tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post8924360511333339659..comments2024-03-18T14:45:15.993+05:30Comments on समालोचन : रंग - राग : पीकू (Piku) : सारंग उपाध्यायarun dev http://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comBlogger10125tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-4550643556683133882015-05-18T08:57:04.812+05:302015-05-18T08:57:04.812+05:30पूरी मूवी को और उसकी भावना और मनोविज्ञान को समेटत...पूरी मूवी को और उसकी भावना और मनोविज्ञान को समेटते हुए एक अच्छी समीक्षा ..कल मैंने भी यह मूवी अपनी बेटी के कहने पर देखी जिसकी शुरुआत motion is emotion के स्लोगन से होती है - 'पीकू' वृद्धावस्था की शारीरिक व्याधियों के साथ उम्र के इस पायदान के मनोविज्ञान का विश्लेषण करती है जहाँ पिता ( अमिताभ बच्चन ) की देखभाल करती बेटी पीकू ( दीपिका ) उनके मोशन के ओबसेशन और लगातार घूमफिर कर हाईब्लड प्रेशर और कब्ज पर जा टिकने वाली उनकी बातों की सुई से झल्लाती है चिढ़ती है वस्तुतः वहीँ वह पिता को मन की गहराइयों से प्यार करती है ... पिता इस उम्र में कुछ ज्यादा सेल्फिश से हो जाते है और पीकू की छोबी मौसी जब जब पीकू को शादी कर लेने का सुझाव देती है तब तब वह छोबी से नाराज होते और विरोध करते दिखते है| वो स्त्री की स्वायत्ता के समर्थक के रूप में खुद को जाहिर करते हैं और जताते है कि वो नहीं चाहते कि शादी के बाद पीकू अपनी अस्मिता खोये| इस तरह पीकू की शादी की बात कही होने नहीं देते जिसकी वजह से पीकू उदास भी है| परिस्थितयों के चक्र में उलझा राणा चौधरी ( इरफ़ान खान ) उनके पिता पुत्री और उनके घरेलू नौकर के तिकड़म में उनके सफ़र का साथ बकौल ड्राइवर के रूप में होता है| जिसमे वह उनके घरेलू हो हल्लो बहसों के बीच में शरीक होता है .. और एक बार वह कड़े शब्दों में आपत्ति भी दर्ज करता है कि पिकू को आप ब्लेकमेल ना करें यह कह कर कि मैं इसके लिए भार हूँ और वह वृद्ध पिता बेटी की परेशानियों को समझता और अपनी तरह से बूझता भी है.... पिता बच्चों की तरह साइकिल चलाते हुए एक दिन घर से बहुत दूर जा कर शहर मोहल्ला देख आते हैं और कचोडी जलेबी खूब एन्जॉय करते है ..घर भी दिल खोल कर लाते है ... वो बहुत खुश है उनका कब्ज भी चला जाता है .और वह सदा के लिए आराम की नींद में चले जाते है<br />काफी हास्यमय स्तिथिया है मूवी में और इमोशनल भी ... बच्चों को भी जहाँ यह मूवी पसंद आएगी वाही शायद उमरदराज लोगों को भी आये .. और हमने तो लुत्फ़ लिया ही ...पर हां अपने पिता जी की याद पूरी फिल्म में आती रही... पिक्चर कहीं न कहीं हमसे जुड़े इमोशन पर भी लगती थी जो कि पिता पुत्री और पिता का इस उम्र का व्यवहार था ..याद आता है कि पिता जी भी लखनऊ में एक दिन १-२ घंटे के लिए कहीं चले गए . भैया भाभी जी परेशान हुए ..तब उन्होंने बाद में बताया की वो खूब मजे से बाजार घूमें ... ब्रिज के नीचे की लाइफ देखी कोल्ड ड्रिंक ली और अपने पसंद का चुरमुर खाया ... समालोचन को इस समीक्षा के लिए साधुवाद डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीतिhttps://www.blogger.com/profile/08478064367045773177noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-32919617726939482832015-05-16T07:40:37.089+05:302015-05-16T07:40:37.089+05:30बेहद खुबसूरत फिल्म--देखकर मन आनन्द से भर गया ---बे...बेहद खुबसूरत फिल्म--देखकर मन आनन्द से भर गया ---बेहतर समीक्षा के लिए साधुवाद<br />geeta kumarinoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-37407664840667472262015-05-15T17:12:49.649+05:302015-05-15T17:12:49.649+05:30कल ही देखी है यह फिल्म...बहुत ही सटीक समीक्षा........कल ही देखी है यह फिल्म...बहुत ही सटीक समीक्षा.....सारंग जी बधाई के पात्र हैं इसके लिए....<br />.बस फिल्म का अंत गले के ऊपरी हिस्से में दर्द दे गया...किसी के भी बाबा को मरना नहीं चाहिए...<br /><br />सुनीता सनाढ्य पाण्डेयPummyhttps://www.blogger.com/profile/04022873208734208825noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-90207842905971897942015-05-15T08:54:48.002+05:302015-05-15T08:54:48.002+05:30नेह और स्नेह का अप्रतिम ताना बाना है यह फिल्म .......नेह और स्नेह का अप्रतिम ताना बाना है यह फिल्म ......और एक बहुत मन से मानो भावनाओं की कुची से उकेरी गयी आलोचना के लिए भी साधुवाद !!!sheel kumaarnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-33248784212532341562015-05-15T08:53:18.960+05:302015-05-15T08:53:18.960+05:30इस फ़िल्म में एक छुपा हुआ सन्देश है उन parents के ल...इस फ़िल्म में एक छुपा हुआ सन्देश है उन parents के लिए जो बच्चों के देखभाल करने केबावजूद ये कहते हैं.. हम अपने आप को संभाल लेंगे .. हमें किसी की जरूरत नहीं... वहीँ दूसरी ओर एक डाइलॉग भास्कर दा चोट करता है.. कि हम तुमको birth दिया और तुम बुढ़ापे में हमारी सेवा करने के बजाय दूसरे के माँ बाप का सेवा करेगा !!!!प्रतिमा त्रिपाठीnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-17319322694284749512015-05-15T07:33:55.444+05:302015-05-15T07:33:55.444+05:30अपर्णा जी राम जी आशुतोष, और मालविका आप सभी का बहुत...अपर्णा जी राम जी आशुतोष, और मालविका आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया...! और हां अपर्णा जी क्या आपकी बेटी का नाम भी पीकू है? :) सारंग उपाध्यायhttp://vimarshupadhyay.blogspot.comnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-49934207849326204042015-05-14T19:55:32.237+05:302015-05-14T19:55:32.237+05:30अच्छी समीक्षा। पीकू यकीनन एक बढ़िया फ़िल्म है। इधर अ...अच्छी समीक्षा। पीकू यकीनन एक बढ़िया फ़िल्म है। इधर अरसे बाद ऐसी सुन्दर फ़िल्म देखी।मालविका हरिओमnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-43878200310705705972015-05-14T18:50:41.452+05:302015-05-14T18:50:41.452+05:30 बेहतरीन समीक्षा... देखना बहुत जरूरी है नहीं तो आप... बेहतरीन समीक्षा... देखना बहुत जरूरी है नहीं तो आप पर प्रश्नचिह्न लग सकता है<br />Ashutosh Mishranoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-43915602495855014612015-05-14T18:36:45.931+05:302015-05-14T18:36:45.931+05:30अभी देख नहीं पाया .... लेकिन इसे जल्दी ही देखने की...अभी देख नहीं पाया .... लेकिन इसे जल्दी ही देखने की इच्छा है | इसलिए भी कि अस्सी वर्षीय वृद्ध पिता का बेटा हूँ | एक ऐसे पिता का, जिनकी स्मृतियों ने धीरे-धीरे उनका साथ छोड़ दिया है | मैं इस जीवनं से मिलान करना चाहूंगा कि बालीवुड में इस महत्वपूर्ण विषय पर फिल्म बनाने की संवेदनशीलता है या बस बनाने के लिए इसे बना दिया गया है | <br /><br /> मद्रास कैफे इस दिशा में थोड़ी उम्मीद भी जगाती है, तो थोड़ी नाउम्मीद भी | एक अच्छे और संवेदनशील विषय को उठाने के बावजूद उसके निर्वहन में रह गयी कमजोरी अभी भी मुझे खटकती है | <br /><br />फिलहाल इस लेख के लिए सारंग जी को बधाई और समालोचन का शुक्रिया |रामजी तिवारीnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-3864450015662923702015-05-14T08:24:51.381+05:302015-05-14T08:24:51.381+05:30बहुत आत्मीय समीक्षा लिखी है सारंग आपने. देखिए, बेट...बहुत आत्मीय समीक्षा लिखी है सारंग आपने. देखिए, बेटी से फिल्म को सुनती हूं. पूरी कहानी मेरे अंदर वह डाल देती है. हर दृश्य मेरे भीतर उसने इस तरह बना दिए हैं जैसे बचपन में वो घर की दीवारों पर ड्रॉइंग करती थी. मेरा मन उन दीवारों को हमेशा वैसे ही रखने का था. <br />सारंग पीकू भी इसी तरह मेरे मन में रंगी दीवार हो गई है. <br />समग्र समीक्षा है.अपर्णाhttps://www.blogger.com/profile/13934128996394669998noreply@blogger.com