बेढब जी बेढब नहीं थे : मैनेजर पाण्डेय

(उग्र जी, बेढब जी और श्री सीताराम चतुर्वेदी) चित्र आभार मंगलमूर्ति


बेढब बनारसी पर वरिष्ठ आलोचक प्रो. मैनजर पाण्डेय का यह लेख इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसमें जहाँ बेढब के व्यक्तित्व की आत्मीय ऊष्मा है वहीं उनकी व्यंग्य रचनाओं का सम्यक विवेचन भी किया गया है.

प्रो. पाण्डेय उम्र के अस्सीवें वर्ष में हैं. और अब भी  सार्थक रूप से सक्रिय बने हुए हैं. उनके प्रति आभार के साथ यह आलेख प्रस्तुत है. 


बेढब बनारसी

बेढब जी बेढब नहीं थे                                                                

मैनेजर पाण्डेय

मैनेजर पाण्डेय
 



न् 1959 में जब मैंने प्रथम श्रेणी से मैट्रिक पास किया तो मेरे सामने आगे पढ़ने की समस्या थी. मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद हमारे यहाँ के छात्र आगे की पढ़ाई के लिए या तो पटना जाते थे या बनारस. क्योंकि गाँव के आस-पास उच्च शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी. मेरे एक संबंधी बनारस में रहते थे, एक बार वह मुझसे मिलने मेरे घर आए तो मैंने अपनी समस्या बताई. उनका नाम हृदयानन्द था. उन्होंने मुझसे कहा कि

अच्छी पढ़ाई के लिए आपका बनारस चलना जरूरी है. आपकी साहित्य और संगीत दोनों में विशेष रुचि है और काशी उसका केन्द्र है. मैं वहाँ हूँ ही इसलिए आपके सामने कोई समस्या नहीं आएगी.

हृदयानन्द की प्रेरणा और प्रोत्साहन से मैंने तय किया कि आगे की पढ़ाई के लिए मैं काशी ही जाऊँगा.

 

हृदयानन्द बनारस के डी.ए.वी. डिग्री कॉलेज में बी.ए. की पढ़ाई कर रहे थे. मैं जुलाई 1959 में बनारस आ गया और उनके साथ ही डी.ए.वी. कॉलेज के हॉस्टल में रहने लगा. उनकी मदद से डी.ए.वी. डिग्री कॉलेज में इण्टरमीडिएट में मेरा एडमिशन हो गया. हॉस्टल का नाम मनोहर भवन था. डी.ए.वी. कॉलेज और हॉस्टल के बीच एक अन्य इमारत थी जिसमें उत्तर प्रदेश शिक्षा बोर्ड का कॉलेज चलता था. मैंने जिस डी.ए.वी. कॉलेज में प्रवेश लिया वह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से संबद्ध था. हॉस्टल से जब हम कॉलेज जाते थे तो यू. पी. बोर्ड वाले कॉलेज से होकर गुजरना पड़ता था. एक बार हृदयानन्द ने मुझसे कहा कि आपने मैट्रिक की हिन्दी की पाठ्य पुस्तक में बनारसी इक्कानामक निबंध पढ़ा होगा, उसके लेखक कृष्णदेव प्रसाद गौड़ बेढब बनारसी इस इंटर कॉलेज के प्रिन्सिपल हैं. यह सुनकर मुझे अच्छा लगा और बेढब जी मिलने की अभिलाषा जागी. मैंने हृदयानन्द से कहा कि मैं बेढब जी से मिलना चाहता हूँ. हृदयानन्द बेढब जी से परिचित थे, उन्होंने कहा कि ठीक है किसी दिन आपको उनसे मिलवाने ले चलूँगा. अपनी पाठ्य पुस्तक में शामिल किसी लेखक से मिलने की इच्छा हर छात्र में होती है.

एक दिन हृदयानन्द मुझे लेकर बेढब जी के पास गए. बेढब जी का व्यक्तित्व जितना सुदर्शन था उतना ही प्रभावशाली भी था. हृदयानन्द ने मेरा परिचय कराते हुए कहा कि ये डी.ए.वी. डिग्री कॉलेज के छात्र हैं. साहित्य और संगीत में इनकी रुचि है और हिन्दी तथा भोजपुरी में कविताएँ लिखते हैं. यह सुनकर बेढब जी बहुत प्रसन्न हुए और कहा कि कभी-कभी मुझसे मिल लिया करो. उन्होंने मुझसे पूछा कि रहते कहाँ हो. मैंने कहा कि आपके कॉलेज के निकट ही मनोहर भवन हॉस्टल में रहता हूँ. उन्होंने अपना फोन नम्बर दिया और कहा कि आने से पहले फोन कर लेना, मैं जब खाली रहूँगा तुम्हें बुला लूँगा. बेढब जी ने जिस आत्मीयता से बात की और मिलने की स्वीकृति दी वह मुझे अच्छी भी लगी और आश्चर्य भी हुआ. वे कॉलेज के प्रिंसिपल भी थे और हिन्दी के बड़े लेखक भी, फिर भी मेरे जैसे साधारण इण्टर के एक छात्र से जिस सहज भाव से व्यवहार किया वह मेरे लिए बहुत सुखद था.

एक बार तुलसी जयंती के अवसर पर उनके कॉलेज में एक समारोह आयोजित हुआ, जिसमें तुलसीदास के महत्व पर बोलने वालों में मैं भी एक था. मेरा भाषण बेढब जी को बहुत पसंद आया. समारोह के बाद चाय-पान के समय मुझे बुलाकर उन्होंने मेरे भाषण की प्रशंसा की और आशीर्वाद भी दिया. उसके बाद गौड़ जी के मन में मेरे प्रति और अधिक सद्भाव पैदा हुआ और बाद में मैं उनसे लगातार मिलने लगा.

गौड़ जी बनारस शहर के एक प्रभावशाली सांस्कृतिक व्यक्ति थे. शहर के अधिकांश साहित्य, संगीत और नृत्य आदि समारोहों के वे अध्यक्ष हुआ करते थे. वैसे तो काशी हमेशा से साहित्य, संगीत और विविध कलाओं की केन्द्र रही है. उन दिनों भी इन सबका केन्द्र थी. उन दिनों साहित्यकारों में रुद्र काशिकेय, लक्ष्मीनारायण मिश्र, नामवर सिंह, शिवप्रसाद सिंह, कृष्णनाथ, काशीनाथ सिंह, धूमिल आदि थे तो संगीत और नृत्य से जुड़े कलाकारों में बड़े रामदास जी, गोपीकृष्ण, सितारा देवी, गिरिजा देवी, गुदई महाराज, कंठे महाराज, बिस्मिल्लाह खाँ, अनोखेलाल, आदि सक्रिय थे. काशी में एक परंपरा यह रही है कि संगीत और नृत्य से वहाँ के जुड़े कलाकार सावन और भादो माह में शहर से बाहर नहीं जाते थे. इसलिए शहर में ही संगीत और नृत्य से जुड़े विभिन्न कार्यक्रम होते रहते थे. यह परंपरा किसी न किसी रूप में आज भी कायम है. बेढब जी उन दिनों प्रायः ऐसे कार्यक्रमों में सम्मान सहित आमंत्रित किए जाते थे. वे मुझे भी पूछते थे कि अमुक कार्यक्रम में तुम्हारी दिलचस्पी है क्या? मैं हाँ कहता था तो मुझे भी लेकर जाते थे. ऐसे बड़े कार्यक्रमों में कभी-कभी उस दौर के मशहूर फिल्मी कलाकार भी बुलाए जाते थे. ऐसे कार्यक्रमों में बेढब जी के साथ मैंने बैजंतीमाला, वहीदा रहमान और रागिनी-पद्मिनी का नृत्य देखा है. ऐसे बड़े कलाकारों के जो समारोह होते थे उनका टिकट खरीदकर देखने या सुनने जाना मेरे जैसे साधारण विद्यार्थी की जेब के बस की बात नहीं थी. बेढब जी की कृपा से मुझे देखने का मौका मिला. वे आज भी मेरी स्मृति में मौजूद हैं. उन्हीं के सानिध्य के कारण मुझे संगीत और नृत्य के विभिन्न रूपों और पक्षों को जानने और समझने का मौका मिला और इन कलाओं के बारे में मेरी चेतना विकसित और परिष्कृत हुई.

बेढब जी अपने समय के बनारस के प्रमुख और प्रतिष्ठित साहित्यकार थे. वे मुख्यतः व्यंग्य लेखन के लिए जाने जाते थे. बेढब जी हिन्दी और भोजपुरी दोनों भाषाओं में लेखन करते थे. उनका व्यंग्य लेखन दोनों में मौजूद है. उनकी मुख्य रचनाएँ हैं- लेफ्टिनेन्ट पिग्सन की डायरी (उपन्यास), बेढब की बैठक, बनारसी इक्का, गांधी का भूत, हुक्का-पानी, धन्यवाद, जब मैं मर गया (व्यंग्य निबंध), काव्य-कमल (कविता संग्रह), अभीनीता (नाटक) आदि. उन्होंने अनेक पत्रिकाओं के साथ-साथ काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका का संपादन भी किया.

उस समय बनारस में व्यंग्य काव्य के चार कवि मौजूद थे- बेधड़क बनारसी, भैयाजी बनारसी, चोंचजी, और बेढब बनारसी. इन सबमें विख्यात थे- बेढब बनारसी. बेढब जी ने अपना परिचय देते हुए मैं नाम से एक कविता लिखी थी, जो मुझे आज भी याद है. कविता यह है-

 

काशी अविनाशी का अदना निवासी एक

नाम कृष्णदेव पर रंग नहीं काला है,

सेवक सरस्वती का दास दयानन्द का हूँ

टीचरी में निकला दिमाग का दिवाला है.

काव्य लिखता हूँ नहीं हँसने की चीज निरी

रचना में व्यंग्य और विनोद का मसाला है

पावन प्रसाद दीन जी का मिला बेढब है

सूर हूँ न तुलसी पंथ मेरा निराला है.

('दीन' जी= लाला भगवान दीन)

 

उन्होंने संभवतः अपनी व्यंग्य कविताओं के बारे में यह कहा है-

कहीं कोकिल की करुणामय कुहुक है

कहीं दिल से निकलती एक दहक है

चले इस युग में हँसने और हँसाने

जरा देखो यह कैसी बहक है.

 

उनकी व्यंग्य कविताओं के कई रंग और रूप हैं. कभी वे कबीर की तरह दोहे कहते हैं तो कभी निराला की तरह मुक्त छंद में कविता करते हैं. अकबर इलाहाबादी के अंदाज में भी कई शेर कहे हैं. उन दिनों पैरोडी लिखने की प्रवृति थी जो आज प्रायः नहीं है क्योंकि तब पैरोडी पढ़कर मूल कवि नाराज या दुखी नहीं होते थे. वे उसे विनोद के भाव से स्वीकार करते थे. बेढब जी ने जैसी पैरोड़ी की है वैसी हिन्दी में किसी अन्य कवि ने नहीं की. उनकी पैरोडी में केवल हास्य व्यंग्य नहीं है, जीवन की वास्तविकताएँ भी हैं. उन्होंने हिन्दी के अनेक कवियों की कविताओं की पैरोडी की है. उदाहरण के लिए मैथिलीशरण गुप्त की कविता बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की पैरोडी की कुछ पंक्तियाँ पेश हैं-

 

अर्पित है मेरा मनुज काय

भोजन हिताय, भोजन हिताय

व्रत का मैंने कर बायकाट

पूरी-हलवे से उदर पाट

देखा भोजन में ही विराट

जितने जग में हैं संप्रदाय

भोजन हिताय, भोजन हिताय......

 

जयशंकर प्रसाद के प्रसिद्ध गीतबीती विभावरी जाग री की पैरोडी करते हुए उन्होंने लिखा-

बीती विभावरी जाग री!

छप्पर पर बैठे काँव-काँव करते हैं कितने काग री

तू लंबे ताने सोती है, बिटिया माँ- माँ कह रोती है

रो रोकर गिरा दिए उसने आँसू, अब तक दो गागरी,

बीती विभावरी जाग री! …..

 

बेढब जी की ऐसी कविताओं को पढ़ते हुए यह भी ज्ञात होता है कि छंद पर उनका अद्भुत अधिकार था. पैरोडी के साथ-साथ उन्होंने जो व्यंग्य कविताएँ लिखी है उनमें गहरी राजनीतिक चेतना है. उदाहरण के लिए चुनाव हो गया शीर्षक कविता देखी जा सकती है-

बहुतों ने वोट दिया, कितनों ने नोट दिया,

कुछ को तालियाँ मिली, कुछ को गालियाँ मिली,

हारने वाले रोए, वोटर मौज से सोए

देश कहाँ जाना है किसी को पता नहीं,

सब यही कहते हैं हमारी खता नहीं.

 

बेढब जी ने उनकी शान देखेंगे शीर्षक कविता में अकबर इलाहाबादी के अंदाज में यह लिखा है-



न काशी से रहा मतलब न काबे से गरज कुछ है,
हर एक दिल में इच्छा है कि इंगलिस्तान देखेंगे.

x             x                 x                x   


दुआ देंगे बहुत खुश होकर भावी वंश आज के
जब अमेरिका के हाथों बिका हिन्दुस्तान देखेंगे.

 

इन पंक्तियों में उनकी दूरदर्शी राजनीतिक दृष्टि दिखाई देती है.

बेढब जी एक रचनाकार के रूप में ही नहीं व्यक्तिगत बातचीत में भी व्यंग्य-विनोद का प्रयोग करते थे. जब वे डी.ए.वी. इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल थे तब उनका कमरा कॉलेज की सबसे ऊपरी मंजिल पर था. वहाँ से पूरा कॉलेज दिखाई देता था और सामने का मैदान भी दिखाई देता था. कॉलेज के बगल में धोबियों का मोहल्ला था. उन धोबियों के गदहे चरने के लिए कॉलेज के मैदान में आ जाया करते थे. एक बार एक सज्जन बेढब जी से मिलने आए और उन्होंने देखा कि मैदान में गदहे चर रहे हैं. आगन्तुक सज्जन ने गौड़ जी से कहा कि बेढब जी, आपके कॉलेज में बहुत गदहे हैं. बेढब जी ने तत्काल जवाब दियाये गदहे क़लेज के नहीं हैं कभी-कभार बाहर से आ जाते हैं, जैसे अभी आप आए हैं.

 

एक बार होली के दिन हमलोग गौड़ जी के साथ काशी नागरी प्रचारिणी सभा में बैठे थे, तभी किसी ने आकर बताया कि संपूर्णानन्द जी काशी आए हुए हैं. संपूर्णानन्द जी काशी के ही थे और उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. वे बेढब जी के मित्र भी थे.  बेढब जी ने कहा कि क्यों न संपूर्णानन्द जी से होली के मौके पर कुछ गपशप हो जाए. इस बात पर सबने सहमति व्यक्त की तो गौड़ जी ने संपूर्णानन्द जी को फोन लगाया. उधर से संपूर्णानन्द जी की आवाज आई कि आप कहाँ से बोल रहे हैं. गौड़ जी ने कहा कि मैं तो मुँह से बोल रहा हूँ आप कहाँ से बोल रहे हैं. बेढब जी के साथ बैठे लोगों ने उनके व्यंग्य को समझ लिया और देर तक हँसते रहे.

 

ऐसे सरल, सहज और विनोदी स्वभाव के थे कृष्णदेव प्रसाद गौड़ बेढब वनारसी. वे उसी वर्ष बनारस में पैदा हुए जिस वर्ष भारतेन्दु हरिश्चन्द्र स्वर्गीय हुए, यानी सन् 1885 में. सबको हँसानेवाले बेढब जी सबको रोता छोड़कर सन् 1968 में इस दुनिया से विदा हो गए. उन्होंने अपने बारे में ठीक ही लिखा है-

लोग हमें कहेलन बेढब हौ,

बात ढब के मगर कहीला हम.

 _________________________

प्रो. मैनेजर पाण्डेय
 बी-डी/8 ए
डी.डी.ए. फ्लैट्समुनिरका, नई दिल्ली-110067

मो॰ 9868511770

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  1. आभार बेढब जी से रूबरू करवाने के लिये।

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  2. बेढब बनारसी जी के जीवन और कृतत्व के बारे में सुंदर आलेख

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  3. दयाशंकर शरण4 दिस॰ 2020, 12:29:00 pm

    एक भूली-बिसरी शख्सियत को याद करते हुए यह संस्मरण काफी रोचक लगा। उनदिनों के बनारस की तस्वीर और साहित्यिक परिवेश की एक झलक भी इसमें दीखती है।

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  4. बेढब जी के विषय में जानकर अच्छा लगा। पर यह भी बहुत अच्छा लगा कि पांडे जी की आलोचना से दीगर जो भाषा है वह भी बहुत प्रभावशाली है। बहुत आभारी हैं पांडे जी आपके हम।

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  5. बेढब बनारसी को पढ़ा था, मजा लिया था पर उनके विषय में जाना पहली बार। धन्यवाद मैनेजर पांडेय जी तथा अरुण जी एवं समालोचन का यह परिचय कराने के लिए। बनारस से संबंध है अतः पढ़ना और भाया।

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  6. बेढव जी के बारे में पाण्डेय जी ने बहुत दुर्लभ जानकारियां दी। वर्षों पहले बेढव जी का हिंद पाकेट बुक्स ने छपा एक व्यंग्य संचयन पढा था। इसके अतिरिक्त उनके बारे में कोई जानकारी नहीं थी। हिन्दी में जातीय व्यंग्य की वह धारा ज्यादा समृद्ध नहीं हो सकी। कभी इस पर भी विचार होना चाहिए।

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  7. मंगलमूर्ति5 दिस॰ 2020, 3:25:00 pm

    बेढब बनारसी
    [१८९५-१९६८ ]
    कल ‘समालोचन’ ब्लॉग पर डा. मैनेजर पाण्डेय का एक अत्यंत रोचक और आत्मीय संस्मरण ‘बेढब’ बनारसी पर आया था | वे अपने समय में हिंदी के सबसे सफल हास्य-व्यंग्य के कवि और लेखक माने जाते थे | उनका जीवन-काल मेरे पिता आ. शिवपूजन सहाय के जीवन-काल (१८९३-१९६३) के बिल्कुल सामानांतर और समतुल्य था | ‘बेढब’ बनारसी कृष्णदेव प्रसाद गौड़ का साहित्यिक नाम था | वे बनारस में एक कॉलेज के प्रधानाचार्य रहे, पर उनकी पूरी पहचान एक हास्य-कवि-साहित्यकार की ही रही | बनारस की हंसोड़ साहित्यिक परंपरा के वे जैसे बराबर अगुवा ही रहे |
    मेरा उनसे परिचय या साक्षात्कार बस एक या दो बार का है - जब वे ४० के दशक में एक बार एक कवि-सम्मलेन में छपरा आये थे – हमारे मोहल्ले के पुस्तकालय के वार्षिकोत्सव में; शायद १९४५-४६ में | तब मेरे पिता राजेंद्र कॉलेज, छपरा में हिंदी के प्रोफेसर थे, और उन्हीं के बुलावे पर एक बार कविवर बच्चनजी भी उन दिनों वहां आये थे | बेढबजी को मैंने वहीँ पहली बार देखा था | दूसरी बार उनके दर्शन मुझे फिर बनारस में ही अपने अग्रज श्रीआनंदमूर्ति के विवाह (१०,मई, १९५४) की बरात में हुए थे, जिसमें बनारस के प्रायः सभी प्रमुख साहित्यकार – पराड़करजी, राय कृष्णदास, रामचंद्र वर्मा, वासुदेवशरण अग्रवाल, वाचस्पति पाठक, राजबली पाण्डेय, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, आदि सभी उस बरात में शामिल हुए थे | बनारस की साहित्यिक मंडली ही मेरे पिता की अपनी मित्र-मंडली बराबर रही – जिसका बहुत रोचक वर्णन उनके संस्मरणों में मिलता है |उस समय के मेरे खींचे कई चित्र भी मेरे संग्रह में हैं।
    ‘बेढब’जी की बहुत-सी पुस्तकें मेरे पिता के पुस्तकालय में संग्रीहीत हैं | मुझे याद है गाँव की अपनी लाइब्रेरी में उनकी लिखी पुस्तक ‘बनारसी एक्का’ पढ़ कर मैं अपने बाल-मित्रों के साथ हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाता था |
    बनारस की साहित्य-मंडली में बेढब जी अत्यंत सम्मानित व्यक्ति थे, और कविवर ‘प्रसाद’ जी के तो परम अभिन्न रहे | उत्तर प्रदेश की प्रायः सभी प्रमुख साहित्यिक संस्थाओं से वे सम्बद्ध रहे, और वहां की विधान सभा के मनोनीत सदस्य भी रहे | बनारस की कई हास्य-व्यंग्य की पत्रिकाओं – ‘तरंग’, ‘खुदा की रह पर’, ‘आंधी’, आदि का उन्होंने सम्पादन किया था, और कविता, कहानी, उपन्यास, एकांकी, समालोचना – सभी विधाओं में प्रचुर लेखन किया था | समालोचन’ में ऐसे पुरानी पीढ़ी के विस्मितप्राय साहित्यकारों से वर्त्तमान पीढ़ी के साहित्य प्रेमियों से परिचय-प्रारम्भ का स्वागत किया जाना चाहिए |

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