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फणीश्वरनाथ रेणु (४ मार्च,
१९२१ - ११ अप्रैल, १९७७) का यह जन्मशती वर्ष है. उनपर एकाग्र पत्रिकाओं के अंक प्रकाशित
हो रहें हैं और कुछ प्रकाशित होने वाले हैं. ‘बनास जन’ पत्रिका के रेणु केंद्रित
अंक के बहाने संदीप नाईक हिंदी कथा साहित्य में आंचलिकता की यहाँ चर्चा कर रहें
हैं.
फणीश्वरनाथ रेणु
और आंचलिकता
संदीप नाईक
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सरल भाषा में आंचलिकता का अर्थ है अपने परिवेश को स्थानीय भाषा और मुहावरों में लिखना, इस शब्द या विधा का सबसे पहले प्रयोग सर वाल्टर स्कॉट ने किया था जब उन्होंने अपने आसपास की जन जातियों और परिवेश के बारे में उन्हीं की भाषा में कहानी किस्से आलेख लिखें थे, इन किस्सों कहानियों में स्थानीय देशज शब्दों का प्रयोग जमकर किया था. भारत के संदर्भ में उडीसा राज्य के तीन उपन्यासकारों का नाम सामने आता है जिन्होंने आंचलिकता का प्रयोग किया – फ़कीरचन्द सेनापति, कालिन्द्रिचरण पाणिनी और गोपीनाथ मटंगी बाद में बंगाली भाषा में विभुतिचरण बंदोपाध्याय, सतीनाथ भादुड़ी का नाम सामने आता है. प्रेमचंद से पहले 1923 में आये बाबू शिव पूजन सहाय का उपन्यास “देहाती दुनिया” भी हमारे सामने है जिसमे स्थानीयता, शब्द, मुहावरें, लोकोक्तियों और देशज शब्दों का प्रयोग करके पूरे उपन्यास को रचा गया है. कालान्तर में हम देखते है कि फणीश्वरनाथ रेणु को आंचलिकता का पर्याय मान लिया गया. मुझे लगता है कि यह शायद बिहारी अस्मिता, भोजपुरी भाषा को हिंदी में स्थापित करने की एक बड़ी कोशिश थी जो अंतत सफल हुई. स्व. राजेन्द्र यादव जी ने कहा था कि -“रेणु के पहले भी आंचलिकता पर बहुत काम हुआ है, बंगाल में जो बंगाली भाषा के प्रयोग हुए है और जो तरलता वहां दिखाती है वह बहुत बाद में हिन्दी में आई और इसमें रेणु का लेखन सफल हुआ है”.
भाषा आंचलिकता की पहचान है और रेणु का मेरीगंज ही बिहार
हो सकता है, हम जानते है कि रेणु का सम्पूर्ण लेखन बिहार के एक क्षेत्र विशेष में
रहा है, और ओरहम पामुक जैसे नोबेल पुरस्कार प्राप्त विजेता ने लेखक ने भी एक जगह
बैठ कर ही अपना संपूर्ण लेखन पूरा किया और इस्ताम्बूल को आधार बनाया. यह कहना कि आंचलिकता का अर्थ व्यापक है- गलत है, आंचलिकता में क्षेत्र विशेष की भाषा समस्या और
समाज को लेखक सामने लाते हैं तो उसे ही आंचलिकता कहते हैं. आंचलिकता प्रेमचंद के शब्दों और लेखन में भी थी और रेणु के भी परंतु
प्रेमचंद का किसान अलग है और रेणु का किसान अलग है, दोनों लेखकों की अपनी-अपनी
पार्टी लाइन है, दोनों की अपनी विचारधारा है. गांधी का प्रभाव रेणु और प्रेमचंद
दोनों पर समानांतर रूप से दिखता है परंतु रेणु के यहां गांधी के मरने पर एक गांव
में पूरा गांव जाकर नदी किनारे मुंडन करवाता है जिसका जिक्र “परती परिकथा” में आया
है, वह संभावना प्रेमचंद के किरदारों में नजर नहीं आएगी.
रेणु ने 1942 से आजादी के आंदोलन को देखा, भागीदारी की और अपना पहला उपन्यास “मैला
आंचल” 1954 में लेकर आए, जो 69 परिच्छेदों से बना है और जिस में 275 पात्र हैं. प्रथम उपन्यास ही इतना
विशालकाय और प्रभावी है कि साहित्यिक गलियारों में इसकी धमक आज तक सुनाई देती है
और देती रहेगी. यह रेणु के नाम का पर्याय बन गया है. कहानी मेरीगंज के गांव की है,
जहां एक डॉक्टर प्रशांत है जो आदर्शवाद में होकर प्रैक्टिस करने आते हैं और वहां
की बदहाली को देखते हैं, परंतु अच्छी बात यह है कि यहां पर डॉ. प्रशांत मैला आंचल
के हीरो नहीं है बल्कि हीरो पूरा गांव है. इस उपन्यास के बाद अपनी मृत्यु तक यानी 1977 तक आते-आते रेणु ने चुनाव भी लड़ा,
बहुत बारीकी से ग्रामीण जनजीवन को देखा समझा और उसे अपने 6 उपन्यासों और चार कहानी संग्रह में
व्यक्त भी किया. कुछ कविताएं भी उन्होंने लिखी. अपनी मौत तक उन्होंने नेहरू के
सपनों के भारत को बनता देखा और बिगड़ते जा रहें हालातों से लेकर जेपी आंदोलन और
विनोबा के भूदान आंदोलन को भी बहुत बारीकी से देखा, परंतु उनके पात्र आजादी का
जश्न मनाते नजर नहीं आते- क्योंकि जमींदारी और सामंतवाद लगातार समाज में बना हुआ
था. स्वास्थ्य और शिक्षा की बदहाली चरम पर थी और ऐसे में निश्चित रूप से उन्होंने
बिहार के मिथिलांचल को आधार बनाकर वहां के लोगों की बेबसी और पीड़ा को व्यक्त किया.
यही शायद बाद में आंचलिकता के रूप में उभर कर आया.
असल में हिंदी में यह एक रिवाज है कि हमें टैग करने की आदत है, हम उपन्यासों या कहानी या कविता को नया, पुराना, समकालीन, समानांतर, दलित, वामपंथी,
दक्षिणपंथी या स्त्री विमर्श के रूप में खांचे करके देखते हैं. चूंकि रेणु बिहार
के क्षेत्र विशेष में रहके वहां के जनजीवन को आधार बनाकर लिख रहें थे, इसलिए उसे
तुरंत अंचल का साहित्य कहकर परिभाषित कर दिया गया और रेणु को आंचलिकता का नायक बना
दिया. यह शायद इसलिए भी था कि वे लगातार उसी क्षेत्र में रह रहे थे, लोगों के
संघर्षों में कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे थे, जेल गए और किसानों से लेकर युवाओं के
साथ अनेक जमीनी लड़ाईयों में वे लडे. वहीं पर उन्होंने काम किया, वही उनकी कर्मभूमि
थी उन्होंने चुनाव भी लड़ा- परंतु बुरी तरह से हारे. साहित्य के लिए उन्हें
पद्मश्री भी मिला था, जो उन्होंने लौटा दी. बिहार सरकार ने उन्हें वजीफा भी दिया
था आजीवन, परंतु वह भी उन्होंने किसानों की बदहाली और पीड़ा को देखते हुए लौटा
दिया. आज जो पुरस्कार वापसी की बात करते हैं उन्हें यह बात समझना चाहिए कि लेखक की
प्रतिबद्धता किस हद तक और कितनी होती है.
बहरहाल भारत जब आजाद हुआ तो हमारे सामने मात्र 30 करोड़ की जनसंख्या थी. गांधी जब कहते
हैं कि “भारत की आत्मा गांव में निवास करती है” तो वह इसलिए कहते हैं- क्योंकि उस
समय में चार ही शहर बड़े शहर थे, क्योंकि वहां पर वॉइसराय जनरल की अदालतें लगा
करती थी. बाकी लगभग 70% हिस्सा ग्रामीण था. जाहिर है ऐसे में जो भी साहित्य रचा गया रेणु
के द्वारा रेणु के समकालीनों द्वारा वह आंचलिकता के समानांतर ही था, परंतु आंचलिकता का पर्याय
सिर्फ रेणु को ही माना गया. याद करें कि देश की परिस्थितियाँ किस तरह की थी.
निहायत ही अशिक्षित देश, बदहाल व्यवस्थाएं, स्वास्थ्य की दुर्गति, विकास का
अवरुद्ध पहिया, जमींदारी, सामंतवाद और प्रचंड जातिवाद चरम पर था. आजादी के लगभग 20 वर्षों बाद सरदार पटेल ने देश में प्रिवीपर्स
की व्यवस्था खत्म की थी, पर तब तक जनता बेहाल थी. भूमि सुधार लागू नहीं हुए थे और
दलित, वंचित समुदाय बुरी तरह से पीट रहे थे और पंचलेट में देश का अन्धेरा सघन हो
रहा था. जाहिर है आजादी के बाद जो
अपेक्षाएं लोगों की थी, वह पूरी नहीं हो रही थी. नेहरू ने जरूर एक बड़ा विजन देकर
भारत को एक सपना दिया था जो समाजवाद से सिंचित था पर साम्प्रदायिक ताकतें फिर भी
बढ़ ही रही थी. वह सपना कहीं भी फलीभूत होता नहीं दिख रहा था. जहां रेणु एक और लिख
रहे थे वही फिल्मों में “साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा मिलकर बोझ उठाना”
जैसे गीत जनमानस को प्रेरित करने के लिए लिखे जा रहे थे. हिंदी बेल्ट में जो
स्थानीय नेतृत्व था वह लगातार गैर जिम्मेदार और भ्रष्ट होते जा रहा था, और इसका
सबसे ज्यादा प्रभाव ग्रामीणों को भुगतना पड़ रहा था. जमीन और चकबंदी के मामले बहुत
तेजी से सामने आ रहे थे. विनोबा के भूदान आंदोलन के बाद भी जमीन का बंटवारा सही से
नहीं हो पाया था.
कालांतर में हम देखते हैं कि ब्रह्मेश्वर मुखिया और तमाम तरह की
सेनाएं बिहार में सबसे ज्यादा उभर कर आई है. जेपी आंदोलन के आते-आते चंद्रशेखर,
लालू यादव, रामविलास पासवान एवं अजित यादव जैसे युवा नेताओं की एक लंबी फौज थी- जो
बदलाव करना चाह रही थी. इसी समय में रेणु भी बुन रहें थे, और रेणु के साथ-साथ
नागार्जुन जैसे लोग भी इसी बिहार की पृष्ठभूमि और बदहाल जनता के बारे में लिख रहे
थे. “रतिनाथ की चाची, बाबा बटेश्वरनाथ, बलचनमा” जैसे उपन्यास नागार्जुन ने लिखें
और इसी के साथ भिखारी ठाकुर का काम भी बहुत बड़ा काम है.
आज के संदर्भ में देखें तो अभी हम सब ने कोविड देखा है और यह भी
देखा है कि सबसे ज्यादा पलायन मजदूरों का जिस राज्य में हुआ है वह बिहार ही था और
ठीक कोविड के बाद बिहार में चुनाव जिस तरह से हुए और जो राजनीति हमने सामने देखी
वह बताती है कि हालात बहुत ज्यादा बदले नहीं हैं, और जमीन, रोटी की लड़ाइयां,
मजदूरी की लड़ाइयां अभी भी जमीन पर लड़ी जा रही हैं. साहित्य के फलक पर देखें तो गौरी
नाथ के उपन्यास या पुष्यमित्र की पुस्तकों में जो बिहार हम देखते हैं- वह कोई बहुत
खास बदला नहीं है. मिथिलेश कुमार राय जैसे कवि जब खेत-खलिहान या मिट्टी और सुपौल
के आसपास की बात करते हैं अपने कविताओं के माध्यम से तो वहां पर हमें आंचलिकता की सौंधी
खुशबू दिखाई देती है. इस सब के बावजूद भी बहुत कुछ बदला नहीं है. मुझे लगता है कि
कहानी कहानी है, उपन्यास उपन्यास है और कविता कविता है- उसे आप एक फ्रेम में बंद
करके रखेंगे तो हम उसकी पहुंच को बहुत सीमित कर देंगे. “चीफ की दावत” – भीष्म
साहनी जैसी कहानी को नई कहानी का आगाज कहा जाता है, “कौवे और काला पानी” निर्मल वर्मा, “हासिल” राजेंद्र
यादव, “उस चिड़िया का नाम” पंकज बिष्ट जैसे उपन्यास को क्या हम आंचलिकता नहीं कहेंगे.
असल में यह उत्तर प्रदेश और बिहार के बीच एक खाई खड़ी करने की कोशिश है. प्रेमचंद
और रेणु के साहित्य की तुलना करके हम हिंदी को खाँचो में देखने की कोशिश कर रहे
हैं जो कि गलत है. क्या हम महेश कटारे की कहानी में चंबलता ढूंढ लेंगे, राजनारायण बोहरे
की कहानी और उपन्यासों में बुंदेलखंडता ढूंढ लेंगे, मनीष वैद्य और सत्यनारायण पटेल
की कहानी और उपन्यास में मालविकता ढूंढ लेंगे.
इस समय में रेणु की जन्म शताब्दी को लेकर पत्रिकाओं में विशेषांक
निकालने की होड़ है और बाढ़ आई हुई है. आंचलिकता को हर
कोई परिभाषित कर रहा है पर यह भी सोचे जाने की जरूरत है कि क्या संजीव, शिवमूर्ति, संजीव ठाकुर, अखिलेश
प्रियंवद, पंकज बिष्ट, उदयप्रकाश, कैलाश वनवासी, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, पुन्नी
सिंह, प्रकाशकांत, एसआर हरनौट, अजय नावरिया, ओमप्रकाश वाल्मीकि मैत्रेई पुष्पा,
मन्नू भंडारी, ममता कालिया, नासिरा शर्मा, सत्यनारायण पटेल, तरुण भटनागर, गोविंद
सेन, रणेंद्र, रुचि भल्ला या अमिता नीरव से लेकर मलयालम और मराठी और तमाम भारतीय
भाषाओं लोग अपने भदेस और देशज शब्दों के साथ में अपने अपने अंचल को लगातार लिखकर परिभाषित
कर रहे हैं. उदयप्रकाश जब दिल्ली में अपने पिता के प्रोस्टेट के इलाज के लिए
ऑपरेशन के बाद लंगोट ढूंढते हैं तो उन्हें अंचल याद आता है. “क्षमा करो हे वत्स”
जैसी कहानी में लखीमपुर खीरी मुझे नजर आता है कि कैलाश वनवासी और तरुण भटनागर की
कहानियों में आपको पूरा छत्तीसगढ़ नजर आता है, वही संजीव ठाकुर जब “झौवा बिहार” की
बात करते हैं, तब आपको बिहार का एक अलग परिदृश्य नजर आता है जो भागलपुर के आसपास
का है.
पुन्नी सिंह ने जितना काम सहरिया आदिवासियों को लेकर किया है- उतना
काम न सरकार कर पाई है और न कोई स्वैच्छिक संगठन, प्रकाशकान्त जब मालवा की बात
करते हैं, सत्यनारायण पटेल के उपन्यासों में जब गांव भीतर गांव किस तरह से बदल रहा
है- का जिक्र आता है तो वहां भी आंचलिक ताकत जबरदस्त है. मनीष वैद्य की कहानी “मामेरा
या गो गो गो” पूरी आंचलिक भाषा और परंपरा की बात करती है, वही एसआर हरनौट हिमाचल
प्रदेश से पहाड़ी संस्कृति को लेकर आते हैं, हमने तो पहाड़ को पंकज बिष्ट के
उपन्यास “उस चिड़िया के नाम” से ही जाना है तो यह कहना गलत होगा कि रेणु ही आंचलिकता
के पर्याय हैं.
फणीश्वर नाथ रेणु के जन्म शताब्दी वर्ष में पत्रिकाओं की भीड़
में “बनास जन” का नया अंक फणीश्वरनाथ नाथ रेणु पर केंद्रित है जिसमें व्यापक शोध
और आंचलिकता के संदर्भ में काफी पठनीय और प्रामाणिक सामग्री है. 366 पृष्ठों में
फैला यह शोधपरक अंक काफी विस्तृत और रेणु के बारे में प्रामाणिक जानकारियों के संग
आया है. 14 उपखंडों में इस अंक को बांटा गया है जिसमे उपन्यासकार रेणु के बहाने
उनके उपन्यासों पर, कहानियों पर, कविताओं पर कथेतर लेखन साइन प्रसंग और रेणु के
जीवन की कहानियों पर विस्तृत चर्चा है. पल्लव को इस बात के लिए श्रेय दिया जाना
चाहिए कि बहुत लम्बे समय तक कड़ी मेहनत करके और बड़े लेखकों से संयोजन करके यह अंक
निकाला है. अंक न मात्र पठनीय है बल्कि संग्रहणीय है. भारत यायावर, रामधारी सिंह
दिनकर, संजय जायसवाल से लेकर रेणु व्यास, नवनीत आचार्य, प्रमोद मीणा, नवल किशोर,
श्रुति कुमद, नीलाभ कुमार, मृत्युंजय प्रभाकर, रेखा कस्तवार, शम्भू गुप्त, शिरीष कुमार मौर्य, रचना सिंह, पीयूष राज रवि
भूषण आदि के पठनीय आलेख और विचारोत्तेजक विश्लेषण है. अंक बहुत सुन्दर छपा है जो
कि बनास जन की परम्परा भी है.
संदीप नाईकसी – 55, कालानी बाग़देवास, मप्र 455001मोबाइल 9425919221फणीश्वरनाथ रेणु पर यहाँ और पढ़ें
फणीश्वरनाथ रेणु पर यहाँ और पढ़ें
अंतिम पैराग्राफ़ पल्लव जी के लिए है। वे बहुत छोटी उम्र से बड़ी साहित्यिक प्रतिभाओं पर विशेषांक निकालते रहे हैं. उनके इस प्रयास को सैल्यूट करता हूँ. बाकी बड़े हिस्से में आपने रेणु जी के साहित्य को मुख्यधारा के साहित्य के साथ ही देखने को कहा है। यह भी एक ख़ास तरह की राजनीति के तहत तरह-तरह के खाँचे बना कर आलोचक साहित्यकारों के क़द कम करते रहे हैं। काफ़ी पहले हरिशंकर परसाई से मिलने गया था, वे लगभग यह मानने से इंकार करते रहे कि मैला आँचल मौलिक उपन्यास है। उनका मानना था कि बांङ्ला उपन्यास का भावानुवाद है। आपका बेहतरीन लेख है, संदीपजी बधाई स्वीकारें...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लेख है। एक सुझाव है कि इस लेख के नीचे आपने रेणु से संबन्धित जो लिंक दिये हैं, उन में आप अपने ही ब्लॉग के इस लिंक को देना भूल गए - "मैला आँचल में राजनीति की बारादरी: अमरेन्द्र कुमार शर्मा "! इस् लेख के बिना आपकी लिस्ट अधूरी है।
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