tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post731868048774543443..comments2024-03-18T14:45:15.993+05:30Comments on समालोचन : सबद भेद : रीतिकाल : मिथक और यथार्थ : मैनेजर पांडेय arun dev http://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comBlogger18125tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-71751211152212015862016-06-28T08:06:30.432+05:302016-06-28T08:06:30.432+05:30बहुत बढ़िया लेख चुभने वाला.बहुत बढ़िया लेख चुभने वाला.Harsh Wardhan Joghttps://www.blogger.com/profile/12389755985429791949noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-16038729550707656252016-06-27T23:42:22.847+05:302016-06-27T23:42:22.847+05:30पाण्डेय जी की आत्ममुग्धता अदभूत है। औसत दर्जे का व...पाण्डेय जी की आत्ममुग्धता अदभूत है। औसत दर्जे का व्याख्यान है। मैं विष्णु खरे से सहमत हूँ। rajkumarhttps://www.blogger.com/profile/06281159111379979219noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-80116790667671024552016-06-10T14:22:00.408+05:302016-06-10T14:22:00.408+05:30मैनेजर पाण्डेय सर ने व्याख्यान दिया है...बात-चीत क...मैनेजर पाण्डेय सर ने व्याख्यान दिया है...बात-चीत की शैली में,इसलिए इसमें कुछ 'सन्दर्भ कथाओं' का होना कोई कमजोरी नहीं .हाँ,अगर कुछ तथ्यात्मक त्रुटियाँ हैं तो उनकी ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए विष्णु खरे सर का धन्यवाद . मैनेजर पाण्डेय सर ने बार-बार मूल साहित्यिक पाठों को स्वतंत्र दृष्टि से पढ़ने का आग्रह किया है,इससे होने वाले लाभ का उदाहरण व्याख्यान में दिया है,मेरे विचार से उनके व्याख्यान का उद्देश्य और महत्व यही है . रीतिकाल के प्रति बनी-बनाई रूढ़ियों के विपरीत अगर अपवादस्वरूप भी नई दृष्टि इस व्याख्यान से मिलती है तो हम पाठकों/श्रोताओं को मैनेजर पाण्डेय सर और अरुण देव सर के प्रति आभारी होना ही चाहिए .नए दृष्टि-संपन्न व्याख्यान में और नया जोड़ने के लिए विष्णु खरे सर को धन्यवाद. आप हिंदी अकादमिक जगत को कितना भी कोसिये ,मगर हम आपका सम्मान हिंदी कवि और संपादक के रूप में ही करते हैं . हम 'अंग्रेजी-फंग्रेज़ी'को बिलकुल नहीं गरियाएंगे. RAJESHhttps://www.blogger.com/profile/03158163736383740209noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-53456214950673209682016-05-22T14:48:16.077+05:302016-05-22T14:48:16.077+05:30 पांडेय जी का व्याख्यान मेरी समझ में आलोचना की एक ... पांडेय जी का व्याख्यान मेरी समझ में आलोचना की एक पुरानी लीक से हटकर एक नई स्थापना प्रस्तुत करता है जिसे भटकाव की संग्या देना असंगत लगता है| नई स्थापना कितनी तर्कसंगत है यह देखना चाहिए|Bsm Murtynoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-5785327026678955872016-05-20T12:49:56.894+05:302016-05-20T12:49:56.894+05:30इस व्याख्यान पर मेरी टिप्पणी का प्रत्युत्तर करते ह...इस व्याख्यान पर मेरी टिप्पणी का प्रत्युत्तर करते हुए विष्णु खरे सर ने रीतिकाल के साथ-साथ वीरगाथा काल और भक्तिकाल को भी पढ़ना-पढ़ाना *समयनाशक कामचोर अय्याशी* माना है। कम अज कम भक्तिकाल को तो बख़्श देते! इस लपटे में तो कबीर और सूरदास तक आ गए जिससे कोई भी पाठक शायद सहमत न होगा। यह साहित्येतिहास का संयत-संतुलित विचार नहीं कहा जा सकता। भक्तिकाल के निर्गुण साहित्य के मानदंड तो समकालीन आधुनिक साहित्य के मानदंड से श्रेष्ठ हैं।Sushil Kumarhttps://www.blogger.com/profile/09252023096933113190noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-72811693364629308952016-05-18T22:05:49.515+05:302016-05-18T22:05:49.515+05:30आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18-05-2016 को चर्चा मंच ...आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18-05-2016 को चर्चा मंच पर <a href="http://charchamanch.blogspot.com/2016/05/2347.html" rel="nofollow"> चर्चा - 2347 </a> में दिया जाएगा <br />धन्यवाद दिलबागसिंह विर्कhttps://www.blogger.com/profile/11756513024249884803noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-62428753211065496712016-05-18T18:43:23.070+05:302016-05-18T18:43:23.070+05:30मैंने कुछ तथ्य और तर्क दिए हैं.सुशील कुमार उनका को...मैंने कुछ तथ्य और तर्क दिए हैं.सुशील कुमार उनका कोई प्रतिकार नहीं कर रहे हैं.मैं अंग्रेज़ी का प्राध्यापक रहा हूँ.हिंदी की पेशेवर अकादमिक दुनिया को मैंने अधिकांशतः हास्यास्पद और उपेक्ष्य माना है.स्वयं सुशील कुमार पाण्डे को पूर्णरूपेण नकारते लग रहे हैं - क्या यह सास-बहू कलह है ? मैं स्वयं वीर-गाथा काल,भक्ति-काल और रीति-काल को इतना पढ़ना-पढ़ाना एक आपराधिक और समयनाशक कामचोर अकादमिक अय्याशी समझता हूँ.उससे आज तक हिंदी स्टडीज़ का कोई भला हुआ है न होगा.उन पर रिसर्च होती रहे - मुझे एतराज़ नहीं.Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/18139708644770350589noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-10037887958271002632016-05-18T18:23:08.625+05:302016-05-18T18:23:08.625+05:30भूल-सुधार के लिए मुझे बताया गया है कि वेंकटेश्वर क...भूल-सुधार के लिए मुझे बताया गया है कि वेंकटेश्वर कॉलेज उभयलिंगीय है.Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/18139708644770350589noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-15906915936709307732016-05-18T16:43:38.823+05:302016-05-18T16:43:38.823+05:30डा. मैनेजर पांडे के शोध-व्याख्यान * रीतिकाल: मिथक ...डा. मैनेजर पांडे के शोध-व्याख्यान * रीतिकाल: मिथक और यथार्थ * को विष्णु खरे जी की ऊपर की लम्बी टिप्पणी के साथ पढ़ना बहुत रुचिकर इस मायने में है कि खरे जी में पांडे जी की स्थापना को लेकर यहाँ एक 'सौतिया डाह' सा दिखता है, खरे सर की टिप्पणी की शैली एक गम्भीर पाठक को स्वीकार्य नहीं होगी। दूसरी और, रीतिकाल के यथार्थ को लेकर पूर्व के मिथक को चाहे जितना भी पांडे सर तोड़ने का प्रयास करें पर इस सच को नहीं झुठलाया सकता कि मध्यकाल में रीतिकाल की मुख्य प्रवृत्ति वासना-सौंदर्य की ही थी, गौण प्रवृतियाँ कुछ अन्य उदाहरण न तो उसके प्रधानता का वरण कर सकती, न ही रीतिकाल के मुख्य स्तंभ केशवदास, भूषण, पद्माकर और दीनदयाल गिरी जी को जनधर्मी कवि कहा जाएगा। फिर भी मैनेजर पांडे जी के इस व्याख्यान को खरे जी द्वारा भटकाव भरा कहना सर्वथा अनुपयुक्त है। पूर्व की जानकारी में यह आलेख कुछ नई जानकारियां जरूर उपलब्ध कराती हैं।Sushil Kumarhttps://www.blogger.com/profile/09252023096933113190noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-56016862845834719422016-05-18T08:16:04.240+05:302016-05-18T08:16:04.240+05:30दिल्ली में एक महिला महाविद्यालय में तीन वर्ष पहले ...दिल्ली में एक महिला महाविद्यालय में तीन वर्ष पहले दिए गए भाषण को,जिसे अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी ने तब (?) आशुलिपि में लिखा या किसी तरह टेपांकित किया होगा ,क्या ‘समालोचन’ पर प्रकाशित करवाने से पहले मैनेजर पाण्डे ने देखा और अनुमोदित किया ? ‘’भाषण’’ श्रोताओं से यारबाशी-भरी अनौपचारिकता और आत्माभिनंदन से ऊभ-चूभ कर रहा है.उसमें इतने कथन त्रुटिपूर्ण और भ्रामक हैं कि उनका मुक़ाबला एक उससे भी लम्बे लेख से ही किया जा सकता हैं.अव्वल तो यही कि ‘’भाषण’’ कई भटकावों और अनर्गलताओं का शिकार है.कभी-कभी कोई तारतम्य ही नहीं बैठता.मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझे कथित भक्ति-काल और रीति-काल से कोई भी सहानुभूति नहीं है – हिंदी की कक्षाओं में उनकी पढ़ाई ने लाखों विद्यार्थियों और हिंदी साहित्य का बहुविध नुकसान किया है और कर रही है.वह एक सवर्ण और कैरियरिस्ट अकादमिक माफ़िया के अस्त्र रहे हैं.यही मालूम नहीं पड़ता कि पाण्डे ठीक-ठीक कहाँ तक ‘’भक्ति-काल’’ मानते हैं और कहाँ तक ‘’रीति-काल’’.कहाँ तक मुस्लिम-शासन विरोध है और कहाँ तक फिरंगी-विरोध.सूर्यमल मिश्रण - पाण्डे जिनका और जिनके ग्रन्थ के नाम ठीक से जानते नहीं लगते - जिन्हें साहित्य अकादेमी ने करीब चार दशक पहले ’’राजस्थानी’’ चारण-परंपरा का महाकवि माना है और जिन्हें उचित-ही कोई भी समावेशी हिंदी का कवि नहीं मानता,किस तर्क में यहाँ मौजूद हैं ? इसी तरह मराठी महाकविद्वय ज्ञानेश्वर और तुकाराम,जिनके समय बहुत अंग्रेज़ नहीं आया था और जिनका कोई सम्बन्ध ‘’पाण्डे-थीसिस’’ से दिखाई नहीं दे रहा है,इस भटकाव-भरे भाषण में क्यों हैं ? ‘’ओवी’’ छंद को आप ओबी लिख रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि उसका आविष्कार ज्ञानेश्वर ने किया था जबकि यह सिद्ध हो चुका है कि ‘’ओवी’’ कभी से लोक-परंपरा में था और उसकी महिलाओं की शैली अलग थी और अभी-भी है,यद्यपि यह भी अप्रासंगिक है.सवर्णों द्वारा करवाई गईं ज्ञानेश्वर और तुकाराम की हत्याएँ ‘’भाषण’’ में क्या कर रही हैं ? पाण्डे ताच्छिल्य से किसी ‘’सिंधिया’’ का ज़िक्र करते हैं जैसे वह कोई अज्ञात राजा रहा हो,लेकिन वह शिवाजी और बाजीराव से कुछ ही कम महान मराठा शासक था – महादजी या महादाजी सिंधिया.पाण्डे को यह नहीं मालूम कि यह वंश अब भी ग्वालियर में ज्योतिरादित्य और वसुन्धरा राजे में जीवित है ! महादजी सिंधिया ने बाद में पराजय के बाद अंग्रेजों को अपना राज्य समर्पित कर दिया था.पद्माकर का कविता-पत्र व्यर्थ गया लगता है. हाँ एक ‘’खोजपूर्ण’’ चुटकुले के बतौर पाण्डे के लिए उसकी उपयोगिता बनी हुई है.वैसे पाण्डे चाहें तो इस ‘’भाषण’’ से अपना पिंड यह कर छुड़ा सकते है कि भाई कौन सा चेला या मुत्तवल्ली मेरे कहे को किस रूप में दर्ज़ कर रहा है उस पर कब तक नियंत्रण रखूँ.यदि शुक्लजी किसी महिला से प्रेम करते थे और उसे लेकर ठाकुर की चार अपेक्षाकृत मासूम पंक्तियाँ दोहराते थे तो वह उनके रीति-काल विरोध को एक पाखण्ड कैसे सिद्ध करता है ? वैसे भी पाण्डे का यह ‘’भाषण’’ अधिकांश भक्ति-काल और रीति-काल के मूल व्यर्थ,अप्रासंगिक,रूढ़,प्रतिक्रियावादी रूप को ज़रा भी हानि नहीं पहुँचाता.यूँ तो हिंदी के पाठ्यक्रमों को आमुल संशोधित करने की आवश्यकता है लेकिन 2014 के बाद अब वह थोड़ा टल गया लगता है.कुछ दूसरे ही दूरगामी संशोधनों का स्वर्ण-युग हमारे सामने है.विष्णु खरेnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-37852925014872454022016-05-18T08:14:36.713+05:302016-05-18T08:14:36.713+05:30समकालीन हिन्दी आलू+चना "आलोचना"
जो बखिया... <br />समकालीन हिन्दी आलू+चना "आलोचना"<br />जो बखिया आपने उधेडी है काबिले तारीफ<br />है।मैनेजर पांडे जी को कोलकाता में कुछ <br />गोष्ठियों में सुनने और उनसे संवाद करने<br />अवसर भी मुझे मिला है। जिस तार्किकता<br />से वह अपनी बात रखते है उसके हम कायल<br />हैं।Jitendra Dheernoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-54686978084036413162016-05-17T15:13:45.546+05:302016-05-17T15:13:45.546+05:30अरुण जी महत्वपूर्ण और नये नज़रिए से दिया गया मैनेजर...अरुण जी महत्वपूर्ण और नये नज़रिए से दिया गया मैनेजर पाण्डेय का शोधपरक व्याख्यान उपलब्ध कराने के लिए बहुत धन्यवाद ।Vijay Guptanoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-25768683427461589292016-05-17T15:13:07.173+05:302016-05-17T15:13:07.173+05:30
आँखें खोलने वाला आलेख है ये। न जाने क्यों रीतिका... <br />आँखें खोलने वाला आलेख है ये। न जाने क्यों रीतिकाल का अर्थ बिहारी के शृांगारिक दोहों से लगा लिया जाता है। इसे साझा करने के लिये धन्यवाद ��Devendra Sharmanoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-49641842773837638432016-05-17T13:25:02.780+05:302016-05-17T13:25:02.780+05:30बहुत सुंदर.
केशव, पद्माकर,ग्यानेश्वर के संदर्भ रो...बहुत सुंदर. <br />केशव, पद्माकर,ग्यानेश्वर के संदर्भ रोमांचक हैं. डा. मैनेजर पांडेय हर बार कुछ नया,अभूतपूर्व और खोजपूर्ण <br />लेकर आते हैं. ओरछा (छत्रसाल की राजधानी) में जहांगीर महल शायद अबुलफजल की हत्या के के संदर्भ से जुड़ा है. अरूण देव जी, इस व्याख्यान को उपलब्ध कराने के लिए आपका आभार.<br />Naresh Saxenanoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-61197519802218172402016-05-17T13:23:02.651+05:302016-05-17T13:23:02.651+05:30आपकी चिंता वाज़िब है .आलोचना की 'गिरोहबंदी'... आपकी चिंता वाज़िब है .आलोचना की 'गिरोहबंदी' और गिरोहबंदी की 'आलोचना' दोनों ही खतरनाक हैं.आलोचना के इस सन्दर्भ को प्रो .मैनेजर पांडेय के शोध और अध्ययन से जोड़ कर देखना ,पसंद आया .<br />Prajna Pathaknoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-17554744853549631942016-05-17T13:21:55.906+05:302016-05-17T13:21:55.906+05:30बहुत अच्छा लेख उपलब्ध कराया आपने.रीतिकाल पर एक नई ...बहुत अच्छा लेख उपलब्ध कराया आपने.रीतिकाल पर एक नई दृष्टि मिली इसे पढ़कर.वास्तव में ये आयाम अबतक अनिपस्थिति ही रहे.आपका आभार.Anil Avishraantnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-19692488449680130672016-05-17T13:20:04.725+05:302016-05-17T13:20:04.725+05:30पांडेय जी को रीतिकाल पर अपनी दृष्टि से और लिखना चा...पांडेय जी को रीतिकाल पर अपनी दृष्टि से और लिखना चाहिए क्योंकि कई बार ऐसा लगता है जैसे हिंदी आलोचना इतिहास की निरंतरता वहां पर खो देती है।वैसे, इस बीच नंदकिशोर नवल जी की एक पुस्तक रीतिकाव्य पर आई है !!<br />Arunakar Pandeynoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-31171309242088097592016-05-17T11:06:09.272+05:302016-05-17T11:06:09.272+05:30मैं हिंदी साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा पर साहित्...मैं हिंदी साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा पर साहित्य का विद्यार्थी तो हूं|पांडेयजी की मौलिकता और गहरी शोधदृष्टि का मैं प्रारंभ से कायल रहा हूं| जितनी सहजता और सुबोधता से वे अपनी मौलिक प्रतिपतितियां प्रस्तुत करते हैं, वह चकित करने वाली होती है, और श्रोता पर गहरा प्रभाव छोड़ जाती है|BSM Murtyhttps://www.blogger.com/profile/17591886224159585711noreply@blogger.com