कथा - गाथा : भूगोल के दरवाज़े पर : तरुण भटनागर



भारत और चीन के बीच हमेशा तिब्बत रहता है. भले ही उसका ज़िक्र हो न हो. इस समय भी तिब्बत बुदबुदा रहा है, धीरे-धीरे ही सही. प्रसिद्ध कथाकार तरुण भटनागर को जब मैंने तिब्बत पर लिखी उनकी इस कहानी की याद दिलाई तब उन्होंने कहा कि अब भी वे इसपर काम कर रहें हैं. यह उस कहानी का अगला संस्करण है और इसे आज पढ़ना अलग ही अर्थ देता है. 


कहानी प्रस्तुत है. 



भूगोल के दरवाज़े पर                
तरुण भटनागर  



एक

ब तक हमने वहाँ के बाशिंदों को नहीं देखा था, वह गाँव ठेठ ही लगा. देखने में वह गाँव जिस तरह से गाँव होते हैं उससे अल्हदा दीखता था, उसमें बने मकान, लंबे और चोंगे के आकार का मंदिर और हवा में फरफराती तमाम तरह की चौकोर रंग बिरंगे कपडों की लडों से सजा-धजा वह गाँव एक अलग दुनिया सा दीखता रहता.

बचपन के किसी किस्से में सुनी किसी जगह जैसा. कोई जगह जिसके बारे में बचपन की किसी कहानी में सुना जाना था, कुछ-कुछ वैसा ही. पर फिर भी उसमें एक गाँव पन था, एक ठेठपन जो इस सबके बावजूद उसकी फितरत में था. उसके बाशिंदों को देखते ही उसका यह ठेठपन बिला जाता था. पल भर को लगता कि वह कितनी अल्हदा जगह है, हमारी दुनिया से कितनी मुख़्तलिफ, न कभी देखी, न जानी. यूँ तो यह भ्रम ही था कि अगर लोग अलग से दीखते हों तो वह दुनिया जिसमें वे रहते हैं वह भी अलग सी दुनिया होती है. हम स्कूल जाते बच्चे थे. और इस तरह यह भ्रम हमें बताता रहता था कि वह गाँव कितना तो अलग है. छुटपन के, उन दिनों के आलम में, यह अलग सा दीखने वाला गाँव अजूबेपन की हद तक अल्हदा नजर आता रहता था.
            
यह बात थी उन्नीस सौ अस्सी की. उन लोगों के उस गाँव में  सबसे पहले बसने के तीस साल बाद की. तीस साल पहले उनकी जो पहली आमद हुई थी इस गाँव में उसके बारे में कोई खास मालूमात नहीं हैं. बस इतना ही पता चलता है कि वे आये और बस गये.            
                
छत्तीसगढ़ में जो जगह समुद्र तल से सबसे अधिक ऊँचाई पर बसी है, वह यही गाँव है. जैसा कि है ही कि वहाँ के बाशिंदे हमारे यहाँ के से नहीं जान पडते. नहीं दीखते. और यह भी कि लंबे बीते वक्त ने यह जतलाया कि चपटे चेहरे, सीधे खडे बाल और छोटी-छोटी आँखों वाले ये लोग दूसरों से अलग नहीं हैं, सिवाय इसके कि वे अलग दिखते हैं. उनके पास जाओ, उनसे बात करो तो लगता है कि सिवाय इसके कि वे अलग दीखते हैं कुछ भी तो अलग नहीं. अलग दीखना भी वैसा ही भ्रम है जैसा कि उस गाँव का मुख़्तलिफ सा लगना. वे एक ऐसी जगह से आये थे, तीस साल पहले, जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता था. तीस साल पहले वह जगह दुनिया के तमाम अखबारों में सुर्खियाँ बनी थी. तब वे सैंकडों की तादाद में उस जगह को छोडकर चले आये थे. टाइम्स मैगजीन से लेकर न्यूयार्क टाइम्स तक और बी.बी.सी. लंदन से लेकर दुनिया के तमाम समाचारों में वे ही वे थे. उन पर बातें थीं. उनकी ही तस्वीरें दीखती थीं. पर वे इन सब से बेखबर चलते-चले थे. वे सैंकडों की तादाद में आये. फिर यहीं रह गये.
                        
उनके बारे में जो नहीं पता था, वह यह था कि बीते तीस सालों में और उस दिन जब हम उनके उस गाँव गये थे तब भी, उन्होंने यह मानने की भरसक कोशिश की है, खुद को यकीन दिलाया है कि यह जमीन, यह आकाश, यह जंगल, दूर तक फैले हरे घास के मैदान, ये तमाम लोग, आसमान के चाँद सितारे सब ... सब उनके ही तो हैं. यह बात समझ न आती थी कि कोई खुद को इस तरह का यकीन क्यों दिलाता रहता है कि सारी कायनात उसकी ही तो है ? चारों ओर देखो तो लगता है सबकुछ अपना ही तो है. हम यहाँ रहते हैं. हमारा मकान है यहाँ. हमारा परिवार. फिर यह बात क्यों ? पर यह सब था ही. इतना ही नहीं बल्कि उन्हें लगता कि खुद को यकीन दिलाना एक थका देने वाला काम है. कब तक और किस तरह से कोई खुद को यकीन दिलाता रहे. आप अगर बार-बार खुद को यकीन दिलायें तो थक जायें. खुद को यकीन दिलाने वाले लोगों के चेहरे पर बेवक्त ही झुर्रियाँ आ जाती हैं. उनके बाल जवानी में ही पकने लगते हैं और उनकी आँखों का नूर बितर जाता है. यह जो यकीन नाम की शै है उसके बदन पर घाव के निशान हैं. यकीन नाम की इस शै के जिस्म से खून रिसता रहता है. पर फिर भी वे खुद को यकीन दिलाते रहते हैं और धीरे-धीरे यकीन पर से उनका यकीन दरकता रहता है. झूठ कोई ऐसी चीज तो नहीं कि कोई खुद से झूठ कहकर खुद को ढ़ांढ़स देता रहे. उनके यकीन के साथ यही गडबड है. उनका यकीन झूठ के ढाँचे पर तना है. इसलिये उनके जेहन में जब-जब उनका यकीन उठकर खडा होना चाहता है, वह इस कोशिश में पलटकर गिरता है. पछाड खाकर भीतर कहीं बेहोश हो गये यकीन की देखभाल करना सबसे कठिन काम होता है. पर कोई क्या करे ? कोई राह नहीं सूझती.


दो
             
मैनपाट. छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले का ही एक गाँव है. कहते हैं समुद्र तल से लगभग एक हजार एक सौ मीटर ऊपर. पहाडों पर रहने वालों को यह ऊँचाई कम लग सकती है, पर यकीन करें मैनपाट में आये ये लोग जिस जगह से आये थे वह जगह समुद्र तल से पाँच हजार मीटर की ऊँचाई वाली जगह थी. इतने ऊँचे तो पहाड भी कहाँ होते हैं. पूरे छत्तीसगढ़ में मैनपाट सबसे ऊँचाई पर है. इससे ऊपर कोई और गाँव नहीं है. यह आसमान के सबसे पास है. जिस जगह जो जगह सबसे ऊँचाई पर होती है वही उस जगह आसमान के सबसे पास होती है. यही माना जाता है.                
                             
तारीख गवाह है, कि तीस साल पहले जब उनसे उनकी जमीन, मकान, परिवार, सबकुछ छीन लिया गया था, तब वे हजारों की तादाद में एक अनिश्चित सी उम्मीद के साथ हमारे यहां आये थे. कोई नहीं जानता कि वे अपनी आँखों में जलते मकानों के मंज़र लेकर आये थे. गिराये जाते मकानों के खौफनाक नजारे उनके जेहन से गुजरते रहते थे. उनकी खामोश आँखों में बेगुनाह कस्बों की गलियों में बहते मासूमों के खून का मंजर एक ऐसी चीज थी जिसे वे किसी को बता न सकते थे. उन में से कुछ इतने मजबूर थे कि उन्होंने दरवाजे की ओट से छिपकर देखा था अपने परिवार का कत्ल. इस तरह वे आये थे. वे आये और कुछ जगहों पर बसे. मैनपाट भी ऐसी ही जगहों में से एक है. वे लोग आज भी मैनपाट में है. पर लोग इसे एक घूमने फिरने वाली जगह के रूप में जानते हैं. लफरी घाट और टाइगर नाम के झरनों और उल्टा पानी नाम की एक जगह जहाँ पानी उल्टा बहता है इस जगह की प्रसिद्धी की वजह हुई. यह एक हिल स्टेशन जाना गया. इस तरह इस जगह की तमाम बातों में उन लोगों की कहानियाँ शामिल नहीं हो पाईं.
                             
वे अपने साथ बुद्ध को लेकर आये थे. इस गाँव में उन्होंने बुद्ध का एक मंदिर बनाया. उन्होंने बुनने का और खेती का काम किया. उन्होंने लसाप्सा नाम के कुत्तों को पाला और उन्हें बेचा. जीने की एक राह उन्होंने खोजी. वे अपनी जबान में बोलते-बतियाते. अपने मुल्क का गीत गाते, उनका मुल्क, वह मुल्क जो अब धरती के नक्शे में दीखता नहीं. अगर आप दुनिया के नक्शे को देखें तो जिस तरह तमाम मुल्कों के अलग-अलग रंग दीखते हैं. उनकी अलग-अलग सरहदें दीखती हैं. उस तरह से उस मुल्क को अलग रंग और सरहद में नहीं दिखाया जाता है. किसी मुल्क का दुनिया के नक्शे से गायब हो जाना कोई छोटी बात नहीं है. दरअसल हुआ इस तरह था कि पहले तो वह मुल्क नक्शे से गायब हुआ और फिर वह धीरे-धीरे लोगों की बातों से भी गायब होने लगा. लोग उसके बारे में बातें करना भूल गये. नक्शे से गायब हो जाने के बाद लोगों को भी यह बहाना मिल गया था कि उस मुल्क पर बात करने की अब क्या जरुरत ? इस तरह जब बात नहीं हुई तो वह मुल्क फिर आहिस्ते-आहिस्ते भुला दिया गया. कुछ इस तरह कि तमाम लोगों से अगर आप पूछें कि वह मुल्क हिंदोस्तान का पडोसी मुल्क था और आकार-प्रकार में आज के पाकिस्तान जैसे मुल्क से भी काफी बडा तो एकबारगी उनमें से कइयों को लगे कि आखिर यह किस मुल्क की बात की जा रही है ? वह कौन सा मुल्क था जो हिंदोस्तान का पडोसी था, पर आज दुनिया के नक्शों में नहीं है और जो आकार-प्रकार में आज के पाकिस्तान से बडा था ? इतना ही नहीं हिंदोस्तान से मिलने वाली उसकी सरहद किसी भी दूसरे मुल्क से मिलने वाली हिंदोस्तान की सरहद से कहीं ज्यादा लंबी थी. वह सबसे लंबी सरहद वाला हिंदोस्तान का पडोसी था.
                 
वे उसी मुल्क के लोग थे. वहीं से आये और मैनपाट में बसे.                                     
                               
 
                                  
तीन               
वह इन्हीं लोगों में से एक था. मैनपाट की घाट से साईकिल चलाता आता था. उसका नाम ग्याल्त्सो था. हम सब उसके नाम को ठीक-ठीक बोल न पाते थे. हम लोग याने हम सब बच्चे और स्कूल का मास्टर. उसका पूरा नाम कुछ और था. वह इतना लंबा और अजीब नाम था कि हम बोल न पाते थे. इस तरह हम उसे सिर्फ ग्याल्त्सो कहते थे. हम ठीक से ग्याल्त्सो भी न कह न पाते थे. पर इससे उसे कोई दिक्कत न थी. स्कूल के मास्टर से उसकी दोस्ती इतनी गहरी थी कि उसने उससे दोस्ती के खातिर किसी भी तरह से कह दिये जाने वाले अपने नाम को, हमारी जबान से मंजूर कर लिया था.
                  
उस दिन हम दस स्कूली बच्चे अपने इसी मास्टर और गाइड मास्टरनी के साथ मैनपाट आये थे. वह शाम थी और हमें वहाँ की प्राथमिक शाला के एक भवन में आगे पाँच दिनों तक रहना था. मास्टर ने हमें बताया था, कि इसे ‘आउटिंग’ कहते हैं. उस रात हमें उस गाँव के सिर्फ दो लोग मिले थे, जिन्हें मास्टर और हमारे आने का पता था. वे मुझे अजीब से लगे थे- पीला रंग, छोटी-छोटी आँखें, धँसे हुए गाल, उभरी गाल की हड्डी, चमकता चेहरा, सफाचट और अधकचरी दाढ़ी-मूँछ, ठिगना कद, छोटे-छोटे खड़े काले बाल....... इतनी ठण्ड में भी उन्होंने बहुत कम कपड़े पहन रखे थे. फिर उनमें से एक कुछ देर बाद एक केतली में चाय लेकर आया. मक्खन वाली तिब्बती चाय. जिसकी अजीब खुशबू से मुझे उबकाई आई थी, पर बाकी सब बडे चाव से उसे पी रहे थे.
 
                           
‘तिब्बत एक शानदार मुल्क था. लोग उसे देवताओं की भूमि कहते थे.’
                     
स्कूल का मास्टर हमें बताता. मैनपाट मास्टर की पसंदीदा जगह थी. तिब्बत पसंदीदा विषय. तिब्बत कोर्स में न था. जब वह भूगोल की किताब में मुल्कों की फेहरिस्त में ही न था तो कोर्स में कैसे होता. जब वह नक्शे में ही न दीखता था तो कोर्स में कैसे होता. पर भी मास्टर उसके बारे में बताता था. हम छोटे थे. इस तरह इस बात को न जानते थे कि ऐसे मुल्कों के बारे में बात करने वाले लोग कैसे होते हैं ? कैसे होते हैं वे लोग जो ऐसे मुल्कों के बारे में बातें करते हैं जो दुनिया के नक्शे में नहीं दीखते ? वे लोग जो भूगोल की किताब में न दीख पडने वाले मुल्कों के बारे में बताते हैं ? जो उन मुल्कों के बारे में बात करते हैं जो कोर्स में नहीं हैं ? ऐसे मुल्क जिनके बारे में बताते हुए आउट ऑफ़ द कोर्स जाना पडता है ? ऐसे लोग ? कैसे होते हैं ? इस तरह तिब्बत और मास्टर के बीच की बात समझ न आती थी. पर वह तिब्बत पर बात करता था.
                   
इस सब की शुरुआत एक वाकये से हुई थी. हमें ग्याल्त्सो अजीब लगता था. हम छोटे थे और यह मानते थे, कि हर छोटी आँख वाला और पीली खाल वाला आदमी चीनी होता है. छोटी आँख वाले, ठिगने पीले लोगों के लिए हमारे पास बस एक ही शब्द था- चीनी .... सो हम ग्याल्त्सो को चिढ़ाते थे- चीनी, ऐ चीनी .... और... ग्याल्त्सो आगबबूला होकर हमें मारने को दौड़ता. एक दिन ग्याल्त्सो ने मास्टर से हम सबकी शिकायत कर दी. मास्टर को सबकुछ बताते-बताते वह रुआँसा हो गया. हमें बड़ा अजीब लगा, क्योंकि हमने तब तक पैंसठ-सत्तर साल के किसी बुजुर्ग को हमारे चिढ़ाने पर, इस तरह रुआँसा होते नहीं देखा था. अलबत्ता गुस्सा होते ज़रूर देखा था. ग्याल्त्सो को गुस्सा दिलाने में हमें मजा आता था. इसीलिए हम उसे चीनी, चीनी कहकर चिढाते थे. ग्याल्त्सो का गुस्से से दुःखी हो गया चेहरा हमें बडा अजीब लगा था. चिढाने से बच्चे रो देते हैं. पर बुजुर्ग भी रो देते हैं यह बात हमें अजीब लगी थी.                     
                     
मास्टर ने हमें सख्त हिदायत दी कि हम उसे चीनी ना कहें. ग्याल्त्सो के जाने के बाद उसने हमसे कहा कि हमने ग्याल्त्सो को तकलीफ पहुँचाई है. हमें इस बात का अफसोस होना ही चाहिए कि हमने एक नेक आदमी के दिल को दुखाया. उसे चीनी, चीनी कहकर चिढाया. ‘वह तिब्बती है, चीनी नहीं’- मास्टर ने सख़्त लहजे में हमसे कहा. पर फिर शायद उसे लगा कि हम इतने अकलमंद नहीं हैं कि चीनी और तिब्बती के बीच के अंतर को जान सकें. तो फिर उसने हमें समझाया भी- ये दोनों चीजें बिल्कुल अलग हैं. चीनी और तिब्बती में बहुत अंतर होता है. हर किसी को यह जानना चाहिए कि तिब्बती और चीनी दो अलग लोग हैं.
                                



चार
            
मास्टर ने यह भी बताया कि जब वह हमारी तरह छोटा था और स्कूल में पढ़ता था, तो स्कूल की भूगोल की किताब आज की भूगोल की किताब से अलग थी. उस वक्त की भूगोल की किताब में लिखा होता था, कि तिब्बत एक मुल्क है. उनके दौर की भूगोल की किताबों में लिखा था, कि हिमालय के उत्तर में एक बहुत सुंदर जगह है, जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. कि यह एक मुल्क है. बिल्कुल दूसरे मुल्कों की तरह, अलग और अपने आप में रचा बसा. भूगोल की किताबों में यह भी लिखा होता था कि, इस मुल्क की अपनी राजधानी है, जिसका नाम ल्हासा है. पर आज के छात्र यह सब नहीं जानते. क्योंकि वे भूगोल की दूसरी किताबें पढ़ते हैं. उनकी किताबों में तिब्बत का नाम ही नहीं है. मास्टर हमसे पूछता- ‘बताओ बताओ है क्या ? बोलो बोलो’. हम सब एकसाथ चिल्लाते ‘नहीं’. 


मास्टर हमसे पूछता ‘क्या भूगोल की किताबों में हिंदोस्तान के पड़ोसी मुल्कों में तिब्बत का नाम लिखा है?’ हम सब एकसाथ चिल्लाते ‘नहीं’.
                
मास्टर हमारी भूगोल की किताब उठा लेता. उसके सारे पन्ने एक साथ फुरफुराता पलटता- ‘देखो देखो इसमें तिब्बत कहीं भी नहीं है.’ फिर कुछ सोचता. थोड़ा सँभलता फिर कहता -
             
‘देखो. बात ऐसी है कि जमीन उसकी होती है, जो उस पर कब्जा कर लेता है. जमीन ही क्या, रोड, पुल, नाले, नदियाँ, मकान, जंगल, पहाड़...याने वह सब कुछ जो दीखता है उस सब पर भी किसी का कब्जा हो सकता है. इसी तरह कोई भी मुल्क उसका होता है, जो उसे जीत लेता है. किसी मुल्क को जीतने के कई तरीके होते हैं. पर सबसे आसान है, जबरदस्ती घुस आओ और ताकत के बल पर कब्जा कर लो. फिर वहाँ के लोगों को वहाँ से खदेड़ दो. जैसा कि तिब्बत में हुआ. जैसा कि चीन ने तिब्बत के साथ किया. जो हुआ वह गलत था. ग्याल्त्सो और उसके लोगों के साथ जो कुछ भी हुआ वह गलत था.’
             
मास्टर बताता कि इस तरह एक मुल्क दूसरे मुल्क को जीत लेता है. जीतने के साथ ही उसे एक और अधिकार मिल जाता है. वह है, किताबें लिखने का अधिकार. कि यह दुनिया का कायदा है, किताबें वही मुल्क लिखेगा जो जीत चुका हो. हर किताब किसी विजेता ने ही लिखी है. जिन लोगों ने तमाम किताबें लिखी हैं वे या तो विजेता लोग हैं, या विजेताओं अपने लोग हैं. जैसे तुम्हारी यह भूगोल की किताब. दुनिया कि तमाम किताबों की तरह तुम्हारे कोर्स की भूगोल की यह किताब भी किसी विजेता ने ही लिखी है. ऐसा नहीं है कि हारे हुए मुल्क किताब नहीं लिखते हैं. दिक्कत यह है कि उनकी किताबें चलती नहीं हैं. कम से कम कोर्स में तो आ ही नहीं सकतीं. कोर्स में जो किताबें हैं वे जीते हुए मुल्कों की किताबे हैं. इसलिए उसमें हारे हुए मुल्कों का जिक्र नहीं. इसलिए इसमें तिब्बत नहीं है.- भूगोल की किताब को फरफराता पलटता मास्टर कहता.
                          
स्कूल जंगल के बीच था. वह एक बेहद दूर का स्कूल था. छत्तीसगढ के एक ऐसे गाँव का स्कूल जहाँ लाइट न थी, उन दिनों. वह गाँव बारिश के मौसम में सारी दुनिया से कट जाता. उस गाँव के रास्ते उफनाते नालों के भीतर समा जाते. उसके जंगल हरे-भरे होकर और फैल जाते. दो कमरों के उस स्कूल में जिसके बच्चे गाँव से खेत खलिहानों के रास्ते मेडों और पगडण्डियों से चलकर स्कूल पहुँचते थे, उस स्कूल का मास्टर स्कूल के कोर्स के बाहर की एक बात को पूरे मन से और हिदायत के साथ उन बच्चों को बताता रहता था-  स्कूल का कोर्स ही क्या, दुनिया कि किसी भी किताब में हारे हुए मुल्कों का नाम नहीं मिलता. तुम्हें किसी भी किताब में हारे हुए मुल्कों के गीत और कहानियाँ नहीं मिलेंगी. तुम पूरा बाजार छान मारो, चाहे अंबिकापुर चले जाओ, चाहे उससे भी आगे रायपुर या दिल्ली, या उससे भी आगे


तुम्हें भूगोल की एक किताब नहीं मिलेगी जिसमें दुनिया के मुल्कों की फेहरिस्त में तिब्बत का भी नाम लिखा हो. तुम बड़ी से बड़ी लाइब्रेरी में एक भी भूगोल की ऐसी किताब नहीं ढ़ूँढ़ सकते जिसमें लिखा हो कि तिब्बत भी एक मुल्क है और दूसरे मुल्कों की ही तरह उसकी अपनी राजधानी है, अपनी मुद्रा है. तुम भूगोल की एक किताब नहीं ला सकते जिसमें लिखा हो कि भारत की सबसे लंबी सरहद जिस मुल्क से मिलती है, उसका नाम तिब्बत है.- मास्टर न जाने क्या-क्या बताता रहा था. कहता रहता था. मास्टर एक बात कहता था जो बिल्कुल भी समझ न आती थी. वह कहता था कि हारने का मतलब सिर्फ हारना नहीं होता है, इसका मतलब होता है स्मृति में से मिटा दिया जाना... .
                                
इन सब बातों का हम पर जो असर पडा वह कुछ इस तरह था कि हमें इस बात का अहसास हो गया था कि हमने जो कुछ ग्याल्त्सो के साथ किया था, उसे चिढाकर, उसका मजाक बनाकर, वह बेहद गलत था. हम उसे एक ऐसे नाम से चिढाते थे जो वह बरदाश्त न कर पाता था. हमने सचमुच किसी बुजुर्ग को चिढाने पर इस तरह रुआँसा होते न देखा था. जिससे यह लगता ही था कि कोई भारी भूल हमसे हुई थी. इस तरह हम यह मानने लगे कि हमने एक भारी गलती की है. ग्याल्त्सो का दिल दुखाकर हमने कोई ऐसा काम किया है जो बहुत गलत और नाकाबिले बरदाश्त है. कि हमें अपनी गलती का कुछ न कुछ प्रायश्चित तो करना ही चाहिए. जो तकलीफ हमने ग्याल्त्सो को पहुँचाई थी उसका प्रायश्चित. हमने सोचा कि हम कुछ ऐसा करें कि ग्याल्त्सो को अच्छा लगे. कोई ऐसा काम जिससे वह और मास्टर दोनों खुश हो सकें. पर ऐसा क्या कर सकते थे हम ? फिर हमारे एक दोस्त को एक तरकीब सूझी. यह तरकीब हम सबको अच्छी लगी.


                                
पाँच
                      
हम सब उस दोस्त की सुझाई तरकीब को मानने को तैय्यार हो गये थे. हम सबने अपनी-अपनी भूगोल की किताब में एक तब्दीली कर ली. किताब में एशिया के मुल्कों के नाम लिखे थे. इन मुल्कों की फेहरिस्त थी. फेहरिस्त जहाँ खत्म होती थी उसके नीचे जरा सी जगह थी. उस जगह हम सबने लिख दिया- देश- तिब्बत, राजधानी -ल्हासा. इस तरह हम सब की भूगोल की किताबों में एशिया के मुल्कों की फेहरिस्त के नीचे लिखा गया- देश -तिब्बत, राजधानी- ल्हासा. फिर हमने सारे दोस्तों की भूगोल की किताबें चैक कीं. हर किताब में लिख गया था- देश-तिब्बत, राजधानी--ल्हासा.
                     
हम सबमें से एक लडका जो थोडा बोलने में माहिर था और मास्टर से जरा कम ही डरता था उससे हम सबने कहा कि वह मास्टर को बतलाये कि हम सबने भूगोल की हर किताब में लिख लिया है- देश -तिब्बत, राजधानी -ल्हासा. वह बताये कि ठीक है कि इस सरजमीं की भूगोल की किसी भी किताब में नहीं लिखा है- देश- तिब्बत, राजधानी- ल्हासा. ठीक है, कि तिब्बत ग्लोब में नहीं दीखता. भूगोल में जो एटलस होता है, उसमें वह अलग रंग से नहीं दर्शाया जाता है. दुनिया के नक्शों में उसमें कोई अल्हदा रंग नहीं भरा जाता. सब जानते हैं कि नहीं है तिब्बत दुनिया जहान के नक्शों में, अपनी सरहद के साथ कहीं भी. नहीं है देश-दुनिया में. चर्चा में भी नहीं है. वह जो तुम कहते हो मास्टर कि रोज के रेडियो में भी कोई खबर तिब्बत पर नहीं आती है. कि जो तुम्हारा दोस्त ग्याल्त्सो खोजता है, तिब्बत का वह नाम, रोज सुबह पेपरों में, पर वह जो उसे कभी मिलता नहीं. कि वह जो कहता है, उदास, कि तिब्बत पर कहीं कोई फिल्म नहीं देखी. ठीक है कि तुम्हारे मुताबिक तुम जो वह बताते हो कि यू.एन.ओ. की फेरिस्त में भी नहीं है तिब्बत. कहते हो कि नहीं है, ओलंपिक के झण्डाबरदार खिलाड़ियों की परेड में. नहीं है, डाक टिकटों में. कहीं नहीं, किसी मुल्क में नहीं तिब्बत का कोई राजदूत, कोई एम्बेसेडर. संसार में कहीं नहीं तिब्बत का कोई दफ्तर.... पर देखो यह हमारी किताबों में आ गया है. हम सबने लिखा है. हमारे कोर्स की भूगोल की किताबों में- देश-तिब्बत, राजधानी- ल्हासा. हर किताब में लिखा है. हर छात्र ने लिखा है. यह कोई छोटी बात तो नहीं है न मास्टर जी. 
                           
मास्टर ने हमारी किताबों में से एक दो किताबें देखीं. फिर बाकी किताबों को भी देखा. एक के बाद एक. हर किताब में लिखा था- देश -तिब्बत, राजधानी -ल्हासा. मास्टर कुछ कहना चाहता था. पता नहीं क्या तो. पर वह चुप ही रहा और चुपचाप हमारी भूगोल की किताबों को देखता रहा. बाद में यह लगा कि मास्टर भी यह मानता था कि किताबों में यह लिखा जाना-देश-तिब्बत, राजधानी- ल्हासा कोई छोटी बात नहीं है. यह ठीक है कि यह बच्चों ने खुद लिखा. कोई कह सकता है कि बच्चे मासूम होते हैं. पर यह भी तो सच है कि बच्चे सच्चे होते हैं. जो जी में आता है कर देते हैं. दिल में जो आता है कर गुजरते हैं. इसीलिए इस बात का मोल है कि उन्होंने लिख लिया- देश- तिब्बत, राजधानी - ल्हासा. हर बात के मायने हैं. हर अच्छे काम की अहमियत है. कोई काम इस वजह से तो कमतर नहीं हो जाता कि वह बच्चों ने किया. ऐसा वह कहता था.
                         
एकाद बार उदास मन से उसने यह भी कहा था कि पता नहीं दुनिया को कभी यह पता भी चले या नहीं कि इस स्कूल में ऐसे बच्चे पढते थे जिन्होंने, सब बच्चों ने, एक साथ, अपनी-अपनी भूगोल की अपनी किताब में एशिया के मुल्कों की फेहरिस्त में यह लिख लिया था-देश -तिब्बत, राजधानी -ल्हासा. यह जगह जहाँ यह स्कूल है यह दुनिया से कितनी दूर है और यह कितना छोटा स्कूल है. इस गाँव, इस स्कूल के बारे में लोगों को पता ही नहीं है. इस तरह वे कहाँ यह जान पायेंगे कि स्कूल के सब बच्चों ने खुद-ब-खुद लिखा - देश -तिब्बत, राजधानी- ल्हासा. बिना इस परवाह के कि यह आउट ऑफ़ द कोर्स है. वे बस पश्चाताप करना चाहते हैं. ग्याल्त्सो को यह बताना चाहते हैं कि वे उसके साथ हैं. कि वे भी मानते हैं, जो वह और उसका मास्टर मानता है. पता नहीं कभी दुनिया के लोगों को यह बात पता भी चले या नहीं. मास्टर सोचता था. उसने बच्चों से कहा था-  अगर कोई बडा काम किसी छोटी जगह पर हो जाये तो भी वह बडा काम ही होता है. भले कोई उसके बारे में कोई जाने या न जाने, इससे कोई फर्क नहीं पडता. वह एक बडा काम होता है. बच्चों तुमने जो यह काम किया यह बडी बात है. कोई याद रखे या न याद रखे. किसी को पता चले या न पता चले. कोई तरजीह दे या न दे. पर तुम अपनी पूरी जिंदगी याद रखना कि तुमने लिखा था अपनी भूगोल की किताब में, एशिया के देशों की फेहरिस्त में- देश- तिब्बत, राजधानी -ल्हासा. और यह तुमने किया क्योंकि तुम एक तिब्बती से माफी माँगना चाहते थे. यह बडी बात है. इसे सारी जिंदगी याद रखना. - कहता था मास्टर.
                              

                               
छह
               
बाद में मास्टर ने ग्याल्त्सो को इस बारे में बताया था. ग्याल्त्सो ने भी भूगोल की उन किताबों को पलटकर देखा था. वह पल भर को किताब में लिखे- देश-तिब्बत, राजधानी - ल्हासा को देखता रहा था. फिर मुस्कुराते हुए उसने बच्चों से कहा था - आज से हम सब दोस्त हुए. और दोस्त की पहली सलाह यह है कि यह जो तुमने लिखा- देश- तिब्बत, राजधानी- ल्हासा यह तो एक नेक बात है और जो मास्टर कहता है कि इसे याद रखना वह भी ठीक है पर इसे इम्तिहान के लिए याद मत करना. इम्तिहान में अगर तुमने एशिया के मुल्कों के नामों में तिब्बत का नाम लिख दिया तो तुम्हारे नंबर कट जायेंगे. इम्तेहान की तैय्यारी के हिसाब से हिंदोस्तान का कोई ऐसा पडोसी मुल्क नहीं है जिसका नाम तिब्बत हो. इम्तेहान के लिए यह तुम्हें याद रखना होगा. इस बार बोर्ड का इम्तेहान है और इस मामले में मास्टर भी तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता- मुस्कुराते हुए ग्याल्त्सो ने कहा था. उसकी मुस्कान नकली लगती थी. उसके चेहरे पर दर्द की न जाने कौन सी लकीर थी और वह कहता था कि इम्तिहान के लिए इसे याद मत करना. सिर्फ जीवन के लिए इसे याद रखना. मास्टर भी ग्याल्त्सो की बात पर रजामंद था कि इम्तेहान और जीवन के लिए अलग-अलग बातें याद की जाती हैं. जो बात इम्तेहान के लिए याद की जाती है वह जीवन के लिए नहीं होती और जो बात जीवन के लिए याद की जाती है वह इम्तिहान के लिए नहीं होती. देश-तिब्बत, राजधानी- ल्हासा, एक ऐसी बात हुई जो जीवन के लिए याद की जानी है, इम्तेहान के लिए नहीं.
                           
इस तरह ग्याल्त्सो से हमारी भी दोस्ती हुई थी. हमने उसे चीनी,चीनी कहकर चिढाना छोड दिया. स्कूल में जब भी वह आता हम में से कई उसे घेरकर खडे हो जाते. वह हमें दुनिया जहान के किस्से सुनाता. न जाने कहाँ-कहाँ की बातें. वह हमें अजीब-अजीब चीजों के बारे में बताता और हम उसे गौर से सुनते. वह बताता कि उसका गाँव ग्यान्त्से शहर के पास था. कि उसके पास एक सुंदर थांगका याने तिब्बतियन तस्वीर जैसा कुछ है. कि साल का पहला दिन लोजार होता है. कि उसने अनि त्सान्खुंग नुनेरी और चान्गझू के मंदिर देखे हैं. कि सबसे अच्छा गोम्पा जोखांग है और इसके बाद कुम्बुम और दोरजे द्रक. कि हम सब बच्चों को अच्छे हीरो, याने गेजार के माफिक होना चाहिए. कि.... फिर वह कहता कि मैनपाट में खूबसूरत झरने हैं. वहाँ एक जगह है उल्टा पानी. क्या तुम लोगों ने कभी उल्टा बहता पानी देखा है ? किसी नदी में जहाँ वह नीचे से ऊपर को बहता है. मैनपाट में है वह. उसे उल्टा पानी कहते हैं. - वह बताता, बताता कि वहाँ एक मंदिर है बुद्ध का मंदिर, इस इलाके का और दूर-दूर का ऐसा इकलौता बुद्ध का मंदिर.....फिर कहता- तुम सब एक दिन मैनपाट आओ, मैं तुम सबको मोमो खिलवाऊँगा, स्वादिष्ट मजेदार मोमो- वह कहता.
                          
‘तुम्हारा नाम ग्याल्त्सो क्यों है ग्याल्त्सो ?’
                      
उसी बच्चे ने पूछा जिसने सबसे पहले मास्टर को भूगोल की किताबों में लिखा हुआ- देश- तिब्बत, राजधानी- ल्हासा दिखाया था. जो मास्टर से बेखौफ अपनी बात कहता था.
                        
‘जैसे हर नाम के मतलब होते हैं वैसे ही ग्याल्त्सो का भी मतलब है. ग्याल्त्सो माने समुद्र.’ ग्याल्त्सो ने बताया.
                              
मास्टर अक्सर मैनपाट जाता ही रहता था. वह साईकिल से मैनपाट जाता था. इस तरह सबकी बातों से यह तय हुआ कि इस बार स्काउट की आउटिंग के लिए मैनपाट चलेंगे. सब चलेंगे. सारे बच्चे, मास्टर और गाइड वाली मास्टरनी. ग्याल्त्सो तो वहाँ मिलेगा ही. इस तरह हम सब साइकिलों से मैनपाट गये थे. सुबह चले और शाम को पहुँच गये.


                                   
सात 
                             
तो यह था ही कि बचपन में तिब्बत एक बात थी. एक पाठ था. पाठ जो कि आउट ऑफ़ द कोर्स था. पर जिस पर मास्टर बात करता था. जिस पर बात कर हर किसी को अच्छा लगता था. तिब्बत एक अनुमान था, अँधेरे में उँगलियों की टटोल था तिब्बत, मास्टर की उन बातों का जो कहीं खो जाती थीं, अचानक छूटकर खत्म हो जाती थीं. उन दिनों तिब्बत एक अनिवार्यता थी, मास्टर को सुनने की अनिवार्यता,जो मास्टर के डर से उस गाँव की उस क्लास में फैल जाती थी. तिब्बत का मतलब था भूगोल की किताबों में लिखा- देश -तिब्बत, राजधानी - ल्हासा - जिसके मार्फत ग्याल्त्सो से दोस्ती हुई, जिसके मार्फत मास्टर को लगता था कि उसके बच्चे दुनिया की सबसे जरुरी पढाई कर रहे हैं.
                      
इस तरह उस दिन मास्टर हमें ग्याल्त्सो की वजह से ही मैनपाट आउटिंग के लिए ले गया था. ग्याल्त्सो से हम सब की दोस्ती के साथ ही कुछ और भी था जिसके लिए वह हम सबको मैनपाट ले आया था. इस काम में उसे गाइड वाली मास्टरनी की मदद की जरुरत भी थी. यह काम न होता तो हम फिर कभी मैनपाट जाते. पर काम इतना जरुरी था कि मास्टर ने जल्दी ही मैनपाट जाने की योजना बना ली थी. हमें बस इतना ही पता था, कि मास्टर को ग्याल्त्सो से कुछ बात करनी थी. और उस बात को करने के लिए वह सबसे पूछ रहा था कि वह, कब और कैसे उससे वह बात करे ? मास्टर की ग्याल्त्सो से दोस्ती बड़ी पुरानी थी, लगभग पंद्रह साल पुरानी और करीब दो दिन पहले से एक दूसरा तिब्बती उससे कहता फिर रहा था कि, वह ग्याल्त्सो से वह बात करे. कि वह उसका सबसे अच्छा दोस्त है. ग्याल्त्सो अकेला है. उसका कोई और है भी नहीं. इसलिए यह बात उसे ही ग्याल्त्सो से करनी चाहिए. बस वही वह बात कर सकता है. कि उसकी बात का असर होगा. कहते हैं बस वही बात मास्टर को ग्याल्त्सो से करनी थी. इसीलिए वह हम सबको अपने साथ मैनपाट ले आया था. ताकि ग्याल्त्सो से उसकी वह बात भी हो जाये और आउटिंग भी हो जाये.
                         
उस रात जब मक्खन की चाय और बिस्कुट खाने के बाद हम सब सोने की तैयारी कर रहे थे, तब वह दूसरा तिब्बती आया था. फिर मास्टर, गाइड वाली मास्टरनी और वह तिब्बती काफी देर तक बात करते रहे. कमरे में पुआल बिछी थी और पुआल पर दरी पड़ी थी, हम सब दरी में अपने-अपने कंबलो में घुसे थे और वे तीनों लालटेन के किनारे बैठे बात कर रहे थे. उन दिनों मैनपाट में लाइट नहीं थी.
                        
‘तुम्हें कब से पता है ?’
          
मास्टरनी बहुत उत्सुक थी, उसकी आँखें फैली थीं और माथे पर एक गहरी सीधी लकीर उभर आई थी.
                        
‘तीन दिन पहले मुझे यह पत्र मिला था. तिब्बतियन में लिखा है. मैं हमेशा की तरह ग्याल्त्सो को इसे पढ़कर सुनाना चाहता था.’
                        
उस तिब्बती ने कहा. ग्याल्त्सो अपढ़ था और उसके पत्रों का मतलब उसे समझाना इस तिब्बती का काम था. जबसे यह पत्र आया है  तबसे यह पत्र उसके पास है और वह इसके बारे में ग्याल्त्सो को बताना चाहता है. पर कैसे बताये, यही दिक्कत है.
                 
‘पाँच साल बीत गये. हे भगवान. पांच साल और किसी ने उसे अब तक कुछ नहीं बताया.’
                      
मास्टरनी ने अचरज से मास्टर को देखा और मास्टर ने उस तिब्बती को. तिब्बती ने हाँ में गर्दन हिलाई. मतलब हाँ सच में अब तक किसी ने उसे नहीं बताया. पर क्या नहीं बताया ? ऐसा क्या है जो ग्याल्त्सो को बताया जाना है. जो बेहद जरुरी है. पर जो अब तक नहीं बताया जा सका है. जिसे बताने के लिए ही मास्टर मैनपाट आया है. ऐसी कौन सी बात है ? क्या बात है वह ? मैं कंबल में पड़े़-पड़े उस बात को, उस फुसफुसाहट में जानने की कोशिश करता रहा. वह बात जिसका ओर- छोर समझ नहीं आ रहा था. वे तीनों हम सबके सोने के बाद भी फुसफुसा रहे थे, मानो हम उनकी बात जान जायें तो अनर्थ ही हो जाये.
                            

                                   
आठ
          
उन तीनों की फुसफुसाहट भरी बातचीत से एक बात समझ आ गई थी, कि मैनपाट के कुछ लोग तिब्बत जा रहे थे. कि कोई जगह है धर्मशाला. वहीं से यह पत्र आया है. वहाँ के कुछ लोगों ने यह व्यवस्था बनवाई है कि कुछ लोग हर बार की तरह से इस बार भी तिब्बत हो आयें. अपने गाँव, अपने घर हो आयें. चीन की अनुमति भी मिल गई है. इस तरह यह भी तय हुआ ही है कि मैनपाट के दस लोग इस बार तिब्बत जायेंगे. वह दूसरा तिब्बती उन दस लोगों की लिस्ट बना रहा है. सारी व्यवस्था उसी के जिम्मे है. धर्मशाला से आया वह पत्र भी उसे ही मिला है. वह उस लिस्ट को बार-बार मास्टर को दिखाता है. मास्टरनी भी उस लिस्ट को उलट-पलटकर देखती है. ...फिर तीनों फुसफुसाने लगते हैं. उस तिब्बती की बात से यह भी लगा, कि वह नहीं चाहता है कि ग्याल्त्सो तिब्बत जाये. धर्मशाला से आये पत्र में यही बात समझाई गई है कि किसी तरह समझा बुझाकर ग्याल्त्सो को बता दिया जाये कि वह तिब्बत न जाये. इस बार तिब्बत न जाने की बात वह मान जाये. उसे मना लिया जाये और उसकी जगह किसी और को तिब्बत भेज दिया जाये. उस तिब्बती ने ग्याल्त्सो को समझाया है, कि वह ना जाये. पर ग्याल्त्सो जिद पर अड़ा है. कहता है, वह जायेगा. जरूर जायेगा.
                                 
वह तिब्बती कहता है, कि लिस्ट में मैनपाट के सबसे बुजुर्ग ऐसे दस लोगों का नाम भेजना है, जो तिब्बत जाना चाहते हो. ग्याल्त्सो अगर जिद पर अड़ा रहता है, तो उसे ले जाना पड़ेगा और अगर वह नहीं जाता है, तो यह मौका किसी दूसरे तिब्बती को मिल जायेगा. दूसरे को मौका तभी मिलेगा जब ग्याल्त्सो जाने से इंकार कर दे. क्योंकि वह सबसे बुजुर्ग है और उसका हक बनता है. सो वह तिब्बती चाहता है कि मास्टर ग्याल्त्सो को समझाये. मास्टर समझायेगा तो वह मान जायेगा. शुरु-शुरु में गाइड मास्टरनी कहती रही कि, क्या अंतर पड़ता है, ग्याल्त्सो को ले जाने में... ले जाओ. खामखां जिद करते हो.... फिर तीनों खुसुर-पुसुर करने लगते हैं. तीनों की खुसुर-पुसुर के बाद गाइड मास्टरनी भी कहने लगती है कि ग्याल्त्सो का ऐसे में तिब्बत जाना ठीक नहीं है. पत्र में लिखी बात को तफ्सील से जानने के बाद वह भी परेशान दीखती है. उसकी परेशानी इस बात को लेकर भी है कि मास्टर आखिर ग्याल्त्सो को यह बात बतायें तो बतायें कैसे कि उसे तिब्बत नहीं ले जाया जा सकता है.
                    
उन सबकी बातें सुनते-सुनते मैं पडा रहा. लालटेन की रौशनी में धर्मशाला से आया पत्र उस तिब्बती ने फैला दिया था. तिब्बती में लिखे उस पत्र की एक-एक बात वह उन दोनों को याने मास्टर और स्काउट वाली मास्टरनी को बता रहा था. पहले तिब्बती जबान में उसे पढता और फिर फुसफुसाता हुआ मास्टर को उसका मतलब बताता.

                                   


नौ
                      
अगले दिन सुबह, मैं और मास्टर पानी लेने के लिए निकले थे. हैण्डपंप थोड़ा दूर था. आगे-आगे धोती-कुरता पहरे, सर पर अंगोछा लपेटे मास्टरजी और पीछे-पीछे बाल्टी लोटा लिये, दूसरे हाथ में छाता पकडे़ मैं. हैण्डपंप के पास वह तिब्बती फिर मिल गया.
                       
वह तिब्बती मास्टर को एक कोने में ले गया. उससे फिर फुसफुसाता सा बात करने लगा. मास्टर ने उससे कहा- चलो अच्छा आज बात कर ही लेते हैं. वह तिब्बती हमें मैनपाट की बस्ती की ओर ले गया. आगे-आगे वह तिब्बती उसके पीछे मास्टर और मास्टर के पीछे मैं. वह तिब्बती हमें गाँव की आखरी सीमा पर ले गया. वहाँ दूर-दूर तक घास का मैदान था. तीन-चार पत्थर खपरैल के मकान थे, जिसके सामने रंग बिरंगे स्कर्ट ब्लाउज और गाउन पहरी तिब्बती औरतें, बेचने के लिए तैय्यार किये जा रहे तरह- तरह के स्वेटर बिलंग पर सुखा रही थीं और मैदान में दूर-दूर तक कुछ बच्चे, चीखते चिल्लाते पतंग उड़ा रहे थे. दूर एक गोम्पा था, जिससे एक लंबी भोंपूनुमा आवाज आई थी. उसके चारों ओर रंगीन कपड़ों के हजारों चौकोर टुकडे़, हजारों रंग नीले आकाश पर लहरा रहे थे. चीखते चिल्लाते बच्चों के बीच, उनकी हरकतों पर ताली बजाता एक बूढ़ा इधर उधर डोल रहा था. वह ग्याल्त्सो था.
              
मास्टर को देखकर पहले तो ग्याल्त्सो खुश हुआ. उसकी ओर चहकता हुआ आने लगा. पर जब उसने मास्टर के साथ उस दूसरे तिब्बती को देखा तो उसका उत्साह ठण्डा पड गया. पर फिर भी वह मास्टर के पास आ गया. उसने मास्टर से हाथ मिलाया, उस दूसरे तिब्बती को देख यूँ प्रदर्शित करने लगा मानो जानता हो, कि मास्टर उससे क्या बात करने आया है.
                     
‘यह सही कहता है ग्याल्त्सो. तुम तिब्बत न जाओ.’ - बिना किसी लाग लपेट के मास्टर ने सीधे-सीधे कहा.
                    
‘तो तुम भी मानते हो मास्टर कि मैं न जाऊँ. तुम भी ......’ - उसके चेहरे पर सवाल थे. उन सवालों के नीचे से छलक आने वाला दर्द.
                     
‘मैं बस यह जानता हूँ ग्याल्त्सो कि यह ठीक कहता है. मैं तुम्हारा दोस्त हूँ. कोई गलत बात न कहूँगा. तुम न जाओ.’
                    
‘मैं ना जाऊँ. मैं ना जाऊँ. बताओ भला मैं क्यों ना जाऊँ.’ - आसपास खडे दूसरे लोगों से मुखातिब होते हुए उसने कहा. मानो इस बात पर वह मास्टर की बात मानने को बिल्कुल भी तैय्यार न हो.
                     
‘मैं सबसे बूढ़ा हूँ और मैंने तिब्बत जाने के लिए इंतजार किया है. पिछले पच्चीस सालों का इंतजार. मैंने पच्चीस सालों से अपना मकान, अपना परिवार नहीं देखा...और तुम कहते हो.....’
              
ग्याल्त्सो ने सबको सुनाते हुए कहा. उसकी बात पर मास्टर कुछ कहते कहते वह रुक गया. वह तिब्बती चुपचाप खडा रहा. ग्याल्त्सो कहता रहा -
                     
‘पच्चीस साल. क्या तुम गिन सकते हो ? पच्चीस सालों को कोई नहीं गिन सकता. कोई अपने मकान के लिए, अपने परिवार के लिए पच्चीस साल नहीं गिन सकता. पर मैंने गिना और रुका रहा. पर फिर भी तुम कहते हो कि वहाँ जाना बेमतलब है. अंततः बेमतलब.‘
                
ग्याल्त्सो मास्टर को घूरने लगा. मास्टर ने उसकी बात पर अपनी गरदन लटका ली. मानो कोई बात हो जो वह कहना चाहता हो और कह न पाता हो. वह तिब्बती बार-बार मास्टर को देखता था. मास्टर मुँह लटकाये खडा था. उसके जेहन में ग्याल्त्सो की आवाज आती-जाती थी - ‘कोई अपने मकान के लिए, अपने परिवार के लिए पच्चीस साल नहीं गिन सकता. पर मैंने गिना और फिर भी तुम कहते हो कि वहाँ जाना बेमतलब है.’ अब मोर्चा उस तिब्बती ने संभाला. उसने वह पत्र मुट्ठी में भींच लिया. फिर वह ग्याल्त्सो की ओर मुखातिब हुआ -
                     
‘यह तुम्हारे लिए था. मैंने ही मास्टर को कहा था, कि वह तुम्हें सब कुछ सच-सच बता दे.’
                     
तिब्बती ने हाथ में भिंचे उस पत्र को उसकी ओर बढाते हुए कहा. ग्याल्त्सो ने तिब्बती के हाथ से वह पत्र छीन लिया और उसे उलट पलटकर देखने लगा.
                     
‘मुझे यह तीन दिन पहले मिला था'. मैं संकोच में था.
'सोच रहा था कि जल्द ही यह पत्र तुम्हें पढ़ कर सुना दूँगा. पर हिम्मत न होती थी.’ - तिब्बती ने कहा. फिर उसने मास्टर की ओर देखा. मास्टर ने उसकी ओर देखा. फिर मास्टर ग्याल्त्सो को तफ्सील से सारी बात बताने लगा. मास्टर दूर दीखते गोंपा को देख रहा था. ग्याल्त्सो की नजरों से नजरें बचाकर उसकी नजर गोंपा की ओर थी और वह कहता जाता था -
                 
‘वहाँ अब कोई नहीं है. मेरा मतलब तिब्बत में तुम्हारे उस गाँव में अब उनमें से कोई नहीं है. पाँच साल बीता जब चीनी सेना ने वह गाँव खाली कराया था. कहते हैं लोग जाने को तैय्यार न थे. चीनी लोगों का मानना था कि उस गाँव के लोग चीन के खिलाफ षडयंत्र में शामिल थे.....’
                      
ग्याल्त्सो पत्र को उलटना पलटना छोडकर मास्टर की ओर देखता उसे सुनता था. चीन के लोग उन लोगों को षडयंत्रकारी कहते थे जो मज़लूम थे, परेशान थे, कमजोर थे. यह था ही कि जो कमजोर होगा, मुफलिस होगा, परेशान होगा, बेइंसाफी के खिलाफ खडा होगा...बस वही, बस वही षडयंत्रकारी होगा. उस पर चीनी सैनिक अपनी बंदूक तान कहेगा - तुम अपराधी हो. तुम....
                  
‘लोगों ने गाँव खाली करने से इंकार किया था. फिर जब उन्हें जबरन हटाया गया तब भी वे न माने. फिर चीनी सेना ने उनके मकानों को तोडा, उनके मंदिरों को गिराया और तमाम इमारतों में आग लगा दी. यह सब इसमें लिखा है ग्याल्त्सो. इसमें.....’
                         
मास्टर ने उस पत्र की ओर इशारा कर कहा था.        
                  
‘ .....और क्या लिखा है. क्या लिखा है इसमें.’ - ग्याल्त्सो  की आवाज कांपती थी. वह बार-बार उस पत्र को देखता था जिसे वह पढ नहीं सकता था. उसके हाथों में वह पत्र काँपता था. वह घबराया सा पूछता था कि और क्या लिखा है....क्या ?
                    
‘ .........कि बहुत से लोग मारे गये थे. ........उनके कपड़े, अनाज सब जला दिये गये थे. उन्हें कहा गया, कि वे दुबारा वहाँ नहीं आयें... आयेंगे तो उन्हें मार डाल जायेगा. उन लोगों का कुछ पता नहीं चला. ...बाद में कुछ लोगों ने पता भी करना चाहा था, कि वे सब कहाँ हैं, खासकर तुम्हारा बेटा और उसका परिवार... लेकिन फिर उनमें से कोई नहीं मिला ........कुछ लोग कहते हैं, कि वे सब काफी दिनों तक बियावान बर्फ के रेगिस्तान में भटकते रहे थे... यह सब पाँच साल पहले हुआ था. अब तुम्हारा वहाँ जाना बेमानी है. यह ठीक कहता है ग्याल्त्सो तुम नहीं जाओगे तो यह चांस किसी और को मिल जायेगा.’
               

                            
दस

उस पत्र में कुछ और भी था जो मास्टर ग्याल्त्सो को नहीं कह पा रहा था. ग्याल्त्सो भी उससे वे सब बातें कहाँ बता पाया था, जो उसने देखा था उस दौर में, तिब्बत के जलते मकानों और खून से सनी उन गलियों में. पत्थरों और बर्फ पर फिसलती बेगुनाह खून की लकीरें में. वह भी कहाँ कह पाया था. कहाँ कह पाया था कि जब वह बिछड गया था, अपने लोगों से, अपने मकान और परिवार से . जब उसे कैद किया गया था. जब अपनी जान बचाने वह भागकर हिंदोस्तान आया था. वह कुछ भी कहाँ बता पाया था मास्टर को. मास्टर अचानक चुप हो गया था. वह अब भी लगातार गोंपा को देखे जा रहा था. उस तरफ देखने को कुछ भी नहीं था.
               
ग्याल्त्सो  खड़ा रहा. उस पत्र को बहुत गहरे देखता, उन शब्दों को जो उसके लिए हमेशा से अर्थहीन रह आये थे. फिर वह चला गया. सबने उसे दूर जाते देखा. सामने आसमान था और उसके ठीक नीचे बुद्ध का वह मंदिर. आसमान पर खिंची चैकोर कपडों की बंदरवार हवा में फडफडाती थी. जमीन पर अपना सिर घुटने के बीच अपनी हथेलियों से दबाते हुए और फिर चीख-चीखकर रोते हुए ग्याल्त्सो की आवाज चारों ओर सुनाई देती थी. गाँव के कुछ बुजुर्ग उसकी तरफ दौड़ पडे थे. औरतें और बच्चे बातें और हल्ला गुल्ला छोडकर उसको एकटक देख रहे थे. न जाने किस मुल्क की किस जमीन पर वह रोता था, उसके ऊपर न जाने किस मुल्क का कौन सा तो आसमान था जिसमें चुपचाप उडते थे न जाने कौन सी दुनिया के न जाने कौन से पंछी ? न जाने वे कौन सी पहाडियाँ थीं, कितने पास होकर भी कितनी अजनबी, जिससे टकराकर लौटता था उसका विलाप, उसका चित्कार. न जाने वे किस सरज़मीं की हवा थी जिसमें लहकती बहती थी उसकी सिसकियाँ, उसकी जबान के उसके शब्द....
                   
उस दूसरे तिब्बती ने तिब्बत जाने वाले लोगों की लिस्ट में से ग्याल्त्सो का नाम काटकर किसी और का नाम लिख दिया था. लिखते समय उसकी उँगली काँपती थी.
                     
मैनपाट में वह हमारा आखरी दिन था. मास्टर का काम हो गया था और उसके कहे अनुसार काम खत्म होते ही हमें एक पल भी वहाँ नहीं रुकना था. हम अगली सुबह लौट आये. लौटते वक्त हर कोई चुप था. रास्ते में मास्टर ने फिर एक ऐसी बात की थी जिसका मतलब तब समझ न आया था- मुझे तुम सब पर गर्व है बच्चों. तुमने खुद लिखा- देश-तिब्बत, राजधानी- ल्हासा. तुमसे किसी ने नहीं कहा. तुमने खुद ही लिखा. खुद सोचा और खुद लिखा. तुम सब पर फक्र है.
                    
कुछ दिनों बाद छत्तीसगढ़ के उस जंगली और सुदूर के उस अनजान से गाँव में, एक नामालूम सा वाकया हुआ. उस साल मिडिल स्कूल की बोर्ड परीक्षा में आठवीं कक्षा के भूगोल वाले पेपर में एक सवाल आया. सवाल था, भारत के चार सीमावर्ती देशों का नाम लिखो ? कई बच्चों ने भारत के पडोसी देशों के जो नाम लिखे उसमें उन्होंने तिब्बत का नाम भी लिखा. इस तरह कॉपी जाँचने वाले ने उन सबके नंबर काट दिये.
                       
बरसों बीते. 26 साल से भी ज्यादा. तिब्बत कहीं नहीं दीखा. जैसे वह कहीं नहीं है. ना एटलस में. ना ग्लोब में. ना किताबों में. ना खबरों में. ना बातचीत में. ना कविताओं में. ना कहानियों में. कहीं नहीं.
                     
अक्सर जब मैं कोई किताब पढ़ रहा होता हूँ, तो मास्टर की बात याद आती है, गुजिश्ता दिनों से लौटती हुई- किताबें विजेताओं की लिखी हुई हैं. उनमें उन लोगों का जिक्र नहीं जो हार गये थे. जब भी किताबें पढो तो इस बात का ख़याल रहे.
__________________
गुलमेहंदी की झाड़ियाँ’, ‘भूगोल के दरवाजे पर’, ‘जंगल में दर्पण’ (कहानी संग्रह), 'लौटती नहीं जो हंसी', 'राजा, जंगल और काला चाँद', 'बेदावा' (उपन्यास) आदि प्रकाशित 
tarun.bhatnagar.71@facebook.com

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  1. बहुत प्रभावशाली कहानी, तिब्बत अवश्य एक न एक दिन अपने पूर्व गौरव को प्राप्त करेगा

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  2. आपकी कहानी बहुत अच्छी लगी....निर्दोष छत्तीसगढ़ी बच्चे भूगोल की किताबों में तिब्बत को अस्तित्व में लाकर औपनिवेशिक सत्य बदल डालते हैं। इतने सालों बाद जाकर घर परिवार से मिलने का अवसर सामने हो और साथ ही यह खबर भी कि वहां न कोई बचा है न वहां पहुंचने की इजाजत है - इससे बड़ी भी कोई विडंबना हो सकती है?
    पिछले दिनों तिब्बत की कुछ कविताएं पढ़ने का अवसर मिला,इस कहानी के मुख्य किरदार और उन निर्वासित कवियों की व्यथा और छटपटाहट समान है - अपनी धरती पर फिर से बसना।

    पर मैं मिनी तिब्बत के इस रूपक को विकास के भारतीय मॉडल के साथ जोड़ कर देख रहा हूं - आंतरिक उपनिवेशवाद भी एक सच्चाई है जो गांव और जंगल उजाड़ कर बड़ी पूंजी के हवाले करता जा रहा है।छत्तीसगढ़ तो इसका ज्वलंत उदाहरण है।
    इस दहला देने वाले रूपक के बीच नादान बच्चों का बड़ा फैसला भविष्य के सकारात्मक और एक्टिविस्ट होने की आश्वस्ति देता है!
    तरुण जी को हार्दिक बधाई और समालोचन का शुक्रिया।
    यादवेन्द्र

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  3. Laxman Singh Bisht Batrohi5 जुल॰ 2020, 8:01:00 pm

    यह कहानी उस छूटते एकांत की मार्मिक स्मृति है, जिसकी अगली उपस्थिति पता नहीं कब संभव हो पायेगी. हो भी पायेगी या नहीं. जो चित्र दिए गए हैं, वे कहानी के पूरक हैं. कहानी लम्बे समय तक मन में मौजूद रहती है.

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  4. बहुत प्रभावशाली कहानी।मोदी राज में तिब्बत अपने पूर्व गौरव को प्राप्त करेगा।

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  5. विषय की गहराइयों को छूता लेख। बहुत बढ़िया लेख।

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