tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post4221629423248759956..comments2024-03-18T14:45:15.993+05:30Comments on समालोचन : कथा - गाथा : थर्टी मिनिट्स : विवेक मिश्रarun dev http://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comBlogger7125tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-35511881422634469222016-12-10T06:17:58.746+05:302016-12-10T06:17:58.746+05:30थर्टी मिनटस की यह एक बड़ी कहानी है . आज का भागता स्...थर्टी मिनटस की यह एक बड़ी कहानी है . आज का भागता स्वप्नहीन युवक जिसके पास कुछ भी नहीं है जो बोरियत की चरम सीमा पर है .. यह कहानी नहीं युग का व्याख्यान है . विवेक मिश्र नए ढब से बात कहते हैं ..यह कहने में गुरेज नहीं है कि वे मेरे प्रिय कथाकार हैं .प्रज्ञा पांडेयhttps://www.blogger.com/profile/03650185899194059577noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-55663600633691275962016-11-16T09:00:02.342+05:302016-11-16T09:00:02.342+05:30आज का युवा जिंदगी से भी मोबाइल गेम की तरह ही खेल र...आज का युवा जिंदगी से भी मोबाइल गेम की तरह ही खेल रहा है .. बेहद खूबसूरत चित्रण ... दिल को झकझोरती कहानी ... हेमा अवस्थी https://www.blogger.com/profile/02288709316545883272noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-77713223922875659582016-11-15T19:20:16.249+05:302016-11-15T19:20:16.249+05:30 कहानी हक़ीक़त बयां करती है और यह डरावना है। मोबाइल ... कहानी हक़ीक़त बयां करती है और यह डरावना है। मोबाइल गेम जैसी ज़िन्दगी।Varsha Singhnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-59420292685428421972016-11-15T19:15:55.956+05:302016-11-15T19:15:55.956+05:30कुछ पल के लिए ठहर गई 30 मिनिट्स के खत्म होते ही और...कुछ पल के लिए ठहर गई 30 मिनिट्स के खत्म होते ही और सोचा क्या था यह प्रेम तो भरोसा क्यों नही यह खेल था तो जीवन से खिड़वाड लगा ।आज की युवा पीढ़ी की उन्मादी हकीकत लगीPravesh Soninoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-61657204093171953122016-11-15T17:42:22.773+05:302016-11-15T17:42:22.773+05:30कहानी झकझोर जाती है..आज का युवा भ्रमित है।क्या चाह...कहानी झकझोर जाती है..आज का युवा भ्रमित है।क्या चाहता है, क्यों चाहता है स्वंय ही नहीं जानता।अपने में रहता है,मन की गिरह को खोलने के लिए अनुभवी हाथ चाहिए ऐसे में किसी से अपनी समस्याएं साझा करना उचित समाधान है... stop watch is not a solution at all...<br /><br />Vimmihttps://www.blogger.com/profile/06875338216452842502noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-48963365511006153842016-11-15T16:53:08.722+05:302016-11-15T16:53:08.722+05:30I underscore its tragedy and pathos...is it stopwa...I underscore its tragedy and pathos...is it stopwatch which repeats the agony of life? Is it stopwatch rescuing life from lonliness or emancipating all Mulkas from satirical verses of lonesome tambourines?अपर्णा मनोजhttps://www.blogger.com/profile/03965010372891024462noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-17899624386957550562016-11-15T15:59:16.407+05:302016-11-15T15:59:16.407+05:30विवेक जी के संग्रह पार उतरना धीरे से की मैंने समीक...विवेक जी के संग्रह पार उतरना धीरे से की मैंने समीक्षा लिखी है उसी में थर्टी मिनट्स पर भी अपना दृष्टिकोण रखा जो इस प्रकार था : <br /><br />‘ थर्टी मिनट्स ‘ आज के युवा की सोच और उसके जल्दबाज़ी में लिए गए निर्णयों का चित्रण है । कैसे आज के युवा के लिए ज़िन्दगी सिर्फ़ एक खेल बन कर रह गयी है कि वो अपनी ज़िन्दगी की परवाह ही नहीं करते और उसे ही दांव पर लगाने को आतुर हो जाते हैं जाने कैसा पैशन है जो ज़िन्दगी के साथ मौत से भी समय की दौड लगा खुद को जीता हुआ साबित करना चाहते हैं और इसी चाहत में एक दिन खुद को अपने ही हाथों मिटा बैठते हैं । जाने क्यों ये कहानी ऐसी लगी जैसे ऐसी ही कोई घटना कहीं पढी हो मैने शायद किसी अखबार आदि में फिर भी लेखक ने प्यार और पैशन के बीच चलते खेल को बखूबी उकेरा है । कैसे एक लडका मुल्क पिज्जा डिलीवरी के तीस मिनट के साथ अपनी ज़िन्दगी से खेलता है , सारा फ़ाँसी का सामान तैयार कर लेता है और करता है तीस मिनट पूरे होने का इंतज़ार यदि तीस मिनट में पिज़्ज़ा नहीं आया तो मौत आयेगी यानि वो फ़ाँसी लगा लेगा और इसी के साथ जोड लेता है अपनी प्रेयसी के आगमन को कि देखें कौन पहले आता है पिज़्ज़ा , प्रेयसी या मौत और हर बार पिज़्ज़ा समय पर आने पर खुद को जीता हुआ महसूसता है । एक अजब फ़ितूरी शख्सियत का मालिक मुल्क या उस जैसे लडके हुआ करते हैं और फिर एक दिन जब प्रेयसी नीरु लडके की शाम बनाने के उद्देश्य से जब पहुँचती है तो तब तक बहुत देर हो चुकी होती है न पिज़्ज़ा वक्त पर पहुंच पाता है न वो और मुल्क अपने खेल के अनुसार अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेता है । कैसा जुनून होता है आज के युवा वर्ग पर उसका इस तरह वर्णन किया है कि लगता है घडी की सुइंयाँ पाठक के साथ साथ चल रही हैं और पाठक अंत तक दिल थामे यही प्रार्थना करता नज़र आता है या कहिये उसकी सारी संवेदनायें लडके के पैशन के साथ जुड जाती हैं और वो भी चाहता है कि आज तो प्रेयसी पहुँच ही जाए मगर अंत में लडके का मरना सिर्फ़ अपने पैशन के लिए पाठक को हतप्रभ छोड जाता है और सोचने को विवश कि आज की महानगरीय संस्कृति कैसे एक अकेलेपन की बेल बो रही है और उस अकेलेपन से निजात पाने के लिए कोई किस हद तक जा सकता है खास तौर से बाहर से आने वाले बच्चे जब अपना कैरियर बनाने की जद्दोजहद में जुटे होते हैं तो उन पर दोहरा दबाव होता है एक तो सिस्टम में खुद को एडज़स्ट करने का दूसरा कैरियर बनाने का और ऐसे में उन्हें अपने लिये कुछ सोचने का वक्त ही नहीं मिलता और जब मिलता है तो वो कुछ ऐसे शौक पाल लेते हैं जो उनके लिए ही जानलेवा होते हैं मगर उनमें छुपे रोमांच के लिए वो कुछ भी कर गुजरने को तैयार हो जाते हैं इस तरह मानो वो खुद को तसल्ली देते हैं कि हाँ , हम में भी है दमखम , हम भी कुछ कर सकते हैं और यही सोच जब पकने लगती है और ऊपर से अपनों से दूर होते हैं तो कोई मानसिक सम्बल भी नहीं होता तो खुद के बनाए चक्रव्यूह में उलझ एक दिन खुद को ही मिटा देते हैं , इसी का बहुत गहराई और बेबाकी से विश्लेषण करते हुए लेखक ने युवा पीढी की मनोदशा का चित्रण किया है जो पाठक को सोचने पर विवश करता हुआ छोड जाता है ।<br /> <br />vandana guptahttps://www.blogger.com/profile/00019337362157598975noreply@blogger.com