(photo
courtesy DEBMALYA RAY CHOUDHUR)
“ओ मेरी भाषा
मैं लौटता
हूं तुम में
जब चुप
रहते-रहते
अकड़ जाती है
मेरी जीभ
दुखने लगती
है
मेरी आत्मा” (केदारनाथ सिंह)
कविता के पास
भी मनुष्यता इसी तरह लौटती है, जब तक कविता लिखी जाती रहेगी मनुष्य की प्रजाति इस
धरती पर बची रहेगी. सृजनात्मकता कोशिकाओं में ही नहीं भाषा में भी
घटित होती है.
आइये युवा
कवि अंचित की कुछ कविताएँ पढ़ते हैं.
अंचित की
कविताएँ
यात्राएँ : (एक)
ईमानदार
पंक्तियों के हाथ
अंत में कुछ
नहीं आता है.
कुछ भी चिन्हित
करना स्वयंवर जैसा है,
लगा देना
ठप्पा.
मानता हुआ
बिम्बों को नया,
चढ़ता हूँ
पहाड़ पर,
पीठ पर ढोता
हुआ बोझ.
हर बार वही
बोझ होता है
तो गणित ये
तय करता है
कि बिम्ब भी
वही हैं- दोहराव की गड्डी.
बसंत आता है,
जैसे बीच सड़क
पर एक सूखा हुआ पेड़ हूँ
और बगल की
बालकनी में चुग रहा है दाने
कोई मोर बैठा
हुआ.
पानी का जहाज़
होता हूँ कभी कभी-
आगमन और
पलायन दोनों का गीलापन लिए हुए,
घाटों का
असंभव प्रेम लिए.
दूसरों के
लिए कुछ नहीं किया-
स्वजनों के
बारे में भी नहीं सोचा,
कविता अपने
लिए की,
जैसे चूमा
प्रेमिका को डूबते सूरज के सामने,
जैसे पैसेंजर
ट्रेन में मूली के अचार में सान कर फांका चबेना
और ट्रेन
डूबती गयी ठन्डे होते
गया-जंक्शन पर .
अगर कुछ
हासिल भी होता
(पंक्तियों को, और अगर ये भी
तय सत्य कि
कर्म का
प्रयोजन सफलता है )
तो भी
कुल जमा जीरो
है.
मरने के बाद
कविता का इस्तेमाल
नए पैदा हुए
कर लेते हैं सोशल इंजीनियरिंग के लिए
जैसे मैंने
अपने पहले के मृत कवियों का इस्तेमाल किया
और उन्होंने
अपने पुरखों का.
मैं कौन होता
हूँ?
दुख नटखट
होता है
चिपट चिपट
जाता है पैरों से,
चाटता है
तलवे ,
याद दिलाता
है कई कई बार कि
कविता बूढ़े
घुटनों में भरे हुए मवाद में होती है.
मैं कौन होता हूँ?
अंत में कुछ
नहीं बचता,
उँगलियों की
छाप प्रेमिका की पीठ से अदृश्य हो जाती है,
उसकी पीठ का
शीतल ज्वर,उसकी थूक का
स्वाद
एक सूखती हुई
नदी के पास दफ़न बच्चे के शव जैसा याद रहता है
अस्पष्ट -
पानी और दीयर का चिरंतन युद्ध जैसे.
आधा दुःख -
आधा उल्लास
कटे अंगूठे
से खून चूता हुआ.
कविता है
कि जीवन है
कि गिलास कोई
कि आधा खाली
कि आधा भरा हुआ.
यात्राएँ (दो)
चीखें,
ठण्ड,
घुटता रूदन,
रुग्न
मरणासन्न नदी.
भटकता हुआ,
घर खोज रहा
हूँ.
राम का नाम,
एक घड़ीघंट,
पीपल का पेड़
तुम थी जब
कुछ नहीं था.
नदी में पानी
था,
कर्मनाशा से
डूब जाते थे गाँव
कौनहारा पर
लाल पानी बहता था
कनैल का पेड़
झड़ता था दियरे पर
दूर उज्जैन
में भैरव के मंदिर में
जब दिए सांय
सांय करते थे
काली होती
शाम के वक़्त,
तुम सजदे में
होगी,
रोज़ याद आता
है.
****
एक पुराने
झड़ते हुए थियेटर की बंद पड़ी
टिकेट खिड़की से
सटी हुई चाय की एक दूकान-
जहाँ पलटता
हुआ अपनी महंगी घड़ी के बिना अपनी कलाई,
जेब में पड़े
लाइटर की टोह लेता हुआ,
अचानक थम
जाता हूँ.
ये याद आता
है,
नजीब घर नहीं
लौटा अभी तक.
बसंत कुञ्ज
सुनसान हो जाएगा,
बेर सराय में
ओस बढ़ जायेगी
पालम पर
विलम्ब के प्लेकार्ड लगा दिए जायेंगे.
नजीब की
उम्मीद को
सूरज ले जा
रहा है अपनी पीठ पर ढ़ोता हुआ.
मैं सोचना
चाहता हूँ,
जो होता है
प्यार, नफरत, गिला, शिकवा,
आदमी आदमी से
करता है.
***
आखिर कलाकार
को तकनीक सोचनी पडती है.
कला के लिए
कला क्या एक बेकार वाक्य है?
कलाकार हूँ
भी कि नहीं?
एक भीड़भाड़
वाला जारगन है इधर भी
हफ्ता मांगता, धमकाता हुआ.
(ये क्यों कहा
जाए कविता में?)
****
जब मेरे मुंह
में मिटटी भरी हुई थी
मेरे लिए
फातिहे पढ़े गये और काली पट्टी बांधे
मुझसे लिपटी
हुई तुम मजलिसों में नौहे रोती रही.
मेरे जागने
से पहले
कर्कगार्ड के
सपने में जाने कब तक आता रहा अब्राहम.
आवाज़ें बदल
जाती हैं ना अचानक ही.
जैसे लोग. आप
पहचान नहीं पाते.
*****
अ से अस्सी
घाट, ब से चले
जाओगे भितरामपुर
ई से ईक्जिमा
चढ़ता हुआ देश की केहुनी पर
ल से लम्बी
लाइनें
म से...
किसकी माँ ? कौन माँ ?
घ से घूम रहा
है सब
दिल कुहंक
रहा है,
उसकी सांस की
नली में चला गया है अपना ही खून.
रेणु का गाँव
है,
बैल हांक रहा
है हीरामन चिरप्रसन्न
कोई बेताल
उसके माथे नहीं बैठा.
******
तुम्हारी
ठंडी त्वचा
गर्म होने
लगती है मेरी छुअन से.
तुम्हारे
पसीने की गंध रोज़ खेतों तक मेरा पीछा करती है.
तुमसे इतर
कहीं और जाना नहीं चाहता,
सब घाटियाँ
और पहाड़ इधर ही इतनी दूर में,
सब लोग बाग़
इतनी ही दूर में,
जीने लगना
इतनी ही दूर में,
एक जमी हुई
झील, एक फूलों की
घाटी इतनी ही दूर में.
****
पर घर नहीं
मिला अभी तक.
नजीब नहीं
लौटा,
कोई अपने
कमरे में पंखे से लटका है,
पूरे सूबे
में एक ही खून चढ़ाने की मशीन है,
गांधी मैदान
वन वे हो गया है,
दिल्ली में
गिरने लगा है कुहासा,
नजीब की बहन
को घसीटा गया है राजपथ पर
नजीब की माँ
देखना चाहती है ईसा मसीह को फिर से
पानी पर चलते
हुए.
दुनिया का
दीमक हो कर रह गया है ईश्वर-
मेरे दोस्त, तुम्हारी माँ
के लिए हमलोग कुछ नही कर पाए!
****
लूट लिया गया
है सब जो लूटा जा सकता था
बेच दिया गया
है वो सब जो बेचा जा सकता था
***
मेरा
तुम्हारा दुर्भाग्य देखो, कैसा समय आता जा रहा है
तुम्हारे लिए
कविता लिखने बैठता हूँ और रोने लगता हूँ.
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कवितायेँ लिखता हूँ. कुछ लेख और कुछ कहानियां भी लिखी हैं. साहित्य और युवाओं से जुड़े एक छोटे से ग्रुप का सदस्य हूँ. पटना में रहता हूँ. कुछ जगह कुछ कवितायेँ प्रकाशित हुईं हैं. गद्य कविताओं के दो संग्रह," ऑफनोट पोयम्स" और "साथ-असाथ" के नाम से प्रकाशित हैं.
anchitthepoet@gmail.com
अच्छी कविताएँ हैं। भविष्य में और भी प्रौढ़ कविताएँ लिखेंगे ऐसी उम्मीद बंधती है। कहीं-कहीं (स्व)सम्पादन की ज़रूरत महसूस होती है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविताएँ
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अंचित आपकी कविताओं में अपने समय का दर्द है।
जवाब देंहटाएंबाद की छोटी कविताएँ बेहतर लगीं प्रथम पाठ में ।
जवाब देंहटाएंअंचित जी हिंदी के युवा कवियों में सबसे ऊपर है। उनके बिम्ब बहुत सुंदर है।
जवाब देंहटाएंवह हिंदी की आख़िरी उम्मीद है।
वह मनुष्य की अँधेरी टेढ़ी गुफ़ाओं के कवि है गुदाओं के नहीं।
बहुत बढ़िया, कविता में अनुभव झलकता है और समाज के लिए चिंता का भी इल्म होता है।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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