कुछ लोगों ने पढ़ा भी हो. मैं संझेप में इसका कथानक बताना चाहूँगा और वे तमाम प्रश्न भी जो इसे पढने पर उपजते हैं. 

वास्तव में यह एक प्रहसन है. इसमें तीन पात्र हैं. एक प्रोफेसर, छात्रा और एक नौकरानी. चरित्रों में प्रहसन के दौरान धीरे-धीरे परिवर्तन होता है. प्रहसन के प्रारंभ में ही लेखक ने इस बात को स्पष्ट किया है, कि वे परिवर्तन क्या हैं. छात्रा एक नम्र और बेहतर ढंग से पली बढी सुसंस्कृत लडकी है, जो प्रहसन के प्रारंभ में बेहद चुस्त दुरुस्त और खुशमिजाज लगती है. फिर वह धीरे- धीरे एक उदास और जड लडकी में तब्दील होने लगती है. अंत आते आते तक वह बेहद उदास और थकानग्रस्त हो जाती है. प्रोफेसर एक कायर, नम्र और शर्मीला आदमी है, जो धीरे-धीरे दृढनिश्चयी, उत्तेजित और आक्रामक होता जाता है. प्रोफेसर के इस तरह से बदलने में कुछ निहितार्थ हैं, हमारे समय के क्रूर निहितार्थ, पर यह प्रहसन उस निहितार्थ से ज्यादा और भी काफी कुछ कहता है. लडकी प्रोफेसर के पास एक पाठ पढने आई है. प्रोफेसर धीरे-धीरे उसे पाठ पढाने के लिए तैयार करता है. वह उसे बडे सलीके से अपनी कायरता और शर्मीलेपन के साथ वह पाठ पढाता है. पर यह सिर्फ पाठ नहीं है. जैसे जैसे प्रहसन आगे बढता है, यह समझ में आने लगता है, कि इस पाठ में कुछ क्रूर और अमानवीय अपेक्षायें भी हैं. वह वास्तव में पाठ के लिए नहीं बल्कि किसी और चीज के लिए लडकी को तैय्यार कर रहा होता है. लडकी भोली है. पाठ के बीच-बीच में नौकरानी कमरे में आती जाती है. उसे प्रोफेसर की तबियत की चिंता है, पर वह चिंता भी धीरे-धीरे किसी और किस्म की चिंता में बदल जाती है. प्रोफसर यह देखकर बडा खुश होता है कि लडकी सीधी सादी है और वह उससे अपने उसी कायराना अंदाज में कहता है - माफ करना मदाम मैं यह कहने ही जा रहा था, लेकिन तुम सीख जाओगी कि हमें किसी भी चीज के लिए तैयार रहना ही चाहिए. बार बार के आग्रह से लगता है कि प्रोफेसर उस लडकी को पटा रहा है, शायद प्रेमालाप के लिए. पर प्रहसन में चीजें एकदम से बदल जाती हैं, और लगता ही नहीं कि प्रोफेसर के निहितार्थ इतने भयंकर हैं.

ऐसे भयंकर निहितार्थ, जिसने दुनिया में लोगों के सबसे बडे नरसंघार का रास्ता तय किया. नौकरानी प्रोफेसर को बीच-बीच में जब भी आती है, कहती है, कि उन्हें सावधान रहना चाहिए और ज्यादा उत्तेजित नहीं होना चाहिए. प्रोफेसर एक बेहद साधारण चीज से पाठ शुरु करता है, वह है अंकगणित. वह पूछता जाता है, कि दो में एक जोडें तो क्या जवाब आयेगा, फिर तीन में एक, फिर चार में एक,...... लडकी जवाब देती जाती है. क्या अंकगणित हमारे समय की सबसे बडी निष्ठुरता का गणित है. कितना अजीब है, पर आयोनेस्क यही करता है, प्रोफेसर और छात्रा के बीच जो सवाल शायद कभी ना होता हो कि तीन और एक को जोडने पर क्या आयेगा, वह वही पूछता है. पहली कक्षा से भी नीचे के प्रश्न, जो वह पीएच.डी. करने के पाठ पढने आई लडकी से पूछता है. नौकरानी बीच में  उसे बडे मार्के की बात चेताती है, कि अंकगणित से किसी का भला नहीं हुआ है. वह आपको थका देता है. अस्तव्यस्त कर देता है.

लडकी जोडने में परफेक्ट है. वह इतनी परफेक्ट है, उसे जोडना इतना अच्छा लगता है, कि वह प्रोफेसर को अपने भोलेपन में कहती है, कि ठीक है सात और एक आठ होते हैं, पर यह नौ भी हो सकते हैं. चीजों को वह जोड से समझती है. जैसे जोडना ही दुनिया हो. जहां चीजें बढती हैं, जहां विपन्नता नहीं, जहां खत्म होने का दर्द नहीं. जोडना एक सकारात्मक काम है. जोडना मतलब मनुष्य के पक्ष में होना. प्रोफेसर उसके जोडने की कला से प्रसन्न तो होता है, पर परेशान भी होने लगता है. वास्तव में वह जो अंकगणित उसे समझाना चाहता है, वह जोडने जैसा मासूम काम नहीं है. वह लडकी को घटाना सीखाना चाहता है. यहीं से सारी समस्या शुरु होती है. प्रोफेसर एक कायर आदमी से धूर्त में और लडकी मासूम से परेशान और भयाक्रांत होती जाती है. लडकी प्रोफेसर के लाख समझाने पर भी नहीं समझ पा रही है कि घटाना क्या होता है. वह गलत जवाब देती जाती है और प्रोफसर झल्लाता जाता है, बदलता जाता है.
  
नहीं यह सही नहीं है. बिल्कुल भी सही नहीं है. तुम पर संख्याओं को जोडने का फितूर सवार है. लेकिन घटा देना भी जरुरी है. चीजों का एकीकरण ही काफी नहीं है मादाम. उनका विघटन भी जरुरी है. और जिंदगी क्या है. विघटन ही तो है. दर्शनशास्त्र, विज्ञान,प्रगति,सभ्यता सब विघटन ही तो है.

बडे मार्के की बात है, कि ज्ञान और प्रगति विघटन है. फिर बात चलती है गणित के तर्क पर. लडकी को सारे गुणनफल और योग याद हैं. प्रोफेसर पूछता है यह कैसे संभव हुआ भला. लडकी कहती है उसने सारे गुणनफल और योग याद कर लिए हैं. प्रोफेसर फिर से झल्लाता है-
       
याददाश्त तो गणित के लिए एक भयावह दुश्मन है. अंकगणितीय दृष्टि से वह एक बुरी चीज  तुमसे  खुश नहीं हूं. यह सब नहीं चलेगा.

वह याद होने और समृतियों के खिलाफ है. गणित के जोड घटाने के पाठ के साथ साथ यह समझ में आने लगता है, कि प्रोफेसर किस तरह मनुष्यता का विरोधी है. वह स्मृति को एक प्रकार से अच्छा भी कहता है, किस तरह से. एक भयावह बात जो धीरे धीरे खुलती जाती है. लडकी और प्रोफेसर दोनों परेशान हो जाते हैं, लडकी पाठ को और प्रोफेसर के मर्म को समझ नहीं पाती और उसका दांत दर्द करने लगता है और प्रोफेसर काहिलों की भांति चिल्लाता है, कि वह इतनी सी भी बात नहीं समझ सकती.

सबकुछ एब्सर्ड है. ना तो पीएच. डी. करने वाली लडकी को जोड और घटाना समझने की जरुरत है और ना प्रोफेसर को इतना उत्तेजित होने की जरुरत ही है, कि उसका मूल चरित्र ही बदल जाये और ना ही ऐसी बात जो लडकी को परेशान करे. पर यह सब घटित होता है.

फिर वह भाषा शास्त्र पर उतर आता है. जो शायद वह मूल विषय है, जिस पर आने को प्रोफेसर आतुर है. वह बताता है भाषा घ्वनियां हैं, जिन्हें इस बात से सरोकार नहीं कि वे किन्हीं बहरे कानों तक पहुंचे. मतलब यह की अगर आप बहरे हैं तब भी भाषा नंगई कर सकती है. वह हवा में एक काल्पनिक चाकू बनाता है और बताता है कि अलग अलग भाषाओं में चाकुओं को क्या कहते हैं. लडकी उसे सुनना नहीं चाहती है, पर वह बताता जाता है, लडकी के कान में दर्द होता है, पर वह बोलता जाता है, झल्लाता जाता है, कि कितनी सीधी बात यह लडकी समझने को तैयार नहीं. वह उसे बार बार समझाता है, चाकू,चाकू, चाकू..... लडकी उस निर्दयता से घबरा जाती है. नौकरानी प्रोफेसर को कहती है, कि इस तरह ना करें सोचिये इसका हश्र क्या होगा. प्रोफेसर छात्रा को कहता है, कि यह  चाकू किसी को भी मार सकता है. छात्रा डरती हुई घबराती हुई, कहती है हां चाकू हत्या कर सकता है. अंकगणितीय जोड के बाद वह बस इसी बात पर प्रोफेसर से सहमत होती है, कि चाकू हत्या कर सकता है. पाठ कहीं बहुत पीछे छूट जाता है. हवा में बना काल्पनिक चाकू रह जाता है, लगभग विक्षप्त हो चुका प्रोफेसर झुंझलाकर उस काल्पनिक चाकू से छात्रा की हत्या कर देता है. पर उसकी घबराहट खत्म नहीं होती. नौकरानी उसकी घबराहट का एक इलाज ढूंढती है. वह एक कपडे की पट्टी प्रोफेसर के हाथ में बांध देती है. उस पट्टी पर नात्सियों का स्वास्तिक का निशान बना है. उस पट्टी को पहनने  के बाद प्रोफेसर को थोडा आराम मिलता है. दोनेां उस छात्रा की लाश को ठिकाने लगाते हैं. पता चलता है, प्राफेसर ने अब तक कुल चालीस छात्राओं की हत्या की है. तभी घण्टी बजती है और नौकरानी दरवाजा खोलती है, बाहर एक और नई छात्रा है. वह उसे शालीनता से भीतर लाती है, और कहती है, वह इंतजार करे पाठ पढाने के लिए प्रोफेसर आ रहे हैं. यहीं यह प्रहसन समाप्त होता है.

प्रहसन मनुष्य की कई विद्रूपताओं को खोलता है. उसका तरीका भी कई कई विद्रूपताओं से भरा हुआ है. मनुष्य का अस्तित्व और पूरा विकास ही विद्रूपता है. कहते हैं, विद्रूपता की शुरुआत तब हुई जब किसी प्रागैतिहासिक मनुष्य ने आग खोजी. उसने पत्थरों को रगडा. पर उस समय के मनुष्य के लिए पत्थर इसलिए नहीं थे कि उन्हें इस तरह रगडा जाय. उसके लिए पत्थर नदी, पहाडों, जंगलों से भरे प्राकृतिक दृश्य का एक हिस्सा थे. पत्थरों का अर्थ उसके लिए कुछ और था और हाथों में लेकर उन्हें रगडना पत्थरों का वह अर्थ नहीं था. यह क्रिया पत्थरों के मूल अर्थ से विलग होने वाली क्रिया थी. पत्थरों के रगडने से चिंगारी पैदा हुई. चिंगारी पहले भी थी, पर उसका अर्थ और काम कुछ और था. उसका अर्थ था दावानल पैदा करना. वे चिंगारियां दावानल के लिए थीं, पर जो चिंगारी मनुष्य ने पैदा की वह दावानल के लिए नहीं थी, वह चूल्हों की आग के लिए थी, इस प्रकार उसका भी वह अर्थ नहीं था, जो चिंगारी के होने का था, मनुष्य ने उसका नया अर्थ बना लिया. आग मनुष्य का पहला विचार, खोज, सृजन या हम जो भी कह लें वह था, पर वह अपने मूल अर्थ से अलग था और फिर ऐसी तमाम चीजें जुडती गईं, ऐसी तमाम चीजें जो अपने मूल अर्थों से अलग थीं और इस तरह हमारा आज का समाज बनता गया. अर्थ से विलग अर्थ मतलब जिस अर्थ में कोई चीज नहीं है, या जिस चीज का अर्थ कुछ और है, उससे कोई अर्थ निकाल लेना ही मनुष्य का होना है और शायद यही एब्सर्ड भी है, चीजों का वह अर्थ जो उसका अर्थ नहीं है.

यही एब्सर्ड होना साहित्य का निर्माण भी करता है. बेहतर साहित्य वह है जिसमें शब्दों और वाक्यों के वे अर्थ हैं, जो उनके वास्तिविक अर्थ नहीं और यह नया अर्थ जितना विलग होता है, सृजन उतना ही खूबसूरत . लेखक यही करता है, वह शब्दों से वह कहलवाता है, जो वे शब्द नहीं है. किसी अर्थ का सर्वाधिक विरपीत अर्थ उतना ही बडा विद्रूप है और उतना ही महान लेखन भी. विद्रूपता ही मनुष्य का मनुष्य होना है, उसका विकास है और वह ही साहित्य भी है. आयोनेस्क यही कर रहा है. पूरा प्रहसन विद्रूप है, जबरदस्त विद्रूप. ना पीएच.डी. करने वाली छात्रा को यह समझने की जरुरत है कि तीन धन एक कितना होता है और ना उसे यह जानने की जरुरत है कि चाकू को बेहद जानी पहचानी भाषाओं में क्या क्या कहा जाता है, ना हवा में ब्लैक बोर्ड है, ना हवा में लिखा जा सकता है, ना हवा में चाकू हो सकता है, ना हवा के चाकू से हत्या हो सकती है, ना स्वास्तिक के निशान की पट्टी बांह में बांध लेने से तबियत ठीक हो सकती है.....पर वहां सबकुछ घटित होता है और बडी साफगोई से मनुष्य के आचरण को खोलता जाता है, एक ऐसा अर्थ निकालता है, जिसकी वहां होने की संभावना ही नहीं लगती है.

जो लोग कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है, वे साहित्य को खत्म करने का मतलब बता रहे होते हैं. साहित्य वह विद्रूप ही तो है, जो समाज का सच ना होकर उस सच का एक विलग अर्थ है, भले उसकी पक्षधरता सच के पक्ष में हो पर उसका अर्थ उसके मायने सच के पक्ष में नहीं होते हैं. अगर अर्थ भी वही हो गया जो वह वास्तव में है, तो फिर साहित्य कैसे हो पायेगा और यही विद्रूप है, अर्थ का बेहद विलग अर्थ जो किसी लेखन को  संभव बनाता है. पर लगता है एक अंतर हमेशा रहेगा शायद कि उस विद्रूप की पक्षधरता क्या है ? फिल्मों का विद्रूप एक बेहद खोखली चीज है, क्योंकी वह सच के पक्ष में नहीं है. साइकिल में सब्जी ढोने वाले आम चरित्र पर आम आदमी की फिल्मी हंसी, इसलिए वाजिब नहीं क्योंकी आज की वह फिल्म उस विद्रूप का उस तरह प्रयोग नहीं करती जिस तरह साहित्य कर लेता है या बेहतर सिनेमा करता है. विद्रूप हमारी सभ्यता का मूल है और यह बहस शायद हमेशा बनी रहे कि हम इसका और बेहतरीन प्रयोग कैसे और कहां कहां करे.
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(दिनांक 06.11.12 को संगमन 17’ में मेरी प्रिय किताबविषय पर 
यूजेन आयोनेस्क के नाटक लैसनके हिंदी अनुवाद पाठपर वक्तव्य) 
 

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  1. absurdity विद्रूप भी है और विसंगति भी है . विसंगति में हमारा समकाल आ जाता है . केवल विद्रूप absurd को डिफाइन नहीं करता . इस absurd के भी पहले हम सर्वांते के डॉन किगोते या क्विकजोट को देखें तो पायेंगे कि पात्र वहां हँसते हुए रोते हैं और रोते हुए हँसते हैं -दर्शक या पाठक इनमें कब एकाकार होते हैं पता नहीं चलता -तो यह विसंगतियों के बीच पैठी विद्रूपता का विरेचन है .
    संभवतः The Bald Soprano Eugène Ionesco का पहला absurd प्ले है .
    मैकबेथ के एक्ट 5 पर जाइए -वहां मैकबेथ क्या कह रहा है- "The world is a tale told by an idiot, full of sound and fury, signifying nothing." यही असंगतता हमें आयोनेस्क में मिलती है. देखा जाए तो सारा साहित्य ही विसंगति और व्यंग्य है . इस विसंगति को किसी एक फ्रेम से हम क्यों देखें ? अस्तित्व के झरोखे से ही क्यों ?
    नकार और विघटन का अंतर जानना चाहूंगी . निहीलिज्म और डिसइंटीग्रेशन का फर्क ?
    'पाठ' का तरुण जी ने बढ़िया पाठ किया है . थोडा और खुलकर आलोचना तक बात जाती तो बेहतर होता .
    यदि हम किसी भी लेखन की तरफ जाएँ तो यह महानता क्या होती है ? महानता शायद कुछ नहीं होती . लेखक के सृजन में उसके काल की ग्रोथ होती है . महानता और शाश्वतता के बीच सदियों से आलोचक, लेखक और पाठक क्यों फंसा है ?

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  2. तरुण भटनागर25 सित॰ 2014, 12:33:00 pm

    अपर्णा आपकी इस बात से की साहित्य विसंगति और व्यंग्य है सहमत हूँ. और यह भी की क्या इसे किसी एक फ्रेम से देखा जाना चाहिए ? साहित्य में और मनुष्य के जीवन में भी एक तरह की असामन्यता और असम्भावना होती है, जो चीजों को आगे ले जाती है, पता नहीं यह विद्रूप के किसी पारिभाषिक दायरे में आता है या नहीं, पर यह लेखन और जीवन दोनों को संपन्न तो करता ही है.आपने इसके कुछ नए आयामों की ओर इशारा किया है.

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