परख : आईनासाज़ (अनामिका) : अर्पण कुमार















वरिष्ठ लेखिका अनामिका का उपन्यास 'आईनासाज़'  इस वर्ष राजकमल प्रकाशन से छप कर आया है. इसको देख-परख रहें हैं अर्पण कुमार.






आईनासाज़ का आईना                                    
अर्पण कुमार




वयित्री और गद्यकार अनामिका के उपन्यास-लेखन की कड़ी में उनका नवीनतम उपन्यास ‘आईनासाज़’ आया है. उनकी कविताओं, कहानियों और उपन्यासों में स्वभावतः स्त्री-स्वभाव के कई प्रामाणिक और आत्मपरक रंग देखने को मिलते हैं, जिसके पीछे की संवेदनशीलता से सहज ही पाठकों का ‘साधारणीकरण’ होता चला जाता है. ‘स्त्री-विमर्श’ का स्वर उनकी रचनाओं में कहीं स्पष्ट और बोल्ड होता है तो कहीं पंक्तियों के बीच (between the lines) उन्हें समझना होता है. स्त्री, उनकी रचनाओं में केंद्रीय स्थान रखती है. यह उनके नवीनतम उपन्यास ‘आईनासाज़’ पर भी लागू है. वैसे भी, जीवन की कोई सच्ची और दुनियावी कथा स्त्रियों को शामिल किए बगैर नहीं कही जा सकती.

‘आईनासाज़’ में अनामिका ने बड़ी ही सरल और प्रवहमान मगर काव्यात्मकता,  अनुभवजन्यता और दार्शनिकता से संपृक्त भाषा में कथा का नैरेटिव प्रस्तुत किया है. उनके कथा-कविता जगत में अक्सरहाँ स्मृतियाँ बहुत सघनता और अपनापे से प्रस्तुत होती हैं. ऐसा लगता है, जैसे, वे उन्हें सालों-साल सँभालती, बचाती चलती आई हों और उन्हें धीरे-धीरे बड़े जतन से लोगों के समक्ष खोलती चलती हों. ऐसी स्मृतियों की सघनता हमें उनके इस उपन्यास में भी देखने को मिलती है. एक लड़की या कहें छोटी बच्ची के चोरी-छिपे, मुँह में देर तक दबाकर रखे गए लेमनचूस के खाने से कथा की शुरुआत होती है.

ग्रैंड कैनियन की भौगोलिक, प्राकृतिक सुंदरता के वर्णन से उपन्यास में वर्तमान का आगमन होता है. पात्र क्रमशः पन्नों पर उतरते चले आते हैं और हमारा उनसे परिचय होता चला जाता है. सूत्रधार कथा-वाचिका सपना है. उसके कुछ निकट के दोस्त हैं. सिद्धू उर्फ मानस की और उसकी पत्नी महिमा. उन दोनों की बेटी रम्या है. रम्या गूँगी है. उससे महिमा स्वयं काफ़ी उदास रहने लगी है. मानस, कथा-वाचिका सपना से न सिर्फ़ अपने परिवार की बल्कि मध्य एशिया की समस्या पर और अमेरिका के प्राकृतिक सौंदर्य पर भी चर्चा करता है. वह कभी वह कैलीफोर्निया से कथा-वाचिका को वहाँ के चित्र भेजता है और वहाँ की जगहों के बारे में बताता है. इधर, डॉ. नफीस हैदर, सपना के पति हैं और वे पेशे से डॉक्टर हैं. वे अपनी पत्नी सहित अपनी पुश्तैनी हवेली में पहली मंज़िल पर रहते हैं. उसी हवेली में नीचे, उनकी क्लिनिक है और परित्यक्त समूहों से आए बच्चों का आवासीय विद्यालय भी. इस विद्यालय को नफीस के अब्बा ने खोला था.   

यह उपन्यास कई खंडों में विभाजित है. 'चल खुसरो घर आपने', 'अथ खुसरो कथा', 'सिद्धू उर्फ मानस' आदि. जैसा कि ऊपर बताया गया, यह पूरा उपन्यास सपना के मुख से कहलाया गया है. इसमें बहुत सारे पात्र हैं, जिनमें से अधिकांश के साथ लेखिका द्वारा पूरा निर्वहन किया गया है. सपना के जीवन के संघर्ष को क्रमवार बहुत रोचक तरीके से ठहर-ठहर कर चित्रित किया गया है. 

सपना के पिता की कश्मीर में एक बम-विस्फोट में मौत, बिहार और दिल्ली में उसका यौन-शोषण उसका ड्रग का शिकार होना, सूफ़ी गायक सिद्धू द्वारा उसे इस नशे से मुक्ति दिलाने का प्रयास करना, उसकी नफ़ीस हैदर से शादी का होना - ये तमाम प्रसंग उपन्यास में कुशलतापूर्वक उकेरे गए हैं. स्पष्ट है कि उपन्यास की कथा वाचिका सपना अपने जीवन में तमाम तरह के अच्छे-बुरे रंगों को देख चुकी है. अतः उसके वर्णन (नैरेटिव्स) में सहज ही एक आत्म-दग्धता और उससे व्युत्पन्न दार्शनिकता दिखती है. यहीं पर एक पुस्तक का ज़िक्र आता है, जो कैसे सपना के युवा मन को संस्कारित करता है, उसे दृष्टि और सोच की उदारता देता है. वह पुस्तक एक उपन्यासिका है, जिसे ललिता चतुर्वेदी के पिता ने लिखा है. सपना बताती है,  'यह पूर्वाग्रह तोड़ने में इस छोटी-सी उपन्यासिका का हाथ भी है, जो एम.ए. में हिंदी माध्यम के छात्रों को ग़ुलाम वंश और उसके बाद का इतिहास पढ़ाने वाली मेरी शिक्षक ललिता चतुर्वेदी ने यह कहकर हमें पढ़वाया था कि इससे उस समय का जन जीवन और बाद का सूफ़ी मानस समझने में हमको मदद मिलेगी.'

कश्मीर के आंतकी हमले में अपने पिता को खो बैठी सपना के लिए किसी धर्म-विशेष के प्रति किसी आक्रोश को स्थायी रूप से घर न करने देने की कोशिश में ललिता चतुर्वेदी ने संभवतः ऐसा किया हो, इसका ज़िक्र सपना स्वयं भी करती है. ललिता, सपना को एक लंबा पत्र लिखती है, जिसके साथ वे उस उपन्यासिका की छाया प्रति भी उसके लिए भिजवाती हैं. साथ ही, मुजफ्फरपुर से दिल्ली तक की अपनी यात्रा का भी ज़िक्र करती चलती हैं.

इस उपन्यास की भाषा प्रभावित करती है. यहाँ बाँग्ला, अँग्रेजी सहित हिंदी की बोलियों के कई शब्द भी आए हैं, जिनसे उपन्यास का भाषिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक कलेवर काफ़ी खिल गया है. पृष्ठभूमि में अमीर ख़ुसरो की कहानी है, जिनके साथ इस उपन्यास के कई पात्र अपनी एकमेवता महसूस करते हैं और अमीर की जीवन-दृष्टि कहीं-न-कहीं उन्हें अपनी जीवन-दृष्टि भी लगती है. कविता करने वाली और सपना से स्नेह रखनेवाली उसकी शिक्षिका ललिता, अपने को उसी सूफ़ी परंपरा से जोड़ कर देखती हैं. साथ हँसने-रोने की यह साझा संस्कृति, इस उपन्यास के कई पात्रों में हमें दिखती हैं. मसलन, सपना और ललिता में भी. एक तरफ़ कथा-वाचिका सपना है जिसका जीवन गरीबी और नशा के बीच गुज़रा है, जहाँ उसका दैहिक शोषण भी ख़ूब हुआ. दूसरी तरफ़, प्राध्यापिका ललिता के सफल और ख़ुशहाल जीवन के अंदर झाँककर उनके घर में उनकी हैसियत की भी निर्मम पड़ताल की गई है. एक पढ़ी-लिखी, चेतना-संपन्न और आर्थिक स्तर पर आत्मनिर्भर स्त्री की आज भी हमारे समाज में वह वांछित स्थान नहीं मिल पाया है, जिसकी वे हक़दार हैं. ऐसे में जो अशिक्षित और लोगों की नज़र में अनार्जक स्त्रियों के साथ उनके घरों में क्या-क्या हो सकता है, इसका अंदाज़ लगाया जा सकता है.

लेखिका ने ललिता के घर के अंदरूनी वातावरण को उपस्थित कर हमारा ध्यान उसी ओर खींचने का प्रयास किया है.  इस उपन्यास में वैवाहिक जोड़ों में कई अंतरजातीय, अंतरधार्मिक विमर्श भी स्वयं उपस्थित हो गया है. सपना की शादी नफ़ीस हैदर से होती है, वहीं सिक्ख परिवार से ताल्लुक रखनेवाले सिद्धू उर्फ मानस की शादी, बाँग्ला पृष्ठभूमि से आई महिमा से होती है. बाँग्ला पृष्ठभूमि के हिसाब से मानस के ढलने और एक नई संस्कृति के साथ उसके तादात्म्य की प्रक्रिया को  भी दिखाया गया है, जहाँ बदलते समय में पुरुषों के भीतर होनेवाले ऐसे बदलावों को पूरी सकारात्मकता में देखने की ज़रूरत है. स्पष्ट है कि यह पूरी कथा, आधुनिक पीढ़ी के माध्यम से कही गई है, जो अपने तईं कहीं अधिक उदार, ग्लोबल और समावेशी है. दोस्तों के लिए कुछ ठोस करने के कई प्रेरक प्रसंग भी यहाँ देखने को मिलते हैं. सपना ने ‘इप्टा’ के नामी-गिरामी नाट्य-निर्देशक रहे अपने ससुर के माध्यम से इप्टा के उतार-चढ़ाव की यात्रा को भी दिखाया है. कई सांस्कृतिक-साहित्यिक गतिविधियों की उनकी प्रासंगिकता को बनाए रखने की ऐसी कई चुनौतियों का भी यहाँ उचित ही संकेत किया गया है. इससे वर्ण्य युग का परिवेश, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर अपनी पूरी सघनता के साथ उभर कर आ पाता है.  

समकालीन कथा के अतिरिक्त यहाँ एक मध्यकालीन कथा है, जिसके लिए यह उपन्यास रचित किया गया और जो उपन्यास के केंद्र में है. वह चरित्र बहुकला प्रवीण अमीर खुसरों का है. यह उपन्यासकार की दक्षता है कि यहाँ अमीर ख़ुसरो की कथा को बड़े सधे अंदाज़ से आज की वर्तमान पीढ़ी के साथ जोड़ दी गई है. इसके लिए लेखिका ने प्रस्तुत उपन्यास के आरंभ में वहाँ तक आने के लिए कई प्रसंग जोड़े हैं, जिसमें वर्षों पुरानी उपन्यासिका पर शोध करने के बहाने उसके महत्व को रेखांकित किया गया है. दूसरे, यहाँ जो कई पात्र हैं, उनके भीतर भी क्रमशः अमीर ख़ुसरो के प्रति एक उत्सुकता और रुचि पैदा होती है. इस तरह, यहाँ पूरी उपन्यासिका की कथा को तो रखा ही गया है, दूसरे उसके साथ जुड़ी आधुनिक पीढी के विभिन्न संघर्षों और युगीन चुनौतियों से निपटने की उनकी कहानियों को यहाँ साथ-साथ प्रस्तुत किया गया है. दो अलग-अलग युगों की ब्लेंडिंग करना आसान नहीं था, मगर लेखिका द्वारा यह समायोजन भली-भाँति किया गया है. दोनों युगों की भाषा-प्रकृतियों का भी विशेष ध्यान रखा गया है. इसलिए, यहाँ भाषा और उससे निर्वहन के स्तर पर हम दो भिन्न दुनियाओं के रंग देख पाते हैं. साथ ही, आधुनिक समय में स्वभावतः अलग-अलग पीढ़ी के पात्र हैं, अतः उस पीढ़ी-अंतराल को भी हम यहाँ प्रकटतः देख/ समझ पाते हैं. इस उपन्यास पर अगर चर्चा करनी होगी तो इसपर दो स्तरों पर चर्चा करनी होगी. पहला अमीर खुसरो केंद्रित उपन्यासिका पर और दूसरा वर्तमान पीढ़ी पर.

चूँकि अमीर ख़ुसरो स्वयं एक कवि और संगीतज्ञ हैं, अतः इस उपन्यासिका में अमीर ख़ुसरो के लेखक-निर्माण की प्रक्रिया को भी पूरी तरह समझने का प्रयास किया गया है. उनकी इस यात्रा को लेखिका ने बड़े प्रभावी रूप से उभारा है. ‘हिंद का तोता’ माने जानेवाले अमीर ख़ुसरो ने गज़ल, खयाल, कव्वाली, रुबाई, तराना जैसी काव्य-शैलियों में रचना की. अमीर ख़ुसरो पर केंद्रित यह उपन्यासिका मूल उपन्यास के भीतर ही है और उसके कथा-प्रसंग के एक हिस्से के रूप में आता है. हालाँकि, वहाँ उसकी एक स्वतंत्र सत्ता है और उसे एक प्रवाह में, एक निरंतरता में प्रस्तुत किया गया है. यह उपन्यासिका मूलतः 'मैं' शैली में है, जिसमें अमीर ख़ुसरो अपने जीवनानुभवों को अपनी साहित्य-यात्रा और अपने अन्य कला-रूपों से जोड़ते चलेते हैं. अमीर ख़ुसरो का शुरूआती जीवन, उनके नाना के यहाँ गुज़रा. वहाँ के कई क़िस्से और प्रसंग अमीर ख़ुसरो के साहित्यकार-कलाकार रूप को समझने में मददगार होते हैं. किशोर अमीर का प्रकृति-प्रेम, स्वयं में खोए रहने का उसका दार्शनिक अंदाज़, नाना की डाँट, चीज़ों को सकारात्मक रूप में ग्रहण करने की उसकी प्रवृत्ति-यह सब मिलकर अमीर के 'फॉर्मेटिंग इयर्स' को गढ़ने का काम करते हैं. इस उपन्यास को पढ़ते हुए पाठक को ऐसा एहसास होता है कि वह अमीर ख़ुसरो की आत्मकथा को ही पढ़ रहा है. एक उपन्यासकार के रूप में यह अनामिका की सफलता है. ऐसा तभी संभव है, जब लेखिका ने अमीर ख़ुसरो को लेकर न सिर्फ़ काफ़ी चिंतन किया हो बल्कि उस परिवेश, भाषा और समय को लेकर भी पर्याप्त अनुसंधान किया हो. उन्हें लेकर उसकी पत्नी के बीच संबंधों का उतार-चढ़ाव होता है, मगर उसे पूरी वयस्कता के साथ प्रबंधित होते दिखाया गया है. हमें यह पूरे समाज को किसी अंधविश्वास को समर्थित न करते हुए उसे संवेदना के स्तर पर जाकर पकड़ने की कोशिश की है.

अमीर ख़ुसरो के व्यक्तित्व के कई रंग देखने को मिलते हैं. पति, प्रेमी, पिता और शिष्य के रूप में समय-समय पर उनके कई रूप, बड़े मौलिक और मार्मिक रूप में चित्रित हो पाए हैं. उनकी पुत्री-विह्वलता के कई प्रसंग हमें देखने को मिलते हैं. शुरू में उनकी पुत्री कायनात के बचपन के कई ख़ुशगवार पल हैं तो बाद में उसके घर से चले जाने के कई उदासी-भरे क़िस्से भी हैं. अमीर ख़ुसरो की पुत्री कायनात से उसके अगाध प्रेम को अनामिका ने बख़ूबी पकड़ा है. जवान होती एक पुत्री की भलमनसाहत में चिंतित पिता के कशमकश को और उसके बरअक्स महरू की साफगोई को उपन्यास में भली-भाँति उद्घाटित किया गया है. यह कायनात कब अमीर ख़ुसरो और उसकी पत्नी महरू के बीच संवाद का सेतु बन खड़ी हो उठती है, ऐसे प्रकरणों में आम हिंदुस्तानी गृहस्थी के अपनत्व भरे कई रंग उभर आते हैं. इन प्रसंगों को उनकी रूबाइयों, पहेलियों के संदर्भों के माध्यम से समझाया गया है. यहाँ अमीर ख़ुसरो की सत्ता से नज़दीकी और बाद में उससे हुए उनके मोहभंग और उनके भीतर के अकेलेपन को भी वाणी प्रदान की गई है. 

इस अभिव्यक्ति में दरबारी लेखकों की स्थिति का स्पष्ट चित्रण हुआ है, जहाँ सत्ता के लाभ ही नहीं बल्कि उसकी ऊब और उसके अकेलेपन को भी अभिव्यक्ति मिली है. इस नश्वरता को सर्वप्रथम कोई संवेदनशील कलाकार ही समझता है. इस उपन्यास के बहाने अनामिका ने न सिर्फ़ एक लेखक के महत्व को स्थापित किया है और साथ ही उसके आत्म-संघर्ष और उद्वेलन को भी पूरी साफ़गोई से चित्रित किया है. वह सत्ता के साथ रहते हुए चाहे जितना ही उसके क़रीब क्यों न हो, शहंशाह कभी भी उसे सीमांकित कर जाता है. अमीर खुसरो की पूरी कथा को बड़ी ख़ूबसूरती और समुचित वातावरण-निर्माण  के साथ कहा गया है. स्त्री-पुरुष संबंधों में विवाहेतर प्रेम संबंधों को बड़ी बारीकी और संवेदनशीलता से उकेरा गया है. अमीर ख़ुसरो की कथा अपने पूरे स्ट्रेच में एक साथ समाप्त होती है, वहीं उसके बहाने जुड़ी आधुनिक कथा, उपन्यासिका के आरंभ में और उसकी समाप्ति के बाद भी ज़ारी रहती है. इस अर्थ में ये दोनों कथाएँ एक-दूसरे से अलग होकर भी परस्पर जुड़ी हुई हैं. अमीर ख़ुसरो की कहानी में कई महत्वपूर्ण पात्र हैं. हसन,  अलाउद्दीन खिलजी,   महरू, अमीर ख़ुसरो के बचपन के दोस्त कादर मियाँ आदि से जुड़े कई प्रसंग हमारी चेतना में गहरे पैठ जाते हैं. उनके चरित्र पूरी शिद्दत से उभर कर आ पाए हैं. अलाउद्दीन ख़िलज़ी की अमीर ख़ुसरो से की गई वादा-ख़िलाफ़ी, पद्मिनी के ज़ौहर की स्थिति आदि के विवरण बड़े मार्मिक बन पड़े हैं. अमीर ख़ुसरो के कहने पर ही पद्मिनी, ख़िलज़ी को अपनी सूरत, आईने के माध्यम से दिखाने को तैयार हुई थी. बाद में, ख़िलज़ी की लपलपाती इच्छा कहीं थमती नहीं जान पड़ती है,  अमीर से किए गए वादे को वह भुला बैठता है  और अंततः पद्मिनी द्वारा ज़ौहर का मार्ग अख़्तियार किया जाता है. इसे लेकर अपने सुल्तान के प्रति अमीर ख़ुसरो के मन में आक्रोश है और वह पद्मिनी के इस हश्र के लिए स्वयं को ज़िम्मेदार मानता है. अनामिका ने अमीर ख़ुसरो के भीतर के इस अंतर्द्वंद्व को भली-भाँति पकड़ा है.

यहीं पर, स्त्री को अपनी संपत्ति मानकर चलनेवाली पुरुष-मानसिकता की बखिया भी उधेड़ी गई है. ज़ौहर करने से पूर्व पद्मिनी, अमीर ख़ुसरो को पत्र लिखती है, जिसमें वह अमीर ख़ुसरो को किसी अपराध-भाव में आने से मना करती है, वहीं वह नागमती के प्रति जाने-अनजाने स्वयं के द्वारा हुए अन्याय को स्वीकारती हुई उसकी और रत्नसेन के पुनर्मिलाप की कामना भी करती है. एक कलाकार होने के नाते अमीर ख़ुसरो के भीतर की संवेदनशीलता, इन स्त्रियों से कहीं गहरे तक प्रभावित है. अमीर खुसरो के मन में ऐसी स्त्रियों के प्रति अगाध आदर-भाव है.

यहाँ सर्व-धर्म-समभाव की ज़रूरत पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है. जिसमें स्वयं शहंशाह की पत्नी 'मलिका' को भी इसके प्रचार-प्रसार में संलग्न दिखाया गया है. कहना न होगा कि आज धार्मिक संकीर्णता जिस तरह बढ़ती चली जा रही है, धार्मिक उदारता और सम-भाव की भावना की ज़रूरत भी उतनी ही तीव्र होती जा रही है. ईरान की राबिया फकीर का ज़िक्र भी कई बार आता है. सूफ़ी मान्यता से प्रभावित और समाज की सेवा और कल्याण और उसके आध्यात्मिक उत्थान में  संलग्न और अपने इस काम के प्रति समर्पित एक भरी-पूरी ज़मात दिखाई पड़ती है, जो अँधेरे में रोशनी की मानिंद हमारे सामने प्रकट हैं. विदित है कि अमीर ख़ुसरो के निज़ामुद्दीन औलीया से संबंध बड़े गहरे और आत्मिक रहे हैं. अमीर खुसरो पर निज़ामुद्दीन औलिया का प्रभाव सर्वाधिक है. उन दोनों के बीच हर तरह की साहित्यिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक चर्चा होती रही है. उस संबंध की रूहानियत और उसकी ऊँचाई को यहाँ सुचिंतित रूप में व्याख्यायित किया गया है. यह कहना ग़लत न होगा कि अमीर ख़ुसरो की रचनाएँ, औलिया की दार्शनिक और सूफ़ी संदेशों के ही साहित्यिक रूपांतरण हैं. 

इस उपन्यास में आज की ज़रूरत सांप्रदायिक सद्भाव पर केंद्रित विषय को उपन्यास का केंद्रीय विषय बनाया गया है और उसे एक ग्लोबल परिदृश्य और मध्यकालीन समय से जोड़कर लिखा गया है, जिसे 'गुडिया भीतर गुड़िया' की तर्ज़ पर 'उपन्यास भीतर उपन्यास' के रूप में गढ़कर उसे आधुनिक पीढ़ी के साथ जोड़ते हुए उसे एक समसामयिकता का महत्व भी प्रदान किया गया. समाज में कई धाराएँ चलती हैं, जिनमें कई निजी सह सामूहिक प्रयास भी शामिल हैं. इन प्रयत्नों से समाज के भाईचारा की भावना को संबल प्रदान होता है और उसके लिए अनुकूल माहौल तैयार होता है.

इस उपन्यास को दो उपन्यासों की तरह पढ़ने का आनंद प्राप्त होता है. अनामिका के दूसरे उपन्यासों की ही तरह यहाँ भी पात्रों की बहुतायत है, मगर अधिकांश पात्रों के साथ समुचित लेखकीय निर्वाह संभव हो पाया है. पात्रों के बीच आपसी सामंजस्य हो या उनका स्वतंत्र चरित्र-चित्रण हो या उनकी अपनी अंतर्कथाएँ हों, हर आवश्यक पहलू से उपन्यास का गठन सशक्त जान पड़ा है. शुरू में यह उपन्यास दोस्तों के कम्यून से शुरू होता है, जो विभिन्न देशों में छितराकर भी सोशल मीडिया पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. इस उपन्यास का अंत, सपना के एक पत्र से होता है, जो वह अपने दोस्तों महिमा और सिद्धू को और साथ ही अमीर खुसरो को संबोधित करके लिखती है. मतलब यह कि अंत में सारी कड़ियाँ एक बार फिर जुड़ जाती हैं.

कहने की ज़रूरत नहीं कि 'आईनासाज़' में धर्म, लिंग, जाति, संप्रदाय, वर्ग, वर्ण, व्यवसाय से परे हर व्यक्ति को विशिष्ट माना गया है और उसकी पूरी गरिमा को स्थापित किया गया है. यह वज़ूद के विश्वास को रूपायित करनेवाला उपन्यास है. सूफ़ी संप्रदाय की कई स्थापनाओं से प्रभावित इस उपन्यास में विभिन्न धर्मों, वर्गों और जातियों के बीच आवाज़ाही है और उनकी पारस्परिकता में ही मनुष्यता की सार्थकता को समझा जा सकता है.

यह मात्र संयोग नहीं कि इस उपन्यास में आज के बदलते परिवेश में स्त्री-पुरुष संबंधों को एक बृहत्तर और उदार रूप में देखा गया है, जहाँ स्त्री-पुरुष के बीच की दोस्ती को एक रूहानी ऊँचाई भी प्रदान की गई है. यहाँ एक उदार पुरुष का स्वरूप भी उभारा गया है, जिसे हम सिद्धू के रूप में ज़्यादा संघटित होकर देखते हैं. वह एक तरफ़ सपना को सँभालने में पूरा सहयोग करता है, वहीं दूसरी तरफ़ अपनी मूक-वधिर बेटी और उससे बुरी तरह प्रभावित अपनी पत्नी महिमा को भी सँभालता है. निश्चय ही, आज सिद्धू जैसे अधिक-से-अधिक पुरुषों की हमारे समाज को ज़रूरत है, जो स्त्री को उसकी संवेदनशीलता के स्तर पर जाकर समझे. किसी हेकड़ी या अनावश्यक शौर्य-प्रदर्शन से दूर ऐसे पुरुष पिता, पति, भाई और मित्र-हर रूप में स्त्री को संपूर्ण करते हैं. स्त्री-पुरुष के बीच की यह समझदारी, आज के वक़्त की ज़रूरत है.

इस उपन्यास में पत्र-शैली का इस्तेमाल भी उपन्यास की गति को आगे बढ़ाने में सफलतापूर्वक हो सका है. इसमें पत्र-लेखन के आधुनिकतम संस्करण यथा व्हाट्सएप आदि का इस्तेमाल भी किया गया है, जिससे इसमें उचित ही सम-सामयिकता का पुट भी समाहित हो पाया है. कभी सिद्धू, सपना को तो सपना, उसकी पत्नी महिमा को तो कभी ललिता, सपना को पत्र लिखती हैं. इनके माध्यम से भी उपन्यास के कई कथा-तंतु पकड़ में आते हैं.

इस उपन्यास में एक प्रसंग आता है. ‘सिलसिला’ का. 'सूफियों में एक शब्द चलता है-सिलसिला! एक तरह का गुरु-ऋण जो हम प्रत्यक्ष तो नहीं उतार सकते, पर उससे कुछ उऋण ऐसे हो सकते हैं कि जो सीखा है, उसे आत्मसात करके उस सूत्र का 'सिलसिला' आगे बढ़ा दे.’ यह मुक्तिबोध की कहानी 'ब्रहराक्षस' की भी याद दिलाता है. दो अलग-अलग तरीकों में एक ही बात कही गई है. कोई सीखी हुई बात जब आगे नहीं बढ़ा पाता है, तो वह ब्रहराक्षस बन जाता है. इस योनी से मुक्ति के लिए उसे किसी को शिष्य बनाकर पूरी शिक्षा प्रदान करनी होती है.

कहा जा सकता है कि यह उपन्यास, प्रेम और परिवार का, राजनीति और साहित्य का, धर्म और अध्यात्म का संगम कहा जा सकता है. यहाँ भारतीयता, देशजता और स्थानिकता का महाराग है, जिसे विश्वव्यापी स्तर पर प्रस्तुत किया गया है. यहाँ अध्यात्म और बौद्धिकता, साहित्य और संगीत, अतीत और वर्तमान की कई परतें हैं, जिन्हें हम सहज ही एक-एक कर उघड़ते हुए दिखते हैं. हिंसा और घृणा से ओतप्रोत समाज में सहित्य सहित कला के सभी रूपों की प्रासंगिकता को उभारा है, उसे रेखांकित किया है. 

अनामिका ने अपने इस उपन्यास में एक साथ दो अलग-अलग युगों को साधा है, उनके बीच की परंपरा को आपस में नाल-बद्ध किया है. वर्तमान को अतीत की विरासत की याद दिलाई है, उसके कई रंगों को अपने तईं कुछ और चटखता प्रदान की है. अनामिका के उपन्यासकार की एक विशेषता है. वह कथाओं के भीतर चलती कई उप-कथाओं का एक कोलाज बनाता है, जिससे पूरा परिदृश्य अपनी पूरी सघनता में स्पष्ट हो जाता है. उनके उपन्यासकार की यह विशेषता ‘आईनासाज़’ में भी देखने को मिलती है. 
___________________________
arpankumarr@gmail.com

4/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. सुंदर ।बहुत अच्छा लिखा।आप इसी तरह उपन्यासों पर लिखते रहे।अनामिका और आपको भी बधाई

    जवाब देंहटाएं
  2. मीना बुद्धिराजा8 फ़र॰ 2020, 10:14:00 am

    उपन्यास का गहन और व्यापक विश्लेषण।
    अनामिका जी का मुख्य रचनात्मक स्वर भी गंभीरता से यहाँ प्रस्तुत है जो विशद और साझी संस्कृति का है।
    शुभकामनाएं

    जवाब देंहटाएं
  3. उदयभानु पाण्डेय9 फ़र॰ 2020, 6:18:00 am

    प्रसिद्ध कवयित्री और किस्सागो प्रोफेसर अनामिका के सद्यःप्रकाषित उपन्यास आईनासाज़ की जो समीक्षा अर्पण कुमार ने लिखी है वह अद्भुत है।डाक्टर अनामिका का यह उपन्यास शायद Multilinear है और ऐसी कृतियों की समीक्षा चुनौतीपूर्ण होती है।अर्पण कुमार ने बहुत गहराई में जाकर उपन्यास के सौंदर्य को उद्घाटित किया है।भाषा में Criticism की Objectivity और सधा हुआ Idiom है।लेखिका पर हिंदी के कुछ आलोचक आक्रामक Feminism का आरोप लगाते हैं किंतु इस आलेख ने अनामिका के सूफियानाव्यक्तित्व को रेखांकित किया है।यदि इस उपन्यास को पढ़ा होता तो शायद इस आलेख को और सही तरीके से समझ पाता।इस उपन्यास में स्मृति केमहत्व को रेखांकित किया जाना और शिल्प की वहुआयामिता को पेश करना इसके दुर्लभ गुण हैं।अनामिका जी और अर्पनजी दोनों को बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  4. पढ़ा। जिस गंभीरता की दरकार थी, आपने उसका बखूबी निर्वाह किया है। आपकी आलोचकीय दृष्टि का पहले ही कायल हूँ । गहन, सार्थक समीक्षा के लिए हार्दिक बधाई!

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.