tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post3696930691040420803..comments2024-03-18T14:45:15.993+05:30Comments on समालोचन : निज घर : गीत चतुर्वेदी arun dev http://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comBlogger4125tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-18367261333209528752014-07-03T17:29:29.142+05:302014-07-03T17:29:29.142+05:30लेखक ने सृष्टि व उसमे मौजूद वस्तु की बिलकुल अनूठी...लेखक ने सृष्टि व उसमे मौजूद वस्तु की बिलकुल अनूठी व्याख्या की है सुन्दर प्रस्तुति .सुनीताhttps://www.blogger.com/profile/17628475127497676694noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-64744304835923254232014-07-03T11:51:39.600+05:302014-07-03T11:51:39.600+05:30हिंदी कविता गहन प्रयोगधर्मिता से गुजर रही है और वह...हिंदी कविता गहन प्रयोगधर्मिता से गुजर रही है और वह अतिशीघ्रातिशीघ्र अंतराष्ट्रीय फलक पर फैल जाने को फड़फड़ा रही है। ऐसे में उसका विश्व साहित्य (अर्थात् वर्ल्ड लिटरेचर) से आक्रांत और आवृत होते जाना स्वाभाविक है। लेकिन इसमें असल खतरा यह रहता है कि इस उपक्रम में कविता अनजाने अथवा सायास अतिअनुकरण और अतिअमूर्तन का शिकार हो जाती है। इतना ही नहीं, इस कारण कविता की भाषा, शिल्प, शैली, कहन और बिम्बों आदि में किंचित कृत्रिमता आने लगती है और कविता की नैसर्गिक सहजता समाप्त होने लगती है। फिर भी, हरेक कवि- चाहे वह महान हो या टुच्चा, बड़ा हो या छोटा, लोकल हो या ग्लोबल- स्वयं में एक स्वतंत्र मनुष्य तो होता ही है और उसके सोचने, देखने, विचारने के साथ-साथ कल्पना करने, स्वप्न देखने और अनुभव और अनुभूति की क्रियाएँ और प्रक्रियाएँ और अंतत: इनकी परिणतियाँ सर्वथा अलग-अलग ही होती हैं! कविता चाहे जितनी इम्पर्सनल हो, कवि हमेशा इंडिविजुअल होता है। गीत की रचना-प्रक्रिया उनकी अपनी रचना-प्रक्रिया है और इसे एक रचनाकार की निजी अनुभूति-अभिव्यक्ति के रूप में ही देखना उचित है। इस अर्थ में मैं अपर्णा मनोज जी की बातों से सहमत हूँ। हरेक व्यक्ति - चाहे वह कवि हो या चित्रकार या संगीतकार- का अपना चयन और अपना गमन होता है। किसी को अमेरिका में रहना पसंद होता है, किसी को अपना भारत ही न्यारा लगता है! किसी को महानगर पसंद होता है, किसी को गाँव ही सहज लगता है! कोई कबीर के पदों में ही खोया रहता है तो कोई पॉप-रैप-जैज में रमता-विचरता है! यह अंतत: निजी और वैयक्तिक चयन और गमन और अंततोगत्वा वैयक्तिक सृजन ही है। लेकिन सृजन की मीमांसा कला के दायरे में करना तो ठीक है पर यदि उसकी अतिमीमांसा होने लगे तो सृजन तकनीक में तब्दील हो जाता है। और तकनीक आरंभ में आकर्षित तो करती है लेकिन अंत में उबाती ही है। राहुल राजेशnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-13206537138065449282014-07-02T16:23:22.401+05:302014-07-02T16:23:22.401+05:30चित्रकला को सम्पूर्णता में समझा जा सकता है. जीवन क...चित्रकला को सम्पूर्णता में समझा जा सकता है. जीवन की भांति उसके आदि अनंत का पता लगाना कठिन है. जो बने हुए नियमों और संबंधों का खंडन करके नए तरीके से सोचने को मजबूर करे, वह सच्ची कला है. सभी विधाएं कहीं न कहीं एक दूसरे से जुडी हुई हैं. लम्बे समय तक याद् रखा जाने वाला गाना शब्द, संगीत और दृश्य को मिलाकर सम्पूर्ण प्रभाव छोड़ता है. गीत का लेखन चित्रकला की भांति कदम -कदम पर रुककर सोचने के लिए मजबूर करता है. उनके लेखन में विश्व संगीत, सिनेमा और कला की समझ की झलक मिलती है. बहुस्तरीयता और गंभीर चिंतन उन्हें अन्य लेखकों से अलग करते हैं.स्वप्न और मिथ कल्पना का अद्भुत मेल हैं जिन्हें तार्किक बताकर उन्हें नया आयाम दिया गया है. दाली की घड़ियों का कपड़ों की तरह सूखने का दृश्य उनके चित्रों को हमारे सामने ला देता है. इस सुन्दर और जानकारी भरे आलेख के लिए समालोचन का आभार और गीत को बधाई.sarita sharmahttps://www.blogger.com/profile/03668592277450161035noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-13057264548212398062014-07-02T13:12:07.272+05:302014-07-02T13:12:07.272+05:30
गीत ने दाली की जिस पेंटिंग पर बात की है -वह उनका ...<br />गीत ने दाली की जिस पेंटिंग पर बात की है -वह उनका अपना नजरिया है। हर कला अपनेआप में जैविकी क़ा विस्तार हैं। समय और शून्य के बीच इसका विस्तार होता है। <br /><br /><br />दाली की इस पेंटिंग को देखकर आप खुद से सवाल करते हैं -कि यहाँ ठूंठ क्यों आता है, हरा भरा पेड़ क्या हुआ ? ठूंठ को एक चबूतरे की ज़रूरत क्यों हैं ? वह ज़मीन से क्यों नहीं उठा ?कृत्रिमता का चबूतरा उसे क्यों दिया गया ? ठूंठ पर घड़ी (कपडे की तरह सूखी हुई :गीत का पर्सेप्शन है ) का कपडे की तरह सूखना ? जबकि मुझे लगा कि एक अंतिम पत्ता है छूटा हुआ, अपने ही तने पर इस तरह लिपटा हुआ कि -लो समय जाता है की अनुगूंज बस । घड़ी एक विपर्यय -ठोस के विरोध में लचीलापन। ज़मीन पर पड़ी घड़ी जैसे एक शव -चीटियाँ शव का अंतिम संस्कार करती हुई, फिर एक विपर्यय। <br />अवचेतन में सब कुछ बदलने की चाह। स्वप्न एक तरह का दखल है -मनोविकारों की भूमि में पड़ा बीज। लाओ इसे मैँ संवार दूँ। यह विकृत था। <br />पास में एक विशालकाय जीव -क्या यह दाली ख़ुद को पर्सोनिफाय नहीं कर रहे? कुल मिलाकर ठोस यथार्थ से स्मृति औऱ स्वप्न अतियथार्थ का वातावरण रचते हैं। <br />गीत लेखक को पूरी दुनिया की नींद कहते हैं। इस नींद का जो अपना समय है, इसके बीच जो स्पेस है, वहीँ स्वप्नों की अवस्थिति है। <br />मुझे नहीं लगता कि तर्क लेख़क क़ा शत्रु है। स्वप्न भी एक तर्क है। दुनिया के सारे मिथ भी अपनेआप में तर्क़ हैं। कोई भी प्रोटोटाइप गहन छानबीन के बाद की स्थापना है -सृजन और तर्क समान्तर चलते हैं। कल्पना तर्क के पहले की पूर्व स्थिति है। कल्पना भी सापेक्ष होती है -हर आदमी में जैसे होते हैं दस -बीस आदमी ; उसी तरह हर आदमी में होती हैं -दस -बीस कल्पनाएं -जो एक ही दृश्य को अलग -अलग रूपाकार में ढालती हैँ -इसलिए जो इन्फर्नो दाँते का है, वैसा क़िसी दूसरे क़ा नहीँ हो सकता। यूलेसिस एक है जिसे होमर भी साध रहा है और जेम्स जॉयस भी। कल्पना और तर्क हर प्रतिमान को डिस्टिंक्ट करते हैं -लेकिन जो समानधर्मिता या सादृश्य है -उसके पीछे क्या अवबोध रहता है, मैं नहीं जानती। <br />कला को हम खोजते नहीं, पाते हैं -जैसे ही पाने की बात आती है तो सवाल हिट करता है कि यह पाना क्या है ? आप किसे पा रहे हैं ? क्या जो पा रहे हैं वह पुनर्सर्जना है ? फिर से एक पुराने को पाना। स्मृतियों का दोहराव।<br /><br /><br />कुंवर नारायण जी ने बहुत सुंदर उदाहरण सँगीत का दिया है- संगीत में हम विलम्बित से द्रुत को जाते हैँ ,जबकि असल जीवन द्रुत से विलम्बित को जाता है। हर कला इस तरह विलम्बित से द्रुत को जाती है -इसलिए साहित्य या कलाओं मेँ वह जो रियल है उससे अलग दिखती है। पढ़ते में पाठक पर उसका प्रभाव कुछ इस तरह होता है कि एक बच्चा फिरकी लिये है जो तेज़ हवा से तेज़ी से घूम रही है पर दिख रही है रुकी हुई। सिनेमा के परदे के स्टिल चित्र चल चित्र हो जाते हैं। <br />अपर्णा मनोजhttps://www.blogger.com/profile/03965010372891024462noreply@blogger.com