एस. हरीश के उपन्यास 'मीशा' पर विवाद : यादवेन्द्र

(पेंटिग : ABDULLAH M. I. SYED - DIVINE ECONOMY)










ज्याँ पाल सार्त्र कहा करते थे– ‘मनुष्य स्वतंत्र होने के लिए अभिशप्त है.’ वह मध्ययुगीन बर्बरताओं से बाहर आया अब ‘आधुनिकता’ की जंजीरों को भी पहचान कर उन्हें काट रहा है. हेगेल ठीक ही कहते हैं – ‘स्वतन्त्रता की चेतना की प्रगति का विकास ही इतिहास है’.

स्वतन्त्रता की असली परीक्षा अभिव्यक्ति की जमीन पर होती है. साहित्य ने हमेशा से अभिव्यक्ति के ‘ख़तरे’ उठायें हैं. सभी तरह की सताएं अपने प्रतिपक्ष को नियंत्रित करना चाहती हैं. अगर अभिव्यक्ति ने ये ख़तरे न उठाये होते तो आज मनुष्य का कैसा इतिहास होता इसकी आप कल्पना कर सकते हैं.

सत्ता, धर्म और पूंजी का तालिबानी गठजोड़ हर जगह विरोध, प्रतिरोध और प्रतिपक्ष को खत्म कर देने पर आमादा है. धार्मिक कट्टरता इस धरती की सबसे बुरी चीज है वह इसे दोजख़ बनाकर काल्पनिक जन्नत के लिए शवों को सजाने का काम करती है.    

   
अभी हाल की घटना मलयाली लेखक एस. हरीश के धारवाहिक छप रहे उपन्यास 'मीशा' से जुडी है. उसकी कुछ पंक्तियों को लेकर इतना बवाल मचा कि अंतत: अख़बार ने उसका छपना स्थगित कर दिया. ऐसे में एक प्रकाशक ने इसे छापने की हिम्मत दिखाई. लेखक और प्रकाशक का महत्वपूर्ण वक्तव्य यहाँ यादवेन्द्र प्रस्तुत कर रहे हैं.


मेघाच्छादित  आकाश  में  उम्मीद  की  कौंध            
यादवेन्द्र




यादवेन्द्र





"मलयालम के चर्चित और पुरस्कृत लेखक एस हरीश के उपन्यास 'मीशा' (मूंछ) की आठ दस पंक्तियों  लेकर हिंदूवादी संगठनों ने केरल में बड़ा और गंदा बवाल मचाया....उपन्यास को धारावाहिक छापने वाली पत्रिका 'मातृभूमि' की प्रतियाँ जलाईं और लेखक को इतना धमकाया कि इसकी तीन कड़ियों के बाद उनके कहने पर पत्रिका में प्रकाशन रोक दिया गया. अन्ततः एक बड़े प्रकाशक ने साहस दिखाते हुए दस पन्द्रह दिन में ही उपन्यास पुस्तकाकार छाप दिया.

यहाँ ये दो वक्तव्य महत्वपूर्ण व जरूरी हैं जो देश के वर्तमान सांस्कृतिक परिदृश्य का अंधेरा बताने के लिए पर्याप्त हैं:"



26 जुलाई 2018 को एस हरीश ने अपने पाठकों को खुला पत्र लिखा :


एस हरीश




"मातृभूमि सचित्र साप्ताहिक में मेरे उपन्यास की तीन कड़ियाँ छपीं - यह उपन्यास पिछले पाँच वर्षों के कठोर परिश्रम जा प्रतिफलन है और इसकी विषयवस्तु बचपन से मेरे मन में घर किये हुए थी. पर मैं देख रहा हूँ कि इस कृति का एक बहुत छोटा सा अंश सोशल मीडिया पर बड़े दुर्भावनापूर्ण ढंग से प्रचारित प्रसारित किया जा रहा है...

कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जिस दिन मुझे सोशल मीडिया पर धमकियाँ न दी जाती हों. एक चैनल पर राज्य स्तर के नेता ने कहा कि चौराहे पर खड़ा कर मुझे झापड़ मारना चाहिए. 

यहाँ तक कि मेरी पत्नी और दोनों बच्चों की तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर अपमानजनक ढंग से साझा की जा रही हैं. और तो और मेरी माँ, बहन और पिता - जो अब इस दुनिया में भी नहीं हैं - तक को भी नहीं बख्शा गया. राज्य महिला आयोग और अनेक पुलिस थानों में मेरे खिलाफ़ रिपोर्ट लिखाई गयी. इन सब को ध्यान में रख कर मैंने निश्चय किया है कि अपना उपन्यास पत्रिका में आगे छपने से रोक दूँ. 

यह उपन्यास भी तत्काल छपे ऐसा मेरा कोई इरादा नहीं है. जब भविष्य में मुझे लगेगा कि समाज भावनात्मक रूप से शांत हो गया है और इसे स्वीकार करने के लिए तैयार है तब मैं इस कृति को छपने के लिए दूँगा. जिन लोगों ने मुझे इतना अपमानित प्रताड़ित किया मैं उनके विरुद्ध भी कोई कानूनी कारवाई नहीं करने जा रहा हूँ...


मैं लंबे कानूनी दाँव पेंच में नहीं उलझना चाहता जिस से कम से कम आने वाले समय में अपना काम शांतिपूर्ण ढंग से कर पाऊँ. इतना ही नहीं जो सत्ता में बैठे शक्तिशाली लोग हैं मेरी क्षमता उनसे पंगा लेने की नहीं है. इस संकट में जो तमाम लोग मेरे साथ खड़े रहे उन्हें मैं तहे दिल से शुक्रिया कहना चाहता हूँ- विशेष तौर पर 'मातृभूमि' की संपादकीय टीम और अपने परिवार का आभारी हूँ जो निरन्तर मेरे साथ खड़े रहे.

मेरी कलम रुकेगी नहीं, आगे भी चलती रहेगी."



इस घटना के दस दिन बाद ही केरल के प्रमुख प्रकाशक डी सी बुक्स ने हिंदूवादी संगठनों की धमकियों को अँगूठा दिखाते हुए एस हरीश का उपन्यास "मीशा" पुस्तक के रूप में प्रकाशित कर दिया. इस मौके पर डी सी बुक्स ने एक महत्वपूर्ण व साहसिक वक्तव्य भी जारी किया :

'यदि 'मीशा' को अब न प्रकाशित किया गया तो हम ऐसे मुकाम पर पहुँच जायेंगे जहाँ मलयालम में कोई कहानी और उपन्यास प्रकाशित करना असंभव हो जायेगा. वैकुम मोहम्मद बशीर, वी के एन, चंगमपुझा, वी टी भट्टतिरिपद जैसे बड़े और  आज की पीढ़ी के लेखकों की रचनाएँ प्रकाशित करने के लिए जाने किस-किस की अनुमति लेनी पड़ेगी.'
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विवादित  अंश

छह महीने पहले मेरे एक दोस्त ने मेरे साथ चलते चलते पूछा : 'बता सकते हो लड़कियाँ नहा धो कर और इतना सज धज कर मंदिर में क्यों जाती हैं?'
'पूजा करने के लिए,और क्यों?'
'नहीं, तुम गौर करना....सबसे सुंदर कपड़े पहन कर, सबसे आकर्षक सज धज के साथ ही वे भगवान के सामने प्रार्थना क्यों करती हैं?...उनके अवचेतन में यह सजधज बैठी हुई है - यह इस बात का संकेत है कि वे सेक्स करने की उच्छुक हैं. यदि ऐसा नहीं है तो हर महीने चार पाँच दिन वे मंदिर की ओर रुख क्यों नहीं करतीं? अपने को सजा धजा कर वे यह घोषणा करती हैं कि अब वे इसके लिए तैयार हैं....खास तौर पर उनके निशाने पर मंदिर के पुजारी होते हैं. पहले के समय में इन सारे कामों के असली मालिक वही होते थे.'
(सुप्रीम कोर्ट में किताब के विरोध में दायर याचिका से उद्धृत)
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किताब के बारे में लेखक हरीश ने विस्तार से 'द हिन्दू' से बात की और कहा कि विवाद वाला प्रसंग पचास साल पहले का दो मित्रों का संवाद है. उनके अनुसार-

जिस दिन उपन्यास के पात्र लेखक का हुक्म मानने लगेंगे उसदिन सब कुछ नष्ट हो जाएगा - वास्तविक जिंदगी और कहानियाँ दोनों विसंगतियों (ऐब्सर्डिटी) के पैरों पर चलती हैं. वे कहते हैं कि वे स्वयं संवाद के स्त्री विरोधी तेवर के खिलाफ़ हैं पर किरदारों पर उनका कोई वश नहीं चलता. उनके अनुसार कहानियाँ लोकतंत्र का उच्चतर स्वरूप है जिसमें असहमतियों की पूरी जगह है.
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yapandey@gmail.com

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  1. उम्मीद है जल्द ही ये किताब हिंदी में भी उपलब्ध होगी।

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  2. इतने महत्वपूर्ण और ख़तरनाक प्रकरण पर,जो पिछले कुछ हफ़्तों से बुद्धिजीवियों को उद्वेलित किए हुए है,यह टिप्पणी हिंदी में अपर्याप्त और कामचलाऊ है.इस पर मलयालम सहित अन्य दक्षिण भारतीय भाषाओँ और अंग्रेज़ी में बहुत कुछ बहुत पहले छप चुका है.

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  3. विष्णुखरे जी की बात को थोड़ा आगे बढ़ाऊंगा मात्र इतनी टिप्पणी पर्याप्त नही है। जो किताब को अपितु उसके विरोध को व्यख्यायित कर सके।साहित्य हो दर्शन या विचारधारा जब तक उसमे असहमति के स्वर हैं उनके स्वीकार्यता है। तभी तक वो समाज जीवंत है । सेक्स और मंदिर कंही न कंही आपस मे जुड़े रहे है चाहे अजंता एलोरा की गुफाएं हो खुजराहो के मंदिर, या फिर मंडियो में व्यप्त देवदासी प्रथा। काम तो इनमें जुड़ा रहा हां उसके उपयोग और उपभोग की प्रकृति एंव प्रवर्ति भिन्न रही है।
    किताब हिंदी में आकर ज्यादा पाठकवृन्द की सम्मिति प्राप्त कर सकेगी।

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  4. पर्याप्तता की न तो कोई परिभाषा है न सीमा...मेरी जानकारी में हिंदी पाठकों को किसी ने इस तानाशाही रवैय्ये के बारे में नहीं बताया और सभी हिंदी पाठक दूसरी भारतीय भाषाओं या अंग्रेजी में जाकर मुकम्मल और पर्याप्त टिप्पणी पढ़ें यह संभव नहीं।विस्तार से लिखने के लिए किसी ने किसी का हाथ तो पकड़ा नहीं।मुझे लगता है किसी को कुछ कहने से रोकने की प्रवृत्ति हिंदी में भी तेजी से बढ़ रही है।
    -- यादवेन्द्र

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  5. विष्णुखरे जी की कही बात को ही थोड़ा आगे बढ़ाऊंगा। ऎस हरीश की मात्र इतनी टिप्पणी ही पर्याप्त नही है। जो किताब को व्यख्यायित ,उसके विरोध को स्पष्ट कर सके। किसी समाज मे चाहे साहित्य हो,दर्शन हो या कोई विचारधारा जब तक उसमे असहमति के स्वर हैं उनकी स्वीकार्यता है तभी तक वो समाज जीवंत है । सेक्स और मंदिर कंही न कंही आपस मे जुड़े रहे है चाहे अजंता एलोरा की गुफाएं हो खुजराहो के मंदिर, या फिर मंदिरों में व्यप्त रही देवदासी प्रथा। *काम* तो इनमें जुड़ा ही रहा है। हां उसके उपयोग और उपभोग की प्रकृति एंव प्रवर्ति भिन्न भिन्न रही है।
    किताब हिंदी में आकर ज्यादा पाठकवृन्द की सम्मिति प्राप्त कर सकेगी।

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