tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post7156023481463303026..comments2024-03-18T14:45:15.993+05:30Comments on समालोचन : सबद भेद : सेवासदन : हुस्न का बाज़ार या सेवा का सदन : गरिमा श्रीवास्तवarun dev http://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comBlogger7125tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-45288273162615630162020-07-27T09:16:37.919+05:302020-07-27T09:16:37.919+05:30यह टिप्पणी विष्णु खरे की है.
यह टिप्पणी विष्णु खरे की है.<br />arun dev https://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-8585110749537060002018-08-01T22:10:36.100+05:302018-08-01T22:10:36.100+05:30अपनी तरह का शोधपरक लेख.उत्कृष्ट भाषा और रोचक तथ्य ...अपनी तरह का शोधपरक लेख.उत्कृष्ट भाषा और रोचक तथ्य से परिपूर्ण इस आलोचनात्मक लेख में कई ऐसे बिंदु हैं जो औपनिवेशिक भारतीय मानसिकता के अंतर्द्वंदों की गहरी पड़ताल करते हैं.प्रेमचंद के बहाने बहुत सी नयी बातों की जानकारी हुई.आश्वस्तिदायक है कि हिंदी आलोचना का क्षेत्र विस्तार हो रहा है.pashyanteehttps://www.blogger.com/profile/04535211377159638323noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-4458186586589722492018-07-28T11:44:18.560+05:302018-07-28T11:44:18.560+05:30तद्भव में पढ़ लिया था। गंभीर आलेख है। प्रभावशाली है...तद्भव में पढ़ लिया था। गंभीर आलेख है। प्रभावशाली है। व्यापक परिदृश्य में सेवासदन को तथा प्रेमचंद की दृष्टि को पहली बार उद्घाटित किया गया है। बांग्ला और बाज़ारेहुस्न के संदर्भों से लेख अधिक समृद्ध हुआ है। दिल से बधाई इस महत्वपूर्ण आलेख के लिए।arun hotahttps://www.blogger.com/profile/17511918445587009943noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-52099682686455733702018-07-17T09:16:33.843+05:302018-07-17T09:16:33.843+05:30लेख अभी-अभी पढ़ कर खत्म किया . लेख पढ़ कर कुछ बेहतर ...लेख अभी-अभी पढ़ कर खत्म किया . लेख पढ़ कर कुछ बेहतर पढ़ने का संतोष है . लेख पर फौरी तौर पर अपनी संक्षिप्त प्रतिक्रिया भेज रहा हूँ . <br />यह लेख अपनी बुनावट में ‘उमराव जान अदा’ और ‘सेवासदन’ के रास्ते औपनिवेशिक भारत में औपनिवेशिक ज्ञान सरणी के प्रभाव से हुए समाज सुधार के एजेंडे और भारतीय संस्कृति के उत्थान ( एकबारगी हिन्दू संस्कृति उत्थान कह देना सरलीकृत होगा ) के एजेंडे के द्वंद्ध को न केवल रेखांकित करती है बल्कि इस द्वंद्ध में स्त्री की संरचना और इस संरचना में प्रमुखता से उपस्थित ‘यौनिकता’ के प्रश्नों की परतों को १८ वीं , १९ वीं और २० सदी के लंबे विस्तार में विरचित करती है . कोठे और तवायफों की दुनिया में शामिल स्त्री की मजबूरियों और समाज के सामजिक - आर्थिक विन्यास में उसकी जरूरतों को , कोठे और तवायफों की दुनिया की परिधि में शामिल हज्जाम, फूल बेचनेवाली/वाला, इत्र-फुलेल का सौदागर, पनवाड़ी, सारंगी और तबलावादक जैसे अनगिनत रोजगार के फलने –फूलने की शिनाख्त यह लेख करता है . इसे यों भी कह सकते हैं कि यह लेख औपनिवेशिक भारत में समाज सुधार की पश्चिमी दृष्टि और ‘भारतीय दृष्टि’ के द्वंद्ध को कुछ स्त्री चरित्रों की यौनिकता के प्रश्नों के माध्यम से २१ वीं सदी में स्त्री की यौनिकता के प्रश्नों की निरंतरता के आंतरिक भेद को रेखांकित करती है . भारतीय सनातन परम्परा से चलकर महात्मा गाँधी और प्रेमचंद तक ‘सतीत्व और पत्नीत्व’ के प्रश्न को रेखांकित करता हुआ यह लेख स्त्री के ‘खिलंदड़ी, जीवंत, गर्वीली और मर्यादित’ बनाम ‘ सुंदर,चंचल और अभिमानिनी’ का क्रिटिक प्रस्तुत करता है . सेवासदन में सुमन के संदर्भ में जब भोली कहती है ‘... अगर अल्लाह को मंज़ूर होता कि तुम मुसीबतें झेलो तो तुम्हें परियों की सूरत क्यों देता ?’ तो यह एक तरफ स्त्री के पारम्परिक सौंदर्यमूलक चेतना के बिम्बों में ले जाती है और दूसरी तरफ़ खुद सुमन अपनी इस सुरत के मार्फ़त गुजरती हुई जब बयान देती है कि ‘आप सोचते होंगे कि मैं भोग विलास की लालसा से इस कुमार्ग पर आई हूँ, पर ऐसा नहीं है. मैं ऐसी अंधी नहीं कि भले बुरे की पहचान न कर सकूँ. मैं जानती हूँ कि मैंने अत्यंत निकृष्ट कर्म किया है. लेकिन मैं विवश थी, इसके सिवाय मेरे लिए और कोई रास्ता न था...’ तब वह अपने इस ‘सूरत’ के इस्तेमाल को प्रश्नांकित भी करती है . आज इक्कीसवीं सदी के पाठक के सामने जिसके सामने विमर्शों की आंधी है प्रेमचंद के उपन्यास की ये स्त्रियाँ बहुत अपील करती हुई नहीं दिखलाई देंगी. एक स्त्री का यह बयान ‘... मेरे लिए कोई रास्ता न था’ , एक स्त्री के लिए बना दी गई भयावह पितृसत्तात्मक व्यवस्था को विचलित कर देने वाला बयान है . यह लेख अपने प्रथम पाठ में कुछ जगहों पर ठहर कर सोचने के लिए न केवल आमंत्रित करता है बल्कि अपनी सहमति और असहमति जताने के लिए तर्क खड़े करने का अवकाश भी चाहता है , उनमें से यहाँ सिर्फ एक की तरफ इशारा किया जा सकता है जो इस लेख में दर्ज है , “ विवाह का बंधन यदि समानता और पारस्परिक सम्मान पर टिका हो तो आम स्त्री उसमें सुख तलाश लेती है. लेकिन विवाह जब अपमान की जड़ बन जाये, शिक्षा जब साक्षरता से आगे न बढ़ पाए, स्त्री जब स्वयं को दोयम दर्ज़े की वस्तु समझने लगे तब वह ‘देह श्रम’ की ओर जाती है, जहाँ उसे झूठा ही सही, सम्मान तो मिलता है.”<br /><br /> बहरहाल , यह लेख एक ही साथ १८,१९,२० वीं शताब्दी में ‘रेल सी गुजरती ’ हुई हमें न केवल समृद्ध करती है बल्कि अनुसंधानपरक लेख के तेवर से परिचित कराती हुई हिंदी में ऐसे लेख लिखे जाने की जरूरत की तरफ मनसा तैयार करने का वातावरण निर्मित करती है . Amrendra kumar sharmahttps://www.blogger.com/profile/11448068541501807581noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-67818786072834034222018-07-14T10:21:51.768+05:302018-07-14T10:21:51.768+05:30अच्छा अवलोकन ।अच्छा अवलोकन ।Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/17292380033098620323noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-45223620262869445702018-07-13T01:24:22.791+05:302018-07-13T01:24:22.791+05:30हिन्दी के प्रगतिशील आलोचकों के अलावा प्रेमचंद पर ह...हिन्दी के प्रगतिशील आलोचकों के अलावा प्रेमचंद पर हिन्दी और अंग्रेज़ी में जो बेहतर लिखा गया है,यह आलेख अपने तई उसमें इजाफा करता है.उदाहरण के लिए श्यामाचरण दुबे और पूरनचंद जोशी से लेकर राजेन्द्र यादव,गीतांजलि पांडे,वसुधा डालमियां,मैनेजर पांडे,वीरेंद्र यादव आदि ने प्रेमचन्द पर अपने नज़रिए से बहुत कुछ नया उद्घाटित है.बावजूद इसके इस आलेख में समाजशास्त्रीय पद्धति का विनियोग करते हुए 'सेवासदन' और 'उमराव जान अदा' के तुलनात्मक विवेचन-विश्लेषण के क्रम में जिस मुद्दे की गहरी छानबीन की गयी है,वह आलोचक के कठोर अकादमिक श्रम एवं बुद्धि-वैभव का परिचायक है.प्रो.रवि रंजनhttps://www.blogger.com/profile/05759095381764437121noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-22626552764250970442018-07-12T14:36:15.618+05:302018-07-12T14:36:15.618+05:30इस द्वि-लेखकीय,द्वि-संस्कृतीय,द्वि-भाषीय,भाषांतर-र...इस द्वि-लेखकीय,द्वि-संस्कृतीय,द्वि-भाषीय,भाषांतर-रूपांतर वाले बहु-आयामीय लेख को गहराई से पढ़ पाना भी आसान नहीं है.इसके लिए गहरी जानकारी और प्रतिबद्धता की दरकार है - यूँ इसे पढ़ने से एक बौद्धिक कॉकटेल-सी कैफ़ियत तारी हो जारी है.जबभी मैं अपनी निजी यूनिवर्सिटी खोलूँगा,लेखिका को उसकी पहली डी.लिट्.और ऐसी सूझ-भरी मधुर 'पीरियड' प्रस्तुति के लिए अरुण देव को पहली सेकंड पीएच.डी दूँगा.Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/18139708644770350589noreply@blogger.com