tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post4027458436383410551..comments2024-03-18T14:45:15.993+05:30Comments on समालोचन : सहजि सहजि गुन रमैं : वाजदा खान arun dev http://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comBlogger8125tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-71902562613503639602013-04-28T05:41:11.193+05:302013-04-28T05:41:11.193+05:30वाजदा खान से इधर तीन-चार बार मिलना हुआ है. पहले से...वाजदा खान से इधर तीन-चार बार मिलना हुआ है. पहले से नहीं जानता था उन्हें. उनकी कविताएँ भी नहीं पढ़ी थीं. उनको अभी तक सुना भी नहीं है. पिछले महीने वे एक कार्यक्रम में कविता-पाठ कर रही थीं पर मैं सदा का लेट-लतीफ़...जब तक पहुँचा, उनका कविता पाठ खत्म हो चुका था. अफ़सोस. दो-तीन महीने पहले अपर्णा मनोज जी ने बताया उनके बारे में और उनकी कविताओं के बारे में. उसके कुछ दिन बाद हमारी मुलाक़ात हुई नोएडा में और 'जिस तरह घुलती है काया' तोहफ़े के रूप में प्राप्त हुई. अपनी व्यस्तता के कारण मैं उनके घर (वे नोयडा में रहती हैं) चलने का उनका आग्रह स्वीकार नहीं कर सका और इस प्रकार उनसे उनकी कविताओं और पेंटिंग्स पर खुल कर बात करने का अवसर गँवा दिया. उसके बाद की हमारी मुलाकातें भी चलते-चलते ही हुई हैं पर इन मुलाकातों में ही जितना जान पाया हूँ उनको, उससे लगता है कि वे एक बहुत ही संकोची, मृदुभाषी और किसी भी प्रकार की बनावटीपन से दूर रहने वाली महिला हैं. मैंने उनसे लंबी बात-चीत का अवसर तो गंवाया पर उनकी कविताओं से एक लंबा साक्षात्कार लेने का अवसर नहीं गंवाया. मैं उनके व्यक्तित्व के बारे में इस लिए लिख रहा हूँ कि जब मैंने उनकी कविताएँ पढ़ीं, उनका व्यक्तितत्व वहाँ पूरी तरह से उतरा हुआ महसूस हुआ. मैंने 'जिस तरह घुलती है काया' की सारी कविताएँ पढ़ी हैं और कुछ कविताएँ एक बार नहीं कई-कई बार. उनकी कविताओं में उनका सहज और संकोची व्यक्तित्व तो घुला-मिला दिखाई देता ही है, साथ ही उनका चित्रकार भी उनकी कविताओं में बहुत अंदर तक उतर आता है. किम आश्चर्यम? अगर ऐसा नहीं होता तो शायद आश्चर्य होता.<br /><br />कविताएँ पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि कवि कुछ संकोच में है. शब्दों को बरतने में संकोच, बिंब को उठाने में संकोच, प्रतीकों के प्रयोग में संकोच...यह संकोच वास्तव में कविता के प्रवाह को थोड़ा धीमा करता है पर दूसरी ओर कविता में आया जो दुःख है, जो आँसू हैं, जो हँसी है या कह सकते हैं कि कविता की जो पूरी की पूरी संवेदना है उसकी सघनता को विस्तार देता है, उसको अत्यंत तीक्ष्ण बनाता है इतना तीक्ष्ण की पाठक यह सोच सकता है कि ‘इन कविताओं को पढ़ने के बाद, हम पत्थर के क्यों न हुए?’ वाजदा खान की कविताओं में दुःख डूबता नहीं है, वह घुलता है जैसे घुलती है काया, जैसे किसी के प्रेम में घुलता है शरीर या जैसे पानी में घुलता है रंग किसी महान चित्र की भूमिका बनाते हुए. ‘समालोचन’ में प्रकाशित कविताओं के अलावा भी उनकी जितनी कविताएँ हैं उनको पढ़ते हुए मैं इस ‘घुलने’ की क्रिया को अपनी आँखों से देखता रहा, साक्षात्. अभी जब यह लिख रहा हूँ कुछ घुल रहा है मन के अंदर, किसी खूबसूरत कुफ्र की तरह. <br /><br />वाजदा जी को बहुत बहुत बधाई व शुभकामनाएँ! अरुण देव मतलब समालोचन को भी बहुत बहुत बधाई व शुभकामनाएँ! <br />Sayeed Ayubhttp://gmail.comnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-24489939854555296112013-04-25T11:29:21.703+05:302013-04-25T11:29:21.703+05:30वजादा आप हमें बहुत प्रिय हैं बिलकुल छोटी बहन की तर...वजादा आप हमें बहुत प्रिय हैं बिलकुल छोटी बहन की तरह | इधर आपकी कविताओं में रंगों जनित संवेदना का एक नया विस्तार शामिल हो ----हलके-हलके पानी वाले बादलों के बीच /पीली लम्बी पट्टी खिंची थी /मेरे ह्रदय से तुम्हारे ह्रदय तक ----- सिलवटों से भरा एक चेहरा/ संभाल के रखा है संदूकची में या--- फिर चाँद बारिश में भींगता है----बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति और घनी संवेदनाएं | कवितों में पेंटिंग करने लगीं हैं आप| <br /><br />रंजना श्रीवास्तव, सिलिगुरी Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-36496964927741037842013-04-22T14:12:19.381+05:302013-04-22T14:12:19.381+05:30ऐसे चित्रों की तरह हैं कवितायें, जैसे भाव-रंग भरा ...ऐसे चित्रों की तरह हैं कवितायें, जैसे भाव-रंग भरा शब्दाकाश ! राजेश चड्ढ़ाhttps://www.blogger.com/profile/13615403040017262901noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-53006382948089879252013-04-21T18:17:48.716+05:302013-04-21T18:17:48.716+05:30एक संवेदनशील कलाकार का दिल, दिमाग और आंखें जब अपने...एक संवेदनशील कलाकार का दिल, दिमाग और आंखें जब अपने परिवेश को इतनी सघनता के साथ मिलकर रचते हैं तो कहीं शब्द कम पड़ जाते हैं तो कहीं रंग और रेखाएं... वाज़दा ख़ान की कविताओं से गुज़रते हुए यही अहसास होता है कि वे निरंतर एक माध्यम से दूसरे माध्यम के बीच एक कलाकार के लिए अभिव्यक्ति के ज़रूरी उपादानों का रैण्डम इस्तेमाल करती हुई एक बेहद ज़रूरी सामयिक काव्याख्यान रचती चली जाती हैं... मेरी संवेदना में उनकी कविता और कला का रंग इस कदर जुड़ गया है कि यह एक न भूलने वाला अहसास बन गया है। शुक्रिया अरुण जी, समालोचन... और अशेष शुभकामनाएं और बधाइयां वाज़दा जी के लिए... Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/13562041392056023275noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-65730067085809857332013-04-21T08:01:37.135+05:302013-04-21T08:01:37.135+05:30पीड़ा अकसर अनकही रह जाती है आशुतोष जी ..जैसे डूबी ह...पीड़ा अकसर अनकही रह जाती है आशुतोष जी ..जैसे डूबी हुई सीढ़ी तक पैर नहीं जाते ..आपका कमेन्ट वाजदा की कविताओं और पेंटिंग्स पर सटीक है.<br />वाजदा की कविताएँ स्त्री के मन की कविताएँ ,उसके रंग मेरी स्त्री के देखे रंग . शुभकामना वाजदा ..आपकी पेंटिंग्स की exhibition होने वाली है .उसके चित्र जल्द देखने को मिलेंगे .अपर्णा मनोजhttps://www.blogger.com/profile/03965010372891024462noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-42204973279918994502013-04-21T07:01:36.115+05:302013-04-21T07:01:36.115+05:30हम पत्थर की क्यूं न हुयी कविता और साथ की पेंटिंग ....हम पत्थर की क्यूं न हुयी कविता और साथ की पेंटिंग .कविता का स्वर धीमा और उदास है , लेकिन ध्वनि दूर तक जाती हुई .फिर भी पीड़ा का जो बड़ा हिस्सा अनकहा रह गया , उसे इस चित्र में उकेर दिया गया है . काछी हरे , जर्द पीले , हल्के गुलाबी और सलेटी काले रंगों के संयोजन से अँधेरे के जल में सदियों से डूबी हुयी इतिहास की सीढ़ियों का संकेतन अद्भुत है .आशुतोष कुमारhttps://www.blogger.com/profile/17099881050749902869noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-20325867713006000382013-04-20T17:06:07.125+05:302013-04-20T17:06:07.125+05:30namaskaar
behad sunder kavitae hai , man ko chule...namaskaar <br />behad sunder kavitae hai , man ko chulene wali . jitni kavitae saarthak hai uutne hi saath ke chitr . wajdaa jee ko behad badhai ,sadhuwad sunder kavitaon ke . aurn jee ko abhar hum tak rakhne ke liye , punah badhai<br />saadar सुनील गज्जाणीhttps://www.blogger.com/profile/12512294322018610863noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-75044351732997583152013-04-20T09:30:16.022+05:302013-04-20T09:30:16.022+05:30"हम लड़की होने का शोक मनाएं / कन्फैशन करें, ... "हम लड़की होने का शोक मनाएं / कन्फैशन करें, क्या करें हम / लड़की होना गर कुसूर है हमारा / तो सीता, मरियम, आयशा को भूलकर / हम शर्मिन्दा हैं / कि हम पत्थर क्यों न हुईं --" वाजदा खान की इन कविताओं में जो गहरी वेदना का स्वर उभरता है, वह मानव सभ्यता के इस भयावह दौर में वाकई स्त्री के दुख की विकल कर देने वाली महागाथा-सी लगती हैं। वे उन तमाम सत्ता-व्यवस्थाओं, मजहबी नियंताओं और स्त्री के प्रति हमदर्दी का दम भरनेवाली आवाजों को शर्मसार करती हैं, जिनके वादे, वास्ते ओर सदाशयताएं दिखावा होकर रह गई हैं, सारी संवेदनाएं जैसे पत्थर हो जाने को नियति पर आकर ठिठक गई हैं। वाजदा की यह विकल कर देने वाली अभिव्यक्ति पाठक को सिर्फ कविता तक सीमित नहीं रहने देगी, यह कामना करते हुए भी मन में कहीं तसल्ली नहीं हो पाती।नंद भारद्वाजhttps://www.blogger.com/profile/10783315116275455775noreply@blogger.com