नरेश सक्सेना से संतोष अर्श की बातचीत (अंतिम क़िस्त)



हिंदी के वरिष्ठ और विशिष्ट कवि नरेश सक्सेना से युवा आलोचक-कवि संतोष अर्श की यह दीर्घ बातचीत अब यहाँ सम्पूर्ण होती है. तीन क़िस्तों में प्रकाशित इस संवाद में संतोष अर्श ने नरेश सक्सेना से उनके कवि-कर्म, व्यक्तिगत जीवन और परिवेश से सम्बन्धित अनेक जरूरी और असुविधाजनक सवाल पूछें हैं.

नरेश सक्सेना के कवि और व्यक्तित्व दोनों को गहराई से समझने के लिए अब यह स्थाई महत्व की बातचीत है.

संतोष अर्श ने तैयारी और परिश्रम से इसे पूरा किया है. प्रश्नों से उनकी गहरी समझ और सरोकार का पता चलता है.

बातचीत का यह अंतिम भाग यहाँ प्रस्तुत है. शेष दो भागों के लिंक इस बातचीत के अंत में दे दिए गए हैं.     


चलती हुई चीज़ें चलती रहना चाहती हैं, रुकी हुई चीज़ें रुकी रहना चाहती हैं

(नरेश सक्सेना से संतोष अर्श की बातचीत : अंतिम-भाग)


(कविता हमें जीवन के अज्ञात क्षेत्र तक ले जाती है. वह क्षेत्र जहाँ साधारण जीवनानुभवों से आगे विस्तृत अगम्य है. कवि उसी अगम्य का आवारा है. इसीलिए कवि का जीवन रोमांचक होता है. वह कल्पना, भाषा और समाज, रहस्य और रोमांस को अपनी उपस्थिति से उपयोगी बना देता है. इन सब से भी आगे बढ़ कर वह बौद्धिकता का वो काव्यात्मक द्वार खोलता है, जहाँ से मुक्ति का मार्ग शुरू होता है. उस द्वार पर कवि के पदचिह्न मिलते हैं. वहाँ अनुदारता और उदारता के भेद खुलते हैं. आदि और अंत के अभेद मिलते हैं. समय के तीनों आयामों के अंतर्संबंध स्पष्ट होते हैं. कविता कितनी उदार होती है, यह एक कवि की ईमानदार अनुभूतियों से स्पष्ट होता है. काव्य की कोई मात्रा (क्वान्टिटी) नहीं होती. वह लघुतम और महत्तम है. वह पद से लेकर महाकाव्य तक विस्तृत है. वह बूँद है, वही समुद्र है. 

नरेश सक्सेना से हुई इस बातचीत में इन सभी बातों का आभास और हिसाब है. यह बातचीत अब समाप्त होती है. इसके आयामों पर चर्चा इसके पाठक करेंगे. इस बातचीत में रुचि लेने वालों का आभार. समालोचन का आभार जहाँ ऐसी गूढ़ रचनात्मकताओं के लिए समुचित स्थान है. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्कॉलर पूजा का एक बार और आभार, जिन्होंने ध्वनि को लिपि में परिवर्तित करने का श्रमसाध्य कार्य किया. संतोष अर्श का आभार कि घायल रीढ़ के साथ, पढ़ने-लिखने में अब तक उनकी रुचि बनी हुई है. इसे प्रस्तुत करने में हुए एक वर्ष से अधिक विलंब के लिए पाठक क्षमा करें. पिछली क़िस्त कवि के खाने-पीने के प्रसंग पर ठहरी थी. वहीं से आगे बढ़ते हैं. - संतोष अर्श)                     



संतोष अर्श : सिगरेट भी नहीं पीते हैं ?

नरेश सक्सेना : सिगरेट भी नहीं पीता, पान भी नहीं खाता, तम्बाकू नहीं खाता. मेरे कोई ख़र्च अपने ऊपर नहीं हैं. और शायद ये बचपन का वो संस्कार भी है, जिसमें कि हम शहर से बहुत दूर रहते थे. वहाँ पे हमें लौकी, कद्दू, बैंगन, टमाटर इस तरह की चीज़ें ही, जो आस-पास उगा दी जाती थीं, वो ज़्यादा मिलती थीं. हफ़्ते में एकाध बार कोई जाता था वो दस किलोमीटर दूर शहर...तो वहाँ से सब्जियाँ आती थीं. हरी सब्जियाँ मुरझा जाती थीं. जो भी मिलता था मैं सब खाता था और वो आज भी मैं लौकी, कद्दू, तोरई भी बहुत शौक से खाता हूँ. घर वाले कोई नहीं खाते. तो सब्जियों का शौक़ ऐसा है कि सारी सब्जियाँ मुझे अच्छी बनी होनी चाहिए और मैं खुद बना लेता हूँ.

संतोष अर्श : नॉनवेजिटेरियन में क्या पसंद है ?

नरेश सक्सेना : नॉनवेजिटेरियन में सब खाता हूँ. मीट भी खाता हूँ, मुर्गा भी खाता हूँ, मछली भी खाता हूँ. मछली बचपन में बहुत खाई है.

संतोष अर्श : मुद्रा (मुद्राराक्षस) ने नारकीय में आपका उल्लेख किया है. लखनऊ के लेखकों से कैसे संबंध रहे ?

नरेश सक्सेना : संबंध मेरे सबसे बहुत अच्छे रहे हैं, क्योंकि मेरे अंदर कोई महत्वाकांक्षा थी नहीं. इस तरह था, कि कविता से बहुत प्रेम है. तो मैं कविता के आस-पास रहूँ वही मेरी आकांक्षा थी. और उसमें कोई बाधा नहीं थी, क्योंकि मैंने शुरू से ही...यानी जिस वक्त की मैं बात कर रहा हूँ, लोगों को ऐसा भ्रम होता है कि मैं गीत से गद्य कविता में आया. ऐसा नहीं है.

संतोष अर्श : केदारनाथ सिंह के बारे में भी ऐसा कहते हैं ?

नरेश सक्सेना : केदारनाथ सिंह के तो गीत पॉपुलर हो चुके थे. ...झरने लगे नीम के पत्ते, बढ़ने लगी उदासी मन की... और उसके साथ दूसरे भी गीत पॉपुलर हो गये थे, तब उन्होंने गद्य में कविता लिखनी शुरू की. वो उम्र में तो बड़े थे न थोड़ा-सा ! मैं उनके बाद आया. और मैं आते ही जबलपुर पहुँच गया. और मुक्तिबोध और विनोद कुमार शुक्ल और ज्ञानरंजन और इन सबके सम्पर्क में आ गया. तो मेरी दुनिया बदल गई थी. तो एकदम से मैं गद्य कविता के सम्पर्क में आ गया था. और मेरी कल्पनामें उस ज़माने में... मुझे तो बाद में पता लगा कि कल्पना  कितनी बड़ी पत्रिका थी...कि कल्पना में मेरी और मुक्तिबोध की कविताएँ साथ-साथ छपती थीं. मुझे पता ही नहीं था, कि कितनी बड़ी बात है !!

संतोष अर्श : अच्छा मुक्तिबोध से एक बात और याद आई. कुछ कविताएँ आपकी हैं. मुझे कविताएँ बहुत कम याद रहती हैं, लेकिन मैंने आपकी क़िताबों में कोट किया है. लिखा है कि मुक्तिबोध का प्रभाव है. तो आपकी कविता में वो समझ-बूझकर है या अनायास मुक्तिबोध का प्रभाव है ?

नरेश सक्सेना : अनायास प्रभाव यों है कि आप 1964 सितम्बर का कल्पना का अंक देखें. उसमें मुक्तिबोध की ‘चम्बल की घाटी में’ कविता छपी है. और मेरी कविता एक छंद में लिखी हुई छपी है. छंद में लिखी हुई जो कविता मेरी है और मुक्तिबोध की ‘अन्धेरे में’ कविता अभी तक छपी नहीं है कहीं. वो नवम्बर में छपी है ‘कल्पना’ में ही. यानी नवम्बर 1964 में मुक्तिबोध की कविता ‘अन्धेरे में’ छपी. लेकिन उससे दो महीने पहले सितम्बर में ‘कल्पना’ में मेरी जो कविता छपी है, उसमें आपको मुक्तिबोध के ‘अन्धेरे में’ की इमेज़ेज मिल जायेंगी. जब मैंने ये कविता... तब मुझे याद आया कि अरे ये मुक्तिबोध का प्रभाव है. और मैं समझ रहा था कि जब ‘अन्धेरे में’ मैंने कविता सुनी थी तो मेरे सर के ऊपर से निकल गई थी. और मुझे उसका सिर-पैर कुछ समझ में नहीं आया था. ये वास्तविकता थी. लेकिन मैं मुक्तिबोध के बगल में बोरे पर बैठा था. परसाई जी के घर के सामने. और वहाँ वो कविता पढ़ रहे थे. और मुझे लग रहा था... बड़ी बेचैनी... कि पता नहीं क्या है ? ये कविता ऐसी होती है क्या ? लेकिन मैं उठ के भाग नहीं सकता था वहाँ से. पूरी सुननी पड़ी मुझे. मैं आपको कुछ लाइनें सुनाता हूँ.
     
एक बात मैं आपको और बता दूँ. पर्यावरण के बारे में वो एक नहीं, मेरी बहुत सारी कविताएँ हैं. एक कविता है जो समुद्र पर हो रही है बारिश में है. एक वृक्ष भी बचा रहे संसार में. एक वो कविता है. और ये संयोग है कि ये कविता जो है, वो दिल्ली के लोदी रोड के क्रेमोटोरियम में लिखी हुई है. ये किसी ने बताया मुझे. और ये भी बताया कि देहरादून के श्मशान में जहाँ लकड़ियों से जलाया जाता है, वहाँ भी लिखी हुई है. और मैं आपको ये बता रहा हूँ कि इन दोनों जगहों पर शायद मेरा नाम नहीं होगा. क्योंकि देहरादून में तो लिखा हुआ है कि इट स्पॉन्सर्ड बाई ओएनजीसी. और मुझे पता नहीं कि दिल्ली के क्रेमोटोरियम में क्या लिखा है. ये बहुत पहले मैंने लिखी. थी तो दूसरी बात ये कि एक कविता और है- चट्टानें उड़ रही हैं 

चट्टानें उड़ रही हैं
बारूद की धूल और धमाकों के साथ
चट्टानों के कानों में उड़ते-उड़ते पड़ी तो थी
अपने उड़ाये जाने की बात.
वे बड़ी ख़ुश थीं
उन्हें लगा था कि वे लोग उनके लिए पंख लेकर आयेंगे.

तो ये जो पर्यावरण का विनाश है तरह-तरह से हो रहा है, जो सुरंगे लगाकर के पहाड़ों को उड़ाया जा रहा है. फूल कुछ नहीं बताएँगे एक और कविता है

वे पड़े रहेंगे घूरों पर
उबले हुए, सूखे हुए, निचुड़े हुए
जो कुछ भी बताएँगे
वे फूलों के व्यापारी
कि कितने फूलों से बनती है एक क्यारी
और कितनी क्यारियों से बनता है एक बगीचा
और कितने बगीचों से बनती है एक शीशी इत्र की
फूल कुछ नहीं बताएँगे.
ऐसी बहुत-सी कविताएँ हैं ख़ैर...!

संतोष अर्श : अब जैसे पर्यावरण का मसला है ! तो इन्जीनियरिंग के पेशे में आपने पर्यावरण का कितना नुक़सान किया ? क्योंकि इन्जीनियर नुक़सान भी तो पहुँचाते हैं ?

नरेश सक्सेना : हाँ मेरा काम जरूर था. ईंटों, गिट्टियों, सीमेन्ट, कंकरीट, लोहा इन सबके उपयोग और इनका ऑप्टिमम यूज़ मैंने वैसे ही किया. इनको बर्बाद नहीं किया. गिट्टियों और ईंटों और सीमेंट के प्रति भी... या लोहे की रेलिंग जैसी कविता है. वो कहीं-न-कहीं मैं मनुष्य के जीवन से जोड़कर ही देखता रहा हूँ. तो उसको बर्बाद करने का तो मेरे दिमाग़ में प्रश्न ही नहीं उठता. उसमें एक पंक्ति है कि थोड़ी-सी नमी और थोड़ी-सी ऑक्सीजन तो हम भी चाहते हैं अपने जीवन के लिए. ये शिल्प और तकनीक के जबड़ों से छूटकर घर लौटने की एक मासूम इच्छा. क्योंकि उस लोहे की रेलिंग पर इस नमी से और ऑक्सीजन से सोखकर एक पपड़ी जमती है. और वो पपड़ी गिरती है. धरती की तरफ़ लगाती है छलांग. गुरुत्वाकर्षण उसमें उसकी मदद करता है. तो लोहा जो है अपने घर लौट रहा है. वहीं, जहाँ से निकाला गया था उसे. और शिल्प और तकनीकी ने जकड़ लिया था उसको. तो शिल्प और तकनीक की वो जकड़न जो कि हमारे पर्यावरण का विनाश करती है, उसके पक्ष में कभी मेरी उसकी मुक्ति की... घर लौटने की मासूम इच्छा है वो उसकी. जो जंग लगकर के लोहा वापिस चला जाता है धरती की तरफ़. वो बात तो नहीं है. और जहाँ-जहाँ भी मैंने काम कराये हैं, वो जगहें पेड़ों से भरी हुई हैं. तो जितना...अब आप मेरे घर में पेड़ देख सकते हैं. मेरे घर में बौर आया हुआ है इस वक़्त आम के पेड़ों पर तो...!

संतोष अर्श : आपने कुछ पेड़ कटवाये भी तो होंगे काम करने के दौरान ?

नरेश सक्सेना : (हँसते हुए) पेड़ कटवाने की नौबत मेरी नहीं आयी. क्योंकि मैं उनसे जो जगह माँगता था, वो कैसे करके वो जगह देते थे, ये तो मुझे नहीं पता. लेकिन जैसे कि ग्रामीण क्षेत्रों में जब वाटर रोवर्स बनाने के लिए जगह चाहिए होती थी तो वो मुझे मैदान ही देते थे. और पेड़ कहीं होंगे तो मैंने कटवाये तो कभी नहीं. मैंने अपने घर तक में तो पेड़ नहीं कटने दिया. छत में उसके लिए मैंने रास्ता, होल बनाया ताकि उसका सिर बाहर निकला रहे. अभी चूहों ने उसका तना काट दिया है तो सूख गया है वो, लेकिन वो पेड़ कम-से-कम बाइस साल हरा-भरा रहा है. तो ऐसा नहीं है और दूसरी बात ये कि मैंने...!
     
हाँ वो बात रह गई कल्पना की कविता की. उसकी पंक्तियाँ कुछ मैं आपको सुनाऊँ, उससे पहले मैं आपको ये बताऊँ कि कल्पना में ही 62-63 में मेरी सात-आठ कविताएँ छपी हैं. पाँच कविताएँ एक बार में छपी हैं, जो गद्य में हैं. इससे पहले दो कविताएँ भी एक साथ छपी हैं. वो गद्य में हैं. और वो कविताएँ मेरे किसी संग्रह में नहीं हैं. वो गद्य कविताएँ हैं. तो मैं गद्य में शुरू से ही लिखने लगा था. क्योंकि देखिये ! बाद में क्या हुआ कि ज्ञानरंजन ने मुझसे एक दिन कहा कि नरेश तुम्हारी कविताएँ ‘धर्मयुग’ में छपनी चाहिए. और ‘धर्मयुग’ में रंगीन पृष्ठों पर कविताएँ. और भारती जी जो थे, वो गीतों के प्रेमी. तो उसमें केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, नरेश मेहता इनकी कविताएँ जो थीं वो रंगीन ट्रांसपेरेंसी के साथ पूरे पेज पर रंगीन और उसमें छोटी-सी एक कविता सुंदर लगती थी. और धर्मयुग की लाखों प्रतियाँ छपती थीं. और वह ऐसी पत्रिका थी जिसे कि पास-पड़ोस में कम-से-कम दस घर माँग के ले जाते थे, कि भाई नया धर्मयुग आ गया है तो पुराना हमें दे दो. तो ये समझिये कि लाखों में नहीं, करोड़ों में धर्मयुग जो था, पढ़ा जाता था. तो ज्ञानरंजन ने कहा ! ज्ञानरंजन की कहानी भी धर्मयुग में आयी. उन्होंने कहा, नरेश तुम्हारी कविताएँ धर्मयुग में छपनी चाहिए. 

ये उस ज़माने की बात है जब ज्ञानरंजन अपनी पहली कहानी छपने की प्रतीक्षा कर रहे थे. तो मैंने कहा कि अच्छा ठीक है देखेंगे. तो मुझे लगा कि भारती जी की जो रूचि है वो छंद में लिखी हुई कविताओं पर है. तब मैंने तुरंत छंद में कविताएँ लिखीं. अब वो सारी नई कविता की शब्दावली और भाषा है जिसमें मैंने गीत लिखे. जिसे नवगीत कह दिया गया. जब नवगीत के ऊपर लेख लिखे गये, तो मेरी उन कविताओं को कोट किया गया, कि ये नरेश सक्सेना के नवगीत हैं. क्योंकि उनकी भाषा पुराने गीतों वाली भाषा नहीं थी. वो एक-के-बाद एक धर्मयुग में तुरंत जल्दी-जल्दी छाप दिये गये. तो उससे मेरा नाम हो गया एकदम से. और लोग भूल गये कि मैं गद्य में कविताएँ इससे पहले से लिख रहा हूँ. धर्मयुग में भी गद्य में लिखी मेरी एक कविता है, भय. सन् बासठ में छपी थी. मुझे याद है वो. मरा हुआ वो काला पक्षी आकाश हो गया है...!


संतोष अर्श : एक कविता है आपकी !  मैं इस क़िले को जीतना नहीं चाहता इसे ध्वस्त कर देना चाहता हूँ. ये कविता मुझे इसलिए याद है कि एक बार जब मैं आबू गया था, तो वहाँ मुझे एक चट्टान दिखी. उसकी आकृति एक छोर से देखने पर फेस का जैसे एंगल होता है, वैसे दिखायी देती थी. यानी नाक, होंठ, चिबुक और माथा आ रहा था. फोटोग्राफी थोड़ी-बहुत मैं करता हूँ. तो वो फोटो मैंने खींची और उसपे मैंने इसी कविता का पोस्टर बनाया. तो ये कौन-सा क़िला है, जिसे आप ध्वस्त कर देना चाहते हैं ?

नरेश सक्सेना : कोई भी क़िला हो. क़िला जो है वो एक प्रतीक है. जिसमें ये राजा, दरअसल लुटेरे थे. लूट-मार करते थे. दूसरे राजा के ऊपर धावा बोलते थे. उसे अपने अधीन कर लेते थे. फिर किसानों से कहते थे. अपनी चौथ-वसूली करते थे. और फिर क़िले पर चढ़कर रहते थे. भले आदमी की तरह मैदान में कभी नहीं रह सकते थे वो. क्योंकि वो भले थे ही नहीं. लूट-मार करने वाले लोग थे.

संतोष अर्श : ये कब की कविता है ?

नरेश सक्सेना : ये कब की कविता है ये...(याद करते हुए) काफ़ी पहले की कविता है. दीवार पर चढ़ने के लिए मुझे एक सीढ़ी की तलाश है. दीवार पर चढ़ने के लिए नहीं ! नींव में उतरने के लिए. मैं क़िले को जीतना नहीं उसे ध्वस्त कर देना चाहता हूँ. क्योंकि क़िले का मालिक अगर मैं बन जाऊँगा, तो फिर तो मैं भी वही हो जाऊँगा न जो किले का अधिपति है ! मैं क़िलों की परम्परा को ख़त्म कर देना चाहता हूँ. वो ये कहने वाली कविता है.

संतोष अर्श : यानी ये उस समय की कविता रही होगी, जब प्रत्यक्ष सामंती अवशेष हमारे देश में थे ?

नरेश सक्सेना : हाँ वो तो सैंतालीस के बाद तक रहे, कि जब राजाओं को मनाकर प्रिवी पर्स दिया गया. राज्य-प्रमुख बनाया गया ग्वालियर में. तो मुझे पता है न कि ग्वालियर के जो वाजीराव सिंधिया थे, उनको राज्यपाल या गवर्नर की तरह से राज्य-प्रमुख बनाया गया और उनको प्रिवी पर्स दिये गये. उनको महलों में अपनी सम्पत्ति के तौर पर उसको मान्यता दी गई कि यह महल आपका है, आपका ही रहेगा. उनसे कहा कि भाई आप महल में रहते हों तो रहिये. महल में आपकी अथॉरिटी थी, आप राजा थे यहाँ के, तो आपको हमने राज प्रमुख बना दिया. वो भी मुख्यमंत्री के ऊपर आपकी अथॉरिटी रहेगी. अधिकार रहेंगे. और रूपया-पैसा उसके लिए आपको उसी तरह से, रहने के ख़र्च-वर्च आपके दिये जाएँगे. प्रिविलिजेज दी जायेंगी. तो वो मान गये कि भई जब सब-कुछ मिल ही रहा है तो ग्वालियर का महल ग्वालियर के राजा के पास रहा. राज प्रमुख बनाये गये वो वाजीराव सिंधिया. और प्रिवी पर्स उनको दिये गये. तो बाद में फिर धीरे-धीरे करके तो ख़त्म किये गये प्रिवी पर्स. इन्दिरा गाँधी ने ख़त्म किये थे.

संतोष अर्श : एक सवाल मैंने रणेन्द्र से पूछा था जब मैं पिछले दिनों राँची गया था. हालाँकि उन्होंने उत्तर में कहा कि, उनसे गलती हो गई थी. रायपुर साहित्य महोत्सव वाला प्रकरण है. उस पर वीरेंद्र यादव जी का लेख भी आया था. तो आप बताइए कि क्या वो सही था ? या ग़लत रहा वहाँ जाना ?

नरेश सक्सेना : सही रहा बिलकुल !!

संतोष अर्श : यानी आप ये मानते हैं कि साहित्यकार को कहीं नहीं जाना चाहिए ?

नरेश सक्सेना : कहीं भी नहीं जाना चाहिए ! उसका नतीजा बहुत बारीक़ है. और मैंने उसका जवाब दिया था. जनसत्ता में ही वो जवाब मेरा भी छपा है. सिद्धांत की बात मैं अलग से करूँगा. दो बातें हैं- वीरेंद्र यादव से मैंने जवाब में ये कहा था, कि हम लोग तीन काम कर सकते थे, कि प्रगतिशील लेखक संघ और दूसरे जो भी संघ हैं वो सब अखिल भारतीय स्तर पर घोषणा करते कि न रायपुर, न कहीं. और हम जब तक भारतीय जनता पार्टी जिस राज्य में भी पावर में है, वहाँ हमारे कोई साहित्यकार उनके किसी कार्यक्रम में नहीं जाएँगे. तो मैं नहीं जाता. ये नहीं किया गया. राष्ट्रीय स्तर पर कोई ऐसा कॉल नहीं दिया गया कि हमें नहीं जाना है. हम नहीं जाएँगे. दूसरा हम ये कर सकते थे कि अगर वो कोई लेखकों का बहुत बड़ा कार्यक्रम कर रहे हैं और हमारे सारे लेखक वामपंथी हैं, तो हम कहते कि उन्हीं तारीखों में हम भी कर रहे हैं वहाँ पर. और हमारे लेखक आपके यहाँ नहीं जाएँगे. हमारे यहाँ आयेंगे. आपके यहाँ जिनको आना होगा, जाएँ. तो मैं वहीं जाता, जहाँ पर वो कार्यक्रम वामपंथियों का होता. तीसरा काम ये कर सकते थे कि अगर ये दोनों काम नहीं करना है, तो आप चुपचाप घर में बैठ जाइये. ये तो मुझे समझ में नहीं आ रहा था. तब आप कहते हैं कि दुश्मन के मंच का भी इस्तेमाल करिये. दुश्मन के हथियारों को हथिया लीजिए और उनके खिलाफ़ इस्तेमाल करिये. अगर आप में दम है. तो मुझे लगा मुझमें दम है. तब मैं उनके मंच पर गया. 

शुरुआत मेरे कार्यक्रम से हुई. मेरी कविता से हुई और मैंने आउट ऑफ वे जाकर के व्याख्यान दिया मोदी जी के खिलाफ़. मैंने कहा वहाँ पर मंच से. वहाँ कम से कम डेढ़-दो हज़ार की संख्या में लोग मौजूद थे. भई ऑडियंस जो है, वो तो सारी भाजपाई नहीं है ना ? उनको तो इकतीस प्रतिशत मिला है. उनहत्तर प्रतिशत उनके खिलाफ़ वोट है. और जो ऑडियंस आ रही है वो उनहत्तर प्रतिशत वहाँ मौज़ूद है. और जो भाजपाई हैं, उनको तो ऐड्रेस आपको करना ही है. मैंने उनको ऐड्रेस किया. भारत के आधे बच्चे फिफ़्टी परसेंट ऑफ दी इंडियन चिल्ड्रेन आर सफ़रिंग फ्राम मैलन्युट्रीशन. आधे बच्चे भूखे हैं. स्वास्थ्य उनको मिलता नहीं. शिक्षा उनको मिलती नहीं. और हमारे जो नये प्रधानमंत्री आये हैं, उनके पहले बजट में जो तीन चीजें मैंने देखी स्वास्थ्य का बजट घटाया, शिक्षा का बजट घटाया और बच्चों के कुपोषण की मद में भी बजट घटा दिया. जो बच्चे कुपोषित हैं, उनका पहले इंतज़ाम करना था न आपको ? उनका तो बज़ट घटा दिया. तुम कुपोषित हो और कुपोषित हो जाओ ! मर जाओ !! क्या करना है हमें ? शिक्षा नहीं है तुम्हें नसीब, तो उसका बजट और घटा दिया. गवर्नमेंट स्कूल बंद करना शुरू कर दिया. हेल्थ का बज़ट घटा दिया. कैसा भारत आप चाहते हैं

ये मैंने वहाँ पहला व्याख्यान दिया. और पहले शब्द उस कम्पाउंड में गूँजने वाले यही थे. उसके बाद मुझे जो भी मौक़े मिले कविता पाठ के उन सबमें मैंने, यानी ये समझिये कि एक पोइट्री वर्कशॉप वहाँ पे मैंने की. और पोइट्री वर्कशॉप में...वहाँ पर ऐसा हुआ था कि महिलाओं का एक ऑपरेशन कैम्प लगाया गया था. और उसमें चालीस-पचास महिलाएँ एक साथ मर गई थीं. वो कोई भारतीय जनता पार्टी का मिनिस्टर था जिसने ड्रग सप्लाई की थी. और वो नक़ली थी. और उसमें वो स्त्रियाँ मर गयीं. मैंने उसका जिक्र वहाँ किया अपनी पोइट्री वर्कशॉप में. और मैंने कहा कि ये जो अभी-अभी स्त्रियाँ मरी हैं, ‘चम्बल एक नदी का नाम’ मेरी एक कविता है, मैंने कहा कि ये कविता स्त्रियों के दु:खों का गीत है. और स्त्रियाँ अभी-अभी मरी हैं यहाँ पर. और कितनी तरह से उनको मारा जाता है, उस सन्दर्भ में मैं ये कविता पढ़ रहा हूँ. 

और मैंने कविता पढ़ी. उसे जोड़कर के. और दो स्त्रियाँ तो इस तरह रो रही थीं कि उन्हें कम-से-कम दस मिनट तक शान्त कराना पड़ा. वो चुप नहीं हो रही थीं. वो रोती चली जा रही थीं. तो ये जो बात मैं कह रहा हूँ, उसी वर्कशॉप में मैंने मोदी के खिलाफ़ फिर एक कविता पढ़ी. जो मेरी नहीं विष्णु नागर की लिखी हुई है. उसकी एक पंक्ति है, कि मोदी को हज़ारों लोग इस देश में प्रधानमंत्री बनाना चाहते हैं, लेकिन उसे अच्छा आदमी कोई नहीं बनाना चाहता. मैंने फोन किया दिल्ली. विष्णु नागर को मैंने कहा, ये आपकी कविता है क्या ? मैं इसे पढ़ दूँ यहाँ पर रायपुर में ? उन्होंने कहा, पढ़ दीजिए. 

जब कविता मेरी संग्रह में आ गई है, तो उसे क्या...उस पर विष्णु खरे का एक बहुत आपत्तिजनक कमेन्ट आया. और विष्णु नागर को भी उन्होंने कहा, कि ये कविता जो है, तुम्हारा बड़ा नुक़सान करने वाली है. और तुम्हारी इस कविता की ख़बर जो है, अभी तक क़िताब में है ! कौन करता है हिंदी कविता को ? लेकिन अब इस कविता को कोई नरेश ने वहाँ पढ़ दिया है तो इसकी ख़बर वहाँ पी.एम.ओ. पहुँच गई है. ख़ैर विष्णु नागर ने कहा, पहुँच गई है तो पहुँच जाए. उसे जहाँ पहुँचना होगा, पहुँचेगी. लेकिन वो ये मान कर कह रहे थे कि शायद मैंने विष्णु नागर से बिना पूछे ही पढ़ दिया इस कविता को.

संतोष अर्श : विष्णु खरे से आपके संबंध कैसे रहे ?

नरेश सक्सेना : मेरे संबंध तो बहुत अच्छे थे, लेकिन वो बीच-बीच में...वो अनप्रेडिक्टेबल आदमी थे. दरअसल में कभी कुछ भी कह देना, वो भीतर उनके अंदर एक छटपटाहट और बेचैनी हमेशा रहती थी. और वो निश्चित रूप से कॉम्प्लेक्स था उनके अंदर, जो उनके इस तरह के कामों से धीरे-धीरे पैदा हुआ. उसकी कथा अलग से, क्योंकि वो किसी कम्युनिस्ट पार्टी में भर्ती नहीं थे. तो उनका हमारे मार्क्सवादी आलोचकों ने ऐसे सारे साहित्यकारों, कवियों को हाशिये पर नहीं, इग्नोर किया कि आप कितने ही बड़े लाट साहब हों, अगर आप हमारी उसमें...लाइन में नहीं हैं आप, प्रगतिशील तो बने रहिए, लेकिन हमारे रजिस्टर में नाम तो होना चाहिए आपका. तो उनको इग्नोर किया. वो भी इग्नोर्ड रहे. अब इंटेलिजेंट तो वो थे ही. कैपेबिल थे. नवभारत टाइम्स के सम्पादक रहे. रेज़िडेंट एडिटर रहे जगह-जगह. तो वो इस तरह की चीजें करते रहते थे. बल्कि मेरी हिम्मत थी कि मैं उनसे बहस कर लेता था. जब उन्होंने नामवर सिंह को रामू काका कह कर सम्बोधित किया, कि जो फिल्मों में रामू काका होते हैं एक... और उसका मज़ाक उड़ाया कि वो जनवरी-फ़रवरी को जनउरी-फरउरी कहते हैं. 

तो मैंने उनको फोन किया. मैंने कहा, ये स्तर... आप क्यों आ रहे हैं इस स्तर पर ? ये आपका स्तर नहीं है ? ठीक नहीं है ये. तो उन्होंने कहा, नरेश तुम कुछ नहीं जानते ! तुम जानते-वानते कुछ हो नहीं. मैं जो कर रहा हूँ, वो ठीक कर रहा हूँ. तो मैं क्या करता इसके बाद ? लेकिन वो... मुझे ऐसा लगता है देखिये... उन्होंने कुँवर नारायण पर जो विशेषांक सम्पादित किया आख़िरी...हालाँकि इस पर उनका नाम-पता है कि नहीं... ?

संतोष अर्श: किस पत्रिका का ?

नरेश सक्सेना : कुँवरनारायण पर एक विशेषांक निकाला उन्होंने. वो जो दिल्ली वाली, दिल्ली साहित्य अकादमी में जाकर पहला काम उन्होंने यही किया. कुँवरनारायण पर. और केदारनाथ सिंह पर भी निकालना चाहते थे. तो केदारनाथ सिंह पर उन्होंने, जो मैंने वहाँ पर एक व्याख्यान दिया था, भारत भवन में. भारत भवन की पत्रिका ने उसको छाप दिया. तो वो वहाँ से छपा हुआ उन्होंने लेफ्ट करके अपनी पत्रिका में लिया, तो मुझे फोन किया कि मैं वो लेख ले रहा हूँ. मैंने कहा, वो लेख नहीं है, वो तो बोला हुआ है. वो थोड़ा-सा मैंने...बहुत अच्छा कहा नहीं. उन्होंने कहा, मुझे मालूम है कि मैं क्या ले रहा हूँ. ये मुझे मत बताओ. बस तुम्हारी सूचना के लिए कि तुम्हारा छपा हुआ लेख मैं अपनी पत्रिका में ले रहा हूँ. मेरे उनके संबंध... मेरी पहली क़िताब का ब्लर्ब तो उन्होंने ही लिखा. ब्लर्ब लिया गया है, वो लेख है पूरा जो कि जनसत्ता में मंगलेश डबराल तब देखते थे, उसको तो वो पूरा-का-पूरा लेख उसमें छपा था. जनसत्ता में. उसके बाद उसके अंश जो थे, वो ब्लर्ब में आये. तो मेरे उनके संबंध तो अच्छे हमेशा रहे. मैं उन्हें अप्रीसिएट करता था. और जितना मुझसे बनता था उनसे टकराता भी था. आलोचना भी उनकी करता था. तो ये बात थी. तो देखिये मैं क्या, नवगीत से निकल कर कोई भी कवि गद्य कविता में नहीं आया. आ नहीं सकता था.

संतोष अर्श : और वो चल भी नहीं पाया मेरे ख़याल से. मतलब वो टेम्परामेंट जो होना चाहिए, नहीं बना रह पाया. 

नरेश सक्सेना : सम्भव नहीं था. देखिये नईम थे और शलभ श्रीराम सिंह थे. और रवीन्द्र भ्रमर भी थे. उस ज़माने में ये सब थे. शम्भूनाथ सिंह, ओम प्रभाकर. कोई नहीं उसमें से निकल कर आ सका. तो मैं तो चूँकि दुनिया मेरी बदल गई थी एकदम से. शुरूआत में ही. लेकिन जब ज्ञानरंजन ने कहा, तो मैंने कहा, वह छपने के लिए कुछ गीत. मेरे लिए बहुत सरल था. और छंद तो मैं आज भी लिखता हूँ. उससे मुझे परहेज़ नहीं है. मैं तो ये मान के लिखता हूँ वो ताक़त बढ़ा देता है आपकी. लेकिन वो बहका भी देता है. क्योंकि तुकें तो गिनी-चुनी हैं. अभी जो है, शिशु लोरी के शब्द नहीं संगीत समझता है, बाद में सीखेगा भाषा अभी वो अर्थ समझता है... अब चूँकि ये पंक्तियाँ आ गई हैं और इसमें अर्थ का अनर्थ हो नहीं रहा है. इनसे छोटी पंक्ति लिख नहीं सकता था

शिशु लोरी के शब्द नहीं, संगीत समझता है,
बाद में सीखेगा भाषा, अभी वो अर्थ समझता है.
समझता है सबकी मुस्कान,
सभी की अल्ले ले ले ले,
तुम्हारे वेद, पुराण, कुरान
अभी वो व्यर्थ समझता है.
अभी वो अर्थ समझता है
समझने में उसको तुम हो कितने असमर्थ, समझता है.

संतोष अर्श : आप ईश्वर में भरोसा करते हैं ?

नरेश सक्सेना : बहुत कम. (हँसकर)

संतोष अर्श : बहुत कम या करते ही नहीं हैं ?

नरेश सक्सेना : मैं नहीं करता ! मुझे अभी ईश्वर के होने का कोई प्रमाण नहीं मिला. मुझे लगता है तमाम सारी ऐसी अज्ञात शक्तियाँ हैं जिनसे ये कॉसमॉस संचालित है. हमें नहीं पता हम कहाँ से कैसे आ गये ? सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी कैसे आ गये ? और जीवन कैसे आ गया ? ये जो... क्योंकि ईश्वर ने सिर्फ़ भारत ही तो नहीं बनाया ना ! उसने तो कैलीफोर्निया भी बनाया है, कांगो भी बनाया है. अगर उन्होंने बनाया होता तो इतना केओटिक बनाते क्या ? इतनी अलग भाषाएँ, इतने अलग रंग-रूप, इतनी अलग तरह की चीजें ! ताकि वो आपस में... कुछ लोगों को बहुत कमज़ोर बना दिया, कुछ को बहुत ताक़तवर बना दिया, कुछ के पास ज़मीन बहुत ज़्यादा है, लोग कम हैं. नदियाँ बर्बाद हो गयीं सारी. पर्वत तमाम...तो भई उसको ठीक कर दें ना ! अगर दिमाग़ भी तो उन्हीं ने बनाया है, तो दिमाग़ को ठीक क्यों नहीं कर देते?  


सबको सब लोग अच्छे हो जायें. हाँ सब लोग एक-दूसरे के साथ प्रेम से रहें. खुश रहें. लेकिन वो उनके हाथ में नहीं है. अगर होता और इतनी बड़ी शक्ति होती, तो दुनिया इतनी घटिया नहीं होती कि ईमानदार आदमी की गुज़र ही होना मुश्किल हो जाती, उसकी हत्याएँ होतीं, ताक़त उन लोगों के पास होती, जो हत्याएँ करवाते हैं. और पीढ़ी-दर-पीढ़ी वो उसी जगह रहते हैं. उनका कोई नुक़सान नहीं करता ईश्वर.

संतोष अर्श : विज्ञान और पर्यावरण दो विरोधी चीज़ें हैं. और पश्चिम से जो पर्यावरणवाद की थियरी है, उसने विज्ञान का विरोध भी किया है. जबकि विज्ञान में आपकी बहुत रूचि है, आपकी कविताओं में भी सामान्य-विज्ञान है, तो आप कैसे इसे संतुलित करेंगे ?

नरेश सक्सेना : देखिये ! दुनिया के तमाम रहस्यों को खोलने के लिए और विकास के लिए तो विज्ञान की ज़रूरत होगी ही. मतलब विज्ञान क्या ज्ञान है न ? ज्ञान तो बढ़ता ही जाएगा. और हम जिन चीजों को पहले नहीं जानते थे, अब जान गये. और आगे भी जानेंगे. और उनका कोई दुरुपयोग हम नहीं करेंगे, ऐसा भी नहीं है. लेकिन होता क्या है, कि जो विज्ञान है, उसको झपटकर के जो पूँजी है, जो बड़ा पैसा है वो झटक लेता है और फिर उसको मार्केट करता है. वो उसके हाथ में चला जाता है. फिर उसने विज्ञान के, वैज्ञानिकों के लेबोरेटरी सर्विस करना शुरू कर दिया. सरकार, जो लोकतांत्रिक सरकारें हैं वो न भ्रष्टाचार से मुक्त हुईं न उतना पैसा उन्होंने रिसर्च में इन्वेस्ट किया. और बड़े कॉर्पोरेट में किया. कॉर्पोरेट में करके दुनिया भर के वैज्ञानिकों को अपने यहाँ नौकरी पर रख लिया. नौकर बना लिया उन्होंने वैज्ञानिकों को. तो वैज्ञानिक क्या करें

वैज्ञानिक क्या इनकार कर दें कि मैं अब ये खोज़ आपके लिए नहीं करूँगा ? क्योंकि खोज़ का कोई...उसकी खोज़ का ग्राहक नहीं है ? उसकी खोज के ग्राहक वहीं अमेरिका में बैठे हुये हैं. यहाँ उसको कोई धेला देने वाला नहीं है. सत्तर साल हो गये, भारत में कोई आविष्कार क्यों नहीं हुआ ? उसके लिए तो ख़ैर ये इंग्लिश मीडियम भी बहुत ज़िम्मेदार है. क्योंकि इंग्लिश मीडियम... आप अगर अपनी भाषा में, मातृभाषा में ज्ञान प्राप्त नहीं करेंगे तो ज्ञान मिलेगा ही नहीं आपको. आप रटेंगे. हमारे छोटे-छोटे बच्चे चार साल, पाँच साल, सात साल, आठ साल के क्या करते हैं ? रटते हैं ! उन्हें न भूगोल का ज्ञान है, न इतिहास का ज्ञान है, न उन्हें नागरिकशास्त्र पता है. कुछ नहीं पता उनको !!

संतोष अर्श : उदय प्रकाश जी से इस मसले पर बात हुई थी, तो उन्होंने शायद कुछ निराशा में कहा था कि अब जो है, हिंदी लिबरेट नहीं करेगी. भारतीयों को इंग्लिश ही लिबरेट करेगी.

नरेश सक्सेना : ऐसा कैसे मान सकते हैं वो ? सत्रहवीं शताब्दी में इंग्लैंड में सारे बच्चे फ्रेंच में पढ़ते थे. फ्रेंच मीडियम में पढ़ते थे. और जो ग़रीब बच्चे थे, वो इंग्लिश मीडियम में पढ़ते थे. लेकिन जब रिवोल्यूशन हुआ, तो एक समय आता है चीज़ें उलट भी जाती हैं. तो अगर उदय प्रकाश ऐसा कह रहे हैं कि ये समय भारत में कभी नहीं आयेगा और आना नहीं चाहिए, इसके पीछे ये भावना तो नहीं है ? अगर आप ये कहते हैं कि नहीं आयेगा, इसके पीछे-पीछे चलती हुई ये बात भी आती है कि क्या आयेगा. हमें कुछ करना ही नहीं इसके लिए. ऐसा नहीं है. आज भी जो ज्ञान का रास्ता रटी हुई क़िताबें, दिमागों में रटे हुए वाक्य और रटी हुई शब्दावली ही आयेगी. आ नहीं सकती. जो नई मौलिक सोच है वो तभी विकसित होती है. वो पच्चीस साल में विकसित नहीं होती, पाँच साल की उम्र में विकसित हो जाती है. जब बच्चे के सवालों के जवाब उसे नहीं मिलते, वो सोचता रहता है. कि इस सवाल का जवाब...मैंने...मेरी बच्ची पूर्वा कहती थी बारिश में...वो दो लाइनें भी आपको सुना दूँ-

दरवाज़ा बारिश में भीगा
फूल गया है
कभी पेड़ था
हम समझे थे भूल गया है.

तो मैं तो...अब ऐसा नहीं है कि मैं पर्यावरण के लिए सोच रहा हूँ. मैं जो सामने आ रहा है, उसके बारे में लिखता हूँ. तो वो जब बचपन में छोटी थी और ये कविता बच्चों की... एक पत्रिका ‘साइकिल’ निकलती थी, साइकिल में छपी हुई कविता है ये. तो अब बच्चों की पत्रिका में...वो कविताएँ मैं तो इतनी सरल लिखता हूँ कि वो बच्चों की पत्रिका में भी छपती हैं. और वहाँ से निकलकर के वो चली जाती हैं. पाठ्यक्रमों में चली जाती हैं. बी.ए. में, एम.ए. में, आठवें में, ग्यारहवें में पढ़ाई जा रही हैं कविताएँ. पृथ्वी तुम घूमती हो, तो घूमती चली जाती हो ये कविता ग्यारहवें में बिहार में पढ़ाई जाती है. और ये जो कविता है, जिसके पास चली गई मेरी ज़मीन केरल में आठवें दर्ज़े में पढ़ाई जाती है. और पानी क्या कर रहा है ये भी एक कविता है, ये कविता कोल्हापुर में शिवाजी विश्वविद्यालय के हिंदी बी.ए. के कोर्स में है या एम.ए. में है, मुझे नहीं पता. मुम्बई यूनिवर्सिटी में तीन कविताएँ हैं. तो ये कविताएँ जो हैं, जे.एन.यू. में एम.फिल. किया है किसी ने, लखनऊ में एम.फिल. किया है किसी ने, हरियाणा में किया, किसी ने कहीं किया. मेघालय में कई बच्चों ने किया. तो आठवें दर्ज़े से लेकर के एम. फिल. तक कविताएँ कहीं-न-कहीं घूम रही हैं. कविताएँ अपना रास्ता ख़ुद बना लेती हैं.

संतोष अर्श : किसी युवा कवि ने आप पर एक व्यंग्य किया था. वो कविता आपने नहीं पढ़ी होगी. मैंने किसी पत्रिका में पढ़ी थी, वो आपको ही लक्षित करके लिखी गई थी. पूरी कविता याद नहीं छोटी-सी थी. उसने कुछ ऐसा लिखा है, कि समुद्र पर हो रही बारिश का बिम्ब बहुत अच्छा हो सकता है, अगर बुन्देलखण्ड का सूखा न दिखाई दे !

नरेश सक्सेना:  अच्छा ये बिम्ब अपने आप में नहीं है.

संतोष अर्श : कोई मिश्र करके कवि था !

नरेश सक्सेना : अरे वो मिश्र ! तो ये दो-तीन मिश्र हैं. जिसमें मिश्र भी एक हैं. मिश्र भी हैं. एक मिश्र भी हैं. उसी तरह के काम करते हैं. मैं बुन्देलखण्ड का हूँ कि आप ? उनसे कहना. दिल्ली के होंगे. या पता नहीं गोरखपुर के होंगे. कहाँ के होंगे ? आई डोन्ट नो मिश्र कहाँ के हैं ! मुझे नहीं मालूम. लेकिन मैं तो बुन्देलखण्ड का रहने वाला हूँ. मुझे तो वहाँ का सूखा और चट्टानें और सब कुछ मालूम है. तो वो कहीं निषेध-विरोध नहीं है. समुद्र पर बारिश जो है, समुद्र अपने आप पर बरस रहा है, वो कविता तो ये कह रही है खुद. अपने आप पर बरस रहा है. एक मिश्र कोई और थे. जिन्होंने बीस पन्नों का लेख लिखकर बताया कि नरेश सक्सेना ख़राब कवि हैं. अरे भई ! (हँसते हुए) अगर नरेश सक्सेना बेकार कवि हैं, तो यह तो एक पेज में भी बताया जा सकता है. उसके लिए बीस पन्ने की मेहनत करने की क्या ज़रूरत है ?     

संतोष अर्श : विश्वनाथ त्रिपाठी ने आपको ब्रेख्तियन लहजे का कवि कहा है. आप पर लिखते हुए उनकी इस बात से मैं पूरी तरह असहमत रहा हूँ. क्योंकि आपकी कविता में जो प्रकृति-चित्रण है वो नेरूदा की भाँति है. अच्छा आपको ब्रेख्त और नेरूदा में कौन पसंद है ?

नरेश सक्सेना : देखिये मैं एक प्रसंग बता दूँ आपको. विश्वनाथ त्रिपाठी ने मेरे ऊपर पहला लेख क़ायदे से लिखा और उन्होंने कोट किया. उन्होंने बार-बार मुझसे कविताएँ माँगी. मैंने उनको दी नहीं. दी नहीं माने, अपनी लापरवाही के कारण नहीं दीं. उनको मैं हमेशा से बहुत मानता रहा हूँ. लेकिन जब मैंने कई बार माँगने पर नहीं दीं तो एक दिन उन्होंने कहा कि, मैं समझ गया तुम मुझे दोगे नहीं. और अब मैं तुमसे माँगूँगा नहीं. अरे ! मैंने कहा, ऐसा मत कहिये. ख़ैर चार-पाँच दिन के बाद ही किसी ने फोन किया कि तुमने वो देखा लेख, जो उन्होंने तुम्हारे ऊपर लिखा है ? कविताओं पर लिखा है ? मैंने कहा, नहीं ! अरे भई क्या ग़ज़ब का लेख लिखा है. लेख की शुरुआत बताता हूँ, लाशों को हमसे ज़्यादा हवा चाहिए, उन्हें हमसे ज़्यादा पानी चाहिए, उन्हें हमसे ज़्यादा बर्फ़ चाहिए, उन्हें हमसे ज़्यादा आग चाहिए. 

लाशों को सबकुछ हमसे ज़्यादा चाहिए. उसके बाद उन्होंने लिखा ये कोट करके. शुरुआत यहीं से लेख की है. उसके बाद लिखा, कि ये पंक्तियाँ जर्मन भाषा के महान कवि ब्रेख्त की नहीं हैं, हिन्दी भाषा के मौलिक कवि नरेश सक्सेना की हैं. तो अभी जब वो अध्यक्षता कर रहे थे, जे.एन.यू. में जो समारोह हुआ नागार्जुन सम्मान पर, तो उन्होंने कहा, कि मैंने ये कविता जब पढ़ी तो मुझे लगा यार ये कहीं उठा तो नहीं ली कहीं से ? लेकिन जब मैंने ये पंक्ति पढ़ी कि उन्हें हमसे ज़्यादा आग चाहिए, तो अगर कोई क्रिश्चियन कवि होता यूरोप का, वो तो दफ़नाये जाते हैं ! तो आग की ज़रूरत नहीं पड़ती उन्हें. मिट्टी की ज़रूरत पड़ती. तब मुझे लगा कि नहीं ये तो किसी हिंदू कवि ने ही लिखी है. जिसको मृत्यु के बाद जलाया जाना है. तो देखिये ! अपनी टोटैलिटी में मैंने न तो इतना नेरूदा को पढ़ा है कि मैं दोनों का कम्पैरिज़न करके ये बता सकूँ. लेकिन दोनों की अलग-अलग कविताएँ हैं. अलग-अलग, तरह-तरह की कविताएँ हैं उनकी. नेरूदा प्रेम के कवि हैं. पर्यावरण और प्रकृति और ख़ैर ! बहुत सारा संघर्ष भी है उनके यहाँ. ऐसा नहीं है. और ब्रेख्त जो हैं, वो तो एक ख़ास तरह की मानसिकता के कवि हैं.

संतोष अर्श : तो विश्व-कविता में कुछ कवि तो आपको प्रिय होंगे ही ?

नरेश सक्सेना : मैंने छिटपुट कविताएँ देखिये पढ़ी हैं. उस तरह से एक पूरे-पूरे पोयट का मैंने तमाम साहित्य पढ़ा हो, तो उसमें जैसे वो अब तादेउश रोज़ेविच की वो कविता जो है घास वाली ! कि मैं प्रतीक्षा करती हूँ, किसी दरार में रहकर के, छुपकर के. और फिर वो घास है. जिसकी आखिरी लाइनें हैं- दैन आई विल कवर नेम्स एंड फेसेज. मैं फैल जाऊँगी. और क्या ताक़तवर लाइनें हैं. (विस्मय से) घास के बारे में मैंने कई कविताएँ लिखी हैं लेकिन वो बात... कहाँ गये सब घोड़े, अचरज में डूबी है घास, घास ने खाए घोड़े, या घोड़ों ने खाई घास, धरती भर भूगोल घास का, तिनके भर इतिहास, कि घास से पहले घास यहाँ थी, बाद में उगती घास. तो ख़ैर घास पर मैंने कई तरह से लिखा है, लेकिन जो तादेउश रोज़ेविच की बात है उसके क्या जवाब हैं ? और एक बात और है कि देखिये ! हमारे यहाँ हिन्दी कविता...किसी की कविताएँ जो हैं हिन्दी की, वो ख़ासतौर से इधर की कविताएँ हैं, वो किसी से कम नहीं हैं. लेकिन दुर्भाग्य से उनका कोई सम्पर्क नहीं है विदेश में, ये माना जाता है. और हमीं लोगों ने अपने दुष्कर्मों से ये सिद्ध किया है कि भारत में अगर कोई पढ़ा-लिखा है, तो वो सीधे अंग्रेज़ी में लिखता है. और जो पढ़ा-लिखा नहीं है अँग्रेज़ी में, वो लिखता होगा मराठी, बंग्ला, हिन्दी-उन्दी किसी में. उसको ट्रांसलेट करने की ज़रूरत ही क्या है ? इसलिए हमारे यहाँ की भारतीय भाषाओं की कविताओं के अनुवाद अंग्रेज़ी में हुए ही नहीं. आज भी नहीं हैं. वरना हमारी कविताएँ किसी से कम हैं, ऐसा मैं मानता ही नहीं.
     
तो रायपुर के बारे में बताऊँ आपको ! चूँकि रायपुर जाकर के भी मैंने ललित सुरजन को फोन किया. मैंने कहा….कि वो थे भी नहीं वहाँ, रायपुर में. मैंने कहा, आप जा रहे हैं ? तो बोले, नहीं मैं तो वैसे बाहर हूँ. वैसे भी नहीं जा सकता था. और मैंने कहा, कोई कॉल है बहिष्कार का ? कि हिन्दी के साहित्यकार या प्रगतिशील लेखक संघ के साहित्यकार उसमें ? ...नहीं-नहीं. बोले, ऐसा कोई कॉल नहीं है. जिसकी मर्ज़ी हो जाये, न मर्ज़ी हो न जाये. तो वहाँ पर इप्टा के तमाम सारे लोग शामिल, प्रगतिशील लेखक संघ के लोग उसमें शामिल. जो प्रगतिशील लेखक संघ के उस समय के अध्यक्ष थे, आलोक वर्मा वो वहाँ मौज़ूद. जिस पोइट्री वर्कशॉप की बात कर रहा हूँ, उसमें वो मौज़ूद थे. उनकी कविता भी मैंने उसमें कोट की, इसलिए मुझे याद है. मुक्तिबोध के जो दूसरे नम्बर के बेटे हैं, वो मेरे साथ उस वर्कशॉप का संचालन कर रहे थे. वो मौज़ूद थे वहाँ. सारे प्रगतिशील लेखक संघ के लोग, जनवादी लेखक संघ के लोग, इप्टा के लोग, सब वहाँ शिरक़त कर रहे थे. लेकिन उन्हें मुझी को चुनना था आक्रमण के लिए. उन्होंने उनको क्यों नहीं चुना ? कि इप्टा के लोग क्यों गये वहाँ रायपुर में? प्रगतिशील लेखक संघ के लोग क्यों गये? जनवादी लेखक संघ के लोग क्यों गये ? लेकिन उन्हें नरेश सक्सेना को टारगेट करना था ! टारगेट किया मुझे तो ख़ैर किया. 

तो अच्छा हुआ. मेरा बड़ा नाम हुआ... चर्चा हुई मेरे पक्ष में. बहुत सारे लेख छपे उसमें. (हँसते हुए) और लोगों ने भी मेरे पक्ष में लिखा. तो ये सब तो...कुछ लोग परेशान हैं इस बात से. कुछ उन्हें ऐसा शायद भ्रम है कि मेरा इतना नाम क्यों हो गया ? मुझे जगह-जगह इतना बुलाया क्यों जाता है ? वो कलकत्ता हो या हैदराबाद हो, या भोपाल हो या जयपुर हो, या अजमेर हो ! क्यों मुझे हर जगह बुला लिया जाता है ? इस बात से उनको कुछ परेशानी होती है (फिर हँसी) शायद. तो वो आक्रमण कर बैठते हैं. तो करें ! उससे मेरे ऊपर तो कोई असर नहीं पड़ता. मैं साठ बरस पार कर चुका था, रिटायर हो चुका था और मेरा कोई कविता-संग्रह नहीं था. जबकि मेरा नाम बहुत था. मैं छपवा नहीं सकता था, ऐसा नहीं था. मैं बता रहा हूँ न आपको कि मेरी पत्नी डायरेक्टर थीं और मैं एग्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर टेक्नोलॉजी मिशन था. मेरे पास कोई शराब, तम्बाकू और पान के भी शौक़ नहीं हैं. तो मेरे पैसों का क्या था ? मेरे भाई-बहन और परिवार का बोझा मेरे ऊपर कभी नहीं रहा. बहुत ख़ुशकिस्मत रहा हूँ मैं. तो संग्रह नहीं छपा सकता था ? वो एक लापरवाही मेरे स्वभाव में थी. 

जब ज्ञानरंजन बार-बार कह के थक गये कि नरेश अपना कविता-संग्रह छपवा लो. फिर एक दिन बोले, कि नरेश तुम हमारी प्रॉब्लम नहीं समझ रहे. तो मुझे कहीं से लोगों ने बता दिया था कि वो ‘पहल’ सम्मान देना चाहते हैं. तो मैंने कहा देखिये, ‘पहल’ सम्मान उनको दीजिए जिनकी बहुत क़िताबें हैं. अब मैं कविताएँ लिखता हूँ, पत्रिकाओं में छपती हैं. मैं जगह-जगह उनका पाठ करता हूँ, लेकिन मेरी क़िताब नहीं, तो मैं कवि नहीं हूँ. तो ख़त्म क़िस्सा ! छोड़िए !! तो अगले ही दिन जाकर उन्होंने घोषणा की, कि मुझे ‘पहल’ सम्मान दे दिया गया है. और बिना क़िताब के मिला है मुझे. मेरी कोई क़िताब नहीं थी उस समय. तो मेरी कोई ऐसी महत्वाकांक्षा... आप सोच सकते हैं कि आज पच्चीस साल का लड़का भी, जिसकी दस कविताएँ छप जाती हैं, क़िताब छपवा लेता है. मैं साठ बरस पार कर गया था.

संतोष अर्श : ये हिन्दी में ऐसा क्यों होता है ? क्या हिन्दी के लोग मानसिक ग़रीब हैं या हिन्दी के लोग थोड़े टिपिकल, सिनिकल हैं ? या रैडिकल हैं ? ये सारे बवाल किस वज़ह से होते हैं कि एक युवा कवि एक बड़े कवि से चिढ़ रहा है ? बड़ा छोटे से, हमउम्र से ? कोई उदय प्रकाश से चिढ़ रहा है ? कोई किसी को नीचा दिखा रहा ? अकेले, परिश्रमी और ईमानदार लोग उपेक्षित हैं. अनुभव हुआ कि संतोष अर्श जैसों के लिए सांस्थानिक हिन्दी के सभी दरवाज़े बंद है. ऐसा क्यों है ? क्या ये हिन्दी भाषा और साहित्य की सांस्कृतिक-सामाजिक समस्या है ?

नरेश सक्सेना : (हँसते हुए) ये संकीर्णता है. और ये संकीर्णताएँ...? इसीलिए जन्म इनका हुआ है कि जो हिन्दी भाषा का कवि है, हिन्दी भाषा का एम.ए. और पीएच.डी. है, वो जानता है कि उसकी हैसियत अंग्रेज़ी के सामने नहीं है. एक कुंठा उसके अंदर है. उसे पूछने वाला कोई नहीं हिन्दी में. हिन्दी ज्ञान की भाषा नहीं है. किसी भी विषय का ज्ञान... ऐसा नहीं कि फ़िजिक्स, केमिस्ट्री और मैथमैटिक्स उसका ज्ञान नहीं है. किसी भी बड़ी यूनिवर्सिटी में, महत्त्वपूर्ण विश्वविद्यालय में साइकोलॉजी के ऊपर, सोशियोलॉजी के ऊपर, सोशलवर्क के ऊपर, किसी विषय पर, जियोलॉजी के ऊपर, हिन्दी में कोई पेपर थोड़ी लिखा जाता है. न हिन्दी में ये चीज़ें पढ़ाई जाती हैं. तो यहाँ तो ज्ञान से सम्पर्क ही टूटा हुआ है, हिन्दी भाषा का. और वो तब तक नहीं लौटेगा, जब तक हिन्दी, बंग्ला और मराठी को ज्ञान की भाषा नहीं बनाया जाएगा. और कभी भी बनाया जा सकता है. आज से आप शुरू कर दीजिए. आप घोषणा कर दीजिए कि हिन्दी में पढ़कर के जो डॉक्टर आयेगा, जो इन्जीनियर आयेगा, उसे हम प्रमोशन में वरीयता देंगे, कि बेहतर पढ़ के आया है. ये अपनी भाषा में पढ़कर आया है. 

ये ज़्यादा जानता होगा. इसके कॉन्सेप्ट्स क्लियर हैं. और मुझे हज़ार लोगों के बीच में बैठा दीजिए. मैं साबित कर दूँगा कि जो इंग्लिश में पढ़े हुए हैं, वो जवाब नहीं दे पायेंगे. मैं बच्चों से मिलता हूँ रास्ते में. ट्रेन में बहुत ट्रैवेल करता हूँ... तो पन्द्रह दिन ट्रेवेल करता हूँ मैं. रास्ते में, बाहर रहता हूँ. तो मैं उनसे पूछता हूँ कि बेटे क्या कर रहे हो ? इन्जीनियरिंग कर रहा हूँ, कर ली है मैंने इन्जीनियरिंग. मैंने कहा, अच्छा न्यूटन का फ़र्स्ट नियम, मोशन का फ़र्स्ट नियम बताओ ? वो सर उसके बारे में है... इनर्शिया के बारे में ! मैंने कहा, नहीं नियम बताओ ! कहा, वो तो भूल गये साहब. वो तो याद नहीं है. मैंने कहा, क्यों भूल गये ? पता है तुम्हें ? अच्छा सेकेंड बताओ. काहे को पता उनको ? नहीं पता. उसका कारण है ! मोशन का पहला नियम जो है, एवरी बडी कंटिन्यूज़ टु बी इन इट्स स्टेट ऑफ रेस्ट ऑफ मोशन अनटिल एण्ड अनलेस एन एक्स्टर्नल फ़ोर्स एप्प्लाइड टु इट. अगर पहला शब्द एवरी बडी कंटिन्यूज़ याद नहीं आयेगा, तो पूरी डेफिनेशन याद नहीं आयेगी. डेफिनिशन में क्या है ? रटी हुई है, भूल गया है. हिन्दी में क्या है वो डेफिनिशन ? असल चीज़ क्या है ? चलती हुई चीज़ें चलती रहना चाहती हैं. रुकी हुई चीज़ें रुकी रहना चाहती हैं. जब तक कि कोई बाहरी ताक़त उन्हें ऐसा करने से, मजबूर न करे. एक बार बता दीजिए, ज़िन्दगी भर याद रहेगा. हाँ !! वो एवरी बडी कंटिन्यूज़...अरे क्या है ये ? सेकेंड लॉ क्या कहता है ? द रेट ऑफ चेंज़ ऑफ मोमेंटम ऑफ ए बडी इज़ डायरेक्टली प्रोपोर्शनल ऑफ द फ़ोर्स...क्या ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला...क्या-क्या बोल दिया, पता नहीं. 

हम भूल गये, भूल गये सर. वो कुछ फ़ोर्स और मास और एक्सिलेरेशन.... अरे ! मैंने कहा, यार वो बहुत सरल है. ऐसे हिन्दी में बताता हूँ आपको ! भूलोगे नहीं ज़िन्दगी भर. मातृभाषा में नहीं बतायेंगे तो... इसीलिए क्या कारण है कि सत्तर साल से यहाँ कोई...? उससे पहले क्या नोबेल प्राइज़ नहीं मिले भारत के वैज्ञानिकों को ? मिले ! सी.वी. रमन को मिला. चंद्रशेखर को मिला. हाँ एस. एन. बोस का नाम जानते हैं आप ? बोसोन नाम से जिसने आइंस्टीन के साथ...तो क्या हो रहा था ? उस बखत क्यों मिल रहे थे ? जब भारत आज़ाद नहीं था. तो हो रहा था, क्योंकि भाषा हमारी ग़ुलाम नहीं थी. हमारे विद्यालयों, विश्वविद्यालयों में हिन्दी में, तमिल में, बंग्ला में कॉन्सेप्ट पढ़ाये जाते थे. और इसलिए वो इस पर रिसर्च करते थे. आज वो हमारे कॉन्सेप्ट समझ में नहीं आते. हम रट लेते हैं और रटी हुई भाषा में रटे हुए विचार ही आते हैं, मौलिक नहीं आ सकते. कैसे आयेंगे ? तब क्या किया जाय ? इसके लिए लेकिन कोई आन्दोलन अगर साहित्यकार भी नहीं करेगा हिन्दी का, तो कौन करेगा ? अगर उदय प्रकाश ऐसा कहने लगेंगे... उनसे मैं बात करूँगा ! आप क्या बात कर रहे हैं ? उनका यह आशय नहीं रहा होगा. निराशा होगी ! उनके यहाँ निराशा होगी. 

बहुत लोग कहते हैं, कि अब बहुत देर हो गई. मैं कितनी जगह... इंस्टिट्यूशंस में मैंने कहा. तो उन्होंने कहा बहुत देर हो गई. मैंने कहा बिलकुल देर नहीं हुई है. देर आप कर रहे हैं. आप कल से चालू करिये, देखिये मार्केट भर जायेगा हिन्दी की क़िताबों से. पब्लिशर्स रातोरात लिखवा के क़िताब ला के दे देंगे आपको. क़िताबें आ जायेंगी और टर्मिनोलॉजी आप इंग्लिश की यूज़ कर लीजिए. और उसके साथ-साथ डेफिनिशन इंग्लिश वाली भी दे दीजिए. हिन्दी में कॉन्सेप्ट समझाइए. सब हो जाएगा. मैं ऑर्डिनरी स्टूडेंट था. बट अल्टीमेटली आई प्रूफ्ड द बेस्ट. जहाँ-जहाँ मैं कंसल्टेंसी सर्विसेज में गया. अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी गया. और अन्ततः कुछ दिनों के बाद ये होता था, कि जो काम कोई नहीं कर पाता वो नरेश सक्सेना करते हैं. उन्हें दे दीजिए ये प्रोजेक्ट. वो कर देंगे. और ये मैंने करके दिखाया. तो उसने, अमेरिकन ने मुझसे पूछा, जो टीम लीडर था, मिस्टर सक्सेना हाउ आर यू एबल टू डू इट ? मैंने कहा, बिकॉज़ इट्स वेरी सिम्पल. इट वॉज़ नॉट ए मच ऑफ ग्रेट प्रॉब्लम. मैंने कहा, दे हैव बीन टॉट इन्जीनियरिंग इन इंग्लिश. तो उसने कहा, सो ह्वाट ? मैंने कहा, दे नाइदर नो इंग्लिश नॉर द सब्जेक्ट. तो हँसने लगा. मैंने कहा, आप अमेरिका के सबसे तेज़ बच्चों को, इंटेलिजेंट बच्चों को, चार साल के, पाँच साल के बच्चों को यहाँ भेज दीजिए. मैं मराठी मीडियम में पढ़ाता हूँ उनको दस साल, मैं तमिल मीडियम में पढ़ाता हूँ दस साल, फिर देखिये उनका क्या हाल होता है. वो बेवकूफ़ हो जाएँगे. हाँ नाइंटीनाइन परसेंट लाने लगेंगे रट-रट के. 


तो हमारे यहाँ तो रट्टू तोते हैं. इसीलिए पूरे भारत का इंटेलेक्ट जो है क्यों नीचे है सबसे ? एक सौ चौहत्तर में एक सौ तिहत्तरवाँ नम्बर क्यों है भारत का ? इंटेल पी.आई.एस.ए. की रिपोर्ट में ? ऐसा क्यूँ है ? क्या है ? आप कोई रीज़न बता सकते हैं ? इंग्लिश मीडियम की कमी है क्या भारत में ? फिर ये हमारे बच्चों का, पन्द्रह-सोलह साल के बच्चों का ये स्तर क्यों है पूरी दुनिया में ? सबसे नीचे क्यों पहुँच गया ? कोई जवाब है ? नहीं है जवाब ! जवाब इंग्लिश मीडियम है. (हँसते हुए) चलिये अब खाना खाते हैं.  
poetarshbbk@gmail.com 
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  1. बहुत ज्ञानवर्धक और रोचक बातचीत

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  2. नरेश सक्‍सेना जी से इस किस्‍त की बातचीत भी अच्‍छी की है संतोष ने। संतोष का अब तक का जो भी काम रहा है वह बहुत ही चुनिंदा और मौजूं है। नरेश जी हिंदी के एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविताएं विज्ञानसम्‍मत हैं। वह बहुत सोच-समझकर लिखते हैं जो हमारे ज्ञानचक्षु को खोलने का काम करते हैं। संतोष का यह सवाल भी बहुत दिलचस्‍प है कि इंजीनियर होते हुए नरेश जी ने पर्यावरण का कितना नुकसान किया? नरेश जी का जवाब भी बहुत ही नपा-तुला है, जिस पर विश्‍वास नहीं करने का सवाल ही पैदा नहीं होता है। वाद-विवाद वाले सवाल भी कुछ कम महत्‍वपूर्ण नहीं हैं। हिंदी में कुछ लोगों की Tendency हो गई है कि लिखो कम और विवाद ज्‍यादा पैदा करो। वे उसी में अपना भला समझते हैं। बहरहाल, नरेश जी, संतोष जी और अरुण देव भाईसाहेब को बहुत-बहुत बधाई कि एक अच्‍छी बातचीत हमलोगों को पढ़ने को मिली।

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  3. अमरेंद्र कुमार शर्मा4 जुल॰ 2020, 7:52:00 am

    यह एक बेहतरीन बातचीत इस अर्थ में है कि , यह एक कवि की केवल कविता पर बात नहीं है । यह बातचीत लेखन की राजनीति से चलकर , अपने समकालीन लेखकों से संवाद और संबंध को टटोलती , पर्यावरण के भूगोल को स्पर्श करती हुई , स्थानिक बुंदेलखंड के चट्टानों से गुजरती हुई विश्व कविता के संदर्भ को भी छूती है । आपका आभार अरुण भाई , एक अच्छी बातचीत पढ़वाने के लिए ।��

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  4. बहुविमर्शी और विचारोत्तेजक। संतोष के पास साहित्य और संस्कृति को देखने का बहुपरती नज़रिया है, इसलिए उनका इंतज़ार रहता है।
    नरेश जी को सुनने और पढ़ने के बाद हम पहले जैसे नहीं रह जाते। वे हमें दिखाई दे रहे वस्तु-जगत की जड़ों तक ले जाते हैं। कहने को यह बात बहुत आमफ़हम लगती है, लेकिन नरेश जी के कथन की विशिष्टता यह है कि वे सिर्फ़ यथार्थ की जटिलता की ओर इशारा करके नहीं रह जाते बल्कि उसकी अंदरूनी बनावट या विन्यास को खोल कर रख देते हैं। मसलन, जब अपने एक व्याख्यान ( इसका उल्लेख मौजूदा इंटरव्यू में भी है) में वे बताते हैं कि हमारे यहाँ बच्चों की एक विशाल आबादी ऐसी है जो कुपोषण के अंतहीन चक्र के कारण धीरे-धीरे अपनी मानसिक और शारीरिक क्षमता गँवा बैठते हैं तो वह हाल के बरसों में प्रचारित किए गए इस मिथक की पोल-पट्टी खोल देते हैं कि जनसांख्यिकी के लिहाज़ से फ़िलहाल भारत दुनिया का युवतम देश है। हमारे सार्वजनिक जीवन की इन विकृतियों की ऐसी 'वैज्ञानिक' समझ अन्य समकालीन कवियों के कम ही मिलती है।
    इसी तरह, हिंदी में बौद्धिक संस्कृति की दरिद्रता और समग्रत: राष्ट्रीय स्तर पर ज्ञान-विज्ञान की बदहाली के कारणों की जैसी विस्तृत समझ नरेश जी के यहाँ मिलती है, उससे हिंदी का मौजूदा रचना-संसार― मोटे तौर पर, बेख़बर दिखता है।

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