tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post6330365260570048089..comments2024-03-18T14:45:15.993+05:30Comments on समालोचन : सबद - भेद : भारतेंदु और भाषा की जड़ें : बटरोहीarun dev http://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comBlogger13125tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-540243825360394102018-08-25T19:43:06.635+05:302018-08-25T19:43:06.635+05:30कृपया संभव हो मेरे मेल पर उत्तर देने का कष्ट करें।...कृपया संभव हो मेरे मेल पर उत्तर देने का कष्ट करें। धन्यवाद। Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/13584923125639049812noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-67507319891913449592018-08-25T19:37:55.600+05:302018-08-25T19:37:55.600+05:30आपका लेख बेहद विचारोत्तेजक है। भाषा और शिक्षा पर आ...आपका लेख बेहद विचारोत्तेजक है। भाषा और शिक्षा पर आजकल हिंदी की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर नहीं लिखे जाते ।इस लिहाज से आपका लेख प्ररेणा देता है। <br /> क्या आप रामगोपाल जी की अप्राप्य पुस्तक या भारतेंदु जी हंटर कमीशन के समक्ष दिए 'वक्तव्य' को प्राप्त करने में मेरी कुछ मदद कर सकते हैं? Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/13584923125639049812noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-24693740227159412912017-11-02T08:39:17.788+05:302017-11-02T08:39:17.788+05:30 बेहतरीन लेख। जानकारियों से भरा हुआ। बटरोही और अरु... बेहतरीन लेख। जानकारियों से भरा हुआ। बटरोही और अरुण सर को बहुत बहुत शुक्रिया।Shahadat Khannoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-50199776514218416592017-10-31T20:23:57.205+05:302017-10-31T20:23:57.205+05:30इस में संदेह नहीं कि जीवंत भाषा जनता के बीच से ही ...इस में संदेह नहीं कि जीवंत भाषा जनता के बीच से ही सीखी जा सकती है / कहा जाता है कि विश्व विख्यात उपन्यासकार टॉलस्टॉय भाषा सीखने के लिए हर सप्ताह आस-पास के गाँमों में जाते थे / एक रचनाकार को जनता के बीच रहकर ही भाषा को सीखना और रचना चाहिए Vijendra Kriti Oarnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-32097551602337124132017-10-31T15:33:30.663+05:302017-10-31T15:33:30.663+05:30 Bhasha sabse purani aur sabse sacchi matribhumi h... Bhasha sabse purani aur sabse sacchi matribhumi hoti hai. Hindi bhasha ka itihaas hi hamare sahitya aur svatantra- sangharsh ka itihass bhi hai. yah lekh samkaleen samay me hindi ke gauravmay astitav ko punr- smaran aur sthaapit karne me atyant mahatvpurn aur prasangik hai. Itne gambhir aur sarthak lekh ke liye lekhak ko dhanywad............ Samalochan aur arun dev sir ko vishesh aabhar.Meena Budhirajanoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-89699005173161902932017-10-31T08:25:00.781+05:302017-10-31T08:25:00.781+05:30 अंग्रेज़ी में लिखने वाले हाल तक सभी भारतीय भाषाओं... अंग्रेज़ी में लिखने वाले हाल तक सभी भारतीय भाषाओं को वर्नाक्युलर कहा करते थे। इन भाषाओं में लिखे साहित्य को भी बिना पढ़े महत्त्वहीन बताया करते थे। अन्य भाषाओं की नहीं जानता पर बांग्ला के जीवनानंद दास और हिंदी के मुक्तिबोध से सामना होने के बाद इनका दंभ , बांग्ला में जिसे कहते हैं, फश्के गैलो।<br />तो मैं समझता हूं श्रेष्ठ साहित्य लिखा जायेगा तो हिंदी की इज़्ज़त अपने आप बढ़ेगी।<br />विवाद को आगे बढ़ाने के लिए यह ज़ाती ख़याल दर्ज़ करना चाहता हूं कि हिंदी साहित्य के सबसे बड़े शत्रु प्रलेस, जलेस और एक और संगठन जिसका जसम या ऐसा ही कुछ नाम है , ये तीनों हैं। इनका काम है सृजनशीलता को कुंठित करना और अनौपचारिक सेंसर की तरह व्यवहार करना।Tewari Shiv Kishorenoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-26866714442232354762017-10-31T08:24:25.982+05:302017-10-31T08:24:25.982+05:30 भाषा प्राध्यापकों से नहीं बनतीं. यह ग़लतफ़हमी हिंदी... भाषा प्राध्यापकों से नहीं बनतीं. यह ग़लतफ़हमी हिंदी के अध्यापक को ही नहीं, हर शुद्धतावादी को है. आम आदमी की अभिव्यक्ति का राजनीतिक इस्तेमाल होने के बाद से ही मामला उलझा है. अध्यापक का काम भाषा की व्यवस्था करना है; वह आम आदमी और शेष पढ़े-लिखे व्यक्ति के बीच पुल है. मगर उसने हमेशा उसका सिर्फ अपने लिए इस्तेमाल किया है. जो भाषा आम आदमी का अस्तित्व है, उसने तो कभी यह शिकायत नहीं की. हर भाषा रूप का सम्मान होना चाहिए, शास्त्री का काम कर्मकांड रचना न होकर जो, जैसा है, उसे व्यवस्थित करना होना चाहिए.Laxman Singh Bisht Batrohinoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-63655153272497605672017-10-31T08:23:58.663+05:302017-10-31T08:23:58.663+05:30आज तो हिन्दी के कई प्राध्यापक बहुत शान से हिंग्... आज तो हिन्दी के कई प्राध्यापक बहुत शान से हिंग्िलिश झाड़ रहे और 'महान' बनने की दौड़ पा्रयोजित कर/करा रहे..Shyam Bihari Shyamalnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-11188121425928700302017-10-31T08:23:04.433+05:302017-10-31T08:23:04.433+05:30प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद शिव किशोर जी. मगर हिंदी... प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद शिव किशोर जी. मगर हिंदी में जो माहौल बन गया है, नामों को खूब टटोलकर फूक-फूक कर राय दी जाती है. इसी को शायद कहते हैं दूध का जला छांस को फूक-फूक कर पीना. फिर भी देर-सबेर जागना तो पड़ेगा ही. असल में, जो लोग गंभीर ढंग से सोच-लिख सकते हैं, हिंदी उनके अस्तित्व की भाषा नहीं है और उनके पास अंगरेजी का विकल्प है और पहले की अपेक्षा ज्यादा मजबूत है. मैं तो भारतेंदु की उस चिंता ही ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ जिनके पास उनके वक़्त भी अपनी भाषा का कोई विकल्प नहीं था इसीलिये आज भी नहीं है. इसीलिए आज भी वे उतने ही अकेले और मूक हैं. भाषा का तथाकथित संस्कार जब है ही नहीं तो कहाँ से संस्कारित भाषा बन पायेगी? कहाँ से प्रतिक्रियाएं जन्म लेंगी. विकल्प रूप में जो छिछली राजनीतिक भाषा पनप रही है, गाँवों-कस्बों के नए उभर रहे मध्यवर्ग के बीच, आने वाले समय में उसे ही मानक हिंदी बनना है. हाँ, संस्कारित भाषा विकल्प रूप में उनके वक़्त में भी थी, आज भी है, मगर उस भाषा को कौन लोग लिख-पढ़ सकते थे/हैं. अब तो वह भाषा भी खो गई है और उस वर्ग ने उसी तेजी और शालीनता से अंगरेजी को झपट लिया है. भारतेंदु का वह हिंदी वाला इसीलिए आज भी उतना ही अकेला और हताश है. फिर भी, प्रतीक्षा है हिंदी के शिक्षित समाज की.<br /> <br /> एक और बात की ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ. मैं जब हंगरी में हिंदी पढ़ाने गया था, वहाँ सप्ताह में एक दिन 'बातचीत' की कक्षा होती थी. हमारी अध्यक्ष Mária Négyesi का स्पष्ट निर्देश था कि उस दिन कोई भी अंगरेजी नहीं बोलेगा. सारी बातें हिंदी में होंगी और इसी आधार पर उनका परीक्षा में मूल्यांकन होगा. शुरू में यह बात मेरी समझ में नहीं आई थी, और जब भी कोई बात स्पष्ट नहीं होती थी, मैं अंगरेजी के शब्दों या वाक्यों से बात साफ करता था. ऐसे में विद्यार्थी खुद ही टोक देते थे. उनका कहना होता था की अंगरेजी तो हम जानते ही हैं, हमें हिंदी में पढाइये. आप सोच सकते हैं कि मैंने कबीर, अज्ञेय का 'अपने-अपने अजनवी' और उदय प्रकाश की कहानी 'वारेन हेस्टिंग्स का सांड' ऐसे ही सुनाई/पढाई है. मरिया भी कक्षा में बैठती थी, (मारिया इसे पढ़ रही हैं तो मेरी बात का समर्थन या असमर्थन करें.) बाद में मरिया ने ही इस जटिल कहानी का हंगेरियन में अनुवाद भी किया. कहने का मतलब है अभिव्यक्ति तभी भाषा बनती है जब वो अस्तित्व की शर्त होती है. दुर्भाग्य से जो भाषा हिंदी समाज के अस्तित्व की शर्त है, उसे आज भी 'गंवारों की भाषा' समझा जाता है और हिंदी समाज खुद ही उससे मुक्त होने की कोशिश में है. हमारे शहरी अभिजात वर्ग ने ग्रामीण हिंदी का 'आंचलिक भाषा ' के रूप में शालीनीकरण किया है जो अलग तरह की फ़िल्मी ग्रामीण भाषा है. अब तो वह प्रयोग में भी नहीं है और नए मध्यवर्ग की भाषा अंगरेजी के उभरने के कारण अधिकांश फिल्मों, कहानियों, उपन्यासों, यहाँ तक कि समीक्षा-आलोचना में भी अंगरेजी सीधे मुक्त ढंग से प्रयुक्त होने लगी है. मगर इसका मतलब यह तो कतई नहीं है कि भारत के आम आदमी की भाषा अंगरेजी हो गई है.Laxman Singh Bisht Batrohinoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-82556072298308374732017-10-31T08:20:36.158+05:302017-10-31T08:20:36.158+05:30 भाषा कोई बियाबान में नहीं पलती... वह भी समाजिक वि... भाषा कोई बियाबान में नहीं पलती... वह भी समाजिक विकास का अहम हिस्सा है।Giriraj Kishorenoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-29888181794902181022017-10-31T01:19:00.306+05:302017-10-31T01:19:00.306+05:30हिंदी कोई भाषा है ही नहीं। तिवारी शिव किशोरजी से अ...हिंदी कोई भाषा है ही नहीं। तिवारी शिव किशोरजी से असहमति जताते हुए कि "मैथिली, भोजपुरी, वज्जिका, कुमाऊंनी" आदि स्थानिक भाषाई राष्ट्रवाद है। तो फिर मैं इस नयी नवेली हिंदी को भी स्थानिक भाषाई राष्ट्रवाद क्यों न मानू।<br /><br />खूनी हिंदी और दरिंदे हिंदी विद्वान जिनका पेट प्रांतीय भाषा को खा कर ही पेट भरता है, उनका क्षय हो। वह हिंदी और वे हिंदी के विद्वान जो कि प्रांतीय भाषा का आदर करते हैं उनकी जय हो।Ashish Anchinharhttps://www.blogger.com/profile/11963153563939587957noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-57177483311438625212017-10-30T20:17:05.134+05:302017-10-30T20:17:05.134+05:30विचारणीय आलेख।
विचारणीय आलेख।<br />Saloni sharmahttps://www.blogger.com/profile/01298425880007698617noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-49638141524233504012017-10-30T18:48:37.816+05:302017-10-30T18:48:37.816+05:30आशा है इस लेख पर ढेर सारी प्रतिक्रियाएं आयेंगी और ...आशा है इस लेख पर ढेर सारी प्रतिक्रियाएं आयेंगी और स्वतंत्र लेख भी जो बहस को आगे बढ़ाएंगे। इस समय हिंदी क्षेत्र में ही मैथिली, भोजपुरी, वज्जिका, कुमाऊंनी इत्यादि को लेकर जो स्थानिक भाषाई राष्ट्रवाद चल रहा है और जिसके पक्ष में बिहार के लेखक सर्वाधिक मुखर मालूम होते हैं उस पर भी विचार होना चाहिए।Tewari Shiv Kishorenoreply@blogger.com