राजेन्द्र राजन की दस कविताएँ



कवि के लिए कितना कुछ है देखने के लिए, कहने के लिए. कभी-कभी वह एक भीगते चित्र से कविता तराश लेता है. प्रशस्ति-गायकों के बीच महाराज की असलियत भी उससे छुपी नहीं है. वह अपने अंदर की बड़बड़ाहट को सुनता है. राजेन्द्र राजन अपनी कविताओं में इसी तरह का संसार रचते हैं. उनका एक कविता संग्रह ‘बामियान में बुद्ध’ में प्रकाशित है, उनकी दस कविताएँ आपके लिए.   




राजेन्द्र राजन की दस कविताएँ 

 

 

 

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मंथन

 

मैं मथा जा रहा हूं रोज

पल-पल

जैसे मथा गया था समुद्र

देवासुर संग्राम के समय

 

एक ओर

सारे देवता खींच रहे हैं मुझे

दूसरी ओर सारे असुर

 

इस रस्साकशी में हहराता हुआ

मैं कभी देवताओं की ओर

झुका हुआ दिखता हूं

कभी असुरों की ओर

 

क्या वह घड़ी कभी आएगी

जब मैं किसी तरफ झुका हुआ नहीं होऊंगा

जब मैं खींचतान से मुक्त हो जाऊंगा

जब सारे असुर भी मेरा पिंड छोड़ देंगे

और सारे देवता भी

 

न देवता कभी थकते हैं न असुर

अनथक ऊर्जा है उनमें

चमत्कारी शक्तियां हैं उनके पास

पर वे अमृत के भूखे हैं

 

उनकी इस व्याकुलता ने

क्या हाल बना दिया है मेरा

जाने कब से

मैं मथा जा रहा हूं रोज

पल-प्रतिपल

पर एक बूंद अमृत निकलना तो दूर

एक मामूली-सा रत्न भी

अभी तक नहीं निकला

 

अलबत्ता मेरे अथाह तल में

दबा-छिपा कचरा जरूर

सतह पर आ गया है

जिसे देख-देख

मैं शरमिंदा होता हूं.

 

 

 

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कौन है वह

 

इन दिनों जब भी घर से निकलता हूं

जगह-जगह चित्रित

एक बदली हुई देव-छवि को देख

विस्मित रह जाता हूं

 

न कृपालुता-पूरित नेत्र

न अभयदान को उठा हाथ

न लास्य न लीलाभाव

न असीम आनंद की आभा

 

उलटे अशांति-प्रेरित कल्पना से रची हुई मुद्राएं

क्रोध से विस्फारित आंखें

तनी हुई भृकुटियां

चिंता की रेखाएं

 

इस बदली हुई देव-छवि के पीछे

किसका हाथ है

कौन है वह

कोई वहशी चितेरा

या हमारी स्मृतियों का लुटेरा?

 

 

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मैं बड़बड़ाहट का एक समंदर हूं

 

प्रतिपल अपनी लहरों के शोर से आक्रांत

मैं बड़बड़ाहट का एक समंदर हूं

 

भीतर दूर कहीं गहरे में उठती है एक तरंग

और पलक झपकते एक लहर बन जाती है

सतह को हिलोरती हुई

एक लहर का पीछा करती हुई आती है एक और लहर

जिसे घेरती हुई एक और लहर आती है

इस तरह की अनगिनत लहरों के बीच

एक लहर आती है ऐंठती बल खाती हुई

एक लहर आती है लरजती दुबकती डरती हुई

एक लहर उठती है चांद की तरफ मचलती हुई

और क्षणिक वेग से गिर जाती है

एक लहर आती है ढेर सारा झाग उगलती हुई

एक जोर की लहर उठती है विकट अंधेरे में

दिखती नहीं सिर्फ आवाज से बताती हुई

कि वह एक लहर है दूर तक जाती हुई

एक लहर आती है दूसरी लहर से गुत्थमगुत्था होती हुई

एक लहर आती है दूसरी लहर के पीछे

अपना सिर पटकती हुई

 

एक बेचैन लहर उठती है

और पल-भर में ज्वार बन जाती है

एक लहर उठती है फनफनाती

फूत्कार करती हुई

और एक भंवर में बदल जाती है

 

इस तरह के जाने कितने भंवर हैं मेरे भीतर

किसी न किसी भंवर में चक्कर काटना

मेरा रोज का अनुभव है

 

कभी-कभी उठता है मेरे भीतर

भयानक चक्रवात

जो मुझे दसों दिशाओं से

झिंझोड़ देता है

कभी-कभी उठता है ऐसा तूफान

जो बाहर-भीतर सब तरफ से

मुझे मरोड़ देता है

 

मेरी सतह पर तिरतीं ये टूटी नौकाएं

मुंह के बल गिरी हुई पताकाएं

ये पतवारें ये मस्तूल

ये खंड-खंड पोतों के मलबे

ये मेरी अधूरी यात्राओं

नाकाम अभियानों के निशान हैं

 

अगर मैं शांत रह सका होता

तो ये दृश्य देखने न पड़ते!

 

मैं बड़बड़ाहट का एक समंदर हूं

मुझे मालूम नहीं

मेरा किनारा कहां है.

 

 

 

 

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पार

 

याद आते हैं स्कूली छुट्टियों के वे दिन

जब हम ननिहाल जाते

शहर की घनी बस्तियों और

बड़बड़ाते बाजारों के सीमांत पर पहुंच कर

पुल से या नाव से नदी की दूसरी तरफ जाना

एक खुलेपन में प्रवेश करना होता था

जहां किनारे से बंधी दो-चार खाली नावें

लहरों की थपकियों से डोल रही होतीं

कहीं भैंसें पानी को हिलोर रही होतीं

धूप में चमकते रेतीले विस्तार में

कहीं दो-चार गुमटियां नजर आतीं

जिनमें साबुन-तेल या पूजा-पाठ

क्रिया-अनुष्ठान का सामान

बिक्री के लिए धरा होता

दूर नजर आती किसी साधु की कुटिया

फिर परिदृश्य पर मटमैले धब्बे-सा एक टीला

फिर झाड़ियां शुरू हो जातीं और फिर अमराइयां

 

गांव आने से पहले

नींबू और पपीते और केले के छोटे-छोटे बाग

इमली और नीम और पीपल के पेड़

बताते कि हम सही दिशा में हैं

गांव पहुंचने से पहले

पक्षियों के नरम कोलाहल के बीच

अचानक किसी अनजान परिंदे की अकेली विकल आवाज

हमें विस्मय से भर देती

 

अब नदी की दूसरी तरफ भी

ऐन किनारे तक उग आई हैं

मकानों और दुकानों की झाड़ियां

क्षितिज तक फैल गया है बाजार का शोर

 

अब जब भी उस पार जाता हूं

खुलेपन का अहसास नहीं होता

लगता ही नहीं कि पार निकल आया हूं.

 

 

 

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भग्न प्रतिमा

 

कोई आंधी-तूफान नहीं आया

न भूकंप

न बिजली गिरी

हां साहब, यह प्रतिमा

किसी हादसे या दुर्घटना का शिकार नहीं हुई

इसे एक नकाबपोश भीड़ ने ढहाया है

जमाने को जीतने के अंदाज में.

 

जब यह प्रतिमा

चबूतरे पर अपनी जगह स्थापित थी

तब इसके एक हाथ में किताब थी

और दूसरा हाथ था हवा में उठा हुआ

तर्जनी से दूर कहीं

लक्ष्य की तरफ इशारा करता हुआ.

 

तब इसके पांवों के पास

राहगीर सुस्ताते थे

चबूतरे की आड़े में

बच्चे छुपमछुपाई खेलते थे

कभी-कभी

कुछ धुनी किस्म के लोग यहां आकर

उस किताब के बारे में बातें करते

जिसे वह प्रतिमा एक हाथ में

बहुत अरसे से थामे थी

उनकी बातों से लगता

कि यह कोई मामूली किताब नहीं है

यह सभी को पढ़नी चाहिए

इसमें सबके साझे सपने

साझे दर्द

साझी विरासत

साझा भविष्य

और साझे संकल्प दर्ज हैं.

 

शहर में कोई जुलूस निकलता

तो वह यहां आकर सभा में बदल जाता

फिर दुनिया-जहान की बातें होतीं

जमाने की सूरत बदलने की तकरीरें होतीं

इंकलाबी नारे लगते

और कभी-कभी उस किताब में लिखी

कोई प्रतिज्ञा भी दोहराई जाती.

 

यह सब धीरे-धीरे रस्मी हो चला था

और हवा में एक उकताहट भर गई थी

लेकिन सब इस प्रतिमा के आगे

अब भी नतमस्तक थे

और उसके एक हाथ में जो किताब थी

उसे अपनी किताब मानते थे

और प्रतिमा का दूसरा हाथ

जिस ओर इशारा करता था

उसे ही सही दिशा बताते थे.

 

फिर प्रतिमा को ढहाने वाली भीड़ कहां से आई?

क्या वे लोग किसी बर्बर बहकावे में आ गए थे?

क्या कोई उकताहट थी जो बौखलाहट में बदल गई थी?

कोई षड्यंत्र था जो भीड़ में छिपकर

अपना काम कर रहा था

और तेजी से बढ़ता हुआ बेकाबू हो गया था?

 

औंधे मुंह धराशायी होने के बाद

प्रतिमा के जिस हाथ में किताब थी

वह कंधे से उखड़ गया है

दूसरे हाथ की तर्जनी टूट गई है

नाक कट गई है

माथा फूट गया है.

 

प्रशासन ने एक बार फिर दोहराया है

आवागमन में हो रही दिक्कतें हमें मालूम हैं

लोग जरा सब्र रखें

जल्दी ही मलबा हटा दिया जाएगा.

 

 


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यह दौर

 

 

जिसने बस दो-चार पत्तियां तोड़ी थीं

वह चोरी से सारे फल तोड़ लेने के आरोप में बंद था

उसकी सजा पर सवाल उठ ही रहे थे

कि एक आदमी को पेड़ काटने के जुर्म में पकड़ लिया गया

जिसने सिर्फ एक टहनी तोड़ी थी

फिर उसके मोबाइल में मिले नंबरों की बिना पर

कुछ लोग इस आरोप में पकड़ लिये गए

कि वे पेड़ काटने के षड्यंत्र में शामिल थे

कुछ दिन बाद एक और आदमी को पकड़ लिया गया

पेड़ काटने के लिए उकसाने के आरोप में

जो लोगों को पेड़ों का महत्व बताते हुए

पेड़ों को बचाने का आह्वान करता घूम रहा था.

 

एक पत्रकार ने इन गिरफ्तारियों के बारे में बताते हुए

फोटो सहित अपनी रिपोर्ट में लिखा था

कि पेड़ तो अपनी जगह जस का तस खड़ा है

सिर्फ एक टहनी टूटी है

उसे झूठी खबर फैलाने के आरोप में पकड़ लिया गया

जिस अखबार में यह रिपोर्ट छपी थी

एक दिन बाद उसके संपादक और मालिक को चेताया गया

कि आइंदा गलत खबर न छापें

इसी के साथ यह घोषणा की गई

कि पेड़ों की रक्षा के नियम काफी सख्त बना दिए गए हैं

इनका उल्लंघन करनेवालों पर सख्त कार्रवाई की जाएगी.

 

जिसके आदेश पर ये गिरफ्तारियां हुई थीं

उसी के कहने पर पेड़ काटा गया

उक्त घोषणा के दस दिन बाद

जब उधर से

उसके एक मित्र के बेटे की

बारात को गुजरना था.

 

बारात से एक दिन पहले

एक स्थानीय व्यक्ति ने सुझाया था

कि पेड़ काटे बिना भी बारात आराम से जा सकती है

उसे आवाजाही बाधित करने के आरोप में पकड़ लिया गया.

 

जब उसे लेकर जाने लगे

तब एक पुराने अनुभवी आदमी के मुंह से

सहसा निकल पड़ा-

बहुत बुरे दिन आ गए हैं.

उसे राजद्रोह के आरोप में पकड़ लिया गया.

 

इस बार

कोई खबर नहीं छपी.

 

 


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इतिहास का ऊंट

  

क्या बोलना है

क्या करना है

किधर चलना है

यह तय करने से पहले

वे यह सुनिश्चित कर लेना चाहते थे

कि इतिहास का ऊंट

किस करवट बैठेगा.

 

लेकिन इतिहास का ऊंट

था बड़ा अजीब

आखिरकार वह किस करवट बैठेगा

इसका ठीक अंदाजा ही नहीं लगने देता था.

 

फिर भी

उसकी हरेक हरकत पर

वे बारीकी से निगाह रखे हुए थे

जैसे वह बिलकुल पास में खड़ा हो.

 

लेकिन वह रुका हुआ नहीं था

वह चल रहा था

और चलते-चलते दूर होने लगा

धुंधला दिखने लगा

और लंबा रेगिस्तान पार करते हुए

धीरे-धीरे उनकी नजरों से ओझल हो गया.

 

वे अब भी

हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं

चुप्पी साधे हुए

इस इंतजार में

कि इतिहास का ऊंट फिर इधर आएगा

तब उसका रुख देखकर तय करेंगे

कि क्या बोलना है

क्या करना है

किधर चलना है.

 

 


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पाठ

 

 

इतिहास का

वह एक खुला हुआ पाठ है

गांधी अधलेटे-से बैठे हैं

दीवार से लगे

बड़े-से तकिए पर पीठ टिकाए

उनका मुंह ताकते हुए

उत्सुक भाव से

उनकी एक ओर बैठे हैं

जवाहरलाल नेहरू

और दूसरी ओर

सरदार वल्लभ भाई पटेल.

 

गांधी की नजर

एक छोटी-सी तख्ती पर है

तख्ती पर दो-चार पन्ने संलग्न हैं

लगता है वह कुछ पढ़ रहे हैं

शायद नेहरू और पटेल का लाया हुआ

कोई प्रस्ताव

या अपना ही तैयार किया हुआ

कोई मसविदा

जिसे वह नेहरू और पटेल को

सुनाने से पहले

फिर से देख लेना चाहते हैं.

 

नेहरू और पटेल की मुखमुद्रा से लगता है

जैसे दोनों

गांधीजी की राय जानना चाहते हैं

किसी नाजुक मसले पर.

 

उक्त फोटो के साथ दिए हुए

पाठ को पढ़ते-पढ़ते

उसे भूख लग आई

और वह पाठ्यपुस्तक छत पर खुली छोड़

नीचे चला गया.

 

बूंदाबांदी का आभास मिलते ही

बच्चे की मां छत पर आती है

किताब खुली देख उस तरफ बढ़ती है

तभी एक बूंद गांधीजी पर गिरती है

नेहरू और पटेल

दोनों द्रवित हो जाते हैं.

 

किताब उठाने से पहले

वह पल-भर ठिठक कर देखती है

जैसे तीनों के भीग जाने पर

अफसोस जता रही हो

 

फिर वह किताब उठाती है

माथे से लगाती है

अलगनी से कपड़े उतारती है

नीचे चली जाती है.

 

 

 

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स्थिति

 

काफी जद्दोजहद और छानबीन के बाद

वहां जाने की इजाजत मिली थी

जगह-जगह तलाशियों से गुजरकर

वहां पहुंचकर उसने देखा

दुकानें और खिड़कियां-दरवाजे सब बंद थे

कदम-कदम पर संगीनों का पहरा था

सड़कों पर हर कहीं

एक खौफनाक सन्नाटा पसरा था

उस सन्नाटे में रह-रह कर

बूटों की धमक सुनाई देती थी

कभी-कभी भागते कदमों की आवाज.

 

आने-जाने का कोई साधन नहीं दिख रहा था

सो उसने सोचा कि दोस्त को फोन कर दे

स्कूटर लेकर यहीं आ जाओ

बॉस ने कहा भी था

किसी लोकल पत्रकार को साथ ले लेना

लेकिन मोबाइल काम नहीं कर रहा था

आखिर डायरी में दर्ज पते पर वह पैदल ही पहुंच गया

दोस्त तपाक से मिला मगर वह परेशान था

घर पर मां बीमार थी और यहां दफ्तर में

इंटरनेट नहीं चल रहा था

जबकि उसे खबर भेजनी थी.

 

वह दोस्त के साथ उसके घर गया तो देखा

उसकी मां बीमारी में भी काम कर रही थी

अलबत्ता उसके पिता लुंजपुंज पड़े थे

जैसे कोई सदमा लगा हो

या गहरे अवसाद में डूबे हों.

 

दोनों दोस्त चाय पी रहे थे

कि पड़ोस से एक औरत के

फूट-फूट कर रोने की आवाज आई

पूछा तो पता चला

उसका लड़का परसों से लापता है

और मां-बाप आज भी

पुलिस स्टेशन पता करने गए थे

अभी-अभी लौटे हैं.

 

दोस्त के साथ वह कुछ अन्य स्थानीय लोगों से मिला

कुछ पूछो या न पूछो उनकी व्यथा

उनके चेहरों पर झलक आती थी

एक ने नाम न छापने की शर्त पर

अपना डर और दर्द और गुस्सा बयान किया

एक ने कहा कि कहने से कोई फायदा नहीं

सब दिखा रहे हैं कि स्थिति सामान्य है

सबकुछ ठीकठाक है लोग खुश हैं

तो आप भी जाकर वही बताएंगे

सच बताने की किसी में हिम्मत नहीं.

 

दोस्त उसे एक ऊंचे मकान की छत पर ले गया

उंगली से इशारा करते हुए बताया

वह जगह यहां से ज्यादा दूर नहीं

जहां दोनों ओर तैनाती काफी बढ़ा दी गई है

 

उसने देखा कि दोनों तरफ

तमाम तैनाती के बावजूद

परिंदे उधर से इधर आ रहे थे

बादल इधर से उधर जा रहे थे.

 

वह दिल्ली लौटा और सीधा दफ्तर गया

लेकिन बॉस ने साफ मना कर दिया

---नहीं, यह रिपोर्ट नहीं छप सकती

---लेकिन सर, सच्चाई यही है

---सच्चाई से क्या होता है

जब सब दिखा रहे हैं कि स्थिति सामान्य है

और लोग खुश हैं

तो हम वह सब कैसे छाप सकते हैं

जो तुमने लिखा है

असल में गलती मेरी है

मुझे किसी और को भेजना चाहिए था

तुम घर जा सकते हो.

 

मुंह लटकाए वह घर में

दाखिल होने ही वाला था कि सोचा

पड़ोस के अंकल की खबर ले लें

जब वह ऑफिस से चला ही था उनके बारे में

फोन आया था कि वह सीढ़ियों से गिर गए हैं

 

अंकल के सिर पर पट्टी बंधी थी

अभी भी खून टपक रहा था

पर वह झूम-झूम कर गा रहे थे

नशे में थे खूब चढ़ा रखी थी.

 

रात को सोने से पहले उसने सोचा

क्या ऐसी भी मनःस्थिति होती है

कि एक अंग कितनी भी पीड़ा भुगत रहा हो

दूसरे अंगों को उसका अहसास नहीं होता?

चाहे शरीर हो चाहे देश?

 

 



(१०)

 

शिकार

 

वे अकसर

नगर चौक में इकट्ठा होते

और प्रशस्ति-गान शुरू कर देते-

 

महाराज परम पराक्रमी हैं

महाराज के कारण

हम सब सुरक्षित हैं

चारों तरफ सुख-शांति है

प्रजा सुखी-संपन्न है

 

महाराज दूरदर्शी हैं

दिग्विजयी हैं

अपूर्व हैं

महान हैं

उनकी महिमा अपरंपार है

 

महाराज के शत्रुओं का नाश हो

महाराज की जय हो.

 

प्रशस्ति-गायक

महाराज के प्रति

भक्ति की अभिव्यक्ति के

कुछ और भी तरीके इस्तेमाल करते थे

जैसे सवेरा हो गया है ऐसा न कहकर

वे कहते थे महाराज के राज में

सवेरा हो गया है

प्रशस्ति-गायकों में से कोई उत्साह में आकर

यह भी जोड़ देता कि

ऐसा सुंदर सवेरा पहले कभी नहीं हुआ था

और फिर बाकी सब

उसे दोहराने लगते

 

कहीं फूल खिले हों

तो वे समवेत स्वर में कहते

महाराज के राज में फूल खिले हैं

इससे सुंदर फूल पहले कभी नहीं खिले थे.

 

प्रशस्ति-गायन कभी-कभी किरकिरा भी हो जाता

जैसे एक बार वे दोहराए जा रहे थे

कि प्रजा सुखी-संपन्न है

प्रजा सुखी-संपन्न है...

तभी एक औरत

दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ

भीख मांगती आ खड़ी हुई

एक बार वे दोहराए जा रहे थे

कि चारों तरफ सुख-शांति है

चारों तरफ सुख-शांति है...

इसी बीच दो राज कर्मचारी खुलेआम

एक बूढ़े आदमी की गांठ के पैसे ऐंठकर

चलते बने.

 

लेकिन प्रशस्ति-गायक

ऐसी घटनाओं को तवज्जोह नहीं देते थे

इसलिए उनके उत्साह में कोई फर्क नहीं पड़ता था

वे महाराज की पराक्रमी छवि को याद करते

और प्रशस्ति-गायन जारी रखते.

 

महाराज को स्वर्ण-निर्मित पलंग की इच्छा हुई

तो उसके लिए धन जुटाने की खातिर

उन्होंने जन-कल्याण कर लगा दिया

प्रशस्ति-गायकों ने गाना शुरू कर दिया-

महाराज जन-कल्याण के लिए समर्पित हैं

महाराज जन-कल्याण के लिए समर्पित हैं...

 

यह कर लगने के कुछ दिन बाद

प्रजा में असंतोष के लक्षण दिखने लगे

लेकिन प्रशस्ति-गायक इसे महाराज के प्रति

षड्यंत्र का संकेत मानते थे

कहते थे जो महाराज में श्रद्धा नहीं रखते

वे नरक के भागी हैं

अक्षम्य अपराधी हैं.

 

कुछ दिन बाद महाराज को

अंतःपुर की साज-सज्जा में

और वृद्धि करने की इच्छा हुई

उन्होंने जन-कल्याण वृद्धि कर लगा दिया

प्रशस्ति-गायक नगर चौक में जमा हुए

और गाना शुरू कर दिया-

महाराज जन-कल्याण में वृद्धि चाहते हैं

निरंतर वृद्धि चाहते हैं

ऐसा कल्याणकारी राजा

पहले कभी नहीं हुआ था

पहले कभी नहीं हुआ था...

 

कुछ दिन बाद

प्रजा में असंतोष के लक्षण

और ज्यादा दिखने लगे

लेकिन मालूम होते हुए भी

महाराज इसकी ज्यादा परवाह नहीं करते थे

वह जानते थे कि एक बार फिर

शिकार पर जाएंगे

शेर को मारकर लाएंगे

फिर उनके पराक्रम की वाहवाही में

असंतोष के सारे लक्षण हवा हो जाएंगे.

 

दरअसल जब भी महाराज को

प्रजा में श्रद्धा-भाव कम होता दिखता

वह शिकार पर निकल जाते

दो-चार अत्यंत विश्वास पात्रों

और परम विश्वस्त अंगरक्षकों समेत

साथ में एक बड़ा-सा छकड़ा भी होता

पूरी तरह से ढंका हुआ

जिसे बैल खींचते

 

आगे-आगे महाराज का रथ

पीछे-पीछे छकड़ा.

 

महाराज अंधेरा घिरने से पहले लौट आते

वापसी में छकड़ा निरा वृत होता

छकड़े में मारा जा चुका शेर दिखता

जिसकी गरदन और पेट में

महाराज के अचूक बाण धंसे होते.

 

मरे हुए शेर से कौन डरता?

सो उत्सुक भीड़ निकट से देखना चाहती

लेकिन अंगरक्षक भाले घुमा-घुमाकर

लोगों को पास आने से रोकते रहते

नगरवासी मारे गए शेर को दूर से देखते

महाराज के साहस और पराक्रम की बातें करते

और प्रशस्ति-गायक

जय-जयकार के नारे लगाते

लोगों को बताते कि हमारे महाराज

छोटे-मोटे जानवर का शिकार नहीं करते

सिर्फ शेर का शिकार करते हैं

और सदा सफल होते हैं

सारा जंगल उनसे थर-थर कांपता है

शेर डर के मारे गुफा में छिप जाता है.

 

इस तरह महाराज

कई बार शिकार पर गए

और हर बार

सफल होकर लौटे

प्रजा में उभर रहे असंतोष पर

हर बार उनका पराक्रम भारी पड़ा

फिर वे निश्चिंत होकर राजपाट करने लगे.

 

लेकिन एक दिन

किसी ने सोचा न था वैसा हुआ

तीसरे पहर सबको शेर की दहाड़ सुनाई दी

महाराज जब भी शिकार पर जाते

दिन के इसी वक्त जाते थे

प्रशस्ति-गायकों को लग रहा था

शेर खुद चलकर मौत के मुंह में आ गया है

वह नगर की सीमा तक आ गया होगा

महाराज सदल-बल निकलेंगे

और अभी उसका काम तमाम कर देंगे.

 

लेकिन महाराज नहीं निकले

शेर की दहाड़ सुनाई देती रही

पर महाराज किले से बाहर तो क्या

अपने कक्ष से भी बाहर नहीं निकले

न सैनिकों और गुप्तचरों को भेजा

लोग अचंभित थे कि महाराज क्यों नहीं निकले.

 

प्रशस्ति-गायकों ने लोगों की हैरानी को

यह कहकर शांत किया

कि शेर जान-बूझकर

ऐसे समय दहाड़ रहा था

जब महाराज पूजा में बैठे थे

लेकिन वह बचकर जाएगा कहां?

 

महाराज देर रात तक चिंता में डूबे रहे

फिर इस संकल्प के साथ सोए

कि अगले दिन शेर को मार लाएंगे

लोग मरे हुए शेर को देखेंगे

तालियां बजाएंगे

फिर से उनके पराक्रम के गीत गाएंगे.

 

दूसरे दिन महाराज उसी तरह निकले

जैसे वह हर बार शिकार पर जाते थे

साथ में दो-चार अत्यंत विश्वासपात्र दरबारी

परम विश्वस्त अंगरक्षक

आगे-आगे महाराज का रथ

पीछे-पीछे ढंका हुआ छकड़ा

 

नगर चौक में पहले से जमा

प्रशस्ति-गायक आश्वस्त थे

कि आज एक बार फिर

गौरवान्वित होने का दिन है

और इसी खुशी और उत्साह में

वे किए जा रहे थे लगातार

महाराज की जय-जयकार.

 

लेकिन नगर की सीमा पार करना तो दूर

महाराज अभी

नगर चौक पहुंचने ही वाले थे

कि शेर की दहाड़ सुनाई देने लगी

 

प्रशस्ति-गायकों को लगा

दहाड़ सुनकर महाराज को प्रसन्नता हुई होगी

शिकार कहीं पास में है

और जल्दी ही मारा जाएगा

 

मगर महाराज के चेहरे पर

हवाइयां उड़ रही थीं

वह नगर चौक पर पहुंचे ही थे

कि शेर की दहाड़

बार-बार सुनाई देने लगी.

 

महाराज समझ नहीं पा रहे थे

कि क्या करें!

सहसा उनके इशारे से रथ रुक गया.

 

दहाड़ तेज और तेज

और तेज होती जा रही थी

लग रहा था जैसे वह हवा में भर गई है

आसमान में छा गई है

जमीन से निकल रही है

हर तरफ से हरेक रास्ते से

हरेक घर से

नगर के कोने-कोने से

दसों दिशाओं से आ रही है

ऐसी दहाड़ पहले कभी

किसी ने नहीं सुनी थी.

 

यह भीषण दहाड़ सुनकर

रथ के घोड़े जोर-जोर से

हिनहिनाने लगे

छकड़े में जुते बैल भी

छूट भागने के लिए

छटपटाने लगे

भाग निकलने की उनकी जद्दोजहद में

छकड़ा उलट गया

 

लोगों ने अचंभे से देखा-

शेर का पुतला

जमीन पर गिरा पड़ा था

उसकी गरदन और पेट में

बाण खुंसे थे.

 

अंगरक्षक रथ को घेरे खड़े थे

विश्वासपात्र पंखा झल रहे थे

महाराज बेहोश थे

और प्रशस्ति-गायक

खामोश. 

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राजेन्द्र राजन

जन्म 20 जुलाई 1960.


एक लंबा अरसा कार्यकर्ता के रूप में बीता और इस दौरान अधिकांश समय सामयिक वार्ता के संपादन में भागीदार रहे. पंद्रह साल जनसत्ता के संपादकीय पृष्ठ पर ड्यूटी की. जनसत्ता के वरिष्ठ संपादक के पद से सेवानिवृत्त.


एक कविता संग्रह बामियान में बुद्ध नाम से (साहित्य भंडार, इलाहाबाद) प्रकाशित.

प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक नारायण देसाई की किताब माइ गांधी का हिंदी में अनुवाद (मेरे गांधी नाम से प्रकाशन विभाग) से प्रकाशित.

4/Post a Comment/Comments

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  1. बहुत सहज और प्रभावी कविताएं
    बधाई।

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  2. बहुत अच्छी कवितायें।

    जवाब देंहटाएं
  3. राजेंद्र राजन की कविताओं को पढ़ते हुए कई बार भ्रम हुआ कि मैं परसाई को कविता के फार्म में पढ़ रहा हूँ । इस अर्थ में राजन जी भी अपनी कविताओं से वही काम कर रहे रहे हैं जो परसाई जी अपने धारदार व्यंग्यों से किया करते थे । कथात्मक शैली के फार्मट में रची गई ये कविताएँ समकालीन यथार्थ के पाखंड की एक-एक परत को उजागर करती हुई एक गहरे व्यंग्य के साथ खत्म होती हैं । कुछ कविताएँ तो अपने शिल्प और कथ्य में अद्भुत हैं ,जैसे-मैं बड़बडाहट का एक समुन्दर हूँ, यह दौर, इत्यादि । व्यवस्था के विरोध में ये कविताएँ एक तरफ मनुष्य की अदम्य जीजिविषा और उसके सपनों की संवाहक हैं ,तो दूसरी तरफ उसकी त्रासद स्थितियों से गुजरती हुई अंत में उपहास , विडम्बना और व्यंग्य में परिणत हो जाती हैं ।

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