tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post5999399662485913630..comments2024-03-18T14:45:15.993+05:30Comments on समालोचन : परख : अदृश्य भारत : भाषा सिंहarun dev http://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comBlogger14125tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-14431747311939054452012-11-07T07:51:23.883+05:302012-11-07T07:51:23.883+05:30यह एक जरूरी आलेख है, जिस पर बातें होनी ही चाहिए, ह...यह एक जरूरी आलेख है, जिस पर बातें होनी ही चाहिए, हालाँकि इसके राजनीतिक तेवर से बचने की जरूरत है।batrohihttps://www.blogger.com/profile/07370930712240772275noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-63348135731109839122012-09-17T14:22:44.806+05:302012-09-17T14:22:44.806+05:30पीड़ा को भाष में व्यक्त कर, भाषा सिंह ने सराहनीय क...पीड़ा को भाष में व्यक्त कर, भाषा सिंह ने सराहनीय कार्य किया है। Aman Kumar Tyagihttps://www.blogger.com/profile/15925743485170360380noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-24386877798207217182012-09-02T10:17:40.906+05:302012-09-02T10:17:40.906+05:30भाषा का यह काम हमारे समय का एक बेहद महत्वपूर्ण काम...भाषा का यह काम हमारे समय का एक बेहद महत्वपूर्ण काम हैअशोक कुमार पाण्डेयnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-15597929195450577902012-09-01T21:43:09.320+05:302012-09-01T21:43:09.320+05:30भाषा सिंह की यह किताब अस्पृश्य बना दिए गए हमारे सा...भाषा सिंह की यह किताब अस्पृश्य बना दिए गए हमारे सामाजिक-सयात्रियों के जीवन की त्रासदी को पुनः चर्चा के केंद्र में लाएगी... और निश्चित ही उनके जीवन में कुछ और उजाला, कुछ और स्पर्श बांटेगी.. ये उम्मीद है !! भाषा सिंह को बधाई !! सुशीला पुरीhttps://www.blogger.com/profile/18122925656609079793noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-53960932062092098932012-09-01T18:41:42.572+05:302012-09-01T18:41:42.572+05:30व्यक्ति का अस्तित्व बराबर एक दबाब में जीने की प्रक...व्यक्ति का अस्तित्व बराबर एक दबाब में जीने की प्रक्रिया है...यह दबाब केवल बाहर का ही नहीं होता; उसके भीतर का भी होता है..कभी उसकी अपनी इच्छाओं का, कभी महत्वाकांक्षाओं का तो कभी अंतर्द्वंद्वों का..जो इस दबाब से मुक्त सहज मानव है, वह हर युग में उपलब्धि रहा है..बस सम्यक रूप से ऐसी उपलब्धियां सभ्यताएँ कब-कब पाती हैं, इस पर निर्भर करता है..<br /> और बदलाव तो प्रकृति की स्वाभविक विकास की सबसे बड़ी प्रक्रिया है..जो सभ्यता इसे नकार देती है वह पराभव देखती है...Aparna manojnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-37163921700110825182012-09-01T18:41:18.831+05:302012-09-01T18:41:18.831+05:30व्यक्ति रूप में हम विरोधाभासों, प्रतिवादों, विपर्य...व्यक्ति रूप में हम विरोधाभासों, प्रतिवादों, विपर्यय का समुच्चय हैं....<br /> <br />व्यक्ति का अनुकूलन जिस तरह होता रहता है वह अपने व्यक्ति रूप को उसी तरह देखता है..उसकी क्षमताएँ उस अनुकूलन के भीतर अधिक रहती हैं. हाँ, कुछ इस घेरेबंदी को तोड़ते हैं..जिन्हें उस समय ठुकरा दिया जाता है..फिर इसी ठुकराए को समाज जैसे वर्षों तक परीक्षित करता है और अपनी सुविधा अनुसार उसे स्वीकृति या अस्वीकृति देता है.<br /> एक दार्शनिक और वैज्ञानिक इसे सबसे अधिक भोगता है..फिर समाज सुधारक,लेखक, कलाकार..<br /> किसी भी श्रेणी में विभाजित न करते हुए एक "इंसान" जिसकी क्षमताएँ अनंत हैं पर जिसके चारों ओर समुच्चय के रूप में समाजतंत्र और अर्थ तंत्र मकड़जाल की तरह बुने हैं...Aparna manojnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-71731349190358859262012-09-01T18:40:27.937+05:302012-09-01T18:40:27.937+05:30मैं उस काल की क्रूरता की कल्पना मात्र से काँप जाता...मैं उस काल की क्रूरता की कल्पना मात्र से काँप जाता हूँ जब कुछ लोगों को मैला ढोने पर ववश किया गया होगा ! अवश्य ही मैला उठाने वालों की आवश्यकता शौचालयों की आवश्यकता के साथ पैदा हुई होगी !Misir Arunnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-65777135251083531502012-08-31T15:20:31.051+05:302012-08-31T15:20:31.051+05:30यह दुखद है कि हमारे बीच आज भी ऐसी व्यवस्था जिन्दा ...यह दुखद है कि हमारे बीच आज भी ऐसी व्यवस्था जिन्दा है....भाषा सिंह का काम वाकई सराहनीय है ..जबकि पुस्तक के कुछ अंश पढना ही मुश्किल है ..ऐसे में उनके बीच से उनका सच लेकर आना ...बड़ी चुनौती है ..भाषा सिंह ने कुछ जायज सवाल उठाये हैं .. पश्चिम बंगाल की सरकार को लेकर, देश की न्याय-व्यवस्था और नेताओं की इस मुद्दे पर संवेदनशीलता को लेकर और मैला ढोने वालों की वोट बैंक के रूप में कमजोर उपस्थिति को लेकर...तूफ़ान साहब ने ठीक ही कहा है..'.लेखन के लिए संवेदना की आवश्यकता होती है जो भाषा सिंह में प्रचुर मात्रा में विद्यमान है. 'kshamahttps://www.blogger.com/profile/14966271183361147562noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-32320786059349928682012-08-31T15:01:22.963+05:302012-08-31T15:01:22.963+05:30धन्यवाद समालोचन इस ज़रूरी बात की तरफ ध्यान दिलाने ...धन्यवाद समालोचन इस ज़रूरी बात की तरफ ध्यान दिलाने हेतु...लेखिका का भी धन्यवाद...इसे शब्दों मे ढालना भी बहुत ही हिम्मत का काम था और वे सफल हुई हैं...लेख पढ़ कर ऐसा लगा...मैंने बचपन मे यह सब देखा है कि वाकई इन लोगों को जो सबकी गंदगी साफ करते हैं, कितनी हिकारत भरी नज़र से देखा जाता था उन्हे...आज भी गावों मे कमोबेश स्थिति मे फर्क तो आया है पर बहुत नहीं है ये...आज की युवा-पीढ़ी को आगे आना चाहिए यह अंतर कम करने मे....एक बार फिर धन्यवाद अरुण जी आपका...साथ ही के. एस. तूफान जी का भी धन्यवाद....सुनीता सनाढ्य पाण्डेयnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-50799485187880607222012-08-31T15:00:16.105+05:302012-08-31T15:00:16.105+05:30मैंने यह किताब अभी ख़त्म की है, भाषा सिंह बधाई की ...मैंने यह किताब अभी ख़त्म की है, भाषा सिंह बधाई की पात्र तो हैं ही हम सब के धन्यवाद की भी पात्र हैं. अपने विषय के साथ गहरे जुडाव और लगाव के साथ लिखी गई पुस्तक में अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता को बिना किसी शोर शराबे के अपने वर्णनों में ही अंतर्गुम्फित किया है. शानदार ! तथाकथित सभ्य समाज को तो इस पुटक को जरूर पढ़ना चाहिए.Sanjeev Chandannoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-53553561847692421192012-08-31T14:59:20.256+05:302012-08-31T14:59:20.256+05:30समय आ गया हाशिये पर रहते शोषित लोगों की व्यथा को ह...समय आ गया हाशिये पर रहते शोषित लोगों की व्यथा को हम अपनी लेखनी का व्यापक हिस्सा बनानें ....तूफान जी के इस ज्ञानवर्धक लेख से स्पष्ट है किस तरह भाषा जी ने अपने भावों को काबू रखा होगा ...समाज ने इन लोगो का जीवन नरक बनाया हुआ है और बाकायदा एक संगठित व्यवस्था के द्वारा, मैला ढोने वालों को लेकर तो और भी घिघौना रूप सामने आता है... लोकतंत्र आ चुका है , समाजवाद के सपने सजौएँ जा रहे हैं ,अस्मिताओं का संघर्ष चल रहा , लेकिन इन लोगों के जीवन पर किसी का ध्यान नहीं हैं ..भाषा सिंह जी ने यह नेक काम हमें उपलब्ध करवाया है ...इसका उनको आभार. साथ मैं तूफान जी व समालोचना का धन्यवाद करता हूँ .. इतना महत्वपूर्ण लेख हमसे साझा किया .Yadav Shambhu ..noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-63688632485039049982012-08-31T14:58:44.504+05:302012-08-31T14:58:44.504+05:30शिक्षा जहां असफल रही, मैं नहीं समझता सरकार को दोष ...शिक्षा जहां असफल रही, मैं नहीं समझता सरकार को दोष देना उचित है. सरकार नियम बना सकती है, मानसिकता नहीं. ये बदलाव वैयक्तिक तौर पर ही आ सकता है. इसी लिए बहुत धीमे धीमे आएगा. इस दिशा में प्रेरित करने के लिए लेखिका एवं समालोचन को धन्यवादDariye Achhonoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-26842633268897566282012-08-31T14:02:33.433+05:302012-08-31T14:02:33.433+05:30मुझे याद आता है कि कुछेक वर्ष पहले इलेक्ट्रोनिक मी...मुझे याद आता है कि कुछेक वर्ष पहले इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने इस मामला विशेष पर कैम्पेन किया था...शायद तब कुछ रिपोर्टें भाषा जी की भी रही हों.. प्रस्तुत पुस्तक और उसपर प्रकट तूफानी जी के इस आलेख के आलोक में सबसे पहले जो दो बातें मेरे जेहन में आयीं वही कह देना चाहता हूँ.. [१] यह देश सवर्णों और सवर्ण मानसिकता वाले दलितों का देश है..यहाँ सारी सरकारें.. सुप्रीम कोर्ट, एन जी ओ, मीडिया सब सवर्णों की है... अगर आप यह कह रहे हैं कि नहीं ऐसा नहीं कह सकते तो फिर मैं पूछ रहा हूँ कि यह घृणित कुप्रथा एवं ऐसी अन्य कुप्रथा ( फिर सुबह होगी की बेडिया जनजाति वाली कुप्रथा , मरे जानवर खाने वाले बिहार के डोम ) फिर ख़त्म क्यों नहीं हो रही.. <br />[२] देश के दलित विमर्श में दम नहीं है.. आप पूछ रहे हैं कि आज़ादी के ६० सालों में भी ऐसी कुप्रथाओं पर रोकथाम क्यूँ नहीं.. और मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि भाई साब ६० सालों बाद भी आपके पास दूसरा आंबेडकर क्यों नहीं.. साहित्यिक दलित विमर्श और दलित पत्रकारों के छिटपुट बयानबाजियों से तो काम नहीं चलना.. नायकर चाहिए आपको.. दिलीप मंडल और मुसाफिर बैठा कहाँ हैं.. उनके मित्र अविनाश दास कहाँ हैं.. पत्रकारिता वाले प्रोफ़ेसर प्रधान कहाँ हैं.. बेचारे मजबूर बंगलादेशी घुसपैठिये दीखते हैं आपको पर ये टीना वाली नहीं दिखती.. <br /><br />फ्री सलाह- सड़कों पर आन्दोलन छेड़ा जाय.. [इतिहास रहा है कि दलितों पिछड़ों को हक हकूक केवल आन्दोलनों से मिला है] ... इस बात की गारंटी मैं दे सकता हूँ कि सवर्णों से किया गया आग्रह [कि 'इन टीना वालियों का सहयोग नहीं लिया जाय] और टीना वालियों से किये गए अनुरोध [कि आप यह कुप्रथा बंद करें] में अनुपालन की मात्रा सवर्णों की तरफ से ज्यादा आएगी.. बाकी रही बात उनके रोजगार विकल्प की तो भाई साब कम से कम इसके लिए कुछ रचनात्मक उपाय तो आप सुझा ही सकते हैं और तमाम 'सवर्ण' सरकारें इन्ही तमाम 'सवर्ण' मीडिया के दवाब में उसमे सहयोग को बाध्य होगी ही.. <br />shayak alokhttps://www.blogger.com/profile/02820288373213842441noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-55980164689995099692012-08-31T08:18:34.577+05:302012-08-31T08:18:34.577+05:30अदृश्य भारत ...में उत्पीड़न दृश्यमान है, पर उसे के...अदृश्य भारत ...में उत्पीड़न दृश्यमान है, पर उसे केवल सरकारों ने ही नहीं;टुकड़ों-टुकड़ों में बँटे समाज ने भी अनदेखा किया है. शिक्षित और अशिक्षित के अलावा जितने भी वर्ग यहाँ दिखाई देते हैं उनमें स्वाभविक रूप से जो आर्द्रता और तत्परता होनी चाहिए वह है ही नहीं. किसी रूढ़ संस्कृति से हम करुणा, दया , ममता जैसे शब्दों को उठाकर बार-बार मानवीय परिदृश्य को जिन्दा दिखाने की कोशिशें करते हैं, जबकि एक इकाई के रूप में, एक व्यक्ति रूप में हम विरोधाभासों, प्रतिवादों, विपर्यय का समुच्चय हैं.<br />गुजरात में और संभवतः अन्य राज्यों में भी इन मैला ढोने वालों के बीच विसंगतियां हैं...इनमें भी वर्ग भेद.<br />धार्मिक कर्म काण्डों, उत्सवों पर हम करोड़ों खर्च करते हैं. इसे अर्थतंत्र का शोषण कहना चाहिए...और इस देश में दोहन से कहीं अधिक शोषण हुआ है..<br />भाषा सिंह ने जो काम करने के बाद पुस्तक लिखी है, वह आसान काम नहीं है. बातें चिह्नांकित तो हुई हैं..बदलाव कब, कैसे ,कितना आएगा इसके लिए आशान्वित होने पर संदेह है.<br />समालोचन और भाषा सिंह का आभार!<br />अपर्णा मनोजhttps://www.blogger.com/profile/03965010372891024462noreply@blogger.com