परख : शकुंतिका (भगवानदास मोरवाल) : कुबेर कुमावत

शकुंतिका : भगवानदास मोरवाल
पहला संस्करण : २०२०
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
१- बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली- ११०००२
मूल्य : पेपरबैक - ६५
 हार्ड बैक- २९५ 
 



वरिष्ठ कथाकार भगवानदास मोरवाल के राजकमल प्रकाशन से इसी वर्ष प्रकाशित उपन्यास 'शकुंतिका' की समीक्षा कुबेर कुमावत की कलम से. 




शकुंतिका का अर्थात : कुबेर कुमावत                   



भारत के तमाम जाति-वर्ग,धर्म के लोगों में यह दृढ़ विश्वास के साथ कहा जाता है कि बेटियाँ अपने माता-पिता से सर्वाधिक प्रेम करती है.  बल्कि पिता से तो कुछ अधिक ही करती है. कहा तो यह भी जाता है कि जिस घर में बेटी है उस घर के वृद्ध माता-पिता को कभी वृद्धाश्रम की  सीढियां नहीं चढ़नी पड़ेगी.  यह बेटियाँ भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है.  भारतीय संस्कृति का निर्माण त्याग के आदर्श पर हुआ है. परंतु यह भी एक कटु सत्य है कि इसी भारतीय संस्कृति में बेटों को कुल का दीपक माना जाता है. यद्यपि बेटियाँ कुलदीपक तो नहीं होती परंतु कुलदीपक से कम भी नहीं होती इसी कथ्य को लेकर शकुंतिका उपन्यास का ताना-बाना भगवानदास मोरवाल ने बुना है.  

यह भी सत्य है कि चाहे अपनी हो या परायी,बेटियां कुल की लक्ष्मी मानी जाती है. यद्यपि भारतीय संस्कृति में बेटा-बेटी,स्त्री-पुरुष की बराबरी और असमान व्यवहार को लेकर कई तरह के अंतर्विरोध मौजूद है.  परन्तु आज भी भारतीय परिवार-व्यवस्था में स्त्री-पुरुष को रथ के दो पहिये माना जाता है.  इस परिवार व्यवस्था में बेटा-बेटी के जन्म को लेकर जो विवादित पारंपरिक मान्यताएं,विश्वास,सोच और मन:सरणियाँ (माईंडसेट्स) है उन्हें भला किस प्रकार ध्वस्त किया जा सकता है? क्या उपन्यास- -कार इन प्रश्नों का हल खोजने में सफल होते है?
                        
शकुंतिका’ आकार में अत्यंत छोटा उपन्यास है जिसे उपन्यासिका भी कहा जा सकता है.  घर में पुत्र-पुत्री के जन्म और महत्व को लेकर इसका कथ्य स्पष्ट है. इसी प्रसंग में जो पितृसत्तात्मक धारणाएं समाज की गहराई तक अपनी जड़ें जमा चुकी है उसपर भी उपन्यासकार ने यथास्थान कटाक्ष किये है.  शकुंतिका की कथावस्तु इसके दो मुख्य स्त्री चरित्र भगवती और दुर्गा के आसपास ही बुनी गयी है.  यह दो महिलायें भारत की उन करोड़ों महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती है जो यह मानती है कि बेटा ही कुल का दीपक होता है और बिना पुत्र के वंश नष्ट हो जाता है. यह अत्यंत भीषण वास्तव है. शिक्षित-अशिक्षित,शहरी-ग्रामीण सभी तरह के लोग और परिवार इस भीषण चिंता और भय से पीड़ित है और आज भी इस क्रूर मान्यता के कारण न जाने कितनी ही कन्याओं के भ्रूण गर्भ में मार दिए जाते है. पुत्र के अभाव से सामाजिक एवं पारिवारिक असुरक्षा का जो भय परिवारों में व्याप्त होता है वह अत्यंत भीषण है. उपन्यास का प्रारंभ इसी चिंता से होता है. जब दुर्गा अपने घर चौथे पोते के जन्म की ख़ुशी एवं उल्लास में लड्डू देने आती है तो भगवती को आश्वस्त करते हुए कहती है, “मुझे पक्का यकीन है कि इस बार तुम्हारे घर लडके की ही किलकारियां गूंजेंगी”.  

तब भगवती उसे कहती है, “अगर इस बार भी नहीं हुआ न,हम तो जीते-जी मर जायेंगे. पहले से दो-दो लड़कियों को देखकर मेरे तो हाथ-पाँव फुले जाते हैं. ” यह भगवती की ही नहीं,ऐसी कई महिलाओं की स्थिति और सोच है.  यह रोंगटे खड़े करनेवाली सामाजिक मानसिकता है. भगवती और दुर्गा एकदूसरे की पड़ोसन है. दोनों के दो-दो पुत्र है और अब इन महिलाओं की यह अपेक्षा है कि उनके घर पोतों का ही जन्म हो.  दुर्गा इस सन्दर्भ में अत्यंत भाग्यशाली है कि उसके बड़े पुत्र नागदत्त और छोटे पुत्र अभय को दो-दो पुत्र है. परंतु भगवती इतनी भाग्यशाली नहीं है. भगवती के बड़े पुत्र बलवंत को पहले से ही सिया और गार्गी दो बेटियां है और बलवंत की पत्नी फिर से गर्भवती है.  दूसरे पुत्र रुपेश को अभी तक कोई संतान नहीं है. स्वाभाविक है कि भगवती चाहती है उसके परिवार में पुत्र का ही जन्म हो. ऐसी अपेक्षा करने में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है. परंतु समस्या तब पैदा होती है जब बलवंत की तीसरी संतान भी बेटी ही पैदा होती है. भगवती अत्यंत निराश हो जाती है. उसे यह भय खाने लगता है कि आगे उसके बेटे और वंश का क्या होगा? उसके घर में मातम छा जाता है.  

इस समस्या का समाधान किसी के भी पास नहीं है कि उसके वंश की रक्षा कैसे की जाए?आदर्श एवं महान विचारों के द्वारा ब्रेन वाश में इसका हल है क्या?यह चुनौती भी है और विडम्बना भी. यह समस्या थी, है और रहेगी. परंतु एक बड़ी हद तक उपन्यासकार ने इस नाजुक एवं गंभीर मामले को अपने स्तर पर बड़ी ही सूझ-बुझ,समझदारी,विवेक और उदार आधुनिक दृष्टिकोण से सुलझाने का प्रयास किया है जो अत्यंत सराहनीय है.  दुर्गा और भगवती इस उपन्यास के केंद्रीय पात्र  है. चिंतनीय यह है कि यह दोनों ज्येष्ठ महिलायें इस तथाकथित पारंपरिक सोच की वाहक है और पितृसत्तात्मक सोच की समर्थक भी. चुनौती यह भी है कि समाज की गहराई तक जड़ जमा चुकी इस धारणा या मानसिकता को गलत या मिथ्या कैसे ठहराया जा सके? इसी समस्या के समाधान में उपन्यास में कुछ घटनाएं अत्यंत तेजी के साथ घटित होती चलती हैं.

प्रारंभ में ही पितृसत्तात्मक धारणाओं पर लेखक ने प्रहार किया है.  भगवती की पोती को जब यह बताया जाता है कि दुर्गा के छोटे लड़के अभय को बेटा हुआ है तब गार्गी जो उत्तर देती है वह चौकानेवाला है, “अम्मा,अभय अंकल के नहीं. आंटी के हुआ होगा”. वह अपने दादा दशरथ से भी पूछती है, “दादाजी,यह बताओ कहीं अंकल के भी लड़का होता है?वह तो आंटी को हुआ होगा?” तब दशरथ उसके इस समझ की प्रतिक्रिया में जो उत्तर देते है वह विचारणीय है,-“बेटा,हुआ तो तेरे आंटी के ही है पर ऐसा कहते है. ” उपन्यासकार की दृष्टी एकदम साफ़ है कि उन्हें कहना क्या है? भगवती और दुर्गा को उनके मानसिक उहापोह,द्वंद्व एवं चरित्र की जटिलताओं को,आशा-अपेक्षाओं में उत्पन्न परिवर्तनों को अत्यंत मार्मिक शैली में उन्होंने प्रस्तुत किया है. निराशा एवं दुःख के भावों में डूबी भगवती धीरे-धीरे तीनों पोतियों को मन से स्वीकार कर लेती है. इधर दुर्गा अपने उपद्रवी और आवारा पोतों से दुखी रहने लगती है. भगवती की तीनों बेटियाँ पढाई-लिखाई में तेज निकलती है जबकि दुर्गा के पोते साधारण निकलते है. 

दुर्गा यह चाहती है कि उसके पोतें सिया और गार्गी की तरह यश प्राप्त करें और डॉक्टर या इंजिनियर बने. प्रायः हम देखते हैं कि मध्यवर्गीय परिवारों में अपनी संतानों को लेकर इस तरह की प्रतियोगिता बनी रहती है. माता-पिता इसलिए निराश और दुखी हो जाते हैं कि उनकी संतानें परीक्षाओं में अव्वल नहीं आये. यद्यपि सामान्य दिखनेवाली यह प्रवृत्ति अत्यंत हानिकारक है. दुर्गा की अपने पोतों के विषय में बनी यह धारणा देखें,--“हे राम! ये सारे कौरव इसी घर में पैदा हो गए? एक भी तो काम का नहीं निकला. ” उपन्यास में यद्यपि किसी समस्या के रूप में इस व्यथा को चित्रित नहीं किया गया है पर दुर्गा के दुखी होने का कारण यह भी है कि गार्गी और सिया की बराबरी उसके पोते नहीं कर सकते. इधर भगवती पोतियों की सफलता को देखकर उस दुःख को भूल चुकी है जो कभी दुर्गा का सुख था. मूलतः कथ्य का केंद्र है यह विशाल भारतीय परिवार का पारंपरिक ढांचा,मध्यवर्ग की अवास्तविक महत्वाकाक्षाएँ, बेटों-बेटियों के प्रति परस्पर भिन्न सोच और अवांछनीय आशा-अपेक्षाएं.  

खैर उपन्यासकार ने इस दिशा की ओर इंगित किया है कि गार्गी और सिया जैसी बेटियाँ उपद्रवी,नालायक और निकम्मे रोहन और अमित से कहीं ज्यादा उपयुक्त है. ऐसी बेटियाँ जिस घर में पैदा हो वह घर स्वर्ग के समान है और वे बेटियाँ स्वर्ग की देवियाँ है. फिर ऐसी बेटियों के होने पर परिवार को गर्व होना चाहिए.
                           
उपन्यासकार आगे बढकर कथा को एक नया आयाम देते है और इस यथार्थ से भी अवगत कराते है कि बेटों में माता-पिता की संपत्ति में अपने अधिकार प्राप्ति की हेतु से प्रायः टकराव उत्पन्न होता है. यह टकराव संयुक्त परिवारों के बिखरने का मूल कारण है. कुल –दीपकों से भरा हुआ उग्रसेन और दुर्गा का घर टूट जाता है. उनके दोनों बेटें अपने परिवार के साथ स्वतंत्र गृहस्थी बना लेते है और अलग-अलग रहने लगते है. बल्कि भगवती और दशरथ का घर टूटने  से बचता है.  धीरे-धीरे अपने पोतों से उदासीन होती गयी दुर्गा घर में बेटियों की उपस्थिति के महत्व को समझने लगती है.

लेखक ने वस्तुतः यह संकेत किया है कि वास्तविक सुख या दुःख बेटे-बेटियों के जन्म में नहीं है बल्कि उनकी परिवार के प्रति निष्ठा और परस्पर प्रेम में है. जीवन की उपलब्धियों में नहीं है. उग्रसेन के दोनों बेटों ने धन तो बहुत कमाया पर अपने बच्चों की सही देखभाल करने में असफल रहे. इधर भगवती घर में धन की कमी तो है,पौत्र-सुख भी नहीं है. पर अपने तीनों पोतियों सिया,गार्गी और बुलबुल को उचित और उच्च शिक्षा देने में सफल तो है परंतु उन्हें कुलीन और संस्कारी बनाने में भी सफल हो गए है. कवि बच्चन जी ने कहा भी है,-“पूत सपूत तो क्या धन संचय? पूत कपूत तो क्या धन संचय?” 

जिन रत्नों पर दुर्गा और उग्रसेन को बड़ा गर्व था वे तो मामूली पत्थर साबित हो गए.  महंगे निजी स्कूलों में पढ़ाने का भी कोई लाभ नहीं हुआ. उपन्यास में प्रस्तुत यह तीसरा प्रसंग उपन्यासकार ने समाज का जो सूक्ष्म निरिक्षण किया उसका बेजोड़ प्रमाण है. सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने के प्रति धनिक या उच्च मध्यवर्ग की उदासीनता और निजी स्कूलों के प्रति मोह और आकर्षण भी एक भयंकर समस्या है. इसका नकारात्मक परिणाम उग्रसेन को मिलता है. बल्कि सरकारी साधारण स्कूलों में पढ़ी सिया और गार्गी वकील और डॉक्टर बनती है. लेखक ने उपन्यास में इस धारणा को भी ध्वस्त कर दिया कि निजी स्कूल डॉक्टर-इंजीनियर होने की गैरंटी है. यह उपन्यास की बहुत बड़ी उपलब्धि है जो जेंडर डीस्क्रिमिनेशन की मुख्य विषयवस्तु को एक नया आयाम देती है.
        
बेटा-बेटी में अंतर करनेवाली मानसिकता पर उपन्यासकार द्वारा आखरी चोट तब की जाती है जब भगवती के दूसरे नि:संतान बेटे रुपेश के लिए कोई बच्चा गोद लेने के समय यह निर्णय सर्वसम्मति से लिया जाता है कि गोद भी लड़की ही ली जायेगी,लड़का नहीं. यह काफी साहस भरा और क्रांतिकारी निर्णय कहा जा सकता है. यह उपन्यास की दुर्गा-भगवती कथा का चरमोत्कर्ष है. यह उपन्यास में कुछ लंबा चलनेवाला प्रसंग है. अनेक तरह की आशंकाएं,असमंजस,अंतर्द्वंद्व,भय और उहापोह के बाद लड़की गोद लेने का यह ठोस और कडा निर्णय लिया जाता है.  भगवती बताती है कि इस निर्णय के पीछे दुर्गा है. दुर्गा ने उसे इसके लिए प्रेरित किया और कहा,--“सुन भगवती,बूरा मत मानियो. इस वंश बढाने की भूख ने हमारे बेटियों की दुर्गत कर दी है. थोड़ी देर के लिए मान लो कि तुमने लड़के को गोद लिया तो इसकी क्या गैरंटी है कि वह तेरी इन पोतियों को बहन का दर्जा देगा ही. कहीं ऐसा न हो कि वह सारी जायदाद पर कब्जा कर बैठे और तेरी यह पोतियाँ यहाँ के रुखों के लिए भी तरस जाए. ” 

यह दुर्गा और भगवती के चरित्र विकास का महत्वपूर्ण प्रसंग है. इन दोनों परिवारों में इन दोनों महिलाओं की स्थिति कर्णधारों की तरह है.  उपन्यास के दसवें प्रकरण में अस्पताल,डॉक्टर,अनाथाश्रम और गोद लेने की प्रक्रिया,उसके लिए की जानेवाली भागदौड,डॉक्टर द्वारा भगवती की प्रशंसा करना,रुपेश और जयंती का अपने आपको मानसिक रूप से तैयार करना,नए मेहमान के स्वागत में सिया,गार्गी,बुलबुल में उत्साह और उमंग का संचार आदि प्रसंग कथावस्तु के स्वाभाविक विकास में अत्यंत सहायक बन पड़े हैं. नर्सरी में नन्ही बच्ची के झूले के पास रुपेश और जयंती के पहुँचाने का प्रसंग अत्यन भावुक करनेवाला है,--“प्रतिनिधि ने पालने में कपडे में लिपटी,एकदम शांत और सौम्य,गहरी नींद में सोयी बच्ची को उठाया और उसे जयंती की गोद में डाल दिया. दोनों हाथों से बने पालने और जिस्म की गर्मी पाकर अबोध मासूम जयंती के सीने से चिपक गयी. बच्ची के सीने से चिपकते ही जयंती फफककर रो पड़ी. उसके हाथ कांपने लगे. रुपेश ने पहले जयंती के हाथों के पालने की तरफ देखा. उसके बाद उसकी जैसे ही पत्नी से नजरें मिली,उसकी भी आँखों से आंसुओं की धारा बह निकली. जयंती ने बच्ची को अब रुपेश की गोद में डाल दिया. बच्ची के स्पर्श से रुपेश के पुरे बदन में जैसे ठंडी लहर दौड़ गयी. मुश्किल से दोनों होठों को दांतों तले भींचकर वह अपने आपको रोक पाया. ” एडॉप्शन प्लेसमेंट एजेंसी के स्वागत कक्ष में सभी उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे. जयंती ने जैसे ही अपनी गोद में सोयी बच्ची को भगवती की ओर बढाया तो भगवती के हाथ बीच में ही ठहर गए. भगवती के इस अप्रत्याशित व्यवहार से सभी सहम गए. तब भगवती ने मुस्कराते हुए जयंती से कहा,--“बहु,इसे गोद में लेने का पहला हक़ दुर्गा को है,असली दादी इसकी मैं नहीं,यह दुर्गा है जिसने इस बच्ची को दूसरा और असली जनम दिलाया है. ” 

इस प्रसंग का चित्रण उपन्यासकार की दृष्टी को नयी ऊँचाई प्रदान करता है. बच्ची जैसे ही दुर्गा के गोद में आती है,दुर्गा की हिचकियाँ बंध जाती है. जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंची दुर्गा का बेटियों के प्रति उमड़ा यह प्रेम उसके जीवन में बेटियों के अभाव को क्षण में नष्ट कर देता है. एक नारी की नारी के प्रति आत्मीयता,प्रेम,लगाव और आस्था का यह प्रसंग उपन्यास का सर्वश्रेष्ठ हृदयद्रावक प्रसंग है. बच्ची को न जाने कितनी बार दुर्गा चूमती है. वह अपनी जेब से काजल की एक डिबिया निकालती है और उस नन्ही की अनामिका के पोर में काजल और माथे पर बड़ा-सा टीका लगाकर कहती है, “मेरी पोती को नजर न लगे. ” 

यह प्रसंग दुर्गा और भगवती के जीवन को सार्थकता प्रदान करता है. दुर्गा और भगवती के माध्यम से उपन्यासकार अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सफल हो जाते है.  इस स्थान पर पहुंचकर दुर्गा के परिवार की कथा मुख्य कथानक से अलग हो जाती है और अब यह वंशवृद्धि की या लड़का-लड़की में  भेदभाव की कथा न होकर स्त्रियों की आत्म-निर्भरता, आत्मस्वतंत्रता की कथा के रूप में विकसित होती है.

दुर्गा और उग्रसेन अब भगवती के परिवार के अत्यंत विश्वासपात्र एवं परामर्शक बन जाते हैं. भगवती जब भी दुविधा एवं संकट में पड़ती है तब दुर्गा की सलाह लेने जाती है और दुर्गा भी उसकी दुविधा को क्षण में नष्ट कर देती है. यह कथा दो महिलाओं के परस्पर दृढ़ विश्वास,अंतरंग मित्रता,प्रगतिशील सोच और जर्जर सामाजिक मान्यताओं में उलझाने की और मुक्त होने की कथा है.   
     
      
असल में क्या है कि भारतीय परिवार व्यवस्था कई महीन,नाजुक,मुलायम,रेशमी,रंग-बेरंगी धागों से बुनी हुई है. इसमें जहाँ कई तरह के अंतर्विरोध है तो कई आदर्श भी है.  जहाँ उसमें कुछ कमियाँ है तो कई श्रेष्ठताएँ भी है. इस व्यवस्था में जहां पिता बेटियों के चरणस्पर्श करता है वहीँ यह बेटियाँ पराया धन भी मानी जाती है. सिया बड़ी हो चुकी है और अब उसके विवाह की चिंता भगवती और दशरथ को सताने लगी है. अब उपन्यास एक नयी दिशा में अग्रसर होता है. वास्तव में उपन्यासकार कुछ और बड़ा कहना चाहते है जो आवश्यक है. दशरथ का परिवार जिसे हम प्रायः भगवती का परिवार कहते रहे है, में स्त्रियों का विशेष सम्मान होता है. भगवती,रेवती,जयंती,सिया,गार्गी,बुलबुल और पिहू यह इस परिवार का स्त्री-पक्ष है और दशरथ,रुपेश और बलवंत यह पुरुष पक्ष. अब इस घर में स्त्रियों का बहुमत है परंतु तीनों पुरुष इन सभी स्त्रियों के आधारस्तंभ है. पुरुषों द्वारा जो सम्मान इस घर में स्त्रियों को मिलता हैं उससे कहीं अधिक इन स्त्रियों से पुरुषों को प्राप्त होता हैं. यह परिवार प्रगतिशील और उदार भारत की तस्वीर है.  यह तस्वीर खींचने में उपन्यासकार ने कहीं पर भी नमक-मिर्च लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ी है.  

वस्तुतः ‘शकुंतिका’ का कथ्य स्त्रियों के जन्माधिकार और जीवन स्वतंत्रता का कथ्य है.  स्त्रियोचित मान-सम्मान और अधिकारों की प्राप्ति की यह कथा है.  यह पुरुषों के अधिकारों की बराबरी या उन्हें  छिनने की कथा नहीं है और न ही पुरुषों की नकारात्मक छवि को पेश करना लेखक का उद्देश्य है. स्त्री-पुरुष स्वतंत्रता की परिभाषा को कुछ विशेष मुद्दों पर तो लचीला बनाना ही होगा. अब हम उन नियमों पर चल नहीं सकते जो हजारों वर्ष पूर्व बनाए गए है. हमें युगानुकुल रास्तों को खोजना ही होगा. स्त्रियाँ जन्म से लेकर जिस भेदभाव एवं शोषण का शिकार बनती रही है उससे मुक्त होने का एकमात्र उपाय है स्त्रियों का शिक्षित, उच्चशिक्षित एवं आत्मनिर्भर होना. अपने जीवन के स्वतंत्र फैसले लेने में सक्षम होना. ऐसा लेखक मानते है. लेखक ने इस प्रसंग में अंतरजातीय विवाह की उपयोगिता एवं सार्थकता पर भी विचार किया है. सिया के लॉ करने पर यह चिंता स्वाभाविक ही है कि उसे अपनी बिरादरी में अपने स्तर का लड़का कैसे मिलेगा?यदि वह जज की परीक्षा पास हो जाती है तो यह समस्या अधिक गंभीर बन जायेगी.  भगवती और दशरथ तो यहाँ तक सोचते हैं कि सिया यह परीक्षा पास ही ना हो और आगे गार्गी भी तो है जो एम्. बी. बी. एस. कर रही है.  

यह एक भयंकर चिंता है और उपन्यासकार इसका हल अंतरजातीय विवाह में तलाश चुके है. परंतु इस तरह समस्या का तात्कालिक समाधान प्रस्तुत करने में यह समस्या समाप्त नहीं होती बल्कि कई अधिक प्रश्नों को उपस्थित करती है. फिर भले ही मात्र भगवती के परिवार की मूल समस्या सुलझ चुकी हो. हमारे देश में स्वतंत्रता के पूर्व से ही इसी तरह के कुछ रास्तें भेदभाव एवं शोषण की समस्याओं को ख़त्म करने के बारे में सोचे और अपनाए गए. पर इन सत्तर वर्षों में यह स्थितियां जस के तस है. वास्तव में यह सतही उपाय है. आर्थिक स्तर सामाजिक स्तर को उठाने में सफल नहीं हुआ है. लड़की के उच्चशिक्षित होने पर लड़की और उसके परिवारवालों में कुछ विशिष्ट बन जाने का बोध और अहम आजकल आम बात हो गयी है.

इसी श्रेष्ठताबोध के कारण कई बेटियाँ अनब्याही रह जाती है. भगवती का परिवार अब सब कुछ अपने जीवन-आदर्शों एवं अनुकूलताओं  के अनुरूप चाहने लगा है. उसकी यह मानसिकता किन परिस्थितियों के कारण बनी उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता. उपन्यासकार ने उच्चशिक्षित बेटियों के विवाह की समस्या को लेकर उसपर अंतरजातीय विवाह का रास्ता खोज लिया है. वस्तुतः अंतरजातीय विवाह के फैसलें जिन परिवारों में प्रसन्नता से लिए जाते हैं.  वे प्रायः व्यवहारिक हितों को ध्यान में रखकर लिए जाते हैं. शिक्षा,नौकरी ,पैसा,रहन-सहन की बराबरी को इसमें अधिक महत्व दिया जाता हैं. अब यदि भगवती की पोतियाँ गली या मोहल्ले के किसी आवारा लडके या यूँ कहे दुर्गा के पोते से ही प्रेम कर बैठती तो इन दोनों परिवारों में क्या निर्णय होता? तब क्या दुर्गा भगवती को वही सलाह दे पाती जो उसने दी और भगवती ने मानी. ध्यान देने की बात है कि सिया और गार्गी ने अपने प्रेम के आलंबन रूप में उसी व्यक्ति को चुना जो व्यावहारिक स्तर पर उनके लिए फिट है. 

उपन्यासकार द्वारा चित्रित यह प्रसंग वर्तमान सन्दर्भ में विशेष चिंतनीय है. भगवती की पोतियों ने अपनी शिक्षा के अनुरूप ही लडके से प्रेम करना उचित समझा.  अब उनका इस विवाह के समर्थनार्थ दूसरा तर्क यह है कि अपनी बिरादरी में सिया के योग्य लड़का मिलना असंभव है.  यह एक मनोविज्ञानिक तर्क है जो अपनी सुविधा के अनुसार खोजा गया है या जाता है. अब सिया का होनेवाला बंगाली पति यदि सिया से विवाह नहीं करता तो वह अपनी ही बिरादरी की किसी और सिया के लिए उत्तम रिश्ता बन सकता था. वस्तुतः अंतरजातीय विवाह का लक्ष्य और अनिवार्यता दोनों ही भ्रामक है. यह एक अत्यंत छोटी प्रतीत होनेवाली समस्या है जो अनायास ही उपन्यास में प्रकट हो गयी है.
                
इसके बाद उपन्यास में अनेक प्रसंग विषयवस्तु के अनुरूप आकार लेते है. कई स्थलों पर कुछ ठहराव भी है. कुंवा पूजन का प्रसंग,समाज का भय,फिर एक प्रचलित परंपरा को तोड़ने का साहस,समाचार-पत्रों में छपी सुर्खियाँ,सिया का विवाह,गार्गी का विवाह,समाचार-पत्रों में पिहू के गोद लेने की बात छपना,उससे उत्पन्न चिंता आदि.  सारे शहर में भगवती का परिवार चर्चा का केंद्र बन जाता है. बुलबुल का भी विवाह हो जाता है. पर उपन्यासकार यह संकेत करते है कि बिरादरी में विवाह होने के कारण बुलबुल अप्रसन्न है,दुखी है. अपने ससुराल में उसे प्रताड़ित किया जाता है. यह प्रताड़ना क्यों और किसलिए होती है इस पर विशेष भार नहीं दिया गया है और केवल इतना बताया गया है कि वें लालची है. अब सजातीय और अंतरजातीय विवाह के लाभ-हानियों पर चित्रित यह प्रसंग गंभीर चिंतन की मांग करता है. यह संभवतः उपन्यासकार के निजी दृष्टिकोण या सामाजिक निरिक्षण का मामला हो सकता है. जो अपवादात्मक है.

वस्तुतः पारिवारिक स्तर पर पति-पत्नी के सुखी होने के मुख्य आधारों में परस्पर प्रेम,विश्वास,आदर, सामंजस्य, नि:स्वार्थ स्नेह और त्याग की भूमिका अधिक होती हैं. अतः यह साबित करना कि सजातीय विवाह प्रेम की गारंटी नहीं है,सहज ग्राह्य नहीं है. यह कथा की आवश्यकता हो सकती है. परन्तु पूर्ण समाज का सत्य नहीं है. कभी-कभी कमाऊ लड़की मिलने पर लडके वाले दहेज़ लेने से मना कर देते हैं. यह उनका दूरदृष्टिप्रधान निर्णय होता है जिसे आदर्श का चोला पहना दिया जाता है. ब्याहने के बाद क्या वे चाहेंगे कि उनकी बहु अपना पूरा या आधा वेतन उसके माता-पिता को नियमित दे? वास्तव में त्याग ही मुख्य आदर्श माना जाना चाहिए. कई ऐसे प्रश्न उपस्थित होते हैं जो हमारे इस आदर्श समाज व्यवस्था के दोगलेपन और अवसरवादिता को तार-तार कर देते हैं.
                   
यद्यपि डाल-डाल पर फुदकनेवाली और चहकनेवाली शकुंतिकाओं की यह कथा अंत में अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सफल होती है. दुर्गा,भगवती,दशरथ और उग्रसेन अब इस दुनिया में नहीं है. परंतु बलवंत-रेवती और रुपेश-जयंती को जहाँ अपनी माँ पर गर्व है वहीँ अपनी बेटियों पर भी. उन्हें दूर-दूर तक अपना बेटा न होने का न पश्चाताप है और न असंतोष. पुत्र संतति न होना यह उनके जीवन की विफलता नहीं है. यही इस उपन्यास का वास्तविक कथ्य एवं साध्य है. चारों गोरैयाओं ने अपने-अपने घोसलें बना लिए हैं. लडकियां पराया धन होती हैं यह क्रूर सत्य पुनश्च सिद्ध हो जाता है. परंतु यदि जमायियों को अपना पुत्र ही मान लिया जाए तो बेटियाँ कभी भी अपने घर से अलग नहीं होती. बेटियां वह सेतु है जो दो घरों को जोड़ती हैं. बेटियों को पैदा होने से रोकना या बेटे के मोह में उनकी गर्भ में ही ह्त्या करना घोर अपराध है. अख्तरी नामक एक छोटे-से पात्र की उपस्थिति उपन्यास के कथ्य में कुछ नए तथ्य जोड़ती है. बुलबुल को ससुराल में दुःख मिलने पर उसकी प्रतिक्रिया बहुत ही मार्मिक है, “एक बात कहूँ,बेटियाँ किसी को बूरी नहीं लगती है. दूसरे घर जाकर जब दुःख पाती है,तभी बेटियों के पैदा न होने की हम लोग मिन्नत माँगते हैं. ” 

इस तरह की चीजें हमारे समाज में महिलाओं की वास्तविक स्थिति के दस्तावेज है. गार्गी, सिया, बुलबुल और पिहू आत्मनिर्भर है,होशियार है,समझदार है और ऐसी ही बेटियाँ हमारे समाज का भविष्य है और गौरव भी.  परिवारों में लड़का-लड़की का संतुलन भी आवश्यक है. जहाँ यह संतुलन नहीं है वहां भगवती का परिवार निश्चित ही एक आदर्श हो सकता है. पर हर जगह यह संभव तो नहीं है. बेटियों के प्रति समाज की विवादित दृष्टी को बदलने में यह उपन्यास निश्चित ही सहायक है.  

उपन्यासकार ने यद्यपि कथा में पुरुषों की भूमिका को उतना वजन प्रदान नहीं किया है जो अपेक्षित था. पुरुषों की उपस्थिति कहीं विशेष निर्णायक की भूमिका में नहीं है. केवल दशरथ और उग्रसेन अपनी राय देने के मामले में कहीं-कहीं आगे बढ़ते है. यह उपन्यास समाज के सामान्य से प्रतीत होनेवाले कई प्रश्नों,समस्याओं,विडंबनाओं की ओर ध्यान आकर्षित करता है. ऐसे विषयों पर अब तक विशेष रूप से लिखा नहीं गया या उसे लिखने के योग्य एवं आवश्यक विषय के रूप में देखा नहीं गया.  पिछले कुछ वर्षो में देश में कन्या भ्रूण हत्या के मामले तेजी से सामने आये थे.  इनमें चिकित्सकों एवं परिवार की महिलाओं की विशेष भूमिका दिखी तो सख्त कानून बनाये गए.  यद्यपि किसान आत्महत्या के मामलों  को कुछ  अधिक प्राथमिकता मिलने के कारण यह मामले दब गए.  हिंदी साहित्य में भी किसान आत्महत्या को लेकर ही बहुत कुछ कहा और लिखा गया.  

भगवानदास मोरवाल ने शकुंतिका के माध्यम से सर्वप्रथम इस विषय को अत्यंत रोचक शैली में प्रस्तुत किया. अपने उपन्यासों में मोरवाल जी ने प्रायः नए-नए विषयों पर लेखनी केंद्रित की है.  कई बार वे कानूनी विवादों में भी फंसे और ससम्मान उनसे मुक्त भी हुए.  भारतीय स्त्री और उसके जीवन की समस्त विडम्बनाओं और संभावनाओं को उन्होंने जिस तरह अपने कथा लेखन के केंद्र में रखा है वह उनके कथा साहित्य का सर्वाधिक उल्लेखनीय एवं दमदार पक्ष है.
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डॉ. कुबेर कुमावत
प्लाट. न. ३८,१७६२/३,
केले नगर, ढेकू रोड,अमलनेर-४२५४०१,
महाराष्ट्र.
मो. न. ९८२३६६०९०३ 
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  1. सत्य प्रकाश8 जुल॰ 2020, 8:44:00 pm

    बहुत अच्छी अभिव्यक्ति। प्रत्येक मुद्दों को प्रभावी ढंग से उठाया गया है। हार्दिक बधाई सर������

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  2. ऑनलाइन उपलब्ध हैं क्या ?

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