tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post7487570099360098490..comments2024-03-18T14:45:15.993+05:30Comments on समालोचन : सैराट : संवाद (३): कैलाश वानखेड़ेarun dev http://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comBlogger19125tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-74360093205354087852017-06-03T09:15:11.783+05:302017-06-03T09:15:11.783+05:30क्या बोलें समझ नहीं आ रहा। ना फिल्म देखी है और न...क्या बोलें समझ नहीं आ रहा। ना फिल्म देखी है और ना ही कोई साहित्यिक जानकारी और ना ही कभी यहाँ उपस्थित विभूतियों को पढा है। <br /> बस ईतना ही समझ पा रहा हूं हर नजरिये में तटस्थता मौन है। कुलदीप झालाnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-64756482866515739012016-06-26T11:08:52.296+05:302016-06-26T11:08:52.296+05:30समालोचन पर आप सबको पढ़कर अच्छा लगा। आप एक फिल्म ‘सै...समालोचन पर आप सबको पढ़कर अच्छा लगा। आप एक फिल्म ‘सैराट’ के बहाने कितने बहस-मुबाहिसे संग पेश आ रहे हैं। भाषा की इस पेशगी में आपके मत, तर्क, विचार आदि प्रत्यक्ष हैं। आप सब की यह प्रस्तुति ‘सिनेमा’ को ज़िदा आदमी की तरह देखने का तमीज़ सिखलाती है। आपके अपने सिर्फ चिन्तन और विचार ही नहीं, अपितु पूर्वग्रह और दुराग्रह हो सकते हैं; लेकिन यह तो आपका निजी व्यक्तित्व है जिसे आपने बड़े जतन से गढ़ा और बनाया है। उस पर हमारी कोई टीका-टिप्पणी उचित नहीं। <br /><br />मुझे आश्चर्य संग प्रसन्नता है कि आपका लेखकीय/पाठकीय-वैविध्य यानी कैनवास कितना बड़ा है। आप अपनी पढ़न्तु/लिखन्तु दुनिया में अंग्रेजी, मराठी, हिंदी (हो सकता है अन्य भाषाओं) में पँवरते हैं। मुझ जैसे शिक्षित लड़के के लिए यह बड़ी सीख है। शिक्षाप्रद है यह देखना कि वैचारिकी कैसे अन्तरसांस्कृतिक सेतु बन जाने का काम करती है। वाद-विवाद-संवाद का मुहावरा गढ़ती है। वह भलमनसाहतपूर्ण हो, तो सामज, समुदाय, समूह, वर्ग, वय आदि के असंगत तथा अमानुषिक सामाजिक स्तरीकरण के विरूद्ध अपना हस्तक्षेप निर्मित करती है। आप सब संचार की भाषा में ‘ओपेनियन लिडर’ की भूमिका में हैं; आपको पढ़कर आपके विचारों के बारे में ही नहीं आपके बारे में भी हम बहुत कुछ जान लेते हैं। मेरी समझ से शब्द और शब्दावली के बीच उगे अर्थ को पाठक सबसे संवेदनशील तरीके से पकड़ता है; जो चलताऊ आलोचक चाहकर भी नहीं पा सकता। hindirgu.blogspot.inhttps://www.blogger.com/profile/09203365633409709181noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-76585270396287478252016-06-03T12:53:35.694+05:302016-06-03T12:53:35.694+05:30http://chhammakchhallokahis.blogspot.in/2016/05/30...http://chhammakchhallokahis.blogspot.in/2016/05/302.html?m=0<br />सैराट पर मेरी टिपण्णी यहाँ पढ़ी जा सकती है। फ़िल्म को फ़िल्म की तरह भी देखे जाने की कोशिश हो। भावना की चाशनी इतनी गाढ़ी ना हो कि फ़िल्म और उसका क्राफ्ट उसमें दबकर रह जाए। ...कैलाश जी से क्षमा याचना सहित। Vibha Ranihttps://www.blogger.com/profile/12163282033542520884noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-1650759744553666382016-05-25T11:25:24.516+05:302016-05-25T11:25:24.516+05:30हिंदी के प्रारम्भिक लेखक हिंदी के साथ साथ मराठी भी...<br />हिंदी के प्रारम्भिक लेखक हिंदी के साथ साथ मराठी भी जानते थे. भारतेंदु ने अपने नाटकों में मराठी का प्रयोग किया है. सरस्वती के महान संपादक महावीरप्रसाद द्विवेदी ने तो मराठी से हिंदी में पर्याप्त अनुवाद किये हैं. <br /><br />‘सैराट’ संवाद भाषाओँ की सीमा से परे जा चुका है. समालोचन में यह चौथा आलेख न केवल ‘मराठी मानुष’ का है बल्कि मराठी में है. इससे पहले इस पर विष्णु खरे का हिंदी में लिखा, आर. बी. तायडे का अंग्रेजी में तथा कैलाश वानखेड़े का हिंदी में लिखा आलेख पढ़ चुके हैं. समालोचन इस तरह से हिंदी-मराठी सहयोग का भी मंच बन चुका है.<br /><br />प्रेक्षक का ''सैराट'' झाले असावेत? <br />(क्या दर्शक ''सैराट'' हो जाएँ ?)<br />____________________<br />जयंत पवार <br />http://samalochan.blogspot.in/2016/05/blog-post_25.htmlarun dev https://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-63146605296223246632016-05-24T23:30:47.017+05:302016-05-24T23:30:47.017+05:30विष्णु जी नेहरुवियन युग से इतने प्रभावित हैं (ये व...विष्णु जी नेहरुवियन युग से इतने प्रभावित हैं (ये विष्णु जी का पूर्वाग्रह है और विष्णु जी पर मेरा) कि आने वाली पीढ़ी से नाउम्मीदी की गाँठ को कसते जा रहे हैं। कोई बदलाव नहीं हो सकता की मुद्रा में घर के अनुभवी झल्लाए पीड़ित बुज़ुर्ग की भाँति उपदेश पर उपदेश दे रहे हैं जबकि आने वाली पीढ़ी आपको ससम्मान वक़्त के साथ यथार्थ भी बया करना चाहती है। मैंने कहा था 200 300 वर्ष में अगर हो गया तब यानी उम्मीद की डोर पर ये नैतिकता की पतंग उड़ रही है।<br />पूरे समाज में सब अच्छा ही या सब बुरा ही नहीं है ग्रे भी है या कहें ग्रे ही है।... यहाँ एक लेख के भीतर आप सब नहीं कह सकते पर एक ही सिनेमा या साहित्य की किसी एक विधा में आपको सब कुछ चाहिए होता है।<br />अरे गुरुदेव किसी एक पार्ट में नहीं ज़िन्दगी अपनी सम्पूर्णता में भी टुकड़ो टुकड़ो से मिलकर बनती है यह आप हम सभी से बेहतर और व्यवस्थित रूप से जानते हैं।<br />भावी पीढ़ी को यदि आप अखबार और trp न्यूज़ के बाहर खोजेंगे तो हो सकता है हमारे जैसे आपको चाहने वाले जो आपकी बातो का ज़वाब भी दे सकें मिल सकते हैं पर आप को सुनने को तैयार रहना चाहिए।<br />पर हमारी पुरानी पीढ़ी की एक ग्रन्थी है वो ज़वाब को बेज़्ज़ती या असम्मान समझ लेती है। कृपया ऐसा एकदम न समझें।मैं फ़िल्म से इतर हो गया आप सभी क्षमा करेंगे...<br /><br />फ़िल्म एक विराट ब्रह्माण्ड के विराट जीवन के किसी एक छोटे से हिस्से को प्रस्तुत कर पाती है। पहल पार्ट खंडाला न होकर मोछिया उठान का प्रेम है जिसने दर्शकों की भीड़ ज़रूर बढ़ाई होगी।<br />छोटे कस्बे में जिसे भी उस उम्र में प्रेम हुआ होगा ऐसा ही मिलता जुलता होगा।<br />हाँ ऐसी लड़की(प्रेमिका)मिलना थोडा दुःसाध्य है।<br />पर ऐसे परिवारों की कमी नहीं है।<br />यदि बिना प्रेम के कहानी कही जाये और विषय यही हो तब क्या कॉमर्शियल हिट होगी।<br />धर्मवीर भारती जी उपन्यास प्रेम के चलते आज भी हिट है।<br />और अंधायुग केवल एकेडमिक रंगमंच या क्लासरूम ताज सीमित हो गया है। इसी विषय पर नाच्यो बहुत गोपाल भी जिसमे प्रेम का एक नया व्यवहार है।<br />खुरदुरे पुराने और कस्बाई जीवन के बीच चटख रंग आपको अंत तक दिखलाई पड़ते हैं जो आपकी आँखों का सुकून बने रहते हैं(पहला पार्ट)<br />एकदम रूखे चेहरे संगीत भी रुखा दृश्यविधान भी रूखे पर अंतिम दृश्य एकदम चटख खूनी लाल(सन्नाटे का संगीत या कहें रुदन)<br />Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-36802993114018756942016-05-24T22:05:58.168+05:302016-05-24T22:05:58.168+05:30विष्णु जी आप अपने आपको मराठी मानुष मानते है तो कवि...विष्णु जी आप अपने आपको मराठी मानुष मानते है तो कविता महाजन की टिप्पणी पढ़ समझ गए होंगेkailashhttps://www.blogger.com/profile/05658982773601772565noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-38846623621245867112016-05-24T22:05:05.351+05:302016-05-24T22:05:05.351+05:30आपने सैराट का संक्षिप्त अर्थ ''पलायन'&...आपने सैराट का संक्षिप्त अर्थ ''पलायन'' चुना. दुर्गेशसिंह, कमलेश पाण्डेय के बताये जाने पर भी आप पलायन पर टिके रहे.सैराट का अर्थ किसी भी दृष्टी से,शब्दकोष से पलायन नही है. जो मराठी जानते है वे किसी भी सूरत में पलायन को स्वीकार नही कर सकते है.२/ आपने लिखा 'सेक्स' उतना नहीहै?'' सैराट में<br />कितना है? सेक्स है ही नही.नागराज चाहते तो सेक्स डाल सकते थे.सेक्स वर्जित नही है.सहज है.सामान्य क्रिया है मनुष्य की.इसलिए इसका उपहास क्यों?३/ आपने लिखाहै,''यहाँ ध्यान रखना होगा कि विजातीय प्रेम/विवाह तथा दलित-स्वीकृति के मामले में मराठी संस्कृति तब भी कुछ पीढ़ियों से अपेक्षाकृत शायद कुछ कम असहिष्णु हुई प्रतीत होती है. ''मराठी संस्कृति क्या होती है? मराठी संस्कृति नाम की कोई संस्कृति नही है.यह बड़ा भारी भ्रम है कि कथित मराठी संस्कृति अपेक्षाकृत कम असहिष्णु है. जवखेडा में दलित लड़के के टुकड़े टुकड़े कर दिए थे.शेगांव में लडके की हत्या कर जला दिया और नदी में राख बहा दी.ये दो साल पुराने उदाहरण है.और बहुत से उदाहरण दिए जा सकते है.४/ निमाड़ पृष्टभूमि पर भालचंद जी की ''चरसा'' पढ़ना जरुरी है संयोग से दस साल मै निमाड़ में रहा हु..संयोग से इंदौर और विदर्भ से हूँ५/ आपने लिखा है,''विचित्र तथ्य है कि फिल्म की नायिका वास्तविक जीवन में अब भी नाबालिग़ है और शायद नायक भी'' क्या विचित्र लगा सर आपको?<br />६/मराठी प्रेस की एखाद खबर दिखांएंगे?आपको एक भी प्रतिक्रिया देखने को नही मिली जबकि मराठी में ढेर सारा लिखा गया है.विवाद हुआ है.अनावश्यक सवाल उठे है.वोआपको नही दिखे,तो इस बारे में कुछ नही कहा जा सकता. ७/ आठ मई को लिखने के बाद अपने मित्र को मेल किया.उन्होंने लिखा कि हिंदी में तब तक(१२मई ) तीन टिपण्णी पढ़ी है,अर्थात लिखा गया है.इसके बाद इसे( फिल्म पर पहली बार लिखा है,इसलिए इसे कह रहा हु.) संपादित किया.इसलिए यह आपकी समीक्षा का जवाब नही है. यह पहले ही लिखा जा चूका था.बहस के मुद्दे पर लिखना था लेकिन लिख नही पाया.<br />८/विदर्भ में मेरे ममेरे भाई, सगे साले का प्रेम विवाह हुआ है. दोनों लडकियां आर्ची के समाज की है.उनके विवाह की घटनाएं बहुत है.वह कभी और हाँ यह अनावश्यक जानकारी कि सैराट जैसा गाँव जिया है.सैराट की तंगी बस्ती जैसी बस्ती में ही जन्मा,पला बढ़ा हु.शायद इसीलिए आपके लिखे हुए,''जहालत-भरा लिखित प्रमाण'' मुझे खटका.खैर आप बुजुर्ग है.kailashhttps://www.blogger.com/profile/05658982773601772565noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-80515454052174439672016-05-24T21:33:46.602+05:302016-05-24T21:33:46.602+05:30प्रिय कैलाश वानखेड़े जी, गजब का लिखा आपने। शब्द दर ...प्रिय कैलाश वानखेड़े जी, गजब का लिखा आपने। शब्द दर शब्द फिल्म चली आँखों के सामने(हालाकि अभी फिल्म नहीं देखी मैंने)। हर बार सामाजिक हकीकत से रूबरू कराती आपकी कलम ने इस बार भी वही किया जिसके लिए आप जाने जाते है। बेहतरीन समीक्षा।Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/15854514702681123759noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-57452507562331972542016-05-24T20:49:35.406+05:302016-05-24T20:49:35.406+05:30निदेशक को शायद समझ नहीं आया कि भयावह अंतिम दृश्य क...निदेशक को शायद समझ नहीं आया कि भयावह अंतिम दृश्य का निर्वाह कैसे करे.हममें से जो भी माता-पिता हैं जानते हैं कि दो साल के बच्चे सोते हुए (जीवित) माँ-बाप को भी देख कर उन्हें उठाने के लिए उनके पास बैठ कर उनके मुँह पर थपकियाँ देते हैं और थोड़ा शोर मचाने लगते हैं.दृश्य कितना भी भयावह होता,निदेशक को आकाश को माता-पिता के रक्त से सना उन्हीं के बीच में रोते हुए बैठालना ही चाहिए था.वहीं फिल्म ख़त्म होती.निदेशक की शैलीगत सुविधा के लिए अचानक मोहल्ला सुनसान हो जाता है और आकाश अपने अनाथ महाभिनिष्क्रमण पर एक मौन अंत में निकल जाता है.लाशों के बीच दर्जनों सवाल निरुत्तर पड़े हुए हैं.एक तो यही कि हमारे अन्यथा नारीवादी इस नाबालिग माँ की हत्या को किस तरह ले रहे हैं? वानखेड़े स्वयं दलित हैं - उनके ''विश्लेषण'' को लेकर अन्य दलित क्या सोच रहे हैं ?बेनामी कहते हैं कि मैं एक ही लेख में सारा उत्तर चाहता हूँ.मैं उसकी असम्भवता जानता हूँ लेकिन विडंबना है कि ठीक यही माँग मुझसे लगभग मेरी हर 1000 शब्दों की टिपण्णी से की जाती है.वह कह रहे हैं 200-300 साल में सब दुरुस्त हो जाएगा.हाल के बीस वर्षों के विनाशक 'भौतिक विकास' को छोड़ दें तो भारत में पिछले सैकड़ों वर्षों से सिर्फ हर तरह का नैतिक पतन ही हुआ है और रोज़ हो रहा है.आप कस्बाई दैनिक पढ़कर देखिए,''सैराट'' जैसी अनेक घटनाओं सहित वहाँ जो हो रहा है उसे साहित्य आदि में उतार पाना निरंतर असंभव-सा होता जाता है.मैं फिर बहुत स्पष्ट शब्दों में कहना चाहता हूँ,भले ही कितना नाटकीय ही क्यों न लगे, कि सशस्त्र मार्क्सवादी और आम्बेडकरवादी बदलाव के और कुछ भी इस देश और दुनिया को बदल नहीं सकता.बाक़ी सारी बहसें बेकार और जाहिल हैं.200-300 वर्ष मानवता के पास बचे ही नहीं हैं.Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/18139708644770350589noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-37653359448490041052016-05-24T20:00:46.997+05:302016-05-24T20:00:46.997+05:30सैराटमधल्या अनेक लहान-सहान मुद्द्यांवर देखील मराठी...सैराटमधल्या अनेक लहान-सहान मुद्द्यांवर देखील मराठीत खूप तपशीलात लिहिलं गेलं आहे. सुरुवातीचा दृश्यहीन कोलाहल आणि शेवटाची आवाजहीन दृश्यमयता यांच्या दरम्यान नागराजने शेकडो गोष्टी खुबीने गुंफल्या आहेत. चांगले पुस्तक अनेकवेळा वाचले जाते आणि दरवेळी त्यातले नवे काही कळते, तसे या चित्रपटाबाबत झाले आहे. हे बारकावे पहिल्या अर्धुकात देखील दिसतात, ज्यांपैकी काहींचा उल्लेख कैलाशजींनी केला आहे. ते जात आणि वर्ग आणि लिंगभेद अशा तिन्ही स्तरांवरचे आहेत. जी माणसं या अनुभवांमधून गेलेली आहेत, त्यांना ते 'दिसतात' आणि ते हे बारकावे 'बघतात' देखील. बाकी अनेकांना दिसत राहिले तरी त्यांच्याकडून ते बघितले जातेच असे नाही.<br />आधीचे दोन्ही लेख मी कालच वाचले होते, पण हिंदीत सविस्तर लिहिणे सवयीचे नाही, त्यामुळे भाषेत चुका होण्याच्या धास्तीने लिहिणे टाळले. खरेतर विष्णुजींच्या लेखाचा प्रतिवाद करता येतील असे अनेक मुद्दे आहेत.<br />Kavita Mahajannoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-72160786206245115042016-05-24T19:09:26.643+05:302016-05-24T19:09:26.643+05:30विष्णु जी क्या चाहते हैं कि नृसंशता को और भी उघाड़ ...विष्णु जी क्या चाहते हैं कि नृसंशता को और भी उघाड़ देना चाहिए था। आकाश को पिता के साथ वापस ले आना चाहिए था...और फिर...<br />क्या यहाँ उन तमाम ऐसे जाहिलो के मस्तिष्क में सम्मान या सामंती ऐठ को खुरच खुरच कर निकाला जाये?<br />क्या दर्शक दीर्घा में बैठे लोग बस आखिरी सीन देखकर फिर वही ढाक के तीन पात हो जाते है?<br />विष्णु जी ने एक साथ कई प्रश्न उठाए हैं मुझे वे प्रश्न यक्ष के लगते हैं जिनका उत्तर भी अभी नहीं मिला है युधिस्ठिर को...ये प्रश्न प्रत्येक क्षेत्र के प्रश्न हैं कि जैसे किस नेता को किसने चुना क्यों चुना क्या पसंद था या दलित था या सवर्ण था या सेक्युलर था या साम्प्रदायिक था ये सभी प्रश्न साहित्य के साथ जोड़िये फिर वही मिलेगा आप भारत की तस्वीर के साथ जोड़िये...अभी कोई उत्तर नहीं मिल पायेगा और विष्णु जी एक लेख में ही सारा उत्तर चाहते हैं...अरे 200 300 साल बाद यदि वास्तविक मनुष्य की नैतिकता,वास्तविक शिक्षा,स्वस्थ और स्वच्छ राजनीति, सिनेमाई साहित्य और भाषाई समझ यह सब विकसित हो जाये तब वही इसका उत्तर होगा...<br />फ़िल्म तो जो है या जो अब कम हो रहा है उसको दबाकर मवाद की तरह बाहर निकाल कर दिखाती सी लगती है...<br />सब कुछ में कहानी पुरानी ही है बस आपके मस्तिष्क में हैप्पी एंडिंग का स्त्राव हो ही रहा था कि ट्रेडजि का सामंती हथौड़ा कुछ दूसरा ही स्त्रावित करवाने लगता है।<br />सवर्ण का विरोध एक फैशन भी है वैसे सामन्ती सोच एक वायरस है यह वर्ण देखकर नहीं आती...धन बल वैभव के के साथ जो ऐठ अहंकार आता है वह कुछ भी करवा सकता है<br />व्यवस्था परिवर्तन एक लंबे समय की मांग करता है<br /> <br /><br /><br />Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-61137582547420889302016-05-24T17:03:48.228+05:302016-05-24T17:03:48.228+05:30जहाँ मुझे बेहद ख़ुशी है कि ''सैराट''...जहाँ मुझे बेहद ख़ुशी है कि ''सैराट'' पर मेरी टिप्पणी से यहाँ तक बात बढ़ी,वहीं आश्चर्य यह है कि मेरे और तायडे साहेब के उठाए हुए प्रश्नों का कोई उत्तर या तो दे नहीं पा रहा है या देना नहीं चाहता है.वृथाभावुक शब्दावली से कुछ नहीं होने वाला.कैलाश वानखेड़े के पहले पैराग्राफ से लगता है कि वह स्वयं अपनी भावनाओं का कुछ विश्लेषण करेंगे लेकिन उन्हें मधुर-मधुर वाग्जाल में भयावह यथार्थ को फँसा देना ही मुफीद लगता है.वह लिखते हैं कि ''कैराट'' अपने समय के परिवर्तन को बेहद सहज तरीके से दृश्यांकित करती जाती है.कौन सा परिवर्तन ? एक सवर्ण,संपन्न,फ्यूडल माता-पिता-भाई द्वारा पिस्तौलें-जीपें लेकर अपनी ही बेटी का पीछा एक जानवर की तरह किया जाना ? एक दलित मास्टर को एक बार स्कूल में और दूसरी बार मालिक की कोठी में ज़लील किया जाना और उसका अपमान का घूँट पीकर रह जाना ? तीन साल तक प्रतिहिंसा को न भूलना और अंत में विधायिका मा की मिलीभगत से बेटी-दामाद की गर्दनें काट देना ? यदि नन्हा आकाश भी वहाँ होता तो उसे भी इसी तरह हलाल कर दिया जाता - ऐसा खूब हो रहा है - लेकिन स्वयं निदेशक के पास शायद इतनी नृशंसता दिखाने का साहस न बच रहा हो.या शायद उसने उसे ''The Return of Sairat'' के ओपनिंग सीक्वेंस के लिए बचा लिया हो.कैलाश वानखेड़े ने दो विवाहित प्रेमी युवा माता-पिता की लाशों के खून से तरबतर फिल्म को ''प्रेम पानी से तरबतर सैराट'' कहा है.लोकप्रियता की गुलाम भावुक लफ्फाज़ी आदमी को किस बौद्धिक कलावादी फाशिज्म तक ले जा सकती है यह उसका जहालत-भरा लिखित प्रमाण है. Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/18139708644770350589noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-32274223945458147992016-05-24T16:36:04.884+05:302016-05-24T16:36:04.884+05:30samiikshaa ne film dekhane kii utsukataa jagaa dii...samiikshaa ne film dekhane kii utsukataa jagaa dii .. प्रज्ञा पांडेयhttps://www.blogger.com/profile/03650185899194059577noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-57630466014014961732016-05-24T16:21:08.183+05:302016-05-24T16:21:08.183+05:30आप फिल्म देखकर निशब्द हुए और मैं आपको पढ़कर। फिल्म...आप फिल्म देखकर निशब्द हुए और मैं आपको पढ़कर। फिल्म देखना चाहता हूं पर देखने की हिम्मत होगी नहीं अब। रोज बेशर्म सवालों से जूझना पड़ता है कि कहां है अत्याचार, कहां है जातिभेद। Ek ziddi dhunhttps://www.blogger.com/profile/05414056006358482570noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-43887275275936283152016-05-24T15:45:12.421+05:302016-05-24T15:45:12.421+05:30पूरा पढ़ लिया कैलाश भाई। लगा एक बार और फिल्म देख ले...पूरा पढ़ लिया कैलाश भाई। लगा एक बार और फिल्म देख ले ली। एक बार फिर देखे हुए को जी लिया। फिर से कुछ देर के निस्तबद्ध और निशब्द हो गया। सैराट मराठी समाज के कोख से निकली जिंदा फिल्म है कोई प्रोजेक्ट नहीं जो किसी बड़े स्टार के बोर्ड पर आने से बन जाती है। इसलिए इसमें उस समाज का सच है। कैसा सच?? अवांछित प्यार को पाने की उमंग का। सपने भी तो सच का ही हिस्सा होते हैं! और प्यार करने की सजा का। एक मछुआरे के बेटे का पाटिल की बेटी से प्यार का। जमीनी सचाइयों उतनी खूबसूरत नहीं हैं जितना प्यार था इसलिए उसमें तनाव भी आता है। हाथपाई भी आती है पर एक क्षण को खोने के बाद परश्या और आर्ची दोनों को अपने साथी की अहमियत पता चलती है। फिल्म का पहला हिस्सा विष्णु खरे को 'आती क्या खंडाला' टाइप लगती है तो ये उनका नजर का दोष ही है किशेर जीवन के उमंगे ललक तड़प सपने उन्हें आती क्या खंडाला टाइप लगते हैं तो ये उनकी अपनी दिक्कत है। वे पूछते हैं कि दर्शकों ने फिल्म के किस हिस्से को स्वीकार कर इसपर अपना पैसा न्योछावर किया?? खरे साहब को फिल्म देखते वक्त अपने चारों तरफ आए का्रॅड को देखना चाहिए। उसमें अनगिनत परश्या मिलेंगे उन्हें। परश्या के मां-बाप मिलेगी। परिश्या को अपनाने का साहस करने वाली आर्ची दिखेंगी। इन सबको फिल्म याद रहती है टिकट के पैसे नहंी! <br />umashankar singhhttps://www.blogger.com/profile/12098859820786184365noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-90924398118827953272016-05-24T15:14:41.269+05:302016-05-24T15:14:41.269+05:30अच्छा लिखा.अच्छा लिखा.azdakhttps://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-14083342573631900202016-05-24T12:05:41.816+05:302016-05-24T12:05:41.816+05:30वाह कैलाश भाई. बहुत अच्छी समीक्षा लिखी है. इस फ़िल्...वाह कैलाश भाई. बहुत अच्छी समीक्षा लिखी है. इस फ़िल्म को देखते हुए मैंने भी वह सब कुछ महसूस किया जो आपने लिखा. आपका आभार. Farid Khanhttps://www.blogger.com/profile/04571533183189792862noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-38881671538115447032016-05-24T10:42:43.345+05:302016-05-24T10:42:43.345+05:30बेहद सुलझी हुई और फ़िल्म को गहराई तक खंगालती यह सम...बेहद सुलझी हुई और फ़िल्म को गहराई तक खंगालती यह समीक्षा भी कोरी फ़िल्म समीक्षा नहीं है, जैसे सैराट मात्र एक फ़िल्म कि देखा और निकल लिए। यह फ़िल्म की सम्वेदना को पकड़ती है और उसके सहारे के साहित्यिक कृति की भाँति उसकी समाजिक,सांस्कृतिक,आर्थिक और जातीय पड़ताल ही नहीं, क्षेत्रीय रंग तलाशती है। एक कथाकार की सधी हुई आलोचकीय दृष्टि से लिखी यह समीक्षा फ़िल्म समीक्षा के उस चलताऊ रूप को नकारती है जिसमें कला के अन्य अनुशासनों के लिए कोई स्थान नहीं होता। बधाई कैलाश भाई। बधाई समालोचन।जितेन्द्र विसारियाhttps://www.blogger.com/profile/16302695097101235019noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-25214536330648861082016-05-24T09:14:55.950+05:302016-05-24T09:14:55.950+05:30गहन प्रभाव छोड़ती है समीक्षा। क्या क्वांटम विज्ञान ...गहन प्रभाव छोड़ती है समीक्षा। क्या क्वांटम विज्ञान का अंतिम सत्य है? क्या उसका पोस्ट प्रपोसल सम्भव नहीं? <br />सैराट पर फ़रीद जी की टिप्पणी भी महत्त्वपूर्ण है। बहस ने सार्थक रूप लिया। अपर्णाhttps://www.blogger.com/profile/13934128996394669998noreply@blogger.com