tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post2875315906411563051..comments2024-03-18T14:45:15.993+05:30Comments on समालोचन : मैं कहता आँखिन देखी : नरेश सक्सेनाarun dev http://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comBlogger34125tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-63667310767984163292016-09-19T11:45:00.674+05:302016-09-19T11:45:00.674+05:30रोचक वार्ता पर और भी रोचक टिप्पणियां पढ़ने को मिलीं...रोचक वार्ता पर और भी रोचक टिप्पणियां पढ़ने को मिलीं। ज्योत्सना जी को बधाई।अरुण अवधhttps://www.blogger.com/profile/15693359284485982502noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-83164490349963569662011-12-15T14:05:45.312+05:302011-12-15T14:05:45.312+05:30आज यह साक्षात्कार पढ़ा..नरेश जी सच में ऐसे कवि हैं...आज यह साक्षात्कार पढ़ा..नरेश जी सच में ऐसे कवि हैं जिनसे मुहब्बत का बाइस सिर्फ उनका कविकर्म है...Ashok Kumar pandeyhttps://www.blogger.com/profile/12221654927695297650noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-36352802260375007952011-10-17T22:14:22.642+05:302011-10-17T22:14:22.642+05:30aapki kavitaen bahut aadhboot haiaapki kavitaen bahut aadhboot haipoonamhttps://www.blogger.com/profile/09198875252341234239noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-8584639739450112772011-09-21T08:09:29.763+05:302011-09-21T08:09:29.763+05:30ये बातचीत ऐतिहासिक और बेहद अपनी भी है ! नरेशजी ऐसे...ये बातचीत ऐतिहासिक और बेहद अपनी भी है ! नरेशजी ऐसे कवि हैं जो सभी कवियों को ठीक उनके स्थान से जानते हैं ! सच उन्हें सुनते रहना अपने आप को कविता के साथ होने जैसा सुख है ! ज्योत्स्ना अपर्णा मनोज और सुशीला पुरी को बहुत बहुत धन्यवाद !Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-82229838762285039002011-09-21T06:57:07.204+05:302011-09-21T06:57:07.204+05:30प्रिय कवि आदरणीय नरेश सक्सेना जी का साक्षात्कार वा...प्रिय कवि आदरणीय नरेश सक्सेना जी का साक्षात्कार वाकई आनन्ददायक है। "समालोचन' को, अरुण जी को तथा साक्षात्कार लिखने वालों को बधाई।Umeshhttps://www.blogger.com/profile/10308807738552566858noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-67794911418667351132011-09-20T19:32:06.188+05:302011-09-20T19:32:06.188+05:30भाई मेरे... खतरा तो हिंदी के मिटने का भी है. हिंदी...भाई मेरे... खतरा तो हिंदी के मिटने का भी है. हिंदी की ताकत तो यही उसकी सहोदर भाषाएँ हैं. इसी ताकत के बल पर ही तो कभी वह ज्ञान - विज्ञान-विवेक , संवेदना और कला की भाषा बनने की इच्छा रखती थी. इन भाषओं के विकास और समृद्धि में ही उसका हित है. सवाल यह है कि क्या हिंदी इन भाषाओँ का शोषण कर रही है.....क्या हिंदी ने अवधी के तुलसीदास को जन जन तक नहीं पहुँचाया.. पद्मावत को अपने हृदय में नहीं रखा... हिंदी का सबकुछ तो इन्ही भाषाओं से है. भक्तिकाल इन्ही भाषाओं में पुष्पित हुआ. क्या एक अवधी भाषी के लिए हिंदी सीखने और अंगेजी सीखने में कोई फर्क नहीं है...क्या किसी अवधी भाषी के हिंदी को दोयम माना गया है ? शायद नहीं......<br /> मुझे लगता है अपनी अपनी माँ-भाषाओँ को बचाते हुए हम हिंदी को भी बचाते है....<br /> आप तो महावीरप्रसाद दिवेदी और निराला के क्षेत्र के हैं .. आप से हिंदी के लिए क्या कहना...arun dev https://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-61014076059524935082011-09-20T18:14:42.356+05:302011-09-20T18:14:42.356+05:30साहिब, नाम तो इससे भी अधिक गिनाये जा सकते हैं। नाम...साहिब, नाम तो इससे भी अधिक गिनाये जा सकते हैं। नाम-वृद्धि आपकी तर्क-पुष्टि और हिंदीक-संतुष्टि के अनुक्रमानुपाती भी होगी। पर हम जैसे अत्यंत अल्पसंख्यक मूढ़ यही मानेंगे, <br />१- हमारी मादरी जुबान हिंदी नहीं है। हमारी मादरी जुबान अवधी है। <br />२- हिन्दी ने बहुतों को हमारी मादरी जुबानों से काटा है और काट रही है। <br />३- हम हिन्दी सामंत की गुलाम ‘बोलियाँ’ नहीं, बरन स्वतंत्र भाषाएँ रही हैं, खैर अब तो हिन्दी के संतोष-लाभ हेतु ये भाषाएँ मिटन-शील हैं। <br />४- हमारे लिये जैसे हिन्दी वैसे अंग्रेजी। जब अपनी माँ मरने को है, तो सब गैर की अम्मा को अपनी काहे कहूँ!, हाँ ५० साल बाद की पीढ़ी शायद इस दुविधा में न हो। <br />५- हिन्दी राजभाषा है, जनभाषा नहीं। हमारे इलाके के मजूर-किसान हिन्दी नहीं बोलते। साहित्यकारों की नेम-लिस्टिंग तो आपने खूब की, संभव हो तो इन मजूर-किसानों की भी नेम लिस्टिंग कर लीजियेगा, एक सर्वे जैसा कि कभी गियरसन साहिब ने किया था। जिनके बाद यह हिम्मत किसी हिन्दी बौद्धिक में नहीं हुई। <br />६- हिन्दी का साम्राज्य तो ऐसे ही फूल-फल रहा है, मिट तो हमारी भाषाएँ रही हैं, काहे लोड लेते हैं हम मूर्खों की बतकहियों का! :-) <br />.<br />सादर..!Amrendra Nath Tripathihttps://www.blogger.com/profile/15162902441907572888noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-5631312785421853692011-09-20T17:15:12.064+05:302011-09-20T17:15:12.064+05:30ये और दुखद स्थिति है कि एक जर्मन विद्वान मैक्समूलर...ये और दुखद स्थिति है कि एक जर्मन विद्वान मैक्समूलर आपका इतिहास खंगालता है और दूसरा विदेशी आपकी भाषा छानकर सार-सार चुनकर थोथा उड़ाता है , जिसे आज के प्रसंगों में रखकर हम अपने को तुष्ट पाते हैं . रूस की ज़मीन पर जब हमारी राजदूत (विजयलक्ष्मी पंडित )पैर रखती हैं और अपना भाषण अंग्रेजी में देती हैं तो उन्हें ये सुनना पड़ता है कि क्या इस देश की अपनी कोई भाषा नहीं ..<br />कहाँ से होगी ..?<br />यहाँ धर्म , फिर जाति, भाषा , सम्प्रदाय , प्रांत अधिक महत्त्वपूर्ण हैं ...<br />वल्लभभाई पटेल ने जो एकीकरण किया वह उस सफ़ेद हाथी की तरह है , जिसके हर अंग को हम अपनी तरह छूकर कभी केवल पूँछ , कभी सूंड आदि-आदि का अहसास करते हैं पर एक रूप में नहीं देखते ..<br />देश का नाम : भारत .. Bharat that is India (संविधान कहता है )<br />उसकी पहचान : अनेकता (एकता छद्म )<br />उसका कोई हस्ताक्षर : कोई सील नहीं बनी आज तक .. लाल फीतों में बंद .<br />उसका कोई प्रयास : राजनीति ,ब्यरोक्रेसी , लालफीताशाही , और जनता अपनी तरह प्रतिनिधित्व तलाशतीअपर्णा मनोजhttps://www.blogger.com/profile/03965010372891024462noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-83670606822780458742011-09-20T16:15:13.057+05:302011-09-20T16:15:13.057+05:30अगर आप अंग्रेजी भाषा के साम्राज्यवाद पर कुछ कहने क...अगर आप अंग्रेजी भाषा के साम्राज्यवाद पर कुछ कहने के लिए मुहँ खोलेंगे तो भाई लोग हिंदी साम्राज्यवाद की पट्टी आपके मुहं पर बाध देंगे. पहले यह काम अंगेजी के अखबार करते थे भारत की दूसरी भाषाओँ की ओट लेकर. आजकल हिंदी की बोलियों (भाषाएँ )की ओर से इस तरह की कुछ बाते आती हैं. इन बोलिओं के कुछ अन्तर्राष्ट्रीय किस्म के सम्मेलन भी होने लगे हैं. भाषाई अस्मिता के नाम पर इन भाषाओँ का कितना भला हो रहा है इस पर फिर कभी.<br />इंग्लैण्ड का सूरज कहते हैं कभी डूबता नहीं था, जहां डूबा वहां वह अंगेजी की चमक छोड़ गया, जिसके फीके पड़ने के तब तक कोई आसार नहीं है जब तक किसी गैर अंग्रजी भाषा का सूरज फिर उसी तेज़ से न चमकने लगे. <br />जहां अंग्रजी का साम्राज्यवाद एक वास्तविकता है हिंदी का साम्राज्वाद कल्पना. यह हिंदी के प्रभाव को रोकने की एक सुविचारित रणनीति है. हिंदी को अगर आप खड़ीबोली मानते हैं तो यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की भाषा ठहरी. क्या इस पश्चिमी-प्रदेश का उपनिवेश कभी शेष भारत था, या आज की हिंदी पट्टी पर क्या कभी इसका साम्रज्य था. <br />साम्रज्यवाद से संघर्ष करते हुए इस देश राष्ट्रवाद का उदय हुआ. एक राष्ट्र की कोई राष्ट्रीय भाषा हो इसी अभिलाषा से बहुसंख्यक जनता द्वारा समझी जाने वाली हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूम में सामने रखा गया. यह एक सम्मलित प्रयास था, न कि किसी खड़ी बोली के प्रचारकों का कोई साम्राज्यवाद. हिंदी के प्रारभिक साहित्यकारों पर नज़र डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है. <br /><br /><br />क्रम /लेखक /क्षेत्र/ भाषा<br />1. शिव प्रसाद सितारे हिन्द/ बनारस/ भोजपुरी<br />2. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र्र /बनारस /भोजपुरी<br />3. लाला श्रीनिवास दास /दिल्ली/ हिन्दी<br />4. श्यामसुन्दरदास /बनारस /भोजपुरी<br />5. किशोरीलाल गोस्वामी/ बनारस/ भोजपुरी<br />6. जगन्नाथदास रत्नाकर/ बनारस/ भोजपुरी<br />7. श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी /रायपुर/ छत्तीसगढ़ी<br />8. राधाचरण गोस्वामी/ वृन्दावन/ ब्रज<br />9. बालमुकुन्द गुप्त/ रोहतक/ हरियाणवी<br />10. बालकृष्ण भट्ट /इलाहाबाद /कन्नौजी<br />11. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी /जयपुर /मारवाड़ी<br />12. बदरीनारायण चैधरी/ मिर्जापुर/ भोजपुरी<br />13. प्रतापनारायण मिश्र /कानपुर /अवधी<br />14. जगन्मोहन सिंह /मध्यप्रदेश/ बुन्देली<br />15. रामचन्द्र शुक्ल /बस्ती /भोजपुरी<br />16. महावीरप्रसाद द्विवेदी /रायबरेली/ अवधी<br />17. श्रीधर पाठक /आगरा /ब्रज<br />18. अयोध्यासिह उपाध्याय /आजमगढ़ /भोजपुरी<br />19. मैथिलीशरण गुप्त चिरगांव/ झांसी/ बुन्देली<br />20. माखनलाल चतुर्वेदी /होशंगाबाद म प्र /बुन्देली<br />21. बालकृष्ण शर्मा नवीन/ ग्वालियर/ बुन्देली<br />22. जयशंकर प्रसाद /बनारस/ भोजपुरी<br />23. निराला /उन्नाव /अवधी<br />24. पंत /अल्मोड़ा /पहाड़ी<br />25. महादेवी वर्मा /फर्रूखाबाद/ ब्रजarun dev https://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-7163912688938132292011-09-20T14:58:36.845+05:302011-09-20T14:58:36.845+05:30उदय जी में जो शुरुआत का राष्ट्रवाद रहा, वह आज भी ब...उदय जी में जो शुरुआत का राष्ट्रवाद रहा, वह आज भी बहुसंख्यक इस बेल्ट के लोगों का सच है। उदय जी भाषा-विज्ञानी थे, समझ सके, अन्य सभी तो इसी मनोविज्ञान से अपनी समृद्ध भाषिक परंपरा को चौपट कर ही रहे हैं।<br /><br />यह यही पट्टी है जहाँ इन लोकभाषाओं को बोलना गँवरपन समझा जाता था, आज भी। <br />जो छाती फुलाने के लिये अपनी मादरी जुबान को छोड़कर हिन्दी से सट गये, वे छाती फुलाने के लिये अंग्रेजी से सटेंगे ही, सहज है यह, अब पीड़ा क्यों हो रही है?? <br /><br />एक बँगला/तमिल/उड़िया/तेलगू पहले अपनी भाषायें जानकर फिर अन्य को जानने जाता है, पर इस बेल्ट का आदमी अपनी को पहले छोड़ देता है और गैर की अम्मा हिन्दी को अपनी मान लेता है। <br /><br />जहाँ तक आपने राज्यों के बँटवारे से संबद्ध बात की तो यही कहूँगा कि वे बँटवारे कितने सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखकर थे, इसे बाद में हुये राज्यों की माँगों में देखिये। आँध्र की माँग लेकर रम्ल्लू का बलिदान देखिये। राज्यों के बतवारे क्लीयरकट राजनीतिक उद्देश्यों के साथ थे, गोबरपट्टी में जन-भाषा-विरोधी। <br /><br />बहरहाल हमारी मादरी भाषायें तो खत्म मेरे जीते जी होने को हैं, पर देखना होगा कि इन्हें खत्म करने में अपनी भूमिका निभाने वाली हिन्दी कब तक टिकती है, जिसके सम्मेलन तेरहवीं भोज की तरह होते हैं!! <br />.<br />समाप्त।<br />.<br />ऊपर के मेरे तीनों कमेंट @अपर्णा मनोज जी की बातों पर हैं। सादर..!Amrendra Nath Tripathihttps://www.blogger.com/profile/15162902441907572888noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-11502690206858897382011-09-20T14:41:51.955+05:302011-09-20T14:41:51.955+05:30४- हिन्दी जो कि संपर्क भाषा बनी, किन्हीं कारणों से...४- हिन्दी जो कि संपर्क भाषा बनी, किन्हीं कारणों से, उसे गोबरपट्टी के जनों ने अपनी साँस्कृतिक परंपरा समझने की भूल की, और काफी चीजों को अंग्रेजों की साजिश कहा। यह बात पढिये, जिसमें उदय नारायण तिवारी जी की बात में यह मनोविज्ञान भी देखा जा सकता है: <br />" बात सन १९२५ की है .तब मैं प्रयाग विश्वविद्यालय में बी ए प्रथम वर्ष का छात्र था .एक दिन कक्षा में आदरणीय डॉ धीरेन्द्र वर्मा ने हिंदी की सीमा बतलाते हुए कहा -"डॉ ग्रियर्सन के अनुसार भोजपुरी भाषा-क्षेत्र <br />हिंदी के बाहर पड़ता है ;किन्तु मै ऐसा नहीं मानता."भोजपुरी भाषा भाषी होने के नाते तथा राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति अनन्य स्नेह होने के कारण,डॉ वर्मा के विचार तो मुझे रुचिकर प्रतीत हुए ;परन्तु डॉ ग्रियर्सन की उपर्युक्त स्थापना से ह्रदय बहुत क्षुब्ध हुआ.मैंने यह धारणा बना ली थीकी भोजपुरी हिंदी की हि एक विभाषा है ,अतएवं हिंदी के क्षेत्रों से भोजपुरी को अलग करना मुझे देशद्रोह सा प्रतीत हुआ .मैंने अपने मन में सोचा ,-ग्रियर्सन आइ.सी.एस. था ,फुट डालकर शासन करने वाली जाति का एक अंग था ,समूचे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने में समर्थ हिंदी को अनेक छोटे-छोटे क्षेत्रों में विभाजित करने में उसकी यहीं विभाजक निति अवश्य रही <br />होगी .उसी समय मेरे मन में संकल्प जागृत हुआ की पढाई समाप्त करने के अनंतर मै एक दिन भोजपुरी के सम्बन्ध में ग्रियर्सन द्वारा फैलाये गए इस भ्रम को अवश्य हीं निराधार सिद्ध करूँगा और सप्रमाण यह दिखा दूंगा की भोजपुरी हिंदी की हीं एक बोली है तथा उसका क्षेत्र हिंदी का हीं क्षेत्र है .परन्तु आज भोजपुरी के अध्ययन में चौबीस वर्षों तक निरंतर लगे रहने तथा भाषाशास्त्र के अधिकारी विद्वानों के संपर्क से भाषा –विज्ञानं के सिधान्तों को यत्किंचित सम्यक रूप में समझ लेने के पश्चात् मुझे अपनेउस पूर्वाग्रह पर खेद होता है ,जो बी ए प्रथम वर्ष में ,भाषा विज्ञानं के गंभीर परिशीलन के बिना हीं मेरे ह्रदय में स्थान पा गया था .आज मुझे डॉ ग्रियर्सन के परिश्रम ,ज्ञान एवं पक्षपात रहित -विवेचना के गौरव का अनुभव होता है और इस विद्वान् के प्रति ह्रदय श्रद्धा से परिपूर्ण हो जाता है;साथ हीं याद आती है -भर्तुहरि की ये पंक्तियाँ - <br />यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम् <br />तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः। <br />यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम् <br />तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः।। <br />“जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।” <br />(भोजपुरी भाषा और साहित्य ,लेखक -उदय नारायण तिवारी ,बिहार राष्ट्रभाषा <br />परिषद-१९५४)" <br />.<br />जारी।Amrendra Nath Tripathihttps://www.blogger.com/profile/15162902441907572888noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-68899803158405904032011-09-20T14:38:18.717+05:302011-09-20T14:38:18.717+05:30पहले राष्ट्रवाद की जरूरत बनी हिन्दी और अब एक विदेश...पहले राष्ट्रवाद की जरूरत बनी हिन्दी और अब एक विदेशी भाषा के विरुद्ध ‘जरूरत’ बतायी जा रही है हिन्दी। <br /><br />राष्ट्रवाद एक जरूरत थी तो ठीक था, संपर्कभाषा बनी हिन्दी, पर वह जरूरत हटते ही लोग अपनी मादरी जुबानों पर वापस आ गये। जमिल वाले तमिल पर, बंगाली बंगला पर, गुजराती गुजराती पर। यह जरूरत ही थी कि इस दौर में सत्यार्थ-प्रकाश हिन्दी में लिखा गया था एक गुजराती द्वारा। ये सब हिन्दी की काल-विशेष की जरूरत के तथ्य हैं पर हिन्दी के सर्वसमावेशी चरित्र के आधार नहीं। फलतः गुजराती, बंगला, आदि सब बावजूद रहे।<br /><br />पर तथाकथित गोबरपट्टी की कहानी अलग है। <br />१- पूर्व में कहा हूँ कि इसे अपने कल्चर व भाषा को लेकर गौरवबोध नहीं है। आखिर दोआबे का उपजाऊ और शोषित इलाका भी तो यही है। स्वत्व को मिटा कर जीना इस बेल्ट का आधारभूत लक्षण हो गया है, इसका लाभ सभी को मिला - विभिन्न समयों की राजसत्ताओं को भी और वर्तमान की राजभाषा को भी। <br />२- हिन्दी की व्याकरणिक भूमि(वैसे तो मैं सहमत नहीं हूँ कि वर्तमान हिन्दी की कोई देशज व्याकरणिक भूमि भी है) दिल्ली के आसपास का इलाका है। इसकी हाक हमेशा रही है, राजनीतिक प्रभुत्व के लिहाज से। हमारी मादरी भाषा के क्षेत्र इसकी हेजीमनी में रहे, अन्य की अपेक्षा। इसलिये भी ऐसा हुआ हमारे साथ।<br />३- जो क्षेत्र पिछड़ा-शोषित हो, वहाँ भावुक राष्ट्रवादी अधिक पाए जाते हैं, इस क्षेत्र ने भावुकता के साथ अपनी ही मादरी जुबानों पर कुल्हाड़ी चलाई। हिन्दी-प्रेम का भूत इस कदर चढ़ गया था कि निराला जी हिन्दी को बंगला की तुलना में श्रेष्ठ कहने वाले लेख लिख रहे थे, और पंत ‘पल्लव की भूमिका’ में ब्रज की बखिया उधेड़ रहे थे, अकारण ही। और तो और तमिल से स्पर्धात्मक लेख लिखे जाते थे, हद थी। सौ साल की कृत्रिम भाषा राजनीतिक आयोजन में सज सँवर रही थी। आज भी वही यथार्थ है कमोबेश।<br />.<br />जारी।Amrendra Nath Tripathihttps://www.blogger.com/profile/15162902441907572888noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-51625421541881963922011-09-20T13:11:41.471+05:302011-09-20T13:11:41.471+05:30kharpatwar yahaan videshi bhasha ke liye prayog hu...kharpatwar yahaan videshi bhasha ke liye prayog hua hai ..अपर्णा मनोजhttps://www.blogger.com/profile/03965010372891024462noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-88622026645142013552011-09-20T11:47:27.738+05:302011-09-20T11:47:27.738+05:30और हम इस सच को भी न भूलें कि अंग्रेजी ने न केवल घा...और हम इस सच को भी न भूलें कि अंग्रेजी ने न केवल घात किया है वरन आपको मजबूर किया है कि आप शोषित होते रहें .. ये पूरे हिन्दुस्तान की त्रासदी है .<br />अपने गाँव से जब बच्चा बाहर आता है तो अंग्रेजी उसके लिए संघर्ष बनकर सामने आती है .. मजबूरी बनकर सामने आती है . इसने हमारा हर तरह से हनन किया है .<br />किसी भी राज्य का सरकारी काम काज अपनी भाषाओँ में होता रहे लेकिन जहां विकास की बात आती है हिन्दुस्तान इस भाषा के शिकंजे में फंसा दीखता है .<br />पुस्तकों की छपाई देखिये .. उनका बाज़ार देखिये ..<br />इसने हमारी संस्कृति पर हमला बोला है , लेकिन हम हर तरह से इसे स्वीकार करने को तत्पर हैं .. और अपने ही राष्ट्र में खुद की भाषाओँ -बोलियों पर खुरपी चला रहे हैं ..<br />खरपतवार चुनें तो ठीक है .. लेकिन यहाँ तो पूरी फसल ही दांव पर है ..<br />और खरपतवार फूल रही है .. इसे तल्खी न समझा जाए .अपर्णा मनोजhttps://www.blogger.com/profile/03965010372891024462noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-17543413484235127532011-09-20T11:36:08.794+05:302011-09-20T11:36:08.794+05:30अमरेन्द्र भैया
आपकी पीड़ा समझ रहे हैं .. और आप भी ह...अमरेन्द्र भैया<br />आपकी पीड़ा समझ रहे हैं .. और आप भी हिंदी की पीड़ा को समझ रहे होंगे .<br />लेकिन फिर भी इनके बीच सुख है , संतुलन भी . जब ये ख़त्म होगा तो सिर्फ झगड़ा बचेगा . उसके बाद की अनार्की में शब्द सृजन नहीं कर सकेंगे .<br />अंग्रेजी ने इसी फूट की राजनीति से ग्लोबल होने का रुतबा पाया है ; पर फिर भी फ्रेंच , जर्मन , चीनी , हिंदी और जापानी ग्लोबल की ओर कदम बढ़ाये हैं .. <br />आधे से भी अधिक हिंदुस्तान ग्लोबल के लिए अंग्रेजी को चुन नहीं पाता .. क्यों ?<br />एक ईलीट क्लास को (जो अंग्रेजी बोलता -समझता है )आप हिन्दुस्तान नहीं मान सकते .<br />तब वह ऐसी किस भाषा का इस्तेमाल करे जिसमें वह संसार से जुड़ सके ?<br />हिंदी का विकास वैसे भी केवल संपर्क भाषा के रूप में ही हुआ है ..<br />हाँ ,उसमें जो साहित्य रचा गया है वह सीमाओं का अतिक्रमण करके तो नहीं ही रचा गया होगा ओर न ही किसी शोषण के आधार पर .<br />नेट वर्किंग का अर्थ अंतरजाल से नहीं है .. भाषाओँ के जुड़ने से है . अधिक से अधिक ग्राह्यता से है ..<br />यदि कुछ राज्यों में वह राजकीय कार्य के रूप में इस्तेमाल हो रही है तो उसके पीछे उन राज्यों के केवल राजनैतिक कारन तो नहीं ही होंगे .. अन्य कारण भी होंगे ..उन राज्यों की विशालता और उनमें बहु भाषाओं का होना . तब किस एक भाषा को जरिया बनाया जाए ?<br />एक उदाहरण राजस्थान का लीजिये .. पांच रूप में राजस्थानी मिलती है .. उनमें भी एकरूपता नहीं है . फिर किस भाषा को संपर्क रूप में रखा जाए . हिंदी के रहते भी वहाँ राजस्थानी साहित्य समृद्ध हुआ है ; हाँ ये बात भी है कि राजस्थानी को भाषा रूप में सरकारों की राजनीति वह स्थान नहीं दे पायी है .. यही स्थिति अन्य बोलियों की भी है .. हिमाचल , उत्तर प्रदेश , बिहार में ये घटा है ..<br />हिंदी इसी गोबर पट्टी में साथ-साथ चली और लिथड़ी भी है ..अपर्णा मनोजhttps://www.blogger.com/profile/03965010372891024462noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-46014751479654517392011-09-20T10:13:01.737+05:302011-09-20T10:13:01.737+05:30**सुधार
--आदि मादरी जुनानों से काट दिया। >>...**सुधार <br />--आदि मादरी जुनानों से काट दिया। >> आदि मादरी *जुबानों से काट दिया।<br />-- हिन्दी की दाल इधर खूब गयी। >> हिन्दी की दाल इधर खूब *गली।Amrendra Nath Tripathihttps://www.blogger.com/profile/15162902441907572888noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-60071238668278215852011-09-20T10:01:57.965+05:302011-09-20T10:01:57.965+05:30@ अपर्णा मनोज जी,
आपकी बातों का उत्तर है, उन्हें ...@ अपर्णा मनोज जी, <br />आपकी बातों का उत्तर है, उन्हें रखने में मुझमें एक सहज सी तल्खी आ जाती है, जो आपसे संवाद में उचित नहीं होगी।<br /><br />बस अंतिम टीस यही कि हमारी देशभाषाओं को हिन्दी ने अंग्रेजी आदि से ज्यादा शोषित किया है, कितनों को अवधी-ब्रज-भोजपुरी आदि मादरी जुनानों से काट दिया। ऐसा गुजराती-बँगला-मराठी के के साथ कर सकती थी हिन्दी?, अवधी-ब्रज-भोजपुरी आदि गोबरपट्टी(?) में यह हो तो स्वाभाविक भी है कि जिसके पास कल्चर व भाषा है पर उसे इतना आत्मविश्वास और गौरव-बोध ही नहीं कि इसे भाषा व कल्चर समझे, सो हिन्दी की दाल इधर खूब गयी। हमारी भाषाएँ तो ऐसे ही मिट चुकी हैं, खतम है भविष्य हमारा, पर हम हिन्दी से प्रेम क्यों करें? हमारे लिये जैसे हिन्दी वैसे अंग्रेजी। आपके नेटवर्किंग के तर्क को मानें तो अंग्रेजी कम-से-कम वैश्विक स्तर पर यह काम संपन्न करायेगी। सादर..!Amrendra Nath Tripathihttps://www.blogger.com/profile/15162902441907572888noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-87931151868648093642011-09-20T09:10:28.089+05:302011-09-20T09:10:28.089+05:30भाषाएँ नेट वर्किंग का काम करती हैं . लेकिन जब तक ह...भाषाएँ नेट वर्किंग का काम करती हैं . लेकिन जब तक हम एक-दूसरे के फोंट्स को नहीं जानेंगे और सुविधा के लिए एक यूनीकोड में बात नहीं करेंगे तो नेट वर्किंग मजबूत नहीं हो पाएगी .<br /><br />सारे केबल एक हाई टेंशन लाइन में जुड़ते हैं तब जाकर दूर तक वह गमन करती है , ये पावर जेनरेशन की अपनी सीमाएं बढ़ाने के लिए है .. एक सहज -सरल माध्यम . तो किसी राष्ट्र के लिए भी एक हाई टेंशन भाषा लाइन की जरुरत है और यही उसे ग्लोबल बनाता है . तो फिर भारत के लिए कौन सी भाषा रह जाती है ?अपर्णा मनोजhttps://www.blogger.com/profile/03965010372891024462noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-6674833571885987172011-09-20T08:57:55.016+05:302011-09-20T08:57:55.016+05:30"क्योंकि हिंदी भाषा की कोई हैसियत नहीं, अंग्..."क्योंकि हिंदी भाषा की कोई हैसियत नहीं, अंग्रेजी के सामने इसलिए हिंदी साहित्यकार की भी कोई हैसियत नहीं; न सरकार के सामने और न समाज के . जिसका असर ये हुआ है कि खुद साहित्यकार की नज़र में अपना काम ही छोटा हो गया. यही उदासीनता कविता, कथा, आलोचना में हर जगह दिखाई दे रही है, इसके बावज़ूद यदि अच्छी कहानियां और कविताएँ लिखी जा रही हैं हर हाल में उसकी सृजनात्मक ऊर्जा अपनी अभिव्यक्ति के लिए रचनाकार को मजबूर कर देती है. कुल मिलाकर एक काली छाया हमारी अभिव्यक्ति और सृजनात्मकता पर फ़ैल रही है."<br /><br /><br />बहुत अहम् बात नरेश जी ने उठाई है . हिन्दुस्तान का इतिहास कुछ ऐसा रहा है कि आज भी हम एक होते हुए अपने-अपने स्थानों से गहरे तक जुड़े हैं . स्थानीयता में कोई बुराई नहीं , प्रांतीयता भी बुरी नहीं ; लेकिन एक लिबरल राष्ट्रवाद को तो हम सहेज ही सकते हैं .. इस दृष्टि से हिंदी को हम क्यों नहीं आत्मसात कर पा रहे हैं ? वह इन्हीं स्थानों का बीज है ; इन्हीं की पौध . हिंदी को थोपा नहीं जा रहा . सारे देश का कौनसा एक माध्यम होना चाहिए , जिसमें हम एक-दूसरे से अजनबी न रह पायें .. कोई एक पुल तो होना चाहिए ; पर हमें वह भी नहीं चाहिए . तो पार करने के लिए अब अपनी-अपनी नावें और अपनी-अपनी तैराकी रह गई .. अपनी-अपनी मझधार ..<br />हम अपनी स्थानीयता को अक्षुण रखते हुए उस पुल पर चल सकते हैं जो जोड़ने का काम करे .. तब हमारी सृजनात्मकता और अभिव्यक्ति और गहरे से निखर कर सामने आएगी .<br /><br />हमारी चाल-बुनियाद ही तो काली छाया की जन्मजात संगिनी नहीं है??<br />नहीं , ऐसा नहीं है . उपनिवेशवाद ने अंग्रेजी को ग्लोबल बना दिया . इसके पीछे पहले ताकत थी पर कालांतर में बाजार , अर्थ व्यवस्था और संभावित विकास जुड़ गए . इस वजह से अंग्रेजी कई देशों में सहायक भाषा के रूप में सामने आई . ख़ास तौर से उन देशों में जो स्वयं उपनिवेश थे . यदि प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध तक के समय को भी देखें तो पायेंगे कि इम्पिरिअलिज़्म ने विश्व को दो खेमों में बांटा और उसका खामियाजा लोगों , उनकी संस्कृतियों व भाषाओँ को भुगतना पड़ा. पर आज स्थितियां भिन्न हैं . राष्ट्र का concept पहले से अलग दीखता है . भाषा इसी concept की जननी होती है . बहुत गौर से देखें तो हमें सहकार की जरुरत ज्यादा है . भारत एक खोज है . इस खोज में आप समन्वय को भूल गए तो भारत भी खो जाएगा .अपर्णा मनोजhttps://www.blogger.com/profile/03965010372891024462noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-86698179181795776892011-09-20T06:55:26.215+05:302011-09-20T06:55:26.215+05:30सुंदर रही बातचीत।
इसे प्रस्तुत करने के लिये आप सब...सुंदर रही बातचीत। <br />इसे प्रस्तुत करने के लिये आप सबका आभारी हूँ। <br />कई साथियों ने सहमति जतायी है बातों से - बेशक बातें अच्छी हैं, उपयोगी और सबसे अहम संवाद-योग्य! - पर मैं एकाध सहमति दर्ज कर अपनी बात खत्म करूँगा। <br />@ध्यान दीजिये की चीन चीनी भाषा में,जापान जापानी भाषा में और कोरिया अपनी भाषा में काम करके तकनीक में हमसे आगे हैं..........<br />>> चीन,जापान और कोरिया आदि से भारत इस मायने में अलग है कि यहाँ सर्वसमावेशी एकता भाषा के नरेश जी द्वारा प्रस्तावित रूप में ‘सायास’ निर्मिति का प्रयास करती है। इसकी बड़ी सीमाएँ हैं। जापानी-चीनी-कोरियन जैसी गौरवशाली भाषिक परंपराएँ भारत में दर्जन भर से अधिक भाषाओं के पास है, और इनमें हिन्दी नहीं है। इसलिये हमारी भौगोलिक सांस्कृतिक निर्मिति को समझना ज्यादा हम है, न कि बाह्य प्रेक्षण द्वारा सायास निर्मिति कर पूर्व से मौजूद ‘सहज’ निर्मितियों को स्थानापन्न किया जाय। इन वैविध्यों को फलने-फूलने का मौका दिया जाय, भारत स्वयं में एक पूरा विश्व है। अफसोस है थोड़ा कि हिन्दी बौद्धिक सौ साल पुराने समावेशन के संस्कार से बच नहीं पा रहे और अब उसे वैश्विक चुनौती कह रहे हैं। ... वैसे मेरी बात वही ं नहीं गिर रही जहाँ नरेश जी की, पर उत्स आसपास ही है। यही वजह है कि बहुत कुछ उद्यमित होने के बाद भी, नरेश जी के ही परिवेश-सूचक वाक्य को रखूँगा कि ‘‘कुल मिलाकर एक काली छाया हमारी अभिव्यक्ति और सृजनात्मकता पर फ़ैल रही है. ’’ , आगे मैं यह जोड़ूँगा कि विचार अपेक्षित है कि कहीं हमारी चाल-बुनियाद ही तो काली छाया की जन्मजात संगिनी नहीं है??Amrendra Nath Tripathihttps://www.blogger.com/profile/15162902441907572888noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-86991505332965225802011-09-19T19:23:59.151+05:302011-09-19T19:23:59.151+05:30नरेश सक्सेना जी एक वरिष्ठ और जाने माने कवी हैं !पह...नरेश सक्सेना जी एक वरिष्ठ और जाने माने कवी हैं !पहले नहीं ,पर आज ये जानकर सचमुच (सुखद)आश्चर्य होता है कि कोई कवी साहित्य जगत में सिर्फ अपने काव्य पाठों के साथ ६२ वर्ष की उम्र तक उत्कृष्ट कवी के रूप में जाना जाता रहे,और उसे पुरुस्कारों से नहीं कविताओं से पहचाना जाये !आज के कवियों के लिए उनका ये कहना कि अपनी पहचान के लिए वे पुरस्कारों और आलोचकों के मुखापेक्षी हो गए हैं ये उनके दीर्घ अनुभव और आकलन से उपजी टिप्पणी है ! भाषागत संकट से उत्पन्न उदासीनता के माहौल में वो ये भी स्पष्ट करते हैं कि ‘’इसके बावज़ूद यदि अच्छी कहानियां और कविताएँ लिखी जा रही हैं हर हाल में उसकी सृजनात्मक ऊर्जा अपनी अभिव्यक्ति के लिए रचनाकार को मजबूर कर देती है.|’’शालिनी माथुर ने स्त्री विमर्श पर बहुत लिखा है गहरा अध्ययन है उनका !हाँ ये ज़रूर है कि कभी २ वो अतिरंजित या भावावेश वश कुछ अधिक आक्रामक दिखाई देती हैं !मैंने एक स्त्री विमर्श सम्बंधित लेख में एक प्रसिद्द लेखक के बारे में उनकी एक आलोचनात्मक टिप्पणी पढ़ी थी ‘’मूर्ख मित्र से विद्वान शत्रु बेहतर होता है फिर (लेखक का नाम )न तो विद्वान ही हैं और ना ही मित्र ...इन छद्म विमर्शकारों के प्रपंच से दूर रहने की हिदायत दी गई थी !’’बहरहाल..कोई रचना किसी के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है और किसी के लिए आपत्तिजनक ये नज़रिए का प्रश्न है! नरेश जी को सम्मान के लिए हार्दिक बधाई !इस संक्षिप्त और महत्वपूर्ण वार्ता के लिए ज्योत्सना पाण्डेय,और उनकी सहयोगी अपर्णा जी व सुशीला पूरी जी को धन्यवादवंदना शुक्लाhttps://www.blogger.com/profile/16964614850887573213noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-91195458044116657102011-09-19T14:45:00.098+05:302011-09-19T14:45:00.098+05:30बहुत अच्छी रही बातचीत ! कविता,हिन्दी ,और समकालीन क...बहुत अच्छी रही बातचीत ! कविता,हिन्दी ,और समकालीन काव्य पृवत्तियों पर नरेश मेहता जी की मूल्यवान टिप्पणियां पढ़ने को मिलीं ! ज्योत्सना जी ने कुशलता पूर्वक ड्राइविंग सीट सम्हाली , उनका और अरुण जी का आभार !Arun Misranoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-72972023770449423102011-09-19T14:40:42.727+05:302011-09-19T14:40:42.727+05:30नरेश जी की कविता हो या उनसे किसी प्रसंग पर चर्चा, ...नरेश जी की कविता हो या उनसे किसी प्रसंग पर चर्चा, वह हमेशा रचनाओं और चर्चाओं के अंबार में अनूठी और अद्वितीय-सी लगती है। उनका पहला संग्रह बेशक हड़बड़ी में लाया गया हो, जो कि सच भी है, किन्तु अब तक प्रकाशित अनेक कवियों के एकल संग्रहों की तुलना में नरेश जी का यह अकेला संग्रह उन्हें कविता में सदैव अविस्मरणीय बनाए रखेगा। उनका डिक्शन, समय, यथार्थ और अपनी भाषा-संवेदना के साथ उनका व्यवहार सब कुछ विरल लगता है। इस मस्ती से भरे कवि से यह बातचीत ज्योत्स्ना जी ने बेहद सादगी से लियाहै। उन्हें और ब्लाक-संयोजक को बहुत बहुत बधाई। --ओम निश्चल,वाराणसी।ओम निश्चलhttps://www.blogger.com/profile/12809246384286227108noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-51660734844073296072011-09-19T13:16:49.584+05:302011-09-19T13:16:49.584+05:30बहुत सुन्दर ढ़ंग से नरेश सक्सेना जी की बातों को ...बहुत सुन्दर ढ़ंग से नरेश सक्सेना जी की बातों को प्रस्तुत किया है ज्योत्स्ना पाण्डेय जी नें, उनके चयनित प्रश्नों से वर्तमान काव्यजगत पर नरेश जी नें गहरी दृष्टि डाली है. इस बातचीत के लिये ज्योत्स्ना पाण्डेय जी को बहुत बहुत ध्रन्यवाद.36solutionshttps://www.blogger.com/profile/03839571548915324084noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-52577578474885624532011-09-19T11:19:53.134+05:302011-09-19T11:19:53.134+05:30भाषा हमने लगभग अंतिम कला के रूप में पायी है. उसमें...भाषा हमने लगभग अंतिम कला के रूप में पायी है. उसमें लय, चित्रकला, अभिनय और संगीत स्वाभाविक रूप से आने चाहिए...<br /><br />aabhaar is sarthak post ke liyeपारुल "पुखराज"https://www.blogger.com/profile/05288809810207602336noreply@blogger.com