प्रमोद पाठक की कुछ नई कविताएँ



प्रमोद जयपुर में रहते हैं. वे बच्चों के लिए भी लि‍खते हैं. उनकी लि‍खी बच्‍चों की कहानियों की कुछ किताबें बच्‍चों के लिए काम करने वाली गैर लाभकारी संस्‍था 'रूम टू रीडद्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं. वे बच्चों के साथ रचनात्मकता और शिक्षकों के साथ पैडागोजी पर कार्यशालाएँ भी करते हैं. फ्रीलांसर हैं.

प्रमोद पाठक संयम और सौन्दर्य के कवि हैं. इन कविताओं का स्वर मंद्र है मनुष्यता की सुगंध से भीगा हुआ. प्रमोद ने कुछ याद रह जाने वाली प्रेम कविताएँ लिखीं हैं.








प्रमोद पाठक की कुछ नई कविताएँ                           


  

आज जब हम संकट से घिरे हैं

पेड़ पहाड़ों की मुस्‍कुराहट हैं
नदियाँ समन्‍दर की प्रेमिकाएँ
हम नदियों के रास्‍तों में आए
पहाड़ो से छीन ली मुस्‍कान
तितलियों ने बस फूलों को चुना
वे खुद को भी उड़ता हुआ फूल ही समझती हैं
मगर वे अक्‍सर हमारी अधूरी हसरत रहीं 
नहीं मिलने पर कुचल दी गईं

कुत्‍तों ने आधी रोटी के बदले हमें दोस्‍त समझा
और कभी पलट कर नहीं पूछा कि हम उन्‍हें क्‍या समझते हैं
बिल्लियाँ आती रहीं दबे पाँव हाल-चाल जानने
हमने उनके मुँह पर दरवाजे खिड़कियाँ बंद किए
 
आज जब हम संकट से घिरे हैं
पहाड़ नदियाँ फूल तितलियाँ सब चले आए हैं अपनों की तरह हमारे नजदीक
कुत्‍ते मुँह उठाकर आसमान से प्रार्थना कर रहे हैं
बिल्लियों ने भूला दिए हैं अपने सारे अपमान




सुनने के लिए एक सपना चाहिए

रंगों की अपनी आवाज़ होती है 
वह आवाज़ कानों तक नहीं सपनों तक पहुँचती है
धरती के पास इतने रंग हैं
पक्षियों के पशुओं के मछलियों के कीट पतंगों के
समंदर मरुस्थल पहाड़ों के 
नदियों मैदानों के 
फ़सलों के जंगलों के 
धरती को सुनने के लिए हमें एक विशाल सपना चाहिए



चीख

सुनो! बचा लो
बचा सको तो बचा लो
सब पर बाढ़ की तरह
फिर रहा है समय
अरे! कोई तो सुनो !
गर्दन से ऊपर तक
चढ़ आया है यह
कहीं तो कोई
हाथ बढ़ाओ

मेरी दीवार से
अंडे ले
गुजर रही चींटियो
कोई और नहीं
तो तुम ही सुनो
मैं कितनी धीमी
आवाज में पुकारूँ
कि सुन सकें तुम्हारे अदृश्‍य कान
मेरी चीख
मुझे भी
सुरक्षित कर दो
अपने अंडों की तरह

  

मुझे याद करना 

जब सब खत्‍म हो रहा हो  
और सबसे निरुपाय महसूस करो 
मुझे याद करना 
मैं तुम्‍हारी हथेली पर मोती बन आ बैठूँगा 
जिसे तुम अपनी आँखों के कोरों पर लगा लेना 
फिर कलेजे तक उसकी ठंडक महसूस होने लगेगी  

भरी दुपहरी 
जब बुक्‍का फाड़ कर रोने को जी चाहे 
और गला रुँधा हो 
मुझे याद करना 
तुम्‍हारे कंधे पर एक मानवीय रूई की गर्माहट 
महसूस होगी 
जिसके कोयों को तुम गर्मी की लू में उड़ा देना 
वे शाम तक आसमान में बादलों की शक्‍ल ले बरसने लगेंगे 

जब आस-पास बहुत भीड़ हो 
फिर भी इस दुनिया में सबसे अकेला महसूस हो रहा हो 
मुझे याद करना 
तुम्‍हें आसमान का सबसे दूर का सितारा भी अपने दिल जितना करीब महसूस होने लगेगा
और उसकी चमक से तुम्‍हारा मन रोशनी सा दमकने लगेगा 



धरती माँ की तरह आती है सपनों में 

पीछे से आकर आँखों पर हाथ रख दूँगा  
और खिंचे चले आएँगे तुम्‍हारे सब दुख
फिर उन्‍हें छोड़ आऊँगा पेड़ों के पत्‍तों पर 
जहाँ ओस बनकर टपकते रहेंगे भोर तक 
इस तरह धरती तक पहुँच सकेंगे तुम्‍हारे दुख 

जब चीजें मनुष्‍य के वश के बाहर हो जाती हैं 
तब धरती की जरूरत पड़ती है उसे 
और धरती अपनी उदात्‍तता में माँ की तरह आती है सपनों में 
अपनी सारी बाहें फैलाए  


ताल

एक ताल था
जो घोंघे की तरह पीठ पर 
अपना जल लिए चलता था
लोग जिसे गहराई समझते थे
वह दरअसल उसकी पीठ पर बने वे गड्ढे थे
किसी वक़्त जहाँ रोशनी ने चूम लिया था
अब वह उसकी याद बनकर
वहाँ परछाई सी चमकती है
किसी ताल के पानी में
बनती लहर को देखो
तो पाओगे
दुनिया का कोई भी ताल 
चाहे वह समंदर ही क्यों न हो
दरअसल एक बड़ा घोंघा ही है 
जो अपनी स्थिरता में गति करता है


वो रंग

होली की रात
चाँद उतरा
ऐन बाखर के नीम के पार
फिर लटक कर झूला
उसकी सबसे ऊँची डाल से
पास ही एक मोर बैठा था
बहुत शर्माया सा
बहुत से रंग लेकर आया साथ
चाँद कुछ मूड में था

रंगों के उस खेल में
फिर खूब रँगा मोर को
मोर ने फिर चाँद को
उस दिन ऐसी यारी हुई
कि मोर ने बनवा लिए चाँद अपने पंखों पर
और चाँद ने गुदवा लिया मोर
अपने ही गाल पर

वो रंग ऐसा चढ़ा कि
अब छूटता नहीं
हर पूनम को याद कर होली
चाँद निकल पड़ता है नहाने समंदर की ओर
और मल मलकर ऐसा नहाना शुरू करता है
कि खुद ही घिसता जाता है
और बारिशों में हर बादल को देख
मोर पुकार पुकार कर कहता है
मेह आओ मेह आओ
मेरा रंग छुड़ाओ
मगर वो रंग है कि
अब छूटता ही नहीं



दोस्तियाँ और रिश्ते जो हमने चुने

ये उष्ण स्पर्श, आलिंगन और चुम्बन
हमने गढ़े हैं लुहार बनकर गर्म लोहे की तरह
ये उत्सव से रतजगे और उनकी टूटने की हद तक की भावुकता
हमने सजाए हैं अपने लिए
ये मनुष्यता और सुन्दरता से छलकते दोस्तियों और रिश्तों के जाम
किसी कोख से जन्म लेने के कारण नहीं बने
इन्हें हमने ही तैयार किया है अपने पीकर मदहोश हो जाने के लिए
रुखसत होते वक्त हम ही छोड़ आते हैं अपने अपने दिल दोस्तों के कन्धों पर
और लटका लाते हैं उनके अपने साथ अमलतास के पीले गुच्छे बनाकर
अपने टूटकर गिर जाने के लिए
सितारों की तरह खुद ही चुना है रात का आसमान

अब इनसे बचकर जाएँ भी तो क्यों जब इतना सब कुछ है य‍हा



समंदर के सपनों में चाँद

इतनी दूर से चलकर आई हो
मेरी नींद में

आओ बैठो
छुअन के इस गुलमोहर के नीचे
तुम्हारे लिए सपनों की दरी बिछाई है
जूड़े की पिन ढीली करो
और जरा आराम से बैठो

ऐसा लग रहा है
जैसे आज समंदर के सपनों में
चाँद उससे मिलने आया है



दृश्‍य

धीमे धीमे बहती हवा
कुर्ते में एक लहर बना रही है
उस काई रंग के कुर्ते में
वो एक सरोवर लग रही है

वह देखो पास ही खड़ा कोई
जामुन के पेड़ सा उस पर झुका जाता है

उनके बदन के हरे बाँसों से
एक अद्भुत चमक उठ रही है
जिससे यह जगह
जंगल की तरह रोशन हो गई है



तुम मुझ पर झुको गुलमोहर बनकर

तुम बैठो कुर्सी पर आराम से टेक लगाकर
मैं बैठूँ पैरों के पास
और अपना सिर तुम्‍हारे घुटनों पर रख लूँ

तुम्‍हारे घुटने जिस रोशनी से चमकते हैं
मैं उस तिलिस्‍म को चूम लूँ
मैं उन पाँवों को चूम लूँ
जिन पर तुम्‍हारी यह प्‍यारी ताम्‍बई देह थमी है

लाख के लाल कनफूल और हरा कुर्ता पहने
तुम मुझ पर झुको गुलमोहर बनकर
और मैं एक बच्‍चे की तरह उचक कर तुम्‍हारे फूलों को चूम लूँ

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कलाकार, कवि, गद्यकार सीरज सक्सेना (३० जनवरी १९७४, मध्य-प्रदेश) सिरेमिक, वस्त्र, पेंटिंग, लकड़ी और ग्राफिक कला जैसे विभिन्न माध्यमों में २२ वर्षों से सक्रिय हैं. उन्होंने इंदौर स्कूल ऑफ आर्ट्स से कला की औपचारिक शिक्षा प्राप्त की है. अभी तक उन्होंने भारत और विदेशों में 26 एकल प्रदर्शनियों और 180 से अधिक समूह प्रदर्शनियों में भाग लिया है. उन्होंने देश विदेश में कई स्थानों पर आर्ट इंस्टालेशन किये हैं इनमें साई, पीटीआई, राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय नई दिल्ली और अर्बोटेम बॉटनिकल गार्डन पोलैंड शामिल हैं. पिछले सात सालों से वन वेलनेस रिट्रीट, देहरादून से एक कलाकार के रूप में जुड़े हुए हैं. उन्होंने वन के लिए 300 से अधिक कलाकृतियां बनायी हैं. आकाश एक ताल है, सिमट सिमट जल और कला की जगहें उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं.
समालोचन का लोगो भी सीरज सक्सेना द्वारा ही बनाया गया है. 
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pathak.pramod@gmail.com

siirajsaxena@gmail.com 

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  1. बहुत सुन्दर कविताएँ हैं।

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  2. बेहद प्यारी कविताएं है दिल को छूती।🍁

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  3. सुंदर शब्दों की बुनावट, प्रासंगिक कविताएं। चीख कविता में एक अदृश्य बेचैनी और छटपटाहट । पढ़कर अच्छा लगा।

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  4. एक से बढ़कर एक, मनको छू लेने वाली सुंदर कविताएं।

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  5. राकेश श्रीमाल26 मई 2020, 2:15:00 pm

    आभासीय पटल पर पुनः स्वागत अरुण जी। यह प्रयोग अच्छा है। एक कवि और एक चित्रकार। इसे जारी रखना, पाठकों की कला-अभिरुचि पल्लवित करने में सहायक होगा। आप जैसा नवाचारी ही यह कर सकता है।

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  6. वाज़दा खान26 मई 2020, 5:56:00 pm

    आपको पुनः सक्रिय देख कर अच्छा लग रहा है अरुणजी बहुत शुभकामनाएं ।। जितनी बेहतरीन कविताएं हैं उतने ही उम्दा रेखांकन हैं।।।

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  7. अरुण जी, यह कविताओं और रेखांकनों की शानदार जुगलबंदी है। आपका शीघ्र पुनः सक्रिय होना सुखद है। बहुत बहुत शुभकामनाएँ।

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  8. प्रदीप सैनी27 मई 2020, 8:08:00 am

    क्या खूब कविताएँ हैं। इतने विसुअल इफेक्ट्स से भरी हुई कविताएँ कि एक बार ऐसा आभास देती हैं कि आप शार्ट फिल्म्स देख रहे हैं। एक कविता का शीर्षक ही दृश्य है और क्या खूब दृश्य है

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  9. आप सभी का और समालोचन का बहुत शुक्रिया और आभार।

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  10. बेनामी27 मई 2020, 3:23:00 pm

    क्षमा करें
    कविता और गद्य में कोई अंतर ही नहीं है। केवल कवि ही आजकल कवि की कविता समझता है। पाठक इसलिए क्या गद्यबद्ध हिन्दी कविता से दूर हो गया है?

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