अंचित की प्रेम कविताएँ











जिसे आज हम प्रेम दिवस कहते हैं, कभी वह वसंतोत्सव/मदनोत्सव के रूप में इस देश में मनाया जाता था. स्त्री-पुरुष का प्रेम दो अलग वृत्तों को मिलाकर उस उभयनिष्ठ जगह का निर्माण करना है जहाँ दोनों रहते हैं, जिसमें परिवार, समाज, संस्कृति, धर्म, देश जब घुल-मिल जाते हैं. इसकी अपनी गतिकी है, महीन कीमियागिरी है. इसका समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र भी होगा. कुल मिलाकर अहमद फ़राज़ के शब्दों में कहें तो-

‘हुआ है तुझ से बिछड़ने के बा'द ये मा'लूम
कि तू नहीं था तिरे साथ एक दुनिया थी’

अंचित बहुत अच्छे कवि और प्यारे इंसान हैं. इस अवसर पर उनकी कुछ प्रेम कविताएँ आप पढ़ें. देखें पूरी एक दुनिया है यहाँ. तमाम पेचो-ख़म हैं.  









टेरेसा सिन्हा के लिए कुछ कविताएँ               

अंचित 





आग्रह
मुझे तुम्हारे दिए तमाम धोखे याद हैं
मेरी शिकायतें जो तुम मेरी ही याद
से करती हो

अभिनय नहीं आता मुझे टेरेसा 
और मैं किसी के मार्फ़त नहीं आया
तुम्हारे पास

मेरे पास बेकार के काम पड़े हैं 
और तुम इतनी सुंदर हो,
मेरा जी अब नदी किनारे लगता नहीं

बिना सोचे उतर गया था आज उधर
पानी के आमंत्रण थे और
यह कवि तुम्हारा, स्वयंभू  कवि है

प्रेम शब्दों का हेरफेर है
ईमानदारी एक पूरा डिसकोर्स
इन भाषाई खेलों के बारे में मत सोचो!

कोई कवि तुमसे प्यार करे टेरेसा
पलट के उससे प्यार कर लो
ठुकराओ मत!

एक कवि आदमी रहेगा
तुम्हारे प्रेम तक

एक लड़की जी लेगी
जब तक रहेगी कविता में.





वजहें
शुरू में ही,
तुम्हारी बाँहों के बारे में बात कर लेनी चाहिए
क्योंकि ज़िंदगी जीने के लिए
हमें वजहों की ज़रूरत होती है. 

इसीलिए जीना वैसे ही होना चाहिए
जैसे उमस वाली दोपहर के बाद
बादल देख कर बच्चे खिल जाते हैं

फिर तुम इतनी रातें बंद आँखें
बतियाती मेरे कान में बिता देती हो
तुम इतनी रातें कम रोशनी
बिना सपने मेरे साथ जागते बिता देती हो

और फिर भी
मेरे पास किसी कविता में बहुत पंक्तियाँ नहीं,
मेरे पास किसी कविता में तुम बेहद पास नहीं,

तुम बेवजह टिकती नहीं मेरे काँधे
किसी कविता में तुमसे मेरी गंध उलझेगी नहीं.

हम अनुभवों के नशे की ख़ातिर
अवसादों के नशे की ख़ातिर
आग से मोहब्बतों की ख़ातिर 
सट जाते हैं, बीच राह, चलती सड़क पर

तुम्हारी बाँह मेरी बाँह से सटती है
जैसे जलते लोहे से पानी सट जाता है.

इसलिए भी
दो सिरे हैं एक ही बात के 

एक सिरा मैंने अपनी कलाई से बाँध रखा है,
दूसरा लिए तुम, प्यारी टेरेसा, चलती जाती हो कितनी दूर,
बहुत दूर.



(Dante and Beatrice: by Henry)



मुलाक़ातें
इधर मैंने
मद्धिम रौशनी में फैली आवाज़ों
के बारे में सोचना शुरू किया है.

उन रातों के बारे में,
जब नींद की चाह गरमी में
चल रही लू की तरह लगी है.

मेरे डर उसी तरह हैं जैसे
बाँध बरसात में डरता है पानी से

मेरे सारे बिम्ब वैसे ही
तुम्हारा स्पर्श चाहते हैं, टेरेसा,
जैसे सूरज भर जाता है ग्रहों पर.

तुम मिलती हो उस तरह
जिस तरह उमस वाले दिनों में
हवा छू कर चली जाती है कानों के पास.




रविवार
तीस की उम्र है, बाल पकने लगे हैं,
तलवों की घिरनियों को अब खीज होने लगी है

रोज़मर्रा, रोमांचों पर भारी हो गया है- फिर भी
रुमाल तुम्हारे नाम का  मेरी कलाई पर
और सात सात दिन का इंतज़ार तुम्हारी आवाज़ के लिए

टेरेसा, प्यारी टेरेसा, सुनो, याद करना
हम बरसात के मौसम में मिले थे पहली बार
और हम को उमस में प्रेम दिखाई दिया.

याद करना नहीं, भूल जाना कि
हम एक जगह बैठे रह सकते थे छह  छह  घंटे
यात्राएँ भी साथ रहने का तरीक़ा थीं

सब बता देना था तुमको, सब पूछ लेना था तुमसे
टेरेसा, टेरेसा, टेरेसा, जो उबाऊ था वह भी रोचक था
जो त्याज्य होना था, वह भी प्यार के क़ाबिल.

भूल जाना कि शहर में फूल के पेड़ थे,
भूल जाना कि  रात जागने के लिए होती थी
भूल जाना कि  तुमने लगभग चूम लिया था मुझको

टेरेसा, जो चाहिए था जीवन, उसकी परछाईं ही सही
देखी थी हमने एक बार 

चाहों का ख़ज़ाना जिस ताले के पीछे बंद था
उसी की चाभी हो गए थे हम.




अपराध/नर्तकी

कल्पना मेरे पास है
स्मृति मैं चाहता हूँ.

तुम्हारे चुम्बन मेरे पास जमा हो रहे हैं
तुम्हारी बाहें मुझे याद करने लगी हैं
तुम्हारी चाहों में मेरा चेहरा अब आने लगा है 
मैं दृश्य की चाह में अब रातें जागने लगा हूँ
तुम गुनगुना रही हो टेरेसा,
आमंत्रण- मैं सुन रहा हूँ- तुम्हारी गंध
तुम्हारा पसीना चखना मेरी जीभ की इच्छा है
तुम्हारे स्तन मेरे स्वप्न हैं.

काली रातों को अपने बाल खुले छोड़ दो
अपने सब बाँध नदी के प्रवाह के लिए खुले छोड़ दो
जागने दो अपने भीतर अपनी चाहों की सब लहरें


टेरेसा,
एक कवि तुम्हारे पास आया है
एक कवि को उसका बाक़ी प्रदान करो
प्रेम करो इस तरह जैसे कवि के जीवन की आख़िरी रात हो.





प्रत्याशा

एक हज़ार रातों तक
तुम्हारे बहुत सुंदर होने की क़समें खानी चाहिए थी

एक हज़ार रातों तक
तुमको चूमनी चाहिए थी मेरी गर्दन बहुत ख़ामोशी से

हम कितनी जगहों पर गए होते सिर्फ़ आवाज़ के सहारे,
दृश्य की अमरता पर अनुभव की आकांक्षा भारी पड़ जाती

हमें साथ सड़कें पार करते, कविताओं को भूल जाना चाहिए था
उलझना चाहिए था हमें बार बार जैसे बरसात पेड़ों से उलझती है

और देखो कि भाषा की नदी के उस घाट मिली तुम, जहाँ तुम्हारा
यह नाविक प्रेमी जाने से डरता है, जहाँ नहीं जाने का अफ़सोस

तुम्हारे भीतर सर उठाने लगा है. तुम्हारी जलन से मेरे भीतर
जागता है भय और जिससे तुम नफ़रत करती हो

वहीं से मेरे लिए कविता शुरू होती है. हम अपनी देहों पर
जब निर्भर नहीं होते, अपनी चाहों के रस्ते निकल जाते हैं

टेरेसा, जो नदी तुमको चाहिए, वही मेरा घर है.
मैं डरता हूँ हम एक साथ डूब जाएँगे.




आकांक्षा
मैं चाहता हूँ
तुम्हारी पसीने से भरी उँगलियाँ मेरी नींद
से यूँही उलझी रहें

जो  ख़ामोशी मेरे साथ चाहती हो,
उसका एक क्षण भी नहीं दे सकता

मैं चाहता हूँ
मेरे पुरुष होने पर  भी
तुम मुझे अपने दुखों में शामिल समझो

टेरेसा
तुम्हारी आत्मा पर जो घाव है
जो देर रात सोच कर तुम टूट जाती हो
वे आकर चुभ रहे हैं मेरी देह में

मैं तुम्हारी बहादुरी से रश्क करता हूँ
मेरी कायरता तुमसे मिलकर और लघु हो जाती है

हम ग़लत दुनिया में मिले
हम ग़लत समय में मिले
मेरी कविताओं में तुम्हारी हँसी को होना था
मेरी स्मृति में तुम्हारे अकेलेपन को हार जाना था

कितना ग़लत है कि
तुम सिर्फ़ प्रेम के लिए बनी थी
और तुमको सिर्फ़ वहीं ठगा गया

मैं चाहता हूँ
पूरी रात मैं तुमसे कहूँ कि
उजास तुमसे बनता है

मेरी टेरेसा
तुम चुम्बनों के लिए बनी हो
तुम जिससे प्रेम करोगी उसके हिस्से
आएगी नींद.





अंत में
तुम सुंदर हो,
बात यहीं से शुरू करनी चाहिए.

हम बहुत बूढ़े हो चुके
नींद की सड़क छोड़, समझौतों के किनारे चल रहे

प्रेम के देश तो नहीं पहुँचेंगे कभी
हमारे पास पुल नहीं है और सामने कितनी ठंडी है संबंधो की नदी

ग़लत चाहों का एक वृक्ष लगाना समय के बाग़ में
उसपर अपनी उँगलियों से लिखना मेरा नाम

रहूँगा फिर भी खोखला आदमी - याद आऊँगा सिर्फ़
कहानियों में - तुम हँसोगी तो पिघलेगी अंदर जमी हुई सर्द याद

मानना  मुझको मेरी कमियों के साथ, टेरेसा,
भले ही रहना मत साथ, कहना सबसे, मैं अच्छा आदमी था.

__________________________________
anchitthepoet@gmail.com

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  1. संदीप नाईक14 फ़र॰ 2020, 8:54:00 am

    Anchit ������ भाई 14 फरवरी का दिन इन कविताओं से बेहतर हो ही नही सकता था
    बहुत बारीकी से प्रेम के ताने बाने से बुनी ये कोमल कविताएँ संवेदनाओं की एक बड़ी जगह बनाती है इस संसार में जहाँ अब सिर्फ ईर्ष्या और नफरत बची है
    शुक्रिया अरुण जी इन कविताओं के लिये

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  2. सघन प्रेम की अनुभूति में पगी सुंदर कविताएँ। दिन बन गया पढ़ कर।

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  3. नरेश गोस्वामी14 फ़र॰ 2020, 10:51:00 am

    इन कविताओं में अंचित 'पाश' के नज़दीक पहुँच गए हैं!
    देह की अकुंठ चाहत। उस पर कोई आवरण नहीं, लेकिन उसे अलग से सेलिब्रेट न करने का उदात्त भाव। प्रेम में ईमान को बचा ले जाने का गहरा आत्म-संघर्ष...नज़र की नगमगी और प्रेम करने का यह सलीक़ा..वल्लाह!

    कई पंक्तियाँ तो ज़ेहन से जाने का नाम नहीं ले रही! जैसे बाँध डरता है बरसात में पानी से... उमस भरी दोपहर बाद बादल देखकर खिल उठते हैं बच्चे... उमस में कान के पास से ठंडी हवा का गुज़रना...

    तुम इतनी रातें बंद आँखें
    बतियाती मेरे कान में बिता देती हो
    तुम इतनी रातें कम रोशनी
    बिना सपने मेरे साथ जागते बिता देती हो...

    टेरेसा, जो नदी तुमको चाहिए, वही मेरा घर है.
    मैं डरता हूँ हम एक साथ डूब जाएँगे.

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  4. आज के दिन के लिए सटीक कविताएं । अंचित को बहुत बहुत बधाई ।

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