बिजली का स्वाद : अभिनव यादव

 

नया कथाकार अपने साथ अछूता, अपूर्व कथा-संसार भी लाता है. बिजली चोरी के लिए कटिया लगाने वालों की भी अपनी दुनिया है और भीग मांगने वालों के बदरंग संसार में भी प्यार होता है. ऐसे कई प्रसंग इस कहानी में हैं जो विचलित करते हैं.
अभिनव यादव का स्वागत करते हुए उनकी कहानी बिजली का स्वाद प्रस्तुत है. अभिनव यादव सिंगापुर में अपनी स्टार्ट-अप कंपनी चलाते हैं.


बिजली का स्वाद
अभिनव यादव

 

पाइप के सहारे इमारत पर चढ़ते-चढ़ते उसे ऐसा लगता रहा था कि वो इमारत को छू रहा है. पाइप के दोनों तरफ़, एक दूसरे को देखती हुई, इमारत के गुस्लख़ानों की खिड़कियाँ थीं. खिड़कियों को जोड़ता हुआ अधखुला छज्जा पाइपों को ढके हुए था. वो खिड़कियों के बार्जो के सहारे, छज्जों को पकड़ता हुआ, पाइप को खींच के चढ़ जाया करता था. सामने के छज्जों से हवा का झोंका जैसे ही बढ़ता उसे लगता कि उसने इमारत की नब्ज छू ली है और इमारत खिलाखिला उठी है. 

नालियों की बू में एक गंध थी, जो गीली थी. गंध हर तल्ले पर बदल जाती थी. वो मुग्ध हो जाता था. नीचे के तल्लों पे ज़्यादा कूड़ा था. माहवारी के खून से लिपटी रूइयाँ, पुरुषों के निरोध, गिरते पानी से जमी काईयां, कुछ केंचुए. वहाँ सड़न के अलावा कुछ नहीं था. पर जैसे-जैसे वो इमारत चढ़ता जाता, हवा की गंध और प्रवाह दोनों ही बदलते जाते. हवाएँ ठंडी होती जातीं जो उसके नथुनों से होते हुए, तलुओं को रगड़ते, अंदर से उसके सीने को सहलातीं. हर खुशबू में कुछ इंसानी गंध थी. उसे अगर गिनती याद न भी रहे तो वो गुस्लख़ाने से आती बू से अंदाज़ा लगा लेता था. इस बार पतंग भाप सी, खट्टे-चंदन वाली गंध पर अटकी थी. 

मोहल्ले के अमीर लड़के जानते थे कि उन्हें बस इशारा करना है और बंटा लपक जायेगा इमारत पर. वो सब इस बात के कायल तो थे ही कि उसे डर नहीं लगता. बंटा को वाकई में डर नहीं लगता था. उसके अंदर डर ने कभी घर नहीं बनाया. वो बिना किसी एहतियात के इमारत पर चढ़ जाता. इमारत भी छोटी नहीं थी. पूरी तेरह मंज़िल की थी. उसने अब तक हर मंज़िल से पतंग उतार रखी थी. हाथ, ज़रा भी काँपते नहीं थे. आज भी काँपे नहीं थे, पर शायद फिसल गए थे. भाप सी, खट्टे-चंदन वाली गंध तक वह अभी पहुंचा भी नहीं था कि आँख के कोर फड़क उठे. यह नयी महक थी. इस जगह पर दही की जैसी दवाई की बू बहुधा होती थी. पर आज की बू काफी जुदा थी. उसके कुछ समझने से पहले ही उसमें एक मीठी-सी टीस पड़ गयी. वो पीछे मुड़ पड़ा. अचकचाकर देखता रह गया. बस एक लम्हा एक आधा-सा खुला शरीर, आधा-सा चेहरा, कलाई, कलाई के ठुड्डी पर पूरा-सा तिल. उसकी ख़ुद की कलाई मुड़ गयी. हाथ छूट गया. वो गिर जाता अगर उसका कंधा तुरंत एक पाइप में न फंसता. पतंग वहीं ऊपर अटकी रही, वो नीचे उतरा और भाग निकला इमारत के पीछे. नीचे कीचड़ था या ख़ून किसी को नहीं दिखा. दाएँ कंधे पर एक चीरा लगा था, एक दाँत की नोक टूट चुकी थी, दाएँ पाँव की आख़िरी दो उँगलियों के बीच दरार पड़ी हुई थी. पर आँखों के कोर अभी तक फड़क रहे थे. 

हमका कुक्कुरन से मोह रहे तो हमका सब भौंका बुलाये लगे, हमरे भाई के बिलार अच्छे लागें तो उन्हके सब बिल्ला पुकारें लगें, बस अइसन ही नामकरन हुए गए,”  नाम ऐसे ही पड़ जाते थे उस जगह, जहाँ से वो आया था. उसका भाई काफी सहूर वाला हो चुका था तो अब भौंका को अपने साथ नहीं रखता था. पर बंटा उसे बार-बार बिल्ला से पैसे लाने को बोलता रहता. “का करें वो खुस हैं तो खुस रहें, हम काहे उसे तकलीफ दें” कह के भौंका पैसे लाने की बात को टाल दिया करता था. पर बंटा उसे हमेशा कचोटता रहता था. 

बंटा का कोई इतिहास नहीं था. उसे बचपन में ही लखनऊ एक साहब के घर नौकरगिरी करने लाया गया था. कुछ साल बाद साहब ने घर से चोरी के इल्ज़ाम पर निकाल गाँव वापस भेज दिया. बंटा को उतने रास्ते याद हो चुके थे जिनसे वो वापस आ सके. वो घर से भाग, वापसी का रास्ता नाप, लखनऊ अपने मास्टर के पास आ गया. मास्टर बिजली का काम करता था. उसी ने उससे चोरी करवाई थी. “चोरी तो एकेहे बार करनी है न, नौकरी हमेसा रही, तू तीस हजार का इल्तेजाम कर लेयो, नौकरी हम लगवाएंगे बिजली विभाग में मास्टर ने बोला था. बोला था, तो चोरी कर ली. पर वो जिसे ख़ज़ाना समझता था वो सिर्फ कुछ क़ानूनी काग़ज़ निकले, जो उसके किसी काम के नहीं थे. चोरी कुछ वक़्त में ही पकड़ी गयी और वो मास्टर के पास पहुंच गया . 

हियाँ आये गए हो तो अच्छा है. काम सिखिहो तो नौकरियों में भी सुभीधा रही.” मास्टर अपने पेंचकस की नोक से नाख़ून की मैल निकलते हुए बोल रह था. फिर पेचकस उसकी और घुमाते हुए बोला “कटिया लगाना सीखोगे?” बिजली चोरी लखनऊ का समृद्ध व्यापार था और बारीक कटियाबाज़ों की मांग हमेशा रहती. मास्टर, मास्टर कटियाबाज था. पर उसका वक़्त जा रहा था तो उसने बंटा को कटियाबाजी के काम पर लगाया. वो भी आधे दाम पर. यह कह कर  कि उसकी नौकरी की घूस इकठ्ठा कर रहा है. मास्टर झूठ बोल रहा था. वो पैसे बंटा को कभी नहीं मिले. मिला तो बिजली का स्वाद जो उसकी जुबान पे हमेशा के लिए छप गया. पर उससे पहले उसने सीखा तारों की अनगिनत गांठे बनाना, जली उँगलियों को फूंकना, रबर नोंचना, लोहा मोड़ना, तांबा चबाना और खम्भे चढ़ना. इन्हीं कामों को करते-करते वो एक उम्र चढ़ गया. डर कभी आया ही नहीं. शायद जगह ही नहीं मिली. तार उतारने के साथ-साथ वो खम्भों पर अटकी पतंगे भी उतारने लगा और पाल लिया शौक पतंगें लूटने का. दूर आसमान में कही पतंग कटती और वो दौड़ जाता कई किलोमीटर. वो पतंग ही थी जिसे उतारने के लिए वो ऊँची इमारत चढ़ गया था एक दिन और फिर उस मोहल्ले के अमीर लड़के उसके दोस्त बन गए. 

तू उस मूंगफली वाले का ठेला उलट दे एक लड़का बंटा से शर्ताना अंदाज़ में बोला. कुत्ते की तरह बंटा उनके लिए कुछ भी करता था और बदले में वो उसे पुचकारते थे बहुत सारी चीजों के लालच से. वो ठेला पलट आया. ठेलावाला मास्टर की गली में ही रहता था. गली एक घुन लगी मटर के दाने सी लगती, आस-पास के चमकते मटर जैसे सटे सुन्दर घरों के बीच. बंटा गली के बीचों-बीच एक चबूतरे पर पड़ा था जब ठेलेवाला वहाँ से गुज़रा. उसने बंटा को देखा और कुछ नहीं बोला. बंटा ने उसे इसी बहाने पुरस्कार में मिले, तीन दिन के लिए, मोबाइल फ़ोन पर एक ज़ोरदार रंगीन गोरियों की फिल्म दिखाई. और भौंका से उसकी दोस्ती शुरू हो गयी. 

मुहल्ले के एक लड़के ने उसे पहली बार चीज़ खिलाया. चीज़ लड़के का कोई अमेरिकी रिश्तेदार लाया था. चीज़ थी एक खाने की चीज़. उसे नाम ही बड़ा बेतुका लगा. स्वाद और भी बेतुका. खाते ही उसे ऐसा लगा जैसे नाली का कोई टुकड़ा उसके मुंह में हों. उसका मन तो था थूकने का, पर वह हिचक के कारण उसे निगल गया. चीज विदेशी थी. बहुत दूर से उसके मुंह तक आयी थी. खाने के कुछ देर बाद ही पेट जैसे नाली बन गया. मुंह नाली-सा महकता. लगता जैसे नाली का मुंह सूँघ रहा हो. पर शाम को जब उसे उस लड़की की आवाज़ पहली बार सुनी तो जैसे सब ठीक हो गया. इमारत में रहने वाली लड़की की अंगूठी गिर गयी थी इमारत के बगल की नाली में. लड़की घबराहट में लटकी हुई थी. उसके चेहरे पर आँसू आने ही वाले थे कि बंटा कूद गया नाली में. 

शाम थी, कुछ लोग थे, हल्की ठंड थी. जमादार क्यों नहीं बुलाया गया? पता नहीं. पाँव गड़ गए काले कादो में. कोहनियां तक बुड गयी खोजते हुए. चेहरे पर छीटें पड़ आये. पहले एक चाबी निकली, फिर एक कांच का टुकड़ा, फिर थोड़ा खून और फिर भी न रुकने पर अंगूठी. उसने रोका था उंगली कटने पर. लेकिन बंटा मशरूफ़ था. उसकी आवाज़ तितलियों सी उसके कान में चली आयी और हल्की ख़ुशनुमा गुदगुदी पैदा करने लगी. ऐसी गुदगुदी जो उलझन नहीं, उलझन के बाद की राहत होती है. उसके कानों ने जबड़े बंद कर के उसकी आवाज़ को अपने अंदर कैद कर लिया. तितलियाँ बैठ गयी कान के फर्श पर. फिर उसकी निगाह लड़की के होंठ के बाएँ तरफ़ नीचे निखरे एक तिल पर गयी. कलाई का तिल वो कई बार देख चुका था. हर शाम इमारत के नीचे मुहल्ले के लड़कों के साथ क्रिकेट खेलते हुए उसका इंतजार करता था, ताकि कलाई के तिल को देख सके. कलाई के तिल को देखते ही महक आ जाती थी उसे. महक उसके ज़ेहन में बिल्ली की तरह इधर -उधर घूमती रहती. वो उसे पकड़ने की कोशिश करता रहता, बिल्ली पंजा मार के भाग जाती. महक न हुई एक बला हो गयी थी. होंठ वाले तिल ने उसकी हालत और ख़राब कर दी. जब भी वो उसे देखता उसके कानों में राहत वाली गुदगुदी उठ पड़ती. अंगूठी मिलने के बाद उसने, अंगूठी उसे ऐसे दी जैसे मानों स्वयंवर जीत लिया हो. बस वरमाला लेने के लिए, वो सीना चढ़ाये, पीठ उठाये खड़ा था. लड़की ने उसे पैसे देने का वादा किया और चली गयी. पर उसे पैसे की कोई फिक्र नहीं थी. कानों की तितलियाँ फर्रा रहीं थी. जहन की बिल्ली पर्रा रही थी. वो पूरा का पूरा थर्रा रहा था.

मास्टर बिस्तर से नहीं उठा ठीक वैसे जैसे बंटा की जीभ का बायां हिस्सा. उसकी जबान पर बिजली का स्वाद बैठ चुका था वो भी बायीं ओर पाँव डाल कर. बिजली का ‘ल’ भारी हो चुका था, बंटा का ट जा चुका था. था तो बस ‘थ’, ‘बंथा.’ भाषा ही पलट गयी उसकी. हुआ कुछ नहीं था. मास्टर और वो एक पुरानी कटिया ठीक करने गए थे. मास्टर ने ग़लती से ज़िन्दा तार छू दिया. बगल में खड़ा बंटा मुंह से तार छील रहा था. बस एक झटका ही लगा था. मास्टर के होश गए, बंटा की जबान फटी. कटी नहीं, फटी. बंटा को लगा मुंह से धुआँ निकल रहा है जैसे बिजली खा के डकार ली हो. मास्टर की शर्ट के कॉलर से धुआँ निकल रहा था. उसे लगा मास्टर का छोटा दिमाग फुंक गया. अस्पताल का सफ़र लंबा लगा. मास्टर बिस्तर से नहीं उठा और साथ-साथ बैठ गया बंटा की सरकारी नौकरी का सपना. मास्टर को उसकी बीवी गांव ले कर चली गयी. बदले में मास्टर का कमरा उसे बेच गयी. वो अपने घूस के दिए हुए पैसे के लिए उससे लड़ना चाहता था, लेकिन हमदर्दी में रुक गया. 

सपना जा चुका था उसकी जबान की पुरानी भाषा की तरह. वो अपना नाम लेने से कतराने लगा. ‘बंथा’ में गूंजने वाला ‘था’ उसे याद दिलाता था उस चीज़ की जो अब उसके पास नहीं थी. था तो बस होने जैसा एक लंबा एक-तरफ़ा प्यार. न जाने घूस दे कर वो क्या सोच रहा था. “बिल्डिंग में रहने वाले सारे सरकारी अफ़सर घूस दे कर ही अफ़सर बने हैं,” ऐसा मास्टर कहता था. शायद इसीलिए सोच पड़ा हो कि घूस दे कर सरकारी अफ़सर बनेगा. अफ़सर बन कर इमारत में घर लेगा. और फिर अपने प्यार को उस लड़की तक पहुँचायेगा. जो भी हो उसकी सोच में कोई भी कमी नहीं थी. मास्टर के जाते ही उसके प्यार की उम्मीद भी चली गयी. पर प्यार जैसे अटका रहा. उसने बिल्ली को पकड़ना छोड़ दिया, तितलियों के दरवाज़े खोल दिए, इश्क़ में कैद किये सभी जानवर खुले छोड़ दिए. पर वो सभी वहीं रहे, इश्क़ में उठने वाली भावनाओं के साथ. 

इतना आसान भी नहीं था सब कुछ. उसने इमारत की तरफ़ जाना छोड़ दिया. मुहल्ले के लड़के विलुप्त हो गए किसी-किसी कारणों से. अच्छा ही हुआ. उसकी ढीली जबान के चलते लोग उसे तुतला बुलाने लगे थे. जो बदल के तोता हो गया. बंटा इन सब में खो गया. वैसे बोलने को वो तोता भी नहीं बोल पाता था. पर ‘बंथा’ की गूँज से आज़ाद हो गया था. उसने बिजली का काम छोड़ दिया और लकड़ी पेंट करने का काम पकड़ लिया. पेंटिंग का काम अच्छा था. उसे घंटों तक पुताई करते हुए एक ही चीज को निहारते रहना था. लकड़ी जो पहले अल्हड़ सी दिखती वो पेंट-पॉलिश होने के बाद चमक पड़ती. पर लकड़ी में चमक से ज़्यादा और भी कुछ था. धीरे-धीरे चढ़ता हुआ, इश्क़ जैसा. लकड़ी के अंग को निखारना, पेंट के भीगे कपड़े से उसे मलना, हर उठी फ़ांस को समतल करना. जादू था. वो खो जाता था. जैसे उस लड़की को देख कर खो जाया करता था. 

लकड़ी से उठती गंध में नशा था ठीक वैसा जैसा उस लड़की में था. दोनों की महक अलग थी मगर लत एक जैसी. पेंट होती लकड़ी कब लड़की हो जाती पता नहीं चलता. वो तिल तलाशने लगता. तिल जो उभर आते थे उसकी हर मुलाकात पर. गर्दन के पास वाला तिल तब उभरा था जब बंटा ने उसे पहली बार छुआ था. वो अपनी स्कूटी से गिर गयी थी. गिलहरियाँ दौड़ गयी थी सीने के अंदर, उसे छूते ही. एक तिल टांग के गाल पर था एड़ी के ऊपर. वो उसे तब दिखा जब वो स्कर्ट पहन कर उसे पैसे देने आयी थी नाली से अंगूठी निकालने के लिए. आँखें काफी देर तक मिलीं थी उस दिन. रौंगटे खड़े हो गए थे कान के पीछे, जैसे नन्ही चींटियाँ सर पर घूम रहीं हों. फिर एक तिल माथे पर आया, एक कुहनी के थोड़ा ऊपर दिखा, एक कमर पर भी था. सब के सब किसी घटना के साथ आये और एक एहसास दे कर रुक गए. जैसे पांव के तलवों पर चाटती कुत्ते की जीभ, पपोटों पर चलती मखियों के पैर, पीठ पर बैठी छिपकलियों की हिलती पूँछ. सब अनोखे थे. इश्क़ ही अनोखा था. उसे इश्क़ का नशा हो ही गया था जब उसे बंटा से तोता बनना पड़ा. तोते को लकड़ी से प्रेम हुआ और लकड़ी का अलग ही नशा था. वो लकड़ी का तिल ढूंढते-ढूंढते नशे का आदी हो गया. वो पेंट में घुलने वाले थिनर को चुरा कर दिन भर सूंघता रहता. नशा था, लत थी. नशा और फैला. वो दिन में थिनर सूंघता और रात में अपने गली के पास के ठेके पर शराब पीता. 

मास्टर भी वहीं दारू पीने आता था. यह बात उसे उस दिन याद आयी जब मोटे पियक्कड़ के साथ मास्टर के बारे में बात निकली. “मास्टर गजबे का कटियाबाज रहें. खूब लोगों को नौकरी के झांसे में लाल किये रहें. मैं इसी वजह से उसकी दारू नहीं छूता था मोटा पियक्कड़ हंसते हुए बोलता रहा. तोता हंस नहीं सका. रात को लौटते वक़्त उसे भौंका दिखा. भौंका अभी भी भौंका ही था. नयी भाषा ने उसको किसी भी तरह नहीं बदला था. बंटा ने उसे उसके नाम से उसे पुकारा. भौंका भोला था या बेवक़ूफ़ था, पता लगाना मुश्किल है. पर दोनों की दोस्ती लम्बी चल पड़ी थी. भौंका मज़दूरी करने लगा था. कई बार वो बंटा के घर आता और लम्बे वक़्त तक रुकता. काम मिलने पर साइट पर ही रहता था. भौंका उन चंद लोगों में से था जो उसे अभी भी बंटा के नाम से जानते थे. पर आज तोते के मिज़ाज में मिर्च लगी हुई थी. वो बदला तलाश रहा था. भौंका सामने पड़ा तो बोल पड़ा “कब तक मज़दूरी करिहो, पास के स्कूल में चपरासी की नौकरी निकली है, तीस हज़ार घूस दोगे तो मैं जुगाड़ लगवा दूँगा, अपने बिल्ला भैया से मांग लो अगर नौकरी चाहिए.”

बसंती अच्छी लड़की थी. उसकी माँ पास की इमारत में बर्तन धोया करती थी. उसी ने शोले फिल्म देख कर उसका नाम बसंती रख दिया था. बसंती को भी फ़िल्में पसंद थी. उसने अपने छोटे भाई का नाम ऋतिक रखा अपने ज़माने के नए अभिनेता के नाम पर. अपने तीन पालतू कुत्तों का नाम उसने शाहरुख़, सलमान और आमिर रखा अपने पसंदीदा अभिनेताओं के नाम पर. पसंदीदा अभिनेता के नाम कुत्तों को इसलिए दिए क्योंकि कुत्तों का मज़हब नहीं होता. बसंती अच्छी लड़की थी. सब समझती थी. उसके माँ बाप दोनों नेपाली थे, जो लखनऊ में पैसा कमाने आये थे. बाप दो और बीवियाँ ले कर आया था, जो शहर के अलग-अलग इलाकों में रहती थी. बसंती ने अपने बाप का मुंह हमेशा रात में ही देखा था. अगर दिन में देखती तो शायद पहचान नहीं पाती. वो उसकी माँ के पास ज़्यादा नहीं आता था. बसंती की गली बहुत पतली थी. मकान एक दूसरे पर लदे हुए थे. जैसे, बगल के घर की टूटी दीवार के चलते उसका घर बगल के घर तक फैल गया था. वो भी बगल के घर तक फैल गयी. बगल में एक आदमी रहता था जो अक्सर रात में ही आता था. वो तुतला था. उसे उसकी आवाज़ की धुन से लगाव हो गया. … था… था… था. जैसे मुंह में घुंघरू रख के बात कर रहा हो.

बसंती अच्छी लड़की थी. बस बेचारी अगर ग़रीब नहीं होती तो शायद कुछ अच्छा कर लेती. जब दो महीने तक महीने नहीं हुए तो उसने तुतले को बताया. तुतला न दुखी हुआ न ख़ुश. उसने बस उसे अपना नाम बताया. कुछ दिन में शादी हो गयी दोनों की. तुतला नशा करता था? ये उसे पता था. तुतला उसे प्यार करता था? ये उसे नहीं पता था. उसने तुतले को बताया कि वो बच्चे का नाम फिल्म के नए हीरो-हीरोइन के नाम पर रखने की सोच रही है. तुतले ने न हाँ बोला न ना. बस लेट गया. जब उसके तीन पालतू कुत्तों में से एक कुत्ता मर गया तो उसने तुतले को उसे गाड़ने को बोला. तुतला उसे अनसुना कर काम पर चला गया. शाम को एक बोरा ले कर आया और कुत्ते की लाश को उसमें भर कर ले गया. उसे गाड़ा या जलाया, पता नहीं. बसंती ने कई दिनों तक तुतले के व्यवहार को समझने की कोशिश की. फिर अपने माँ-बाप के रिश्ते को समझने की कोशिश की. और फिर उसे जब आभास हुआ कि तुतले का चेहरा भी उसे अब सिर्फ रात में ही दिखता है, तो उसे अपने पिता का चेहरा याद आ गया. उस रात उसने तुतले से सीधे पूछ लिए “तुम मुझसे प्यार करते हो?” तुतले ने न हाँ बोला न ना. बसंती ने उस दिन मान लिया कि शादी बिना हाँ-ना का एक रिश्ता है. साधारण-सा. बसंती अच्छी लड़की थी. इसलिए. 

मुघे बेथी हुई है,” सामने बैठे बशीर ने बड़ी मुश्किल से तोते की बात दोहराते हुए लड़खड़ाती जुबान से पूछा “तुझे बेटी हुई है?” तोते ने हाँ में सर हिला दिया. बशीर ख़ुशी जाहिर करना चाहता था तो बस मुस्कुरा दिया, हिलने की ताकत नहीं थी. दोनों के ऊपर तारे पड़े हुए थे. तारों का भार बहुत ज़्यादा था. दोनों नशे के साथी थे. साथ में काम करते थे. साथ में तलब पकड़ी थी. बशीर भी दीवारें लांघने में माहिर था. वो उसे छोटे इमामबाड़े की दूसरी मंजिल के गलियारे में ले जाता जहाँ के ख़ुशनुमा नज़ारे के साथ दोनों छिप कर नशा करते. गलियारे के जालीदार रोशनदानों से रौशनी चौकोर हो जाती. नशा चढ़ते-चढ़ते दोनों जमीन पर लेट जाते. चौकोर रौशनी तारा बन टिमटिमाती. भरी धूप के तारे उनके चेहरे को आसमान सा करते रहते. दिन के तारों के नक्षत्र अलग थे. वो दोनों घंटों तारों को पढ़ते रहते. जब तारों की कल्पना के आगे जा तोते को रोशनदान में अपनी बेटी की आँखें नजर आयी तो उसने बशीर को उसके बारे में बताया.

(कृति : G. R. Iranna)

बशीर अभी भी तारे ही देख रहा था. वो मुसकुराया और मुसकुराता रह गया. तोते ने मुड़ कर बशीर को देखा तो उसके चेहरे पर पड़ती धब्बेदार रौशनी जगमगाते तिलों से लगने लगी. एक ठंडी हवा ख़यालों की उड़ आयी. शरीर में बसे सारे जानवर खिलखिला कर खलबली मचाने लगे. दोनों शाम ढलते-ढलते, इमामबाड़े के मौलाना से नज़रें बचा कर निकल गए. नशा अभी तक उतरा नहीं था. रास्ते ज़्यादा चौड़े लग रहे थे. तोता आसमान में उड़ान भरने की कोशिश कर रहा था. जैसे चाहता था कि सब कुछ छोड़ के उड़ जाएँ यहाँ से. पकड़ लिया जाये किसी पिंजरे में और तोहफे में दिया जाये उस लड़की को जिसके तिल के दाने वो दिन भर गिनता रहे. नशा हमेशा के लिए चढ़ा रहे. वो दोनों रास्ते पर कदम संभालते हुए जा रहे थे. जाते-जाते वो दोनों एक हुजूम से टकराये. सामने एक लड़की अपना चेहरा ढक चिल्ला रही थी, जोर से. चेहरा जल रहा था उसका. कोई तेजाब फेंक के भाग गया था. वहां पर सिर्फ तेजाब और जलती हुए ज़िन्दा चमड़ी की बू थी. तोता उसे आगे बढ़ कर छूना चाहता था. पर नशे ने उसे हिलने तक नहीं दिया. नशा वहीं का वहीं खड़ा रह गया. 

भौंका जैसे ग़ायब हो गया था. अपने पैसे तक वापस लेने नहीं आया, नौकरी तो दूर की बात थी. तोते ने ढूंढने की कोशिश भी नहीं की. मेरे अंदाज़ से भौंका शायद बसंती से प्यार करता था और इसीलिए पक्की नौकरी ढूंढ रहा था. तीस हज़ार कहीं से तो लाया था नौकरी पाने के लिए. बसंती के पेट से होने की ख़बर निकलने के बाद ही वो ग़ायब हो गया. हाल ही में बशीर ने बताया कि भौंका ने हनुमान सेतु की एक भिखारिन से शादी या शादी जैसा ही कुछ कर लिया है. तोते को उसकी कोई फिक्र नहीं थी. सड़क पर उस लड़की के गलते चेहरे ने कुछ गहरा-सा छोड़ दिया था उसमें. वो कुछ दिन तक तो बौखलाया हुआ इमारत के पास घूमता मिल जाता. अख़बार में था कि वो लड़की, जिसपे तेज़ाब फेंका गया था, इसी इलाके में रहती थी. वो रात होते ही छज्जे के सहारे उस लड़की की मंज़िल तक चढ़ जाता. कुछ घंटों तक पाइप और खिड़की के बारजों पर टिका रहता. गुस्लख़ाने के अंदर ताकता रहता. वो हर दिन चढ़ जाता था. इमारत के तल्ले अभी भी अलग-अलग ही महकते थे, पर उसने शायद महक पकड़ने की शक्ति खो दी थी. उसके छूने से ईमारत अब बिलबिलाती भी नहीं थी. हवा नहीं झोंकती, ऊपर चढ़ते वक़्त. गर्मियों की ठहरी-सी रात हर दिन साँस रोक कर बैठी रहती उसके साथ. वो बस जानना चाहता था कि उस लड़की का चेहरा जला है या नहीं. इंतजार में बैठे-बैठे वो हज़ारों बार उसके चेहरे पर तेज़ाब डालता रहता. जितना उसने देखा था और जितना उसके नशे ने उसे याद रखने दिया था. उतने में वो अंदाज़े लगाता कि कौन-कौन सा हिस्सा उसका जल गया होगा.

होंठ तो गले थे, ये उसे पूरी तरह याद था. होंठ वाला तिल तो नहीं बचा होगा. माथे और गले का तिल भी जल गया होगा. कलाई वाला और कोहनी वाला शायद बचा हो. पर उसने अपने हाथों से चेहरा ढंका था. तेज़ाब हाथ में भी लगा होगा. कलाई की ठुड्डी जली हो सकती है. पर कमर का तिल तो पक्का नहीं जला होगा, अगर कपड़े ने तेज़ाब न सोखा हो. किसी भी हाल में,  गाल वाला तो बचा ही होगा. वह गुंजाइशें ढूँढता रहता और फिर उन्हें फेंक देता. इमारत से गिर के वो गुंजाइशें जमीन से टकरा कर शोर पैदा करती, जैसे किसी ने पत्थर नीचे फेंका हो. शोर से, बैठी तितलियाँ, मक्खियाँ उड़ गयी. उनके पीछे-पीछे छिपकली निकली, छिपकली के पीछे बिल्ली, बिल्ली के पीछे कुत्ता. कुत्ते के जाने के बाद, गिलहरियाँ निडर भाग निकली. चींटियाँ अभी भी थी उसके साथ गाल वाले तिल की गुंजाइश की तरह. उस घर में कई हफ़्तों से बत्ती नहीं जली थी. वह फिर भी हर दिन चढ़ जाता था. पर हर दिन चढ़ने और उतरने में अब थकान भी साथ रहने लगी थी. अपनी जन्मी बेटी की रुलाहट से रात भर न सो पाने से वह सादा होता जा रहा था. उसकी आंखें लाल हो चुकी थी. फिर एक दिन लटके-लटके उसे झपकी आयी. हथेलियों ने छज्जे को तुरंत लपक लिया, नहीं तो गिर जाता. उसे पहली बार डर लगा गिरने का. ऐसा लगा था कि माथे के पीछे किसी ने पकड़ के झकझोर दिया हो. सारी चींटियाँ तिलमिला के बालों से भाग निकलीं.

वो खड़ा रहा. उस पल के ठीक कुछ पल बाद खिड़की चमक उठी. रौशनी ने उसकी आँख को सिकोड़ दिया. सामने एक लड़की थी. वो उस लड़की को जानता था. वो लड़की लेकिन वो लड़की नहीं थी जिसका उसे इंतज़ार था. सामने खड़ी लड़की का इंतज़ार वाली लड़की से चेहरा मिलता था, रंग भी मिलता था. पर वो लड़की, वो लड़की नहीं थी. उसने आँखों की सिकुड़न को सीधा किया. उसने महसूस किया कि उसे कुछ भी महसूस नहीं हो रहा. सारे जानवर छोड़ कर जा चुके हैं. सामने खड़ी लड़की के शरीर पर एक भी तिल बाकी नहीं है.  गाल वाला तिल भी नहीं है. सारे तिल जैसे तेज़ाब से धो दिए गए हों. सामने खड़ी लड़की नहाने लगी. पानी तोते को तेज़ाब लगने लगा. तेज़ाब जिसने उसके सारे इश्क़ को धो डाला था. सामने बस शरीर था. उसे शरीर में कोई दिलचस्पी नहीं थी. वह ख़ुद-ब-ख़ुद नीचे उतर गया.  

उसे लग रहा था जैसे उसने तेज़ाब पी लिया हो. ठीक वैसे, जैसे उसने बिजली खाई थी एक दिन. जबान पर जहाँ बिजली का स्वाद था, ठीक वहीं बिजली के स्वाद सा तेज़ाब का स्वाद उभर आया. नीचे उतरना उसे याद तक नहीं रहा, ठीक वैसे जैसे अपने घर तक पहुँचना.  बच्ची की रोने की आवाज़ ने उसका ध्यान तोड़ दिया. उसने बच्ची को देखा. बच्ची बिस्तर पर पड़ी चीख रही थी. रोना बच्ची के लिए अपने पास बुलाने का एक अकेला आदेश था. आदेश से बाध्य तोता उसके पास पहुंच गया. उसने उसे दोनों हाथों से संभाल के उठाया और सीने से लपेट लिया. लिपटी हुई बच्ची के पैर के तलुए पर एक छोटा मगर बेहद सुन्दर तिल उभर आया.

______



विज्ञान के विद्यार्थी रहे अभिनव यादव सिंगापुर में खुद की  स्टार्ट-अप कंपनी  चलाते हैं. पत्रिकाओं में कुछ कविताएं छप चुकी हैं. इधर कहानियाँ लिख रहें हैं.

abhi.cho2@gmail.com

4/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. सुजीत कुमार सिंह27 नव॰ 2020, 2:57:00 pm

    अभिनव जी ने अछूते विषय पर अच्छी कहानी लिखी है। बंटा, भोंका, मास्टर, बसंती जैसे पात्र हमारे इर्द-गिर्द ही हैं, पर हम उन्हें देख नहीं पाते या देख कर अनदेखा कर देते हैं।

    प्रेम का उच्चतम भाव कहानी में है।

    अभिनव यादव जी को बधाईऔर शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
  2. मनोज रूपड़ा28 नव॰ 2020, 7:46:00 am

    इस कहानी में भाषा और वर्तनी की गड़बड़ी है पर नएपन की ताज़गी के साथ यह एक स्वत: स्फूर्त कहानी है.

    जवाब देंहटाएं
  3. क्या ताजगी है भाषा में! वाह!

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत अच्छे भाई ! अच्छा लगा आपकी कहानी पढ़कर।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.