tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post7127160118671999363..comments2024-03-18T14:45:15.993+05:30Comments on समालोचन : सबद - भेद : इक शम्अ है दलील-ए-सहर : अच्युतानंद मिश्र arun dev http://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comBlogger8125tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-61566276582326932842017-07-17T09:30:04.458+05:302017-07-17T09:30:04.458+05:30बहुत व्यवस्थित और सटीक । बहुत व्यवस्थित और सटीक । Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/06487011554795356608noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-12696659945603786242017-07-16T21:47:23.792+05:302017-07-16T21:47:23.792+05:30बढ़िया लेख बढ़िया लेख Onkarhttps://www.blogger.com/profile/15549012098621516316noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-50255760576301070382017-07-16T20:47:49.264+05:302017-07-16T20:47:49.264+05:30फ़ैंटेसी को भविष्य-चिंता से जोड़कर एक नई संभावना दि...फ़ैंटेसी को भविष्य-चिंता से जोड़कर एक नई संभावना दिखाई है। बाक़ी सब पहले भी कहा जा चुका है।शिव किशोर तिवारी।noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-64282807830594516512017-07-16T16:47:44.487+05:302017-07-16T16:47:44.487+05:30"एक छद्म बाहरी दुनिया बना दी गयी है, उस छद्म ..."एक छद्म बाहरी दुनिया बना दी गयी है, उस छद्म के परिणाम- स्वरुप एक छद्म अन्तस् भी निर्मित हो गया है. मनुष्य का यथार्थबोध कहीं गुम हो गया है. उसकी चेतना इस छद्म में लुप्त हो रही है. वह प्रतिरोध के छद्म से अपने को बचा लेना चाहता है, लेकिन वह जितनी कोशिश करता है, उतना ही वह इस छद्म के कीचड़ में फंसता जाता है. रास्ता क्या है? मुक्तिबोध को लगता है मनुष्य की इस निष्क्रिय होती चेतना को रोकने के लिए यह जरुरी है कि हम अपने इन्द्रिय-संवेदन को पुनः जागृत करे. बाहर की दुनिया के छद्म को ठीक-ठीक समझने के लिए यह जरुरी है कि हमारा इन्द्रिय-संवेदन दोष रहित रहे."<br />"औद्योगिक क्रांति नें इस सम्बन्ध को विकृत करना शुरू किया. मनुष्य प्रकृति से संघर्ष करता था, लेकिन हर बार जीत–हार से परे मनुष्य नये सोपान चढ़ता जाता था. प्रकृति की दुरुहता से संघर्ष करते हुए मनुष्य ने श्रम के सौन्दर्यबोध को अर्जित किया. नैतिकता, ईमानदारी सदयता जैसे मानवीय गुण इसी सौन्दर्यबोध के द्वारा समाज में स्वीकृत होते गये. कला संगीत कविता आदि की जरूरत मनुष्य को प्रकृति के और नजदीक लाती गयी. परन्तु औद्योगिक क्रांति ने इस सम्बन्ध को असंतुलित कर दिया. मनुष्य और प्रकृति का संघर्ष द्विआयामी नहीं रह गया. औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप एक तीसरी चीज़ विकसित हुयी. आरम्भ में मनुष्य ने यंत्रों को अपनी आवश्यकता के अनुरूप निर्मित करना शुरू किया. मनुष्य के हाथों की तुलना में यंत्रों की गति अबाध थी. हर नई कोशिश उस गति को और तीव्र करती जाती थी."<br /> "जिस तरह का समय और समाज हमारे इर्द गिर्द निर्मित हो रहा है उसमें मुक्तिबोध को नये सिरे से समझने की जरुरत महसूस होती है. मुक्तिबोध ने समाज को कभी एकायामी नहीं माना. वे राजनीति को केंद्र में रखकर समाज और संस्कृति को देखने के पक्षधर नहीं थे. पिछले पचास साल में यानी मुक्तिबोध के गुजर जाने के बाद से समाज और संस्कृति के रास्ते बुनियादी बदलाव किये गये हैं . मनुष्य की अवधारणा को ही बदल दिया गया. एक सतत समाजविहीनता क्रूरता और हिंसा समाज का स्थायी भाव होता जा रहा है. मनुष्य अपने ही खिलाफ साजिश में लगा हुआ है. उसके आत्म को ही अनुकूलित कर दिया गया है. मुक्तिबोध ने तो आत्मसंघर्ष, आत्मालोचना, आत्मचेतस जैसे पद दिए. हमारे लिए अब भी उन रास्तों पर चलना एक चुनौती है. वर्तमान स्थिति में तो अनिवार्यता भी है. मुक्तिबोध को वर्तमान में पढने का एक अर्थ यह भी है कि हम उस आत्म-संघर्ष आत्म-चेतना और आत्मालोचना की यात्रा फिर से आरम्भ करें."<br />हमारी पीढ़ी ने जब से साहित्य की दुनिया में होश सम्हाला है, मुक्तिबोध हिंदी समाज में सबसे विवादास्पद और जरूरी लेखक रहे हैं. इतना विवाद शायद ही हिंदी के किसी कवि को लेकर हुआ हो. मगर आज मुक्तिबोध को लेकर जो विवाद सुनाई दे रहा है, वह दूसरे स्तर का राजनीतिक है. आज यह विवाद नेहरू के समाज बनाम मोदी के समाज के रूप में उभर आया है जिस पर बहस तो हो सकती है मगर किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंचा जा सकता. इस सन्दर्भ में आज यूपीएससी समेत हिंदी पाठ्यक्रम की दुनिया में उन्हें पहुँचाने वाले डॉ. नामवर सिंह और समकालीन कवियों के हिंदी समाज तक पहुँचाने वाले अशोक वाजपेयी की भूमिका और उनके मौजूदा स्टैंड पर बातें होनी चाहिए. निश्चय ही इस विवाद को कलावाद/भाजपावाद या मार्क्सवाद/समाजवाद/नेहरूवाद के घिसे-पिटे झगड़े के बदले आने वाले नेहरू बनाम मोदी के समाज के रूप में देखा जाना चाहिए. मगर तब भी वह कोई सार्थक समाधान नहीं होगा. batrohihttps://www.blogger.com/profile/07370930712240772275noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-14884228024694775662017-07-16T11:59:02.784+05:302017-07-16T11:59:02.784+05:30सही समय पर सार्थक और प्रभावशाली हस्तक्षेप..
मुक...सही समय पर सार्थक और प्रभावशाली हस्तक्षेप.. <br /><br />मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष जटिलता से अधिक अस्थिर दृश्यता व दोलायमान केंद्रीयता का शिकार है। उनके रास्ते में चौराहे अधिक चकराहट भरते चलते हैं। यह जितना आत्मसंघर्ष है उससे कहीं अधिक आत्मसंशय और सर्वाधिक आत्मसंभ्रम। ऐसा इसलिए क्योंकि मुक्तिबोध किन्हीं कृत्रिम दृढ़ताओं को आयात करना स्वीकार नहीं करते। उनके सामने जो जन और जो जीवन है, वह जो कुछ लेते हैं, उन्हीं से। इसीलिए उनके आत्मसंघर्ष में संशय-संभ्रम, भय-रोमांच और अनिश्चय की स्याह प्रच्छायाएं झर-झर झरती बौर बूंद-बूंद मिलती रहती हैं। <br /><br />यह स्थिति वस्तुत: मुक्तिबोध की रचनात्मकता को कोई दुर्बलता नहीं बल्कि शतश: अकृत्रिमता व प्रामाणिकता देती है। अच्युतानंद ने मुक्तिबोध को व्यापक दृष्टि से देखा है। उन्हें बधाई और 'समालोचन' का आभार।<br /><br /> <br />Shyam Bihari Shyamalhttps://www.blogger.com/profile/02856728907082939600noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-87973618442782929442017-07-16T10:00:20.540+05:302017-07-16T10:00:20.540+05:30बहुत जरूरी है ये लेख
सही समय पर सही बात। अरुण और अ...बहुत जरूरी है ये लेख<br />सही समय पर सही बात। अरुण और अच्युतानंद जी दोनों को शुक्रियाAmitabh Mishranoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-23678029135030716302017-07-16T09:58:50.074+05:302017-07-16T09:58:50.074+05:30बेहद सामयिक और ज़रूरी लेखबेहद सामयिक और ज़रूरी लेखkavi tanoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-13249593013123624082017-07-16T09:29:16.810+05:302017-07-16T09:29:16.810+05:30//मुक्तिबोध वैचारिक प्रवाह और अन्तराल के लेखक हैं ...//मुक्तिबोध वैचारिक प्रवाह और अन्तराल के लेखक हैं ,वे मनुष्य की चिंताओं का आन्तरिकीकरण करते हैं . यानी बाहर की दुनिया के समनांतर, भीतर भी एक दुनिया का निर्माण. ऐसा करते हुए मुक्तिबोध जानते हैं कि यह हुबहू करना संभव नहीं है. इनके बीच कोई न कोई अन्तराल छूट ही जाता है. मुक्तिबोध उन अंतरालों को सूत्रों में गढ़ते हैं. विधाओं के पूर्वनिर्मित दायरों में मुक्तिबोध को लगता है कि रचनाशीलता बाधित एवं विकृत होती है . उनका मूल उद्देश्य बाह्य का अन्तरिकीकरण और फिर उस अन्तः का बाह्यकरण है. रचना का वास्तविक सौन्दर्य अंतर-बाह्य के इस द्वंद्व में ही घटित होता है. यह कुछ न कुछ छूट जाने से ही उत्पन्न होता है।//<br /><br />अच्युतानंद जी के इस महत्त्वपूर्ण आलेख से शब्दशः सहमत। आलोचना जी सरल-सहज आत्मीय भाषा के साथ मुक्तिबोध को बदलते संदर्भो के साथ समझने की जरूरी और गम्भीर कोशिश। हम पाठकों की ओर से समालोचन का आभार।Rahul Devhttps://www.blogger.com/profile/15972309947622573643noreply@blogger.com