परती परिकथा की पहेली: प्रेमकुमार मणि



फणीश्वरनाथ रेणु (४ मार्च,१९२१-११अप्रैल १९७७) के जन्म-शताब्दी वर्ष में पत्रिकाओं ने उनपर केंद्रित अंक प्रकाशित किये, स्वतंत्र रूप से लगभग हर संभव साहित्य-स्पेस में उनपर लिखा और बोला गया. और यह अभी भी जारी है. आज उनकी पुण्यतिथि है.

रेणु की ख्याति में उनके उपन्यास ‘मैला आँचल’ और उनकी कुछ कहानियों की केन्द्रीय भूमिका है. मैला आँचल के समानांतर उनके दूसरे उपन्यास ‘परती परिकथा’ की चर्चा उसके प्रकाशन से लेकर आज तक इस बात के लिए होती रही है कि क्या वह ‘मैला आँचल’ से श्रेष्ठ उपन्यास है?  

लेखक-विचारक प्रेमकुमार मणि इस प्रश्न की तह तक जाते हैं और दोनों उपन्यासों के लगभग सभी साम्य टटोलते हैं, उनका गहन परीक्षण करते हैं.

तो क्या अब यह ‘पहेली’ हमेशा के लिए सुलझा ली गयी है ?

रेणु को स्मरण करते हुए आइये इस आलेख को पढ़ते हैं.


परती परिकथा की पहेली                                                            
प्रेमकुमार मणि

 

 



'रती-परिकथा' फणीश्वरनाथ रेणु का दूसरा उपन्यास है, जिसका प्रकाशन उनके पहले उपन्यास 'मैला आँचल' के प्रकाशन के तीन साल बाद हुआ. 'मैला-आँचल' के प्रकाशन और आलोचक नलिनविलोचन शर्मा द्वारा उसे महत्वपूर्ण बतलाए जाने के बाद उनकी ख्याति राष्ट्रीय क्षितिज पर छा गयी थी और इन सबके बीच स्वाभाविक है उनमें एक विशिष्ट लेखक का भाव भी उभरा होगा. विशिष्टता के इस भाव को मैं अहम नहीं, जिम्मेदारी के रूप में देख रहा हूँ. मैं समझता हूँ इसी मानसिकता के तहत परती-परिकथा का लेखन हुआ.

 

उनके पत्रों और विभिन्न लोगों के संस्मरणों से पता चलता है कि 1955 में इसका लेखन पटना में शुरू हुआ. रेणु प्रायः गाँव भी जाते रहते थे, अतएव इसका कुछ अंश उनके गाँव में लिखा गया. फिर हज़ारीबाग, जहाँ उनकी नयी पत्नी लतिका जी का मायका था, में इसका कुछ हिस्सा लिखा गया. लेकिन इसका अधिकांश इलाहाबाद में लिखा गया, जहाँ उन्होंने किराये का एक मकान लिया और कुछ महीनों तक वहाँ नियमित रह कर लेखन करते रहे. उनके इलाहाबाद वास का मुख्य मकसद इस उपन्यास को पूरा करना था. इसका आखिरी अंश बनारस में लिखा गया और वहीं इसका मुद्रण हुआ. हिंदी साहित्य में लेखकों की रचना-प्रक्रिया और उनके मनोविज्ञान पर अभी बहुत कम काम हुआ है. जब यह होने लगेगा और किसी मनोविश्लेषक का ध्यान रेणु के मनोविज्ञान पर केंद्रित हुआ, तब कुछ दिलचस्प नतीजे आ सकेंगे; और तब रेणु के इस या अन्य उपन्यासों के कुछ नये अर्थ उद्घाटित हो सकेंगे.

 

'परती-परिकथा' का प्रकाशन 1957 में राजकमल प्रकाशन द्वारा हुआ, सितम्बर महीने की दो तारीखों, 21 और 28 को, क्रमशः दिल्ली और पटना में इसके लोकार्पण के लिए जलसे आयोजित किये गए, जिसमें उस समय के अनेक गणमान्य साहित्यकारों ने भाग लिया. दिल्ली में शिवदान सिंह चौहान और पटना में नलिनविलोचन शर्मा जैसे दिग्गज आलोचकों ने बीज-वक्तव्य दिए. मेरे जानते उस समय तक किसी हिन्दी लेखक को अपने आरंभिक दौर में इतनी शोहरत नसीब नहीं हुई थी. कहा जा सकता है कि रेणु 'भीषण' रूप से हिंदी साहित्य की तत्कालीन दुनिया में चर्चित थे.

 

'परती-परिकथा' के प्रकाशन के साथ 'मैला-आँचल' को लेकर छिड़ी उन चर्चाओं पर विराम लग गया कि वह बांग्ला लेखक सतीनाथ भादुड़ी की अनुकृति जैसी कुछ है. इस बीच अपनी कहानियों 'तीसरी कसम', 'ठेस', 'रसप्रिया', ‘लालपान की बेगम' आदि के लिए भी रेणु खूब चर्चित थे. यह बात स्थापित हो गयी थी कि रेणु की अपनी मौलिकता और विशिष्टता है. इस बात को उनके निंदक-आलोचक भी स्वीकार करने लगे थे. हम कह सकते हैं कि रेणु किंवदंती बन चुके थे और ऐसे में स्वाभाविक था कि इस उपन्यास पर समीक्षात्मक टिप्पणियों और चर्चा-परिचर्चाओं का सिलसिला बन गया. बतला चुका हूँ कि राजकमल प्रकाशन द्वारा ही दिल्ली और पटना में भव्य जलसों का आयोजन किया गया. प्रकाशन के दो माह बाद 24 नवंबर को दिल्ली में श्रीकांत वर्मा ने इस उपन्यास पर विमर्श के लिए एक गोष्ठी आयोजित की, जिसमें निर्मल वर्मा, महेंद्र भल्ला, कृष्ण बलदेव वैद, नेमिचन्द्र जैन, प्रयागनारायण त्रिपाठी आदि ने हिस्सा लिया. रामविलास शर्मा और अमृत राय ने इस पर लेख लिखे. यशपाल ने एक विस्तृत पत्र में अपनी प्रतिक्रिया दी. नरेश मेहता-श्रीकांत वर्मा के संपादन में निकल रही पत्रिका 'कृति' में निर्मल वर्मा ने इस पर एक खूबसूरत समीक्षात्मक लेख लिखा, जो उनकी किताब 'कला का जोखिम' में संकलित है.

 

यह अजीब-सी बात थी कि 'मैला-आँचल' को लेकर साहित्य-समीक्षकों में लगभग सामान्य राय थी कि यह साहित्य का एक नया मिजाज है और इसे आंचलिक कहा जाना चाहिए. यद्यपि कि स्वयं रेणु ने इस आंचलिक शब्द का व्यवहार 'मैला आँचल' के लिए किया था. 'मैला आँचल' ने हिंदी साहित्य जगत को कुछ-कुछ आश्चर्य चकित किया था, मानो धरती पर कोई एलियन/ अजनबी आया हो. इसलिए उसकी इकतरफा केवल प्रशंसा हुई. लेकिन 'परती परिकथा' को लेकर दो तरह की प्रतिक्रिया हुई. कुछ का कहना था कि यह 'मैला आँचल' से भी आगे की रचना है. इसमें आलोचक शिवदान सिंह चौहान प्रमुख थे.

 

उपन्यास के लोकार्पण जलसे में बोलते हुए उन्होंने कहा-

"यह हिंदी का अब तक का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है. इसे सर्वश्रेष्ठ भारतीय उपन्यासों में रखा जा सकता है और पाश्चात्य साहित्य में इस बीच (यानी पिछले पांच-सात वर्षों में) जो महत्वपूर्ण उपन्यास प्रकाशित हुए हैं उनमें से किसी से भी यह टक्कर ले सकता है."


कुछ लोगों ने पहले ही 'मैला आँचल' को 'गोदान' (प्रेमचंद) से आगे की रचना कहा था. अब 'परती परिकथा' कुछ की नजर में 'मैला आँचल' से आगे की रचना थी. लेकिन 'मैला आँचल' की भूरी-भूरी प्रशंसा करने वाले नलिनविलोचन शर्मा को परती परिकथा’ उल्लेखनीय नहीं लगा.

 

रामविलास शर्मा ने भी इसे ख़ारिज किया. अमृत राय ने तो इसे उपन्यास मानने से ही इंकार कर दिया. लेकिन ऐसा लगता है रेणु इन प्रशंसा-आलोचनाओं से जानबूझकर कन्नी काटे हुए होते थे. इस बीच वह अहर्निश लिख रहे थे. 1952-53 से 1965-66 तक उनका महत्वपूर्ण रचनाकाल है. इस बीच ही रेणु लेखक बनते हैं. उनकी तमाम बेहतर चीजें इसी बीच लिखी गईं. उस वक़्त भी लेखकों के बीच विचारधारात्मक और कुछ अन्य किस्म की खेमेबाजियां थीं और इन सब के अपने पेचो-ख़म थे.

 

इलाहाबाद जहाँ रह कर 'परती परिकथा’ की रचना की गयी थी, परिमलवादियों का मुख्य अड्डा-अखाडा था. ये लोग कहीं-न-कहीं रेणु को अपने करीब समझते थे. उन दिनों साहित्य पर प्रगतिशील या प्रगतिवाद कहे जाने वाले मार्क्सवादी लेखकों का प्रभाव परिमलवादियों की अपेक्षा कुछ अधिक था. राजनीति की दुनिया में शीतयुद्ध का दौर था और स्तालिनयुगीन कट्टरता से ऊबा-थका सोवियत रूस शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के फलसफे जारी कर रहा था. स्वयं रेणु में समाजवादी राजनीति के मिथ्याचारों के प्रति एक झुंझलाहट भरी मानसिकता दृढ़ हो रही थी. इस परिप्रेक्ष्य में परती परिकथा’ पर 'परिमल 'का अवचेतन प्रभाव कोई भी देख सकता है. लेकिन सच यह भी था कि हिंदी साहित्य के प्रगतिशील कहे जाने वाले दायरे में भी रेणु के लेखन को लगातार समर्थन मिल रहा था, शिवदानसिंह चौहान स्वयं प्रगतिशील लेखक संघ से गहरे जुड़े थे. हाँ, रामविलास शर्मा की अपनी लाईन जरूर बनी हुई थी. ध्यातव्य यह भी है कि यशपाल, राहुल, रांगेय राघव, मुक्तिबोध जैसे मार्क्सवादी लेखकों के भी शर्मा अभिननंदनकर्ता नहीं थे. वे रेणु के आलोचक कैसे नहीं होते. शर्मा द्वारा रेणु की आलोचना स्वाभाविक थी, अप्रत्याशित नहीं.

 

इस पूरे प्रसंग से एक ही बात निकल कर आती है कि रेणु की स्वीकार्यता प्रगतिवादी और परिमलवादी दोनों पक्षों में थी. प्रगतिशील जमात में उनकी स्वीकार्यता तब तक बनी रही, जब तक एकबार फिर राजनीति में सक्रिय नहीं हो गए. हालांकि रेणु के निधन के बाद उन पर जो सब से गंभीर आलोचनात्मक विमर्श हुआ वह एक मार्क्सवादी आलोचक सुरेंद्र चौधरी द्वारा हुआ. लेकिन यहाँ यह एक अवांतर प्रसंग होगा.

 

परती परिकथा’ और 'मैला आँचल' में कुछ बातों की एकता है, तो कुछ बातों का भेद या अंतर भी. दोनों बिहार के एक पिछड़े ग्रामांचल पूर्णिया जिले के दो गांवों की कहानी है. 'मैला आँचल' का वर्णित गाँव मेरीगंज है, तो 'परती परिकथा' का परानपुर. मेरीगंज की तुलना में परानपुर बड़ा गाँव है. वह मेरीगंज की तरह पिछड़ा हुआ भी नहीं है. रेणु के शब्दों में- 'इस इलाके में सबसे उन्नत गाँव है'. मेरीगंज में बारहों बरन के लोग हैं, तो परानपुर में 'विभिन्न जातियों के तेरह टोले हैं.' आबादी है 'करीब सात-आठ हजार'. 'मैला आँचल' की कथाभूमि में ब्रिटिश उपनिवेशवाद से भारत की आज़ादी के तुरंत बाद के परिदृश्य हैं, तो 'परती परिकथा' में ज़मींदारी उन्मूलन के तुरंत बाद के.

 

जिन लोगों ने भी स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास को गहराई से देखा है, वे सब इस निष्कर्ष पर आने के लिए विवश हुए हैं कि अपने आखिरी दौर में यह आंदोलन ब्रिटिश विरोध के साथ जमींदार विरोध को भी आत्मसात कर चुका था. इसका कारण था राष्ट्रीय आंदोलन का धीरे-धीरे किसान तबकों में विस्तार. ग्रामीण अंचलों में अंग्रेज विरोधी रुख से अधिक जमींदार विरोधी रुख दिख रहा था. देश के अन्य हिस्सों के मुकाबले बिहार में किसान आंदोलन अधिक सांद्र था. इसका एक कारण यह भी था कि गवर्नर जनरल लार्ड चार्ल्स कार्नवालिस ने 1793 में जिस स्थाई बंदोबस्त की नीति को अंजाम दिया था उससे समाज में जमींदारों का एक प्रभुवर्ग ग्रामीण इलाकों में उभर आया था. ये जमींदार जोंक की तरह किसानों का खून चूस रहे थे. हर जगह इन्हें लेकर किसानों में विद्रोह भाव था.

 

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में पटना की सड़कों पर जो नारे लग रहे थे, उनका विश्लेषण जन भावनाओं को समझने में सहायक हो सकता है. अंग्रेजों भारत छोड़ो के साथ जो प्रमुख नारा था- अंग्रेजी राज का नाश हो, ज़मींदारी राज का नाश हो, किसान राज कायम हो. बिहार की जनता अंग्रेजी राज और ज़मींदारी राज को एकमेव देख रही थी, आपस में जुड़ा देख रही थी. वे उसके नाश और किसानों के राज के कायम होने के नारे लगा रहे थे. बिहार में कांग्रेस किसानों से अधिक ज़मींदारों का प्रतिनिधित्व करने वाला राजनीतिक दल था, इसलिए आमतौर पर किसानों के बीच सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट पार्टियों के लोग और उनके विचार लोकप्रिय थे. 'मैला आँचल' में इसे कोई भी देख सकता है. लेकिन 'परती परिकथा' में वैसी स्पष्टता नहीं है. इसे हिंदी आलोचना का दारिद्र्य ही कहा जाएगा कि इस उपन्यास के अनाप-शनाप प्रसंगों को लेकर तो खूब चर्चा हुई, इसके केंद्रीय सरोकारों को देखने-समझने की कोशिश कम ही हुई.

 

2)

पूरे प्रसंग पर विस्तार से विमर्श करने के पहले इस उपन्यास की कथावस्तु पर एक विहंगम ही सही दृष्टि डालना जरूरी होगा. पौराणिक कथाओं की तरह रेणु पूरे कोसी अंचल के प्रादुर्भाव की कथा जादुई अंदाज़ में सुनाते हैं. इसके लिए वह लोककथाओं, जनश्रुतियों और कथावाचकों का इस्तेमाल करते हैं और इन सबका एक ऐसा समवेत सांगीतिक तिलिस्म उपस्थापित करते हैं कि कोई भी हैरान हो सकता है. रेणु का हाइपोथेटिकल मस्तिष्क इतना उर्वर है, जिसका कोई जवाब नहीं. यह उन अवयवों की तरफ संकेत भी करता है जिससे उनके मानस की पार्श्वभूमि निर्मित है. वह गहरे ऐन्द्रिक और परिकल्पना-प्रिय हैं.

 

इन्हें केवल अनुभव किया जा सकता है, इसकी व्याख्या कठिन ही नहीं, लगभग असंभव है. 'मैला आँचल' में भी इसकी पर्याप्त उपस्थिति है, लेकिन परती परिकथा’ में इसका अधिक सांद्र रूप हम देखते हैं. शायद इसी आधार पर कवि नागार्जुन ने कहा था कि हम अपनी कथाओं में लोकतत्वों की छौंक लगाते हैं, रेणु उसका शरबत बना देते हैं. (हिंदी कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर से एक वार्ता) नागार्जुन का यह व्यंग्य उनकी अपनी असमर्थता, जो खीझ बन चुकी है, का प्रदर्शन भी है. दरअसल रेणु लोकतत्वों का सर्वांगपूर्ण इस्तेमाल करते हैं, यह क्षमता भी उनके पास है. इसे केवल वही संभव कर सकते हैं. जहाँ दूसरे लेखक कथा वस्तु में अधिक रुचि लेते है, रेणु परिवेश में रुचि लेने लगते हैं. यह उनके लेखन की विशिष्टता भी है और कमजोरी भी.

 

हम एक बार फिर 'परती परिकथा' के केंद्रीय गाँव परानपुर की ओर लौटना चाहेंगे. सात-आठ हजार लोगों की बसावट वाला गाँव वस्तुतः एक क़स्बा हो जाता है और इसकी जरूरतों को पूरा करने के लिए छोटा ही सही एक बाजार की भी जरूरत पड़ती है. पता नहीं, रेणु ने इसकी जरूरत क्यों नहीं समझी. लेखक के अनुसार वहाँ मुसलमानों की आबादी अब मात्र पचास घरों की रह गई है. रेणु चुपके से देश के बंटवारे की तरफ संकेत कर देते हैं. मुसलमानों का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान चला गया, इसे वह सीधे रूप से नहीं कहते. इस मुस्लिम आबादी का रेणु बस एक ही इस्तेमाल करते हैं कि एक मुस्लिम नेता ऐन मौके पर कम्युनिस्ट प्रभाव को विच्छिन्न करके उन सब को इस्लाम की शपथ दिला अपने पक्ष में कर लेता है और सबको लिए-दिए कांग्रेस में चला जाता है. मेरीगंज के बाजू में बसे हुए संथालों का 'मैला आँचल' में बेहतर कथा-इस्तेमाल होता है, जब उन्हें कुचलने के लिए मेरीगंज के सिपहिया टोले, कायथ टोले और यादव टोले के लोग इकट्ठे हो जाते हैं. इस वर्ग-चेतना को ‘परती परिकथा’ में रेखांकित करना अधिक संभव था, लेकिन इसका अभाव दिखता है. परानपुर कुछ अन्य मामलों में दरिद्र है. मेरीगंज जैसा कोई आध्यात्मिक केंद्र (कबीर मठ) यहाँ नहीं है. हाँ, जमींदार द्वारा स्थापित एक उजाड़ मंदिर है. यह सब ऐसे बिंदु हैं, जिन पर आलोचकों का ध्यान जाना चाहिए था.

 

परानपुर का केंद्र है जमींदार की हवेली, जिसके मौजूदा वारिस हैं जितेंद्रनाथ मिश्र. जितेंद्र की कहानी दिलचस्प है. उसकी माँ अंग्रेज कुल की रोज़ी वुड और पिता पतनीदार कौशलेन्द्र मिश्र हैं, जो परिश्रम से सीखी हुई अपनी तंत्रविद्या का 'उपयोग' पतनीदार से जमींदार बनने के लिए करते हुए अपने ही अमले लरेना खवास के छल का शिकार होते हैं और अंततः मारे जाते हैं.

 

मरने के पूर्व ही उन्हें अपने अमले की दग़ाबाज़ी की जानकारी हो जाती है और वह भी लरेना को गर्म लोहे की छड़ से दगवाते हैं जिसकी असह्य पीड़ा से वह मर जाता है. अपने पति कौशलेन्द्र मिश्र की मृत्यु के बाद असुरक्षा की परिस्थितियों के बीच रह रही रोज़ी वुड बहुत सावधानी के साथ अपने कुलदीपक जितेन्द्र को पालती-पोसती है. इन असामान्य हालातों ने जितेन्द्र के व्यक्तित्व का निर्माण किया है. आर्थिक रूप से सुरक्षित लेकिन सामाजिक और भावात्मक रूप से अत्यंत असुरक्षित उसका जीवन है.

 

मैला आँचल के प्रशांत की तरह वह अज्ञातकुलशील तो नहीं है, लेकिन अंग्रेज मेम और तांत्रिक शाक्त ब्राह्मण पिता की औलाद जितेन्द्र भी वर्णवादी हिन्दू सामाजिक चौखटे में मिसफिट है. दरअसल वह प्रतिलोम एंग्लो-इंडियन है, जिसका परानपुर जैसे एक गाँव में स्थापित होना मुश्किल है. मैला आँचल का मेरीगंज उन्नत गाँव नहीं है, वह पिछड़ा हुआ इलाका है. इसलिए प्रशांत जैसे निर्जात नायक को कबीर मठ की लछमी कोठारिन का मातृत्व और तहसीलदार की बेटी कमली का उत्कट प्रेम मिल जाता है. प्रशांत को पूरे गाँव से कुछेक अपवादों के साथ पर्याप्त समर्थन मिलता है. लेकिन वैसा समर्थन जितेंद्र को नहीं मिलता. क्यों नहीं मिलता?

 

इसका कारण शायद यह है कि मेरीगंज की तुलना में परानपुर 'उन्नत गाँव' है. उसकी यह उन्नतता ही उसे वैचारिक रूप से संकीर्ण बनाती है. यह एक महत्वपूर्ण यक्षप्रश्न रेणु हमारे समक्ष छोड़ गए हैं जिस पर अब तक हम कन्नी काटते रहे हैं. इसे आज के भारत में समझना कुछ आसान हो गया है. जब भारत गरीब और पिछड़ा था वह उदारवादी था, आज विकसित है और अपनी सोच में अनुदारवादी होता जा रहा है.

 

हम फिर अपने जितेन्द्र की ओर लौटते हैं. उसके जीवन का बड़ा हिस्सा गाँव के बाहर-बाहर बीता है, जहाँ वह राजनीति में भी सक्रिय रूप से जुड़ा रहा है. प्रान्त के एक बड़े दल के नेता कुबेरनाथ सिंह के व्यक्तित्व और राजनीति को स्थापित करने में उसकी महती भूमिका रही है. सुभाषचंद्र बोस ने जब लेफ्ट कंसोलिडेशन कमिटी बनायी थी, तब कुबेरनाथ के साथ जितेन्द्र ने कोलकाता की यात्रा की थी, जिसमें उनकी मुलाकात सुभाष बाबू से होती है. सुभाष बाबू को समझते देर नहीं लगी थी कि कुबेरनाथ की असली ताकत जितेन्द्र है. सुभाष बाबू जितेन्द्र से एक अलग की मुलाकात में उसे कुबेरनाथ से सावधान रहने का संकेत भी देते हैं. यह कुबेरनाथ आज़ादी के बाद जितेन्द्र को पार्टी की भरी मीटिंग में अपमानित कर पार्टी से निष्कासित करवा देते हैं. राजनीति के छल-छद्म से अपमानित और क्षुब्ध जितेन्द्र अब गाँव लौटने की सोचता है, कोई बारह-पंद्रह साल बाद. यह उसका अपने आर्कीडिया में लौटना है.

 

इस बीच गाँव बहुत बदल चुका है. ज़मींदारी प्रथा एक सरकारी कानून द्वारा ख़त्म कर दी गई है, लेकिन बिहार टेनेंसी एक्ट के तहत खेत पर दखल कब्जे का जो कानून बना था, उसे व्यापक करते हुए बिहार सरकार ने सर्वे सेटलमेंट का काम तेजी से आरम्भ करवा दिया है. इस अभियान के तहत सरकार की कोशिश है कि जिस भूमि पर किसान अपनी जोत कायम किए हुए है और जिसे उत्पादन लायक बनाने में उसकी भूमिका रही है, उसे उनके नाम सर्वे खाते में दर्ज किया जाय. यह एक ऐसा अभियान था ,जिसने गाँवों में, खास कर किसानों में एक नयी जागृति और उत्साह ला दिया. रेणु की कई रचनाओं में इसकी छवियां मिलती हैं. 'लालपान की बेगम' से लेकर 'आत्मसाक्षी' तक में आप इन छवियों को चिह्नित कर सकते हैं.

 

परती परिकथा’ का तो आरम्भ ही सर्वे सेटलमेंट अभियान से होता है:

 

“लैंड सर्वे सेटलमेंट! जमीन की फिर से पैमाइश हो रही है, साठ-सत्तर साल बाद. भूमि पर अधिकार! बँटैयादारों, आधीदारों का जमीन पर सर्वाधिकार हो सकता है, यदि वह साबित कर दे की जमीन उसी ने जोती-बोई है. चार आदमी- खेत के चारों ओर के गवाह, जिसे अरिया गवाह कहते हैं-  गवाही दे दें, बस हो गया. कागजी सबूत ही असली सबूत नहीं. बिहार टेनेन्सी एक्ट की दफा 40 के मुताबिक लगातार तीन साल तक जमीन आबाद करने वालों को मौरूसी हक हासिल हो जाता था,किन्तु कचहरी की करामात और कानूनी दांव-पेंच से अनभिज्ञ किसानों की इसमें कोई भलाई नहीं हुई. ज़मींदारी प्रथा को ख़त्म करने के बाद राज्य सरकार ने अनुभव किया- पूर्णिया जिले में एक क्रांतिकारी कदम उठाने की आवश्यकता है. .. हिंदुस्तान में,संभवतः सबसे पहले पहले पूर्णिया जिले पर ही लैंड सर्वे ऑपरेशन का प्रयोग किया गया."

(परती परिकथा, पृष्ठ 326, रेणु रचनावली -2)

 

ज़मींदारी उन्मूलन कानून को ज़मींदारों ने अपने अनुकूल कर लिया. नये संविधान में संपत्ति रखने का अधिकार था और पुराने ज़मींदारी सिस्टम में जमींदार को भी जोत की जमीन रखने का अधिकार था. इन दोनों को मिला कर पुराने जमींदार अब बड़े किसान हो गए. उन सब ने अपने नाम सैकड़ों-हजारों एकड़ जमीन रख ली. ट्रैक्टर और अन्य आधुनिक साधनों से खेती करने की योजना भी बनी. इन्हीं बिंदुओं पर रेणु ने ध्यान खींचने की कोशिश की है. सर्वे सेटलमेंट अभियान इसी दिशा में उठाया गया एक कदम था कि वास्तविक किसानों को कानून का संरक्षण मिल सके.

 

इन्हीं हालातों के बीच जितेन्द्र गाँव आता है, कोई बारह -पंद्रह वर्षों बाद. यहाँ न उसके पिता हैं, न माँ. वह विवाहित भी नहीं है. कारिंदों के बल पर चल रही हवेली है, जो पूर्व वैभव के बूते किसी तरह चल रही है. हवेली के बगल में है नटों का एक टोला, जहाँ ताजमनी रहती है, उसके पिता की रक्षिता या रखैल की बेटी जो कायदे से अब जितेन्द्र की भी रक्षिता है. ताजमनी ने जितेन्द्र की माँ की बहुत सेवा की थी और मरने के पूर्व अपने जित्तन (जितेन्द्र) का ख़याल रखने का भरोसा दे गई थी. ताजमनी इस भरोसे का खूब ख़याल करती है. जितेन्द्र भी यह जानता है कि ताजमनी उसका खूब ख्याल रखती है. अपने राजनीतिक जीवन में जितेन्द्र का रागात्मक संबंध इरावती से भी हुआ था. वह इरावती एक अंतराल के बाद अचानक परानपुर में प्रकट होती है.

 

इस तरह इरावती और ताजमनी की रागात्मकता के बीच पेंडुलम की तरह डोलता जितेन्द्र एक अजीब किस्म का प्राणी बन चुका है. हवेली में भवेशनाथ और सुरपति राय दो ऐसे शोधार्थी हैं, जो बाहर से आये हुए हैं. एक की रुचि लोक इतिहास में है तो दूसरे की लोक जीवन में. विभिन्न घाटों का इतिवृत्त वे खंगाल रहे हैं और उनका डॉक्यूमेंटेशन भी कर रहे हैं. भवेशनाथ ने जितेन्द्र की माँ रोज़ी वुड की डायरी का एक इतिवृत्त तैयार किया है, जो उपन्यास के कथा-फलक का एक जरूरी हिस्सा बन जाता है. इससे जितेन्द्र के व्यक्तित्व को समझने में सहायता मिलती है.

 

3)

रेणु का जितेन्द्र आखिर है क्या? इसकी सम्यक व्याख्या हमारे आलोचकों ने नहीं की है. प्रशांत की तरह इसका कोई ठोस व्यक्तित्व नहीं है. यह काफी बिखरा-बिखरा व्यक्तित्व है. ऐसा लगता है रेणु ने भी इस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया. या फिर जानबूझकर  उसके व्यक्तित्व में एक अजीब सी स्वच्छंदता, जिसे आवारगी कहना भी बुरा नहीं होगा, आने दिया है. लेकिन कोई भी समझ सकता है कि इस पात्र को लेखक रेणु का सम्पूर्ण समर्थन प्राप्त है. अपनी तमाम कमजोरियों और हदों के बावजूद इस उपन्यास का नायक जितेन्द्र ही है. वह खुद तय नहीं कर पाता कि आखिर वह है क्या!

 

जवाहरलाल नेहरू ने आत्मकथा में स्वयं को समझने की कोशिश की है. वह कहते हैं-

 

"मैं पूर्व और पश्चिम का एक अजीब-सा मिश्रण बन गया हूँ, हर जगह बेमौजूं, कहीं भी अपने को अपने घर में होने जैसा अनुभव नहीं करता. शायद मेरे विचार और मेरी जीवन दृष्टि पूर्वी की अपेक्षा पश्चिमी अधिक है; लेकिन भारतमाता अनेक रूपों में अपने बालकों की भांति, मेरे ह्रदय में भी विराजमान है; और अंतर के किसी अनजान कोने में, कोई सौ (या संख्या कुछ भी हो) पीढ़ियों के ब्राह्मणत्व के संस्कार छिपे हुए हैं. मैं अपने पिछले संस्कार और नूतन अभिज्ञान से मुक्त नहीं हो सकता. ये दोनों मेरे अंग हो गए हैं, और जहाँ वे मुझे पूर्व और पश्चिम दोनों के मिलने में सहायता करते हैं, वहां साथ ही न केवल सार्वजनिक जीवन में, बल्कि समग्र जीवन में एक मानसिक एकाकीपन का भाव पैदा करते हैं. पश्चिम में मैं विदेशी हूँ- अजनबी हूँ. मैं उनका हो नहीं सकता. लेकिन अपने देश में भी मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है, मानो मैं देश-निर्वासित हूँ.”

(पृष्ठ 830, मेरी कहानी, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन)

 

जवाहरलाल नेहरू स्वयं को पश्चिम में अजनबी और देश में निर्वासित अनुभव करते हैं. उन्हें तय करना मुश्किल है कि वह पश्चिम के हैं या पूरब के. उनकी समझ और नजरिया पश्चिमी अंदाज के हैं. उस पश्चिमी अंदाज के जिस पर रेनेसांस, इनलाइटमेन्ट और उससे जनित साइंटिफ़िक टेम्पर का प्रभाव है. लेकिन बावजूद इसके उस पश्चिम में वह पराया या अजनबी हैं, एलियन हैं. अपने देश से उन्हें प्यार है, उनके संस्कार देसी हैं, लेकिन वास्तविकता है कि वह अपने देश में निर्वासन का अनुभव करते हैं.

 

जितेन्द्र कुछ ऐसा ही अनुभव करता है. गाँव से, उसके लोगों से वह बेपनाह मुहब्बत करता है, लेकिन यह गाँव मोटे तौर पर उसे पराया और बाहरी समझता है. उसके लिए उनका अपना बनना मुश्किल है, क्योंकि उसके अर्जित संस्कार उसे भदेस बनने से रोकते हैं. गाँव से प्रेम करने का अर्थ गंवार बन जाना नहीं है. वह मजहब और जातपात के चक्रजाल में नहीं आ सकता. उससे यह संभव ही नहीं है. गाँव के लोगों से उसे प्यार जरूर है,लेकिन आवश्यक नहीं की उनकी सोच का भी वह हिस्सा हो जाय; उसकी अपनी समझ है, जो नगरीय है और उसका एक वैश्विक दृष्टिकोण है. जीवन, जगत, धर्म, इतिहास सबको वह संकीर्ण की जगह वृहत्तर और विशद परिप्रेक्ष्य में देखता है.

 

वह तांत्रिक कौशलेश मिश्र का अंश है, उनका पुत्र, लेकिन अपने संस्कारों में वह माँ के अधिक निकट है. उसकी माँ रोज़ी वुड की भारतीयता और उसका हिंदुत्व, उसके अपने परिश्रम और साधना द्वारा अर्जित और इसलिए परिष्कृत है. उसने यह हासिल किया है. इसलिए जितेन्द्र का व्यक्तित्व सामान्य से तनिक भिन्न है. आनुवंशिक रूप से पूर्व और पश्चिम के सम्मिलन का वह परिणाम तो है ही, उसका व्यक्तित्व भी दोनों की उदार परम्पराओं की पृष्ठभूमि पर खड़ा है. वह जमींदार परिवार का है,लेकिन उसकी सोच समाजवादी है. मनुष्य जाति के भविष्य को वह अपने अंदाज में देखता है. एक शुभ्रता, लोकतंत्र के सहिष्णु रूप की वह कल्पना करता है. गाँव में उसका मुखर शत्रु लुत्तो है,जो लरेना खवास का बेटा है.

 

लुत्तो जनतांत्रिक आवेगों के बीच अपनी सोच को एक रूप देना चाहता है. जनतंत्र ने समानता के जो विचार विकसित किये हैं, उसका उपयोग लुत्तो अवश्य करता है, लेकिन भाईचारा और आज़ादी के भावों पर अपनी कुंठा-द्वेष को प्रभावी होने देता है और ऐसे में उसका व्यक्तित्व केवल व्यक्तिगत द्वेष का प्रतीक भर बन कर रह जाता है. उसके पिता लरेना उर्फ़ नारायण राय की मौत जितेन्द्र के पिता कौशलेन्द्र द्वारा  दाग कर सजा देने से हुई. लरेना ने कौशलेन्द्र को विषाक्त पान खिलाया, जिससे अंततः उसकी मौत हुई. मरने के पूर्व कौशलेन्द्र ने लरेना को यह सजा दिलवाई. यह ठीक है कि कौशलेन्द्र ने भी जिंदगी भर फरेब का ही काम किया था. इसी फरेब के बल पर वह जमींदार-जागीरदार बनने की कोशिश करता है; लेकिन उसकी आकांक्षा धरी की धरी रह जाती है. कौशलेन्द्र और लरेना दोनों मारे जाते हैं. अब उन दोनों के पुत्र जितेन्द्र और लुत्तो परानपुर की धरती पर हैं.

 

जित्तन अपने पिता से भिन्न प्रवृत्ति का है. पहले जो हो, उपन्यास के कथावृत्त में उसकी कोई राजनीतिक आकांक्षा नहीं है. लेकिन लुत्तो अपने पिता की मौत का बदला जितेन्द्र से लेना चाहता है. जितेन्द्र में लुत्तो के प्रति कोई शत्रु भाव नहीं है. उपन्यास से इस बात के भी संकेत नहीं मिलते हैं कि जितेन्द्र को इस बात की जानकारी है कि उससे लुत्तो के नफरत का आधार क्या है. लुत्तो का जितेन्द्र के प्रति विरोध का नहीं, नफरत का भाव है, वह बदले के भाव में गहरे धंसा है और येनकेन भी जितेन्द्र को परेशान कर अपना ह्रदय जुड़ाना चाहता है. क्या लुत्तो का यह व्यवहार हिन्दू वर्णवादी समाज की अद्विज जातियों के बीच उस घृणाभाव का ही प्रतिनिधित्व नहीं करता है, जो मनु के ज़माने के शास्त्रोक्त द्विज अत्याचारों के विरुद्ध आज के उन द्विजों से नफरत पालते हैं, जो आधुनिक जीवन मूल्यों को स्वीकारना चाहते हैं और जो स्वयं आज जिंदगी की जद्दोजहद में फटेहाल हैं.

 

ऐसी उम्मीद कम है कि रेणु के मन में ऐसी कोई बात रही होगी. लेकिन इतना तय है कि लुत्तो की मनोदशा और घृणाभाव को लेखक रेणु का कोई समर्थन प्राप्त नहीं है. अपने नफरत भाव में लगातार धंसता जा रहा लुत्तो अंततः एक दयनीय पात्र बन कर रह जाता है. न तो वह कम्युनिस्ट है, न पूरी तरह कांग्रेसी, न ही सोशलिस्ट. वह एक छायायुद्ध लड़ रहा है.

 

'परती परिकथा' का नायक निःसंदेह जितेन्द्र है. वह जमींदार परिवार से ताल्लुक रखता है,परानपुर  हवेली का मालिक है, हजारों एकड़ का वारिस, एक नयी सोच है उसके पास, प्रेमी ह्रदय भी, ताजमनी और इरावती के प्रेम में वह डूबा है, लेकिन कोई विलासी चरित्र नहीं है. अपने इलाके के पांच चक्र के पांच भूमि भागों को ट्रेक्टर जैसे आधुनिक उपकरणों द्वारा जोत-कोड़ कर वह पेड़-पौधे और वनस्पतियां लगाना चाहता है ताकि खेती लाभप्रद हो सके और पर्यावरण हरा-भरा. वह परती जमीन में हरियाली विकसित करने का स्वप्न देखता है. बस यह स्वप्न ही उसका स्वार्थ है. वह एक आदर्श रखना चाहता है. उसकी कमजोरी यह है कि इसके लिए जनपक्ष को अपने अनुकूल करने की बहुत कोशिश नहीं करता. वह एक आदर्श जमींदार बनना चाहता है. एक आदर्श समाजवादी नहीं, इस बात को ध्यान में रखना होगा. यह मैला आँचल के नायक प्रशांत का विकास नहीं, उसका अवनतिकरण है.

 

लेकिन जितेन्द्र 'परती परिकथा' के कहीं बाहर भी है क्या? जिससे लेखक रेणु प्रेरित हैं. या यह रेणु का अपना यूटोपिया है. ठीक-ठीक बताना मुश्किल होगा कि रेणु को ‘परती परिकथा’ लिखने और जितेन्द्र जैसा चरित्र गढ़ने की प्रेरणा कहाँ से और कैसे मिली. 1955 में यदि यह उपन्यास लिखना आरम्भ किया गया, तब उस समय की उन स्थितियों की भी समीक्षा की जानी चाहिए जिससे रेणु घिरे थे. व्यक्तिगत स्तर पर सक्रिय राजनीति से उनका मोहभंग हो चुका था और उन दिनों वह पूर्णकालिक लेखक थे. उनकी सोशलिस्ट पार्टी 1952 के चुनाव में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर सकी और उसके नेता हताश होकर बैठे थे. 1952 के आखिर तक सोशलिस्ट पार्टी और आचार्य कृपलानी की पार्टी किसान मजदूर प्रजा पार्टी (के एम् पी पी) का आपस में विलय हो गया और एक नयी पार्टी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पी एस पी) बन गई. बाद के समय में सोशलिस्टों के एक हिस्से ने नेहरू सरकार को समर्थन देना तय किया.

 

1955 में ही अवाडी कांग्रेस में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ने समाजवादी ढाँचे के समाज का प्रस्ताव जब स्वीकार किया, तब अनेक सोशलिस्ट इसकी लीक पर चल कर कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए. 1953 के आखिर तक रेणु के राजनीतिक गुरु और नायक जयप्रकाश नारायण ने राजनीति से सन्यास ले लिया और विनोबा भावे के भूदान अभियान में जीवनदानी बन गए. इसके पूर्व वैज्ञानिक समाजवादी जेपी का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से भरोसा उठ गया था और वे भाववादी दर्शन की गिरफ्त में चले आये थे. ईश-वंदन और रहस्यमयी दैवी शक्तियों पर उनका भरोसा अचानक बढ़ गया था. मार्क्सवादी वैज्ञानिक सोच से वह बहुत दूर हो गए थे. 1930 के दशक में जिस व्यक्ति ने अपने समाजवादी तेवर और सोच से देश की युवा पीढ़ी को आकर्षित किया था, आज निस्तेज हो चुका था. अपना आकर्षण खो चुका था. अपने मित्र और गुरु की मनोदशा का ज्ञान रेणु को गहराई से था. यह भी कहा जा सकता है कि यह बदलाव अनेक समाजवादियों में दिख रहा था.

 

रेणु स्वयं को भी बदला-बदला अनुभव कर रहे थे. तंत्र साधना में उनकी दिलचस्पी शुरू हो गई थी. लेकिन इन सबके बीच किसी न किसी अंश में समाजवादी तेवर भी सुरक्षित था. इसलिए 'परती परिकथा' में विचारों का एक अस्पष्ट परिदृश्य उभरता है. धुंधला-धुंधला. ‘मैला आँचल’ जैसी स्थिति यहाँ नहीं है. 'मैला आँचल' का लेखक रेणु यदि अडिग समाजवादी है, तो परती  परिकथा’ का लेखक रेणु ढुलमुल समाजवादी. अनेक समाजवादी अवयवों से उसकी आस्था डिग चुकी है. संकल्प-सिद्ध समाजवादी से अवनत होकर वह पराजित समाजवादी बन गया है. 'परती परिकथा' में लेखक की इस मनोदशा को कोई भी देख सकता है.

 

इसका नायक जितेन्द्र मन से हारा हुआ है, कुछ-कुछ जेपी की तरह और वह अत्याधुनिक कृषि उपकरणों और तकनीक से परती को उर्वर बनाना चाहता है नेहरू की तरह. इसलिए यह कहा जा सकता है कि इस जितेन्द्र में नेहरू और जेपी का मिला जुला व्यक्तित्व दिखता है. सक्रिय राजनीति से ऊबकर जिस तरह जेपी जीवनदानी बनते हैं और गाँवों की ओर लौटो अभियान के तहत नवादा जिले के एक गाँव सोखो देवरा में डेरा डालते हैं, यह जितेंद्र भी परानपुर में डेरा डालता है. वह भी अंततः नाटकों और अन्य सांस्कृतिक माध्यमों से मानवेंद्रनाथ राय के 'दूसरे रेनेसांस' का स्वप्न देखता है. इन सांस्कृतिक उपक्रमों के माध्यम से उसे एक दलहीन जनतंत्र के उभरने और विकसित होने का भरोसा है.

 

परानपुर में जितेन्द्रनाथ मिश्र जिस तरह के लोकमंच को विकसित करने का प्रयास करता है, कुछ वैसा ही लोकमंच बाद के दिनों में जेपी ने मुजफ्फरपुर के मुसहरी और अन्य अनेक जगहों पर विकसित करने के प्रयास किये. वह जनता को सांस्कृतिक रूप से समुन्नत देखना चाहते थे. 1974 में जब रेणु और जेपी एकबार फिर राजनीतिक रूप से सक्रिय हुए तब इसी तरह के लोकमंचों को जनसरकार के रूप में विकसित करने की कोशिश की. दलहीन जनतंत्र विकसित करने का प्रस्ताव भी सार्वजनिक किया. इसलिए जो लोग यह समझते हैं कि 'परती परिकथा' का उतना सामाजिक-राजनीतिक महत्व नहीं है, जितना कि 'मैला आँचल' का, उन्हें यह जरूर विचार करना चाहिए कि यह उपन्यास नेहरू युग के मध्यवर्गीय मनोदशा और उसके चारित्रिक विचलन का एक जीवंत दस्तावेज है और केवल इतने भर के लिए भी यह उल्लेखनीय है. उस दौर को समझने के लिए यह उपन्यास अत्यंत आवश्यक होगा. इसी रूप में कोई उपन्यास इतिहास का एक रूप होता है.

 

4)

निःसंदेह 'परती परिकथा' उस तरह महाकाव्यात्मक नहीं है, जिस तरह 'मैला आँचल'. यहाँ अपेक्षाकृत एक सरल गाथा है, जो गाँव में सर्वे सेटलमेंट की योजना आरम्भ होने के साथ परवान चढ़ती है. इसी बीच गाँव में जितेन्द्रनाथ मिश्र लौटता है, जो गाँव का पुराना जमींदार रहा है. वह अपनी हवेली में बैठ कर उस इलाके में हरितक्रांति लाने का स्वप्न देखता है. यह एक मिथ्याचार ही है की कोई जमींदार सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के स्वप्न देख रहा है. इस मिथ्याचार का सफलतापूर्ण चित्रण करने में रेणु लगभग विफल सिद्ध हुए हैं. यह त्रासदी ही कही जाएगी कि जिस गाँव में कालीचरण होते थे, उसकी जगह अब लुत्तो या अधिक से अधिक नाटककार दीवाना जैसे छद्म पात्र शेष रह गए हैं. कबीर मठ की लछमि दासिन अपने किस्म की एक अद्भुत स्त्री पात्र है, जो दुनिया भर की सतायी हुई स्त्रियों का मानो प्रतिनिधित्व करती है. उसकी स्थिति देवदासी जैसी है, लेकिन उसका एक स्वतंत्र चरित्र है जो दीप्त है. उसमें मातृत्व, करुणा और सच के लिए संघर्ष करने का साहस है.

 

बालदेव जी को गांधी जी की चिट्ठियों को जलाने से वह रोकती है,क्योंकि इन चिट्ठियों के महत्व को वह जानती है. आखर और वाणी के महत्व को जितना वह जानती है,कोई संत भी नहीं समझता. चिट्ठियों को बचाने में के प्रयास में खुद बुरी तरह जल जाती है. बावजूद इसके बालदेवजी के प्रति वह कोई रोष नहीं पालती. वह मनुष्य के सहज राग-द्वेष को जानती है, इसलिए स्वभाव से ही शांत है. ऐसी कोई स्त्री परती परिकथा में नहीं है तो आखिर क्यों?

 

क्या मलारी या ताजमनी लछमी दासिन और कमली के अनुक्रम में दिखती है ? 'मैला आँचल' में जिंदगी के जो फूल-शूल-धूल थे वह 'परती परिकथा' में लगभग अनुपस्थित हैं. इसका समापन नाटक के एक मंचन के साथ होता है, और शायद लेखक का आग्रह है कि नेहरूयुगीन परिवर्तन को समझा जाना चाहिए. 'मैला आँचल' अपने समापन में एक त्रासद कथा छोड़ जाती है, जो हमें देर तक सोचने के लिए बाध्य करता है.

'कलीमुद्दीन घाट पर चेथरिया पीर में किसी ने मानत करके एक चीथड़ा और लटका दिया'

('मैला आँचल' उपन्यास का समापन वाक्य)

 

यह क्या है कलीमुद्दीन घाट का चेथरिया पीर ? स्वतंत्रता सेनानी बावनदास आज़ाद भारत में भी संघर्ष कर रहा है. ठीक गांधी जी श्राद्ध के रोज कालाबाजारी रोकने के लिए सन्नद्ध वह रास्ता रोक कर खड़ा है. एक नया कांग्रेसी, जो बदनाम कारोबारी भी है, के आदेश से उसे बैलगाड़ियों द्वारा कुचल कर मार दिया जाता है. उसी बावनदास के चीथड़े किसी ने कलीमुद्दीन घाट पर लटका दिए हैं. वह अब पीर स्थान बन गया है, फ़कीर की जगह. लोग वहां मन्नत उतारने लगे हैं. बुराई के विरुद्ध संघर्ष किन्हीं रूपों में चल रहा है. अंग्रेजी राज से लड़ते हुए गांधी और बावनदास को जान नहीं देनी पडी थी. अहिंसात्मक आन्दोलनों से सफलता हासिल कर ली गई; लेकिन आज़ाद भारत में साम्प्रदायिकता और भ्रष्टाचार रोकते हुए क्रमशः गांधी और बावनदास को अपनी जान कुर्बान करनी पड़ती है. यह एक भयानक सच है जिससे 'मैला आँचल' हमें अवगत कराता है. लेकिन 'परती परिकथा' अपने युगीन पाखण्ड को उस तरह (यानी 'मैला आँचल' की तरह) विश्लेषित-प्रदर्शित करने में विफल रहा है.

 

यह उपन्यास अपने पाठक को अचानक एक भीड़ के पास छोड़ जाता है. उसके लिए यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि जिस पाठ के बीच से वह गुजर रहा था वह अंततः था क्या! शायद यही कारण था कि नलिनविलोचन शर्मा और अमृत राय ने उल्लेखनीय कृति के तौर पर इसे ख़ारिज कर दिया. अमृत राय ने यदि इसे उपन्यास मानने से इंकार कर दिया था, तब वह अकारण नहीं था. 'परती परिकथा' किसी लेखक द्वारा किसी मेजर वर्क के लिए तैयार की गई एक वृहद फाइल जरूर है. यह उपन्यास इस बात का बेहतर उदाहरण है कि कई बार स्वयं लेखक भी अपनी परंपरा का विकास करने से चूक जाता है और उसे एक भटकाव की ओर अग्रसर कर देता है, या जाने-अनजाने ऐसा हो जाता है.

 

रेणु से यही हुआ है. इससे यह बात भी प्रमाणित होती है कि 'मैला आँचल' केवल आंचलिकता का सम्पुंजन नहीं है, वह एक महागाथा है और उसके गहरे अर्थ हैं. परती परिकथा’ में रेणु के आंचलिक रस-रंगों की परंपरा तो खूब विकसित हुई है, लेकिन कोई बड़ी गाथा देने में वह विफल है. जिन परवर्ती लेखकों ने रेणु की आंचलिकता को अपनाने और विकसित करने की कोशिश की, उनमें भी यही दोष उभर कर आया कि इन रस-रंगों में ही उलझ कर रह गए, जीवन और समाज के मिथ्याचार को देखने में विफल रहे.

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प्रेमकुमार मणि 

9431662211

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  1. दया शंकर शरण11 अप्रैल 2021, 3:18:00 pm

    'परती परिकथा' में लोक-जीवन का कैनवास जीवन जितना हीं व्यापक और स्वछन्द है। यह उपन्यास की परिभाषा और फ्रेम में फिट नहीं बैठता,यह बात भी सच है।लेकिन यह एक अद्भुत कृति है-इसमें दो मत नहीं।एक अंचल की महागाथा,जीवन-रस से लबालब।जबकि 'मैला आँचल' की कथा-वस्तु में बिखराव नहीं ,एक कसाव है। बहुत सही विश्लेषण।प्रेम जी के आलेख का अपना रंग और आकर्षण है जो अंत तक फीका नहीं पड़ता।उन्हें और समालोचन को बधाई !

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  2. 'मैला आँचल' मेरी स्मृति में उस तरह से नहीं है, जिस तरह से 'परती परिकथा' है। उसको बार-बार पढने का मन होता है। हिंदी में चली आँचलिकता की बहस में यह उपन्यास कहाँ है, मैं इस बहस में नहीं जाता। हिंदी में कभी -कभी कुछ बहसें ऐसी भी चल निकलती है, जिनके ज्यादा ठौर-ठिकाने नहीं होते। मेरे लिए यह एक अद्भुत रचना है। अविस्मरणीय...

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  3. Pushya Mitra
    दरअसल परती परिकथा की पृष्ठभूमि में कोसी परियोजना है। रेणु की उम्मीद है कि भीमनगर में बराज बन जाने के बाद कोसी आंचल बाढ़ मुक्त हो जायेगा। यहां अच्छी खेती होगी। इसी स्वप्न के आधार पर यह उपन्यास लिखा गया। मणि जी इस बात को मिस कर गये। उपन्यास का अन्त भी इसी तरह होता है कि कलकत्ता में काम करने वाला एक युवक जब अपने गांव लौटता है तो हरियाली को देखकर चकित रह जाता है।
    दरअसल यह उपन्यास रेणु जी ने नेहरू जी का आभार मानते हुए लिखा क्योंकि उन्होने कोसी को बाढ़ मुक्ति और सिंचाई की परियोजना दी। मगर वे यह अनुमान लगाने में चूक गये कि बराज और तटबंध से कोसी की किस्मत नहीं बदलने वाली थी।

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  4. मैला आँचल कच्चा घर है और परती-परिकथा पक्का घर । एक नए कलाकार की आँचलिक कृति है तो दूसरी एक प्रसिद्ध और वयस्क कलाकार की अंचल-रचना । मैला आँचल एक अनजान लेखक की प्रथम कृति तो परती-परिकथा एक एक सचेत लेखक की निर्मिति !
    मणि जी का सुंदर विश्लेषण । शुक्रिया समालोचन ।

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  5. बहुत सुंदर और सारगर्भित विश्लेषण। रेणु जी की ही दोनों कृतियों के तुलनात्मक अध्ययन से प्रेम कुमार मणि जी ने दोनों उपन्यासों के अंतर को दर्शाया है और समाज व राजनीति में हो रहे परिवर्तनों को रेखांकित किया है। इससे यह भी पता चलता है कि कैसे देश-काल की परिस्थितियों के अनुसार किसी लेखक की सामाजिक-राजनीतिक मानसभूमि में वैचारिक बदलाव आते हैं। इस विचारोत्तेजक लेख के लिए मणि जी और समालोचन का शुक्रिया।

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