tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post8993184964753456361..comments2024-03-18T14:45:15.993+05:30Comments on समालोचन : अभिनव मुक्तिबोध : अरुण माहेश्वरीarun dev http://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comBlogger5125tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-20419624922972579352021-12-03T23:27:06.587+05:302021-12-03T23:27:06.587+05:30लेख का शीर्षक है - 'अभिनय मुक्तिबोध'। इसस...लेख का शीर्षक है - 'अभिनय मुक्तिबोध'। इससे भ्रम हुआ कि पुराने मुक्तिबोध के रंग ढंग, बुद्धि विवेक वाले किसी नए मुक्तिबोध की बात होने वाली है। पर काले छाप के बीच सफेद अक्षरों में 'अँधेरे में' लिखा देख थोड़ी आश्वस्ति मिली।<br /><br />पूरा लेख पढ़ने के बाद, लेख के 'इतने से' आयतन में अपने मुक्तिबोध को समेटा गया देख मुझे बहुत अजीब लगा। इसमें हमारे मुक्तिबोध अनभिव्यक्त ही रह गए हैं। Sheshnath Prasadhttps://www.blogger.com/profile/12846059616209808824noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-66584980214928890592018-07-10T21:34:02.149+05:302018-07-10T21:34:02.149+05:30Arun ji you writes very well on Bhagwān Śri Abhina...Arun ji you writes very well on Bhagwān Śri Abhinavgupta.arya vishnuhttps://www.blogger.com/profile/00417939650328124201noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-34741603770443359332017-03-21T11:42:37.804+05:302017-03-21T11:42:37.804+05:30इस लेख पर मित्र नन्द भारद्वाज जी ने यह टिप्पणी की ...इस लेख पर मित्र नन्द भारद्वाज जी ने यह टिप्पणी की है : <br /><br />"अरुण जी, आपके इस गंभीर विवेचन को दो बार पढ़ने के बाद जरूरी लगा कि इस पर और गहराई से विचार किये जाने की जरूरत है। मुक्तिबोध के काव्य और उनके साहित्यिक अवदान के पुनर्मूल्यांकन की दृष्टि से यह विवेचन निश्चय ही महत्वपूर्ण है, लेकिन लेख के आरंभ में आपने अपने जिस पूर्व आलेख का सार-संक्षेप प्रस्तुत करते हुए आगे के विवेचन में डॉ रामविलास शर्मा और अन्य के मुक्तिबोध संबंधी मूल्यां कन या प्रत्यवभिज्ञादर्शन जैसे शास्त्रीय संदर्भों के हवाले से जो विस्तार दिया है, वह महत्वपूर्ण तो बेशक है लेकिन मुक्तिबोध पर केन्द्रित आपके विवेचन को उलझा भी देता है – यहां तक कि ‘अंधेरे में’ कविता पर भी ठीक से केन्द्रित नहीं हो पाता। अपने विवेचन को इतना गरिष्ठ बनाने की बजाय अगर मुक्तिबोध के अवदान की विशिष्टता पर टिककर बात कर पाते तो निश्चय ही यह अधिक बोधगम्य हो पाता। इसमें कोई संदेह नहीं कि आपका यह विवेचन मुक्तिबोध के ऐतिहासिक महत्व को बेहतर ढंग से रेखांकित करता है।"<br /><br />इसके जवाब में मैंने उन्हें लिखा है : <br /><br />Nand Bhardwaj ji, आपकी बात को अच्छी तरह से समझ रहा हूं। यह लेख ‘लहक’ पत्रिका के लिये लिखा गया था, फिर भी मैंने इसे पहले समालोचन और अपने ब्लाग पर इसीलिये जारी किया, ताकि कुछ इसी प्रकार की प्रतिक्रियाएं मिल सके, जिनसे अगर जरूरी लगा तो लेख का पुनर्विन्यास किया जाए। <br /><br />दरअसल, मेरे सामने यहां सवाल सिर्फ मुक्तिबोध का नहीं रहा है। उससे भी बड़े सवाल मार्क्सवाद और उससे जुड़े तत्वमिमांसा और ज्ञानमिमांसा के पहलुओं को नये सिरे से विवेचन के दायर में लाने का रहा है। क्योंकि मार्क्सवाद के नाम पर सोवियत काल से जिस प्रकार के आधिभौतिक नैतिकतावादी मानदंडों को जीवन के दूसरे पक्षों की तरह ही सौन्दर्यशास्त्र के क्षेत्र में भी लागू करने की एक परंपरा चल रही है, उसके चलते हिंदी आलोचना अपनी प्राणशक्ति को पूरी तरह से गंवा चुकी है। और इसका खामियाजा मुक्तिबोध सहित पूरे हिंदी साहित्य को किसी न किसी रूप में चुकाना पडा है। मेरी किताब ‘आलोचना के कब्रिस्तान से’ के सभी लेखों में आपको किसी न किसी प्रकार से समान रूप से यह विमर्श मिल जायेगा। <br /><br />और जब खास तौर पर मुक्तिबोध का सवाल आता है, जिनको हम ‘80 के दशक के ऐतिहासिक दौर में साहित्य संबंधी हमारी चिंताओं के नवोन्मेष के केंद्र में पाते हैं, तब उन्हें सही ढंग से परिभाषित करने में इस प्रकार का तत्वमूलक विवेचन और भी जरूरी सा हो जाता है। उनके जरिये साहित्य संबंधी चिंतन की जिन तमाम जड़ताओं को पूरी तरह से टूट जाना चाहिए था, वह काम आज अगर अधूरा ही रह गया लगता है तो यह जरूरी हो जाता है कि उनकी अभिनवता को बिल्कुल भीतर तक जाकर खंगाला जाए। अब तक के सोच के पूरे खोल को पलट देने की प्रस्तावना की जाए। <br />इसीलिये, बहुत सारे प्रसंग कुछ अतिरिक्त लगने पर भी मैंने उन्हें किनारे रख कर आगे बढ़ना उचित नहीं समझा। ध्यान से देखने पर पूरा लेख आपको ऐसी चिंताओं के एक सूत्र में पिरोया हुआ ही मिलेगा।<br /><br />जहां तक ‘अंधेरे में’ कविता का सवाल है, मुक्तिबोध की यह कविता ऐसी है जिसपर हिंदी में शायद अब तक सबसे ज्यादा लिखा गया है। मैं उसप्रकार के किसी भी दोहराव के उबाऊपन में नहीं जाना चाहता हूं। उसके बजाय, मैंने उसके पूरे ढांचे को मुक्तिबोध की कामायनी चिंता के साथ जोड़ कर जिस प्रकार देखा है, उसमें प्रत्यभिज्ञाविमर्श की तत्वमीमांसा और ज्ञानमिमांसा का जो रूप देखा है, और उसकी रोशनी में आत्म-प्रकाश की उनकी जद्दोजहद को जिस प्रकार समझने की कोशिश की है, मुझे लगता है, उस पर थोड़ा ठहर कर गौर करेंगे तो आपको वह सब बेहद दिलचस्प और उत्तेजक लग सकता है।<br /><br />नन्द जी, मेरे दिमाग में इस पूरे विमर्श के आयाम सिर्फ मुक्तिबोध और साहित्य तक सीमित नहीं है। इसके दूसरे और ज्यादा व्यापक पहलू है। इसके गहरे राजनीतिक-सांस्कृतिक-दर्शनशास्त्रीय और आर्थिक आयाम भी है। इन दूसरे तमाम विषयों पर काम करते हुए भी हमारे मन में जो विचार आते रहे हैं, उन सबका भी यहां स्वाभाविक प्रतिबिंबन है।<br />Arun Maheshwarihttps://www.blogger.com/profile/08772482538231164054noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-89340539581932566762017-03-20T21:17:55.405+05:302017-03-20T21:17:55.405+05:30अरुण जी ने बहुत डिलिजेंटली इसे पोस्ट किया है। पोस्...अरुण जी ने बहुत डिलिजेंटली इसे पोस्ट किया है। पोस्ट एकाग्रता की मांग करती है। अपर्णा मनोजhttps://www.blogger.com/profile/03965010372891024462noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-19567053855732808482017-03-20T19:37:15.333+05:302017-03-20T19:37:15.333+05:30बहुत विस्तृत लेख है. धीरे धीर कई बार पढना होगा. जि...बहुत विस्तृत लेख है. धीरे धीर कई बार पढना होगा. जितना भी पढ़ा. माहेश्वरी जी की बहुज्ञता का कायल हुआ. अरुण देव ने जिस तरह का पोस्टर यहाँ प्रस्तुत किया है वह अपने आप में एक टिप्पणी है .राजेश सिंहnoreply@blogger.com