tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post4035592838930253152..comments2024-03-18T14:45:15.993+05:30Comments on समालोचन : बहसतलब : रचना और आलोचना का सवाल :५ : गणेश पाण्डेयarun dev http://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comBlogger9125tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-51196198977595724412012-01-09T18:15:35.900+05:302012-01-09T18:15:35.900+05:30गणेश पाण्डेय जी ने आलोचना के सन्दर्भ में 'ईमान...गणेश पाण्डेय जी ने आलोचना के सन्दर्भ में 'ईमानदारी, साहस और धीरज' बात उठाई है जो आज के आलोचक के लिए ही नहीं, लेखक के लिए भी जरूरी है. मैं अपनी टिप्पणियों में ईमानदारी, साहस और धीरज जैसे और मुद्दों को बराबर शिद्दत से उठती रही हूँ. <br />गणेश पाण्डेय जी ने एक सही आलोचना को सही सामाजिक-राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में आगे बढ़ाने की बात पर बल दिया है. उनके सुझाव और चिंताएं निसंदेह साहित्य (केवल आलोचना ही नहीं) के लिए बहुत जरूरी है. <br />यहाँ एक बात समझ नहीं आ रही है कि गणेश पाण्डेय जी टिपण्णी और मैनेजर पाण्डेय जी के उद्धरण के साथ अपर्णा जी के इस कथन का क्या आशय है- aur samkaleen alochna hindi sahity mein marxist approach ka synonym bankar rah gai hai ..vishyatantar ke liye maafi chahungi..<br />par isi khidki se hamne alochna ko dekha hai to iske auzar bhi isi ki barkas dekhe gaye hain..<br />क्या गणेश पाण्डेय जी टिपण्णी और मैनेजर पाण्डेय जी के उद्धरण मार्क्सवादी आलोचना को ख़ारिज करते हैं? या मार्क्सवादी आलोचना और इन दोनों की टिप्पणियों में कोई विरोध है? <br />कई ऐसा तो नहीं कि सिर्फ मार्क्सवादी-प्रगतिशील-जनवादी आलोचना या फिर समग्र रूप से मुख्य धारा की आलोचना को नकारने के लिए ये बात सायास कही गयी है? वैसे भी आजकल इन आलोचना धाराओं को नकारने का फैशन चल निकला है, बस नामों से ही आपत्ति है. आलोचना का आधार तो वही टूल्स हैं जो पहले गढे जा चुके हैं. खोट इनमें नहीं है, खोट हमारे विनियोग करने के तरीकों में है. हमें अपनी आलोचना के लोक-चरित्र को समझना होगा. उसकी जीवंत और विकसनशील प्रवृत्तियों को सहजना-विकसित करना होगा. केवल मार्क्सवाद के विरोध के काम नहीं चलेगा, युग-जीवन की परिस्तिथियों के अनुकूल उसे मांजना-निखारना होगा. हमें यह भी देखना होगा कि भोथरी आलोचना हो गयी है या हमारे स्वार्थ प्रबल हो गए हैं जो आलोचना के सही रूप को सामने आने से रोके हुए हैं. <br />पाण्डेय जी के कथन को ही ठीक से देखें “आज हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना का विकास न अतीत के गुणगान से संभव है न चालीस के दशक के स्तालिनवादी मान्यताओं के पुनर्कथन और पुनरावृति से. जरूरत है समकालीन सामाजिक राजनीतिक आंदोलनों और सांस्कृतिक रचनाकर्म के संदर्भ में मर्क्सवाद की व्याख्या और बोध की.” यह कहीं भी मार्क्सवादी आलोचना का विरोध नहीं कर रहा है. यह तो हमें उसके विनियोग के प्रति सावधान होने को कहता है. <br />क्या इन दोनों के विचार व्यापक परिदृश्य में मार्क्सवादी आलोचना या कि प्रगतिशील आलोचना या कि जनवादी आलोचना या फिर समग्र रूप से मुख्य धारा की आलोचना का ही रूप नहीं है?<br />जिस 'ईमानदारी, साहस और धीरज' की बात आलोचना के लिए गणेश पाण्डेय जी करते हैं मार्क्सवादी सोच की आलोचना धाराएँ उनका पूरा सम्मान करती है. अब देखना यह है कि वो कौन आलोचक हैं जो मार्क्सवादी आलोचना के नाम से अपने शुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए नकली और अवसरवादी आलोचना रच रहे हैं.साँच भी आँच भी !https://www.blogger.com/profile/14080000239604362735noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-71727965474505825092012-01-07T00:59:34.686+05:302012-01-07T00:59:34.686+05:30गणेश जी ने बड़ी बेबाकी से उस प्रवृति की ओर इशारा कि...गणेश जी ने बड़ी बेबाकी से उस प्रवृति की ओर इशारा किया है जिससे हिंदी आलोचना संचालित होती है आजकल कमोबेश. इन दिनों आलोचक न्युनतम शर्तो से किनारा लर ले रहा है. और पिटे हुई लकीर को पिटा जा रहा है. आलोचना के रुग्णता का एक लक्षण यह भी है.amiteshhttps://www.blogger.com/profile/05923164488045661896noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-88901158338982455772012-01-06T19:15:59.695+05:302012-01-06T19:15:59.695+05:30ज्ञान बढ़ाता हुआ लेख..ज्ञान बढ़ाता हुआ लेख..प्रवीण पाण्डेयhttps://www.blogger.com/profile/10471375466909386690noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-77917304605790677812012-01-06T14:54:44.311+05:302012-01-06T14:54:44.311+05:30आज आलोचना की धार भोथरी होती जा रही है ऐसे में एक उ...आज आलोचना की धार भोथरी होती जा रही है ऐसे में एक उत्कृष्ट प्रयास ही नहीं एक अलग मुकाम,धारा,प्रवाह और युग के रूप में मूल्यांकन कमोवेश गलत न होगा..Sunita Kumarinoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-21860262143791213882012-01-06T14:53:56.948+05:302012-01-06T14:53:56.948+05:30गणेश जी को बधाई। अच्छे ढंग से बात आगे बढा रहे हैं...गणेश जी को बधाई। अच्छे ढंग से बात आगे बढा रहे हैं। लेकिन पूरा लेख पढकर लगा कि उनके पास बहुत कुछ और है जिसे इस संक्षिप्त टिप्पणी में वे शायद कह नहीं पाये। उम्मीद है जल्द ही वे विस्तार से लिखेंगे।Prem Chand Gandhinoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-469695157904274172012-01-06T14:52:10.141+05:302012-01-06T14:52:10.141+05:30आलोचना और रचना के पारस्परिक व्यापार को यहाँ एक सुच...आलोचना और रचना के पारस्परिक व्यापार को यहाँ एक सुचिंतित पड़ाव मिलता है. मेरी समझ में आलोचना, रचना के आत्मसंभव समाज की जैविक और बहिरंग उपस्थिति है. एक ऐसी संक्रान्तिजन्य चेतना जो रचना के अपने समसामयिक अकेलेपन या उच्चाटन को, एक विस्तृत समयांतराल में, जीवन की संस्कृति और उसके परम्परा-बोध के सुपुर्द करती चलती है. गणेश जी ने अब तक की बहस में कुछ खोये हुए और खारिज संकेतों को उत्प्रेरक की तरह इस्तेमाल किया है. उन्हें साधुवाद. सबसे रोचक तो है बातचीत के शिल्प में लिखा गया उनका वैचारिक गद्य.Subodh Shuklanoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-34946805269311437492012-01-06T11:23:10.393+05:302012-01-06T11:23:10.393+05:30आलोचना को कई प्रकार के खतरे हो सकते हैं ,और गणेश प...आलोचना को कई प्रकार के खतरे हो सकते हैं ,और गणेश पांडेय जी ने केवल बाहरी खतरों की बात की है ।ईमानदारी ,साहस और धीरज को आलोचक ही नहीं मानवमात्र का गुण माना जा सकता है ।क्या आज की रचनात्मकता की परख के लिए औजार कम पड़ गए हैं या आलोचक अक्षम हो गया है ।ये प्रश्न अलग है ,तथा वह चोर ,बेईमान ,सुविधाभोगी होकर किसी छुटके को प्रमोट कर रहा है ,यह प्रश्न अलग है ।क्या कुछ लोग बेईमान हो गए हैं या पूरा कौम ही शक के दायरे में है ।यदि बाकी लोग सही है ,तो उनकी कौन सी आलोचना है ।उनकी कौन सी पद्धति है ,उनके कौन से औजार हैं ,तथा इन औजारों से कौन कवि ,कौन सी धारा सामने आयी है या आ सकती है ,इसको भी सामने लाया जाना चाहिए ।rabi bhushan pathakhttps://www.blogger.com/profile/18276093089412772926noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-60077940886917198082012-01-06T09:17:42.885+05:302012-01-06T09:17:42.885+05:30गणेश पाण्डेय जी ने आलोचना के सम्मुख्ा उपस्थित ख...गणेश पाण्डेय जी ने आलोचना के सम्मुख्ा उपस्थित खतरों और चुनौतियों का अपने देशज लहजे में बेहतर विवेचन किया है। उनके लेखन में व्यंग्य की धार रचना का सा असर पैदा करती है। पर समस्या यह है कि ये सब हाशिये की बातें लगती हैं, धारा के बीच उतरने का उपक्रम कम दिखाई देता हैं। गणेशजी को बधाई।नंद भारद्वाजhttps://www.blogger.com/profile/10783315116275455775noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-4205099698240042962012-01-06T08:14:24.554+05:302012-01-06T08:14:24.554+05:30बधाई, गणेश जी को, बात को प्रभावी ढंग से आगे बढ़ाने...बधाई, गणेश जी को, बात को प्रभावी ढंग से आगे बढ़ाने के लिए. बस, वह कविता का उदाहरण/ उद्धरण कुछ ज़्यादा ही लंबा हो गया. सामाजिक अभिप्राय को रेखांकित करने के काम को हाथ में लेना ही एक क़दम आगे बढ़ना है. मैंने महेश पुनेठा के लेख पर अपनी टिप्पणी में 'आलोचना के औजारों की आलोचना' का प्रश्न उठाया था, वह कुछ तो आगे बढ़ा है, पर अधिक ठोस संदर्भों में इस काम को अंजाम दिया जाना बाक़ी है. औजारों कि आलोचना की ज़रूरत को रेखांकित करने का आशय इस समझ में निहित है कि उपलब्ध औजार या तो खुट्टल हो गए हैं या उनका इस्तेमाल सही ढंग से नहीं हो पा रहा. बहरहाल, आलोचना के संकट की आड़ में रचना के संकट पर बात करने से बचने से भी नहीं बन पाएगी. मैंने अपने आलेख का समापन इस बिंदु पर ही किया था.मोहन श्रोत्रियhttps://www.blogger.com/profile/00203345198198263567noreply@blogger.com