tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post1254324819414011614..comments2024-03-18T14:45:15.993+05:30Comments on समालोचन : कथा - गाथा : कायांतर arun dev http://www.blogger.com/profile/14830567114242570848noreply@blogger.comBlogger15125tag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-34544837491802429852015-03-30T02:00:22.312+05:302015-03-30T02:00:22.312+05:30Joyshree Roy मैंने आपकी कायांतर कहानी पढ़ी। पहले ...Joyshree Roy मैंने आपकी कायांतर कहानी पढ़ी। पहले तो मुझे आश्चर्य हो रहा है कि गोवा जैसे स्टेट में रहने के बावजूद आप इतनी ठेठ वज्र देहाती भाषा में कैसे उतर सकीं। कहानी वाकई बेहद ही मार्मिक और प्रशंसनीय है। <br />इक्कीसवीं सदी के चश्मे को लगाने के कारण हम बहुत सी ऐसी चीजों को यह कहकर इग्नोर कर देते हैं कि यह तो पुरानी बाते हैं या फिर यह तो फलां जमाने में होता था। पर कहीं न कहीं यह सारी चीजें आज भी सुलग रही हैं। कहीं वह राख के ढेर के भीतर तो कहीं बाहर जैसे भी हैं पर उपस्थित हैं। वह चाहे डायन के नाम से हों या देवी के। बचपन में लिपटी बालिका वधू फूलमती के स्वाभाविक खिलंदड़ेपन को चरित्रहीनता का और थाने, खेत, खलिहान में न जाने कितनों के वीर्य, स्वेद, मिट्टी-धूल से लिथड़ा उसकी देह कैसे देवी के रूप में पवित्र हो जाती है। एक्यूप्रेशर विधि की तरह यह कहानी हमारे मन की संवेदनाओं के उन सभी प्वाइंट्स को दबाती हुई चलती है जहां से दर्द उठकर पूरे शरीर को झनझना देता है। तेज सी चलने वाली कहानी में कहीं कोई धार नहीं दिखती बस ऐसे लगता है जैसे इतनी पीर के साथ इस दर्द को बहाया गया है कि वह ऊपर ही ऊपर बहकर नहीं निकलता बल्कि भीतर तक रिसते हुए पहुंचता है और भिगो जाता है। ‘छिनरई’ करने के नाम पर पति-सास से कुटम्मस पाती फूलमती को खेत में, मचान में भोर में दोपहर में खींच लेने वाले मर्द बड़े गुनहगार हुए या वह बच्ची जो अपने बचपन में ही ‘मेहरारू’ के नाम पर रात भर मर्दानगी के नीचे पिसने को लाचार है। संवेदना और पीड़ा, भाव और करूणा के सहारे बुनी गई ‘कायांतर’ शुरू में मामूली सी रेखाओं से उभरकर अंत तक पहुंचते-पहुंचते इतनी गझिन और भारी हो जाती है कि रात को देवी की कोठरी से आने वाली खिल खिल हंसी और ललिता के सामने उसके आंसू दोनों एक होकर इतना मर्मांतक प्रहार करते हैं कि हम खुद अपनी आंखें झुका लेते हैं कि आज भी ऐसा हो रहा है तो बौद्धिक, तार्किक फलाना ढेकाना कहकर डींग मारने वाले समाज में हम कितने खोखले हैं। जो आज भी नारकीय जीवन में जिंदगियों को सड़ते-गलते पिसते नुचते खसोटते देखते हैं। कहानी इतना शर्मिंदा और आत्मलोकन करने को मजबूर करती है कि अंत में फूलमती के आंसू जैसे एक झन्नाटेदार तमाचा मारते हैं। वहीं गांव, समाज के ठेकेदार जो एक मासूम बच्ची को बालिका वधू और फिर बालिका वधू को ‘छिनरई’ करने वाली कलंकिनी और फिर विधवा, फिर ‘भतरखउनी, चुरइल, डायन, टोनही’ के बाद जबरन गांव भर की लिजलिजे, गिजगिजे वीर्य से भरने वाला ‘गटर’ और अंत में उन्हीं को लतियाने वाली देवी। वाकई यह कायांतर झांकने पर मजबूर करता है सोचने पर मजबूर करता है कि कहीं अपने आसपास किसी फूलमती को देवी बनने की इस सारी प्रक्रिया को चुपचाप देखने के कारण हम भी तो उसके कायांतर में उसके नारीत्व के अंतिम संस्कार के दोषी तो नहीं। यही इस कहानी की सार्थकता है। बेहद ही धारदार ढंग से एक मामूली से लगने वाले बहुत बड़े सवालों को उठाने के लिए साधुवाद।आशीष पाण्डेय बाबाnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-35811002038843188262015-03-29T17:38:28.062+05:302015-03-29T17:38:28.062+05:30Kaayaantar padh liya...ek achhi kahani ke liye aap...Kaayaantar padh liya...ek achhi kahani ke liye aapko badhaai! Bashaa par ghazab ki pakad hai..Rakesh ji ne achha likha hai..lagta hai aap ek badi rachna likhengi.Likhte rahiye.Md Arifnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-41212608639429937672015-03-28T17:36:58.133+05:302015-03-28T17:36:58.133+05:30आवरण में जीती है औरतें अपनी पीड़ा और खुद के होने क...आवरण में जीती है औरतें अपनी पीड़ा और खुद के होने के अर्थ को अनदेखा कर अपनों और समाज के द्वारा दी हुई जिंदगी को,<br /> फिर चाहे उसे अपने आत्मसम्मान का चीड़ हरण भी करवाना पड़ जाए।<br />Joyshree Roy नें अपनी कहानी में एक अदृश्य परिवर्तन को बहुत ही संवेदनशीलता के साथ दिखाया।<br />कि एक बार फिर ये साबीत किया कि हमारे समाज में स्त्री का दर्जा या तो अबला दासी है या देवी है <br />उसे एक औरत होने का न तो अधिकार है न स्वतंत्रता है।<br />कहानी की पृष्ठभूमि हमारे समाज के एक विशेष वर्ग पर होने के बावजूद प्रत्येक औरत के जीवन की दशा को इंगित करती है।<br />बहुत बहुत बधाई जाॅयश्री तुम्हें समाज को आईने के सम्मुख लाने के लिये।Anamika Chakrabortynoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-75955456738688206622015-03-28T02:56:11.391+05:302015-03-28T02:56:11.391+05:30Joyshree Roy सखी !! कहानी पढ़कर आंखों के कोरों से ...Joyshree Roy सखी !! कहानी पढ़कर आंखों के कोरों से दो बूंद आंसू टपक पड़े ! कब से पढ़ना चाह रही थी लेकिन क्या करूं टाइम ही नहीं मिलता.....!! लगा कि कहनी नहीं पढ़ रही वरन समाज की सब औरतों की पीड़ा से अंतर्मन छिलता जा रहा है !!<br /> इसके साथ ही कहानी से इतर मेरा सवाल है कि महिलाएं पोजेसिव क्यों होती हैं ? सिमोन का कहना है कि ......आज महिलाओं को दो आजादी चाहिए. आर्थिक आजादी और देह से आजादी। देह से आशय है, नारी को बचपन से ही समझा दिया जाता है कि देह ही उसकी मूल पूंजी है, देह की शुचिता गई तो कुछ भी ना बचेगा। और फिर सारा जीवन नारी का संघर्ष इस पूंजी की हिफाजत में ही गुजर जाता है। पुरुष पर देह की शुचिता लागू नहीं होती है। समाज भी उसकी दैहिक पूंजी की स्वतंत्रता को लेकर मुक्त है। बल्कि समाज का बड़ा हिस्सा तो पुरुष देह की पूंजी के बार बार अशुद्ध होने को महिमा मंडित भी करता है। और हैरानी की बात तो यह है कि इस महिमामंडन की साजिश में मां, बहन और पत्नी भी शामिल होती हैं। <br /> यहीं मैं मानती हूं कि नारी तभी पोजेसिव होती है, जब उसकी आर्थिक निर्भरता खतरे में होती है..? और उसे लगता है कि पति के तौर पर मिले पुरुष के संरक्षण से निकली तो उसकी देह की पूंजी की शुचिता खतरे में पड जाएगी। और यहीं आकर मैं सोच में पड़ती हूं कि महिला का पजेसिव होना कितना वास्तविक है,? कितना समर्पण है ? और कितना उसकी खुद की जरूरत? और एक ऐसी जरूरत, जिसके लिए महिला को बाध्य किया गया है।सुदेश आर्यnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-69878919084843818772015-03-28T02:50:29.117+05:302015-03-28T02:50:29.117+05:30जयश्री जी
नमस्कार ।
आपकी कहानी ..कायांतर .. पढ़ी । ...जयश्री जी<br />नमस्कार ।<br />आपकी कहानी ..कायांतर .. पढ़ी । मै चकित हूँ कि आपको गंवई शब्दों का इतना समृद्ध भंडार कहाँ से मिला । कहानी में कल्पना आरोप नहीं के बराबर है । गाँव में आज भी फूलवती है जिसके जीवन ने कभी कोई फूल नहीं खिला । सच कहा जाय तो मुद्दा गाँव का न होकर महिलाओं की आर्थिक निर्भरता है । शहरों में भी मजदूर महिलाओं की स्थिति कमोबेश यही है । स्त्री स्वतंत्रता का मार्ग शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता के गलियारों से गुजरता है । <br /> भारतीय समाज में स्त्री इतनी दमित है कि ललिता सबकुछ जानते हुए भी मूकदर्शक है । यह चुप्पी बाकी कमजोर महिलाओं के दमन के लिये एक हद तक ज़िम्मेदार है । फूलवती के हक में ललिता को भी आगे आना होगा ।<br /> जयश्री जी , आपको सफल कहानी के लिये पुनः बधाई ।विभूति कुमारnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-42921965019339734222015-03-27T15:35:53.747+05:302015-03-27T15:35:53.747+05:30कायांतर कहानी के रूप में एक दस्तावेज है जो समाज की...कायांतर कहानी के रूप में एक दस्तावेज है जो समाज की परत-दर-परत उधेड़ते हुए निरंतर सवालों की बौछार करता है और बीच-बीच में संवेदनाओं को छूते हुए कई बार भावुक कर देता है। <br />कहानी का ताना-बाना ऐसे शोषित समाज को कंेद्र में रखते हुए बुना गया है, जिसमें हर स्तर पर स्त्री को अमानवीय पीड़ाओं का सामना करना पड़ता है, उसके आत्मसम्मान का कोई मूल्य नहीं होता, कभी उसे डायन बताया जाता है तो कभी देवी! एक अबोध बालिका द्वारा वासना के क्षणों को ही मर्द का प्रेम मान लिया जाता है और उसी के जाल में फंसकर वह हर रोज अपमानित होती है, तिरस्कारित होती है। थाने में बलात्कार और अंत में अवसाद का शिकार होकर जब दैवीय शक्ति बन जाती है पुरूष का लतियाकर-गरियाकर अपनी कंुठा निकालती है। <br /><br />हमारे पितृसत्तात्मक समाज में कुछेक प्रतिशत औरतों की तरक्की को ही देखकर मान लिया गया है कि औरत की स्थिति अब सुधर चुकी है किंतु यह हजारों मील के सफर में उठे दो कदम से अधिक कुछ नहीं है। मधुमिता हो या फूलमती या ललिता, हर नारी के लिए मन का आकाश होना और देह का पिंजरा होना ही उसकी वास्तविक कष्ट है। वह ऐसा कुछ नहीं कर सकती, जो पुरूष की हरकतों से मेल खाता हो। उसे कोसना चाहिए उस ईश्वर को जिसने उसके मन को चिड़िया बनाकर छाती सा आसमां दिया। इसमें पुरूष का भला क्या दोष?<br /><br />आंचलिकता का पुट लिए कायांतर को कहने का अंदाज लेखिका जयश्री राय की अपनी विशेष शैली है, जिसमें गहन निरीक्षण शक्ति के साथ उनकी नैसर्गिक प्रतिभा के सहज दर्शन होते हैं। एक संपूर्ण कहानी को रचने के लिए लेखिका को मेरी ओर से बधाई और कामना कि वे ऐसे ही लिखती रहें।<br /><br />उमेश कुमार.बिखरे पन्नेhttps://www.blogger.com/profile/13744810171867131246noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-63627898119664091242015-03-27T08:47:02.656+05:302015-03-27T08:47:02.656+05:30बहुत अच्छी कहानी पढ़ते हुए भीतर तक थरथराहट होने लगत...बहुत अच्छी कहानी पढ़ते हुए भीतर तक थरथराहट होने लगती है , मार्मिक Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/04125579342554874427noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-31191662085625058912015-03-26T22:28:12.862+05:302015-03-26T22:28:12.862+05:30वंदना का कहा ही मेरा कहा मान लीजिये ,कहानी के लिए ...वंदना का कहा ही मेरा कहा मान लीजिये ,कहानी के लिए शुक्रगुजार हूँ.miracle5169@gmail.comhttps://www.blogger.com/profile/01703031515401225371noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-65693718213103826992015-03-26T17:21:54.211+05:302015-03-26T17:21:54.211+05:30Exceptionally powerful! this is a masterpiece and ...Exceptionally powerful! this is a masterpiece and one of the most emotionally poignant, tender, gripping, and heart wrenching story. I can't express in words how brilliantly you have written the thoughts of a deprived,oppressed and agonized girl and enormous cruelity, bittertruth and injusticof our evil society...i felt the unimaginable pain, the fear,heatread.. ..i was deeply involved in it..it is full of depth about the humain soul...Joyshree i am spellbound and speechless! you always transport me into a different world your every words reverberate in every drop of my soul..there is an invaluable quality in your writing..wise beyond words..an overwhelming emotion..that drowned my soul with deep emotions.. just finished reading ..and i am filled with tears..this unique unforgettable story left me with an inexpressible feeling of sadness.. it will remain with me.. hats off to you!<br />Sonali Roynoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-49865282889781655032015-03-26T17:16:35.609+05:302015-03-26T17:16:35.609+05:30जॉयश्रीजी की यह कहानी उनके नए कहानी संग्रह कायान्त...जॉयश्रीजी की यह कहानी उनके नए कहानी संग्रह कायान्तर में पढ़ चुकी हूँ। कल इस पर राकेश बिहारीजी का आलेख भी पढ़ा। कहानी ने पहले भी छुआ था मगर इस आलेख ने जैसे इसे बेहतर समझने के लिए एक नयी दृष्टि प्रदान की। कहानी जितना दिमाग में हलचल पैदा करती है उतना ही सम्वेदना को भी छूती है। फूलमती कोई एक स्त्री नहीं है। वह इस देश की करोड़ों बदनसीब औरतों की प्रतिनिधि है। और यह औरत किसी वर्ग विशेष की ही नहीं है। हर वर्ग की स्त्रियों की कमोबेश यही स्थिति है। किसी न किसी स्तर पर वे प्रताड़ित और पीड़ित हैं। मन की दमित इच्छाएं कभी किसी स्थिति विशेष में किस रूप में सतह पर उभर कर आती है। फूलमती का सिन्दूर मांगना, लाल साड़ी मांगना स्त्री मन की शृंगार के प्रति सनातन लगाव का प्रतीक है साथ ही पितृसत्ता के वर्चस्व का नकार भी! उसका शृंगार जीवन में किसी पुरुष की उपस्थिति का मोहताज नहीं।<br />कथा की दूसरी विशेषतायें हैं आंचलिक शब्दों का प्रयोग, ग्राम्य जीवन का चित्रण, लोकपर्व का चित्रात्मक वर्णन! वर्णनात्मकता इस कहानी को बहुत जीवंत बना देती है जो कहानी की प्रवाह को भी एक सहज गति देती है। मिटटी की सोंधी खूशबू से भरी इस कहानी ने अंतर्मन को छू लिया। समालोचन और जॉयश्री रॉय को बहुत बधाई!<br />Malini Basunoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-83328170571362121212015-03-26T17:14:01.712+05:302015-03-26T17:14:01.712+05:30संवेदना को भीतर तक छूनेवाली मार्मिक कहानी। हर दृश्...संवेदना को भीतर तक छूनेवाली मार्मिक कहानी। हर दृश्य, हर विवरण कहानी को आगे बढ़ाने वाले, उसमें नया अर्थ भरने वाले। लोकेल पर इतनी महीन पकड़ बहुत कम ही कहानियों में मिलती है। फूलमती का दुःख जैसे भीतर धंस गया। लोक में डूब कर स्त्री संसार की दुर्दशाओं को कितनी सच्चाई से थाहती है यह कहानी। पाठक ऐसी ही कहानियों को खोजता है जो सीधे उसके हृदयद्वार पर दस्तक दे। ग्रामीण परिवेश पर लेखिका की पकड़ चकित करने वाली है। लेखिका और समालोचन दोनों को बधाई।<br />Abhishek Amitnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-73473723869594486662015-03-26T15:43:31.743+05:302015-03-26T15:43:31.743+05:30बहुत आभार अरुणजी!बहुत आभार अरुणजी!Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/09571250882643625080noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-20552345842037719612015-03-25T21:11:01.937+05:302015-03-25T21:11:01.937+05:30 किसी कहानी की समीक्षा पर प्रतिक्रिया करना कठिन है... किसी कहानी की समीक्षा पर प्रतिक्रिया करना कठिन है. मैंने कायांतर को पढ़ना ही उचित समझा. कोई भी कहानी काल्पनिक नहीं हो सकती, उसका कहीं न कही सच्चाई से सम्बन्ध होता ही है. कायान्तर पढ़ते समय मैं बिल्कुल उन गावों के समीप था, जहाँ मैंने ऐसी घटना को घटित होते देखा है. कहानी का क्रम लगातार चलता रहा है. कहानी पढ़ते समय कब खत्म हुवा पता ही नहीं चला. मुझे ऐसा लगा कि मैं भी फूलमती के गांव का वासी हुँ. कहानी कथाकार के सोच को भी दर्शाती है. स्त्री की गहरी संवेदना को दर्शाती यह कहानी आज के परिप्रेक्ष में युवा पीढ़ियों के लिए एक गहरी सीख भी है. बहुत ही संवेदनात्मक एवं मार्मिक कहानी है. आप ऐसे ही लिखते रहिये… बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।गौरवेश कुमारnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-59313563672813089422015-03-25T21:09:57.022+05:302015-03-25T21:09:57.022+05:30 निशब्द हूँ । कहानी आँखों को ही नहीं अंतस को भी भि... निशब्द हूँ । कहानी आँखों को ही नहीं अंतस को भी भिगोती है और पाठक को टीसते भावों और पीड़ा में गूँथकर अपने साथ बहा ले चलती है । फूलमती की विवशता और ललिता के ममत्व से ओतप्रोत यह कहानी पाठक को कठपुतली सा नचाकर एक साथ हँसने रोने को विवश करती है। <br /><br />अंत चमत्कृत करता है । <br /><br />बधाई लेखिका को । Sapna Bhattnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1027279009513442421.post-64154254005492080232015-03-25T15:41:46.281+05:302015-03-25T15:41:46.281+05:30
साधरण औरतें रोती हैं देवियाँ नह... <br /><br />साधरण औरतें रोती हैं देवियाँ नहीं ..........पंक्ति सारी पीड़ा सारी दास्ताँ बयान कर देती है .......औरत से देवी तक के सफ़र को तय करना आसान नहीं होता .........जाने कितनी मौत मरती है एक औरत तब इस मुकाम पर पहुँचती है..........एक चीत्कार को समेटे ........मगर सुनने के लिए कहीं किसी स्त्री का जिंदा होना भी जरूरी होता हैवर्ना दमघोंटू जीवन अन्दर ही अन्दर कैसे एक स्त्री का दाहसंस्कार कर देता है उसका प्रतीक है -----कायांतर यानि स्त्री में स्त्री का प्रवेश और फिर उसमे खुद की खोज ............अनेक अर्थ समेटे कहानी पितृसत्ता, पितृसोच के दुष्परिणाम को दर्शाती है तो दूसरी तरफ अंधविश्वास की भेंट चढ़े समाज का चित्रण करती है वहीँ अमानवीय दशाओं में गुजरती जिंदगियों का हाहाकारी चित्रण करती है ...........और एक वक्त आता है जब तोडनाजरूरी होता है ऐसी रूढ़ियों को शायद जीने के. लिए. जरूरी है. जैसे. लोहा ही लोहे. को.काटता.है.वैसे ही एक वक्त आता है जब इंसान इतना मजबूर हो जाता है कि न चाहते हुए भी उसको ऐसा कदम उठाना पड़ जाता है .........जाने कितने स्याह पक्षों को समेटे है कहानी जिन्हें हम देख कर जान कर भी अनदेखी कर जातेहैं vandana guptahttps://www.blogger.com/profile/00019337362157598975noreply@blogger.com