tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post4934490410643583236..comments2024-03-18T14:45:15.993+05:30Comments on समालोचन : भूमंडलोत्तर कहानी (३) : नाकोहस (पुरुषोत्तम अग्रवाल) : राकेश बिहारी arun dev http://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comBlogger25125tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-6499427945057519022016-03-09T12:41:54.986+05:302016-03-09T12:41:54.986+05:30Mai ne NAKOHAS ko jitana adhyan karne ke bad bhi n...Mai ne NAKOHAS ko jitana adhyan karne ke bad bhi ni jan paya tha utana ap ke alochana se jan paya NAKOHAS ke bare me,,,, bahut bahut dhanyawad ap ko Chandra shekhar mauryahttps://www.blogger.com/profile/00440464575811752150noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-24307932890153561502014-09-18T08:26:01.111+05:302014-09-18T08:26:01.111+05:30नेशनल कमीशन ऑफ़ हर्ट सेंटीमेंट्स पर समालोचन पर राके...नेशनल कमीशन ऑफ़ हर्ट सेंटीमेंट्स पर समालोचन पर राकेश बिहारी जी और अशोक कुमार पाण्डेय के लेख पढ़े .<br /> <br />राकेश जी कहानी को 'घर' या 'पुलिस चौकी' की नाकेबंदियों में बाँध दें तो कहानी की सुरक्षा कितनी हो पाएगी . इसे पढ़ते हुए मुझे बरबस कमलेश्वर की 'कितने पाकिस्तान' और इंतिज़ार हुसैन की बस्ती याद आते हैं - उनमें उपन्यास जैसा क्या है ? कथा वस्तु को हम वहां किस तरह तलाशेंगे ? एनिमल फार्म की विडम्बनाओं में कितनी कथा वस्तु शेष रह जाती है ? क्राइम एंड पनिशमेंट और हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलीट्यूड का पाठ किस तरह किया जाए ?<br /><br />कहानी को पढ़ते समय मैं बार -बार कहीं फंसती थी . अपने ही पाठ में फंसती थी और फिर कहानी ही मुझे मुक्त भी करती थी - जब मैं अपना पाठ कह रही हूँ तो यहाँ मेरी समझ, दुनिया को देखने समझने का तरीका, बचपन से किये पाठों और उनके अवरोधों का एक दबदबा है -इस दबदबे को प्रतिरोध देती है कहानी. <br />रघु मुझे भी चौंकता है; लेकिन जब लौटकर मैं अपनी देखी दुनिया के उन कोनों पर पहुँचती हूँ जो कभी मुझे अजीब, विचित्र लगे थे पर मुझे आकर्षित करते थे - तो मुझे लगता है कि रघु मेरे लिए सहज नहीं पर कई रघुओं के लिए बहुत सहज -संदर्भ के बाहर खड़े होकर इस समय बचपन के अलवर को याद कर रही हूँ -जहाँ मैं पहली बार मेव मीणाओं से मिलती हूँ -मेरे लिए उनके नाम अजूबे हैं क्योंकि वे उनके सफ़ेद या कभी -कभी रंगीन पगड़ियों से मेल नहीं खाते - मिरासियों के सूफियाना लोक गीतों को मैं मूमल की परम्परा से अलग करके नहीं देख पाती . तब रघु नाम मुझे चौंकाता नहीं .<br />ऐसा ही गज ग्राह के मिथक के साथ हुआ . विष्णु पुराण की कथा अवचेतन में बराबर रहती है -कहानी मुझे उसी मिथक से बाहर खींच रही है और मिथक है कि मेरी टांग अपने जबड़े में कसे है -कहानी इस द्वंद्व से बाहर निकालती है और मिथक की पुनर्सर्जना मुझे समकाल की देहर पर छोड़ आती है -जहाँ मेरा समय, मेरे लोग, मेरी स्थितियां और तमाम विषमताएं, उनके सापेक्ष अर्थ मेरे सामने पड़े हैं .<br />मृदुला जी की टिप्पणी पढ़ रही थी . आपका आलेख . अशोक जी का . राम जी का पहली बार में प्रकाशित आलेख, पाखी के सम्पादकीय का कहानी पर वह अंश - और बार -बार पढ़ रही हूँ कहानी का शीर्षक -शीर्षक से ही इस देश की कहानी शुरू हो जाती है .अपर्णा मनोजhttps://www.blogger.com/profile/03965010372891024462noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-10707951208268304882014-09-12T17:56:39.673+05:302014-09-12T17:56:39.673+05:30कहानी पर लेख आ चुका है. मित्र अगली पोस्ट के रूप मे...कहानी पर लेख आ चुका है. मित्र अगली पोस्ट के रूप में देख सकते हैं.Ashok Kumar pandeyhttps://www.blogger.com/profile/12221654927695297650noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-30846283628122322562014-09-12T14:39:48.301+05:302014-09-12T14:39:48.301+05:30Rakesh Bihari भाई! फ्लैप लेखन का यह तर्क इस मुद्दे...Rakesh Bihari भाई! फ्लैप लेखन का यह तर्क इस मुद्दे का वैसा ही सरलीकरण है जैसा 'नाकोहस' में समकालीन विद्रूपताओं का। सच पूछिए तो आपके हास्यास्पद तर्कों की यह करुणास्पद परिणति एक लज्जास्पद स्थिति उत्पन्न कर रही है, कारण कि हमारा ध्यान कहानी से बहुत दूर जा चुका है। जब तर्क सिर्फ तर्क के लिए होने लगे तो उसका मुकाम कुतर्क और थेथरई हो जाता है। हमदोनों उधर की दिशा में अग्रसर हो जाएँ इससे पहले मैं इसे अपनी तरफ से यहीं विराम दे रहा हूँ। बाकी आपके 'सुपाठ' का इंतज़ार है। शेष बातें उसके बाद।<br />राकेश बिहारीnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-62126976470019871792014-09-12T14:28:40.825+05:302014-09-12T14:28:40.825+05:30राजा नंगा है, वाली लोक कहावत से आपने बात ख़त्म की ह...राजा नंगा है, वाली लोक कहावत से आपने बात ख़त्म की है । मैं उसे ही बढ़ाना चाहता हूँ। इस कहावत में तीन प्रस्थापनाएं हैं । एक कि राजा नंगा है । दो कि बाकि राज्य के लोग डर भय या लोभ लालच के कारण उसे नंगा कहने में हिचकते हैं । तीन यह कि एक बच्चा जो इन छल छद्म से अनजान स्वच्छ मन वाला है, वह सच को उद्घाटित कर देता है कि राज नंगा है । <br /><br />इसे कहानी पर लागू कीजिए । इस प्रस्थापना के अनुसार एक -कि इस कहानी में दम नहीं है । दो- कि लोगबाग डर भय लोभ लालच के कारण इस ख़राब कहानी को ख़राब नहीं कह पा रहे हैं । और तीन -कि आपने इन सबसे बेपरवाह होते हुए सच कहने का साहस कर दिया है । <br /><br />अब आप ही सोचिये कि यह स्थापना कितनी एकांगी और कितनी आत्ममुग्ध है ।Ramji Tiwarinoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-64834583695650045582014-09-12T11:47:19.042+05:302014-09-12T11:47:19.042+05:30राकेश जी, मूंदहू आँख कतहूँ कुछ नाहीं की आपकी अदा म...राकेश जी, मूंदहू आँख कतहूँ कुछ नाहीं की आपकी अदा मुझे हास्यास्पद नहीं करुनास्पद लग रही है. अपना लिखा न पढ़ पाने और अपने उपयोग किये हुए मुहाविरे के ध्वन्यार्थों से मुंह चुराने के कारण कुछ तो होंगे! कुल मिलाकर यही कह रहे हैं न आप कि अकेले आपको वह नंगापन दिखा बाक़ी तो सम्पादक के लिखे से इत्ता प्रभावित हो गए कि राजा के कपड़ों की वाहवाही बिना उन्हें देखे करने लगे?<br /><br />एक वरिष्ठ आलोचक को कहानीकार के रूप में प्रस्तुत करते हुए सम्पादक अतिरिक्त उत्साह में अगर कुछ लिखता है तो आलोचना तक की किताब बिना फ्लैप के सहारे पेश न करने वाले हिंदी समाज को उस पर आवाज उठाने का क्या हक है? यह फ्लैप राइटिंग, यह प्रस्तुति, यह सब उसी कंसेंट बिल्डिंग का काम है जिससे न आप बरी हैं, न हम. फ्लैप लिखवाते हुए हम सर्टिफिकेट ले रहे होते हैं, लिखते हुए दे रहे होते हैं. लेकिन पाठक हमसे आपसे कहीं अधिक होशियार और चैतन्य है, वह न फ्लैप पढता है न ऐसी प्रस्तुतियां. उसे इतना मूर्ख मान लेना कि एक सम्पादक की लिखी चार लाइनों से प्रभावित हो कहानी को उसके हिसाब से पढेगा, उसका अपमान है.<br /><br />यह मान लेना कि सबकी पसंदगी के उसी कमेन्ट की वजह से है और आप इकलौते समझदार हैं जो उससे प्रभावित नहीं हुए, सच में करुणा उपजाता है. अभी कुछ महीने पहले जब आलोक धन्वा ने दुबारा कविता लिखी तो उसे भी प्रस्तुत किया गया. पर कविता खराब थी तो अधिकतर लोगों ने खराब कहा. Ashok Kumar pandeyhttps://www.blogger.com/profile/12221654927695297650noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-39092706780607409952014-09-12T11:45:55.181+05:302014-09-12T11:45:55.181+05:30खक समकालीन विद्रूपताओं से खुद को जोड़ते हुये समय-सत...खक समकालीन विद्रूपताओं से खुद को जोड़ते हुये समय-सत्यों की पुनर्रचना के बजाय समसामयिकता का महज शाब्दिक रूप से पीछा करने में रह गया है. परिणामत: समय- सत्य और कहानी में रचे गए सत्य के भावनात्मक सहमेल से उत्पन्न होने वाली कलात्मक ऊंचाई कहानी की पहुँच से बहुत पीछे छूट गई है. प्रख्यात कथालोचक सुरेन्द्र चौधरी इसे ही ‘समसामयिकता का पीछा करते हुये दिशाहारा हो जाना’ कहते हैं. गौर किया जाना चाहिए कि कहानी जिस भयावह और हौलनाक सच्चाई की बात करती है, हमारे समय का सच उससे कहीं ज्यादा भयावह है. निकट अतीत की कई घटनाएँ तथा टेलीविज़न और अखबारों में प्रसारित/प्रकाशित खबरें फैंटेसी के शिल्प में गढ़ी गई इन भयावहताओं से कहीं अधिक खतरनाक हैं. ऐसे में इस कहानी को पढ़ते हुये फैंटेसी जैसे व्यंजनामूलक तकनीक के बेजा और चुके हुये इस्तेमाल से भी निराशा होती है.<br /><br />कहानी पढने के बाद इस विवेचना से असहमति का कोई प्रश्न ही नहीं।<br /><br />ओम प्रकाश गुप्त, रीवाAnonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-59266010407536391702014-09-12T11:20:47.637+05:302014-09-12T11:20:47.637+05:30मौजूदा दौर में सत्ता के कट्टर और विरूपित चरित्र के...मौजूदा दौर में सत्ता के कट्टर और विरूपित चरित्र के विरुद्ध प्रतिरोध दर्ज करने के हवाले से 'नाकोहस' एक प्रासंगिक कहानी है. मगर मुझे भी इस कहानी के बारे में राकेश बिहारी जी की अधिकांश निष्पत्तियां उचित लगती हैं. किसी रचना को जब उत्कृष्ट के रूप में स्थापित किये जाने की कोशिशें हो रही हों तो उसका गंभीर पाठ आवश्यक हो जाता है. 'नकोहस' मुझे इसलिए निराश करती है कि विकराल और निरुपाय समय के जिस थीम को वह आगे बढ़ाना चाहती है उसके अनुपात में कहानी में रचनात्मक तनाव किसी बिंदु पर उत्पन्न नहीं हो पाता. कथ्य के सानुपातिक रचनात्मक तनाव की अनुपस्थिति में न तो सम्प्रेषण मुमकिन है और न ही भावात्मक विरेचन (Catharsis). कला का मकसद मस्तिष्क के साथ-साथ ह्रदय को भी आवेशित करना होता है. साहित्य में कविता इस काम को वेग और त्वरा के साथ करती है जबकि कहानी और उपन्यास इसे ठहराव और नियोजन के साथ अंजाम देते हैं. कहानी के किरदारों का शास्त्रीय विधि से कहानी में विकास हो यह कोई आवश्यक शर्त नहीं है, मगर कथानक उसकी भरपाई तो करे. अब 'नाकोहस' का कथानक क्या है- बहुलतावादी फिरकापरस्ती की गिरफ्त में फंसा असहिष्णु तंत्र, बौद्धिक चेतना को कुंद करने की संगठित कोशिशें और प्रतिरोध शून्य समाज. मगर यह तो एक सरलीकृत राजनैतिक निष्कर्ष है. कहानी में संधान क्या है? प्रकट और प्रतीति की प्रस्तुति तो पत्रकारिता भी अपने भिन्न औजारों से बखूबी कर ही रही है. अच्छी कहानी या उत्कृष्ट कला का महत्त्व इस प्रकट और प्रतीति के पार जाने की अंतर्दृष्टि में है. इन कसौटियों से न गुजर सकने वाली रचना को तवज्जो सिर्फ साहित्येतर कारणों से दिया जा सकता है. दूसरी बात इसके शिल्प के मुतल्लिक. यह ठीक है कि अनगढ़ शिल्प स्वयं में एक रूपक हो सकता है. मगर जिस तरह 'बेतरतीब' में भी 'तरतीब' है, उसी तरह 'अनगढ़' का भी तो एक 'गठन' होता है. लैटिन अमेरिकी मैजिक रीयलिज्म, जिसका हवाला जगह -कुजगह-हर जगह दिया जाता है, उसकी प्रेरणा ने जितना उच्च कोटि का साहित्य हिंदी को दिया है उससे कही ज्यादा अर्थहीन अभिव्यक्तियों का अम्बार लगाया है. संरचनात्मक प्रयोगधर्मिता का अर्थ फंतासी, निबंध ,समीक्षा,रपट,व्यंग्य,इत्यादि सब को एक कहानी में ठोंक देना नहीं है.Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/12719802578695029751noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-92146370583324391922014-09-12T09:44:51.655+05:302014-09-12T09:44:51.655+05:30भाई Ashok Aazami! इस लघु टिप्पणी के साथ लेख भी पढ़ ...भाई Ashok Aazami! इस लघु टिप्पणी के साथ लेख भी पढ़ चुकने के बाद आपकी यह टिप्पणी मुझे हास्यास्पद लग रही है कि मैं उक्त मुहावरे के सन्दर्भ की प्रथम पंक्ति देखूं। <br /><br />रही बात मुहावरे के अर्थ न समझने और एक बनाम अनेक की तो यही कहूँगा कि अनेक की राय तैयार करने के पीछे लगी एक की रणनीति को आप जानबूझ कर नहीं देखना चाहते। क्या आप जैसे प्रतिबद्ध और प्रबुद्ध कवि जो रूपक का सही इस्तेमाल जानते हैं को भी यह समझाना पड़ेगा कि 'राजा नंगा है' को अलग से नहीं बल्कि इस बात से जोड़ कर पढ़ा जाना चाहिए कि 'राजा का कपडा उसे ही दिखेगा जो समझदार है' ? और समझदारी के प्रति विश्वास और संशय का महौल तैयार करने में अनेक नहीं किसी एक 'दर्जी' माफ़ करें ड्रेस डिजाइनर की भूमिका होती है। वैसे आप यह भी मानने को स्वतन्त्र हैं कि नहीं ऐसा कुछ नहीं होता। मैं आपकी इस असहमति का भी सम्मान ही करूंगा।<br />राकेश बिहारीnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-14172787944219147302014-09-12T09:33:45.391+05:302014-09-12T09:33:45.391+05:30 एक अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति का नाम हिन्दू मिथ... एक अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति का नाम हिन्दू मिथकीय चरित्र के नाम पर होना कहीं न कहीं फासिस्ट शक्तियों के प्रभाव को स्वीकार करने जैसा है. दूसरे समुदाय की पहचान और अस्मिता को नकारते हुये ईसाई को ‘हिन्दू-ईसाई’ और मुसलमान को ‘हिन्दू-मुसलमान’ के नाम से संबोधित करने की राजनीति यही तो है. यदि थोड़ी देर को एक ईसाई व्यक्ति का हिन्दू नाम होने की इस घटना को धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक भी मान लें तो यह उस दिखावे से आगे नहीं जाता जहां किसी खास काट की टोपी धारण कर लोग खुद के धर्मनिरपेक्ष होने का स्वांग करते हैं. धर्मनिरपेक्षता का मतलब अपनी पहचान भूल कर या भुलाकर दूसरे की पहचान को अंगीकार करना नहीं बल्कि अपनी अस्मिता और पहचान में विश्वास कायम रखते हुये दूसरों की पहचान का सम्मान करना है.<br /><br />Achha vishleshan. Kahani satah par bhale sanpradayikta ka virodh karti ho par baarik nazar se dekhen to uske khilaf ho jati hai. Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-88441184487555553652014-09-12T09:10:39.451+05:302014-09-12T09:10:39.451+05:30फिर तो आप अपने द्वारा इस्तेमाल किये गए मुहाविरे का...फिर तो आप अपने द्वारा इस्तेमाल किये गए मुहाविरे का मानी ही नहीं समझते। हम ही आप से ज्यादा उम्मीद कर बैठे थे। राजा नंगा का मुहाविरा एक बनाम एक में लागू होगा ही नहीं। वह हमेशा अनेक बनाम एक में ही लागू होता है। दूसरा यह कि राजा को नंगा कहने वाला बालक मूर्ख नहीं साहसी के अर्थ में प्रयोग होता है। <br /><br />वैसे आप ग़लत डिफेंड कर रहे हैं खुद को। जहाँ यह मुहाविरा आया है उस पैरा की शुरुआत देखिये। "इस कहानी पर कई विद्वान् मित्रों...." तो आप केवल संपादक नहीं उस कहानी पर सकारात्मक टिप्पणी करने वाले तमाम लोगों को लपेटे में ले रहे हैं। अपने साहस को और औरों के अंधत्व को इसी तरह स्थापित कर रहे हैं अपनी टीप में तो जो मैंने कहा वह उसी के आधार पर कहा। कवि हूँ तो रूपकों के मनमाने इस्तेमाल को स्वीकार नहीं कर सकता चाहे उसे कितना भी प्रिय मित्र या स्थापित आलोचक करे। इस टिप्पणी के साथ आप अपने पाठ को साहसिक तथा दूसरों के पाठ को बड़े आलोचक के awe या चमचागिरी में किया पाठ ही कह रहे हैं। यह कहना कि "क्या मैं इसे इसलिए बड़ी कहानी..." असल में यही कहना है कि अन्य लोग इसे सिर्फ इसलिए सराह रहे हैं कि इसे बड़े आलोचक ने लिखा है। <br /><br />कथित नहीं असली पूर्वाग्रहों को कथित सैद्धांतिक जामा पहनाये जाने की भी यह पहली घटना नहीं है, हाँ स्वाभाविक कतई नहीं लग रही। लेख बहुत जल्दAshok Kumar Pandeynoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-76649356295975281342014-09-12T09:10:06.596+05:302014-09-12T09:10:06.596+05:30कहानी हमको पसंद आयी और आपको नापसंद | हमने अपनी पसं...कहानी हमको पसंद आयी और आपको नापसंद | हमने अपनी पसंदगी के कारण गिनाये और आपने अपनी नापसंदगी के | यहाँ तक तो ठीक है | लेकिन जब आप यह कहते हैं कि "क्या मैं भी इसे इसलिए एक बड़ी कहानी मान लूँ क्योंकि इसे हमारे समय के एक नामचीन आलोचक ने लिखा है? " , तो जैसे यह ध्वनित होता है कि जो लोग इसे बड़ी कहानी मान रहे हैं वे एक नामचीन आलोचक द्वारा इसे लिखे जाने से ऐसा मान रहे हैं | और यही हमारी आपत्ति का बिंदु है |Ramji Tiwarinoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-89972843712415875762014-09-12T09:09:39.782+05:302014-09-12T09:09:39.782+05:30मतलब यह कि राजा नंगा है की कहानी की व्यंजना बड़े आद...मतलब यह कि राजा नंगा है की कहानी की व्यंजना बड़े आदमी के भय से ज्यादा खुद के बेवकूफ समझे जाने की आशंका में है। और पाखी में कहानी के साथ छपी विशेष टिप्पणी उस रूपक के इस्तेमाल के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करती है।राकेश बिहारीnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-78406805573711044462014-09-12T09:09:01.093+05:302014-09-12T09:09:01.093+05:30अशोक जी आपके लेख का इंतजार रहेगा। रही बात राज नंगा...अशोक जी आपके लेख का इंतजार रहेगा। रही बात राज नंगा है वाले मुहावरे के प्रयोग की तो काश आपने इसे बीच से लपकने की बजाय सन्दर्भ सहित पकड़ने की कोशिश की होती जिसका उत्स उस कहानी के साथ की गई सम्पादकीय टिप्पणी में है। जब अपनी पत्रिका के शिल्प को तोड़ कर कोई पत्रिका किसी कहानी के पाठ का कोई ख़ास चश्मा कहानी के साथ चस्पां करे तो इस तरह के मुहावरे अर्थपूर्ण हो जाते हैं। क्या ही अच्छा होता मेरी टिप्पणी को खुद पर किये प्रहार के बजाय इसे आप सन्दर्भ सहित देख पाते! अपना पाठ तो पाठ लेकिन दूसरे का पाठ कुपाठ का भी यह कोई पहला उदाहरण नहीं है। तथाकथित प्रतिबद्धता के पूर्वाग्रह में बदल जाने की यह स्वाभाविक प्रक्रिया है.राकेश बिहारीnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-62495953777201722312014-09-12T09:08:17.175+05:302014-09-12T09:08:17.175+05:30अंधत्व का उलाहना इस स्टेट्स में आपने तब दिया है जब...अंधत्व का उलाहना इस स्टेट्स में आपने तब दिया है जब खुद को राजा को नंगे देख लेने वाला बालक कहा है. हड़बड़ी मैं नहीं कर रहा, अपने लिखे को आप पूरी तरह से नहीं पढ़ रहे. <br /><br />जैसे आप अपनी राय खुद तय करेंगे वैसे ही हमने की है या किसी और ने भी. जब आप राजा नंगा वाला या बड़े लेखक की कहानी वाला मामला उठा रहे हैं तो परोक्ष से यही कह रहे हैं कि इसको पसंद करने के कारण बड़े से भय में छिपे हैं. यानी आप तो सच कह रहे हैं बाक़ी लोग उस भय के कारण झूठ कह रहे हैं. मुहाविरे उपयोग करते समय उनकी व्यंजनाओं से आप जैसे आलोचक मित्र के अपरिचित होने को स्वीकार नहीं कर पा रहा. अब शायद तल्खी की वजह साफ़ हो. बाक़ी आपसे अक्सर सहमति ही रही है तो कोई और वजह क्यों होगी? विशवास कीजिए नथिंग पर्सनल.<br /><br />वह कहानी मुझे इतनी पठनीय लगी कि लगभग सोने की तैयारी कर चुकने के बाद उस ब्लॉग पर इसे रात भर कई कई बार पढ़ा. पठनीयता सब्जेक्टिव भी होती है.<br /><br />बाक़ी लेख के जवाब में लेख ही लिखूंगा. आपके पाठ से मेरी सौ फीसद असहमति है. वह मुझे पूर्वाग्रह, जल्दबाजी और वैचारिक समझदारी के अभाव से किया कुपाठ लगा है.<br /><br />असहमति के अपने और आपके अधिकार का भी सम्मान न होता तो यहाँ बहस कर ही क्यों रहा होता?Ashok Kumar Pandeynoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-10728994793119534602014-09-12T09:07:43.542+05:302014-09-12T09:07:43.542+05:30भाई Ashok Aazami जी! आपकी इस तल्खी का वजह नहीं समझ...भाई Ashok Aazami जी! आपकी इस तल्खी का वजह नहीं समझ पा रहा। क्या इसका कारण इस कहानी पर आपकी राय से असहमति को ही मान लूं? मैंने अपनी टिप्पणी में किसी के अंधत्व की चर्चा नहीं की है। हां आप जैसे असहमत विद्वान् मित्रों से असहमति जताते हुए अपनी झिझक का उल्लेख जरूर किया है। और मेरी टिपण्णी में अपने कहे को आखिरी सच कहाँ कहा है मैं उसे नहीं खोज पा रहा। इस सन्दर्भ में मेरा पक्ष जानने के लिए मेरे उपर्युक्त लेख का आखिरी पैरा देखा जा सकता है। आप जैसे समझदार मित्र से हडबडी की उम्मीद तो नहीं ही करता हूँ।<br /><br />किसी कहानी पर अपनी राय मैं अपने विवेक और तर्कों के आधार पर तय करूँ न कि इसलिए कि उस पर आपने या किसी अन्य मित्र ने लिखा है, कम से कम इतना हक़ तो देंगे न!<br /><br />मेरे लिए न तो फैंटेसी का शिल्प नया है न सपने का। कुछ शब्दों के प्रथमाक्षरों को जोड़ कर नया शब्द बनाने की तकनीक भी मेरे लिए नई नहीं है। फिर पता नहीं आपने यह कैसे तय कर लिया कि मैं इस शिल्प से अपरिचित हूँ? आत्मविश्वास तो ठीक लेकिन दूसरे को अज्ञानी मानने के इस भाव को क्या कहा जाए? नए शिल्प का तो यहाँ सवाल ही नहीं है। प्रश्न एक परिचित शिल्प को न साध पाने का है।<br /><br />उबाउपन हो सकता है आपके लिए एक बड़ा लेखकीय मूल्य हो और धनवान लेखन के लिए अनिवार्य शर्त। पर मेरी सीमित बुद्धि में पठनीयता किसी भी लेखन का पहला गुण है।<br /><br />रही बात मेरे लिए यह कहानी क्यों नहीं है या एक असफल कहानी क्यों है यह मैंने समालोचन वाले लेख में स्पष्ट करने की कोशिश की है। बाकी लोकतंत्र में हम असहमत होने के लिए तो सहमत हो ही सकते हैं न!राकेश बिहारीnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-34185892804635433752014-09-12T09:06:42.431+05:302014-09-12T09:06:42.431+05:30इस समीक्षा और बहस ने कहानी पढने की उत्सुकता पैदा क...इस समीक्षा और बहस ने कहानी पढने की उत्सुकता पैदा की.कहानी पर इस तरह की बहस जरुरी है.Kailash Wankhedenoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-24746049606386798262014-09-12T09:06:04.435+05:302014-09-12T09:06:04.435+05:30वैसे ही जिसे आप बाकियों का अंधत्व कह रहे हैं वह उन...वैसे ही जिसे आप बाकियों का अंधत्व कह रहे हैं वह उनका पाठ है। मुझे आपकी नापसंदगी से कोई दिक्कत नहीं लेकिन आपभी दूसरों की पसंदगी को यों बड़े नाम के पीछे भागना न बताइये। खुद को सही मानना आत्मविश्वास होता है और अपने कहे को अंतिम सत्य मान लेना आत्ममोह।Ashok Kumar Pandeynoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-55362535599896002102014-09-12T09:05:08.867+05:302014-09-12T09:05:08.867+05:30अशोक जी! जिसे आप मेरा आत्ममोह कह रहे हैं वह मेरा प...अशोक जी! जिसे आप मेरा आत्ममोह कह रहे हैं वह मेरा पाठ है। आप लाख असहमत हों आपको आत्ममुग्ध कहने के बजाये मैं आपके असहमत होने के हक़ का सम्मान ही करूंगा। हाँ, यह जरूर है कि भारी भरकम नामों के उल्लेख भर से कोई चीज अच्छी नहीं हो जाती। उम्मीद है आपने पूरी बहस पढ़ ली होगी। यदि थोडा और समय हो तो इस कहानी पर मेरा यह लेख भी पढ़ लें। राकेश बिहारीnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-35626706330785726612014-09-12T09:04:26.532+05:302014-09-12T09:04:26.532+05:30एक दिक्कत यह है कि खुद को बच्चा मानते ही आप दूसरे ...एक दिक्कत यह है कि खुद को बच्चा मानते ही आप दूसरे सब लोगों को उस अंधी भीड़ का हिस्सा मान लेते हैं। यह शुद्ध आत्ममोह है मित्र। नाकोहस मैंने भी पढ़ी और उस पर लिखा। यह किसने लिखी सिर्फ इससे अच्छा तय करने जितना ही गड़बड़ सिर्फ इससे ही बुरा तय कर देना है। <br /><br />मार्केज़ का हंड्रेड इयर्स पढ़ते हुए अगर उनके जादूई यथार्थवाद के प्रयोग और भाषा की दुरुहता के साथ उबाउपन की बात की गयी होती तो शायद हमारे साहित्य जितना ही निर्धन उनका साहित्य होता। मुक्तिबोध के शिल्प और भाषा की तो खैर राम विलास शर्मा जैसे आलोचकों ने जो गत की वह की। <br /><br />नाकोहस क्यों कहानी नहीं है? क्योंकि वह उस शिल्प में नहीं लिखी गयी जिससे आप परिचित हैं या जिसके साथ आप सहज हैं? ज़ाहिर है यह महत्त्वपूर्ण ही इसलिए है कि यह उस सहजबोध को ध्वस्त करती है। उस सहजबोध के साथ जटिल होते समय में नहीं लिखा जा सकता। जो लिखा जा रहा है उसका अधिकाँश आलोचकों के काम का हो तो हो हम जैसे पाठकों के किसी काम का नहीं। वह विमर्शों के लिए उपयोगी है वैचारिक प्रतिबद्ध लेखन के लिए नहीं। लैटिन अमेरिका में जादूई यथार्थवाद यों ही नहीं आया था।Ashok Kumar Pandeynoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-34693159204131862142014-09-12T09:03:14.092+05:302014-09-12T09:03:14.092+05:30समीक्षा पढ़ गयी। आपके तर्क सोचने पर मजबूर करते हैं।...समीक्षा पढ़ गयी। आपके तर्क सोचने पर मजबूर करते हैं। रचना को देखने का एक अलग दृष्टिकोण। बातें मजबूत आधार पर रखी गयी हैं। एक सार्थक बहस की गुंजाइश बनती है। बधाई!Joyshree Roynoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-77227505685620127012014-09-11T20:17:29.787+05:302014-09-11T20:17:29.787+05:30माफ़ कीजिए यह शुद्ध कुपाठ है। हिन्दू प्रतीक इस्तेमा...माफ़ कीजिए यह शुद्ध कुपाठ है। हिन्दू प्रतीक इस्तेमाल किये जाने भर से यह साम्प्रदायिकता के खिलाफ होने से रह गयी? रघु का नाम रघु रखना बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता की बात करना हो गया? क्या यह साफ़ नहीं दिख रहा कि यह दोनों धर्मों के बीच उस खाई के होने का अस्वीकार है जिसके होने का हौवा खड़ा कर पूरा दक्षिणपंथी विमर्श खडा होता है। <br /><br />कहानी को लेकर भी राकेश भाई ने बहुत उथली बातें की हैं। मानो मानक संरचना जैसा कुछ है जिसका अतिक्रमण किया जाना अपराध है। यह संगीत में उपस्थित ब्राह्मणवादी शुद्धतावाद जैसा है जिसे विश्वमोहन भट्ट जैसे लोग अपनी रूद्र वीणा से तोड़ चुके हैं। <br /><br />संभव हुआ तो मैं इसका एक प्रतिपाठ लिखना चाहूँगा। Ashok Kumar pandeyhttps://www.blogger.com/profile/12221654927695297650noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-4273962953212515572014-09-11T13:42:11.147+05:302014-09-11T13:42:11.147+05:30"अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति का नाम हिन्दू म..."अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति का नाम हिन्दू मिथकीय चरित्र के नाम पर होना कहीं न कहीं फासिस्ट शक्तियों के प्रभाव को स्वीकार करने जैसा है." yahee ek vaakya pooree kahani ko uske n samjhe gaye mantvyon ke barax la khada kar deta hai. Kya kahani men aise vaakya isi tarah "rache" jaate honge? BEHAD STEEK TIPPNEE HAI. kahani ki rachna yaatra me aise pryas khud vidha ka hee nuksaan karte hain! magar charcha to mil rahi hai varna in dinon sabkuch ojhal nikal jaata hai!rajkumarrakeshhttps://www.blogger.com/profile/08795623672384504975noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-65580103306909741842014-09-11T09:14:35.975+05:302014-09-11T09:14:35.975+05:30अभी-अभी पढ़ गई यह आलेख। बहुत संगत आलोचना है। बधाईअभी-अभी पढ़ गई यह आलेख। बहुत संगत आलोचना है। बधाईSudha Singhnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-51457388245130074922014-09-11T08:02:58.281+05:302014-09-11T08:02:58.281+05:30आँख खोलने वाली टिपण्णी। आलोचना से यह बेबाकी इनदिनो...आँख खोलने वाली टिपण्णी। आलोचना से यह बेबाकी इनदिनों लगातार गायब हो रही है। बधाई।<br /><br />रत्नेश कुमार सिंहAnonymousnoreply@blogger.com