रुस्तम : न तो मैं कुछ कह रहा था : प्रयाग शुक्ल

आवरण : तेजी ग्रोवर
सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर
संस्करण : २०२०
मूल्य : २०० रुपये
 

रुस्तम कवि हैं, कवि जो कविता लिखने के साथ-साथ कविता जीने भी लगा है. ऐसा लगता है कि अब कविता उन्हें लिखने लगी है.
उनका नया संग्रह ‘न तो मैं कुछ कह रहा था’ अभी सूर्य प्रकाशन से आया ही है जिस पर सुंदर टिप्पणी प्रयाग शुक्ल ने लिखी है, जिसे आप यहाँ पढ़ेंगे.
साथ में रुस्तम की नई १२ कविताएँ भी आप पढ़ेंगे. गहरी आकुलता से भरी ये कविताएँ शब्द के सौन्दर्य का बड़ा संसार रचती हैं. इधर हिंदी कविता में कुछ तो घटित हो रहा है. 
प्रस्तुत है. 


रुस्तम की कविताएँ                                              
प्रयाग शुक्ल




रुस्तम की कविताएँ मुझे प्रिय हैं. उनसे कविता सुनना भी मुझे अच्छा लगता रहा है. उनका स्वर धीर है, उतावला नहीं. उनकी कविताएँ अपनी संक्षिप्ति के कारण भी मुझे अच्छी लगती हैं. अपनी संक्षिप्ति में भी वे कई बिंब रचती हैं, कई अनुभवों की थाह लेती हैं. चीज़ों और अनुभवों को, दृश्यों और छवियों को मापने-जाँचने की और फिर उनके मर्म में पैठने की उनकी ‘विधि’ बहुत आकर्षित भी करती है.

उनका नया कविता संग्रह जो कुछ दिनों पहले ही सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर, से आया है, उसके हाथ में आते ही कई कविताएँ पढ़ गया. उनका असर कुछ ऐसा था कि तय किया कि कविताएँ कुछ अंतराल- कुछ दिनों के अंतराल- से पढूँगा, क्योंकि जो बिंब विधान वे रचती हैं, जो दृश्य चित्र वे बनाती हैं, जो अनुभव और बोध वे सौंपती हैं, जो तरंगें वे उठाती हैं, और एक चुप्पी भी रचती हैं- यानी कुल मिलाकर एक ‘वातावरण’, एक एंबियंस- उससे जल्दी अलग नहीं होना चाहिए. उसका पूरा स्वाद तो काफ़ी देर तक उनके साथ रहने से ही मिल सकता है.

इस सिलसिले में उनकी एक समूची कविता ही यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ जिससे कि जो कुछ ऊपर कहा है उसका एक संदर्भ भी सामने रहे :

धूप चली गयी है,
छाया चली गयी.
शाम चली गयी है.
रात चली गयी.
किसी की याद आती थी वह भी चली गयी है, जैसे चला गया था वो जिसकी याद आती थी.
ठीक उसी की तरह वह जो चला गया था
यादें
अ-मृत
नहीं होतीं.
या फिर
हम थक जाते हैं...

आप मानेंगे कि इसके बाद तुरंत दूसरी कविता की ओर ‘बढ़ना’ ठीक न होगा. पाठ समाप्त होने के बाद उसने एक ‘चुप’ रच दी है. उस ‘चुप’ ने आपको रोक लिया है. नहीं, आप स्वयं रुक गये हैं, क्योंकि आप कविता की छाया या उसके चले जाने के बाद, पढ़ लिए जाने के बाद की छाया में ठिठके रह गये हैं, ठिठक गये हैं, ठहर गये हैं. “छाया चली गयी है,” पर वह बहुत कुछ छोड़ गयी है- उसे भी समेटना है.

शाम की छायाएँ भी जब लम्बी होकर चली जाती हैं, ‘लुप्त’ हो जाती हैं, तो भी हम भीतर कहीं स्तब्ध, कुछ ‘चुप’ हो जाते हैं..

रुस्तम ने संग्रह में जो आखिरी कविता रखी है, वह भी मानो यही कह रही है- कि चले गये का, कहे गये का ‘बोध’ और अनुभव पूरा कहाँ हुआ है- कुछ और दूर चले आने पर. अभी तो और ‘लौटना’ है. एक बार या कई बार- और !!

आखिरी कविता है संग्रह की :

मुझे वही चाहिए,
वही,
जो पहले था,
जो पहले था,
जो दूर पीछे रह गया है,
दूर पीछे रह गया है,
बहुत दूर पीछे.
मुझे वही चाहिए,
फिर वही,
जिसका बिम्ब
दूर वहाँ,
दूर वहाँ
है
अब भी,
अब भी,
जैसे
सूर्य की रोशनी में,
सूर्य की रोशनी में
पारदर्शी एक
मरु की सतह पर
चमकता हुआ कोई नगर हो.

आप देख ही रहे होंगे कि यह न तो ‘नास्टैल्जिया’ है, न निरा स्मृति-मोह. न किसी ‘पुराने-धन’ को फिर संग्रह कर लेने की चाह ! यह तो फिर जीवन-बोध में, सृष्टि-बोध में एक बार और उतर लेने की, कुछ और ‘बूझ’ लेने की चाह ही है..

और वह चाह भला समाप्त कहाँ होती है, उनके लिए जो उस ‘रहस्य’ को जानना चाहते हैं, अनुभव करना चाहते हैं जिसके लिए तेजी ग्रोवर ने कहा है :

“कितना रहस्य है इस दुनिया में ! कविता लिखना भी उसी रहस्य का एक अंश मात्र है.”

दरअसल ये कविताएँ तिथिहीन डायरी की तरह भी हैं, कि कुछ दर्ज किया गया था किसी दिन, किसी क्षण, किसी मुहूर्त में- और वह दर्ज किया हुआ अभी भी वहाँ, उस पन्ने पर ठिठका हुआ है-

उस ठिठके हुए के पास जाने की एक इच्छा भी हैं ये कविताएँ ! कुछ है जो बीत कर भी नहीं बीता है. और जो बीत रहा है.. अभी-अभी चला जा रहा है. वह भी तो थोड़ी देर बाद बीता हुआ लगेगा. लग सकता है. पर क्या वह सचमुच बीत जाएगा !

कविता मात्र के लिए ठीक ही यह माना जाता रहा है कि उसमें बीते हुए को उगाहने की भी शक्ति होती है. तो ये कविताएँ ‘बीते हुए’- बीतकर भी न बीते हुए- की उगाही का एक यत्न भी हैं.

ये कविताएँ पाठक को अकेला भी छोड़ती हैं, अकेला करती हैं- पर अच्छे अर्थ में. पाठक मानो स्वयं तय कर लेता है- और अपने आसपास, और अपने चारों ओर (के शोर) से कहता है, “भाई, मुझे थोड़ी देर के लिए अकेला छोड़ दो. कुछ सोचने-विचारने दो.... अच्छा लग रहा है यह ‘सोचना-विचारना’. और जाहिर है ‘अच्छा लग रहा है’ का मतलब ‘अकेला’ हो जाना नहीं और निरुपाय हो जाना नहीं है, यह तो स्पष्ट है. इसी संदर्भ में मैंने कहा है कि ये कविताएँ अकेला छोड़ती हैं, अकेला करती हैं --- पर, अच्छे अर्थ में.

एक बार एक अच्छे संयोग से रुस्तम, तेजी और मैं त्रांदाइम (नॉर्वे) में एक ही समय थे. वहाँ विश्वविद्यालय में रुस्तम का कविता पाठ था. मैं भी सुनने गया. थोड़े से लोग थे. पर वह आत्मीय संयोजन बहुत अच्छा लग रहा था. तब मैंने रुस्तम से कहा था- ऐसे किसी आत्मीय, एकाग्र आयोजन में आपकी कविताएँ और अधिक ‘खुलती’ हैं. ‘सुदूर’ स्थान में.

रुस्तम की ये कविताएँ यह भी बताती हैं कि इनका जो ‘शब्द-संधान’ है, वह जितना आकस्मिक है, उतना ही सोचा-विचारा भी है. अचूक है. कितना अच्छा है कि कविता की बड़ी दुनिया में कविताएँ कई तरह की होती हैं. वह रेंज भी हम सेलिब्रेट करते ही हैं. ये ‘रुस्तम की तरह की’ कविताएँ हैं. एक एकाग्रता, एक एकांत, एक ‘वातावरण’, एक आत्मीयता चाहती हैं- निश्चय ही वह सब अगर बन जाए, बना लिया जाए, तो और अधिक खुलेंगी ये कविताएँ. 


रुस्तम की बारह नयी कविताएँ

1.

सूनी सड़कों पर

जब मैं वहाँ घूम रहा था

तुम मेरे आगे थे.

फिर मैंने तुम्हें

अपने पीछे पाया.

मेरी एड़ियों को छू रही थी

तुम्हारी छाया

जबकि तुम ख़ुद

मात्र एक छाया थे.

नहीं, तुम मेरा मतिभ्रम नहीं थे,

न ही कोई माया,

क्योंकि मैं स्पष्ट देख रहा था तुम्हारी छाया की भी छाया

उस वक़्त जब मैं सूनी सड़कों पर

अकेला घूम रहा था.

 

2.

दूर वहाँ

वह जो नीली शिला है ---

वहाँ जहाँ

पानी का एक पुंज झिलमिला रहा है ---

देखो,

उसके पीछे कुछ छुपा हुआ है,

या वह थोड़ी देर वहाँ रुका हुआ है,

या फिर यह भी सम्भव है कि यह उसी ही की जगह है.

हम चाहें तो वहाँ पहुँचकर

उतार सकते हैं उसका आवरण.

पर हम ऐसा करेंगे नहीं.

हम कब से यहाँ घूम रहे हैं.

इस वीरान मरु के कोने-कोने को हम जान गये हैं.

लेकिन इस रहस्य को,

इसकी स्वतन्त्र सत्ता को हम बना रहने देंगे.

आओ लौट चलें.

 

3.

तुम्हें याद है वह दिन 

जब शहर को घोड़ों ने घेर लिया था?

याद करो : 

लोग उठ चुके थे, कामों पर जा रहे थे,

जब उन्होंने देखा कि 

शहर की चौहद्दी पर घोड़े खड़े थे.

वे कितने थे? कहना कठिन था.

शहर के चहुँ ओर दूर-दूर तक बस घोड़े ही घोड़े थे.

वे धीरे-धीरे आगे बढ़े. सबसे पहले उन्होंने सड़कों को रोक लिया.

फिर वे गलियों में घुसे, कॉलोनियों में. 

घुसते ही गये.

शहर में हर स्थान को उन्होंने ख़ुद से भर दिया.

वे आपस में यूँ सटे हुए थे और इस तरह से बढ़ रहे थे कि उन्हें रोकना असम्भव था.

दिन गुज़रता गया. दोपहर हुई, फिर शाम.

लोग घरों में, दुकानों में और छतों पर सिमट गये.

उस क्षण जब सूरज डूब रहा था

पूरे शहर में सिर्फ़ घोड़े ही घोड़े नज़र आ रहे थे.

वे हिनहिना रहे थे, नथुने फड़फड़ा रहे थेसिर हिला रहे थे

और 

अँधेरा होने तक 

इसी तरह एक-दूसरे से सटे हुए

खड़े थे.

 

4.

हम वहीं पर आ पहुँचे हैं जहाँ से हम चले थे, हालाँकि यह जगह काफ़ी बदल गयी है. तुम्हें लगता है कि वह हमें पहचानती है? हमारे घोड़े थके हुए हैं. गालें धँसी हुई हैं. हम धूल से सने हैं. जो लोग हमें जानते थे वे कहाँ हैं? यह कैसा लौटना है? देखो कैसे हम अजनबियों की तरह खड़े हैं!

लेकिन दूर 

वह जो बूढ़ा बरगद है 

उसकी स्मृति में हम अब भी शायद बचे हुए हैं.

और निश्चित ही 

उस सूखी नदी के 

तल पर

पड़े हुए पत्थर

हमें भूले नहीं होंगे.


 

5.

पहली बार जब हम मिले,

तुमने द्वार खटखटाया,

मैंने खोला.

तुम्हारे चेहरे पर उत्कंठा, झिझक, भय और पता नहीं क्या-क्या था.

मैंने तुम्हें भीतर बुला लिया, कुर्सी पर बैठने को कहा,

चाय बनायी.

मुझे नहीं पता था तुम कौन थीं, क्यों आयी थीं.

एक-दूसरे के सामने हम चाय पी रहे थे,

तुम्हारे घुटने मेरे घुटनों को हल्का-सा छू रहे थे.

तुम्हारी आँखे मेरे चेहरे पर गड़ी थीं,

उनके भाव मैं पढ़ नहीं पा रहा था.

सच बताऊँ तो मैं भी कुछ डरा हुआ था,

अन्दर ही अन्दर मैं थरथरा रहा था.

इस तरह अँधेरा होने तक हम यूँ ही वहाँ बैठे रहे.

 

6.

एक चट्टान मेरे रास्ते में खड़ी थी.

भूरी, लाल, नीली और पीली,

एक चट्टान मेरे रास्ते में खड़ी थी.

आह मैं वहाँ रुक गया, मैं वहाँ रुका रहा

क्योंकि एक चट्टान मेरे रास्ते में खड़ी थी.

मैं और क्या करता? मैं उसे देखता रहा

क्योंकि एक चट्टान मेरे रास्ते में खड़ी थी.

वह स्थिर थी, वह हिल नहीं रही थी.

और कैसे उस धूप में वह चमक रही थी !

विभिन्न रंगों की हज़ारों किरणें 

उससे फूट रही थीं !

क्या उसने रोक ली थी मेरी राह ?

क्या उसने छीन ली थी आगे बढ़ने की 

मेरी इच्छा--

भूरी, लाल, नीली और पीली

वह जो चट्टान मेरे रास्ते में खड़ी थी?

मुझे नहीं पता. मुझे नहीं पता.

मुझे बस इतना याद है

कि एक चट्टान मेरे रास्ते में खड़ी थी.

 

7.

मैं चलता हूँ

तो गली धँसती जाती है.

यूँ लगता है मैं किसी तहख़ाने में उतर रहा हूँ.

इमारतें हिलती हैं, लड़खड़ाती हैं.

बसें, कारें मेरी ओर लपकती हैं.

हर चेहरा मुझ पर हँसता है एक राक्षसी हँसी.

दूर से मैं किसी परिचित को देखता हूँ,

पास आने पर वह एक अजनबी में बदल जाता है.

कितने लोग यहाँ बिन पैरों के चलते हैं 

और बिन ज़ुबान के बोलते हैं

एक ऐसी बोली में जो मैंने कभी नहीं सुनी !!

सड़कों पर, बाज़ारों में, घरों और मकानों से

हर वक़्त किसी के रोने की आवाज़ आती है.

 

8.

1870 का वह जाड़ा कितना ठण्डा था!

और 1980 का वह वसन्त भी !

* * 

तुम्हारी देह को वह एकटक देख रहा था.

तुमने यौवन का फव्वारा ढूँढ लिया था.

* * 

आह ! कितनी सुन्दर थी वह गली जो मोने ने बनायी थी सैन अंदरेसे में !

एक श्वेत तितली उसमें उड़ रही थी.

और एक हृदय गा रहा था.

* *

कितना भारी था तुम्हारी जाँघों का वज़न !

* *

तुम्हें लुभाने के लिए कैसे मैंने फैलायी हुई थीं अपनी टाँगें !

* * 

 

चाँद का दूध

बूँद-बूँद कर 

पृथ्वी पर टपक रहा था.

और वह अप्सरा सन्त एन्थनी के आगे नंगी खड़ी थी.

* *

कबूतर तक मेरी ओर आकर्षित था,

हाँ, कबूतर तक,

जब मैं निर्वस्त्र वहाँ पड़ी थी.

* *

मैं दर्पण में देख रही थी, या कि वह मुझमें?

* *

भुतहा उस घर के आगे

शनि

अपने ही बच्चे को खा रहा था.

 


9.

तब भी तुम्हें ढूँढता ही रहूँगा.

तुम मिल भी जाओगी.

तुम साथ मेरे रहोगी.

फिर चली जाओगी.

तुम किसी ट्रेन में बैठी होगी और मैं उसके पीछे-पीछे दौडूँगा, उसे पकड़ नहीं पाऊँगा.

या वे ले जायेंगे तुम्हें मुझसे छीनकर.

या फिर मुझे ही वे तुमसे दूर कहीं घसीटकर डाल देंगे कारावास में.

क्या पता अचानक तुम यूँ ही कभी ग़ायब हो जाओ.

मैं पीछे मुड़ूँ और देखूँ कि तुम नहीं हो.

इस जीवन में क्या-क्या नहीं घट सकता?

यह भी सम्भव है कि मैं तुम्हें देख ही न पाऊँ, तुम्हें छू ही न पाऊँ, मुझे एहसास ही न हो कि तुम यहीं मेरे पास हो

और मैं तुम्हें और-और कहीं ढूँढता फिरूँ.

 

10.

इस भीड़ में तुम्हें पहचानना मुश्किल है.

असंख्य चेहरे हैं.

सबको पास जाकर देखता हूँ, फिर पलट जाता हूँ.

कहीं नहीं हैं वो स्पष्ट आँखें, वो गर्वीला माथा, वो विभेदक चिन्ह,

वो रीढ़ जो झुकने से इन्कार करती है,

वो दृष्टि विशाल.

मुझे देखते ही वे चेहरा मोड़ लेते हैं,

उनके होठों पर तैरती है एक द्वैध मुस्कान,

और उनकी चाल- जैसे फर्श पर सरक रहे हों उनके पैर

उस तरफ़ जहाँ मैं नहीं हूँ.

तुम इनमें तो नहीं ही हो सकते.

 

11.

हम जंगल में गये.

हमेशा की तरह

हम कुकुरमुत्ते चुनना चाहते थे.

लेकिन उस दिन

वे कुछ अजीब-सा बर्ताव कर रहे थे.

दूर से वे हमें दिखते थे,

हम पास आते तो वे छिप जाते.

एक भी कुकुरमुत्ता हम चुन नहीं पाये.

हम आगे बढ़ते गये.

हम पेड़ काटने नहीं आये थे,

पर पेड़ हम से डर रहे थे.

हम जिधर भी जाते,

वे इधर-उधर सरक जाते.

अन्ततः

हम लौटने को मुड़े.

लेकिन पेड़ों ने हमें घेर लिया,

हमें रोक लिया.

हमने देखा कि

वे आपस में सट गये थे.

हम कहीं से भी निकल नहीं सकते थे.

हमें नहीं पता हम कब तक वहाँ खड़े रहे.

हम क्या करते? कहाँ जाते?

इसलिए हम भी पेड़ों में बदल गये.

 

12.

जहाँ हमें मिलना था वो जगह अब नहीं है.

जहाँ हमें हाथ में हाथ डाले चलना था वो राह कहीं चली गयी है.

कल मैं तुम्हें ढूँढ रहा था और सोच रहा था कि वह यहीं कहीं है.

पर वास्तव में मैं तुम्हें भूल गया था और याद करने की कोशिश कर रहा था.

ओह मैं कितना डर रहा था क्योंकि तुम्हारा बिम्ब मेरे मन में उभर नहीं रहा था !!

ओह मैं कितना डर रहा था !!

और ख़ुद मैं? क्या मैं वही था जिसे तुम्हें मिलना था

या कि मैं कोई और था

ग़ौर से देखें तो यह भी सम्भव है कि मैं ख़ुद भी वहाँ नहीं था.

_____________________

कवि और दार्शनिक, रुस्तम के छह कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें से एक संग्रह में किशोरों के लिए लिखी गयी कविताएँ हैं. उनकी कविताएँ अंग्रेज़ी, तेलुगु, मराठी, मल्याली, पंजाबी, स्वीडी, नौर्वीजी तथा एस्टोनी भाषाओं में अनूदित हुई हैं. रुस्तम सिंह नाम से अंग्रेज़ी में भी उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं. इसी नाम से अंग्रेज़ी में उनके पर्चे राष्ट्रीय व् अन्तरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं.

rustamsingh1@gmail.com

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  1. बहुत अच्छी कविताएँ। प्रयाग जी की टिप्पणी के साथ इन कविताओं को पढ़ना नए अर्थ देता है। कविताओं के बिंब देर तक आँखों में लहराते रहते हैं। सरल और तरल भाषा में लिखी गयी ये बड़ी कविताएँ हैं। संग्रह निश्चय ही पठनीय होगा।

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  2. उदय शंकर सिंह26 अक्तू॰ 2020, 5:31:00 pm

    कविताएं पढ़ी और कहीं खो गया,
    बहुत देरतक अपने आप को ढ़ूढ़ने की ,
    कोशिश करता रहा पर ढूँढ़ न पाया।
    आत्मकेन्द्रित आपकी कविताएं हमारे अपने भीतर व आसपास बिखरी दुनियां के होने और न होने के द्वंद्व को न सिर्फ बखूबी बया करती हैं वल्कि वे हमें खूब छकाती, लुभाती, डराती और रोमांचित भी करती हैं।
    इन कविताओं को पढ़कर बहुत अच्छा लगा। साधुवाद।

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  3. दया शंकर शरण26 अक्तू॰ 2020, 5:45:00 pm

    कविता मनुष्य की एक शक्ति है - चीज़ों को देखने,छूने,महसूसने और सुनने की। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कविता जितनी देखती है, उससे अधिक सुनती और महसूसती है। परकाया-प्रवेश विद्या भी उसे आती है। समालोचन पर सविता सिंह के ठीक बाद रूस्तम सिंह को पढ़ना भी एक अद्भुत अनुभव-यात्रा से गुजरने की तरह है । एक में ऐन्द्रिक अनुभूतियाँ हैं, तो दूसरी में जीवन-दृष्टि । इतनी अच्छी कविताओं और उसपर इतनी सारगर्भित समीक्षा के लिए रूस्तम जी और प्रयाग शुक्ल जी को बधाई !

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  4. इन 12 कविताओं को पढ़कर अगर एक पंक्ति में कहूँ तो रूस्तम कविता के निर्मल वर्मा हैं. वही चमत्कृत करने वाली भाषा, कथ्य में वही स्मृतियों के खंडहर में चीखते अतीत के प्रेत.

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  5. आजकल पूरी तरह से कथा की दुनिया में डूबा हुआ हूं लेकिन रुस्तम जी की कविताओं को पढ़ने का मोह नहीं छोड़ पाया ।कविताओं को पढ़कर ऐसा लगा जैसे मैं किसी जंगल में बने अपने घर में लेटा हुआ हूं और कविताएं मेरे मस्तिष्क में चल रही है । इनकी कविताएं नदी की तरह होले - होले बहती हैं। कविताओं में आलस्य और धीमापन इन्हें ओर निखारता है।

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  6. नवीन कुमार नैथानी28 अक्तू॰ 2020, 11:53:00 am

    ये कविताएं आपको अपने साथ ले जाती हैं।आप भूल जाते हैं कि इनके साथ होने से पहले कहां थे!

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  7. एक लम्हे और उस लम्हे की स्मृति को पकड़ने का प्रयास करती सुंदर कविताएँ. कहीं यह प्रयास प्रेम की ओर केंद्रित है तो कहीं महानगरीय जीवन में भटकते स्व की ओर ... पाँचवी और नवीं ख़ास तौर पर गहरी लगीं ...इनको साझा करने के लिए शुक्रिया ...��

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