tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post7947167987223932108..comments2024-03-18T14:45:15.993+05:30Comments on समालोचन : बहसतलब : रचना और आलोचना का सवाल :१:arun dev http://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comBlogger11125tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-12972685359075643952012-01-01T10:44:50.690+05:302012-01-01T10:44:50.690+05:30हिंदी में रचना और आलोचना का विवाद बहुत पुराना है ....हिंदी में रचना और आलोचना का विवाद बहुत पुराना है ...रचना बड़ी या आलोचना ..इस बिंदु पर रचनाकारों और आलोचकों में ठनती रहती है ..काफी दिन पहले यशश्वी कथाकार काशीनाथ सिंह ने ''आलोचना भी रचना है''जैसी पुस्तक लिखी थी .ये अलग बात है की उसका नोटिस अधिक नहीं लिया गया था|गोपाल जी ने इस मुद्दे को बहुत सार्थकता से हमारे सामने रखा है,वास्तव में रचना और आलोचना दोनों एक दूसरे से कमतर कभी नहीं हो सकती है ,क्योंकि कभी कभी सार्थक आलोचना की वजह से ही रचना सर्वग्राह्य हो पाती है .....नामवर जी की छायावाद और साही की जायसी और मुक्तिबोध की कामायनी-एक पुनर्विचार इसके ठोस उदाहरण हैं.हिंदी में आलोचना शुरू से ही बहुत शक्तिशाली रही है .शुक्ल जी ,हज़ारीप्रसाद जी ,नन्ददुलारे वाजपयी ,नगेन्द्र,नामवर,मैनेज़र पाण्डेय ,विश्वनाथ त्रिपाठी ऐसे बहुत नाम हैं जिन्होंने आलोचना को रचना की ही तरह रससिक्त किया और आगे बढाया.लेकिन आज का परि दृश्य बिलकुल खाली सा है ,कुछ एक उदहारण को छोड़ दे तो आलोचना का अर्थ पुस्तक समीक्षा से आगे नहीं जाता है और गोपाल जी की बात सही है कि यह भी प्रायोजित हो चूका है ..................बहुत अच्छा विश्लेषण है और बेबाकी से सारी बातें रखी गयी हैं .............बधाई गोपाल भाई ....परितोषhttps://www.blogger.com/profile/05931957208229640528noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-6640920081986392822011-12-29T07:17:10.068+05:302011-12-29T07:17:10.068+05:30आलोचना अपने समय से आगे भी होती है और पीछे भी |यह आ...आलोचना अपने समय से आगे भी होती है और पीछे भी |यह आलोचक का मन है कि वह अपनी बात को कहां ले जाना चाहता है और उसकी चाहतें क्या हैं ? आलोचना पर उसके व्यक्ति-मन का बहुत असर रहता है |जिस आलोचक को अपने लोकजीवन का कोई अनुभव नहीं होता वह लाख कोशिश करने पर भी उस दिशा में नहीं जाता |वह उन्ही पैमानों को आजमाता है जो उसके जीवन व्यवहार में अपनाए हुए हैं |, आलोचना कभी व्यक्ति के जीवन व्यवहार से अलग नहीं होती |यदि मैं एलीट वर्ग से हूँ तो मेरी आलोचना अपनी एलीट अभिरुचियों से मुक्त नहीं होगी जब तक कि मैं स्वयम को अपने आभिजात्य से मुक्त न कर लूं |आलोचक अपने वर्ग को कैसे छोड़े ,यह सवाल बना रहता हैJeevan Singhnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-64557899441689439992011-12-29T00:20:00.795+05:302011-12-29T00:20:00.795+05:30सबकी दिलचस्पी है कि बहस आगे बढ़े लेकिन आगे बढ़ायेगा ...सबकी दिलचस्पी है कि बहस आगे बढ़े लेकिन आगे बढ़ायेगा कौन? क्या यह प्रवृति भी आलोचना के विकास में बाधक नहीं रही है. प्रधान जी सही जगह पर उंगली रखते हैं कि पहले आलोचक के लिये अनुशासन बाधक नहीं था. हिन्दी के भी बड़े आलोचकों को देखे तो वे सिर्फ़ हिन्दी के विद्वान नहीं है. आज विशेषग्य बनने की दुनिया है विद्वान बनने की नहीं. आलोचना के लिये जो तैयारी चाहिये उसका प्रायः अभाव देखा गया है और तैयारी य्क्त आलोचना के अभाव में जो आलोचनायें हो रही हैं वह कोई रास्ता नहीं बना रही. छोटे छोटे कैनन बने हुए हैं, व्य्कतिगत पसंद ना पासंद है और गुटबाजी की महान परंपरा. ऐसे में पाठऔर संदर्भ के अध्य्यन के बजाय कुछ और हो रहा है तो क्या आश्चर्य?amiteshhttps://www.blogger.com/profile/05923164488045661896noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-47513680889226190652011-12-28T22:52:30.422+05:302011-12-28T22:52:30.422+05:30बहस आगे बढ़े.. मेरी भी दिलचस्पी है..बहस आगे बढ़े.. मेरी भी दिलचस्पी है..प्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan https://www.blogger.com/profile/08488014284815685510noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-62235291284700487932011-12-28T22:41:12.416+05:302011-12-28T22:41:12.416+05:30आलोचना का पाठ केंद्रित न होना स्वायत्त अथवा लोकतान...आलोचना का पाठ केंद्रित न होना स्वायत्त अथवा लोकतान्त्रिक होना नहीं है। वह पाठ केन्द्रित होकर भी स्वायत्त हो सकती है और `दृष्टि' गामी होकर भी स्वायत्तहीन। बल्कि दृष्टिगामिता ही बहुधा स्वायत्तता का हरण करने का कारक भी। "अक्सर वह पाठ को आलोकित करती है, व्याख्यित करती है" यह उसका उद्देश्य हो सकता है किन्तु ऐसा लगातार से हुआ कदापि नहीं है। गत लंबे अरसे से आलोचना रचनाशीलता के ह्रास का ही कारक बनती आ रही है। जितनी हानि आलोचना ने सृजन की है, उतनी किसी अन्य ने नहीं। आलोचना में स्वेच्छा चारिता और दबाव के द्वंद्व पर खुल कर विमर्श की आवश्यकता है।Kavita Vachaknaveenoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-8529560165038339602011-12-28T22:38:06.608+05:302011-12-28T22:38:06.608+05:30व्यवस्थित आलेख है. गोपाल जी को पढ़ना हमेशा से समाज...व्यवस्थित आलेख है. गोपाल जी को पढ़ना हमेशा से समाज-साहित्य के अंतर्वर्ती संवाद को पढ़ना रहा है .पर 'आज़ादी के बाद की निश्चिन्तता' को मैं बूझ नहीं पा रहा. इस आग्रह पर रचना और समाज के मूलभूत और पारस्परिक विवेचन में एक कार्यालयीय दृष्टिकोण अधिक सक्रिय और मजबूत होता हुआ लगता है और साहित्य का यह विभागीय बाबूवाद कहाँ से आरोपित होता है ('आलोचकों के जिम्मे सिर्फ़ साहित्य की दुनिया आई').. कम से कम आज़ादी के बाद की साहित्यक शुरुआती आहटें ऐसी नहीं सुनाईं पड़तीं (जहां मुक्तिबोध,रामविलास जी, और अन्य अग्रणी आलोचक साहित्य की प्रतिवर्ती क्रिया के रूप में आलोचना के क्षितिज को विस्तार भी दे रहे थे और आकार भी). जिसे गोपाल जी निश्चिन्तता कह रहे हैं मैं उसे एक लंबे अंतराल के तल्ख़ और आरोपित परिवेश से पैदा लापरवाह रोमान अधिक समझता हूँ. जो किसी भी किस्म की हस्तगत सफलता का स्वाभाविक बाई-प्रौडक्ट हो सकता है. <br />किन्तु अपनी समूची रचनाधर्मी समझ और अध्ययन से ( जोकि अधकचरा और अधूरा माना जा सकता है ) मैं यह दावे से कह सकता हूँ कि दुनियावी स्तर पर हासिल की गयी आजादियों के बाद का सृजन-परिवेश जितना भारतीय परिप्रेक्ष्य और साथ ही हिन्दी साहित्य में संतुलित, सजग और गतिमान रहा है वह किसी अन्य भाषा या देश का नहीं. <br />गोपाल जी को फिर से बधाई और मेरे अनधिकृत प्रवेश को नज़रंदाज़ कर दियाSubodh Shuklanoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-53712580980364239802011-12-28T22:01:50.106+05:302011-12-28T22:01:50.106+05:30gopal pradhan ji ne hindi samiksa kebare mein jo k...gopal pradhan ji ne hindi samiksa kebare mein jo kuch kaha hai wah bahut satyahai jiska nad bhadwaaj ji ne samarthan kiya mujhe wah baat bahut sateek lagti hai jeevan ko khono mein nahi bata ja sakta chahe arth ho samajik jimmedaari ho satta ho aam aadmi ka jeeevan ho jab taq hum gehre roop se samgra roop se jeevan se bnahi judtehum fori taur per hi chhezo ke najeriye bana sakte hai aur ye nazariyelagaataar hume kamjor soch dete hai hum kisi kshtra vishesh ke daksh mahir tabhi ho sakte hai jab hum anya vishyo per bhi utna hi sukshm drashti se sochnekeaadi ho .....aur ye bhi sahi hai ki khemawaad ..ab nahi reha ..ab ek khema bana hai tu mujhe chhaat mein tujhe chatu ....ek dusre ko hum aage badhane ke chakkar mein baat ke mul ko satya ko nasht kerne ke aaadi hue hai ..esliye samikjsha ka ster vishvasniya v pathniya nahi reha hai esme wo bebaak hokjer kehne ki taaqat nahi rehi hai fir bhi abhi asha shesh hai jab taq chintko ke jehan mein abhi taq es tarah ke vishay per likhne ki sachhai shesh hai ashamoujud hai gopla ji ko dhanyaawaaadAnonymoushttps://www.blogger.com/profile/12938650631044447394noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-77141891271455668102011-12-28T20:27:56.756+05:302011-12-28T20:27:56.756+05:30अच्छी शुरुवात है .कोशिश करूँगा कि शामिल हो सकूं .अच्छी शुरुवात है .कोशिश करूँगा कि शामिल हो सकूं .Virendra Yadavnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-21574407706379857352011-12-28T20:13:21.699+05:302011-12-28T20:13:21.699+05:30गोपाल प्रधान ने बहस की शुरुआत बहुत सही जगह से की ह...गोपाल प्रधान ने बहस की शुरुआत बहुत सही जगह से की है, हालांकि समीक्षा के बारे में उनके सोच से मेरी आंशिक असहमति है, लेकिन उनका यह विवेचन बहुत अर्थपूर्ण है कि हिन्दी आलोचना की संजीदा परंपरा का विकास कई कारणों से बाधित हुआ है। खास तौर से उनका यह विवेचन - "आजादी के बाद की निश्चिंतता ने एक तरह के एकांगी नजरिए को जन्म दिया जिसमें आर्थिक मामले सरकारी अर्थशास्त्रियों के हवाले रहे, राजनीति की उलझनों को नेताओं के भरोसे छोड़ दिया गया और आलोचकों के जिम्मे सिर्फ़ साहित्य की दुनिया आई. अगर दार्शनिक शब्दावली में कहें तो इससे सोच का अधिभूतवादी रवैया पैदा होता है. इस विरासत ने ही वह तंगनजरी पैदा की है" इस सार्थक शुरूआत के लिए समालोचन को बधाई, उम्मीद है इस पर हिन्दी आलोचना से जुड़े संजीदा लोग आगे आएंगे।नंद भारद्वाजhttps://www.blogger.com/profile/10783315116275455775noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-26294154784129404012011-12-28T18:34:40.430+05:302011-12-28T18:34:40.430+05:30समालोचन यानी एक दुनिया समानांतर। ई-युग की सांस्कृत...समालोचन यानी एक दुनिया समानांतर। ई-युग की सांस्कृतिकी को देखने-समझने का केलिडोस्कोपिक अनुभव।<br />अरुण के जीवट, लगन, बिना रुके बिना झुके जज्ब़े को सलाम !!!<br /><br />गोपाल प्रधान जी को भी बधाई.......<br />सुशील जी से सहमत ..अपर्णा मनोजhttps://www.blogger.com/profile/03965010372891024462noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-47691630263085857252011-12-28T18:31:25.610+05:302011-12-28T18:31:25.610+05:30"समालोचन" को हिंदी की समकालीन रचनाशीलता ..."समालोचन" को हिंदी की समकालीन रचनाशीलता का एक ऐसे महत्वपूर्ण ई-मंच का दर्जा दिया जा सकता है जिसका हर प्रयास साहित्य और संस्कृति के प्रति उसकी ईमानदारी और निष्ठा की बानगी प्रस्तुत करता है। बहुलताओं के बीच एक समास की तलाश - बेलाग-लपेट। हर पेज नयेपन के नए अंदाज में - कथ्य और प्रस्तुतिकरण दोनों में। कविता-कथा-सिनेमा-अनुवाद-वैचारिकी - सभी कुछ........और आज से एक नया अध्याय - बहसतलब़। “रचना और आलोचना” को उनके बीच मौजूद सह-अस्तित्व और शीतयुद्ध दोनों के नज़रिये से विश्लेषण अदीबों के बीच एक मुसलसल लेकिन दिलचश्प बहस का मुद्दा रहा है और आज भी है...... वह चाहे अरस्तू की Poetics हो या भरतमुनि का नाट्यशास्त्र। कोई उसे यथार्थ की अनुकृति कहता है तो कोई यथार्थ का नैरेटिव। कोई रचना को पाठ के कंस्ट्रक्शन में ढ़ूँढ़ता है तो कोई पाठ के डि-कंस्ट्रक्शन में। <br /><br />निर्मल वर्मा का एक वक्तव्य: “शायद मनुष्य के सारे कार्यकलापों में सबसे ज्यदा पेचीदा काम कलाओं का यह दोहरा चरित्र ही है जो एक ओर तो यथार्थ से अद्भुत साम्य रखता है लेकिन दूसरी तरफ इसका अपना निजी संसार है। यह कला को विरोधी गुण देता है। अगर यह यथार्थ की छाया मात्र है तो फिज़ूल है, और अगर यह पूरी तरह स्वायत्त है, अपने आप में प्रभुतासंपन्न, तो इस पर किसी भी सामाजिक और राजनैतिक दबाव का कोई प्रभाव नहीं होगा – वह प्रभाव जिसका खतरा कला पर हमेशा बना रहता है। दरअसल, स्वप्न जैसे यथार्थ और यथार्थ जैसे स्वप्न के बीच कला जिस तरह का नाज़ुक संतुलन बनाए रखती है वह दोनों दुनिया के कला-व्यावसायियों और भाववादियों के लिए निरंतर झँझलाहट और निराशा का कारण है। नतीजे में ये अपना बदला लेते हैं – एक इसे सत्ता का पिछलग्गू बनाता है और दूसरा केवल सौंदर्यशास्त्रीय वस्तु।“ <br /><br />समालोचन यानी एक दुनिया समानांतर। ई-युग की सांस्कृतिकी को देखने-समझने का केलिडोस्कोपिक अनुभव।<br />अरुण के जीवट, लगन, बिना रुके बिना झुके जज्ब़े को सलाम !!! <br /><br />गोपाल प्रधान जी को भी बधाई.......उन्होंने पूरे मामले को बहसतलब़ बना दिया है और ग़ौरतलब़ भी। आशा है लोग इस पर चर्चा करेंगे।सुशील कृष्ण गोरेhttps://www.blogger.com/profile/04554365008275575977noreply@blogger.com