थप्पड़, सिनेमा और मीना कुमारी : निशांत यादव



‘जब ज़ुल्फ़ की कालक में घुल जाए कोई राही
बदनाम सही लेकिन गुमनाम नहीं होता.’ 
‘सहर से शाम हुई शाम को ये रात मिली
हर एक रंग समय का बहुत घनेरा है’


प्रसिद्ध अभिनेत्री मीना कुमारी कवयित्री थीं, नाज़ उपनाम से उनकी ग़ज़लेनज्में प्रकाशित हैं. उन्हें याद कर रहें हैं निशांत यादव.


थप्पड़, सिनेमा और मीना कुमारी                                  
निशांत यादव 


सिनेमाई पर्दे पर थप्पड़ की गूँज 2020 में सुनाई देती है जब इस शीर्षक से एक फ़िल्म का निर्माण होता है. फ़िल्म, परिवार में महिलाओं के साथ कमोबेश रोज़ होनी वाली थप्पड़ जैसी रोज़मर्रा एवं तथाकथित छोटी घटना को जो इस फ़िल्म निर्माण से पहले घरेलू हिंसा के नेपथ्य में रहा को मल्टी स्क्रीन द्वारा वैसे ही सरे बाज़ार कर दिया किया जैसे यशपाल द्वारा रचित कहानी ‘पर्दा’ में चौधरी पीरबक्श की पारिवारिक शान उनके ड्योढ़ी के पर्दे के बेपर्दा होने से मरहूम हो जाती है. 

यशपाल की इस कहानी का मुख्य किरदार यूं तो वह पुश्तैनी दरी वाला परदा ही है जो उस घर की लाज बनाने की कोशिश अपने अंतिम रेशे, अपने अंतिम धागे तक करता है. पर चूंकि  यह पर्दा चौधरी पीरबक्श के मकान पर टंगा था तो सारा किस्सा उन्हीं के नाम पर चलता है. कहानी के अंत में स्थानीय साहूकार बाबर मियाँ के बार-बार पैसा माँगने पर भी जब वह उनके पैसे नहीं चुका पाते तो बाबर मियाँ दरी के उस पर्दे को जो कि तत्कालीन समय में सामाजिक शान की निशानी होती थी, को हटाकर उनके घर के भीतर से अपनी दी गई राशि भर का कुछ वसूल करना चाहते थे परंतु ड्योढ़ी से पर्दा हटते ही सबको चौधरी पीरबक्श के घर के हालत के बारे में पता चल जाता है. जो इतनी दयनीय थी कि जिसके बरक्स बाबर मियाँ अपनी दी हुई राशि लेना ही भूल जाते हैं. 

वैसे ही 'थप्पड़' महज एक ऐसी फिल्म नहीं है, जो घरेलू हिंसा के सतही पर्दे के बारे में बात करती हो; ह परिवार और समाज के अधीन उन परि स्थितियों को प्रकाश में लाती है जिसमें एक महिला रहती है. युगल की समस्या के अलावा इस फ़िल्म में अन्य महिला आधारित समस्याओं को केंद्र में रखा गया है जो परिवार के लोगों द्वारा घरेलू हिंसा का खामियाजा भुगत रही हैं. पारिवारिक नाम और विरासत को बढ़ाने के अधीन एक विचार है कि विवाह महिलाओं के लिए अंतिम गंतव्य है और समाज के सबसे गरीब तबके से आने वाले परिवार की महिला भी यह मानने के लिए मजबूर है कि पति द्वारा पिटाई करना आदर्श है. घरेलू हिंसा अधिनियम-2005 से पहले शायद ऐसी फ़िल्मों का निर्माण सम्भव नहीं था. क्योंकि इससे पूर्व घरेलू हिंसा को हिंसा ही नहीं माना जाता था और इसको राज्य के हस्तक्षेप से परे निरा पारिवारिक मामला करार दिया जाता था जिसमें राज्य के हस्तक्षेप की पूर्णतः पाबंदी थी क्योंकि राज्य केवल राजनीतिक मामलों में दखलंदाजी दे सकता है और यह मामला राजनीतिक न होकर पूरी तरह से पारिवारिक है. सीमोन-द-बुआ ने ऐसी स्थिति को भाँपते हुए यह बताया राजनीति की शुरुआत ही परिवार नामक इकाई से शुरू होता है. इसीलिए उन्होंने “पर्सनल इज़ पोलिटिकल” की थियरी गढ़ी और अपनी किताब ‘द सेकेंड सेक्स’ में लिखती हैं कि “औरतें पैदा नहीं होती, बनाई जाती है”.

कमाल अमरोही के साथ मीना कुमारी 


थप्पड़ फ़िल्म के आने से पहले भी ऐसी घटनाएँ केवल सामान्य या निम्नवर्गीय परिवारों में ही नहीं घटती थीं वरन हिंदी सिनेमा के कई स्तम्भकारों के साथ ऐसी घटनाएँ घट चुकी हैं जिसकी गूँज घटित होने से लेकर आज तक नेपथ्य में ही रही है.

 ऐसा ही एक थप्पड़ सैयद अमीर हैदर कमल नकवी को उनके बड़े भई ने परिवार के एक वैवाहिक कार्यक्रम में उनकी शरारतों से तंग आकर उन्हें रशीद किया था जिसका परिणाम यह निकला की वे घर छोड़कर भाग गए और लौटे तो फिर मशहूर कहानीकार और निर्देशक कमाल अमरोही के रूप में जोकि अपनी तमाम शोहरत के साथ न केवल अमरोहा वरन हिंदी सिनेमा को भी गुलज़ार कर गए. लेकिन हिंदी सिनेमा में एक अहम थप्पड़ की घटना जिसनें इस सिनेमाई जगत से वक़्त से मीलों पहले अपना बेशकीमती कोहिनूर छीन लिया वह था मीना कुमारी को उनके पति कमाल अमरोही के दोस्त एवं मैनेजर बाकर अली का थप्पड़.

मीना कुमारी जिनका पैदाइशी नाम महज़बी था और हिंदी सिनेमा में जो मीना कुमारी नाम से मशहूर हुईं, ने जीवन के शुरुआती दिनों से ही पितृसत्तात्मक समाज की संरचनाओं से दंश झेलना शुरू किया जो उनकी मौत के बाद ही ख़त्म हो सका. आर्थिक दरिद्रता से जूझ रहे पिता अली बक़्श नें पहले तो बेटा ना पैदा होने के अफ़सोस में और दूसरे डॉक्टर गड्रे को उनकी फ़ीस देने में असमर्थ होने की वजह से उन्हें पैदा होते ही एक मुस्लिम अनाथालय में छोड़ आए परंतु नवजात शिशु के रोने की आवाज़ से दूर जाते समय अली बक़्श का दिल भर आया. वापास बच्ची के पास पहुंचे तो देखा कि नन्ही बच्ची के पूरे शरीर को चींटियाँ काट रहीं थीं. अनाथालय  अभी भी बंद था यह देखकर अली बक़्श अपनी चंद दिनों की बेटी को घर ले आए नन्ही-सी जान को साफ़ किया. समय के साथ-साथ शरीर के वो घाव तो ठीक हो गए किंतु मन में लगे बदकिस्मती के घावों ने अंतिम सांस तक मीना का साथ नहीं छोड़ा और यह वही मीना कुमारी हैं जिनको अली बक्श इस पितृसत्तात्मक रूढ़ि की वजह से नहीं अपनाना थे चाहते कि लड़का होता तो इस आर्थिक तंगी में बड़ा होकर घर-गृहस्थी चलाता, लड़की तो घर पर बोझ बनकर रह जाएगी परंतु चार साल की उम्र में बेबी मजहबी के दौर से अली बक्श की घर-गृहस्थी चलाने का जो बोझ उन्होंने अपने कंधे पर उठाया वह चौदह साल की उम्र में मीना कुमारी से लेकर 28 साल की ट्रेजेडी क्वीन और 38 साल की अल्पायु में मौत तक जारी रहा.


अपनी फिल्म अनारकली के लिए नायिका की तलाश कर रहे उस ज़माने के जाने-माने फिल्म निर्देशक एवं कहानीकार कमाल अमरोही को फिल्म तमाशा के निर्माता अशोक कुमार उन्हें एक दिन अपने सेट पर बुलाते हैं और उनकी मुलाक़ात अपनी फ़िल्म की अदाकारा मीना कुमारी से कराते हैं. मीना का अभिनय देखकर वे उन पर मुग्ध हो जाते हैं. इसी दौरान परिवार के साथ पिकनिक मनाकर लौट रहीं मीना कुमारी के साथ महाबलेश्वरम के पास एक सड़क दुर्घटना हो जाती है. जिसके बाद मीना अगले दो माह तक बम्बई के ससून अस्पताल में भर्ती रहीं. दुर्घटना के अगले ही दिन अख़बार में समाचार देख कमाल उनका हालचाल पूछने पहुँचे. और इन दो महीनों में कमाल मीना से लगातार मिलते रहे और दोनों में प्रेम संबंध स्थापित हो गया. फलतः 14 फरवरी 1952 को 19 वर्षीय मीना कुमारी ने पहले से दो बार शादीशुदा 34 वर्षीय कमाल अमरोही से अपनी छोटी बहन मधु, कमाल के दोस्त और मैनेजर बाक़र अली, क़ाज़ी और गवाह के तौर पर उसके दो बेटों की उपस्थिति में अपने पिता को बताए बग़ैर निक़ाह कर लिया. निकाह के बाद भी दोनों पति-पत्नी अपने-अपने घर रहने लगे मीना दिन में फ़िल्मों की शूटिंग करती और रात-रात भर अपने शौहर कमाल से बातें करने लगीं जिसे एक दिन नौकर ने सुन लिया और अली बक़्श को बता दिया. 

बस फिर क्या था, मीना कुमारी पर पिता ने कमाल से तलाक लेने का दबाव डालना शुरू कर दिया. मीना ने तलाक़ लेने से मना कर दिया. परंतु इसी दौरान अली बक़्श ने फिल्मकार महबूब खान को उनकी फिल्म अमर के लिए मीना की डेट्स दे दीं परंतु मीना अमर की जगह पति कमाल अमरोही की फिल्म दायरा में काम करना चाहतीं थीं. इसपर पिता ने उन्हें चेतावनी देते हुए कहा कि यदि वे पति की फिल्म में काम करने जाएंगी तो उनके घर के दरवाज़े मीना के लिए सदा के लिए बंद हो जाएंगे. 5 दिन अमर की शूटिंग के बाद मीना ने फिल्म छोड़ दी और दायरा की शूटिंग करने चलीं गईं.

उस रात पिता ने मीना को घर में नहीं आने दिया और मजबूरी में मीना पति के घर रवाना हो गईं और यहीं से मीना की ज़िंदगी में पितृसत्तात्मक दुश्वारियों ने अपने कदम तेज़ कर दिये. शादी की खबर सार्वजनिक होने और मीना के कमाल के घर में शिफ़्ट होने के बाद कमाल ने मीना पर पाबंदियाँ लगानी शुरू कर दीं. जिसका परिणाम यह हुआ कि, कमाल ने मीना को अपनी शर्तों पर जीने के लिए विवश करना शुरू किया. मीना को फ़िल्मों में काम करने की इजाज़त इस शर्त पर मिली कि वे अपने मेकअप रूम में उनके मेकअप आर्टिस्ट के अलावा किसी और पुरुष को नहीं बुलाएंगी और हर शाम 6:30 बजे तक केवल अपनी कार में ही घर लौटेंगी. मीना शुरू-शुरू में तो सभी शर्तों को मानती रहीं लेकिन समय बीतने के साथ वे इन बंधनों को तोड़ती रहीं. साहिब, बीबी और गुलाम के निर्देशक अबरार अल्वी बताते हैं कि कमाल अपने दोस्त व मैनेजर बाकर अली को मीना पर निगाह रखने के लिए मेकअप रूम के अंदर रखते थे. 5 मार्च 1964 को शाम में जब एक शॉट पूरा करने के लिए वह काम कर रहे थे, तब उन्हें रोती हुई मीना की आवाज़ सुनाई दी और उनके इस रोने का कारण बाकर अली का मीना कुमारी को वह थप्पड़ था जो बाकर अली ने मीना को गुलज़ार को अपने मेकअप रूम में आने की इजाज़त के एवज़ में रशीद किया था. 

मीना ने कमाल को फ़ौरन फिल्म के सेट पर आने के लिये कहा लेकिन कमाल नहीं आए. इसके बजाय कमाल नें मीना को घर आने के लिए कहा ताकि इस मामले को सुलझाया जा सके. मीना नाराज़ हो गईं और कमाल के यहाँ जाने की बजाय अपनी बहन मधु के घर गईं और जब कमाल उन्हें वापस लाने के लिए गए तो उन्होंने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया और कमाल से बात करने से इनकार कर दिया. उसके बाद कमाल नें मीना को कभी अपने घर में वापस लाने की कोशिश नहीं की और न ही मीना कुमारी वापस लौटीं. सनद रहे कि यह वही कमाल हैं जो छोटी सी उम्र में अपने वालिद समान बड़े भाई की थप्पड़ की मार से इतने नाराज़ हो गए कि घर छोड़कर लाहौर चले गए और कई सालों बाद अपने घर वालों की तमाम मिन्नतों के बाद घर वापस भी आए तो महज़ आयोजनों में शामिल होने के लिए. वहीं मीना की मृत्यु के बाद फूल खिले हैं गुलशन गुलशन कार्यक्रम पर जब तबस्सुम ने कमाल अमरोही

से मीना कुमारी के बारे में पूछा तब अमरोही ने मीना को 

"एक अच्छी पत्नी नहीं बल्कि एक अच्छी अभिनेत्री के रूप में याद किया, जो खुद को घर पर भी एक अभिनेत्री मानती थी."

 लेकिन इसके परोक्ष देखें तो 35 वर्ष की उम्र में कमाल जहां तीसरी शादी करने के बाद खुद को सफल पति मान रहे हैं वहीं मीना इतनी पाबंदियों के बाद भी तक़रीबन 12 वर्ष कमाल के साथ रहीं और इन दिनों की बात करें तो कमाल की बेटी रुख़्सार अमरोही एक टी वी इंटरव्यू में बताती हैं कि मीना सदैव उनसे अपने बच्चे जैसा प्यार करती थीं और उनकी माँ को आपा कहकर पुकारती थीं. बक़ौल रुख़्सार मीना के घर में रहते न तो उनको और न ही उनकी माँ को कभी भी सौतन या सौतेली माँ जैसा अहसास हुआ और मीना ताउम्र अपने शौहर और उनकी पहली पत्नी का एहतराम करती रहीं. मीना कमाल का घर छोड़ने के बाद भी मरते दम तक उनकी पत्नी रहीं और मरते समय यही इच्छा ज़ाहिर की वह कमाल की बाहों में अपना दम तोड़ें, बावजूद इसके कमाल यह मानते रहे कि मीना एक अच्छी पत्नी नहीं थीं.


मीना का एक कठोर पुरुषत्व वादी सोच से राबता 1963 में पुनः अपने शौहर कमाल के रूप में हुआ, जब साहिब, बीबी और गुलाम को बर्लिन फिल्म समारोह में भारतीय प्रविष्टि के रूप में चुना गया और इस फ़िल्म में बेहतरीन अभिनय के कारण मीना को फ़िल्म के प्रतिनिधि के रूप में बर्लिन जाने के लिए कहा गया. तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री सत्य नारायण सिन्हा ने दो टिकटों की व्यवस्था की एक मीना कुमारी के लिए और दूसरा उनके पति के लिए लेकिन कमाल अमरोही ने अपनी पत्नी के साथ जाने से इनकार कर दिया जिस कारण बर्लिन की यात्रा कभी नहीं हुई. यहाँ जे एस मिल की यह धारणा मजबूत होती है कि स्त्रियाँ बौद्धिक क्षमता में पुरुषों से कदापि पीछे नहीं हैं और यह उनकी सामाजिक पराधीनता ही है जो उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व और सर्जनात्मकता को कुचलकर रख देती है. मिल के इस कथन की पुष्टि इस एक और घटना से होती है कि इरोस सिनेमा में एक प्रीमियर के दौरान सोहराब मोदी ने मीना कुमारी और कमाल अमरोही को महाराष्ट्र के राज्यपाल से मिलवाया. सोहराब मोदी ने कहा

"यह प्रसिद्ध अभिनेत्री मीना कुमारी हैं और यह उनके पति कमाल अमरोही हैं. बधाई लेने से पहले ही कमाल का पुरुषत्व जाग गया और उन्होंने कहा कि, नहीं मैं कमाल अमरोही हूं और यह मेरी पत्नी प्रसिद्ध अभिनेत्री मीना कुमारी हैं.”

 और यह कहते हुए कमाल अमरोही सभागार से चले गए.

 मीना कुमारी को नींद न आने की बीमारी थी जिसके लिए वह नींद की दवाइयां लिया करती थीं. 1963 में  डॉक्टर ने उन्हें नींद के लिए ब्रांडी का एक छोटा पैग पीने की सलाह दी और यहीं से उन्होंने शराब पीना शुरू किया लेकिन उन्हें शराब की लत तब लगी जब 5 मार्च 1964 को शाम में साहब, बीबी और ग़ुलाम के सेट पर बाकर अली नें उन्हें थप्पड़ मारा और कमाल इस थप्पड़ को महज़ एक थप्पड़ मानकर उस रात के बाद मीना को समझाकर या उनसे माँफी माँगकर कभी उन्हें अपने घर न ला सके. जिसकी परिणति यह हुई कि कमाल से अलग होने के बाद मीना शराब के नशे में खो गई. गम भूलाने के लिए वह शराब के नशे में डूबी रहने लगीं. महज 38 साल की उम्र में महजबीं उर्फ मीना कुमारी खुद-ब-खुद मौत के मुँह में चली गईं. हिंदी सिनेमा की ट्रेजेडी क्वीन की इस अकाल मौत के लिए अगर किसी को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है तो सबसे पहला नाम बाकर अली का होगा, जिन्होंने मीना पर नजर रखने की पुरुषत्व वादी सोच को जब गुलज़ार के उनके वैनिटी वैन में आ जाने से झटका लगा तो इसे और मजबूत करने के लिए मीना को थप्पड़ जड़ दिया. जो उस जमाने की मशहूर अदाकारा मीना कुमारी, जिनके अभिनय के आगे सारे पुरुष अभिनेता असहज हो जाते थे के स्त्री स्वाभिमान को नागवार गुजरा और उन्होंने कमाल से अलग रहने में ही अपने स्त्री अधिकारों का औचित्य समझा परंतु वो यह अलगाव बर्दाश्त न कर पाईं और महज 38 साल की उम्र में 31 मार्च 1972 को इस दुनिया से अलविदा कह दिया.

_____________________

निशांत यादव
राजनीति विज्ञान विभाग
सत्यवती महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय
nishantyadav.du@gamil.com

2/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. बेहतरीन लेख , कुछ फिल्में समाज का दर्पण होने का दावा करती क्योकि उनकी अदायगी में सामाजिकता का धार जुड़ा होता है। लेकिन वह सामाजिकता किस राह पर आकर खड़ी है, इसका परीक्षण अभी बाकी है। इसी बाकी सफ़र की शुरुआत की ओर ध्यान दिलाता यह लेख । बधाई हो निशांत जी










    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.