tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post8111106132041759177..comments2024-03-18T14:45:15.993+05:30Comments on समालोचन : उत्तरायण (प्रचण्ड प्रवीर) : वागीश शुक्ल arun dev http://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comBlogger11125tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-45833443353877586482020-02-08T01:44:42.249+05:302020-02-08T01:44:42.249+05:30प्रचण्ड प्रवीर का आभार हिंदी साहित्य की नई खिड़किय...प्रचण्ड प्रवीर का आभार हिंदी साहित्य की नई खिड़कियां खोलने हेतु।GKhttps://www.blogger.com/profile/13829527895396894915noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-24498247222574587112019-11-29T14:26:26.704+05:302019-11-29T14:26:26.704+05:30सार्थक कविताएं।सार्थक कविताएं।विश्वमोहनhttps://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-1085615955066659292019-11-23T05:30:56.791+05:302019-11-23T05:30:56.791+05:30पुस्तक प्राप्त करने हेतु इस लिंक पर जाएँ
1. उत्तरा...पुस्तक प्राप्त करने हेतु इस लिंक पर जाएँ<br />1. उत्तरायण - https://www.amazon.in/Uttarayan-Prachand-Praveer/dp/8193427173/<br />2. दक्षिणायन - https://www.amazon.in/Dakshinayan-Prachand-Praveer/dp/8193427181/नित्य प्रकाशनnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-38449768197589177142019-11-13T23:38:49.513+05:302019-11-13T23:38:49.513+05:30जिज्ञासा जगाने वाली समीक्षा ..लेखक-समीक्षक को बधाई...जिज्ञासा जगाने वाली समीक्षा ..लेखक-समीक्षक को बधाई और 'समालोचन' का आभार Shyam Bihari Shyamalhttps://www.blogger.com/profile/02856728907082939600noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-40171555151157425282019-11-13T18:15:37.345+05:302019-11-13T18:15:37.345+05:30आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14.11.2019 को चर्चा मंच ...आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14.11.2019 को चर्चा मंच पर <a href="https://charchamanch.blogspot.com/2019/11/3519.html" rel="nofollow"> चर्चा - 3519 </a> में दिया जाएगा । आपकी उपस्थिति मंच की गरिमा बढ़ाएगी ।<br /><br />धन्यवाद<br /><br />दिलबागसिंह विर्कदिलबागसिंह विर्कhttps://www.blogger.com/profile/11756513024249884803noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-64064786875099969702019-11-13T18:07:23.688+05:302019-11-13T18:07:23.688+05:30समीक्षा पढ़ के किताबों का इंतजार करना और भी मुश्कि...समीक्षा पढ़ के किताबों का इंतजार करना और भी मुश्किल हो गया है। किसी को पता है, उत्तरायण और दक्षिणायन, ऑनलाइन या दुकानों पर कब तक उपलब्ध हो जायेंगी? आशा करता हूँ, कि उन्हें पढ़ कर, उतना ही मज़ा आयेगा, जैसे कि 'जाना नहीं दिल से दूर', या 'भूतनाथ मीट्स भैरवी' पढ़ के आया था। सौरभhttps://www.blogger.com/profile/12647720031782002494noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-10821262312089835042019-11-13T16:25:19.562+05:302019-11-13T16:25:19.562+05:30हिंदी में बिल्कुल नए प्रकार का लेखन। प्रचण्ड प्रवी...हिंदी में बिल्कुल नए प्रकार का लेखन। प्रचण्ड प्रवीर का आभार हिंदी साहित्य की नई खिड़कियां खोलने हेतु। और, वागीश जी का धन्यवाद विस्तृत समीक्षा के लिए। nkhttps://www.blogger.com/profile/00148122818406746721noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-91587806912367641502019-11-13T14:18:31.461+05:302019-11-13T14:18:31.461+05:30बड़के लिफाफे को ठेलती समीक्षा । दूसरा वाक्य ही चित...बड़के लिफाफे को ठेलती समीक्षा । दूसरा वाक्य ही चित कर गया। सच पूछिये तो पूरी समीक्षा को पढ़ना भी लिफाफा ठेलने से कम नहीं है।<br />कहानी 'मिथुन' वागीश जी की उच्छ्वसित प्रशंसा के बरअक़्स फीकी है।शिव किशोर तिवारीnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-45890538503936776422019-11-13T14:17:24.233+05:302019-11-13T14:17:24.233+05:30ओफ ! वागीश शुक्ला की भूमिका को पढ़ने और उसके आधार ...ओफ ! वागीश शुक्ला की भूमिका को पढ़ने और उसके आधार पर कहानियों के बारे में अपनी एक धुंधली सी राय बनाने के बाद इस कहानी को पढ़ कर सचमुच चौक गया । <br /><br />हम तो भूल ही गए थे आलोचना की दुनिया में अध्यापकीय अघटन को । चंद महीनों पहले ही हमने कमोबेस ऐसी ही समीक्षाओं के संकलन, (वे समीक्षक की हांक के बजाय असंख्य विद्वानों की असंलग्न उद्धृतियों से अटी हुई थी) पर लिखा था — मुश्किल है कि पाठक इन लेखों से “ कहानियों के चरित्रों या उनके भीतर से व्यक्त यथार्थ के प्रवाह को पकड़े या उद्धृत विद्वानों के लगभग पहेलीनुमा कथन की गुत्थियों को सुलझाये ! (लेखक की) जिस लुप्तमान अस्मिता को प्रकाश में लाने की कोशिश के तहत समीक्षा लिखी गई, वह ज्ञान की चकाचौंध करने वाली रोशनी से पैदा हुई अंधता में लुप्त ही रह जाती है ।”<br /><br />इस पर आगे और लिखा कि “विचार या लेखन की इस खास शैली या संरचना को और गहराई से समझने के लिये हम यहां फिर एक बार हाइडेगर की ही एक और महत्वपूर्ण पदावली का प्रयोग करेंगे । वह है — Being-just-present-at-hand-and-no-more । प्राणीसत्ता उतनी ही जो बस आपके हाथ में हैं । आपके हाथ में का मतलब, उतनी भर जो आपकी मुट्ठी में समा सके । यह एक प्राणीसत्ता की भासमानता भी नहीं है ।(हमने उसमें पहले प्राणी सत्ता की भासमानता की चर्चा की थी) हाइडेगर लिखते है कि यहां तक की एक लाश का ठोस अस्तित्व भी शरीर रचना विज्ञान के छात्र के लिये संभावनापूर्ण सत्ता के रूप में रहता है जिसके जरिये वह जीवन के कई पहलुओं को समझ सकता है । इसीलिये उसका अस्तित्व जो हाथ में है, उतना भर नहीं होता । वह एक बेजान चीज है जिसमें प्राणों का स्पंदन नहीं है, लेकिन फिर भी कुछ संभावनाएं लिये हुए है । उससे भासमान अस्तित्व से जुड़ी परिघटनामूलक खोजों की संभावनाएं खत्म नहीं होती है । लेकिन जब आप किसी भी मृत या जीवित ठोस अस्तित्व को ही किसी जादू से लुप्त कर दे, उसकी भासमानता ही न बची रहे, बस उतना भर बचा रह जाए जो आपकी मुट्ठी में है, तो जाहिर है कि आपने जिसे लुप्तमान समझ कर उसकी अस्मिता को सामने लाने का बीड़ा उठाया है, इस उपक्रम में आप उसकी लुप्तमान या प्रकाशित या मृत हर प्रकार की संभावनापूर्ण अस्मिता, बल्कि अस्तित्व का ही लोप कर देते हैं । जब समीक्षक के वैचारिक सूत्र ही आलोचना का मूल विषय हो जाए तो रचना का सच तो आलोचना से गायब हो ही जायेगा ! सोचने पर लगता है कि क्यों न हमें विवेचित रचना का पाठ ही बिना किसी की मध्यस्थता के मिल जाता ! हम उसके प्रत्यक्ष को, और उसकी संभावनाओं को भी शायद अधिक अच्छी तरह से देख पाते !”<br /><br />आशा है, मेरा आशय स्पष्ट हो गया होगा । प्रचंड प्रवीर जी की कहानी पढ़वाने के लिये आपको धन्यवाद । उन पर फिर कभी, जब और कहानियों को पढ़ पाना संभव होगा, समग्रता से लिखना उचित होगा ।अरुण माहेश्वरीnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-60232008961310709272019-11-13T11:21:23.485+05:302019-11-13T11:21:23.485+05:30वैसे तो किसी भी पाठ के सच को उस विक्षिप्त मनुष्य क...वैसे तो किसी भी पाठ के सच को उस विक्षिप्त मनुष्य के सच की तरह लिया जा सकता है, जिसके लिये अपने अलावा बाक़ी दुनिया का अस्तित्व लुप्त हो चुका होता है या उस से जुड़ने की कड़ी टूट चुकी होती है । पर सच की ऐसी फाँक की जाँच के बिना जीवन के कैंसर की जाँच नामुमकिन होती है । इसीलिये पाठ की क़ीमत लेखक के मन की तरंगों से तय नहीं हो सकती है । यह उसकी संरचना के उन तंतुओं से तय होती है जिन्हें जाँच कर यथार्थ का प्रोग्नोसिस मुमकिन होता है । वह जीवन को उसकी गति में दिखाता है । <br /><br />अब यदि लेखक ठान ले कि पाठ का एकांगीपन, विक्षिप्तता अटूट रहे, उसमें कोई कहीं ठहर न सके, पाठक को छका-छका कर मारे तो फिर सचमुच पागल की हरकतों से दिल बहलाने के घटिया कौतुहल को पैदा करने का रास्ता भी चुना ही जा सकता है ।आदमी जहां तक मज़ा लेगा, लेगा और फिर अंत में दया दिखाता हुआ चलता बनेगा । <br /><br />वागीश शुक्ल की इस समीक्षा से कम से कम इतना तो साफ़ है कि छोटे से किसी समकालीन प्रसंग के सिर पर भारतीय ज्ञान परंपरा की कई शाखाओं के मिश्रण से तैयार किये गये कचरे के पहाड़ को लाद कर पाठक को इस पहाड़ में दबे चूहे को पकड़ने के लिये खूब छकाया गया है । इसमें भी अगर कोई किसी प्रकार की सुरंग खोदने की कोशिश करता है तो उसे उंबर्तो इको के उपन्यास, चेखव की कहानी और ग्रीक मिथकों आदि के संकेतकों से डरा कर भगा देने की आख़िरी दम तक की कोशिशें की गई हैं । <br /><br />प्रचंड जी की कहानियाँ मैंने पढ़ी नहीं है । इसीलिये उन पर कोई टिप्पणी करने का अधिकारी नहीं हूँ । यह टिप्पणी पूरी तरह से वागीश जी और विष्णु खरे की टिप्पणियों से मिलने संकेतों के आधार पर ही है, जिनमें लेखक में पाठकों से भारी श्रम करवाने के एक प्रकार के परपीड़क आनंद की बात मिलती है, पाठक का हासिल तो सिर्फ़ उसका भटकना और हाँफना है । यह बात वागीश जी की टिप्पणी पर भी है । वागीश जी का लोहा मानना होगा कि वे इतना लिख कर भी थके नहीं है ।व्यायाम आदमी की ज़रूरत भी होता है । यही है प्राण रहते अपना सर्वस्व लुटाने की ‘ज्ञान परंपरा’ ! Arun Maheshwarihttps://www.blogger.com/profile/08772482538231164054noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-77171569440817497262019-11-13T09:31:36.196+05:302019-11-13T09:31:36.196+05:30पढ़ा और कहानियों की नवीनता तथा विविधता का परिचय मिल...पढ़ा और कहानियों की नवीनता तथा विविधता का परिचय मिला, संग्रह पढ़ने की उत्सुकता जगी। कहानीकार, समीक्षक एवं समालोचन को बधाई व धन्यवाद।veethikahttps://www.blogger.com/profile/07917596152565253784noreply@blogger.com