स्मृति : भीमसेन त्यागी : मोहन गुप्त


कथाकार भीमसेन त्यागी पर यह स्मृति आलेख मोहन गुप्त ने लिखा है. इस आलेख में साहित्य, प्रकाशन और संघर्ष का पूरा एक युग समाया हुआ है. भीमसेन त्यागी को समझने में इस आलेख की केन्द्रीय भूमिका रहेगी. 

कोई कैसे साहित्यकार बनता है? और इस बनने में वह कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे टूटता है ? 

इस आलेख को पढ़िये. कभी-कभी दो लेखकों की ऐसी दोस्ती देखने को मिलती है और ऐसा लेख भी. 



भीमसेन त्यागी स्मृति

प्यास मेरी जो बुझ गई होती

मोहन गुप्त

 

 

भीमसेन के रहते कभी यह सोचने का अवकाश ही नहीं मिला था कि एक दिन मुझे भी उसकी यादों को शब्दों में पिरोना पड़ेगा. उसने अलबत्ता मेरे और अपने संबंधों को लेकर एक तवील, सामान्य किताब के तक़रीबन अस्सी-नब्बे पृष्ठों का, संस्मरण लिखा था, और मेरे बारे में ही क्यों, जगदीश सविता के बारे में भी तक़रीबन इतनी ही लंबाई का एक अंतरंग संस्मरण उसने लिखा था, लेकिन इसे दुर्भाग्य कहें या संयोग, उसकी दिल्ली-मुंबई यात्रा के दौरान किसी ने उसका सूटकेस चुरा लिया, जिसमें इन दोनों संस्मरणों के अलावा और कई महत्वपूर्ण रचनाओं की पांडुलिपियाँ थीं. यह घटना उसके जाने से लगभग सात साल पहले की है, लेकिन मैं जानता हूँ कि ज़िंदगी के आख़िरी दिन तक वह इन पांडुलिपियों के गुम हो जाने को लेकर कितना व्यथित रहा. हालाँकि एक तरीक़े से वह हमें और अपने-आपको भी बराबर आश्वस्त करता रहता था. यह शायद उसके निधन से दो-एक महीने पहले की बात है. एक दिन मैं उसके साथ बैठकर उसकी ग्रंथावली की योजना बना रहा था. मैंने हिसाब लगाकर बताया, ‘‘कुल छह खंड बनेंगे.’’

मैंने जो रूपरेखा बनाई थी, उस पर सरसरी नज़र डालने के बाद वह बोला, ‘‘नहीं मोहन, संस्मरणों का भी तो एक खंड होगा!’’

‘‘कैसे होगा, यार! सुदर्शन चोपड़ा को लेकर लिखा गया तेरा एक ही संस्मरण बचा है और वह भी, मार्मिक होने के बावजूद, उतना तवील नहीं है...’’

उसने तुरंत मेरी बात काटते हुए कहा, ‘‘क्यों, हरिपाल त्यागी का संस्मरण है, रामावतार त्यागी का भी है!’’

‘‘लेकिन यह सब ज्य़ादा-से-ज्य़ादा पैंतालिस-पचास पृष्ठों की सामग्री होगी. क्या तू समझता है कि इतनी सामग्री से ग्रंथावली का एक खंड बन जाएगा?’’

‘‘नहीं बनेगा, मैं जानता हूँ. लेकिन तू चिंता क्यों करता है. सविता के और तेरे संस्मरणों के नोट्स हैं मेरे पास. उनके आधार पर मैं जल्दी ही दोनों संस्मरण दोबारा लिख दूँगा.’’

वह इन दो संस्मरणों के बारे में ही नहीं, ‘ज़मीन’ के दूसरे खंड के बारे में भी बड़े विश्वास के साथ कहा करता था,

‘‘तू देखना मोहन, यह सब एक साल का प्रोग्राम है. ‘ज़मीन-2’ के छह-सात चैप्टर तो मैंने लिख भी लिए हैं. बेशक इनका अभी पहला ड्राफ़्ट ही लिखा गया है, लेकिन तू मेरी स्पीड जानता है. मेरे सिर पर जब लिखने का जुनून सवार होता है, तो मैं रोज़ाना पंद्रह-बीस पेज की स्पीड से लिखता हूँ और मेरे हाथ के लिखे पंद्रह-बीस पेज का मतलब है किताब के आठ-दस पेज. अब तू हिसाब लगा ले कि मैं अगर एक महीना भी जम गया, तो ढाई-तीन सौ पेज लिखकर हटूंगा.’’

मैं जानता हूँ उसने ग़लत नहीं कहा था. उसकी क्षमताओं से मैं पूरी तरह वाक़िफ़ रहा हूँ. मुझे वह दिन याद है जब 1959-60 में कुछ पारिवारिक परिस्थितियों के चलते उसे अज्ञातवास में रहना पड़ा था और अज्ञातवास का वह लगभग एक साल उसने मेरे कलकत्ता के बेहाला-स्थित निवास में और ‘ज्ञानोदय’ के ख्यातिलब्ध संपादक जगदीशजी के टालीगंज-स्थित निवासस्थान ‘शहर थेके दूरे’ में बिताया था. शुरू के लगभग तीन-चार महीने वह मेरे घर में रहा, फिर जगदीशजी के आग्रह पर उनके पास चला गया, लेकिन वहाँ उसका मन ज्य़ादा नहीं रम सका, तो कुछ दिनों बाद मेरे पास ही लौट आया था. यह शुरू के महीनों की बात है जब उसने बेहाला के घर में रहकर अपनी जिंदगी की पहली बड़ी कहानी लिखी थी, शीर्षक रखा था- ‘गरजती लहरें’. यों कहानियाँ उसने पहले भी लिखी थीं, लेकिन वह हाथ साफ़ करने के लिए किया गया या फिर कमर्शियल काम था, जिसे उसने अपने सर्जनात्मक लेखन में कभी शुमार नहीं किया.

‘गरजती लहरें’ कहने को कहानी थी, मगर इसका कलेवर एक लघु उपन्यास के बराबर था, मुद्रित रूप में लगभग एक सौ पृष्ठों का होता, और यह रचना उसने महज़ दस-बारह दिनों में पूरी कर दी थी. मुझे अच्छी तरह याद है कि वह दिसंबर का महीना था. माना कि कलकत्ता में कड़ाके की ठंड नहीं होती, मगर होती तो है. वह पहला दिन था जब उसने यह कहानी लिखनी शुरू की थी. मैं शाम को दफ़़्तर से लौटा, क़रीब सात बजे, तो उर्मिला इशारे से मुझे दूसरे कमरे में ले गई और फुसफुसाते हुए बोली, ‘‘यह भाई साहब को क्या हो गया है!’’

मैंने थोड़े चिंतित स्वर में पूछा, ‘‘क्यों, क्या हुआ?’’   

‘‘क्या बताऊँ! इतनी सरदी है और ये दिन-भर सिर पर गीला तौलिया लपेटकर लिखते रहे! यह तो बीमारी को न्यौता देकर बुलाना है!’’

उर्मिला की चिंता स्वाभाविक थी, लेकिन मुझे भीमसेन की रचना-प्रक्रिया का कुछ अंदाज़ा था, इसलिए मैंने हल्के से मुस्कुराकर कहा,

‘‘तेज़ बुख़ार में डाक्टर माथे पर बऱफ की पट्टियाँ रखने की सलाह देता है न! बस, यह भी तेज़ बुख़ार की गिरफ़्त में है. चिंता मत करो, कहानी पूरी होते ही सब ठीक हो जाएगा.’’

हुआ भी यही. कहानी पूरी होते ही भीमसेन सामान्य हो गया. लेकिन शुरुआती दौर में लिखी गई वह कहानी निहायत रोमांटिक थी, जिसे हम कलात्मक चित्रों के साथ भव्य आकार-प्रकार में प्रकाशित करना चाहते थे, अपने स्वयं के प्रकाशन की पहली पुस्तक के रूप में. उस वक़्त हमारी दृष्टि में वह एक अनमोल रचना थी, जिसके प्रकाशित होते ही साहित्य-जगत में तहलका मचना अवश्यंभावी था. लेकिन प्रकाशन शुरू करने का प्रस्ताव कुछेक साल तक टलता रहा. इसी बीच उसने एक उपन्यास और लिखा, जिसकी आधारशिला जनवरी 1957 में ही रख दी गई थी. मैं उन दिनों मेरठ कॉलेज में एम.ए. (हिंदी) का छात्र था और वहाँ के ‘न्यू होस्टल’ का कमरा नंबर सैंतालिस मेरी रिहायशी पहचान हुआ करता था. हमारा एक रतजगा उसी कमरे में हुआ था और भीमसेन के उस पहले उपन्यास की विषयवस्तु पर लंबी बहस के बाद उसकी विस्तृत रूपरेखा, बाक़ायदा अध्याय-विभाजन के साथ, लिखकर तैयार की गई थी. शीर्षक तय किया गया था-‘वीणा’. 

इस उपन्यास का लेखन पूरा होते ही प्रकाशन का विचार फिर ज़ोर-शोर से सामने आया, तो भीमसेन ने दोनों किताबों की पांडुलिपियाँ अंतिम रूप से तैयार करते समय ‘गरजती लहरें’ को बदला हुआ शीर्षक दिया, ‘रेत के फूल’. मगर अफ़सोस! न उस समय प्रकाशन की कल्पना साकार हो सकी और न इन दोनों पुस्तकों का प्रकाशन हुआ. जहाँ तक ‘रेत के फूल’ का सवाल है, उस समय इसका प्रकाशित न होना शायद अच्छा ही हुआ, क्योंकि समय बीतने के साथ महसूस किया गया कि इस रचना में तरुणाई का आवेश था, भावुकतापूर्ण कच्चापन था. बहुत बाद में, सन् 2004 में इस रचना का बड़ी बेरहम कतर-ब्योंत व संशोधन-परिवर्तन के साथ नया अवतार हुआ ‘त्रिशंकु’ कहानी के रूप में, जो ‘कमज़ोर प्यार की कहानियाँ’ नामक संग्रह में शामिल है.

‘वीणा’ शीर्षक उपन्यास का मामला थोड़ा अलग था. विवाह-संस्था पर तमाम तरह के प्रश्नचिह्न लगाती इसकी विषयवस्तु हमारे एक परम आत्मीय एवं समवयस्क मित्र के जीवन की यथार्थ घटनाओं पर मूलतः,  जैसा कि मैंने पहले कहा, 1957 में परिकल्पित की गई थी और उपन्यास का पहला ड्राफ़्ट भी 1961 के आसपास लिख लिया गया था. उस वक़्त के लिहाज़ से औरत के अस्तित्व और उसकी अस्मिता की बात करना तथा विवाह-संस्था को नकारना क्रांतिकारी विचार थे, किंतु लगभग पैंतालिस साल बाद इसका प्रकाशन हुआ, तो इसमें क्रांतिकारी होने जैसा कुछ नहीं रह गया था. यहाँ  सवाल उठना स्वाभाविक है कि भीमसेन इसके प्रकाशन को टालता क्यों रहा? इसका एक ही जवाब हैवह विषयवस्तु के ट्रीटमेंट से संतुष्ट नहीं था और बराबर इसकेपुनरालेखन की बात सोचता रहा, जिसकी इजाज़त परिस्थितियों ने उसे नहीं दी.

मेरे ‘राजकमल प्रकाशन’ में रहते जब उसकी एक-के-बाद-एक पाँच किताबें प्रकाशित हुईं और मैंने उस पर यह उपन्यास प्रकाशन के लिए देने का दबाव डालना शुरू किया, तो वह बराबर यही कहता रहा कि इस महत्वपूर्ण विषयवस्तु पर अब मैं कच्चा हाथ नहीं डालना चाहता, इस पर तो फ़ुरसत में ही जमकर काम करूँगा. मगर ऐसा कहते हुए उसने कभी यह नहीं सोचा कि समय के साथ उपन्यास की विषयवस्तु बासी होती जा रही है. अंततः जब उसने इसे प्रकाशन के लिए दिया, तो संतुष्ट होकर नहीं बल्कि एक मजबूरी के चलते. घर-परिवार की ज़रूरतें पूरी करने के लिए उसने एक प्रकाशक से उपन्यास देने का वादा करके अग्रिम ले लिया था. अग्रिम तो ले लिया, किंतु बदले में देने के लिए उपन्यास कोई था नहीं. फलतः उसने इस उपन्यास की पांडुलिपि को माँजना शुरू किया और प्रकाशकीय तक़ाज़ों से तंग आकर एक दिन पूरी तरह संतुष्ट न होते हुए भी वह प्रकाशक महोदय को सौंप दी गई. इसके पीछे एक कारण शायद यह भी था कि प्राणलेवा बीमारी के चलते उसे जीवन की अंतिम वेला समीप आती लगने लगी थी और उसने चीज़ों को समेटना शुरू कर दिया था.

बहरहाल, यह उपन्यास प्रकाशन के लिए देकर भी इससे भीमसेन के असंतुष्ट रहने का एक प्रमाण अंत-अंत तक इसके शीर्षक बदलते रहने में निहित है. मूलतः ‘वीणा’ शीर्षक से परिकल्पित यह उपन्यास प्लास्टिक सर्जरी कराकर पहले ‘काठबँगला’ बना, पांडुलिपि प्रकाशन के लिए देते वक़्त इसका नाम रखा गया ‘सुरंग’ और अंततः प्रकाशित हुआ ‘वर्जित फल’ शीर्षक से.

 

(दो)

यह लो, मैं भी कहाँ-से-कहाँ चला गया! बात हो रही थी भीमसेन के लेखकीय जुनून की और मैं यादों की भूलभुलैया में खो गया. लेकिन कहाँ तक बचूँगा इन यादों से! ज़िंदगी के असंख्य पल उसके साथ बिंधे हुए हैं! कैसे अलग कर दूँ अपने से उन पलों को, जो मेरे शरीर की धमनियों में रक्त बनकर दौड़ रहे हैं! और फिर, यादें तो यादें हैं. बेलगाम घोड़े-जैसी. उन पर किसी का बस नहीं होता. मैंने ज़िक्र किया ‘न्यू होस्टल’ के रतजगे का और मुझे याद आ गई विदा की वह अंतिम रात, जब मेरी देह का आधा हिस्सा बाहर के कमरे में बर्फ़ की सिल्लियों पर लेटा हुआ था और आधा हिस्सा अंदर के कमरे में, जहाँ वह अपना लेखन किया करता, संज्ञा शून्य-सा बैठा था. रात के बारह बजे होंगे. तभी विक्की-उसका...नहीं...हमारा बेटा---आया और बोला, ‘‘अंकल, थक गए होंगे. कुछ देर की नींद ले लो.’’ और मेरे मुँह से अनायास निकल गया

‘‘नहीं बेटे, इस आदमी ने ज़िंदगी-भर बेशुमार रतजगे कराए हैं. आज इसके साथ मुझे यह आखिऱी रतजगा कर लेने दो.’

मेरा जवाब सुनकर विक्की चुपचाप कमरे से बाहर चला गया और मैं जागता रहा, जागता रहा रात-भर और करता रहा यादों की जुगाली...

 

(तीन)

अगस्त 1954 की बात है. मैं मुज़फ़्फ़़रनगर के सनातन धर्म कॉलेज में बी.ए. के दूसरे वर्ष का छात्र था और क्लासेज़ के अलावा अपना बेशतर वक़्त लाइबे्ररी में बिताया करता था. उस दिन मेरे साथ वहाँ जगदीश सविता भी था. वह मेरे बग़ल की कुरसी पर बैठा किसी किताब के पन्ने पलट रहा था और मैं भी कोशिश कर रहा था अपने सामने रखी किताब पर ध्यान केंद्रित करने की, मगर न जाने क्यों मन एकाग्र हो नहीं पा रहा था. अन्यमनस्कता की स्थिति में मैंने इधर-उधर देखा, तो अचानक मेरी नज़र सामने की क़तार में बैठे एक लड़के पर गई. सफ़ेद गाढ़े का कुरता, कंधे से नीचे कमर तक लहराते लड़कियों जैसे बाल, आँखों पर मोटे फ्ऱेम का चश्मा. वह पढ़ने में तल्लीन था. मुझे उसकी पूरी रूपरेखा दिलचस्प लगी. मैं अपने कुतूहल को रोक नहीं सका और उसकी तरफ़ इशारा करके बोला, ‘‘इस जंतु को देखो, सविता भाई! लगता है किसी चिडिय़ाघर से भागकर आया है!’’

‘‘अरे, तुम इन्हें नहीं जानते? निर्ममजी हैं!’’ सविता ने कुछ ऐसे लहज़े में कहा, जैसे उन्हें न जानकर मैंने कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया था. लेकिन मेरा कुतूहल अब और बढ़ गया, क्योंकि सामनेवाला किसी भी लिहाज़ से निर्मम नहीं लगता था और उसकी आकृति निहायत सौम्य थी.

‘‘तुम इन्हें कैसे जानते हो? क्या पुराना परिचय है?’’

दरअसल बात यह थी कि सविता एक साल पहले मुज़फ़्फ़़रनगर से बी.ए. पास करके इलाहाबाद चला गया था और अंग्रेज़ी में एम.ए. करने के लिए उसने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाख़िला ले लिया था. मगर बीमारी के चलते पहले ही वर्ष वह परीक्षाओं में नहीं बैठ पाया और अब प्राइवेट इम्तहान देने का इरादा करके मुज़फ़्फ़़रनगर लौट आया था. ऐसी स्थिति में मेरे लिए यह आश्चर्यजनक ही था कि कालिज में एक-डेढ़ महीना पहले दाख़िला लेनेवाले एक नए छात्र को वह जानता है. उसने मेरी जिज्ञासा शांत करते हुए कहा, ‘‘आनंद भाई (आनंदप्रकाश गर्ग) की बैठक में मुलाक़ात हुई थी, यही कोई चारेक महीने पहले.’’

मेरा कुतूहल अब आग्रह में बदल गया और मैंने इशारे-इशारे में कहा कि इन्हें बाहर बुलाकर इनके साथ बाक़ायदा तआर्रुफ़ कराओ.

कॉलेज में बहुत अच्छे लान थे, छायादार पेड़ थे. उन्हीं में से एक लान में हम बैठे और सविता ने कहा, ‘‘ये भीमसेन त्यागी ‘निर्मम’ हैं, कविताएँ लिखते हैं और ‘निर्माण’ साप्ताहिक का संपादन कर चुके हैं.’’ फिर उसने निर्ममजी को मेरा परिचय दिया और बोला, ‘‘अब आप लोग बातें करो, मैं चलता हूँ.’’

सविता के जाते ही निर्ममजी ने सवाल दागा, ‘‘आपके प्रिय कवि कौन हैं?’’

मुझे सोचने की ज़रूरत नहीं पड़ी और मैंने तपाक् से कह दिया, ‘‘बच्चन और नरेंद्र शर्मा!’’

‘‘तो हाथ मिलाओ प्यारे! हम दोनों की ख़ूब जमेगी. मेरे प्रिय कवि भी यही हैं.’’

हाथ मैंने मिला लिया, लेकिन उस वक़्त मुझे पता नहीं था, शायद उसे भी पता न हो, कि बात इतनी आगे तक जाएगी. नरेंद्र शर्मा का ‘प्रवासी के गीत’ उन्हीं दिनों मेरे हाथ लगा था और जब मैंने निर्ममजी को इसके बारे में बताया, तो वे शाम होते-न-होते मेरे कमरे पर आ धमके. मैं उन दिनों द्वारकापुरी में किराए के एक कमरे में रहता था. आते ही बोले, ‘‘आज नरेंद्र शर्मा के साथ रतजगा होगा.’’

मैंने कहा, ‘‘ऐसी-की-तैसी नरेंद्र शर्मा की. आज रतजगा होगा तो सुधीर खास्तगीर के साथ.’’

सुधीर खास्तगीर शांतिनिकेतन स्कूल के माने हुए चित्रकार थे और ‘प्रवासी के गीत’ के मुखपृष्ठ पर उनका एक अत्यंत भावपूर्ण रेखांकन प्रस्तुत किया गया था, जिसने मुझे उतना ही प्रभावित किया, जितना नरेंद्र शर्मा के गीत प्रभावित करते थे. निर्ममजी ने वह रेखांकन पहले देखा नहीं था. मैंने दिखाया, तो विभोर हो गए. नतीजा यह कि नरेंद्र शर्मा को भूलकर हम सुधीर खास्तगीर के हो रहे. आज शायद कोई विश्वास नहीं करेगा, ख़ुद मुझे विश्वास नहीं होता, कि हम दोनों ने सुधीर खास्तगीर के उस रेखाचित्र को सामने रखकर पूरी रात पलकों में काटी थी. मैं नहीं कह सकता कि उस चित्र में क्या जादू था! वह उस चित्र का ही जादू था या नरेंद्र शर्मा के गीतों का भी उसमें कुछ योगदान था!

जो भी हो, वह भीमसेन त्यागी ‘निर्मम’ और मोहनलाल गुप्त का पहला रतजगा था. जी हाँ, उस ज़माने में यह बंदा इस लंबे नाम से ही जाना जाता था. वह तो पाँच-छह साल बाद की बात है जब इसे इलहाम हुआ कि अल्लाह मियाँ ने इसका रंग लाल नहीं, कुछ और ही बनाया है, तो इसने अल्लाह मियाँ की मरज़ी में दख़लंदाज़ी न करने का फ़ैसला करते हुए अपने नाम को छोटा कर लिया, मोहन गुप्त, ठीक उसी तरह जैसे भीमसेन त्यागी ‘निर्मम’ सिर्फ़ भीमसेन त्यागी रह गए.

 

(चार)

भीमसेन बी.ए. के पहले साल में दाख़िल हुआ था और मेरा वह दूसरा साल था. इसका यह मतलब नहीं कि वह उम्र में मुझसे छोटा था. बातों-बातों में पता लगा कि उसके पैदा होने की तारीख़ 19 सितंबर 1935 है जबकि मेरी 27 सितंबर 1935 यानी वह मुझसे छोटा नहीं बल्कि एक सप्ताह बड़ा ही है. फिर पढ़ाई में एक साल पीछे कैसे रह गया? मैंने जब यह जानना चाहा, तो उसने रहस्योद्घाटन किया,

‘‘मैं अपने गाँव बुढ़ाना से हाईस्कूल पास करके मुज़फ़्फ़रनगर आया था आगे की पढ़ाई करने के लिए ही, मगर इंटरमीडिएट में पढ़ते हुए कुछ तो पत्रकारिता का शौक़ और कुछ मेरे आर्थिक हालात मुझे ‘देहात साप्ताहिक’ में ले गए, जो इस शहर का ट्रेडिल मशीन पर छपनेवाला स्थानीय समाचारपत्र है. वहाँ संपादन का तो कुछ अनुभव हुआ, लेकिन पत्र की रीति-नीति मुझे रास नहीं आई. उसमें कई तरह के घोटाले थे, तो जल्दी ही वहाँ से मन ऊब गया. मैंने तय किया कि अब अपना ही पत्र निकालूँगा और ‘निर्माण साप्ताहिक’ शुरू किया, जिसका पहला अंक पहली जनवरी 1954 को प्रकाशित हुआ था.’’                        

उसकी दास्तान दिलचस्प थी. मैंने महसूस किया कि यह लड़का महत्वाकांक्षी होने के साथ-साथ दुस्साहसी भी है, क्योंकि पढ़ाई की क़ीमत पर और आर्थिक परेशानियों के बीच एक अनिश्चित भविष्यवाला साप्ताहिक निकालना और वह भी सिर्फ़ सत्रह साल तीन महीने की उम्र में, तो इसे दुस्साहस के अलावा और क्या कहा जाए! मगर ऐसे दुस्साहस वह जिंदगी-भर करता रहा.

‘निर्माण’ के कुल सात अंक निकले, जिन्हें संपादकीय दृष्टि तथा संपादन-कला के लिहाज़ से लगभग पचास साल बाद निकलनेवाले ‘भारतीय लेखक’ की प्रारंभिक प्रयोगशाला कहा जा सकता है. पहले ही अंक में उसने पत्र के प्रकाशन का जो उद्देश्य घोषित किया था, वह इस बात का प्रमाण है कि उसकी दृष्टि उसी समय से स्पष्ट थी और उसका विश्वास प्रतिबद्ध पत्रकारिता में था.

बहरहाल, सात अंक निकलने के बाद पत्र बंद हो गया, तो भीमसेन को पढ़ाई का ख़याल आया और उसने सनातन धर्म कॉलेज में बी.ए. के पहले साल में दाखि़ला ले लिया. उसके विषय थेहिंदी साहित्य, संस्कृत साहित्य तथा राजनीतिशास्त्र, जबकि मैंने हिंदी साहित्य तथा संस्कृत के साथ अंग्रेज़ी साहित्य ले रखा था. तो यहाँ भी हमारा एक और साझा रुचि का विषय हो गयासंस्कृत. हममें से किसी एक का भी कोई पीरियड ख़ाली होता, तो दूसरा अपनी क्लास छोड़ देता और दोनों जम जाते बाहर लान में किसी छायादार पेड़ के नीचे. कविताएँ सुनी-सुनाई जातींकुछ अपनी लिखी हुई और कुछ अपने प्रिय कवियों की, कालिदास की सौंदर्य-भावना पर बात होती और लतीफ़ेबाजिय़ां चलतीं. लतीफ़े ज्य़ादातर वही सुनाया करता, मैं तो बस लतीफ़ों का मूक श्रोता ही रहता था.

धीरे-धीरे हमारी दिलचस्पी के दायरे बढ़ते जा रहे थे. एक दिन पता लगा कि मंटो उसका प्रिय कहानीकार है. मेरी बाछें खिल गईं, ‘‘यार भीमसेन, कमाल है!’’

भीमसेन मेरी बात को एकबारगी नहीं समझ पाया. उसने थोड़ा हैरान होते हुए पूछा, ‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘मंटो साले का मैं भी आशिक हूँ, यार!’’

‘‘सच! यह तो वाक़ई कमाल हो गया!’’ फिर कुछ रुककर बोला, ‘‘तूने इधर मंटो की कौन-सी कहानी पढ़ी है?’’

‘‘‘टोबाटेक सिंह’...‘कहानी’ के पिछले अंक’ में प्रकाशित हुई है.’’

‘कहानी’ उन दिनों की एक अत्यंत प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका थी, जिसके संपादक-प्रकाशक मुंशी प्रेमचंद के बड़े बेटे श्रीपत राय थे. इस पत्रिका ने उर्दू कहानियों के अनुवाद बड़े पैमाने पर प्रकाशित किए थे, ख़ासकर मंटो की कहानियों के, और मैं इसका नियमित ग्राहक-पाठक था. मेरी बात सुनकर भीमसेन बोला, ‘‘हाँ, वह अंक मेरे पास है... मैंने भी अभी हाल में यह कहानी पढ़ी है...’’और फिर हम ‘टोबाटेकसिंह’ के बहाने देर तक मंटो के पात्रों की इनसानदोस्ती और उनके सरोकारों की बात करते रहे थे.


 

(पांच)

हमारी दोस्ती की उम्र ने अभी सिर्फ पाँच महीने का फ़ासला तय किया था, मगर लगता था कि पाँच महीने नहीं, पाँच युग पुरानी है हमारी दोस्ती. इन पाँच महीनों में हमारे आधा दर्जन रतजगे हो चुके थे, जिनमें दुनिया-जहान की बातें हुई थींपढने के कार्यक्रमों से लेकर लेखन की योजनाओं तक अनगिनत विषयों पर हमने सरगर्मी से बहसें की थीं. मगर उन दिनों का एक दर्दीला रतजगा भुलाए नहीं भूलता. जनवरी 1955 की 18वीं तारीख ने साहित्य की दुनिया में अँधेरा कर दियाहमारा बेहद प्यारा कथाकार मंटो इस दुनिया से रुख़्सत हो गया था. ‘कहानी’ के अगले अंक में उसकी मौत पर कृशनचंदर लेख छपा, ‘ख़ाली बोतल भरा हुआ दिल’. पत्रिका मेरे पास डाक से आती थी. मिलते ही उसके पन्ने पलटे, तो कृशनचंदर का लेख सामने आ गया और मैंने उसे एक साँस में पढ़ डाला. भीमसेन लेख के बारे में सुन चुका था, लेकिन पत्रिका उसे नहीं मिली थी. वह भागा-भागा द्वारका पुरी पहुँचा मेरे पास. दिन ढल चुका था. रात गहराती जा रही थी, बाहर भी और हमारे दिलों में भी. खाना-पीना भूलकर हम बैठ गए और उस लेख को बाँचने लगे. शायद पहले मैंने बाँचना शुरू किया था. जैसे ही मैंने आख़िरी लाइन पूरी की, पत्रिका मेरे हाथ से छीनकर भीमसेन शुरू हो गया और इस तरह बारी-बारी से हमने कितनी बार उस लेख को बाँचा होगा, मैं कह नहीं सकता. बस, हम पढ़ते रहे थे और फफकते रहे थे और इस पढ़ने-फफकने में ही रात निकल गई थी. आज मुझे ख़ुद भी विश्वास नहीं होता कि हमने वाक़ई ऐसे दिन भी जिए थे!

 

(छह)

हमारी स्मृति में अनुभवों, विचारों और जीवन-प्रसंगों की इतनी बड़ी निधि संचित रहती है कि हम चाहकर भी उसकी थाह नहीं पा सकते. यही कारण है कि जब हम किसी प्रसंग-विशेष को उसकी समग्रता में याद करने की कोशिश करते हैं, तो मायामृग सरीखा वह पकड़ में नहीं आता और कई बार जो बात हमारी चेतना के धरातल पर नहीं होती, वह सहसा झाड़ी में छिपे खरगोश की तरह फुदककर सामने आ खड़ी होती है. भीमसेन की यादों को शब्दों में पिरोते समय मेरे साथ यही हो रहा है. मैं आनंदप्रकाश गर्ग की बैठक में होनेवाली साप्ताहिक गोष्ठियों की कार्यवाहियों को उनकी पूरी जीवंतता में याद करने की कोशिश कर रहा हूँ, पर सिर्फ़ इतना याद आ रहा है कि उन गोष्ठियों में अन्य कई व्यक्तियों के साथ आनंदप्रकाश गर्ग, जगदीशप्रसाद सविता, भीमसेन त्यागी ‘निर्मम’, आज के सुप्रसिद्ध कथाकार गिरिराज किशोर, हमारे एक और कहानीकार मित्र हृदयेश (आज के चर्चित कहानीकार हृदयेश नहीं) तथा मैं नियमित रूप से भाग लिया करते थे. भीमसेन उन गोष्ठियों में या तो विदेशी कहानियों के हिंदी अनुवाद या फिर कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की शैली में लिखे गए ललित निबंध अथवा कोई गीत सुनाया करता था. इसके अलावा कुछ भी याद नहीं आ रहान भीमसेन की सुनाई हुई कोई कहानी और न उसका कोई निबंध. लेकिन दूसरी तरफ़ विस्मृति के गर्त में खोया हुआ एक छोटा-सा प्रसंग सहसा मेरी आँखों के सामने सजीव हो उठा है: 

1955 की 10 फरवरीमेरी शादी की तारीख. बारात में भीमसेन भी शामिल है और अपनी विचित्र वेशभूषा तथा लंबी केशराशि के चलते बारातियों के साथ-साथ घरातियों यानी वधू-पक्ष के लोगों के लिए भी कुतूहल का विषय बना हुआ है. लेकिन इस मामले में मेरे पिताजी का व्यवहार एकदम अलग है. वे राधावल्लभ संप्रदाय के अनुयायी और परम वैष्णव थे. राधाष्टमी के अवसर पर मंदिर में नाचते-नाचते भावाविष्ट हो जाया करते. अतः भीमसेन का जो बाहरी व्यक्तित्व दूसरे लोगों के लिए मनोरंजन का विषय बना हुआ है, वह पिताजी के लिए सम्मानास्पद हो गया है. उन्हें भीमसेन के व्यक्तित्व में एक संत के दर्शन हो रहे हैं, उनके लिए वह ‘महाराज’ बन गया है. दोनों में ख़ूब छन रही है. कुछ वे उसकी सुन रहे हैं और कुछ उसे अपनी सुना रहे हैं. मैं पास ही बैठा हूँ जब वे कह रहे हैं:

‘‘ये जो जीवात्माएँ हैं न महाराज, ये सब एक परमात्मा से निकली हैंवही इनका नियंता है और उसी से ये अभिव्यक्ति पाती हैं.’’

कहते-कहते शायद उन्हें लगा है कि वे अपनी बात ठीक तरह से संप्रेषित नहीं कर पाए हैं तो रूपक पर उतर आते हैं,

‘‘बड़ा पावर-हाउस होता है न महाराज! पूरे शहर की गलियों और घरों के कुमकुमे (बल्ब) उसी से नियंत्रित हो रहे हैं, उसी से रौशनी पा रहे हैं... पावर हाउस न हो तो कुमकुमों में रौशनी ही नहीं होगी... तो परमात्मा वही पावर-हाउस है और जीवात्माएँ हैं कुमकुमे.’’

पिताजी को एक अच्छा श्रोता मिल गया है और भीमसेन पिताजी के रूप में एक ऐसे रोचक व्यक्तित्व के दर्शन कर रहा है, जिसमें अध्यात्म तथा भौतिक यथार्थ का अद्भुत संगम है; जो अकादमिक दृष्टि से ख़ास पढ़ा-लिखा न होने के बावजूद अपनी अनुभूतियों को कबीर की तरह ‘दरेरा देकर’ समझा सकता है. मगर इन दोनों की बैठकी ने गुल तब खिलाया, जब रात को फेरों की रस्म शुरू हुई. उस मौक़े पर वर के पिता की उपस्थिति अनिवार्य होती है, लेकिन वहाँ वर के पिता का दूर-दूर तक अता-पता नहीं. घराती-बराती सब परेशान. मैं समझ जाता हूँ कि पिताजी ‘महाराज’ के साथ सत्संग कर रहे होंगे. मेरा अनुमान सही सिद्ध होता है. सचमुच वे बारातघर में ‘महाराज’ के साथ उलझे हुए थे. आख़िर उन्हें उनकी चर्चा के बीच से उठाकर लाया जाता है और फेरों की रस्म संपन्न होती है.

 

(सात)

साहित्यिक पत्रकारिता और लेखन शुरू से ही भीमसेन के मुख्य सरोकार थे और वह महसूस करता था कि लेखकों का संपर्क इन सरोकारों को परवान चढ़ाने में खाद-पानी का काम करता है. नतीजतन वह किसी भी साहित्यकार से मिलने का मौक़ा हाथ से नहीं जाने देता था. इस सिलसिले में मुझे उस वक़्त के दो प्रसंग याद आ रहे हैं. पहला प्रसंग है कहानीकार आनंदप्रकाश जैन का, जिन्हें कुछ दिनों पहले ही अपनी कहानी ‘आटे का सिपाही’ पर प्रेमचंद पुरस्कार मिला था. हमारे हिंदी के विभागाध्यक्ष प्रो. विश्वनाथ मिश्र ने उन्हें कहानी-कला पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया. भीमसेन भाषण के बाद उनसे मिलकर देर तक उनकी रचना-प्रक्रिया पर बात करता रहा था. उसने जब जैन साहब से जानना चाहा कि वे लेखक कैसे बने, तो उन्होंने एक रोचक जानकारी दी,

‘‘शुरू में मेरा साहित्य से कोई वास्ता नहीं था और मैं नेमप्लेट लिखने का काम किया करता था. एक दिन एक मित्र ने सुझाव दिया कि इससे अच्छा तो कहानियाँ लिखा करो, ज्य़ादा आमदनी होगी. मुझे यह बात अपील कर गई. मैं उसी वक्त बाजार जाकर कुछ कहानी-संग्रह ख़रीद लाया और उन्हें पढ़कर कहानियाँ लिखने की शुरुआत कर दी.’’

दूसरा प्रसंग वीरेंद्र मिश्र का है. उस साल हमारे कॉलिज के वार्षिकोत्सव में होनेवाले कविसम्मेलन में उन्होंने ‘मेरा देश है ये, इससे प्यार मुझको’ सस्वर सुनाकर ढेर सारी प्रशंसा बटोरी थी. भीमसेन कविसम्मेलन समाप्त होने के बाद उनके कमरे में पहुँच गया और उसने अपनी बातों से उन्हें ऐसा प्रभावित किया कि फिर भोर तक वे दोनों काव्य चर्चा करते तथा एक-दूसरे को अपनी कविताएँ सुनाते रहे थे.

साहित्यकारों के संपर्क में रहने और उनके साथ बोलने-बतियाने की ललक ने भीमसेन को बी.ए. का दूसरा वर्ष नहीं करने दिया. पहले वर्ष की परीक्षाएं देने के बाद वह डॉ. विश्वनाथ मिश्र के साथ मसूरी चला गया. डॉ. मिश्र हिंदी के विभागाध्यक्ष थे,साहित्य के गंभीर अध्येता, सौम्य और स्नेही. विचारों से कट्टर मार्क्सवादी. वे गर्मियों की छुट्टियों में लेखन-कार्य के लिए मसूरी जाया करते थे, किंतु उनकी लिखावट एकदम अपठनीय थी, जिसके फलस्वरूप उन्हें हमेशा एक ऐसे व्यक्ति की तलाश रहती थी , जो उनकी रचनाओं की साफ़-सुथरी नक़ल तैयार कर सके. भीमसेन का हस्तलेख सुंदर तो था ही, सो वे उसे अपने साथ ले गए और ज़ाहिर है कि भीमसेन उनके साथ गया तो वहाँ हर समय लिखने व नक़ल करने का काम नहीं होता था. साहित्य तथा समाज पर चर्चाएं भी होती थीं, जिनसे भीमसेन को बहुत कुछ सीखने-समझने व सोचने का मौक़ा मिला. मार्क्सवाद के प्रति उसकी जिज्ञासा भी वहीं परवान चढ़ी.

मसूरी से लौटने के बाद भीमसेन फिर कॉलेज नहीं गया. आसपास के कवि सम्मेलनों में वह आमंत्रित होने लगा था और गीत सस्वर सुनाने पर उसे श्रोताओं की प्रशंसा भी मिलती थी, पर कविसम्मेलनों की दिखावटी वाहवाही उसका काम्य नहीं थी. अब वह कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ के अंदाज़ में ललित निबंध लिखने के साथ-साथ कहानियों पर भी हाथ आज़मा रहा था और साहित्य में कुछ बड़ा कर दिखाने की तड़प उसे चैन से नहीं बैठने दे रही थी. इसी तड़प के चलते एक दिन वह इलाहाबाद पहुँच गया. यह शहर तब तक साहित्य की राजधानी कहलाने के गौरव से वंचित नहीं हुआ था.

इलाहाबाद में आनंदप्रकाश गर्ग के एक संबंधी थे डॉ. ब्रजमोहन गुप्त, जो शिक्षा विभाग में बड़े अधिकारी होने के साथ-साथ हिंदी के अच्छे कहानीकार भी थे. उनकी सहायता से भीमसेन को ‘सजनी’ नाम की मासिक पत्रिका में नौकरी मिल गई. ‘माया’ तथा ‘मनोहर कहानियाँ’ के संपादन से जुड़े एक व्यक्ति नरसिंहप्रसाद शुक्ल ने इन पत्रिकाओं को तिलांजलि देकर 1954-55 के आसपास, ख़ासकर ‘मनोहर कहानियाँ’ की तर्ज़ पर, ‘सजनी’ का प्रकाशन शुरू किया था और ‘मनोहर कहानियाँ’ के लेखकों को अधिक पारिश्रमिक दे-देकर अपनी तरफ़ खींचा था. नतीज़तन कुछेक बड़े नामों को छोड़ दें, तो उस जमाने के प्रायः सभी चर्चित कहानीकारों की रचनाएँ इस पत्रिका में प्रकाशित होती थीं. अतः भीमसेन को इसके संपादकीय विभाग से जुड़कर लगा कि वह ठीक-ठाक जगह पर आ गया है और उसने नौकरी के साथ-साथ जमकर लिखना शुरू कर दिया. लेकिन यह नौकरी दो-ढाई महीने से अधिक नहीं चल सकी. सविता को संबोधित अपने 13 जनवरी, 57 के पत्र में उसने लिखा था,

‘‘टूटती-जुड़ती-सी वह ‘सजनी’ की नौकरी छूट गई. अब फिर उसी लंबी सड़क पर खड़ा हूँ, जिस पर कि ढाई महीने पहले आकर खड़ा हुआ था. देखो, कौन-सी लहर बहा ले जाती है?’’

इधर भीमसेन मुज़फ़्फ़रनगर व इलाहाबाद में लेखन के सहारे जीवन चलाने का संघर्ष कर रहा था और उधर मैं मेरठ कॉलेज से हिंदी में एम.ए. कर रहा था. लेकिन हम लोगों के लिए भौगोलिक दूरी का कोई अर्थ नहीं था. इलाहाबाद से वह गाहे-बगाहे मेरे पास आता रहता था और जब वह आता, तो हमारा रतजगा होना अनिवार्य होता. मैं पूरी-पूरी रात बैठकर उसकी रचनाएँ  सुना करता या फिर दोनों मिलकर लेखन की भावी योजनाओं पर बात किया करते.  व्यक्तिगत सुख-दुख की तमाम बातें भी इन्हीं रतजगों में होती थीं. कभी काफ़ी दिनों तक मिलना न होता, तो चिट्ठी-पत्री चलती. एक बार एक चिट्ठी में उसने अपने नए गीत का मुखड़ा लिख भेजा:                             

 

पीर जो मैंने तुझे दी,

पीर जो तूने मुझे दी,

पीर जो जग ने हमें दी,

कौन-सी इनमें अधिक है,

सोचते-ही-सोचते यह रात बीती!

 

ये पंक्तियाँ मेरे दिल की गहराइयों में उतर गईं और किसी के साथ शेयर करने की व्याकुलता में मैंने अपने एक सहपाठी के सामने अभिभूत होकर इनका पाठ किया. वे महोदय कक्षा के अत्यंत मेधावी छात्र माने जाते थे और अपने परवर्ती जीवन में एक विश्वविद्यालय के हिंदी-विभागाध्यक्ष रहे. उन पर इन पंक्तियों की विचित्र प्रतिक्रिया हुई. कुछ देर तक सोचते रहने के बाद वे धीरे से बोले, ‘‘बहुत बारीक अनुभूति प्रतीत होती है, अपने पल्ले तो कुछ पड़ा नहीं.’’

इलाहाबाद में भीमसेन के हालात विकराल से विकरालता होते जा रहे थे, फिर भी उसका विचार इलाहाबाद छोड़ने का नहीं था. मगर लड़ने की भी एक सीमा होती है. कभी किसी पत्रिका में कोई रचना छप गई या फिर कोई और छोटा-मोटा काम कर दिया, तो उसके यत्किंचित पारिश्रमिक से जितने दिन गाड़ी खींची जा सकती थी, उसने खींची और लिखा, खूब जमकर लिखा. पर आमदनी का एक निश्चित साधन होना ज़रूरी था. भीमसेन के योजनाविश्वासी दिमाग़ में अपनी एक साहित्यिक पत्रिका निकालने की बात ‘निर्माण’ का प्रकाशन बंद होने के बाद से ही घुसी हुई थी. लिहाज़ा बेकारी के इस दौर से निजात पाने के लिए उसने एक उपन्यास-पत्रिका निकालने की ठान ली. उसके बहनोई डॉ. दिलीप सिंह त्यागी ने पत्रिका का आर्थिक पक्ष सँभालने की ज़िम्मेदारी ली और भीमसेन अंग्रेज़ी के ऐसे लघु उपन्यासों की सूची बनाने में जुट गया, जो साधारण किताब के साइज़ में 60/65 पृष्ठों के बीच और मनोरंजक तथा हल्के हों.आनंद प्रकाश गर्ग ने एक लघु उपन्यास लिख रखा था‘रीता’. उसे भी पत्रिका के एक अंक में प्रकाशित करने की योजना थी.प्रवेशांक के लिए उसने उर्दू का एक उपन्यास चुन लिया था, जिसके लेखक का नाम और शीर्षक मुझे अब याद नहीं आ रहा है, और उसके अनुवाद का काम भिवानी के अपने एक परिचित को सौंप दिया था. पर अंत में नतीज़ा वही हुआढाक के तीन पात. योजना सिरे नहीं चढ़ सकी. ज़िंदा रहने की कोई सूरत वहाँ नज़र नहीं आ रही थी, तो भीमसेन अपना सब सामान व पांडुलिपियाँ वगैरह इलाहाबाद में छोड़कर मुज़फ़्फ़रनगर आ गया और सविता के पास पड़ रहा. 

मन हर समय उचटा रहता था कि यों ही एक दिन सहारनपुर चला गया और वहाँ कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ से मिला. प्रभाकरजी ने बातों-बातों में कहा कि आकर ‘नया जीवन’ का काम क्यों नहीं सँभालते! भीमसेन को यह प्रस्ताव अत्यंत आकर्षक लगा. प्रभाकरजी उस समय लेखन के क्षेत्र में उसके आदर्श थे. उनके साथ काम करने की कल्पना से ही वह खिल उठा. उसने आगा-पीछा सोचे बिना ही न सिर्फ़ हां कर दी बल्कि अपना सामान तक उठाने इलाहाबाद नहीं गया और उसी समय से ‘नया जीवन’ में काम शुरू कर दिया.

भीमसेन का स्वभाव था कि मन का काम न हो तो वह उसे पकड़ता न था और अगर किसी भी कारण से पकड़ लिया तो पूरे मन से करता था. फिर ‘नया जीवन’ तो उसके दिल के बहुत क़रीब था. उसने जीवन की इस पहली ‘प्रतिष्ठित’ नौकरी में अपने-आपको झोंक दिया. मैं उन दिनों एम.ए. पास करने के बाद नौकरी की तलाश कर रहा था. तभी सहारनपुर के बाजोरियाकॉलेज में हिंदी-प्रवक्ता का पद विज्ञापित हुआ, जिसके लिए शैक्षणिक योग्यता के अलावा कुछ अजीबोगऱीब शर्तें थीं, मसलन,  उम्मीदवार कवि होना चाहिए, वह कविसम्मेलनों को संचालित करने की क्षमता रखता हो, रंगमंच पर सक्रिय हो, वग़ैरह-वग़ैरह. मैंने इस पद के लिए आवेदनपत्र भेज दिया और मेरे प्रोफ़ेसर्स ने मुझे जो प्रमाणपत्र दिए थे, उनकी प्रतिलिपियाँ उसके साथ नत्थी कर दीं. उन प्रमाणपत्रों से साबित होता था कि उपर्युक्त पद के लिए वांछित प्रायः सभी योग्यताएँ मुझमें हैं. फिर भी ज़माने के चलन को देखते हुए ज़रूरी लगा कि सिफ़ारिश का कोई जुगाड़ बैठाया जाए. प्रभाकरजी सहारनपुर के अत्यंत सम्मान्य व्यक्ति थे और मेरे साथ-साथ भीमसेन का भी ख़याल था कि बाजोरिया के साथ उनके अच्छे संबंध होंगे. अतः भीमसेन ने मुझे ‘नया जीवन’ के कार्यालय में बुलाकर प्रभाकरजी से मेरा परिचय कराया. मैं देवबंद का रहनेवाला हूँ और प्रभाकरजी भी वहीं के थे, यहाँ तक कि हमारा मोहल्ला भी एक था. भीमसेन ने मेरे परिचय में इस बात को ख़ास तौर पर रेखांकित किया, तो प्रभाकरजी ने मेरी तरफ़ मुख़ातिब होते हुए तपाक् से पूछा, ‘‘किसके बेटे हो?’’

मैं जवाब दे ही रहा था कि भीमसेन पहले बोल पड़ा, ‘‘लाला अमरनाथ के!’’ सुनते ही प्रभाकरजी ने अपने दाएँ बाज़़ू से भीमसेन को बरजते हुए कहा, ‘‘एक तरफ़ हटो जी, भाई अमरनाथ के बेटे से परिचय आप कराएँगे हमारा!’’ दरअसल पिताजी और प्रभाकरजी बचपन के साथी थे. परिचय में यह संदर्भ जुड़ा तो भीमसेन और मैं दोनों आश्वस्त हो गए कि अब काम हो जाना चाहिए.

‘‘कॉलेज के मैनेजर बाजोरिया पर अखिलेशजी का बम गिरेगा!’’ यह प्रभाकरजी का उद्घोष था.

अखिलेश प्रभाकरजी का बेटा है और बाजोरिया से उसके व्यक्तिगत संबंध थे. अगले दिन अखिलेशजी ने सूचित किया, ‘‘मैंने बाजोरिया से बात कर ली है. आप शाम छह बजे अपनी कविताओं की कापी लेकर उनके घर चले जाइए. वे कविता के रसिक हैं और आपकी कविताएँ सुनना चाहते हैं.’’

अखिलेशजी की इस बात से मेरे मन में जहाँ आशा की एक किरण चमकी, वहीं भीमसेन चिंतित स्वर में बोला, ‘‘यार मोहन, यह साला सेठ अगर ज्य़ादा देर जम गया तो तेरी कविताओं का ज़ख़ीरा साथ नहीं देगा.’’

मेरे पास कविताएँ सचमुच बहुत कम थीं. कुछ सोचते हुए मैंने सवाल किया, ‘‘तो फिर?’’

‘‘तू ऐसा कर कि मेरी कविताओं की कापी भी रख ले.’’ भीमसेन तुरंत बोला.

‘‘लेकिन मेरे भाई, अगर मैं चुन लिया गया, तो तेरी कविताएँ हमेशा-हमेशा के लिए मेरे नाम के साथ नत्थी हो जाएँगी. साला बाजोरिया जब-तब फ़रमाइश किया करेगा कि मोहनजी, अमुक कविता बहुत ज़ोरदार है, वह सुनाओ!’’

‘‘तो क्या हुआ! तेरे लिए क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता!’’ उसने सहज भाव से कहा और उसके इस अपनत्व ने मुझे भीतर तक भिगो दिया. मैं अवाक् होकर उसकी तरफ़ देखता रह गया था.

 

(आठ)

आमतौर पर प्रकाशकों को लेकर शिकायत रहती है कि वे लेखकों का शोषण करते हैं. अगर यह एक सच्चाई है तो दूसरी सच्चाई यह भी है कि जहाँ-जहाँ लेखक प्रकाशक बना है, उसने अपनी ही बिरादरी के लोगों यानी लेखकों का शोषण किया है, हालाँकि अपवाद प्रकाशकों में भी हैं और लेखक-प्रकाशकों में भी. लेकिन भीमसेन के साथ प्रभाकरजी ने जो किया, उसे अपवाद की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता बल्कि वह सीधे-सीधे भीमसेन का शोषण था. व्यवहार बहुत मधुर, पारस्परिक संबंधों में पारिवारिकता की छौंक लगाकर ज्यादा-से-ज्यादा काम लेने की जुस्तजूमगर वेतन देते समय घनघोर मजबूरियों का रोना. भीमसेन को प्रभाकरजी के साथ यही सब अनुभव हो रहे थे. उसका सारा सामान और उसकी जिंदगी भर की कमाईउसकी तमाम पांडुलिपियाँ इलाहाबाद के घर में पड़ी हुई थीं, जिन्हें वह उठाकर लाना चाहता था, लेकिन प्रभाकरजी से वेतन कभी पूरा और समय से नहीं मिला और जो मिला वह खाने-पीने के लिए भी बमुश्किल काफ़ी होता था. ऐसे में सामान उठाने के लिए इलाहाबाद जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता था. जगदीश सविता को संबोधित अपने 26 अगस्त 1957 के पत्र में भीमसेन ने लिखा था:

‘‘इलाहाबाद नहीं जा सका. नहीं मालूम कब तक जा सकूँगा? जा भी सकूँगा या नहीं? और अब तक की जीवन की कमाई (लिखा-पढ़ा) वहीं है सब. पता नहीं सुरक्षित है या असुरक्षित? कैसे?? ‘विकास’ वालों के साथ वैसे तो सब कुछ ठीक है, लेकिन पैसों के बारे में बहुत कमज़ोर हैं. इतना काम करके भी कैसे चलाता हूँ गाड़ी, क्या करोगे जानकर?’’

उपर्युक्त पत्र सहारनपुर से लिखा गया था. उसके तेरह दिन बाद उसने 8 सितंबर 1957 को, मुझे इलाहाबाद से लिखा:

‘‘भाई, विकास प्रेस की पेमेंट की अब तक की स्थिति ने स्पष्ट कर दिया है कि यूँ और अधिक नहीं चल सकता. अनुमान इसी से लगा लो कि मेरा इलाहाबाद आने का प्रोग्राम बराबर दो महीने टाला गया और अब भी दूसरों से ही पैसे लेकर आया, जबकि हिसाब से 187/- उनकी ओर हैं...’’ पत्र के अंत में आवश्यक सूचना दी गई है: ‘‘सामान लगभग सुरक्षित ही मिल गया. केवल स्टोव और कुछ पुस्तकें ग़ायब हैं. रचनाएँ सब (सुरक्षित) हैं.’’ पढ़कर मैंने संतोष की साँस ली.

सन् 1957 में, जब की यह बात है, पंजाब के बढ़िया क्वालिटी के गेहूँ का आटा लगभग 1.5 रुपया प्रति किलो और शुद्ध  देशी घी लगभग 5 रुपया प्रति किलो था. इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उस ज़माने में 187 रुपये के क्या मायने थे.

 

(नौ)

सहारनपुर से तो भीमसेन का मन उचट ही रहा था, सोचा क्यों न एक बार फिर इलाहाबाद में हाथ-पाँव मार लिए जाएँ? लेकिन सहारनपुर हो या इलाहाबाद, उसकी सारी जद्दोजहद अनुकूल वातावरण जुटाकर शांति के साथ लिखने की थी. किसी तरह गुज़ारे लायक़ हो जाए और लिखने की सुविधा रहे, तो इससे ज़्यादा और कुछ नहीं चाहिए. उसी पत्र में आगे लिखा है‘‘यहाँ आया तो मन में यह बात भी थी कि कहीं टिप्पस बैठ जाए तो ठहर जाऊँ, नहीं फिर लौटना तो है ही. यही बात डाक्टर साहब (डॉ. ब्रजमोहन गुप्त) के सामने भी रखी. बहुत कृपा है डाक्टर साहब की मेरे ऊपर, उन्होंने सभी संभवनीय स्थानों पर स्वयं प्रयास करने का आश्वासन ही नहीं दियाआज सुबह ही तैयार होकर मुझे अपने साथ अमृत राय (हंस प्रकाशन), श्रीकृष्ण दास (अमृत बाजार पत्रिका के संपादक) और महादेवीजी (संचालिका, ‘साहित्यकार संसद’ तथा संपादिका, ‘साहित्यकार’) के पास ले गए. अमृत और दास के पास तो विशेष बात बनती दिखलाई नहीं दीआश्वासन ही मिला प्रयत्न करने का. हाँ, देवी जी के यहाँ यद्यपि वे स्वयं नहीं मिलींपांडेय जी (गंगाप्रसाद पांडेय) थे, उन्होंने पूरा-पूरा आश्वासन दिया महादेवीजी से बात करने का. पांडेयजी ने यह भी स्पष्ट किया कि 40/- मासिक और ‘संसद भवन’ में निवास की सुविधा-मात्र दी जा सकती है. 

काम होगा पार्टटाइम. रोज़ महादेवीजी के पास आना भी अनिवार्य नहीं, यही महीने में दस-बारह रोज़. ‘संसद भवन’ में रहना यानी 50,000/- की बिल्डिंग में! वहाँ भवन की व्यवस्था-सफ़ाई आदि के लिए एक नौकर है, एक माली... भवन गंगा के ठीक तट पर. सोचता हूँ 40/- संसद से मिलें, 40-50/- मैं बनाऊँ, मकान की व्यवस्था मुफ़्त है ही, तो गाड़ी खिसक चलेगी. विशेष लाभ है यह कि इस काम में समय और वातावरण ख़ूब मिलेगा. लिखा ख़ूब जाएगा और इलाहाबाद रहते प्रकाशन की स्थिति अधिक सुरक्षित है. ‘संसद भवन’ हिंदीवालों के लिए ही नहीं, अन्य प्रांतीय भाषाभाषियों और विदेशियों तक के लिए तीर्थ है. वह संपर्क भी कुछ लाभ देगा ही. उन लोगों के संस्मरण ही लिखे जा सकते हैं, जो पत्रों में अधिक सुविधा से छप जाते हैं.....पत्रों से आय बढ़ सकती है.’’

लेकिन ये सब शेख़चिल्ली के सपने साबित हुए न इलाहाबाद में ‘साहित्यकार संसद’ की बात बनी और सहारनपुर लौटा तो 16 सितंबर, 57 को ‘नया जीवन’ की जैसी-तैसी नौकरी भी ख़त्म हो गई. संघर्ष के इसी दौर में, इलाहाबाद और सहारनपुर के बीच लुढ़कते-पुढ़कते, 7 जुलाई 1957 को भीमसेन की शादी भी हो गई थी, हालाँकि शादी का जो थ्रिल होता है, वह शायद उसे छू तक न गया था. हालात ने उसके मन को शंकालु बना दिया था. वह किसी भी चीज़ के प्रति आश्वस्त नहीं हो पाता था, यहाँ तक कि अपनी नवपरिणीता को विदा कराकर लाते समय भी वह दुविधाग्रस्त मनःस्थिति में था. मुझे याद है, बारात बुढ़ाना लौट रही थी कि बीच जंगल में बस ख़राब हो गई, शायद उसका एक टायर बर्स्ट हो गया था. जब तक स्टेपनी बदली जाए, बराती नीचे उतरकर इधर-उधर टहलने लगे थे. भीमसेन भी अपनी परिणीता को बस में छोड़कर मेरे साथ बाहर आ गया और हम दोनों एक पेड़ के नीचे लेट गए. सूरज पश्चिम की तरफ़ तेज़ी से भागा जा रहा था जैसे कोई उसका पीछा कर रहा हो और भीमसेन अपने में खोया हुआ कुछ गुनगुना रहा था. उसे छेड़ना मुनासिब न समझकर मैं उसके अस्फुट शब्दों को  जोड़ने की कोशिश करता रहा. आख़िर कुछ देर बाद वह ख़ुद ही बोला, ‘‘एक गीत मन में घुमड़ रहा है, मोहन! उसका पहला छंद बन गया है, सुन...’’ और उसने बड़े बोझिल स्वर में सुनाना शुरू किया:

 

मैं जीवन के हर दर्दीले क्षण को

शब्दों की मालाएँ पहनाता हूँ,

ये गीत नहीं मैं जिनको गाता हूँ!

मैं तैर रहा निर्मल गंगाजल में,

या डूबा सागर के गहरे तल में,

जो हाथ मेरे मिट्टी या सोना है,

आवाज़ मेरी हँसना या रोना है,

ये सब अनबूझ पहेली जीवन की,

मैं जब-जब इनको समझ न पाता हूँ,

तब-तब तुमको आवाज लगाता हूँ!

 

दो-एक दिन बाद उसने गीत का दूसरा और समापन छंद सुनाया:

 

मैं देख रहा मुड़-मुड़कर जीवन को,

हर अलसाए हर शरमाए क्षण को,

रह-रहकर सुख की कड़ियाँ टूट रहीं,

रह-रहकर दुख की चिनगी छूट रहीं,

सुख-दुख दोनों सीमा को छूते हैं

मैं जब-जब इनका पार न पाता हूँ,

तब-तब अंबर को मीत बनाता हूँ!

मैं जीवन के हर दर्दीले क्षण को

शब्दों की मालाएँ पहनाता हूँ,

ये गीत नहीं हैं जिनको गाता हूँ!

 

नववधू को विदा कराकर लाते समय ‘जो हाथ मेरे मिट्टी या सोना है’ की मनःस्थिति को क्या कहा जाए! बहरहाल, इस गीत की रचना के बाद भीमसेन को लगता रहा कि उसने कहीं कुछ ग़लत कर दिया है. वह अपने-आपको अपराधी महसूस करता रहा और तब उसने एक स्वागत-गीत लिखा:

 

प्राण लगा चंदा की बेंदी औ तारों की वरमाला ले

रात चाँदनी-सी तुम आई!

 

ज़ाहिर है कि यह गीत उसने अपनी पत्नी रवि बाला को संबोधित किया था, जिसके प्रति वह पहले गीत की रचना करके अपराध बोध से ग्रस्त हो गया था. किंतु गीत साहित्य की एकमात्र ऐसी विधा है, जिसमें रचनाकार की वैयक्तिक अनुभूतियाँ बरबस पूरी ईमानदारी से अभिव्यक्त हो जाती हैं. इसीलिए भीमसेन अपनी नव परिणीता का स्वागत करते-करते फिर परिस्थितिजन्य दुविधाग्रस्तता का शिकार हो गया. पहले ही छंद में वह कहता है:

 

मन होता अपनी कमज़ोरी ज़ाहिर कर दूँ

अपने पापों की सब सूची सम्मुख रख दूँ

लेकिन तेरे स्वप्न-जाल की डोर न टूटे

सुख का यह साम्राज्य न इतनी जल्दी छूटे

दुख कह देने का सुख पाऊँ या सुख हरने का दुख पाऊँ

सोच-सोच चेतना गँवाई!

 

नव परिणीता के स्वागत में यह ‘स्वप्न जाल की डोर टूटना’ कहाँ से आ गया? और सुख का साम्राज्य छूटना तो जैसे निश्चित ही है, पर वह इतनी जल्दी न छूटे. क्या था यह सब?

यहाँ उन दिनों का एक और प्रसंग याद आ गया. हमलोग सहारनपुर के एक सिनेमाहाल में बी.आर. चोपड़ा की फ़िल्म ‘एक ही रास्ता’ देख रहे थे, जिसमें केंद्रीय स्त्री-पात्र की भूमिका मीनाकुमारी ने निभाई थी. उसके पति की भूमिका में सुनील दत्त था, जिसे उसकी ईमानदारी के चलते माफ़ियाओं द्वारा सड़क-दुर्घटना में मरवा दिया जाता है. मीनाकुमारी अपने दुधमुंहे बच्चे के साथ नितांत अकेली और बेसहारा हो जाती है. उसे अपने स्त्रीत्व की रक्षा के लिए समाज के भूखे भेड़ियों से जो संघर्ष करना पड़ता है, उसमें शायद भीमसेन को अपनी स्वयं की जीवन-स्थितियाँ प्रतिबिंबित होती दिखाई दे रही थीं और वह भीतर-ही-भीतर एक भयानक झंझावात से जूझ रहा था. अचानक उसने मेरी तरफ़ झुककर धीरे से कहा, ‘‘ले मोहन, अभी-अभी एक शेर कहा है, सुन!’’ मैं उदग्र होकर उसके साथ सट गया और उसने लगभग फुसफुसाते हुए सुनाया:

 

एक दिन डूबना ही है मुझे, ये तो मालूम है लेकिन,

हर उभरी लहर को पकड़ता हूँ किनारा समझकर!

 

मैं समझ गया कि फ़िल्म देखते हुए उसके मन में कैसा द्वंद्व चल रहा है, किंतु मैं यह भी जानता था कि यह कोई फ़िल्म की घटनाओं का तात्कालिक प्रभाव नहीं है. ये तो ऐसा द्वंद्व था, जो उसके जीवन में आदि से अंत तक बना रहा: न केवल भावना के स्तर पर बल्कि व्यवहार में भी. इस बात का शिद्दत से अहसास मुझे तब हुआ जब मैं अपनी पढ़ाई पूरी करके नौकरी की तलाश में दिल्ली पड़ा हुआ था और भीमसेन अपनी पत्नी के साथ अपने गाँव बुढ़ाना में निष्क्रिय जीवन बिता रहा था. मैंने उसे बार-बार लिखा कि वहाँ कुएँ के मेंढ़क बनकर क्यों अपनी क्षमताओं को कुंद कर रहे हो, दिल्ली चले आओ. यहाँ तुम्हारे करने के लिए बहुत कुछ होगा. नतीजा यह कि एक दिन भीमसेन दिल्ली पहुँच गया. संयोग से उसी दिन जगदीश सविता भी आ पहुँचा था, उसकी रेलवे में नौकरी लग गई थी और पोस्टिंग हुई थी दिल्ली में. अब तीन तिलंगे जम गए एक कमरे में और हा-हू होने लगी. जगदीश सविता, जिसे हम प्यार से जग्गू मुंशी भी कहते थे, अँग्रेज़ी साहित्य का मर्मज्ञ विद्वान होने के साथ-साथ निहायत हँसोड़ व लतीफ़ेबाज़ है! यों भीमसेन भी कम लतीफ़ेबाज़ नहीं था, मगर सविता के सामने वह कुछ फीका रहता था. दिन-भर हम तीनों अपने-अपने चक्करों में व्यस्त रहते, लेकिन शाम को कमरे पर लौटते ही महफ़िल गर्म हो जाती और आधी रात बीतने तक हमलोग सोने का नाम नहीं लेते थे.

भीमसेन को दिल्ली पहुँचे अभी कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन उसकी पत्नी रविबाला भी बिना किसी पूर्व सूचना के आ धमकी. उसका आना सविता को और मुझे अच्छा लगा, लेकिन भीमसेन की हालत अजीब हो गई. उसने हालाँकि हमें साफ़ शब्दों में कुछ नहीं बताया, पर उन दोनों के बीच का तनाव हमसे छुपा नहीं रह सका. मुझे इस बात पर आश्चर्य हुआ, क्योंकि शादी से पहले भीमसेन रविबाला की यह कहकर तारीफ़ करता रहा था कि तुम्हारी होनेवाली भाभी की रुचि साहित्यिक है और उसने प्रेमचंद को पढ़ रखा है, तो अब अचानक ऐसा क्या हो गया कि दोनों शीतयुद्ध के कगार पर बैठे हुए हैं. हम हालात का जायज़ा लेने के लिए भीमसेन की सुनते तो वह ठीक लगता, रविबाला की सुनते तो वह ठीक लगती. दोनों ही ठीक थे तो फिर गड़बड़ी कहाँ थी

गड़बड़ी थी भीमसेन की दुविधाग्रस्त मनःस्थिति और दोनों के अनमनीय स्वभाव में. यह तो नहीं कहा जा सकता कि भीमसेन अपने दांपत्य जीवन में समरसता नहीं चाहता था, लेकिन यह ज़रूर है कि समरसता वह अपनी ही शर्तों पर चाहता था, जिसके संकेत उपरोक्त गीत-पंक्तियों में निहित हैं यानी अतीत में किए गए अपने ‘पापों की सूची’ (और शायद वर्तमान व भविष्य के पापों की सूची भी) पत्नी के सामने रखकर हल्का होता रहे और पत्नी उन्हें उसकी ‘ईमानदारनास्वीकारोक्तियाँ’ मानकर माफ़ करती रहे, उसके प्रति समर्पित बनी रहे. किंतु रविबाला पर इसकी भयानक प्रतिक्रिया होती थी और इन स्थितियों का भीमसेन को ज़बरदस्त ख़मियाजा भुगतना पड़ा, उसका सारा वक़्त इन अवांछित व अप्रीतिकर तनावों से जूझने में जाया  होता रहा. ऊपर से भयानक आर्थिक संकट. वे दिन भला कैसे भुलाए जा सकते हैं जब कई-कई दिन तक हमें अन्न का एक दाना भी मयस्सर नहीं होता था और एक-दो दोस्तों के घर जाकर ख़ातिरदारी में मिले चाय के प्यालों पर गुज़ारा करना पड़ता था.

माडल टाउन उन दिनों हिंदी के लेखकों व प्राध्यापकों का गढ़ था और हमारे कई दोस्त वहाँ रहते थे. एक दिन जब आसपास कोई जुगाड़ नहीं बैठा और भूख असहनीय हो गई, तो चाय-बिस्किट के लालच में हम दोनों शक्तिनगर से पैदल चलकर माडल टाउन पहुँच गए थे. दांपत्य जीवन के तनावों और आर्थिक संकट के ऐसे माहौल में रचनात्मक लेखन की बात सोची भी नहीं जा सकती थी. अलबत्ता ज़िंदा रहने के लिए हैकराइटिंग करना मजबूरी थी और वह उसने ख़ूब किया; साथ में मैंने भी. ‘आत्माराम एंड संस’ के लिए हमने लोककथाओं की कई किताबें लिखीं. वहाँ प्रकाशन-अधिकारी मेरे मेरठ कॉलेज के सहपाठी श्रीकृष्ण थे, जिन्होंने बाद में ‘पराग प्रकाशन’ शुरू करके हिंदी में सुरुचिपूर्ण प्रकाशन की एक नई परंपरा क़ायम की. उनकी बदौलत हमें लोककथाओं की उन पांडुलिपियों के एवज़ तुरंत नकद पैसे मिल जाते थे. फिर मैं नौकरी के सिलसिले में कलकत्ता चला गया, तो उसे ‘आत्माराम एंड संस’ के अलावा एक और प्रकाशक मिल गया‘उमेश प्रकाशन’, जिसके लिए उसने पौराणिक विषयों पर तथा ‘मगरमच्छ का शिकार’ जैसे आधा दर्जन से अधिक उपन्यास लिखे.

नतीज़ा यह कि उसका रचनात्मक लेखन बराबर पिछड़ता गया और जितना काम वह कर सकता था, उसका एक छोटा-सा अंश भी नहीं कर पाया. दांपत्य जीवन में भी स्थितियाँ विषम से विषमतर होती जा रही थीं. हालात यहाँ तक बिगड़े कि अंततः उसे घर-परिवार व नाते-रिश्तेदारों से पलायन करके अज्ञातवास में जाना पड़ा.

 

(पत्नी रविबाला के जन्म दिन पर)

(दस)

वे दिन सचमुच विचित्र आशंका व उत्तेजना से भरे थे. मुझे परिवार के साथ कलकत्ता पहुँचे अभी कुछ महीने ही गुज़रे थे कि एक दिन अचानक भीमसेन का ‘वन-लाइनर’ मिला: ‘‘मैं अमुक तारीख़ में कालका-हावड़ा मेल से पहुँच रहा हूँ, स्टेशन पर मिलो!’’

पत्र पढ़कर एक पल के लिए तो मैं ख़ुशी से पागल हो गया, लेकिन दूसरे ही पल मन में तरह-तरह की आशंकाएँ सिर उठाने लगीं. क्यों आ रहा है? साफ़-साफ़ कुछ क्यों नहीं लिखा? और इस तरह अचानक? सब ठीक-ठाक तो है न? हालाँकि मैं यह भी जानता था कि सामनेवाले को डराने-चैंकाने में उसे मज़ा आता है. एक बार जब मैं मेरठ कॉलेज में पढ़ रहा था, तो वह इलाहाबाद से मुज़फ़्फ़रनगर जाते हुए मुझसे मिलने के लिए मेरठ उतरा.होस्टल पहुँचा तो मैं और मेरा पार्टनर दोनों ही कमरे पर नहीं थे. उसने काग़ज़ के एक पुरज़े पर लिखा:

‘‘आज रात को मैं तुम्हारा क़त्ल करने आ रहा हूँ--- एक पुराना दुश्मन!’’

और उसे दरवाज़े की झिर्री में खोंस दिया. मैं पार्टनर के साथ लौटा तो इबारत पढ़कर पार्टनर के होश फ़ाख़्ता हो गए. जैसे बिल्ली ने कबूतर को पंजों में दबोच लिया हो, कुछ ऐसी हालत उसकी हो गई. मगर मैंने लिखाई पहचानकर ठहाका लगाया और कहा कि डरो मत, यह अपना भीमसेन है, तो उसकी जान-में-जान आई.

बहरहाल, मैंने भीमसेन के ‘वन-लाइनर’ को इस प्रसंग की रोशनी में पढ़ने की कोशिश की, लेकिन मुझे उसमें कोई आश्वस्तिकर व्यंजना नहीं मिली. ज़ाहिरा तौर पर शब्द एकदम अभिधात्मक थे और उनमें कोई परेशान करनेवाली बात नहीं थी, मगर फिर भी जैसे एक-एक शब्द चीख़-चीख़कर कह रहा था कि हालात सामान्य नहीं हैं और मेरी आशंका सच साबित हुई. गाड़ी के प्लेटफ़ार्म पर लगते ही भीमसेन एक छोटा-सा सूटकेस हाथ में लटकाए हुए कंपार्टमेंट से उतरा और थका-हारा-सा मेरी तरफ़ बढ़ा. न चेहरे पर मिलने की ख़ुशी, न मन में उमंग. मैं तो भौचक रह गया: क्या यही अपना भीमसेन है? वह, जो हर हाल में ठहाके लगाता था? उसे इस हाल में देखकर मेरा मन भी बुझ गया. कुछ भी कहने-बोलने की हिम्मत ने जैसे जवाब दे दिया था. जब हम टैक्सी लेकर घर के लिए रवाना हो गए और मौन मेरे लिए असहनीय हो उठा, तो पहली बार मेरे ही मुँह से बोल फूटे‘‘कुछ तो कह यार! कब तक मेरे सब्र का इम्तिहान लेता रहेगा?’’

भीमसेन मेरा सवाल सुनकर भी चुप रहा. फिर कुछ सोचता-सा यंत्रवत बोला‘‘कुछ नहीं, मोहन! एक नीड़ बनाना चाहा था, नहीं बन सका.’’

भीमसेन फिर ख़ामोश हो गया और सूनी आँखों से बाहर की तरफ़ ताकता रहा. मैंने धीरे से कहा, ‘‘तो... पलायन कर गया?’’

‘‘यही कह लो... जीने की लालसा मर गई है.’’

हमारे बीच फिर एक भयावह मौन पसर गया. घर पहुँचे तो सारे मामले से अनजान उर्मिला ने गर्मजोशी से उसका स्वागत किया और मुझे महसूस हुआ कि उर्मिला के अपनत्व से भीमसेन के मन में जमी बर्फ़ कुछ पिघली है. फिर डेढ़ साल की मेरी बच्ची दीपा उसकी तरफ़ देखकर हुमकी, तो वह पूरी तरह अपने में लौट आया, जैसे किसी ने जादू की छड़ी से उसका कायाकल्प कर दिया हो. मैंने राहत की साँस ली.

 

 

(ग्यारह)

भीमसेन अज्ञातवास के दिन बिताने कलकत्ता मेरे पास आया है, इस बात को मेरे व उर्मिला के अलावा सिर्फ़ एक व्यक्ति जानता था: जगदीशप्रसाद सविता. दिल्ली में वह उसका निकटतम मित्र था और इस नाते रविबाला व उसके पीहरवालों की नज़रें उस पर टिकी हुई थीं. उनका विश्वास था कि वह ज़रूर भीमसेन का अता-पता जानता होगा. उन्होंने उस पर पता बताने के लिए हर मुमकिन दबाव डाला, मगर वह पट्ठा टस-से-मस नहीं हुआ. इतना ही नहीं बल्कि पूछनेवालों को विचित्र तरीक़े से उलझाने- भटकानेवाले जवाब देता रहा और उन तमाम बातों की रिपोर्ट अपनी चिट्ठियों में मेरे पते पर भीमसेन को भेजता रहा. मैं कल्पना ही कर सकता हूँ कि विपक्षियों के बीच रहकर उसकी क्या हालत हुई होगी, क्योंकि दिल्ली से लगभग सोलह सौ किलोमीटर दूर बैठकर भी मेरी अपनी हालत पतली हो रही थी. मेरी मुसीबत यह थी कि मेरे तमाम दोस्त-रिश्तेदार, जिनका हमारे घर में आना-जाना था, भीमसेन को जानते थे. उन्हें अगर यह पता चले कि वह मेरे घर में लंबे अरसे के लिए रहने आया है, तो दस तरह के सवाल खड़े हो सकते थे और यह आशंका भी थी कि बात फूटकर उन लोगों तक पहुँच जाए, जिनसे बचने के लिए उसे अज्ञातवास में रहना पड़ रहा है. इसका एक बड़ा कारण यह था कि मेरे परिचितों-रिश्तेदारों में कई का संबंध मुज़फ़्फ़रनगर से था. नतीज़तन जब कोई मिलनेवाला आकर हमारा दरवाज़ा खटखटाता, तो हम भीमसेन को पिछले दरवाज़े से बाहर निकाल देते. वह घर का चक्कर लगाकर सामने पोखर के किनारे जा बैठता और तब तक वहाँ बैठा रहता, जब तक मैं उसे बुलाने न जाता. यह अपनी तरह का अनोखा तनाव था, लेकिन ग़नीमत यह थी कि मिलने आने वाले शाम को दफ़्तर से लौटकर और अपने घर में कुछ समय बिताकर ही आते थे यानी आठ बजे के आसपास, जिसका मतलब यह कि दिन में निश्चिंतता रहती थी.

तनाव और निश्चिंतता के इसी मिले-जुले माहौल में उसने एक लंबी कहानी लिखी: ‘रेत के फूल’, जिसकी विस्तृत चर्चा पहले की जा चुकी है. इसके अलावा छिटपुट लेखन भी चल रहा था और ‘सिद्धार्थ’ के छद्म नाम से रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेजी जा रही थीं. कई रचनाएँ छपीं और उनके पारिश्रमिक आए, लेकिन एक मामला ऐसा बना कि छद्म नाम का सहारा लेने के बावजूद पोल पट्टी खुलते-खुलते रह गई. सविता ने उसी मामले को संदर्भित करते हुए भीमसेन को लिखा:

‘‘तुम्हें कहा था न कि यह ‘सिद्धार्थ’ नाम तुम्हारा किसी दिन बखेड़ा पैदा करके रहेगा. महाराज, वह जो ‘मानव’ पत्रिका में आपका लेख छपा है न, सोती जी (हमारे एक कहानीकार-मित्र, जो उन दिनों दिल्ली की साहित्यिक गोष्ठियों में काफ़ी सक्रिय रहते थे) उसे सूँघ गए हैं. जाने से पहले तुमने ही उन्हें सुनाया होगा. अब यहाँ दनादन मानव-कार्यालय को पत्र लिखे जा रहे हैं, तुम्हें खोज निकालने के लिए काफ़ी दौड़ धूप हो रही है. सचेत हो जाओ और ‘मानव’वालों को भी होशियार कर दो कि किसी को भी तुम्हारा पता न बताएँ. मैं अपना काम बराबर कर रहा हूँ.’’

भीमसेन को खोज निकालने के चक्कर में दिल्ली का माहौल एकदम जासूसी-ऐयारीनुमा हो गया था. प्रायः प्रतिदिन वहाँ सविता का सामना किसी-न-किसी रोमांचक प्रसंग से होता. वह सुबह-शाम उस प्रसंग से जूझने के बाद रात को उसे चिट्ठी की शक्ल में काग़ज़ पर उतारकर अगले दिन मेरे कलकत्ता के पते पर पोस्ट कर देता. भीमसेन हर दिन बेसब्री से डाकिए का इंतज़ार करता और शायद ही कोई दिन ऐसा जाता था, जिस दिन इंतज़ार का फल मीठा न होता. उसी चिट्ठी की प्रत्याशा में मैं भी शाम को दफ़्तर से छूटकर जल्दी-से-जल्दी घर पहुँचने के लिए उतावला रहता था. उन चिट्ठियों में न सिर्फ दिन-भर की सरगर्मियों का लेखा-जोखा रहता था बल्कि सविता की नई कविताएँ भी रहती थीं. उन दिनों उसकी कविता बाढ़ वाली नदी की तरह उफन-उबल रही थी. भीमसेन और मैं रात को देर तक बैठकर उसका चिट्ठीनुमारोज़नामचा पढ़ते और उसकी कविता का मज़ा लेते.

यह सिलसिला चल ही रहा था कि अचानक एक और बखेड़ा हो गया. दिल्ली में हम लोगों का एक मित्र था डॉ. दोषी. वह गुजराती था और यौवन की दहलीज़ पर क़दम रखते ही घर से भागकर अफ्रीका पहुँच गया था. वहाँ ज़िंदगी के तीस-पैंतीस बेशक़ीमती वर्ष गुज़ारकर वह हिंदुस्तान लौटा, तो दिल्ली आ बसा और ‘डॉ. दोषी डरबनवाला’ के नाम से मशहूर हो गया. निहायत हँसोड़ व लतीफ़ेबाज़. जिससे मिलता, उसे पहली मुलाक़ात में ही अपना बना लेता. दिल्ली की कोई कालोनी ऐसी नहीं थी, जहाँ उसे चाहनेवाले दो-चार परिवार न हों. एक दवाइयों का बक्सा हाथ में लटकाकर वह सुबह घर से निकलता और देर रात तक पूरी दिल्ली में चकरडंड घूमता रहता.

भीमसेन के ग़ायब हो जाने से दिल्ली में उसके जो कुछेक दोस्त परेशान थे, उनमें सुदर्शन चोपड़ा निश्चित रूप से पहले नंबर पर था, लेकिन अपने तरीक़े से डॉ. दोषी भी कम चिंतित नहीं था. दिल्ली छोड़ने से पहले भीमसेन ने उसके साथ अफ्रीका जाने की संभावनाओं पर बात की होगी. बस, उसी बात को आधार बनाकर उसने अँधेरे में एक तीर छोड़ा,

‘‘भीमसेन कलकत्ता में है और उसने वहाँ से मुझे पत्र लिखा है. वह अफ्रीका जाना चाहता है और इसके लिए पासपोर्ट वग़ैरह बनवाने में उसने मेरी मदद चाही है.’’

लेकिन असलियत यह थी कि भीमसेन ने उस समय तक डॉ. दोषी को या किसी भी व्यक्ति को अपने बारे में कोई सूचना नहीं दी थी.डॉ. दोषी ने यह तीर फेंककर सविता को कुरेदने की कोशिश की थी.

सविता इस बात को बख़ूबी समझता था कि डॉ. दोषी के इस अभियान-रूपी साँप का फन अगर इब्तिदा में ही नहीं कुचला गया, तो हमारे लिए यह ख़तरनाक साबित हो सकता है. लिहाज़ा उसने अपने फ़ितरती अंदाज़ में किसी तरह इस मामले को रफ़ा-दफ़ा किया.

यह मामला तो रफ़ा-दफ़ा हो गया, जैसे ‘मानव’ में सिद्धार्थ महाशय का लेख छपने वाला मामला रफ़ा-दफ़ा हो गया था, मगर इससे एक बात साफ़ हो गई कि इन संदेहजनक स्थितियों में भीमसेन का मेरे पास बने रहना सुरक्षित नहीं है. लिहाज़ा वह ‘ज्ञानोदय’ के पूर्व-संपादक जगदीशजी के आग्रह पर उनके यहाँ चला गया. जगदीशजी उन दिनों मासिक पत्रिका ‘इकाई’ का संपादन-प्रकाशन कर रहे थे. उनका निवास और पत्रिका का कार्यालय एक ही जगह था: टालीगंज के अंतिम छोर पर ‘शहर थेके दूर’ नामक भवन में.

बेहाला के घर में रहते हुए भीमसेन मेरी बेटी दीपा से बहुत हिलमिल गया था और उर्मिला भी उससे आत्मीय लगाव महसूस करने लगी थी. लिहाज़ा मेरे साथ-साथ उर्मिला के लिए भी यह कल्पना दुस्सह थी कि भीमसेन इस घर को छोड़कर कलकत्ता में ही दूसरी जगह रहने के लिए जाए. भीमसेन के लिए भी यह भावनात्मक संकट था. फिर भी हालात को देखते हुए हम दोनों ने अपने मन पर पत्थर रख लिया था. मगर उर्मिला को कैसे समझाते कि भीमसेन किस मजबूरी में यह घर छोड़कर एक पराए घर में रहने जा रहा है. उसकी भावनाओं को ठेस न पहुँचे, इस ख़याल से हमने उसे बताया कि भीमसेन कुछ दिन के लिए आसाम जा रहा है, जहाँ उसका एक और दोस्त रहता है.

भीमसेन आसाम के बहाने ‘शहर थेके दूरे’ चला गया, तो उसके और मेरे बीच की भौगोलिक दूरी ने मुझे पागल बना दिया. मेरा दफ़्तर डल्हौज़ीस्क्वायर में था. वहाँ से ‘शहर थेकेदूरे’ और बेहाला स्थित मेरे घर का फ़ासला लगभग बराबर था: बारह किलोमीटर के आसपास, मगर तीनों स्थान एक सम-त्रिकोण बनाते थे यानी ‘शहर थेकेदूरे’ से बेहाला का फ़ासला भी दस-ग्यारह किलोमीटर से कम नहीं था. मिलना हो तो कैसे? सुबह निकल जाती दफ़्तर जाने की तैयारी में और दिन बीत जाता दफ़्तरी कामों की गहमागहमी में. सिर्फ़ एक शाम बचती थी, जो मेरी अपनी थी. हालाँकि वह भी मेरी अपनी कहाँ थी, उस पर उर्मिला और दीपा का हक़ था, लेकिन उनके साथ नाइंसाफी करके मैं हर शाम दफ़्तर से निकलकर ‘शहर थेके दूरे’ पहुँचता और कुछ देर भीमसेन से बतियाकर बेहालावाले घर चला जाता. वह कुछ देर की बतियाहट ही हम दोनों के जीने का संबल थी.

एक दिन मैं दफ़्तर से उठा, तो जेब ख़ाली थी, लेकिन यह सोचकर कि ‘शहर थेकेदूरे’ में भीमसेन बेसब्री से मेरा इंतज़ार कर रहा होगा, मैं पैदल ही चल दिया और ग्यारह-बारह किलोमीटर नापकर ‘शहर थेके दूरे’ पहुँचा.

 

(बारह)

भीमसेन को जगदीशजी के घर में रहते हुए दो-एक महीने हो गए थे और उसकी बातों से लगने लगा था कि अब उसका मन वहाँ से उचट रहा है, लेकिन इस बारे में उसने खुलकर कभी कुछ कहा नहीं था. उस दिन भी वह बात को घुमा-फिराकर ही बोला,

‘‘जगदीशजी की नफ़ासत और शाइस्तगी के क़िस्से तो तुमने बहुत सुने होंगे, अब एक क़िस्सा और सुनो.’’

जगदीशजी के बारे में कोई नया विस्फोट होनेवाला है, यह सोचकर मैं उदग्रीव हो भीमसेन की तरफ़ देखने लगा. भीमसेन कुछ पल ख़ामोश रहने के बाद बोला,

‘‘बात बहुत छोटी, मगर गंभीर है. जगदीशजी सुबह देर से सोकर उठते हैं, उनका मकान-मालिक जल्दी उठ जाता है. वह पिछले दिनों से एक अजीब हरकत कर रहा था. जगदीशजी अपने लिए जो अख़बार मँगवाते हैं, उसे जगदीशजी से पहले वह उठा लेता और पढ़-पढ़ाकर जगदीशजी के उठने तक उनके पास पहुँचा देता. पहले दिन जगदीशजी ने दूसरे का पढ़ा हुआ अख़बार देखा, तो उखड़ गए‘पढ़ने का सलीका नहीं है. अख़बार की सारी तहें ख़राब कर दीं.’

कहते हुए उन्होंने अख़बार को बिना पढ़े ही एक तरफ रख दिया. दरअसल जिस अख़बार के पन्नों में थोड़ी भी सिलवटें आ गई हों, उसे पढ़ना उनकी नफ़ासत को गवारा नहीं था. दूसरे दिन भी यही हुआ और तीसरे दिन भी. तीन दिन तक न उन्होंने अख़बार पढ़ा, न मकान-मालिक से कुछ कहा और तीन दिन तक अअखबार न पढ़ने से जैसे उन्हें बदहज़मी हो रही थी. लिहाज़ा चौथे दिन वे अलार्म लगाकर सोए और जल्दी उठकर हाकर का इंतज़ार करने लगे. वह आया, तो जानते हो जगदीशजी ने उससे क्या कहा?’’

भीमसेन सवाल करके कुछ पल के लिए रुका और फिर ख़ुद ही उसका जवाब दिया, ठीक जगदीशजी के अंदाज़ में,

भाई, ऐसा करियो कल से अख़बार की दो प्रतियाँ डाल दिया करियो.’

अब एक हफ़्ते से जगदीश जी के खाते में अख़बार की दो प्रतियाँ आ रही हैं: एक मकान-मालिक के पढ़ने के लिए और दूसरी जगदीश जी के अपने लिए. है न शाइस्तगी और नफ़ासत की इंतहा!’’

‘‘वाक़ई!’’ मेरे मुंह से इसके अलावा और कोई बोल नहीं फूटा.

‘‘अब तुम्हीं बताओ, ऐसे आदमी के साथ कोई ज्यादा दिन कैसे रह सकता है?’’

सवाल करके फिर मेरे जवाब का इंतज़ार किए बिना बोला, ‘‘छोड़ इस क़िस्से को, एक नया गीत सुन, कल ही लिखा है.’’

मैंने भी मूड बदलने की ग़रज़ से अपने स्वर में उत्साह भरते हुए कहा, ‘‘इरशाद!’’ और भीमसेन शुरू हो गया,

‘‘अब काया का मोह नहीं, यह चाहे जिस वन में भटके

पापों के व्यापारी को जब मन का कंगन बेच दिया... 

गीत कुछ लंबा था और उसका जगदीशजी के क़िस्से के साथ ज़ाहिरा तौर पर कोई संबंध दिखाई नहीं दे रहा था, फिर भी मुझे लगा कि दोनों चीज़ें एक अलक्षित संवेदना के तार से जुड़ी हुई हैं. अतः गीत ख़त्म होते ही मैंने कहा, ‘‘बहुत हो चुका ‘शहर थेके दूरे’ निवास! अपना बिस्तर-बोरिया गोल कर और चल मेरे साथ, अभी!’’

भीमसेन तो जैसे तैयार ही बैठा था. बोला, ‘‘नहीं, इतनी हड़बड़ी मत कर.जगदीशजी को तरीके से बताना ज़रूरी है. उन्हें बुरा नहीं लगना चाहिए.’’

‘‘मानता हूँ. मगर प्यारे, कल शाम को चलने के लिए तैयार रहना.’’

अगले दिन भीमसेन मेरे साथ बेहाला आ गया, लेकिन अब वह अपने इस आत्मनिर्वासन से घबरा गया था. उसके सविता और सुदर्शन जैसे दोस्त दिल्ली में थे, साहित्यकार मित्रों का जमावड़ा भी वहीं था और वहीं थीं टी-हाउस की रंगीन शामें. कलकत्ता में कुछ नहीं था सिवाय मेरे, और मैं भी उसके हिस्से में पूरा नहीं. लिहाज़ा एक दिन वह सुदर्शन को चिट्ठी लिख बैठा और नतीज़ा जो होना था, वही हुआ. सुदर्शन चोपड़ा तो उसका अता-पता जानने के लिए बेक़रार था ही, चिट्ठी मिलते ही वह उसे लेने के लिए कलकत्ता आ धमका और इस तरह भीमसेन के आत्मनिर्वासन का पटाक्षेप हुआ.

 

(तेरह)

भीमसेन को कलकत्ता से विदा करते समय मुझे जो अनुभूति हो रही थी, उसमें न हर्ष था न विषाद. वह एक विचित्र प्रशांति का भाव था, जिसमें हर्ष और विषाद घुल-मिलकर एक हो गए थे. वह अपनी ज़मीन से जुड़ने जा रहा है, अपने परिवार और लेखक-मित्रों के बीच: यही सब सोचकर मैं गहन आत्मतोष का अनुभव कर रहा था. मुझे विश्वास था कि वह अब सृजन के आकाश में उड़ान भरने के लिए तैयार है और वह आकाश उसे दिल्ली में ही मिलेगा. मेरा विश्वास ग़लत साबित नहीं हुआ. साठ के दशक में उसने हिंदी के कथाकारों में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई. 

उस दौर में लिखी गई उसकी कहानियों का पाठकों, लेखकों और समीक्षकों के बीच अभूतपूर्व स्वागत हुआ और वह अपनी पीढ़ी के सर्वाधिक चर्चित कहानीकारों में शुमार होने लगा. यह अलग बात है कि संख्या के लिहाज़ से नौ साल के अरसे का कुल हासिल कुछ निबंधों तथा व्यंग्य-लेखों के अलावा ग्यारह कहानियाँ और दिल्ली के जनजीवन पर लिखे गए शब्दचित्र हैं और यह लेखन संग्रहों की शक्ल में क्रमशः ‘दीवारें ही दीवारें’ शीर्षक से 1970 में और ‘आदमी से आदमी तक’ शीर्षक से 1983 में सामने आया. उसके कुछ दोस्तों को, जिनमें मैं भी शामिल था, यह शिकायत रही कि उसने इतना कम क्यों लिखा, लेकिन इस बात का संतोष भी हमें रहा कि संख्या बढ़ाने के लिए उसने गुणवत्ता से समझौता नहीं किया. फिर यह बात भी थी कि इस पूरे दौर में उसे रोज़ी-रोटी के मोर्चे पर भयानक संघर्ष करना पड़ा. उसके एक गीत की पंक्तियाँ हैं:

‘‘अनचाहे सुख का जीवन, कितनी हसीन लाचारी है

क्या कह दूँ किससे कह दूं, यह सागर कितना खारी है!’’

नौकरियाँ उसके लिए वही अनचाहा सुख बनी रहीं. जब हालात बर्दाश्त से बाहर होते, वह नौकरी कर लेता, मगर नौकरी शुरू करते ही उसे लगने लगता कि यह सब लेखन की क़ीमत पर हो रहा है और इस अहसास को एक सीमा तक ढोने के बाद वह नौकरी को अलविदा कह देता.

उसका अज्ञातवास पूरा होने के समय से मेरे दिल्ली लौटने तक लगभग दस साल के अरसे में मेरा उसके साथ सीधा संपर्क नहीं रहा, पर पत्र-व्यवहार हमारे बीच इतना हुआ कि आज अगर उसके और मेरे तमाम पत्र सुरक्षित होते, तो उनसे ढाई-तीन सौ पृष्ठों की अच्छी-ख़ासी किताब बन जाती. उस पत्र-व्यवहार के चलते हमें बेशक एक-दूसरे के खाए-पिए की पूरी जानकारी रहती थी, फिर भी जो बात प्रत्यक्ष अनुभव में होती है वह दूसरे माध्यमों से मिली जानकारी में नहीं होती. इसलिए मैं नहीं कह सकता कि वह कैसे एक झटके में नौकरी छोड़ता था. हाँ, एक वाक़ए का मैं ज़रूर भुक्तभोगी हूँ. यह 1970 के शुरू की बात है.यूनियनबाज़ी के चक्कर में मुझे ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ की नौकरी से हाथ धोना पड़ा था और कलकत्ता में मुझे अपने लिए काम का कोई विकल्प दिखाई नहीं दे रहा था. लिहाजा परिवार को कलकत्ता में ही छोड़कर मैं काम की तलाश में दिल्ली भीमसेन के पास आ गया था. उस समय भीमसेन नवीन शाहदरा में रहता था और ‘हिंद पाकेट बुक्स’ में संपादक के पद पर काम कर रहा था. 

मुझे भी दिल्ली पहुँचने के बीस दिन बाद ही ‘राजकमल प्रकाशन’ में नौकरी मिल गई, तो भीमसेन बज़िद हो गया कि मैं तुरंत कलकत्ता जाकर परिवार को ले आऊँ. मैंने कहा भी कि मकान की व्यवस्था हो जाए, तभी परिवार को लाऊँगा, लेकिन वह नहीं माना और कहने लगा कि भाभी व बच्चों को यहीं ले आ, मकान बाद में फुरसत से ढूँढते रहेंगे. मैं चला गया और दसेक दिन बाद परिवार के पूरे तामझाम के साथ हावड़ा-कालका मेल से लौटा. यह गाड़ी शाम के सात-आठ बजे दिल्ली पहुँचती थी. घंटा- भर लगा होगा हमें नवीन शाहदरा पहुँचने में, लेकिन वहाँ जाकर पता लगा कि भीमसेन चार-पाँच दिन पहले ही नौकरी और यह घर छोड़कर पूरी गृहस्थी के साथ अपने गाँव बुढ़ाना चला गया है. पास ही हरिपाल त्यागी रहता था, तो मैं परिवार और सामान के साथ उसके घर चला गया. लेकिन अगर हरिपाल वहाँ न होता, तो? रात के वक़्त पूरी गृहस्थी के साथ मैं कहाँ जाता, क्या करता? भीमसेन को पता था कि मैं अमुक तारीख़ को कालका मेल से लौट रहा हूँ और रात के वक़्त दिल्ली पहुँचूँगा, फिर भी चार-पाँच दिन यहीं रहकर उसने मेरा इंतज़ार करना मुनासिब नहीं समझा, ख़ासकर ऐसी स्थिति में जबकि वह जानता था कि मोहन का दिल्ली में और कोई ठिकाना नहीं है. बस, मूड बना और डेरा-तंबू समेटकर चला गया बुढ़ाना.

भीमसेन के फ़ैसले इसी तरह अकस्मात् होते थे. उसने नौकरियाँ शुरू भी अप्रत्याशित रूप से कीं और उन्हें छोड़ा भी अप्रत्याशित रूप से ही.सिर्फ़ दस साल के दरमियान अकेले ‘सरिता’ में तीन बार नौकरी करने के अलावा उसने आर्थिक विषयों की मासिक पत्रिका ‘संपदा’, आगरा से प्रकाशित होनेवाली कहानी-पत्रिका ‘नीहारिका’, दिल्ली क्लाथ मिल की हिसार से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका ‘डीसीएम समाचार’ तथा ‘हिंद पाकेट बुक्स’ की संपादकी भी की. कहने का मतलब यह कि नौकरियाँ उसके पीछे भागती थीं, वह नौकरियों के पीछे कभी नहीं भागा. ख़ासकर ‘सरिता’ के बारे में मशहूर था कि जिसने एक बार वहां की नौकरी छोड़ी, उसे दोबारा उस दफ़्तर में क़दम रखने की भी इजाज़त नहीं मिली, लेकिन भीमसेन को बार-बार आग्रहपूर्वक वहाँ बुलाया गया.

नौकरियों के इस मकडज़ाल के अलावा, दांपत्य जीवन की जिन विषमताओं के चलते भीमसेन को अज्ञातवास में जाना पड़ा था, उनसे भी काफ़ी समय तक उसका छुटकारा नहीं हुआ. नतीज़तन पति-पत्नी दोनों ने ढाई साल तक एकाकी जीवन बिताया, जो दोनों के लिए ही दारुण यातना का समय था. मैं इस बात का साक्षी रहा हूँ कि भीमसेन और बाला एक-दूसरे को टूटकर प्यार करते थे, लेकिन कोई एक फाँस थी, जो रह-रहकर दोनों को सालती रहती थी.बहरहाल, ढाई साल बाद उनके जीवन की गाड़ी पटरी पर आई, तो स्थितियाँ बेहतर बनीं. लेकिन दस साल का एक बड़ा हिस्सा इन तनावों तथा रोज़ी-रोटी के लिए संघर्ष में गुज़रा, तो उसने न सिर्फ़ लेखन का समय खा लिया बल्कि लेखन के लिए जरूरी शांति और एकाग्रता का माहौल भी नहीं रहने दिया. इन हालात में भी जितना काम उसने कर लिया, वह कम नहीं है.

 

(चौदह)

भीमसेन भयानक रूप से योजना विश्वासी था और एक हद तक यह कीड़ा मेरे दिमाग़ में भी घुसा रहा. जिन दिनों वह अज्ञातवास में कलकत्ता मेरे पास रह रहा था, हमने ‘नई कहानी’ नाम से एक पत्रिका के प्रकाशन की योजना बनाई थी. लेकिन हम उसके लिए साधनों का जुगाड़ करते रह गए और कुछ महीनों बाद ही ‘राजकमल’ से ‘नई कहानियाँ’ का प्रकाशन शुरू हो गया. भारत पर चीनी हमले के बाद मैंने ख़ासतौर पर फौजियों के लिए ‘नौजवान’ नाम से एक मासिक पत्रिका की योजना बनाई और उसकी रूपरेखा तैयार करके भीमसेन को भेजी, तो वह उत्साहित होकर उसमें फूल-पत्ती लगाता रहा. सन् 1965 में एक त्रैमासिक फ़िक्शन-डाइजेस्ट ‘कथासार’ निकालने की योजना बनाई गई. इसका डिक्लेरेशन भी ले लिया गया. तय हुआ कि प्रोडक्शन, मार्केटिंग तथा वितरण आदि की ज़िम्मेदारी कलकत्ता में मैं सँभालूँगा और संपादन दिल्ली में रहकर भीमसेन करेगा. मैं उन दिनों कलकत्ता के मटियाबुर्ज़ इलाक़े में रहता था. मेरे उसी आवास को पत्रिका का रजिस्टर्ड कार्यालय बनाकर लैटरहैड छपवाए गए और भीमसेन ने लेखकों के साथ पत्र-व्यवहार शुरू कर दिया.सबकी तरफ़ से पत्रिका की रूपरेखा पर अनुकूल प्रतिक्रियाएँ मिल रही थीं और भरपूर सहयोग का आश्वासन मिल रहा था, मगर साधनों के अभाव में कुछ दूर चलकर इस योजना पर भी ब्रेक लग गया. उन्हीं दिनों भीमसेन पर नए लेखकों के लिए ‘लेखनी’ नाम से एक पत्रिका निकालने की धुन सवार हुई थी, जो अंततः 2002 की अंतिम तिमाही में ‘भारतीय लेखक’ के रूप में कार्यान्वित हुई. 

सन् 1965 के आसपास ही भीमसेन एक और योजना को लेकर व्यस्त था‘कल्पना’ पत्रिका के लिए साठ के दशक में उभरे कहानीकारों की प्रतिनिधि कहानियों का चयन-संपादन. पानूखोलिया, दूधनाथ सिंह, रवींद्र कालिया, ज्ञानरंजन, गिरिराज किशोर आदि अनेक लेखकों से उसका पत्र-व्यवहार हुआ, सभी ने योजना का स्वागत किया, कुछ लेखकों ने अपनी कहानियाँ भी उसे भेज दीं, किंतु योजना अधबीच में रह गई और कामयाब नहीं हो सकी. पुस्तक-प्रकाशन का विचार भी इस पूरे दौर में हमारे दिलो-दिमाग़ पर छाया रहा. इसी विचार के अंतर्गत ‘अमर भारती ग्रन्थमाला’ की योजना बनाई गई थी, जिसकी रूपरेखा सुन-पढ़कर कई बड़े लेखकों ने उसे अद्भुत आयोजन की संज्ञा दी थी. किंतु साधनों के अभाव में ये तमाम योजनाएँ शेख़चिल्ली के सपने साबित हुईं.

 

(आलोचक मैनेजर पाण्डेय के साथ )
(पन्द्रह)

ऊपर चर्चा हो चुकी है कि 1970 की दूसरी तिमाही में मेरे कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित होने के साथ ही भीमसेन दिल्ली से अपनी गृहस्थी समेटकर बुढ़ाना चला गया था. वहाँ अपनी खेती-बाड़ी सँभालने के साथ-साथ उसने अँग्रेज़ी माध्यम का एक स्कूल भी स्थापित किया था और उसके लिए मिडिल स्कूल स्तर तक की सरकारी मान्यता प्राप्त कर ली थी. इस स्कूल का प्रबंधन पूरी तरह उसकी पत्नी रविबाला के हाथों में था. स्कूल की स्थापना का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं बल्कि अपने बच्चों के लिए गाँव में रहकर भी बेहतर शिक्षा की व्यवस्था करना था. इन तमाम कामों में वह इतना व्यस्त हो गया कि उसकी और मेरी मुलाकात महीने-दो महीने में तभी हो पाती जब वह एक-दो दिन के लिए दिल्ली आता. ऐसे हर मौक़े पर हमारा एक रतजगा ज़रूर होता था और इन रतजगों में वह खेती को लेकर किए गए अपने प्रयोगों के बारे में विस्तार से बताया करता था. एक बार उसने बताया कि वह ट्यूबवेल लगा रहा है ताकि सिंचाई के लिए पानी की क़िल्लत न रहे. गंगा-जमुना के दोआबे में देहातों की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक संरचनाओं में आज़ादी के बाद कैसे बदलाव आए हैं, इस विषय पर एक महाकाव्यात्मक उपन्यास लिखने की बात भी वह अक़सर किया करता था और मैं महसूस करता था कि इस तरह का उपन्यास लिखने के लिए गाँव में रहकर, वहाँ के जन जीवन में रच-बसकर, उसका अध्ययन करना और खेती के काम का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करना बहुत ज़रूरी है, लेकिन मुझे यह भी लगता था कि अब उसकी अति हो रही है और अगर वह जल्दी ही यहाँ से नहीं निकला, तो कहीं ऐसा न हो कि धीरे-धीरे वह यहीं का होकर रह जाए. हालाँकि लिखने की जो आग उसके भीतर थी, उसे देखते यह संभावना कम ही थी, लेकिन मैं अपने डर का क्या करता! इसलिए एक दिन फिर उसने उपन्यास लिखने की बात छेड़ी, तो मेरे मुँह से निकल गया, ‘‘लिखने-लिखाने की बात छोड़ो, तुम तो अब खेती में नए-नए प्रयोग करो और उसी में नाम कमाओ.’’

मेरी इस बात पर वह तिलमिला गया, ‘‘तू क्या समझता है कि मैं अब लिखूँगा नहीं?’’

मेरा तीर निशाने पर बैठा था. मैंने कहा, ‘‘लगता तो यही है. बुढ़ाना गए तुझे चार साल से ऊपर हो रहे हैं. इस अरसे में तूने कुछ भी लिखा हो, तो बता!’’

वह बोला, ‘‘नहीं लिखा, ठीक है. लेकिन मैं खेती में जी-जान से इसीलिए जुटा हूँ कि जीने का एक सहारा हो जाए, तो फिर निश्चिंत होकर अपना लेखन कर सकूँ.’’

मैं भीमसेन के इस तर्क से सहमत नहीं हुआ

‘‘यह तुम्हारा भ्रम है. खेती क्या, किसी भी काम को लगातार और नियमित वक्त दो, तभी वह आपको कुछ देगा वरना आपके गले की हड्डी बन जाएगा. इसलिए प्यारे, रोज़ी-रोटी के लिए काम और लेखन को एक साथ साधना होगा.’’

भीमसेन ठहरी हुई आवाज़ में बोला, ‘‘तुम जानते हो, मैं ऐसा नहीं कर सकता. मैं तो एक वक्त में एक ही काम कर सकता हूँ.’’

मैं जानता था, इसीलिए चिंतित भी रहता था कि उसे कैसे खेती के जंजाल से मुक्त किया जाए और संयोग से जल्दी ही उसका रास्ता मिल गया. मेरे एक मित्र हैं हीरालाल गुप्ता, सेलीना पब्लिशर्स के मालिक. एक बार वे शिशु-गीतों की एक पुस्तक प्रकाशित करना चाहते थे, तो मैंने शेरजंग गर्ग से उनका परिचय करा दिया था. शेरजंग ने उनके लिए शिशु-गीत लिखे. पुस्तक ‘अक्षर-गीत’ शीर्षक से अत्यंत कलात्मक रंगीन चित्रों के साथ भव्य साज-सज्जा में प्रकाशित हुई और ख़ूब बिकी.शेरजंग को उस पर मोटी रायल्टी मिली. अब उन्हीं हीरालाल गुप्ता को दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम के लिए बच्चों के मनोविज्ञान पर आधारित एक उपन्यास की ज़रूरत थी. मेरे सामने यह बात आई, तो मैंने हीरालाल को भीमसेन का नाम सुझाया. हीरालाल इतने दीवाने कि शाम के वक़्त हमारी बात हो रही थी और उसी वक़्त वे मुझे अपनी गाड़ी में बैठाकर भीमसेन से बात करने बुढ़ाना के लिए रवाना हो गए. लगभग सौ किलोमीटर का फ़ासला तय करके रात ग्यारह बजे के आसपास हमलोग वहाँ पहुँचे.

भीमसेन का व्यवहार कई बार बहुत अप्रत्याशित होता था और मुझे डर था कि कहीं वह उपन्यास लिखने के प्रस्ताव को कमर्शियल काम कहकर ठुकरा न दे. इसलिए हीरालाल से उसका परिचय कराने के बाद मैं उसे एक तरफ़ ले गया और समझाया कि यह छोटा-सा उपन्यास लिख देने से वह तीन-चार साल के लिए रोज़ी-रोटी की समस्या से लगभग निश्चिंत होकर अपना सृजनात्मक लेखन कर सकेगा. बात भीमसेन की समझ में आ गई और वह उपन्यास लिखने के लिए सहमत हो गया. हीरालाल चाहते थे कि उपन्यास का शीर्षक उन्हें दो-तीन दिन के अंदर बता दिया जाए और फिर एक महीने में उपन्यास की पांडुलिपि तैयार कर दी जाए. बुढ़ाना में लिखने का माहौल नहीं था. लिहाजा वह एकाग्र  होकर लिखने के लिए अपनी बहन पुष्पा के पास मेरठ चला गया और एक महीने में उपन्यास पूरा करके हीरालाल को दे दिया. शीर्षक पहले ही बता दिया था: ‘कटे हुए हाथ’.

यह उपन्यास मेरी कल्पना के अनुसार भीमसेन की भाग्य लक्ष्मी सिद्ध हुआ. कुछ महीनों में ही उसे इतना रुपया मिल गया कि उसके बल पर वह खेती का मोह छोड़कर एक बार फिर दिल्ली आ गया और करोलबाग़ के एक गेस्टहाउस में कमरा किराए पर लेकर रहने लगा. वैसे वह गाँव में खेती के जो लवाज़मात अपने पीछे छोड़कर आया था, उन्हें सहेजने-सलटाने के चक्कर में उसे गाहे-ब-गाहे वहाँ जाना पड़ता था और यह क्रम लगभग दो साल तक चला यानी उसका एक पैर दिल्ली में तो दूसरा पैर बुढ़ाना में रहा. लेकिन फिर भी संतोष की बात यह रही कि इन दो सालों में उसने काफ़ी काम किया. इमरजेंसी के विरोध में उसकी बहुचर्चित कहानी ‘ज़बान’ तथा इस शीर्षक से प्रकाशित संग्रह की दूसरी कई  महत्वपूर्ण  कहानियाँ  इसी अरसे  में, इरमजेंसी  के दौरान, लिखी गईं और ‘नंगा शहर’ उपन्यास का  रचना-काल  भी  यही है.

‘कटे हुए हाथ’ के लेखन-प्रकाशन के दौरान हीरालाल गुप्ता की भीमसेन से निकटता बढ़ी. भीमसेन दिल्ली तो आ ही गया था, गाहे-ब-गाहे उनकी मुलाक़ातें होने लगीं. बातों-बातों में एक दिन हीरालाल ने भीमसेन से कहा, ‘‘क्यों न हम एक बच्चों की पत्रिका निकालें और साथ ही बालोपयोगी पुस्तकों का प्रकाशन भी करें!’’

भीमसेन एकदम उत्साहित होकर बोला, ‘‘यह काम बहुत ज़रूरी है हीरालालजी! होना चाहिए.’’

‘‘तो आप इसकी ज़िम्मेदारी सँभालेंगे?’’

‘‘बेशक़! यह तो मेरे मन का काम है!’’

और इस तरह बातों-बातों में बाल-साहित्य को समर्पित ‘संकेत प्रकाशन’ का जन्म हुआ, जिसके सर्वेसर्वा बने भीमसेन त्यागी. मोटी तनख़्वाह, काम करने की पूरी आज़ादी. बाल-पत्रिका की रूपरेखा बनी और उसकी डमी तैयार करके लेखकों से रचनाएँ आमंत्रित की गईं. कुछ लेखकों को पुस्तकें लिखने का काम भी सौंपा गया. जहाँ तक मुझे याद आता है, दो-एक पुस्तकों का प्रकाशन भी हो गया था. इनमें से एक पुस्तक हरिपाल त्यागी की थी, जो हावर्ड फ़ास्ट के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास ‘स्पार्टाकस’ का बालोपयोगी संक्षिप्त पुनरालेखन था.

प्रकाशन का काम गति पकडने लगा था और पत्रिका की तैयारियाँ भी ज़ोर-शोर से चल रही थीं कि तभी एक छोटी-सी घटना हो गई. एक दिन भीमसेन दफ़्तर के समय में किसी लेखक से मिलने गया था. लौटा तो देखा कि उसकी कुरसी पर दफ़्तर का एक और कर्मचारी बैठा हुआ है. फिर क्या था! भीमसेन उखड़ गया, ‘‘तुमने मेरी कुरसी पर बैठने की हिम्मत कैसे की?’’

‘‘जी, मैं तो बस यहाँ टेलीफ़ोन करने के लिए बैठ गया था. इसमें अगर कोई गुस्ताख़ी हो गई है, तो मुझे माफ़ करें.’’

लेकिन भीमसेन माफ़ करने के मूड में नहीं था. उसने इसे आत्मसम्मान का प्रश्न बनाकर उस प्रकाशन-संस्थान से अपना संबंध-विच्छेद कर लिया और इसके साथ ही ‘संकेत प्रकाशन’ की  भी अकाल मृत्यु हो गई.

 

(सोलह)

सन् 1976 में मैं ‘विश्व हिंदी सम्मेलन’ में भाग लेने के लिए मारीशस गया था. मुझे वहाँ पंद्रह दिन रहना था. समस्या थी कि मेरी ग़ैर-मौजूदगी में ‘राजकमल’ का प्रोडक्शन कौन देखेगा. मेरे दिमाग़ में भीमसेन का नाम आया. वह मुझसे मिलने ‘राजकमल’ में आता रहता था और मैं उसके साथ ‘राजकमल’ की हर गतिविधि के बारे में विस्तार से बात किया करता था. संपादन और प्रोडक्शन का हकीम तो वह था ही, हमारे बीच की चर्चाओं के चलते ‘राजकमल’ के पूरे तंत्र की मोटी जानकारी भी उसे हो गई थी और इस लिहाज़ से वह मेरा काम दक्षतापूर्वक सँभाल सकता था. मैंने इस बाबत ‘राजकमल’ की प्रबंध-निदेशक शीला संधू से मश्विरा किया तो उन्होंने बखुशी भीमसेन के नाम का अनुमोदन किया. मैं निश्चिंत होकर मारीशस चला गया और आज मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि भीमसेन ने किसी भी स्तर पर न सिर्फ़ मेरी कमी महसूस नहीं होने दी बल्कि मुझसे कहीं बेहतर दक्षता के साथ काम किया. शीला संधू बहुत ख़ुश हुईं और अपनी ख़ुशी का इज़हार करते हुए उन्होंने एक चैक भीमसेन के पास भेजा, तो भीमसेन उसमें अंकित राशि देखकर बौखला गया. उसने इस तर्क के साथ चैक लौटा दिया कि

‘‘मैंने सहयोग राजकमल को नहीं, अपने दोस्त मोहन को दिया था, जिसके बदले में किसी भी तरह का मेहनताना लेने की बात मेरे मन में नहीं थी. फिर भी मेहनताना दिया गया, तो वह मेरी योग्यता, अनुभव तथा वरिष्ठता को ध्यान में रखकर होना चाहिए था. चैक में अंकित राशि मेरे काम का अपमान है.’’

अंततः शीला संधू ने उसे बुलाकर खेद प्रकट किया और एक बड़ी राशि का चैक दिया, तब वह संतुष्ट हुआ.

जिस समय का यह प्रसंग है उस समय तक भीमसेन की कोई किताब ‘राजकमल’ से प्रकाशित नहीं हुई थी, बात अलबत्ता चल रही थी. मैंने ऐसी स्थिति में कई लेखकों को समझौते करते हुए दखा था. ‘राजकमल’ का प्रभामंडल ही ऐसा था कि छोटे-बड़े हर लेखक के मन में वहाँ से प्रकाशित होने की लालसा रहती थी. लेकिन भीमसेन कुछ अलग मिट्टी का बना हुआ था. स्वाभिमान की क़ीमत पर वह अपनी पुस्तकें ‘राजकमल’ से भी प्रकाशित कराने के लिए तैयार नहीं था.

 

(सत्रह)

दिल्ली और बुढ़ाना के बीच आवाजाही रहने के बावजूद लेखन का सिलसिला बन गया और मेरे लगातार प्रयत्नों के फलस्वरूप 1977 में राजकमल से ‘नंगा शहर’ के प्रकाशन के साथ वहाँ से अन्य पुस्तकों के प्रकाशन की भी आश्वस्ति हो गई, तो भीमसेन अब इस बात को लेकर चिंतित रहने लगा कि गाँव में बच्चों की पढ़ाई वैसी नहीं हो पा रही है जैसी होनी चाहिए. इसके लिए उसने नैनीताल जाकर संभावनाएँ टटोलीं. वहाँ कोई बात बनती दिखाई नहीं दी तो वह देहरादून गया और एक अच्छे स्कूल में बच्चों के एडमिशन की व्यवस्था करके उसने रहने के लिए राजपुर में एक मकान किराए पर ले लिया. उसकी पत्नी बाला ने कहा भी कि परिवार के साथ राजपुर जाकर बसने के बजाए बच्चों को हास्टल में रखना बेहतर होगा, लेकिन वह नहीं माना. उसका तर्क था कि बच्चों का भविष्य बनाने के लिए जितना ज़रूरी अच्छा स्कूल है, उतना ही ज़रूरी माँ-बाप का संग-साथ भी है. उसके तर्कों के सामने बाला की एक नहीं चली और वह बुढ़ाना का अच्छा-ख़ासा चलता हुआ स्कूल बंद करके, खेती बटाई पर देकर, परिवार के साथ राजपुर (देहरादून) जा बसा. नतीजतन उसकी जो आवाजाही अभी तक दिल्ली और बुढ़ाना के बीच रहती थी, वह अब देहरादून, दिल्ली और बुढ़ाना के बीच हो गई. अर्थ संकट भी नए सिरे से पैदा हो गया, क्योंकि खेती से जितनी आमदनी की अपेक्षा उसे थी, वह पूरी नहीं हुई. अपनी ख़ुद की निगरानी के हटते ही खेती की अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे शुद्ध घाटे की अर्थव्यवस्था बन गई और भीमसेन एक बार फिर ‘मुद्राराक्षस’ की चपेट में आ गया. नतीजा यह कि देहरादून जाने से पहले के दौर में कुछ खेती की आमदनी और कुछ ‘कटे हुए हाथ’ की रायल्टी से मिली आर्थिक निश्चिंतता के चलते लिखने का जो सिलसिला चालू हुआ था, वह थम गया और लिखने का सिलसिला थम गया, तो भीमसेन को लगने लगा कि उसकी ज़िंदगी थम गई है. 

आख़िर तकरीबन  सात  साल  की  जद्दोजहद  के  बाद  उसने देहरादून छोड़ दिया और बुढ़ाने की ज़मीन बेचकर नोएडा के सैक्टर-10 में एक इंडस्ट्रियल बिल्डिंग ख़रीद ली. इस बिल्डिंग  की  पहली  मंजिल  पर  वह  परिवार  सहित  रहने  लगा  और  ग्राउंडफ्लोर पर उसने प्रिंटिंग प्रेस लगाया. ‘राजकमल प्रकाशन’ का दफ़्तर भी उन्हीं दिनों दिल्ली के दरिया गंज से नोएडा के सेक्टर-8 में शिफ़्ट हुआ था. भीमसेन की जगह से यह जगह पैदल की दूरी पर थी, तो वह अकसर ही टहलता-बूलता मेरे पास चला आता. आमतौर पर वह दोपहर बाद आया करता था, लेकिन कई मर्तबा ऐसा भी हुआ कि सुबह दफ़्तर खुलने के वक़्त पर ठीक साढ़े-नौ बजे ही आ गया. उस दिन भी वह इसी वक़्त आया था.

शीला संधू और मैं एक बड़े हालनुमा कमरे में बैठा करते थे: कमरे की दक्षिणी दीवार के साथ मेरी मेज़ थी और सामने उत्तरी दीवार के साथ शीला संधू की मेज़. बीच में ख़ाली मैदान. मज़ा यह कि कमरा एक होते हुए भी हम दोनों के लिए प्रवेश-द्वार अलग-अलग थे. भीमसेन इधर के दरवाज़े से आकर मेरे सामने रखी कुरसी पर ठीक से बैठा भी नहीं था कि दूसरे छोर से शीला संधू की खिजलाहट-भरी आवाज़ आई, ‘‘भई त्यागी जी, आप सुबह-सुबह आ जाते हैं, यह तो ठीक नहीं है. हमारे काम का वक़्त होता है यह.’’

भीमसेन आया था आराम से, मगर गया बिजली के झटके के साथ. मैं हक्का-बक्का देखता ही रह गया.

थोड़ी देर बाद टेलीफ़ोन की घंटी बजी. मैंने रिसीवर उठाकर ‘हैलो’ कहा तो दूसरी तरफ़ भीमसेन था, ‘‘तुम दफ़्तर में ही हो अभी तक!’’

उसका स्वर अस्वाभाविक था और स्वाभाविक मनःस्थिति में मैं भी नहीं था. इसलिए उसकी आवाज़ में तंज़ तो मैंने महसूस किया, लेकिन वह कहना क्या चाहता है, मैं यक-ब-यक नहीं समझ पाया. लगभग लडखड़ाते हुए मैंने कहा, ‘‘हाँ, दफ़्तर में ही हूँ. मुझे कहाँ जाना था!’’

“नहीं... मैं तो बस यूँ  ही सोच रहा था कि तुम्हारी आँखों के सामने तुम्हारा एक लेखक अपमानित हो गया तो...’’ कहते-कहते वह रुका और फिर अपनी पहली बात अधूरी छोड़कर झटके के साथ बोला, ‘‘ख़ैर, छोड़ो इस बात को...तुम अपना काम करो.’’

उसने लाइन काट दी. मैंने मन-ही-मन उसका पहला वाक्य, जो उसने अधूरा छोड़ दिया था, पूरा किया: ‘‘तुमने प्रतिवाद में शायद नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया हो!’’

तीसरे दिन शीला संधू को उसका एक पत्र मिला, जिसमें कुछ इस आशय की बात लिखी गई थी कि ‘जो प्रकाशन संस्थान अपने लेखक का आदर करना नहीं जानता, वह उसका प्रकाशक कहलाने का हक़ भी नहीं रखता. आपने मेरा अपमान किया है. लिहाजा मैं इस पत्र के द्वारा राजकमल के साथ हुए तमाम अनुबंध निरस्त करता हूँ. मेरी किताबों  के  वितरण  पर  तुरंत  पाबंदी  लगाई  जाए और उनके समूचे स्टाक मेरे  हवाले  किए  जाएँ.’

पत्र पढ़कर मैं सन्न रह गया. उस प्रसंग के औचित्य-अनौचित्य को लेकर अपने-अपने तर्क हो सकते हैं, लेकिन उसके प्रतिवाद में इतना कठोर क़दम उठाने का औचित्य आज तक मेरी समझ में नहीं आया. मैंने उसे समझाने की बहुत कोशिश की, पर वह अपने फै़सले पर अडिग था. लिहाज़ा उसकी तमाम किताबें बाज़ार से बाहर हो गईं और वह पाठकों से कट गया या फिर पाठक उससे कट गए. उसकी किताबें पाठकों को सुलभ नहीं रहीं.

 

(अठारह)

प्रिंटिंग प्रेस लगाने का सपना भीमसेन विद्यार्थी जीवन से देख रहा था. वह सपना अब साकार हुआ, तो उसने बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनानी शुरू कर दीं, पुस्तक प्रकाशन, नवसाक्षरों के लिए पत्रिकाएँ, नौएडा के उद्यमियों की ‘हूऽज़ हू’, वग़ैरह-वगैरह. मगर सिर्फ छपाई की मशीन लगाकर तो इन योजनाओं को कारगर नहीं बनाया जा सकता था. बिल्डिंग ख़रीदने और मशीन लगाने में न सिर्फ ज़मीन बेचकर मिली सारी पूँजी खप गई थी बल्कि इनके लिए यूपीएफसी से मोटे क़र्ज़ भी लेने पड़े थे. अतः वित्त-प्रबंधन की भाषा में जिसे ‘ऑपरेशनल कास्ट’ और ‘बैकमनी’ कहा जाता है वह पूँजी सिरे से नदारद थी. नतीजा यह कि पत्रिकाएँ सप्लाई करने के आर्डर हैं, मगर वे छपेंगी  काग़ज़ पर और काग़ज़ ख़रीदने के लिए पैसा नहीं है, तो छपाई नहीं हो पा रही है और छपाई नहीं हो पा रही है तो हाथ में आए हुए ऑर्डर कैंसिल हो गए हैं. मशीन ख़ाली खड़ी रह गई है. लेकिन मशीन चाहे ख़ाली खड़ी है, उस पर काम करने वाले कर्मचारियों को तनख़्वाहें तो देनी ही पड़ेंगी, यूपीएफसी को ब्याज तथा किश्तों की अदायगी तो करनी ही पड़ेगी. नहीं करेंगे, तो मूल रक़म ब्याज-दर-ब्याज बढ़कर पहाड़ बन जाएगी. 

भीमसेन के मामले में यही हुआ. कर्जों के अकल्पनीय बोझ-तले दबकर उसने और उसके परिवार के सदस्यों ने जो सहा-भुगता, वह कितना भयावह था, इस बात का अंदाज़ा  किसी  दूसरे  को  हो  ही  नहीं  सकता, चाहे वह उनका कितना भी नज़दीक़ी क्यों न हो. इसी तरह कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि इन पहाड़ जैसे कर्ज़ों की अदायगी हो जाएगी, लेकिन वह हुई और बख़ूबी हुई. काग़ज़ों पर योजनाएँ बनाने में माहिर भीमसेन इस बार जीत गया. उसने हिम्मत न हारते हुए फ़ैक्ट्री-बिल्डिंग का उपयोग व नियोजन इस तरह किया कि वह अच्छी आमदनी का ज़रिया बन गई. इतना सब करके वह जब आश्वस्त हो गया कि इस व्यवस्था को बेटा विवेक और बहू ज्योति मिलकर अच्छी तरह सँभाल सकते हैं, तो ख़ुद एक परिचित मित्र की मदद से मुंबई जाकर उसने टेलीविजन के लिए काम किया और ख़ूब पैसा कमाया, मगर उसी सीमा तक जिस सीमा तक यूपीएफसी का कर्ज़ा नहीं चुक गया. वह कर्ज़ा चुकते ही उसने मुंबई के तमाम प्रलोभनों को ठोकर मारकर दिल्ली का टिकट कटा लिया.

 

(उन्नीस)

मुंबई में रहते ही भीमसेन को जब लगा कर्जे काबू में आ गए हैं, तो लगभग दस साल बाद फिर उसकी सृजन-चेतना ने पंख फड़फड़ाए और कमर्शियल काम करने के साथ-साथ उसने अपना रचनात्मक लेखन शुरू कर दिया. काफ़ी काम वहाँ रहते हुआ और दिल्ली लौटकर तो उसने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. हालाँकि इस बीच वह कैंसर जैसी प्राणलेवा बीमारी की चपेट में आ गया था, फिर भी उसकी रचनात्मकता का यह तीसरा दौर सबसे समृद्ध साबित हुआ. इस दौर में उसने एक तरफ़ ‘भारतीय लेखक’ जैसी गंभीर साहित्यिक पत्रिका निकालकर अपनी संपादन-कला का लोहा मनवाया, तो दूसरी तरफ़ ‘वर्जित फल’ की रचना की और अपने सर्वाधिक महत्वाकांक्षी उपन्यास ‘ज़मीन’ का पहला खंड लिखा. लिखने का जैसे उसके ऊपर जुनून सवार हो गया था. लेकिन उसकी बीमारी ने उसे ज़्यादा मोहलत नहीं दी और वह भी अपनी ‘प्रेमिका’ के गले में बाँहें डालकर ख़ुशी-ख़ुशी उसके साथ चला गया. पिछले आठ-दस सालों में उसने कई बार कहा था कि अब तो जन्मदिन को मरण दिन की तरह मनाने की इच्छा होती है. अँग्रेज़ी के प्रख्यात कवि अलेक्ज़ेंडर पोप ने लिखा है,

‘‘मैन मे डाइ ऑफ़ इमैजिनेशन

सो  डीप  मे  इंप्रेशन  बी  टेक.’’

भीमसेन की कल्पना भी शायद ज्य़ादा ही असरदार हो गई थी कि अपने जन्मदिन पर ही उसने दुनिया को अलविदा कहा.

जाने से दो दिन पहले सुबह सात बजे उसका फ़ोन आया. बोला, ‘‘मिलने का मन हो रहा है...’’ मैंने कहा, ‘‘एक-दो काम हाथ में हैं, इन्हें निबटाकर आता हूँ...’’ तो उसने अपना चिर-परिचित वार किया, ‘‘तू अपने काम निबटा, यहाँ आना ज़रूरी नहीं है.’’ और झटके के साथ फ़ोन काट दिया. मैं अपने सब काम छोड़कर तुरंत उसके पास पहुँचा, ‘‘साले, तू अपने-आपको समझता क्या है! क्यों कहा तूने कि यहाँ आना ज़रूरी नहीं है?’’ वह हँसने लगा, ‘‘ऐसा नहीं कहता, तो तू इतनी जल्दी आता क्या!’’ आज मैं उसके फ़ोन का इंतज़ार कर रहा हूँ, क्यों नहीं कहता वह कि ‘तू अपने काम निबटा, यहाँ आना ज़रूरी नहीं है.’

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(भीमसेन त्यागी और मोहन गुप्त)

 
मोहन गुप्त
(27 सितंबर 1935)
सहारनपुर ज़िले का कस्बा देवबंद
 
कोलकाता के ‘दैनिक लोकमान्य’ तथा वित्तीय साप्ताहिक ‘आर्थिक जगत’ में पत्रकारिता से शुरुआत की, फिर भारतीय ज्ञानपीठ में प्रकाशन-अधिकारी के पद पर कार्य;  1970 के शुरू में दिल्ली आकर ‘राजकमल प्रकाशन’ में प्रकाशन-अधिकारी की हैसियत से ही काम शुरू किया और क्रमशः पदोन्नत होते हुए 1994 में संयुक्त प्रबंध’-निदेशक के पद से अवकाश लेकर ‘सारांश प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड’ के नाम से अपना स्वयं का प्रकाशन-संस्थान स्थापित किया. अब स्वतंत्र-लेखन.
mohangupt@gmail.com

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  1. बहुत सुंदर विस्तृत संस्मरण । लगता है जैसे यह संस्मरण पूर्व में पढ़ चुका हूँ । जो हो । एक लंबे समय को एक संस्मरण में बांधने की अद्भुत कला यहां है । समालोचन और मोहन गुप्त को बधाई ।

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  2. बहुत सुन्दर संस्मरण प्रस्तुति।

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  3. वाचस्पति21 सित॰ 2020, 12:10:00 pm

    मोहन गुप्त जी का भीमसेन त्यागी पर यह लेख असाधारण रूप से अच्छा है।हरिपालत्यागी के साथ उन्होंने न्याय नहीं किया।आकृति प्रकाशन की छोटी-सी किताब तक वे सीमित रह गये।फिर वहाँ पचास साल की दोस्ती का जिक्र एकदम अनुचित है।हिन्दी में पत्रिकाओं के नाम देखकर सहयोग करने का चलन है।ऐसा लिखने से तो न लिखना बेहतर है।बहरहाल हरिपालत्यागी जी होते तो वे इस एपीसोड का भी अपनी तरह से आनंद लेते!

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  4. सुरेश सलिल21 सित॰ 2020, 12:12:00 pm

    भीमसेन जी अब सिर्फ स्मृतियों में ही जीवित हैं।उनकी अधिकांश कृतियों ज़मींदोज़ हो गयी हैं ।

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  5. दयाशंकर शरण21 सित॰ 2020, 3:12:00 pm

    भीमसेन त्यागी जी को याद करते हुए श्री मोहन गुप्त के निजी संस्मरण दिल को छू गये । उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के कई अनछुए ,दुर्लभ, प्रिय और अप्रिय प्रसंगों को जिस बेबाकी, तन्मयता और आत्मीयता से उन्होंने याद किया है -वह न सिर्फ़ साहित्यिक बल्कि लेख़कीय स्वाभिमान की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है । इस संस्मरण में एक लेखक का आत्म-संघर्ष है ,साहित्य को हर हाल में अपनी शर्तों पर जीने का जुनून है और सबसे बढ़कर उसकी खुद्दारी है जो किसी भी अन्याय ,अपमान और जलालत को नहीं सहते हुए विद्रोह कर देती है । ऐसे समय में जब दोस्ती के नाम पर खुदगर्ज़ी और मौकापरस्ती चल रही हो, यह संस्मरण एक उमस भरे मौसम में ताज़ा ठंडी हवा के झौंके की तरह है । उनकी स्मृति को प्रणाम !

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  6. मेरा और मोहन जी का संग - साथ करीब 14 साल रहा । 1978 से लेकर 1992 तक । राजकमल में संपादकी करते हुए नितांत औपचारिक । आफिशियल । शायद इसीलिए उनके रचनात्मक लेखन ( अगर उन दिनों भी वह कुछ रहा हो ! ) से भी अपरिचित रहा । भीमसेन जी को लेखक के रूप में जानता था । हरिपाल जी से परिचय ही नहीं , नज़दीकी रही । लेकिन भीमसेन त्यागी के जीवन - संघर्ष को लेकर मोहन जी का यह संस्मरण निश्चय ही मूल्यवान है । डूब कर लिखा है उन्होंने । रचा है उन्हें और स्वयं अपने आप को भी । जीवंत कर दिया है उस दौर को ,और उसमें भीमसेन जी जैसे खुद्दार लेखक के होने को । जहां तक हरिपाल त्यागी जी के साथ न्याय नहीं होने का सवाल है तो यहां उसकी गुंजाइश ही नहीं थी । इस संस्मरण के रचनात्मक दायरे के चलते मुझे ऐसा ही लगता है । सच कहूं तो मोहन जी को मैं पहली बार लेखक के रूप में स्वीकार कर पा रहा हूं !

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