मिलान कुंदेरा : लिफ़्ट लेने का खेल : अनुवाद : सुशांत सुप्रिय



विश्व के बड़े लेखकों में शामिल मिलान कुंदेरा (Milan Kundera : जन्म- 1 April 1929) की कहानियों का संग्रह Laughable Loves मूल रूप से १९६९ में चेक भाषा में प्रकाशित हुआ था जिसका अंग्रेजी अनुवाद १९७४ में छप कर आया. इस संग्रह में लम्बी कहानी है- ‘THE HITCHHIKING GAME’ जिसकी बहुत चर्चा हुई और जिसके अनुवाद लगभग हर भाषाओं में हुए और इसपर कई नाटक और लघु फ़िल्में भी तैयार हुई हैं. इस कहानी का हिंदी अनुवाद प्रसिद्ध अनुवादक सुशांत सुप्रिय ने किया है- ‘लिफ़्ट लेने का खेल’.
एक जवान जोड़ा लम्बी छुट्टी पर कार से यात्रा कर रहा है कि उन्हें लिफ़्ट ले-लेकर यात्रा करने वालों का स्वांग करने का ख्याल आता है. फिर तो यह खेल ही उन्हें खेलने लगता है. देखते-देखते कॉमेडी ‘नीच’ त्रासदी में बदल जाती है. हिला देने वाली कहानी. व्यक्ति से कैसे एक दूसरा व्यक्ति निकल आता है.
कहानी प्रस्तुत है.


मिलान कुंदेरा
लिफ़्ट लेने का खेल                       
अनुवाद : सुशांत सुप्रिय


(1)
पेट्रोल-मापक पर लगी सुई अचानक टंकी ख़ाली होने की सूचना देने लगी और स्पोर्ट्स-कार के युवा चालक ने घोषणा की कि यह पागलकर देने की हद तक ज्यादा पेट्रोल खाती है.
(मिलान कुंदेरा)
देखना, पेट्रोल दोबारा ख़त्म न हो जाए,” युवती (जो लगभग बाईस साल की थी) ने विरोध दर्ज़ किया और चालक को उन कई जगहों की याद दिलाई जहाँ उसके साथ यह हो चुका था. युवक ने जवाब दिया कि उसे कोई चिंता नहीं थी क्योंकि युवती के साथ वह जिस किसी अनुभव से गुज़रता था, उसमें ग़ज़ब का रोमांच होता था. युवती ने आपत्ति जताई. जब कभी सड़क पर उनकी कार का पेट्रोल ख़त्म हुआ था, तो उसने कहा कि वह केवल उसी के लिए रोमांचकारी रहा था. युवक हर बार छिप गया था जबकि उसे अपनी खूबसूरती का दुरुपयोग करके लिफ़्ट माँगनी पड़ी थी और सबसे नज़दीकी पेट्रोल-पम्प तक जाना पड़ा था, और फिर पेट्रोल का भरा कनस्तर लिए लिफ़्ट माँग कर वापस आना पड़ा था. युवक ने युवती से पूछा कि जिन चालकों ने उसे लिफ़्ट दी थी, क्या वे उसके साथ बदतमीज़ी से पेश आए थे, क्योंकि उसकी बात सुनकर लगता था जैसे यह काम उसके लिए बेहद मुश्किल रहा था. युवती थोड़ा अटपटे ढंग से बोली कि कभी-कभी उसे अच्छे चालक मिले थे, पर इससे उसे कोई फ़ायदा नहीं हुआ था. दरअसल उसे पेट्रोल के भरे कनस्तर का भारी बोझ उठाना पड़ा था, और इससे पहले कि उसके और चालकों के बीच कोई सुखद बात शुरू हो पाती, उसे उनका साथ छोड़ना पड़ा था.
धोखेबाज़ कहीं की,” युवक बुदबुदाया. युवती विरोध जताते हुए बोली कि वह धोखेबाज़ नहीं थी, लेकिन युवक ज़रूर धोखेबाज़ था. केवल ईश्वर ही जानता था कि जब वह अकेला कार चला रहा होता था तो कितनी युवतियाँ उसे सड़क पर रोकती थीं.
कार चलाते हुए ही युवक ने अपनी बाँह युवती के कंधों के गिर्द डाली और धीरे से उसे माथे पर चूम लिया. वह जानता था कि युवती उससे प्यार करती थी और वह ईर्ष्यालु थी. ईर्ष्या सुखद गुण नहीं है, लेकिन अगर उसे बहुत ज़्यादा न किया जाए (और अगर उसे मर्यादा में किया जाए) तो थोड़ी असुविधा के अलावा इसमें कुछ मर्मस्पर्शी बात भी होती है. कम-से-कम युवक ने तो यही सोचा. हालाँकि वह केवल अट्ठाईस बरस का था, पर उसे लगा कि वह अनुभवी था और उसे वह सब कुछ मालूम था जो किसी आदमी को औरतों के बारे में पता होना चाहिए. उसके बगल में जो युवती बैठी थी, उसमें वह ठीक उस चीज़ की कद्र करता था जो उसे अब तक औरतों में सबसे कम मिली थी— निष्कलंकता
सुई टंकी को ख़ाली दर्शाने वाले बिंदु पर पहुँच गई थी, जब अपने दाईं ओर युवक ने एक संकेत-चिह्न पढ़ा, जो यह बताता था कि अगला पेट्रोल-पंप एक-चौथाई मील आगे था. युवती को मुश्किल से यह कहने का समय मिला कि वह कितना राहत महसूस कर रही थी. युवक तब तक बाईं ओर हाथ का इशारा करके पेट्रोल-पंप के सामने वाली जगह पर कार को मोड़ रहा था. हालाँकि, उसे पेट्रोल-पंप से कुछ दूरी पर रुक जाना पड़ा, क्योंकि पेट्रोल-पंप के ठीक बगल में पेट्रोल से भरा एक विशालकाय ट्रक खड़ा था, जिसका बहुत बड़ा धातु का टैंक था और भारी-भरकम रबड़ की नली थी. इससे पंपों में दोबारा पेट्रोल भरा जा रहा था.
“हमें रुकना पड़ेगा,”युवक ने युवती से कहा और कार से बाहर निकल आया.
कितनी देर लगेगी,” उसने चिल्लाकर वर्दी पहने आदमी से पूछा.
बस, थोड़ी देर,” सहायक ने जवाब दिया.
ऐसा जवाब मैं पहले भी सुन चुका हूँ.” युवक ने कहा.
वह वापस जा कर कार में बैठना चाहता था, लेकिन उसने देखा कि युवती दूसरी ओर से बाहर निकल आई थी.
इस बीच मैं एक चक्कर लगा कर आती हूँ.” युवती ने कहा.
कहाँ का?” युवक ने जानबूझकर पूछा, क्योंकि वह युवती की उलझन को देखना चाहता था. वह युवती को लगभग एक साल से जानता था, पर वह अब भी उसके सामने शरमा जाती थी. वह उसके शरमाने के लमहों का आनंद लेता था. एक तो इसलिए कि उसका शरमाना उसे उन स्त्रियों से अलग करता था जिनसे वह पहले मिल चुका था. दूसरा इसलिए भी, क्योंकि वह ब्रह्मांड के क्षणभंगुरता के नियम को जानता था, जो उसकी प्रेमिका के शरमीलेपन को भी उसके लिए बहुमूल्य बना देता था.


(2)
युवती को यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था जब यात्रा के दौरान (युवक बिना रुके कई घंटे गाड़ी चलाता रहता था) युवती को उसे पेड़ों के झुरमुट के पास कुछ देर के लिए गाड़ी रोकने के लिए कहना पड़ता था. वह हमेशा नाराज़ हो जाती थी जब बनावटी आश्चर्य से युवक उससे पूछता था कि गाड़ी क्यों रोकनी है. वह जानती थी कि उसका शर्मीलापन हास्यास्पद और दक़ियानूसी था. कई बार ऑफ़िस में उसने यह पाया था कि वे लोग इसके कारण उस पर हँसते थे और जानबूझकर उसे छेड़ते थे. वह हमेशा इस विचार के आने से पहले ही शरमा जाती थी कि वह कैसे शरमाएगी. वह अकसर चाहती थी कि वह भी अपने शरीर के बारे में मुक्त और सहज महसूस कर सके, जैसा कि उसके आस-पास की अधिकतर युवतियाँ महसूस करती थीं. यहाँ तक कि उसने खुद को मनाने के लिए एक विशेष प्रक्रिया की खोज भी की थी-- वह खुद को यह दोहराती कि जन्म के समय हर मनुष्य को लाखों उपलब्ध शरीरों में से एक मिलता था, जैसे किसी को किसी बहुत बड़े होटल के लाखों कमरों में से कोई एक आबंटित कमरा मिलता है. इसलिए, शरीर आकस्मिक और व्यक्तित्वहीन था, वह केवल एक पहले से बनी-बनाई और उधार ली गई चीज़ थी. वह अलग-अलग तरीक़ों से यह बात खुद को समझाती थी, लेकिन वह कभी इसे महसूस नहीं कर पाती थी. दिमाग़ और शरीर की यह द्विधा उसके लिए पराई थी. वह अपने शरीर के साथ बहुत ज़्यादा जुड़ी हुई थी; इसलिए वह हमेशा उसके बारे में इतना चिंतित रहती थी.
युवक के साथ अपने सम्बन्ध में भी युवती इसी चिंता को महसूस करती थी. वह युवक को पिछले एक साल से जानती थी और उसके साथ वह सुखी थी, शायद इसलिए, क्योंकि युवक ने कभी उसकी देह को उसकी आत्मा से अलग करके नहीं देखा था. युवती उसके साथ अपनी सम्पूर्णता में जी सकती थी. इस एकता में सुख तो था, पर सुख के ठीक पीछे शंका छिपी रहती और युवती शंकाओं से भरी थी. उदाहरण के लिए, उसे अकसर लगता था कि दूसरी औरतें (वे जो चिंतित नहीं होती थीं) ज़्यादा आकर्षक और सम्मोहक थीं और युवक, जो इस तथ्य को नहीं छिपाता था कि वह इस तरह की औरतों को अच्छी तरह जानता था, किसी दिन ऐसी किसी औरत के लिए उसे छोड़ देगा. (सच है, युवक ने बताया था कि उसे ऐसी औरतों का इतना अनुभव हो चुका था जो उसके जीवन भर के लिए काफ़ी था. पर युवती जानती थी कि वह अब भी उससे ज़्यादा युवा था जितना वह खुद को समझता था.) वह चाहती थी कि युवक पूरी तरह से उसका हो और वह पूरी तरह से युवक की हो, लेकिन अकसर उसे ऐसा लगता था कि जितना ज़्यादा वह उसे सब कुछ देने की कोशिश करती थी, उतना ही ज़्यादा वह उसे किसी चीज़ से वंचित करती थी-- ठीक वह चीज़ जो हल्के या छिछोरे प्यार में होती है. वह चिंतित रहती थी कि वह सहजता से गम्भीरता और प्रफुल्लता को नहीं मिला पाती थी.
लेकिन इस समय वह फ़िक्र नहीं कर रही थी और इस तरह का कोई भी विचार उसकी सोच से बहुत दूर था. इस समय वह अच्छा महसूस कर रही थी. यह उनकी छुट्टियों का पहला दिन था (दो हफ़्ते लम्बी छुट्टियों का जिसके बारे में वह साल भर से सपने देखती आ रही थी). आकाश नीला था (पूरा साल वह यही फ़िक्र करती रही थी कि क्या उस दिन आकाश वाकई नीला दिखेगा) और युवक उसके साथ था. उसके ”कहाँ का” पूछने पर युवती शरमा गई और बिना कुछ बोले कार से आगे बढ़ गई. वह पेट्रोल-पंप के इर्द-गिर्द चहलक़दमी करती रही. पेट्रोल-पंप सड़क से थोड़ा हटकर वीराने में स्थित था और उसके चारों ओर खेत थे. (जिस दिशा में वे यात्रा कर रहे थे) वहाँ से लगभग सौ गज की दूरी पर एक जंगल शुरू होता था.
वह उस ओर चल पड़ी और एक छोटी-सी झाड़ी के पीछे ग़ायब हो गई. दरअसल वह अपने अच्छे मिज़ाज का आनंद लेने लगी (अकेलेपन में उसके लिए उस युवक की उपस्थिति का भरपूर मज़ा लेना संभव था जिससे वह प्यार करती थी. यदि युवक की उपस्थिति लगातार बनी रहती, तो उसे पूरा मज़ा नहीं आता. केवल अकेली होने पर ही वह उस आनंद को महसूस कर पाई.)
जब वह जंगल से निकल कर वापस सड़क पर आई, तो उसे वहाँ से पेट्रोल-पंप दिखाई देने लगा. पेट्रोल से भरा विशालकाय ट्रक अब आगे बढ़ रहा था और स्पोर्ट्स कार पंप के लाल कंगूरे की ओर बढ़ी. युवती सड़क पर आगे चलती रही. बीच-बीच में वह पीछे मुड़ कर देख लेती थी कि क्या स्पोर्ट्स कार आ रही थी. अंत में उसे कार आती हुई दिखी. वह रुक गई और कार की ओर इस तरह हाथ हिलाने लगी जैसे वह कोई लिफ़्ट माँगने वाली लड़की हो जो किसी अजनबी चालक की कार को रोकना चाह रही हो. स्पोर्ट्स कार की गति धीमी हो गई और वह युवती के पास आ कर रुक गई. युवक कार की खिडकी की ओर झुका, उसने खिड़की का शीशा नीचे किया, और मुस्करा कर उसने पूछा,”आप कहाँ जा रही हैं ?”
क्या आप बिस्त्रित्सा की ओर जा रहे हैं युवती ने बनावटी प्यार के साथ मुस्कराते हुए पूछा.
हाँ, कृपया भीतर आ जाइए,” युवक ने कार का दरवाज़ा खोलते हुए कहा. युवती कार में बैठ गई और कार तेज़ी से आगे बढ़ गई.

(3)
युवक अपनी प्रेमिका को प्रसन्नचित्त देखकर हमेशा खुश होता था. यह अकसर नहीं हो पाता था. युवती अप्रिय माहौल में थका देने वाला काम करती थी. उसे हर रोज़ दफ़्तर में देर तक काम करना पड़ता था, जबकि उसके बदले उसे कोई छुट्टी भी नहीं मिलती थी. उधर घर पर उसकी बूढ़ी माँ बीमार रहती थी. इस सब के कारण युवती अधीर हो जाती थी. उसमें आत्मविश्वास की कमी भी थी, जिस वजह से वह प्राय: चिंतित और भयभीत रहती थी. इसलिए युवक युवती की ख़ुशी की किसी भी अभिव्यक्ति का पालन-पोषण करने वाले माता-पिता की संवेदनशील उत्सुकता की तरह स्वागत करता था. वह उसे देखकर मुस्कराया और बोला,”आज मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ. मैं पाँच साल से कार चला रहा हूँ, लेकिन मैंने कभी इतनी ख़ूबसूरत युवती को लिफ़्ट नहीं दी.”
युवती युवक की चापलूसी के प्रति पूरी तरह से आभारी थी. वह कुछ और पलों के लिए इसका आनंद लेना चाहती थी, इसलिए उसने कहा,”आप झूठ बोलने में माहिर हैं.”
क्या मैं झूठे व्यक्ति जैसा लगता हूँ?
आप ऐसे व्यक्ति लगते हैं जिसे युवतियों से झूठ बोलने में मज़ा आता हो.” युवती ने कहा और बिना उसके जाने उसके शब्दों में उसकी पुरानी चिंता घुस आई, क्योंकि उसे वाक़ई यक़ीन था कि उसके प्रेमी को युवतियों से झूठ बोलने में मज़ा आता था.
युवक अकसर युवती की ईर्ष्या से चिढ़ जाता था, लेकिन इस बार वह उसे आसानी से नज़रअंदाज़ कर सकता था, क्योंकि आख़िरकार, वे शब्द उसे नहीं बल्कि अजनबी चालक को कहे गए थे. इसलिए उसने लापरवाही से पूछा,”क्या इससे आपको परेशानी होती है ?
अगर मैं आपके साथ जा रही होऊँ तो इससे मुझे ज़रूर परेशानी होगी.” युवती ने कहा और उसके शब्दों में युवती के लिए एक सूक्ष्म, शिक्षाप्रद संदेश था ; लेकिन उसके वाक्य का अंतिम हिस्सा केवल उस अजनबी चालक पर लागू होता था,”पर मैं आपको नहीं जानती हूँ, इसलिए मुझे इससे कोई परेशानी नहीं हो रही.”
किसी अजनबी से सम्बन्धित बातों की बजाए अपने प्रेमी से सम्बन्धित बातें किसी युवती को ज़्यादा परेशान करती हैं.”(यह अब युवक द्वारा युवती को भेजा गया सूक्ष्म, शिक्षाप्रद संदेश था.)”इसलिए यह देखते हुए कि हम अजनबी हैं, हम दोनों की अच्छी निभेगी.”
युवती जान-बूझकर उसके संदेश का सांकेतिक अर्थ नहीं समझना चाहती थी, और इसलिए उसने अब केवल अजनबी चालक को सम्बोधित किया.
इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है, क्योंकि कुछ ही देर में हम लोग अलग हो जाएँगे.”
क्यों?”
मैं बिस्त्रित्सा में उतर जाऊँगी.”
और अगर मैं भी आपके साथ वहीं उतर जाऊँ तो?”
ये शब्द सुनकर युवती ने युवक की ओर देखा और पाया कि वह ठीक वैसा लग रहा था जैसा युवती ने उसके बारे में अपनी ईर्ष्या के यंत्रणापूर्ण घंटों में कल्पना की थी. वह कैसे उसके साथ (एक अजनबी लिफ़्ट लेने वाली लड़की के साथ) झूठा प्यार जता रहा था और उसकी ख़ुशामद कर रहा था. युवक को इसमें कितना मज़ा आ रहा था, यह देखकर युवती त्रस्त हो गई. इसलिए उसने उद्धत उत्तेजना के साथ कहा,”मैं अचरज में हूँ कि पता नहीं आप मेरे साथ क्या करेंगे?”
ऐसी ख़ूबसूरत लड़की के साथ क्या करना चाहिए, इसके लिए मुझे बहुत ज़्यादा सोचना नहीं पड़ेगा.” युवक ने बाँके रसिया की तरह कहा. इस पल वह उस लिफ़्ट लेने वाली लड़की की बजाए दोबारा अपनी प्रेमिका को सम्बोधित कर रहा था.
लेकिन चापलूसी भरे इस वाक्य से युवती को ऐसा महसूस हुआ जैसे युवक ने फुसला कर और छल-कपट भरी युक्ति से उससे स्वीकारोक्ति प्राप्त कर ली हो. उसने युवक के प्रति एक पल के लिए प्रबल घृणा का भाव महसूस किया. और उसने कहा, “क्या आपको नहीं लगता कि आपको अपने-आप पर कुछ ज़्यादा ही यक़ीन है ?”
युवक ने युवती की ओर देखा. उसका उद्धत चेहरा युवक को पूरी तरह से ऐंठा हुआ लगा. वह युवती के लिए दुखी हुआ और उसने चाहा कि उसका पुराना जाना-पहचाना चेहरा (जिसे वह बच्चों जैसा और भोला-भाला कहता था) लौट आए. वह युवती की ओर झुका. उसने युवती के कंधों के गिर्द अपनी बाँह डाली. उसने प्यार से वह नाम लिया जिससे वह आम तौर पर युवती को बुलाता था और जिसके साथ अब वह इस खेल को रोकना चाहता था.
लेकिन युवती ने खुद को उसके आग़ोश से छुड़ा लिया और कहा, आप कुछ ज़्यादा ही तेज़ी दिखा रहे हैं.”
यह झिड़की सुनकर युवक ने कहा, “क्षमा कीजिएगा, महोदया,” और वह चुपचाप अपने सामने सड़क की ओर देखने लगा.

(4)
युवती की दयनीय ईर्ष्या उतनी ही जल्दी दूर हो गई जितनी जल्दी प्रकट हुई थी. कुछ भी हो, वह समझदार थी और बहुत अच्छी तरह जानती थी कि यह सब एक खेल था. बल्कि अब उसे यह थोड़ा हास्यास्पद भी लगा कि उसने अपने प्रेमी को ईर्ष्या के उन्माद में आकर झिड़क दिया. यह उसके लिए सुखद नहीं होगा यदि युवक को यह पता चल गया कि उसने ऐसा क्यों किया था. सौभाग्यवश महिलाओं के पास घटना घट जाने के बाद अपने व्यवहार के अर्थ को बदल देने की अद्भुत क्षमता होती है. इस क्षमता का इस्तेमाल करते हुए उसने तय किया कि उसने युवक को नाराज़ होकर नहीं झिड़का था बल्कि इसलिए झिड़का था ताकि वह इस खेल को खेलती रह सके, जोकि अपने सनकीपन के कारण उनकी छुट्टियों के पहले दिन के बिल्कुल अनुकूल था.
इसलिए वह दोबारा लिफ़्ट लेने वाली युवती बन गई जिसने अभी-अभी ज़रूरत से ज़्यादा उत्साह दिखाने वाले चालक को झिड़क दिया था, लेकिन केवल इसलिए ताकि उसकी विजय को धीमा किया जा सके और ज़्यादा उत्तेजक बनाया जा सके. वह युवक की ओर आधा मुड़ी और उसने लाड़ जताते हुए कहा, “मैं आपको नाराज़ करना नहीं चाहती थी, महोदय !”
माफ़ कीजिएगा, मैं आपको दोबारा नहीं छूऊँगा.” युवक ने कहा.
वह युवती से बेहद नाराज़ था क्योंकि वह उसकी बात नहीं सुन रही थी और स्वाभाविक बनने से इंकार कर रही थी जबकि युवक उसे स्वाभाविक रूप में देखना चाहता था. चूँकि युवती अपनी भूमिका का निर्वाह करने पर ज़ोर दे रही थी, युवक ने अपना ग़ुस्सा उस अजनबी लिफ़्ट लेने वाली युवती पर उतारना शुरू कर दिया जिसकी भूमिका वह निभा रही थी. इसके साथ ही युवक ने अपनी भूमिका खोज ली. उसने वे श्रृंगारिक टिप्पणियाँ करनी बंद कर दीं जिनसे घुमा-फिरा कर वह अपनी प्रेमिका की ख़ुशामद करना चाहता था. अब वह उस उद्दंड व्यक्ति की भूमिका निभाने लगा जो महिलाओं के साथ अशिष्ट मर्दानगी भरा व्यवहार करता है जिसमें हठ, उपहास और आत्म-विश्वास होता है.
यह भूमिका युवक के आम तौर पर युवती का ख़्याल रखने वाले व्यवहार के बिल्कुल विपरीत थी. यह सच है कि वह जब इस युवती से मिला था, उससे पहले वह असल में महिलाओं के साथ नरमी की बजाए रूखेपन से पेश आता था. लेकिन वह कभी भी निर्दयी या अशिष्ट व्यक्ति जैसा नहीं लगता था, क्योंकि उसने कभी भी बहुत ज़्यादा दृढ़ता या निष्ठुरता का प्रदर्शन नहीं किया था. हालाँकि, यदि वह ऐसा व्यक्ति नहीं लगता था तो भी एक समय ऐसा था जब उसने ऐसा व्यक्ति बनना चाहा था. वैसे तो यह काफ़ी सीधी-सादी इच्छा थी, पर यह इच्छा मौजूद तो थी ही. बचकानी इच्छाएँ वयस्क मस्तिष्क के सभी पाशों से बच निकलती हैं और अकसर पूर्ण वृद्धावस्था तक बची रहती हैं. इस बचकानी इच्छा ने भी दी गई भूमिका में मूर्त रूप धारण करने के मौक़े का तेज़ी से लाभ उठाया.
युवक की कटाक्ष करने वाली शुष्कता युवती के बेहद अनुकूल थी— इसने युवती को स्वयं से मुक्त कर दिया, क्योंकि वह खुद ही ईर्ष्या का सबसे बड़ा प्रतीक थी. जिस पल युवती ने अपने बग़ल में विमोहक रसिया युवक को देखना बंद कर दिया और केवल उसका अगम्य चेहरा देखने लगी, उसकी ईर्ष्या अपने-आप ठंडी पड़ गई. अब युवती खुद को भूल कर अपने-आप को अपनी भूमिका में रमा सकती थी.
उसकी भूमिका ? उसकी भूमिका आख़िर थी क्या ? यह भूमिका सीधे घटिया साहित्य से ली गई थी. लिफ़्ट लेने वाली युवती ने लिफ़्ट माँगने के लिए युवक की कार नहीं रुकवाई थी, बल्कि वह तो कार-चालक को फुसला कर उसे पथ-भ्रष्ट करना चाहती थी. वह युवती एक चालाक विलोभिका थी, जो यह जानती थी कि अपनी ख़ूबसूरती का इस्तेमाल उसे किस चतुराई से करना है. युवती इतनी आसानी से इस मूर्खतापूर्ण, रोमानी भूमिका के अनुकूल हो गई कि वह स्वयं इससे आश्चर्यचकित रह गयी और इस भूमिका ने उसे वशीभूत कर लिया.

(5)
युवक अपने जीवन में प्रफुल्लता की कमी सबसे ज़्यादा महसूस करता था. उसके जीवन की मुख्य सड़क कठोर सुनिश्चितता से खींची गई थी. उसकी नौकरी न केवल प्रतिदिन उसके आठ घंटे ले लेती थी बल्कि उसके बाक़ी बचे समय में भी घुसपैठ करती थी. दफ़्तर की बैठकों में अनिवार्य रूप से उकताहट होती थी और घर पर भी अध्ययन करना पड़ता था. साथ ही असंख्य महिला और पुरुष सहकर्मियों के साथ शिष्टाचार निभाना पड़ता था. ये सब चीज़ें उस बहुत थोड़े से समय में भी घुसपैठ करती थीं जो उसके निजी जीवन के लिए बचता था. यह निजी जीवन भी कभी गुप्त नहीं रह पाता था और कभी-कभी तो यह गपशप और सार्वजनिक चर्चा का विषय भी बन जाता था. यहाँ तक कि दो हफ़्ते की छुट्टियाँ भी उसे मुक्ति और रोमांच का आभास नहीं करा पाती थीं ; यहाँ भी सुनिश्चित योजना की धूसर परछाईं पीछा नहीं छोड़ती थी. इस देश में ग्रीष्मकालीन आवास-स्थलों का अभाव उसे मजबूर कर देता था कि वह तात्रास में एक कमरा छह महीने पहले से ही आरक्षित करवा ले, और चूँकि इसके लिए उसे दफ़्तर से सिफारिश की ज़रूरत पड़ती थी, इसलिए वहाँ का सर्वव्यापी दिमाग़ हर पल उसकी पूरी ख़बर रखता था.
उसने इस सब से सामंजस्य स्थापित कर लिया था, लेकिन इसके बावजूद समय-समय पर सीधी सड़क का भयावह विचार उस पर हावी हो जाता— एक ऐसी सड़क जिस पर उसका पीछा किया जा रहा था, जहाँ वह सबको दिखाई देता था और जिस पर से वह गुप्त रूप से किसी दूसरी ओर नहीं मुड़ सकता था. इस पल वह विचार उसे दोबारा सताने लगा. विचारों के आकस्मिक और क्षणिक संयोजन से प्रतीकात्मक सड़क का तादात्म्य उस वास्तविक सड़क से हो गया, जिस पर वह गाड़ी चला रहा था और इसके कारण अचानक ही उसने एक सनकीपन भरी हरकत की.
आपने क्या कहा था, आप कहाँ जाना चाहती थीं?” उसने युवती से पूछा.
बान्स्का बिस्त्रित्सा.” युवती ने जवाब दिया.
और वहाँ आप क्या करेंगी?”
वहाँ मैं किसी से मिलने वाली हूँ.”
किससे?”
है एक युवक.”
कार एक बड़े चौराहे के पास पहुँच रही थी. चालक ने कार की गति धीमी कि ताकि वह सड़क पर लगे संकेत-चिह्नों को पढ़ सके और फिर वह दाईं ओर मुड़ गया.
यदि आप उस व्यक्ति से मिलने के लिए वहाँ न पहुँच सकीं तो क्या होगा?”
यह आपकी ग़लती होगी और आपको मेरा ख़्याल रखना पड़ेगा.”
आपने वाक़ई नहीं देखा कि मैं नौवे जैम्की की दिशा में मुड़ गया था.”
क्या यह सच है आप पागल हो गए हैं!”
डरिए मत, मैं आपका ख़्याल रखूँगा.” युवक ने कहा.
इसलिए वे कार चलाते रहे और बातचीत करते रहे— वह चालक और वह लिफ़्ट लेने वाली युवती, जो एक-दूसरे को नहीं जानते थे.
यह खेल एकाएक ऊँचे गियर में चला गया. वह स्पोर्ट्स-कार न केवल अपने काल्पनिक लक्ष्य बान्स्का बिस्त्रित्सा से दूर चली जा रही थी बल्कि अपने वास्तविक लक्ष्य से भी दूर होती जा रही थी. वह लक्ष्य वह दिशा थी जिस ओर वे सुबह जा रहे थे— तात्रास और वहाँ आरक्षित किया गया कमरा. कल्पना अचानक वास्तविक जीवन पर प्रहार कर रही थी. युवक अपने-आप से और कठोरता से खींची गई उस सीधी सड़क से दूर जा रहा था जिससे वह अब तक कभी नहीं भटका था.
लेकिन आपने कहा था कि आप तात्रास जा रहे थे!” युवती हैरान रह गयी.
मैं वहाँ जा रहा हूँ जहाँ मैं जाना चाहता हूँ. मैं एक आज़ाद आदमी हूँ और मैं वह करता हूँ जो मैं करना चाहता हूँ और जिसे करने से मुझे ख़ुशी मिलती है.”


(6)
जब उनकी कार नौवे जैम्की पहुँची तब तक अँधेरा हो चुका था. युवक यहाँ पहले कभी नहीं आया था और उसे स्थिति का जायज़ा लेने में कुछ समय लगा. कई बार उसने कार को रोका और आने-जाने वालों से होटल का रास्ता पूछा. कई जगह सड़क को खोद दिया गया था. होटल तक पहुँचने का रास्ता हालाँकि काफ़ी पास था (जैसा कि पूछने पर लोगों ने बताया), पर इस खुदाई की वजह से वह इतने ज़्यादा घुमावदार मोड़ों से होकर गुज़रा कि उन्हें अंत में होटल के सामने जाकर कार रोकने में पंद्रह मिनट लग गए. होटल बेहद आकर्षक लगता था, लेकिन पूरे शहर में यही एक होटल था और युवक अब और आगे कार नहीं चलाना चाहता था. इसलिए उसने युवती से कहा, “यहीं रुको,” और खुद कार से बाहर निकल आया.
कार से बाहर निकलते ही वह अपने स्वाभाविक रूप में आ गया और शाम में अपने-आपको अपने निर्धारित लक्ष्य से बिल्कुल दूसरी जगह पाकर वह क्षुब्ध हुआ. इसलिए वह और भी ज़्यादा पीड़ित हुआ क्योंकि किसी ने भी उसे ऐसा करने पर मजबूर नहीं किया था और असल में वह खुद भी ऐसा करना नहीं चाहता था. उसने ऐसी बेवक़ूफ़ी के लिए खुद को दोष दिया, लेकिन फिर स्थिति से समझौता कर लिया.
तात्रास में आरक्षित करवाया कमरा कल तक रुक सकता था और इससे कोई घाटा नहीं होगा यदि वे अपनी छुट्टियों का पहला दिन अप्रत्याशित तरीक़े से मनाएँ.
वह रेस्तराँ में घुसा. रेस्तराँ धुएँ, शोर और भीड़ से भरा हुआ था. उसने स्वागत-कक्ष के बारे में पूछा. उन्होंने उसे लॉबी के पिछवाड़े में सीढ़ियों के पास भेज दिया, जहाँ एक शीशे के चौखट के पीछे एक गोरी और सुनहरे बालों वाली बूढ़ी महिला चाबियों से भरे एक तख़्ते के पास बैठी थी. बहुत मुश्किल से वह एकमात्र बचे हुए कमरे की चाबी प्राप्त करने में सफल हुआ.
जब युवती ने खुद को अकेला पाया तो तो उसने भी अपनी भूमिका उतार फेंकी. हालाँकि उसने खुद को एक अप्रत्याशित शहर में पाया, पर उसने खुद को चिड़चिड़ा महसूस नहीं किया. वह युवक के प्रति इतनी समर्पित थी कि उसके द्वारा किए गए किसी काम से उसे कोई आशंका नहीं होती थी. वह अपने जीवन का हर पल उसे विश्वासपूर्वक सौंप सकती थी. दूसरी ओर यह विचार उसके दिमाग़ में दोबारा आया कि शायद— जैसे वह अब कर रही थी — दूसरी औरतें उसके प्रेमी के लिए कार में प्रतीक्षा करती रही थीं, वे औरतें जिनसे वह अपनी कारोबारी यात्राओं के दौरान मिलता था. पर हैरानी की बात यह थी कि इस विचार ने अब उसे बिल्कुल अशांत नहीं किया. बल्कि यह सोच कर वह मुस्कराई कि यह कितनी बढ़िया बात थी कि
आज वह स्वयं वह दूसरी औरत थी— वह ग़ैर-ज़िम्मेदार, अशिष्ट, दूसरी औरत— उन औरतों में से एक जिनसे वह ईर्ष्या करती थी. उसे ऐसा लगा कि आज उसने इन सब औरतों का पत्ता साफ़ कर दिया था, कि अब वह उनके अस्त्र-शस्त्रों का इस्तेमाल करना सीख गई थी. वह अब युवक को वे सब चीज़ें देना सीख गई थी जिन्हें उसे देना वह अब से पहले नहीं जानती थी. वे चीज़ें थीं— प्रफुल्लता, निर्लज्जता और कामुकता. उसने संतोष का एक अजीब भाव महसूस किया, क्योंकि केवल उसी में हर औरत बन जाने की क्षमता थी. इस तरह केवल वही अपने प्रेमी को पूरी तरह से वश में कर सकती थी और खुद में उसकी रुचि को बरक़रार रख सकती थी.
युवक ने कार का दरवाज़ा खोला और युवती को अपने पीछे रेस्तराँ में ले गया. शोर, गंदगी और धुएँ के बीच उसने कोने में एक अकेली, ख़ाली मेज़ ढूँढ़ ली.

(7)
तो अब तुम मेरा ख़्याल कैसे रखोगे?” युवती ने उत्तेजनात्मक ढंग से पूछा.
शराब में तुम क्या लेना चाहोगी?”
युवती शराब की ज़्यादा शौक़ीन नहीं थी, फिर भी उसने थोड़ी शराब पी और उसे पसंद भी किया. लेकिन अब उसने जान-बूझकर कहा, “मुझे वोदका चाहिए.”
बढ़िया है.” युवक ने का. ”मुझे उम्मीद है कि तुम नशे में धुत्त् नहीं हो जाओगी.”
और अगर मैं हो गयी तो
युवक ने कोई उत्तर नहीं दिया, लेकिन उसने एक बैरे को बुलाया और दो वोदका तथा दो टिक्का लाने के लिए कहा. कुछ देर बाद बैरा एक ट्रे में दो छोटे गिलास लेकर आया और उन्हें उनके सामने रख दिया.
युवक ने अपना गिलास उठाया, “तुम्हारे नाम.”
क्या तुम इससे विनोदपूर्ण स्वास्थ्य के जाम के बारे में नहीं सोच सकते?”
युवती के खेल के बारे में कोई चीज़ उसे अब क्षुब्ध कर रही थी. अब, जब वह उसके सामने बैठा था, तो उसने महसूस किया कि वे केवल युवती के शब्द ही नहीं थे जो उसे अजनबी बना रहे थे बल्कि उसका पूरा व्यक्तित्व ही बदल गया था. उसके शरीर की गतिविधियाँ तथा उसके चेहरे के हाव-भाव भी बदल गए थे और वह अप्रिय और अविश्वसनीय रूप से ऐसी औरत लग रही थी जिन्हें वह बहुत अच्छी तरह जानता था और जिनके प्रति वह थोड़ी विरूचि महसूस करता था.
और इसलिए (अपने उठे हुए हाथ में गिलास पकड़ कर) उसने स्वास्थ्य के नाम जाम को सुधारा, “ठीक है, तब मैं तुम्हारे नाम नहीं पीऊँगा बल्कि तुम्हारे प्रकार के नाम पीऊँगा, जिसमें कितनी सफलता से पशु के बेहतर गुणों और मनुष्य के घटिया पहलुओं का संगम होता है.”
 “प्रकार से क्या तुम्हारा मतलब सभी औरतों से हैं ?” युवती ने पूछा.
नहीं, मेरा मतलब केवल उन औरतों से है जो तुम्हारे जैसी हैं.”
कुछ भी हो, एक औरत की तुलना किसी जानवर से करने में मुझे कोई बुद्धिमानी नहीं
दिखती.”
ठीक है, “युवक अब भी अपना गिलास ऊपर उठाए हुए था,” तो मैं तुम्हारे प्रकार के नाम नहीं पीऊँगा बल्कि तुम्हारी आत्मा के नाम पीऊँगा. ठीक है ? तुम्हारी आत्मा के नाम, जो जब तुम्हारे सिर से तुम्हारे पेट में उतरती है तो रोशन हो जाती है और जो जब वापस तुम्हारे सिर पर चढ़ती है तो बुझ जाती है.”
युवती ने अपना गिलास ऊपर उठाया. “ठीक है, मेरी आत्मा के नाम, जो मेरे पेट में उतरती
है.”
मैं एक बार और अपने-आप को सुधारूँगा.” युवक ने कहा. “तुम्हारे पेट के नाम, जिसमें तुम्हारी आत्मा उतरती है.”
मेरे पेट के नाम,” युवती ने कहा और उसके पेट ने (अब जब कि उन्होंने विशेष रूप से उसका नाम लिया था) इस प्रकार को सुना, और उसने इसे पूरी तरह महसूस किया.
फिर बैरा उनके टिक्के ले आया और युवक ने एक और वोदका और थोड़ा-थोड़ा सोडा-वाटर मँगवाया (इस बार उन्होंने युवती के स्तनों के नाम जाम पिया), और बातचीत इस विशिष्ट, छिछोरे स्वर में जारी रही. यह बात युवक को और ज़्यादा चिड़चिड़ा बनाती गई कि उसकी प्रेमिका कितनी अच्छी तरह से एक कामुक युवती बन गई थी. यदि युवती यह काम इतने अच्छे ढंग से कर रही थी तो, उसने सोचा, तो वह वाक़ई वैसी ही युवती थी. कुछ भी हो, अंतरिक्ष में से आकर कोई पराई आत्मा तो उसके भीतर घुसी नहीं थी. अब वह जो भूमिका निभा रही थी वह स्वयं उसके अनुरूप थी ; शायद वह युवती के अस्तित्व का वह भाग था जो पहले बंदी पड़ा था और जो खेल के बहाने अपने बंदी-गृह से बाहर निकल आया था. शायद युवती यह समझ रही थी इस खेल के माध्यम से वह खुद का परित्याग कर रही थी, पर क्या वास्तविकता इसके ठीक विपरीत नहीं थी ? क्या वह खेल के माध्यम से ही अपने वास्तविक रूप में नहीं आ रही थी ? क्या वह खेल के माध्यम से ही खुद को मुक्त नहीं कर रही थी ? नहीं, उसके सामने उसकी प्रेमिका के शरीर में कोई अजनबी औरत नहीं बैठी हुई थी ; वह अपने वास्तविक रूप में उसकी प्रेमिका ही थी, दूसरा कोई नहीं था. उसने युवती की ओर देखा और उसके प्रति बढ़ती विरुचि महसूस की.
हालाँकि, यह केवल विरुचि नहीं थी. युवती जितना ज़्यादा आत्मा के स्तर पर उससे पीछे हटती गई, उतना ही ज़्यादा शारीरिक रूप से वह उसके लिए लालायित होता गया. युवती की आत्मा के परायेपन ने युवक का ध्यान उसके शरीर की ओर खींचा. हाँ, बल्कि वास्तविकता यह थी कि इसने युवती के शरीर को उसके लिए एक युवा नारी शरीर में बदल दिया. अब तक युवक के लिए इस शरीर का अस्तित्व करुणा, कोमलता, चिंता, प्रेम और भावावेश के बादलों में खोया हुआ था. युवक को लगा कि वह अपनी प्रेमिका के शरीर को आज पहली बार देख रहा था.
अपने तीसरे वोदका और सोडा के बाद युवती उठ खड़ी हुई और झूठा प्यार जताते हुए बोली, “माफ़ करना.”
युवक ने कहा, क्या मैं पूछ सकता हूँ कि तुम कहाँ जा रही हो ?” “पेशाब करने, अगर तुम मुझे इजाज़त दो तो.” युवती ने कहा और वह मेजों के बीच में से चलती हुई पीछे मख़मली परदे की ओर चली गई.

(8)
जिस तरह से उसने इस शब्द का प्रयोग करके युवक को स्तंभित कर दिया था, उससे वह प्रसन्न हुई. हालाँकि यह शब्द अहानिकर था, पर युवक ने इसे युवती के मुँह से पहले कभी नहीं सुना था. जिस शब्द पर युवती ने झूठे प्यार भरा बल दिया था वह उस औरत के चाल-चलन के अनुरूप था जिसका चरित्र वह निभा रही थी. हाँ, वह प्रसन्न थी, वह अपनी सर्वश्रेष्ठ मन: स्थिति में थी. इस खेल ने उसे मोहित कर लिया था. इसने उसे वह महसूस करने का मौक़ा दिया था जो वह अब तक महसूस नहीं कर सकी थी- एक बेपरवाह ग़ैर-ज़िम्मेदारी का भाव.
वह, जो हमेशा अपने अगले क़दम को लेकर घबरा जाती थी, अचानक बेहद तनाव-मुक्त महसूस करने लगी. वह जिस पराये जीवन में शामिल हो गई थी, वह जीवन बिना किसी शर्म, बिना किसी अतीत या भविष्य और बिना किसी ज़िम्मेदारी का जीवन था. यह एक ऐसा जीवन था जो आश्चर्यजनक रूप से मुक्त था. एक लिफ़्ट लेने वाली लड़की के रूप में युवती कुछ भी कर सकती थी, उसे सब कुछ कर सकने की अनुमति थी. वह जो चाहे कर सकती थी और महसूस कर सकती थी.
वह कमरे में से गुज़री और वह यह बात जानती थी कि सभी मेजों से लोग उसी को देख रहे थे. यह एक नई अनुभूति थी, एक ऐसी अनुभूति जिसे वह नहीं पहचानती थी— एक अश्लील ख़ुशी, जिसका कारण उसका शरीर था. अब तक वह अपने भीतर की चौदह साल की लड़की से छुटकारा नहीं पा सकी थी जो अपने स्तनों के कारण शर्मिंदा थी, क्योंकि वे उसके शरीर से बाहर निकले हुए थे और स्पष्ट रूप से दिखते थे. हालाँकि उसे अपनी खूबसूरती और अपने छरहरे बदन पर गर्व था, पर गर्व की यह अनुभूति हमेशा शर्म के आगे घट जाती थी. उसे यह सही संदेह होता था कि नारी सौंदर्य सबसे ज़्यादा कामोत्तेजना बढ़ाने का काम करता था और यह उसे नापसंद था. वह चाहती थी कि उसके शरीर का संबंध केवल उस व्यक्ति से हो, जिससे वह प्रेम करती थी. जब गली में लोग उसके उरोजों को घूरते थे तो उसे लगता था कि वे उसकी सबसे गुप्त वैयक्तिकता में घुसपैठ कर रहे थे जो केवल उसके और उसके प्रेमी की होनी चाहिए. लेकिन अब वह लिफ़्ट लेने वाली युवती थी, एक ऐसी औरत, जिसकी कोई नियति नहीं थी. इस भूमिका में वह अपने प्रेम के कोमल बंधनों से मुक्त हो गई और अपने शरीर के प्रति बड़ी प्रबलता से सचेत होने लगी. जितना ज़्यादा पराई आँखें उसके शरीर को देखती गईं उतना ही ज़्यादा उसका शरीर उत्तेजित होता चला गया.
वह अंतिम मेज के बग़ल से गुज़र रही थी जब शराब के नशे में धुत्त किसी आदमी ने फ़्रांसीसी भाषा में एक अश्लील टिप्पणी की. युवती उसका अर्थ समझ गई. उसने अपने उरोजों को बाहर की ओर धकेला और अपने नितंबों की हर हरकत को पूरी तरह महसूस किया. फिर वह परदे के पीछे ग़ायब हो गई.

(9)
यह एक विचित्र खेल था. उदाहरण के लिए, इसकी विचित्रता का पता इस तथ्य से चलता था कि हालाँकि युवक स्वयं अजनबी चालक की भूमिका बहुत अच्छी तरह निभा रहा था, पर एक पल के लिए भी उसने लिफ़्ट लेने वाली युवती में अपनी प्रेमिका को देखना बंद नहीं किया और ठीक यही बात थी जो उसे पीड़ित कर रही थी. उसकी प्रेमिका एक अजनबी आदमी को पथ-भ्रष्ट कर रही थी और वह इसे देख रहा था. उसे यह दुखद विशेषाधिकार मिला था कि वह अपनी प्रेमिका को तब क़रीब से देखे कि वह कैसी लगती थी और वह क्या कर रही थी, जब वह उसे धोखा दे रही थी. (अब जब वह उसे धोखा दे चुकी थी, जब वह उसे धोखा देगी) उसे खुद अपनी प्रेमिका के विश्वासघात का बहाना बनने का विरोधाभासी सम्मान मिला था.
यह और भी बुरा था, क्योंकि वह अपनी प्रेमिका से प्यार नहीं करता था बल्कि उसकी पूजा करता था. उसे हमेशा से यही लगता था कि उसकी प्रेमिका की आंतरिक प्रकृति निष्ठा और निष्कलंकता की सीमा के भीतर ही वास्तविक थी, और यह कि इस सीमा के बाहर उसका अस्तित्व ही नहीं था. इस सीमा के बाहर युवती का वास्तविक स्वरूप वैसे ही ख़त्म हो जाएगा जैसे एक सीमा के बाद उबलता पानी पानी नहीं रहता, भाप बन जाता है. जब उसने युवती को एक लापरवाह लालित्य के साथ इस संत्रस्त कर देने वाली सीमा को पार करते हुए देखा, तो वह ग़ुस्से से भर गया.
शौचालय से वापस लौट कर युवती ने शिकायत की, “वहाँ बैठे आदमी ने मुझे देखकर बेहूदा टिप्पणी की.”
तुम्हें हैरान नहीं होना चाहिए.” युवक ने कहा. ”आख़िर तुम एक वेश्या जैसी ही तो लगती हो.”
क्या तुम जानते हो कि मुझे इसकी बिल्कुल परवाह नहीं है?”
तो फिर तुम उस आदमी के साथ चली जाओ.”
पर मेरे साथ तुम हो.”
पर तुम मेरे बाद उसके साथ जा सकती हो. जा कर उससे इसके बारे में बात कर लो.”
वह मुझे आकर्षक नहीं लगता.”
लेकिन सैद्धांतिक रूप से तो तुम इसके विरुद्ध नहीं हो. एक रात में तुम कई पुरुषों के साथ सो सकती हो.”
क्यों नहीं, अगर वे दिखने में अच्छे हों.”
क्या तुम उन्हें एक के बाद एक लेना पसंद करती हो या एक साथ?”
किसी भी तरह.” युवती ने कहा.
बातचीत अभद्रता की चरम सीमा की ओर बढ़ती जा रही थी. युवती इससे थोड़ा स्तब्ध हुई पर पर वह विरोध प्रकट नहीं कर सकी. किसी भी खेल में आज़ादी की कमी छिपी रहती है; कोई भी खेल खिलाड़ियों के लिए फंदा साबित हो सकता है. अगर यह खेल नहीं होता और वे वाक़ई दो अजनबी रहे होते तो लिफ़्ट लेने वाली युवती काफ़ी पहले ही नाराज़ होकर चली गई होती. लेकिन इस खेल से कोई छुटकारा नहीं था. प्रतियोगिता ख़त्म होने से पहले कोई दल खेल का मैदान छोड़कर नहीं भाग सकता. शतरंज के मोहरे बिसात छोड़कर नहीं जा सकते — खेल के मैदान की सीमा तय होती है. युवती जानती थी कि खेल चाहे जो भी रूप ले, उसे वह स्वीकार करना होगा क्योंकि वह खेल का भाग था. वह जानती थी कि खेल जितना ज़्यादा चरम सीमा की ओर जाएगा, वह उतना ही मुश्किल होता जाएगा और उसे उस खेल को उतने ही ज़्यादा आज्ञाकारी ढंग से खेलना पड़ेगा. समझदारी की दुहाई देना और अपनी स्तब्ध आत्मा को चेतावनी देना कि वह खेल से अपनी दूरी बनाए रखे और इसे गंभीरता से न ले, व्यर्थ था. चूंकि यह केवल एक खेल था इसलिए उसकी आत्मा भयभीत नहीं थी. उसने खेल का विरोध नहीं किया और वह स्वपनीय ढंग से उसमें डूबती चली गई.
युवक ने बैरे को बुलाया और उसे पैसे दिए. फिर वह उठा और उसने युवती से कहा, हम जा रहे हैं.”
कहाँ जा रहे हो युवती ने बनावटी आश्चर्य से पूछा.
पूछो मत, केवल पीछे आओ.” युवक ने कहा.
यह मुझसे बात करने का कौन-सा तरीक़ा है?”
यह वह तरीक़ा है जिसमें मैं वेश्याओं से बात करता हूँ.” युवक ने कहा.

(10)
वे कम रोशनी वाली सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर गए. दूसरी मंजिल से थोड़ा पहले शौचालय के बाहर नशे में धुत्त् कुछ लोग खड़े थे. युवक ने युवती को पीछे से ऐसे पकड़ लिया कि युवती के उरोज उसके हाथ में थे. शौचालय के बाहर खड़े लोगों ने यह देखा और वे सीटी बजाने लगे. युवती ने युवक की पकड़ से छूटना चाहा, लेकिन युवक ने उसे डाँट दिया, सीधी रहो.” वहाँ खड़े लोगों ने अश्लील शब्दों से इसका स्वागत किया और युवती को बेहूदा नामों से पुकारा. फिर युवक और युवती दूसरी मंजिल पर पहुँच गए. युवक ने कमरे का दरवाज़ा खोला और बत्ती जलाई.
वह एक छोटा-सा कमरा था जिसमें दो बिस्तर, एक छोटी मेज़, एक कुर्सी और एक वाश-बेसिन था. युवक ने भीतर से दरवाज़ा बंद कर लिया और युवती की ओर मुड़ा. वह उसके सामने उद्धत मुद्रा में खड़ी थी और उसकी आँखों में ग़ुस्ताख़ कामुकता भरी थी. युवक ने युवती की ओर देखा और उसकी कामुक मुद्रा के पीछे उसकी जानी-पहचानी आकृतियाँ ढूँढ़ने की कोशिश की, जिनसे वह बहुत प्यार करता था. यह ऐसा था जैसे वह एक ही लेंस से दो प्रतिबिम्ब देख रहा हो, जैसे दो प्रतिबिम्ब एक के ऊपर एक चढ़ गए हों और पहला प्रतिबिम्ब दूसरे के भीतर से झाँक रहा हो. 

ये दो प्रतिबिम्ब, जो एक-दूसरे के भीतर से झाँक रहे थे, उसे बता रहे थे कि सब कुछ उसी युवती में था, कि उसकी आत्मा भयावह रूप से अव्यवस्थित थी, कि उसमें वफ़ादारी और विश्वासघात, बेईमानी और निष्कपटता, छिछोरा प्यार और शुचिता एक साथ मौजूद थे. उसे यह अव्यवस्थित घाल-मेल बेहद घृणित लगा, जैसे यह कूड़े-कचरे के ढेर पर पाई जाने वाली विविधता हो. दोनों प्रतिबिम्ब एक-दूसरे के भीतर से लगातार झाँक रहे थे और युवक समझ गया कि युवती दूसरी औरतों से केवल बाहर से ही अलग दिखती थी, लेकिन भीतर कहीं गहराई में वह बिल्कुल बाक़ी औरतों जैसी ही थी— हर प्रकार के विचारों, अनुभूतियों और बुराइयों से भरी हुई, जो युवक के सभी गुप्त संदेहों और ईर्ष्या के दौरों को जायज़ ठहराती थी. उसे लगा कि जिस युवती से वह प्यार करता था वह उसकी चाहत, उसकी सोच और उसके विश्वास की रचना थी. जो वास्तविक युवती अब उसके सामने खड़ी थी वह निराशाजनक रूप से अलग थी, निराशाजनक रूप से संदिग्ध थी. उसे युवती से नफ़रत होने लगी.
तुम अब किस चीज़ का इंतज़ार कर रही हो? कपड़े उतारो.” युवक ने कहा.
युवती ने झूठा प्यार जताते हुए अपना सिर झुकाया और बोली, “क्या यह ज़रूरी है ?”
युवती ने जिस लहजे में यह कहा वह उसे जाना-पहचाना लगा ; उसे लगा कि एक बार काफ़ी समय पहले किसी और औरत ने भी उससे यही कहा था, पर अब उसे याद नहीं आ रहा था कि वह कौन-सी औरत थी. उसे इच्छा हुई कि वह युवती को बेइज़्ज़त करे, उसे नीचा दिखाए. लिफ़्ट लेने वाली युवती को नहीं बल्कि अपनी प्रेमिका को. खेल जीवन से घुल-मिल गया. लिफ़्ट लेने वाली युवती का अपमान करना केवल अपनी प्रेमिका के अपमान करने का एक बहाना बन गया. युवक भूल गया था कि वह एक खेल खेल रहा था. उसे केवल अपने सामने खड़ी औरत से नफ़रत थी. उसने युवती को घूरकर देखा और अपने बटुए से पचास क्राउन निकाले. उसने इसे युवती को देने की पेशकश की.” क्या यह काफ़ी है?”
युवती ने पचास क्राउन ले लिए और कहा, क्या तुम नहीं सोचते कि मेरी क़ीमत इससे ज़्यादा
है ?”
युवक ने कहा, तुम्हारी क़ीमत इससे ज़्यादा नहीं.”
युवती युवक से चिपक कर लाड़ जताने लगी, “तुम मुझे ऐसे नहीं पा सकते. तुम्हें कोई दूसरा तरीक़ा अपनाना होगा. तुम्हें थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी.”
उसने अपनी बाँहें युवक के गिर्द डाल दीं और अपने होंठ उसकी ओर कर दिए. युवक ने अपनी उँगलियाँ उसके होंठों पर रख दीं और धीरे से उसे पीछे धकेल दिया. उसने कहा, “मैं केवल उन्हीं औरतों को चूमता हूँ जिनसे मैं प्यार करता हूँ.”
और तुम मुझसे प्यार नहीं करते?”
नहीं.”
तुम किससे प्यार करते हो?”
तुम्हें उससे क्या मतलब कपड़े उतारो.”

(11)
युवती ने कभी इस तरह से कपड़े नहीं उतारे थे. उसका संकोच, आंतरिक भय का भाव, चक्कर आ जाना, वह सब जो उसने युवक के सामने कपड़े उतारते हुए हमेशा महसूस किया था ( और वह अँधेरे में छिप भी नहीं सकती थी ), वह सब कुछ अब चला गया था. वह युवक के सामने आत्मविश्वास से भरी और उद्धत मुद्रा में खड़ी थी, और वह खुद हैरान थी कि अचानक ही उसने कहाँ से उत्तेजनात्मक ढंग से धीरे-धीरे कपड़े उतारने वाली नर्तकी की भाव-भंगिमाएँ ढूँढ़ ली थीं जिनसे वह अब से पहले परिचित नहीं थी. वह युवक की भरपूर निगाहों को ग्रहण कर रही थी और अपने एक-एक कपड़े को लाड़-प्यार भरी लय के साथ उतारती जा रही थी और अपने अनावरण के हर चरण का मज़ा ले रही थी.
लेकिन अचानक ही वह युवक के सामने पूरी तरह नग्न खड़ी थी और इस पल उसके दिमाग़ में कौंधा कि अब यह पूरा खेल यहीं ख़त्म हो जाएगा, और चूँकि उसने अपने सारे कपड़े उतार दिए थे, तो उसने अपनी भूमिका भी उतार फेंकी थी, और यह कि नग्न होने का मतलब यह था कि वह अपने वास्तविक स्वरूप में आ गई थी और युवक को उसके पास आना चाहिए था और ऐसा कोई इशारा करना चाहिए था जो बाक़ी सब कुछ को मिटा दे और जिसके बाद उनके बीच केवल प्रगाढ़ प्रेम हो. इसलिए युवती युवक के सामने नंगी खड़ी रही और इसी पल उसने खेल खेलना बंद कर दिया. वह उलझन महसूस कर रही थी और उसके चेहरे पर वह मुस्कराहट आ गई थी जो वाक़ई उसकी अपनी थी— एक शर्मीली और घबराई हुई मुस्कान.
लेकिन युवक उसके पास नहीं आया और उसने खेल खेलना बंद नहीं किया. उसने युवती की जानी-पहचानी मुस्कान की ओर कोई ध्यान नहीं दिया. वह अपने सामने केवल अपनी प्रेमिका का सुंदर, अजनबी शरीर देख रहा था जिस से उसे नफ़रत थी. घृणा ने उसकी कामुकता पर चढ़ी भावुकता की सभी परतें उतार दीं. युवती उसके पास आना चाहती थी, पर उसने कहा, तुम जहाँ हो, वहीं खड़ी रहो. मैं तुम्हें अच्छी तरह देखना चाहता हूँ.” युवक अब उसके साथ केवल एक वेश्या जैसा बर्ताव करना चाहता था. लेकिन युवक कभी किसी वेश्या के पास नहीं गया था और और उनके बारे में उसके जो विचार थे वे साहित्य और सुनी-सुनाई बातों पर आधारित थे. इसलिए उसने इन्हीं विचारों का सहारा लिया और पहली बात जो उसे याद आई, वह एक औरत की छवि थी जिसने काले अधोवस्त्र (और काले मोज़े) पहने हुए थे और वह एक पियानो की चमकदार सतह पर नृत्य कर रही थी. इस छोटे से होटल के कमरे में कोई पियानो नहीं था. यहाँ केवल दीवार से टिकी एक मेज़ थी जिसपर एक मेजपोश पड़ा था. युवक ने युवती को आदेश दिया कि वह इस मेज़ पर चढ़ जाए.
युवती ने एक अनुनयपूर्ण भंगिमा बनाई, पर युवक ने कहा, तुम्हें क़ीमत दी जा चुकी है.”
जब युवती ने युवक की आँखों में अटल आवेश देखा, तो उसने खेल जारी रखने की कोशिश की, हालाँकि वह ऐसा नहीं कर पा रही थी और यह नहीं जानती थी कि वह अब इस खेल को कैसे खेले. आँखों में आँसू लिए वह किसी तरह मेज़ पर चढ़ गई. मेज़ की ऊपरी सतह केवल तीन फ़ीट वर्ग की थी और उसकी एक टाँग बाक़ी टाँगों से कुछ छोटी थी जिससे युवती वहाँ बेहद अस्थिर महसूस कर रही थी.
लेकिन युवक ऊँचाई पर खड़ी युवती की नग्न आकृति देखकर प्रसन्न हुआ और युवती की लज्जाशील असुरक्षा ने केवल उसकी निरंकुशता को भड़काने का काम किया. अब युवक युवती के शरीर को हर कोण से और चारों ओर से देखना चाहता था, जैसा कि उसने कल्पना की कि अन्य लोगों ने उसे देखा था और उसे देखेंगे. वह बेहद अशिष्टता और लम्पटता से बर्ताव कर रहा था.
युवक ने ऐसे असभ्य शब्दों का प्रयोग किया जिन्हें युवती ने जीवन में कभी उसके मुँह से नहीं सुना था. वह इनकार करना चाहती थी, वह इस खेल से छुटकारा पाना चाहती थी. युवती ने युवक को उसके पहले नाम से पुकारा, पर युवक ने फ़ौरन उसे डाँट दिया कि उसे युवक को उसके निजी नाम से संबोधित करने का कोई अधिकार नहीं था और इसलिए अंत में घबराहट में और रुआँसा होकर उसने युवक के आदेश का पालन किया. वह आगे झुकी और युवक की इच्छा के मुताबिक़ पाल्थी मारकर बैठ गयी, फिर उसे सलाम किया और फिर उसने अपने कूल्हों को सिकोड़ा, और तब उसने युवक के लिए अंग मरोड़कर नृत्य किया. ज़्यादा तेज़ी से नाचने के दौरान अचानक उसके पैरों के नीचे पड़ा मेजपोश फिसल गया और वह लगभग गिर गई थी जब युवक ने उसे बीच में थामकर बिस्तर में घसीट लिया. फिर उसने युवती के साथ सम्भोग किया. वह ख़ुश हुई कि कम-से-कम अब तो अंतत: यह खेल ख़त्म हो जाएगा और वे पहले की तरह प्रेमी-प्रेमिका बन जाएँगे और एक-दूसरे से प्यार करेंगे. वह अपने होठ युवक के होठों पर रखकर दबाना चाहती थी, लेकिन युवक ने उसका सिर पीछे धकेल दिया और यह बात दोहराई कि वह केवल उन्हीं औरतों को चूमता है जिनसे वह प्यार करता है. अब वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी. लेकिन वह ज़्यादा रो भी नहीं सकी, क्योंकि युवक की उग्र कामवासना ने अंत में उसके शरीर पर जीत हासिल कर ली, जिसने फिर उसकी आत्मा की शिकायत को शांत कर दिया. जल्दी ही बिस्तर पर दो शरीर पूरे सामंजस्य के साथ देखे जा सकते थे, दो कामुक शरीर जो एक-दूसरे के लिए अजनबी थे. ठीक यही चीज़ थी जिससे युवती जीवन भर सबसे ज़्यादा डरती रही थी और जिससे वह बेहद सावधानी से अब तक कतराती रही थी— बिना किसी भावना या प्रेम के किया जाने वाला सम्भोग. वह जान गई कि उसने वर्जित सीमा पार कर ली थी, पर वह बिना किसी आपत्ति के और पूरे भागीदार के रूप में उस सीमा के पार बढ़ती चली गई. केवल दूर कहीं, चेतना के किसी कोने में उसने इस विचार से भय महसूस किया कि उसने कभी भी इतने आनंद का अनुभव नहीं किया था या उसे कभी भी इतना मज़ा नहीं आया था जितना इस पल आ रहा था— उस सीमा से परे.



(12)
और फिर सब कुछ ख़त्म हो गया. युवक युवती के ऊपर से हटकर उठ खड़ा हुआ और कमरे की बत्ती बुझा कर वह वापस लेट गया. वह युवती का चेहरा नहीं देखना चाहता था. वह जानता था कि खेल अब ख़त्म हो चुका था, लेकिन उनके पहले जैसे आपसी रिश्ते की ओर लौटने का उसका मन नहीं हुआ. वह उस ओर लौटने से डर रहा था. वह अँधेरे में बिस्तर पर युवती के बग़ल में ऐसे पड़ा रहा कि उनके शरीर आपस में एक-दूसरे को छू भी न पाएँ.
एक पल के बाद उसने युवती का धीरे-धीरे सुबकना सुना. युवती का संकोच से भरा बच्चे जैसा हाथ उसे धीरे से छू गया. युवती के हाथ ने उसे छुआ, फिर पीछे हट गया, और फिर दोबारा उसे छुआ, और फिर एक अनुनयपूर्ण सिसकी भरे स्वर ने चुप्पी तोड़ी और युवक को उसके नाम से पुकारा और कहा, मैं मैं हूँ, मैं मैं हूँ, मैं मैं हूँ ....”
युवक चुप था. वह बिल्कुल नहीं हिला और उसे युवती के कथन के उदास ख़ालीपन का बोध था, जिसमें अज्ञात की परिभाषा उसी अज्ञात मात्रा में दी गई थी.
और जल्दी ही युवती सिसकी लेने की बजाए ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी और वह यह करुणाजनक पुनरुक्ति दोहराती चली गई, मैं मैं हूँ, मैं मैं हूँ, मैं मैं हूँ ....”
अब युवक को करुणा का सहारा लेना पड़ा (और उसे इस भावना को जगाने के लिए बहुत कोशिश करनी पड़ी, क्योंकि इसे जगाना आसान नहीं था) ताकि वह युवती को शांत कर सके. अभी उन दोनों को तेरह दिनों की छुट्टियाँ और साथ बितानी थीं.
__________________________________

सुशांत सुप्रिय

A-5001, गौड़ ग्रीन सिटी,वैभव खंड,
इंदिरापुरम्, ग़ाज़ियाबाद - 201014
(उ. प्र.)
मो : 8512070086/ ई-मेल : sushant1968@gmail.com

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  1. लीलाधर मंडलोई26 जून 2020, 11:28:00 am

    अनुवाद में मूल के गहरे अक़्स भी हैं कथा बर्ताव की सूक्ष्मताएं भी।
    सुशांत.को बधाई।

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  2. इसका अनुवाद निर्मल ने भी किया है -- खेल खेल में, शायद।

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  3. हरि मृदुल26 जून 2020, 11:31:00 am

    सुशांत का काम निरंतरता में और गजब का है। बधाई सुशांत को। आपको भी हम तक पहुंचाने के लिए।

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  4. सन्तोष दीक्षित26 जून 2020, 11:33:00 am

    यह कहानी काफी पोपुलर हुई। हिन्दी में केवल लोकप्रियता को तरजीह दी जाती है ! वैसे कुंदेरा के इस संग्रह में द एडवर्ड एण्ड गाॅड शीर्षक से एक कहानी है जो मुझे व्यक्तिगत तौर पर काफ़ी पसंद है। अगर सुशांत जी इसका अनुवाद कर सकें तो एक बेहतरीन रचना सामने आयेगी।

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  5. चंदन पाण्डेय26 जून 2020, 11:35:00 am

    मैं एक पीड़ित ईश्वर तो शायद उसी का अनुवाद है। शायद।
    निर्मल वर्मा का ही अनुवाद है, शायद. शायद इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि किताब बनारस में हैं और मैं शान्तिनिकेतन में. अनुमान से कह रहा हूँ. वैसे कुंदेरा की दो बेहतरीन कहानियों का अनुवाद भी हिन्दी में है, आपने देखा ही होगा. let old dead make room for new dead. तथा The Golden Apple of Eternal Desire.

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  6. सुशांत जी को इस कहानी के सुंदर अनुवाद के लिए बधाई।

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  7. इस कहानी ने मुझे हतप्रभ कर दिया है । कहानी में जो सूक्ष्म व्योरे और अनुभव आते है वे कुंदेरा की कहानी कला की याद दिलाते है ।
    सुशांत कहानी के अनुवाद में रम जाते हैं । इतना स्वाभाविक अनुवाद इसी लिए सम्भव हो पाता है ।

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  8. ज़्यादातर टिप्पणियां अनुवादक के अनुवाद पर हैं। अनुवाद अच्छा है और अनुवाद के माध्यम से ही कहानी हम तक पहुंची है इसलिए अनुवाद और अनुवादक की प्रशंसा अवश्य होनी चाहिए। चर्चा इस पर भी होनी चाहिए कि यह लातीनी कहानी हिंद या हिंदी के पाठक को क्या देती है जिनके लिए इसमें एक अलग आस्वाद, शिक्षा और सूचनाएं हैं। कहानी मजे हुए विश्व-प्रसिद्ध कथाकार की है, सो,अच्छी तरह से लिखी गयी रोचक तो होगी ही जो वह है। खेल भी दिमाग़ पर किस क़दर हावी हो जाता है और दिमाग़ को वास्तविक संदेहों की ओर मोड़कर संबंधों को विकृति का दंश और दर्द दे जाता है, कहानी में मांसल वर्णनों के बीच मनोभावों का सुंदर चित्रण हुआ है।

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  9. इतनी सुंदर अर्थपूर्ण और चमत्कृत कर देने वाली कहानी के अनुवाद के लिए सुशांत सुप्रिय का धन्यवाद। बन्दी काल मे इसे उपलब्ध कराने के लिए अरुण देव भाई का विशेष आभार।
    यह कहानी यथार्थ और काल्पनिकता ,सच और झूठ ,दृश्य और अदृश्य ,वास्तव और मनोगत आदि द्वैतों की साझा जमीन पर लिखी गयी है ।
    भीतर का तरल समय और बाहर का जादुई यथार्थ यहां अलग अलग नहीं। यह कहानी वास्तव में भी है। स्वप्न में भी ।घटित में भी कल्पना में भी ।
    यह कहानी इस बात को दर्ज करती है कि इस समय ठोस, सच या हकीकत जैसे एकायामी शब्द कितने अर्थहीन हो चुके हैं। दर-हकीकत हमें कई विपरीत से लगते मोर्चों पर एकसाथ जीना होता है। जीवन का नया अर्थ खोलती कहानी।

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  10. अच्छी कहानी है। अनुवाद भी अच्छा है। मुझे इसमें त्रासदी जैसा कुछ नहीं लगा। अधिकतर लोग प्रेम और सम्भोग को जोड़कर देखना पसन्द करते हैं, खासतौर पर महिलाएँ, हालाँकि सभी महिलाएँ नहीं। लेकिन यह बात सही है कि प्रेम सम्बंध में भी इन दोनों को अलग कर देने से सम्भोग ज़्यादा रुचिकर और मज़ेदार हो जाता है। सम्भोग एक ऐसी चीज़ है जो जितना ज़्यादा स्वच्छन्द हो उतना ही ज़्यादा अच्छा लगता है। प्रेम उसे सम्भव करता है लेकिन अक्सर उसके आनंद को उसकी चरम सीमा तक पहुँचने से रोकता है, यानि उसमें ख़लल डालता है। इसलिए प्रेमी जोड़ों के बीच भी यदि वह प्रेम से अलग होकर स्वच्छन्द रूप ले सके तो ज़्यादा अच्छा। मुझे लगता है कि यह भी एक चीज़ है जिसे कुंदेरा इस कहानी में दर्शाना चाहते थे। मेरा ख़्याल है कि कहानी में जो खेल है वह केवल लिफ़्ट लेने का ही खेल नहीं है, बल्कि जो मैंने इंगित किया है वह भी उस खेल का हिस्सा है। नायिका को इस बार वाले सम्भोग में ज़्यादा मज़ा आया, बस उसे इस बात को स्वीकार करने में समय लग रहा है। जैसे उसे यह बात भी स्वीकार करने में समय लग रहा है कि ख़ुद उसका और उसके प्रेमी का एक और रूप भी है।

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  11. मंजुला बिष्ट26 जून 2020, 9:14:00 pm

    कहानी में पात्रों के भीतर चल रहे अंतर्द्वंद को बहुत ही खुबसूरती से चित्रित किया है।कहन शैली प्रभावित करती है।
    कहानीकार ने जितनी नजदीकी से पात्रों को मनोवैज्ञानिक रूप से पढ़ा है ,अनुवाद उतना ही यथार्थपरक व सहज लग रहा है।

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  12. ग़ज़ब की कहानी है. बहुत अच्छा अनुवाद है इसका. मिलान कुंदेरा की दूसरी कहानियाँ भी अगर संभव हो तो पढ़वाएं. आभार.

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