सविता सिंह की ग्यारह कविताएं






मेरा चेहरा किसी फूल-सा हो सकता था
खिली धूप में चमकता हुआ !



वरिष्ठ कवयित्री सविता सिंह की कविताएँ भारतीय स्त्री की कविताएँ हैं, उनमें नारीवादी वैचारिकी का ठोस आधार है. उनका मानना है कि ‘स्त्री में अगर स्त्री की चेतना नहीं है तो उसके अन्दर पुरुष की चेतना है. क्योंकि ये दो ही तरह की चेतनाएँ हैं जो पूरी सृष्टि को चला रही हैं.’ उनके प्रकाशित तीनों संग्रहों में यह बात रेखांकित भी की गयी है.


प्रस्तुत ग्यारह कविताओं में सविता सिंह खुद से मुख़ातिब हैं. उदासी में लिपटी हुई कामनाएं बार-बार लौटती हैं, चटख लाल नहीं थिर पीले फूल यहाँ खिले हैं. सविता सिंह की काव्य-यात्रा आज जिस मोड़ पर है वहां से विचार, अनुभव और कला के संतुलन से हिंदी कविता का एक मुक्कमिल चेहरा बनता है. उनकी नई ग्यारह कविताएँ आपके लिए.      


सविता सिंह की ग्यारह कविताएं                                       



 मछलियों की आंखें
यह क्या है जो मन को किसी परछाई-सा हिलाता है
यह तो हवा नहीं चिरपरिचित सुबह वाली
चिड़ियाँ जिसमें आ सुना जाती थीं प्रकृति का हाल
धूप जाड़े वाली भी नहीं
ले आती थी जो मधुमक्खियों के गुंजार
यह कोई और हक़ीक़त है
कोई आशंका खुद को एतवार की तरह गढ़ती
कि कुछ होगा इस समय में ऐसा
जिससे बदल जाएगा हवा धूप वाला यह संसार
मधुमक्खियां जिससे निकल चली जाएंगी बाहर
अपने अमृत छत्ते छोड़
हो सकता है हमें यह जगह ही छोड़नी पड़े
ख़ाली करनी पड़े अपनी देह
वासनाओं के व्यक्तिगत इतिहास से
जाना पड़े समुद्र तल में
खोजने मछलियों की वे आंखें
जो गुम हुईं हमीं में कहीं



ऐ शाम ऐ मृत्यु
नहीं मालूम वह कैसी शाम थी
आज तक जिसका असर है
पेड़ों-पत्तों पर
जिनसे होकर कोई सांवली हवा गुजरी थी

  बहुत दिनों बाद
वह शाम अपनी ही वासना-सी दिख रही थी
मंद-मंद एक उत्तेजना को पास  लाती हुई
वह मृत्यु थी मुझे लगा
मरने के अलावा उस शाम
और क्या-क्या हुआ
जीना कितना अधीर कर रहा था
मरने के लिए

एक स्त्री जो अभी-अभी गुजरी है
वह उसी शाम की तरह है
बिलकुल वैसी ही
जिसने मेरा क्या कुछ नहीं बिगाड़ दिया
फिर भी मैं कहती हूँ
तुम रहो वासना की तरह ही
ऐ शाम ऐ मृत्यु
मैं रहूंगी तुम्हें  सहने के लिए.



दुःख का साथ
मैंने मान लिया है
हमारे आस-पास हमेशा दुःख रहा करेंगे
और कहते रहेंगे
‘खुशियाँ अभी आने वाली हैं
वे सहेलियां हैं
रास्ते में कहीं रुक गयी होंगी
गपशप में मशगूल हो गयी होंगीं’
वैसे मैंने कब असंख्य खुशियाँ चाहीं थीं
मेरे लिए तो यही एक ख़ुशी थी
कि हम शाम ठंडी हवा के मध्य
उन फूलों को देखते
जो इस बात से प्रसन्न होते
कि उन्हें देखने के लिए
उत्सुक आँखे बची हुयी हैं इस पृथ्वी पर
मेरे लिए दुःख का साथ
कभी उबाऊ न लगा
वे बहुत दीन हीन खुद लगे
उन्हें संवारने की अनेक कोशिशें मैंने कीं
मगर वे मेरा ही चेहरा बिगाड़ने में लगे रहे

मेरा चेहरा किसी फूल-सा हो सकता था
खिली धूप में चमकता हुआ !



जाल
न प्रेम न नफ़रत एक बदरंग उदासी है
जो गिरती रहती है भुरभुराकर आजकल
एक दूसरे की सूरत किन्हीं और लोगों की लगती है
लाल-गुलाबी संसार का किस सहजता से विलोप हुआ
वह हमारी आँखे नहीं बता पाएंगी
ह्रदय की रक्त कोशिकाओं को ही इसका कुछ पता होगा

उन स्त्रियों को भी नहीं
जिन्हें उसे लेकर कई भ्रम थे
जो अब तक मृत्यु के बारे में बहुत थोड़ा जानती हैं
वे दरअसल स्वयं मृत्यु हैं
जो उस तक शक्ल बदल बदलकर आईं
सचमुच मौत ने बनाया था उससे फरेब का ही रिश्ता

न प्रेम न नफ़रत
कायनात दरअसल एक बदरंग जाल है
जिसमें सबसे ठीक से फंसी दिखती है उदासी ही.




बीत गया समय
अचानक आँख खुली तो आसमान में लाली थी
अभी-अभी पौ फटी थी
एक ठंडी हवा देह से लग-लग कर जगा रही थी
मेरा विस्तर एक नाव था अथाह जल में उतरा हुआ

मैं यहाँ कब और कैसे आई
यह कोई नदी है या समुद्र
सोच नहीं पा रही थी
लहरें दिखती थीं आती हुई
बीच में गायब हो जाती हुई
यह कोई साइबर-स्पेस था शायद
यहाँ सच और सच में फ़र्क इतना ही था
जितना पानी और पानी की याद में
कैसी दहला देने वाली यादें थीं पानी में डूबने की
हर दस  दिन में दिखती थीं मैं किस कदर डूबती हुई

यह अद्वितीय परिस्थिति थी

जिसमेंमैं अकेली नहीं थी
उसी की तरह मृत्यु मेरे भी साथ थी

कौन जान सकता है
हम दोनों ही सही वक्त का
इंतजार कर रहे थे
यह नाव को ही पता था उसे  कब पलटना था
और किसे जाना था पहले
यह भी ठीक से नहीं पता चला
कब वह इस नाव पर आ गया था
बेछोर आसमान के नीचे
पानी के ऊपर बगल में

मैंने आँखें तब बंद कर ली थीं

आसमान की हलकी लाली अब तक बची थी
जो मेरे गालों पर उतरने लगी थी
मैं सजने लगी थी
मुझे भी कहीं जाने की तैयारी करनी थी

वह जान गया था
और अफ़सोस में जम-सा गया था

हमारे पास कहने को कुछ नहीं था
कभी-कभी कहने को कुछ  नहींहोता
वह समय बीत चुका होता है





  नहीं-सा
कल मुझे किसी ने सपने में प्यार किया
वह एक अलग दुनिया जान पड़ी
अपनी नसों में खून का एक प्रवाह महसूस हुआ
आश्चर्य कि इस सपने में प्यार करने वाला नहीं दिखा
यह कुछ मछली के तड़पने के अहसास-सा था
उसकी आँखें मुझमें थिर होती-सी

पानी कहीं नहीं था यक़ीनन
पानी की तरह हवा थी
जिसमें बहुत कम आक्सीजन था
और वह प्यार वायुमंडल के दबाव की तरह
दूसरों पर भी ज्यों पड़ रहा था
यहाँ कोई और न था
बस सबके होने का एहसास था
वैसे ही जैसे प्यार था सपने में

जरा देर बाद मगर
एक गाड़ी जाती हुई दिखी
जिसमें शायद मैं ही बैठी थी
कार के बोनट पर
हवा में पंख लहराता एक बाज बैठा दिखा
जो बाज नहीं था
वह एक मछली थी शायद
जिसके पंख थे हवा में तैरते

सपने में ही सोचती रही
एक दूसरे से मिलती हुई
अभी कितनी ही चीजें मिलेंगी
जो दरअसल वे नहीं होंगी

अच्छा हुआ सपने में मुझे जिसने प्यार किया
वह नहीं दिखा
आखिर वह नहीं होता जो दिखता
जिसे पहचानने की आदत पड़ी हुयी थी
वह खर-पात से बना कोई जीव होता शायद
दूसरी तरह की हवा में जीने वाला
प्रकृति का कोई नया अविष्कार
जिसे पहले न देखा गया हो
वह मनुष्य से वैसे ही मिलता-जुलता होता
जैसे नहीं-सा



नक्षत्र नाचते हैं
हमारी आपस की दूरियों में ही
प्रेम निवास करता है आजकल
सत्य ज्यूँ कविता में

ये आंसू क्यों तुम्हारे
यह कोई आखिरी बातचीत नहीं हमारी
हम मिलेंगें ही जब सब कुछ समाप्त हो चुका होगा
इस पृथ्वी पर सारा जीवन

मिलना एक उम्मीद है
जो बची रहती है चलाती
इस सौर्य मंडल को
हमारी इस दूरी के बीच ही तो
सारे नक्षत्र नाचते हैं
हमें इन्हें साथ- साथ देखना चाहिए
हम अभी जहाँ भी हैं
वहीँ से.



न होने की कल्पना
इधर कितनी ही कवितायेँ पास आयीं
और चली गयीं
उनकी आँखों में जिज्ञासा रही होगी
क्या कुछ हो सकेगा उनका
इस उदास-सी हो गयी स्त्री पर
भरोसा करके
यह तो अब लिखना ही नहीं चाहती
कोई थकान इसे बेहाल किए रहती है
यह बताना नहीं चाहती किसी को
कि होने के पार कहीं है वह आजकल
जहाँ चीजें अलहदा हैं
उनमें आव़ाज नहीं होती
हवा वहां लगातार सितार-सी बजती रहती है
अपने न होने को पसंद करने वालों के लिए
ख़ुशनुमा वह जगह
जिसकी कल्पना ‘होने’ से संभव नहीं

कविता सोचती है शायद
यह स्त्री एक कल्पना हुई जाती है
पेड़ों पक्षियों की ज्यों अपनी कल्पना
मनुष्य जिसमें अंटते ही नहीं.




किसी और रंग में
यहां कहां से आती हुई आवाज है और किसकी
पीली पड़ी देह की रुग्णता हवा में ज्यों मिली हुई
आकर अपना पीलापन जो छोड़ जाती है
कितना कुछ महसूस करने में है
एक और देह की उन उदासियों को
वर्षों जो उससे लिपटी रहीं
जिन्हें कभी जाना था

किधर से यह आवाज आती है
अब बस करो कहीं ठहरो एक जगह
मत मिलाओ सारी खुशबुओं को एक में

जानना कितना मुश्किल हो जाएगा फिर
कौन सा स्पर्श किसका था
शब्दों पर से ऐतबार न उठे
इसलिए याद रखना जरूरी है उसका कहा हुआ
प्रेम में मरना सबसे अच्छी मृत्यु है
और यह भी कि संभोग भी आखिर एक मृत्यु है, छोटी ही सही
जिसके बाद मनुष्य का दूसरा जन्म होता है
कई ऐसी ही बातें लगभग सांसों पर चलती हुई
आत्मा से उतारी गई होंगी उसकी ही तरह

किधर से फिर यह कौन सी आवाज आती है
जिससे पहचानी जाएगी एक स्त्री
जिसका पीला रंग बदलने से मना करता है
किसी और रंग में.


हवा संग रहूंगी
आज रविवार है
आज किसी का इंतजार नहीं करुँगी
आज मैं क्षमा करुँगी
आज मैं हवा संग रहूंगी
उसके स्पर्श से सिहरी एक डाल की तरह

बस अपनी जगह रहूंगी
अलबत्ता थोड़ी देर बाद
पास ही तालाब में तैरती मछली को
देखने जाऊँगी
जानूंगी वे क्या पसंद करती हैं
तैरते रहना लगातार या सुस्ताना भी जरा
मैं उनकी आँखों में झांकूंगी
बसी उनमें सुन्दरता के मारक सम्मोहन को
शामिल करुँगी जीवन के नए अनुभव में

आज पानी के पास रहूंगी
उसकी गंध को भीतर
उसके आस-पास के घास-पात के बहाने 
भीतर के खर-पात देखूंगी

आज रविवार है
आज किसी का इंतजार नहीं करुँगी
इस धरती पर रहूंगी
उसके तापमान की तरह




संसार एक इच्छा है
अभी जिस हाल में हूँ
उसमें बची रह गयी तो भी बच जाऊँगी
मगर बच्चों की आवाजें
कानों में पड़ रही हैं
अभी उनकी इच्छाएं मुझसे बात कर रही हैं
उनकी ज़िद मुझमे प्राण भर रही हैं
वे जो चाहते हैं
उन्हें ले देने को वचनबद्ध हूँ
इसी हाल में ही तो यह संसार भी है
कामनाओं से उपजा
उसी में लिथड़ी 
एक इच्छा

आज रात यदि सो सकी तो
दिन का प्रकाश दिखेगा ही
मैं भर जाऊँगी खुद से
मैं घर से बहार निकल
सूर्य को धन्यवाद कहूँगी

अभी जिस हाल में हूँ
इसी में बची रही
तो बच जाऊँगी
अपने बच्चों के लिए
इस जगत के लिए.



_____________________

सविता सिंह
आरा (बिहार)

पी-एच.डी. (दिल्ली विश्वविद्यालय), मांट्रियाल (कनाडा) स्थित मैक्गिल विश्वविद्यालय में साढ़े चार वर्ष तक शोध व अध्यापन,
सेंट स्टीफेन्स कॉलेज से अध्यापन का आरम्भ करके डेढ़ दशक तक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाया. 
सम्प्रति इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) में प्रोफेसर, स्कूल ऑव जेन्डर एंड डेवलेपमेंट स्टडीज़ की संस्थापक निदेशक रहीं.

पहला कविता संग्रह अपने जैसा जीवन (2001) हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा पुरस्कृत, दूसरे कविता संग्रह नींद थी और रात थी (2005) पर रज़ा सम्मान तथा स्वप्न समय.  द्विभाषिक काव्य-संग्रह रोविंग टुगेदर (अंग्रेज़ी-हिन्दी) तथा ज़ स्वी ला मेजों दे जेत्वाल (फ्रेंच-हिन्दी) 2008 में प्रकाशित. अंग्रेज़ी में कवयित्रियों के अन्तरराष्ट्रीय चयन सेवेन लीव्स, वन ऑटम (2011) का सम्पादन जिसमें प्रतिनिधि कविताएँ शामिल, 2012 में प्रतिनिधि कविताओं का चयन पचास कविताएँ : नयी सदी के लिए चयन शृंखला में प्रकाशित. 
फाउंडेशन ऑव सार्क राइटर्स ऐंड लिटरेचर के मुखपत्र बियांड बोर्डर्सका अतिथि सम्पादन.

कनाडा में रिहाइश के बाद दो वर्ष का ब्रिटेन प्रवास. फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम, हॉलैंड और मध्यपूर्व तथा अफ्रीका के देशों की यात्राएँ जिस दौरान विशेष व्याख्यान दिये.
savita.singh6@gmail.com 

9/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. रामजी राय5 अग॰ 2019, 11:26:00 am

    बहुत सुंदर कविताएं। 'ऐ शाम, ऐ मृत्यु' कविता तो हिला गई अंदर तक-

    "फिर भी मैं कहती हूँ
    तुम रहो वासना की तरह ही
    ऐ शाम ऐ मृत्यु
    मैं रहूंगी तुम्हें सहने के लिए."

    जवाब देंहटाएं
  2. नरेंद्र मोहन5 अग॰ 2019, 11:29:00 am

    पढ़ते पढते खाली स्पेस को
    भरती जाती कविताएँ
    अपनी ही तरह की अलग
    रंगत की कविताएँ

    जवाब देंहटाएं
  3. अपर्णा मनोज5 अग॰ 2019, 11:33:00 am

    हवा संग रहूंगी। यह तबीयत मेरे इर्दगिर्द छा गई है। सविता जी की कविताओं में छटपटाहट है। पता नहीं क्यों मुझे डल झील याद आई। शायद 35 साल पूर्व की बात होगी। झील में जगह जगह कमलिनी खिली है। झील बीच बीच में गहरा हरा रंग छोड़ती दिखाई देती थी। फिर कोई शिकारा इस हरे को झील में बदल देता। मैं झील की विकलता को कभी भूल नहीं पाई। वैसी ही कविताएं हैं। उसी झील की तरह बेचैन। बाहर से कुछ इन कविताओं में गिर भी गया तो वह भी इस विकलता से बच नहीं पाएगा। जैसे गति में बैठ कर हम गति का हिस्सा हो जाते हैं, वैसी कविताएं हैं ये।

    जवाब देंहटाएं
  4. विनय कुमार5 अग॰ 2019, 1:27:00 pm

    ऐसी कविताएँ जिन्हें पढ़कर कुछ भी कहना उस मौन को तोड़ना होगा जो कभी-कभी ही सृजित हो पाता है !

    जवाब देंहटाएं
  5. शब्दों पर से ऐतबार न उठे
    "इसलिए याद रखना जरूरी है उसका कहा हुआ
    प्रेम में मरना सबसे अच्छी मृत्यु है
    और यह भी कि संभोग भी आखिर एक मृत्यु है, छोटी ही सही
    जिसके बाद मनुष्य का दूसरा जन्म होता है"

    पंकज सिंह सिर्फ़ यही नहीं कहते थे, और भी बहुत-सी ऐसी बातें कहते थे, जिन्हें याद रखना ज़रूरी है। इन कविताओं को पढ़ते हुए मैं जैसे वही जीवन जी रहा था, जो सविता सिंह पंकज सिंह के जाने के बाद इन दिनों जी रही हैं —

    "कौन जान सकता है
    हम दोनों ही सही वक्त का
    इंतजार कर रहे थे
    यह नाव को ही पता था उसे कब पलटना था
    और किसे जाना था पहले"

    जवाब देंहटाएं
  6. सघन कवितायेँ। इनसे गुज़रना अपने ही भीतर किसी खोह में उतरने जैसा जहाँ बाहर की कोई आवाज़ नहीं पहुँचती। निश्चित ही ये कवितायेँ मैं बार बार पढूंगी। बहुत शुक्रिया समालोचन।

    जवाब देंहटाएं
  7. बिपिन प्रीत7 अग॰ 2019, 9:07:00 am

    Bahoot khoobsoort kvitae hai,bahoot pehle maine svita ji kee rowing toghether pari thee, tab se vo meri simriti me hain, aaj in kvitao kee Sarlta me chhupi gehraee ko par kar bahoot anand aaea

    जवाब देंहटाएं
  8. एक अलग ही दृष्टिकोण है मैम की कविताओं में जो समेट लेता है ढेरों अनुभवों और नई विचारधारा को भी।

    जवाब देंहटाएं
  9. psmishra2005@yahoo.co.in
    कविता का नया शिल्प,नयी भाव भूमि,नये शब्द संधान।लेकिन सब कुछ आत्म की जकड़ के भीतर।हां,अनात्म होने की आहट।
    प्रभाशंकर

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.