निज घर : राकेश श्रीमाल































राकेश श्रीमाल की रचनात्मकता के वृत्त में कविता, कथा, कला, संपादन, पत्रकारिता सब एक दूसरे में घुले मिले हैं. उपन्यास लिखते –लिखते कविताएँ लिखने बैठ जाते हैं, तो कभी इनके बीच सृजनात्मक गद्य के तमाम प्रयोग कर बैठते हैं. अभी कोलकाता में रह रहे हैं और ‘लोक-शास्त्रीयपरम्परा-आधुनिकतापर आधारित पत्रिका ताना-बाना’ का संपादन कर रहे हैं. ‘डायरी के अंश शीर्षक’ से उनके सृजनात्मक गद्य के कुछ यहाँ हिस्से प्रस्तुत हैं जिनमें स्वप्न केन्द्रीय भूमिका में है.




राकेश श्रीमाल  की  डायरी  के अंश                              




by JolsAriella






ना जी पाने का समेटना
      
वर्षों से नहीं मिले हमारे परिचितों से एकाएक जब स्वप्न में मुलाकात हो जाती है, तब उस स्वप्न की स्मृति करते वक्त, हम स्वप्न की नहीं वर्षों से नहीं मिले उन परिचितों की याद करने लगते है. ऐसा क्या घटता है कि वे अचानक स्वप्न में आकर हमें बहुत पीछे की दुनिया में खींच कर ले जाते हैं. मानो यह जता रहे हो कि यह जीवन भी तुमने जिया है, जिसकी वर्तमान में अब कोई जरूरत नहीं रही.


क्या स्वप्न हमारे जीवन की पटकथा को अदृश्य मानकर संतुलित हो, अपनी आंख से आगत-विगत सब कुछ देखता रहता है. ऐसे में वह किसी का पक्षपाती नहीं रहता. केवल स्वप्न रहता है और जीवन रहता है, जो कभी वास्तव में घटता है तो कभी नहीं घट पाता. जीवन में ऐसा बहुत कुछ शामिल रहता है, जो घट नहीं पाता. लेकिन उसके अपरोक्ष प्रभाव जीवन में ही इधर-उधर बिखरे दिखाई देते हैं जिसे थोड़ा बहुत हम समेट भी लेते हैं. यह ना जी पाने का समेटना है, जिसमें सबसे अधिक मदद स्वप्न ही करता है.

आखिर हम जिसे जी ही नहीं सके, उसे समेट कर क्या करते हैं. क्या हमारे मन के भीतर कोई ऐसी पोटली अपनी ढीली गाँठ बांधे पड़ी रहती है, जिसे हम जब चाहे खोलकर, इस ना जिए को भी उस पोटली में रख उसे फिर बांध देते हैं. जीवन में यह कितनी बार होता है. कितनी मर्तबा हमें वह पोटली खोलनी होती है और फिर उसमें धीरे से गांठ लगा दी जाती है, ताकि आइंदा उसे खोलने में मशक्कत नहीं करनी पड़े.

इस जीवन में उस पोटली में ना जाने कितना कुछ इकट्ठा होता रहता है, क्या वही थोड़ा-थोड़ा हमारे स्वप्न में भी कभी-कभी आ जाता है. उस पोटली में तो ऐसा भी बहुत कुछ होता है, जिसे हम भूल चुके होते हैं और ऐसा भी बहुत कुछ होता है, जिसे हम हमेशा याद रखना चाहते हैं.
हमारे नहीं रहने पर वह पोटली स्वतः ही खुल कर इस संसार में बिखर जाती है और कभी-कभार उसमें बिखरे दृश्य स्वप्न बनकर लोगों की नींद में प्रवेश कर जाते हैं, जो अभी दुनिया में उपस्थित है. स्वप्न क्या कभी मरते नहीं है.वे एक ही देह से निकल दूसरे की देह में समय-समय पर यात्राएं करते रहते हैं.

यह ना जी पाने का समेटना हमारे जीने के बाद भी समेटा हुआ रहता है. उस पर केवल उसी का थोड़ी देर का अधिकार होता है जब वह स्वप्न में यह देख रहा होता है.

फिर भी उस पोटली में हम बहुत कुछ ऐसा समेटते रहते हैं, जो हमें सबसे प्रिय है लेकिन हम से दूर हैं.
(20 मार्च 2018, सुबह)





अनछुए  का  छुआ


प्रेम जब अकेला हो जाता है, तब न जाने किस-किस तरह से, किस-किस परिधान में और ना जाने किन-किन मौसम में वह स्वप्न में साथ देने लगता है. ऐसे प्रेम की स्मृति कुछ देर के लिए हमें हमारे प्रेम के पास चुपचाप बैठा देती है. थोड़ी सी ढलती साँझ होती है, कुछ शब्द बुदबुदाते हैं, देह सम्मान जनक तरीके से एक दूसरे को छूती रहती है. जिसे अनछुए का छुआ कहा जा सकता है. ऐसे में उसका दायां हाथ मेरे बाएं हाथ में अदृश्य हो छुप जाता है. धीरे-धीरे मैं उसे अपनी पूरी देह में महसूस करने लगता हूं. अब वह मेरे पास नहीं बैठी है. वह मेरे भीतर बैठी है जिसे मेरे सिवाय और कोई देख नहीं सकता.

क्या इस स्वप्न में वह जान रही है कि वह मेरे भीतर बैठी है और गहरी नींद में सोई हुई है. क्या मेरी देह में बैठे गहरी नींद लेते हुए वह कोई दूसरा स्वप्न देख रही है. अगर मैं उसके देखे जा रहे स्वप्न में हूं, तो मुझे नहीं पता कि मैं क्या कर रहा था. क्या मैं उसके पास बैठ उससे बात कर रहा हूँगा या फिर उसकी देह में अदृश्य होकर गहरी नींद में बिना कोई स्वप्न देखे सो रहा हूँगा.

आखिर मैं या वह कितनी जगह नींद निकाल सकते हैं और कितनी नींदों में स्वप्न देख सकते हैं. क्या स्वप्न में निभाई जा रही भूमिका हमारे भीतर चुपचाप दुबका बैठा व्यक्ति इसलिए करता है कि वह भी थोड़ी दुविधा और थोड़े आपसी संबंधों को देख ले. अपनी भूमिका खेल वह वापस अपनी जगह चला जाता होगा और उस स्वप्न की स्मृति में हम उसे अपने आप की तरह मान लेते हैं.

वैसे भी हमें, अपने आप को इस तरह से देखने और अनुभव करने को कम ही मिलता है.
(17 मार्च 2018, सुबह)





असंभव से बाहर


कभी-कभी स्वप्न में ऐसा कुछ दिख जाता है, जो कि असंभव होता है. माँ के साथ उसका बैठना, बहुत काम करने पर माँ की धीमे से हंसते हुए डांट सुनना, मेरा चुपचाप बैठे रहना. जैसे स्वप्न में मैं मेरी ही जगह बैठकर उस स्वप्न को सुन रहा था. शायद माँ के लिहाज से उसने भी साड़ी पहन रखी थी.

इस स्वप्न की स्मृति को स्पर्श करते हुए मैं असंभव को संभव की तरह देख पा रहा हूं. अपने निधन के पहले क्या माँ के अवचेतन में ऐसा ही कुछ रहा था? क्या माँ भविष्य में यह लाने की क्षमता रखती थी. क्या माँ ने अपने किसी स्वप्न में उसकी शक्ल-सूरत एक अनजान व्यक्ति की तरह देख ली थी और क्या तब ही वह समझ गई थी कि उसके बेटे की इच्छा कभी इसी के साथ जीवन गुजारने की होगी.

लेकिन वह तो माँ की फोटो के सिवाय जानती ही नहीं थी. अलबत्ता माँ की स्मृति का स्मरण जरूर करती होगी. तब फिर वह स्वप्न में माँ से कैसे बात कर रही थी. वह भी आपस में इतना घुलमिलकर, कि मैं कुछ भी बोल नहीं पा रहा था या बोलने के लायक उस संवाद परिधि में मेरी कोई जगह नहीं थी. यह भी हो सकता है कि उस स्वप्न में माँ को और उसको यह भी पता नहीं हो कि मैं बैठा हुआ हूं. तब क्या मैं उस स्वप्न में अदृश्य होकर बैठा था. और अपनी अदृश्यता में ही उन दोनों को साथ बैठे देख रहा था जो कि वास्तविक जीवन में कभी नहीं घटा था.

स्वप्न का स्पर्श करते हुए लगता है कि वे हमारे अधूरे जीवन को अपने तई जैसे-तैसे पूरा करने का भोला प्रयास करने लगते हैं. वह हमारे जीवन को अपनी ऊंचाई से ढक कर सहज और सरल बनाने की कोशिश करते हैं. वास्तविक जीवन ठीक इसके विपरीत हमें हमारे ही प्रेम का उपयोग करने और फिर धीरे-धीरे दूर रहने की कुटिलताएँ सिखाता रहता है.
(19 मार्च 2018, सुबह)





स्मृति का भूगोल


हमें पता भी नहीं रहता, जब हम गहरी नींद में सोए रहते हैं. अचानक हम किसी स्वप्न को देखने लगते हैं और उसमें भागीदारी करने लगते हैं. यह स्वप्न-गाथा बिना किसी आधार के कहीं से भी शुरू हो सकती है यह जीवन केहमारे परिचित घटनाक्रम के अंत के बाद भी शुरू हो सकती है या फिर बिना किसी सिरे के बंद आंखों से खोले गए किसी चितवन के पल की तरह उस पृष्ठ से पहले क्या लिखा था, यह उस समय ना स्वप्न को पता है, ना उसके दर्शक यानी मुझे. स्वप्न की कथा, अगर कोई कथा होती हो तो, कहां से शुरू होती है और कहां नींद के अचानक खुलने से उसका पटाक्षेप हो जाता है, कोई कभी नहीं समझ पाया.


स्वप्न की स्मृति से जब हम उसे समझने की कोशिश करते हैं, तो और अधिक उलझ जाते हैं. जैसे समय कोई घड़ी की सुई को घुमा रहा है और जब वह एकाएक कहीं भी उसे रोक लेता है, तब स्वप्न का समय शुरू हो जाता है, पता नहीं कितनी देर के लिए.  क्या रात की गहरी-बोझिल नींद में स्वप्न अपनी सेंध लगाकर समय के अस्थिर होने को थोड़ी देर के लिए स्थिर बनाकर उसे विराम दे देता है. ना मालूम ऐसे कितने स्वप्न  होते हैं, जो हमारे समय को अदृश्य विराम देकर गुम हो जाते हैं और कभी याद नहीं रह पाते.  


हमारा देखा हुआभोगा हुआ और जिया हुआ ऐसा बहुत कुछ होता है, जो हमारी स्मृति में जगह नहीं बना पाता. हमारी स्मृति का भूगोल, जीवन के भूगोल से बहुत छोटा होता है. हम उस स्मृति के सीमित भूगोल में वही सब समेटते हैं, जो हमें प्रिय है, जिसे हमें अपनाया है या फिर जिसके लिए यह जीवन जिया जा रहा है.
(17 मार्च 2018, दोपहर)





स्वप्न  के  आर  पार


जीवन में स्वप्न की प्रतीक्षा कभी नहीं की जा सकती. स्वप्न अप्रत्याशित ही आता है हमारा काम केवल उसे देखना भर होता है. देखना और उसमें शामिल हो जाना. नींद खुलने पर उसे याद किया जाना या कि यह बिल्कुल भुला दिया जाना कि बीती रात हमने स्वप्न देखा था, यह भी कुछ निश्चित नहीं होता. कभी-कभी ऐसा भी होता है कि स्वप्न के कुछ हिस्से याद भर रह जाते हैं शेष विस्मृति में चला जाता है.

जो याद नहीं रहता, क्या वह स्मृति के लिए जरूरी नहीं होता? या वह इसलिए स्मृति में नहीं बना रहता कि हम उससे कभी मिल ना पाएँ, उसे स्पर्श ना कर सके.

जैसे हम किसी की प्रतीक्षा करते-करते समय बीतने के साथ-साथ थोड़ा उकता जाते हैं, थोड़ा झुंझला जाते हैं, लेकिन जैसे ही प्रतीक्षा पूरी होती है, हम हमारी खीझ को भूल मिलने लगते हैं. जैसे प्रतीक्षा करना कुछ हो ही नहीं. बिना किसी प्रतीक्षा के स्वप्न को भी हम उसी तरह गले लगा कर मिलते हैं, जैसे किसी अन्य का लंबी प्रतीक्षा के बाद.

स्वप्न देखते-देखते अचानक स्वप्न का गुम हो जाना हमें किसी प्रतीक्षा में अवाक् अकेला कर देता है. अपने साथ प्रतीक्षा स्वप्न के खत्म होने के बाद शुरू होती है, उसकी स्मृति की प्रतीक्षा से, स्मृति पर ज़ोर दिए  जाने की प्रतीक्षा से.

किसी आते स्वप्न का स्पर्श किसी प्रतीक्षा को छूने जैसा होता है. दृश्यमान स्वप्न में यह छूना इतना अदृश्य रहता है कि हम उसे छूते हुए स्वप्न की काया के आर-पार निकल जाते हैं.

क्या स्वप्न हमारी काया में रमे होते हैं?
(1 मार्च 2018, सुबह)



by Dejon




बिना किसी पटकथा के


जीवन उतना  पारदर्शी नहीं होता, जितना कि स्वप्न होते हैं. हम उनकी स्मृति में भी उनके आर-पार जा सकते हैं. विभिन्न धरातलों पर उनकी कही अनकही बातें और दिख रहे को छूकर टटोल सकते हैं. कि यह असली है या नकल. यह दीगर बात है कि जीवन के असली या नकली होने को पकड़ना आसान खेल नहीं होता. उसके लिए एक पूरा जीवन लगता है और जब हम यह समझने लगते हैं, तब हमारी ही विदाई हमें पुकार रही होती है.

स्वप्न नकली हो सकते हैं, लेकिन वे धोखा नहीं देते. हम जिसे धोखा समझते हैं, वह खुद ही उसे उपस्थित करते हैं और धोखे की तरह अनुभव करने लगते हैं. जीवन धोखा दे सकता है, लेकिन स्वप्न नहीं. अगर नींद स्वप्न-रहित हो जाए, तो क्या ऐसा नहीं लगेगा कि व्यक्ति सोया और जाग गया. उसने कुछ किया ही नहीं. तब क्या स्वप्न देखना हमारी नींद की प्रक्रिया का कोई ऐसा हिस्सा है, जिसे हम कुछ करना कहसकें. हमारे अपने जीवन के बाहर कुछ करना, हमारे करने की परिधि से बाहर आ कुछ करना. स्वप्न देखना यानी कुछ ऐसा करना, किसी कोई भी पूर्व-योजना हम ने नहीं बनाई थी. हम सो रहे होते हैं और करवट बदलते रहते हैं कि अचानक कोई स्वप्न शुरू हो जाता है. हम उसमें बेहद चुपके से शामिल हो जाते हैं. और कभी-कभी अपना ही किरदार निभाने लगते हैं, बिना किसी पटकथा को पढ़े हुए स्वप्न के सभी पात्र अपने संवाद बोलते रहते हैं. जो कि किसी आश्चर्य की तरह हमारी-अपनी बोलचाल की भाषा में ही होते हैं.

हम स्वप्न देखते समय उन संवादों का अर्थ समझ लेते हैं. लेकिन उस स्वप्न की स्मृति में उन शब्दों का अर्थ खोजते रहते हैं.
(15 मार्च 2018, दोपहर)





भले और अपने


कभी-कभी जीवन इतना सहज और सरल लगने लगता है, जैसे कि एक-दो दिन से अभी लग रहा है, मानो उसका कोई विशेष अर्थ ही ना हो. अर्थहीन होने से नहीं, बल्कि अर्थ विशेष की व्यर्थता तमाम इतिहास से लगभग हाँफती हुई, वर्तमान में कुलाँचे मारने लगती है.

ऐसा ही कुछ स्वप्नों की स्मृति के साथ भी लगने लगा है. उतनी ही सहज और सरल, उतनी ही अर्थबोधता से अलग-थलग खड़ी हुई. सच तो यह है कि जीवन का कोई भी अर्थ, विशेषकर व्यवहारिक अर्थ मुझे इन दिनों कुछ अधिक ही नापसंद आने लगा है. क्या सहजता और सरलता बिना किसी अर्थ के संभव नहीं है. तब क्या स्वप्न देखने का कोई विशेष अर्थ इसलिए भी नहीं है की वह सहज और सरल है. लेकिन बाद में उस स्वप्न को याद करते हुए उसे स्पर्श करते हुए हम उसका मनचाहा अर्थ निकाल लेते हैं. ऐसा अर्थ जो हमारी सुविधानुसार होभले ही वह सच ना हो.

कभी कभी बिना सच के भी सहजता और सरलता सच से अधिक भावपूर्ण लगने लगती है. क्योंकि हम उसे पसंद करते हैं और उसमें एक विशिष्ट किस्म का सुख हमें मिलता है जो किसी दूसरे को दिखाई नहीं देता अक्सर व्यक्ति दूसरों के सच को ही अपना सच समझने की गलतफहमी में रहता है. स्वप्न शायद इसी गलतफहमी को दूर करते हैं. हमारे स्वप्न किसी दूसरे को पता नहीं चलते, इसलिए वह चाहे जो भी हो, लेकिन पराए नहीं लगते. भले ही हमारे वास्तविक जीवन में स्वप्न के पात्र पराए हों. वे स्वप्न में भले और अपने से लगते हैं.
(16 मार्च 2018, शाम)






मेरी  आंखों  को  ढके  उसके  बाल


कभी-कभी कुछ स्वप्न अपने घटने में भी और फिर उस की स्मृतियों में जादुई असर छोड़ देते हैं. जैसे हमने कोई स्वप्न नहीं, असल में बिना किसी पूर्व योजना के अचानक जादू ही देख लिया हो. कुछ हतप्रभ और कुछ विस्मृत रहते हुए. ऐसे स्वप्न देखते हुए हम भी उस जादुई स्वप्न के पास हो जाते हैं.मानों जादू करते भी हैं और देखते भी हैं. जादूगर की वेशभूषा और सफ़ेद लंबी टोपी भले ही अनुपस्थित रहती हो, लेकिन कुछ ऐसा घटता है, जिसे केवल जादू ही कहा जा सकता है.

ऐसे में वह पानी में तैरती रहती है, मैं उसके बहुत नीचे तैरता रहता हूं. हमारे तैरने की आवाज़ें सांसो की तरह निशब्द लयकारी कर रही होती हैं. हम दोनों एक दूसरे की विपरीत दिशा में तैर रहे हैं लेकिन फिर भी साथ-साथ ही तैर रहे हैं.  हम तैरते हुए जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे हैं, पानी का रंग भी धीरे-धीरे बदलने लगता है. हमने पानी को कभी उस रंग में नहीं देखा था. कभी-कभी लगता कि हम पानी में नहीं, हवा में तैर रहे हैं.हम्मरी देह से टकराने पर वृक्षों पर लगी पत्तियों की सरसराहट सुनाई दे रही है. हवा में तैरते-तैरते हम किसी बरगद के बहुत पुराने पेड़ के एक बड़े तने पर लेट गए हैं. वहां खूब सारे पक्षी पहले से सोए हुए हैं. एकाएक हवा में ठंडक जैसी महसूस हुई और फिर हवा में एक नई गंध फैल गई कुछ कुछ क्लोरोफॉर्म जैसी. जिसमें हॉस्पिटल में ऑपरेशन से पहले देह विशेष को निष्क्रिय कर दिया जाता है. हमें भी उसकी गंध से नींद आने लगी. हम दोनों एक दूसरे से टिक कर सो गए. उसका पता नहीं, लेकिन मैं यह पहली बार स्वप्न में खुद को सोते हुए देख रहा था जबकि उसके सिर के बाल मेरी आंखों को ढके हुए थे.
(14 मार्च 2018, शाम)




जीवन  और  स्वप्न  के  बीच


पार्क की पार्क की तरफ जाने वाली सड़क जहां खत्म होती, वहीं से पार्क का घुमाने वाला लोहे का छोटा दरवाजा शुरू हो जाता. भीतर कुछ बच्चे गेंद को फुटबॉल की तरह खेलते रहते. हम शाम को थोड़ी देर पार्क की जिस बेंच पर बैठे रहते, वह गेंद रूपी फुटबॉल ठीक हमारे बीच आ गिरती.वह गेंद स्वप्न की सूत्रधार बन जाती. और हमें पता ही नहीं चलता कि हम पार्क में बैठे हैं या स्वप्न की किसी अदृश्य बेंच पर. वह गेंद  उठा लेती और बच्चों के साथ खेलने लगती.यह उसे सबसे अधिक खुशी देता और मुझे भी यह सब देखते हुए अच्छा ही लगता.वह बच्चों को खेलने के कुछ गुण भी सिखाने लगती है. ऐसे में उसका व्यक्तित्व किसी कोच जैसा नहीं, बल्कि उन बच्चों के बीच सहज रुप से घुला मिला रहता है. एकाएक वह बच्चों के बीच से गुम हो जाती और बेंच के पीछे की तरफ से आकर मेरे पास मुस्कुराते हुए बैठ जाती.
                      
मैं उसे छेड़ता,‘चलने का मन है,चलें.
किधर’, वह बोलती.
उसकी आंखों में देख बोलता- या तो जीवन में वापिस चलते हैं या स्वप्न में.
दोनों जगह चलते हैं नावह चिर परिचित नालगाकर बोलती.
अभी हम कहां पर हैं. जीवन में या स्वप्न में.मैं उससे पूछता.
फिलहाल तो दोनों के बीच में खड़े हैं.वह बोलती.

तभी एक बच्चा अपने हाथ में गेंद लेकर आता और उससे कहने लगता - दीदी, सभी बच्चे आपके साथ थोड़ी देर और खेलना चाहते हैं.”  वह मेरी तरफ़ मुस्कुराते हुए उन बच्चों की तरफ चली जाती.

मैं सोच रहा हूं कि मेरे साथ कोई खेल रहा है? कहीं मैं ही तो अकेला अपने साथ नहीं खेल रहा.
(15 मार्च 2018, सुबह)






अतल  पातल  की  गूँज


वह अधनींद थी या आधा-अधूरा अवचेतन.  वह स्वप्न था, या स्वप्न जैसा मैं देख रहा था. उसमें वह भी दिखाई नहीं दी थी. मेरे नाम को उसने अपने उच्चारण में सहानुभूति के साथ पुकारा था. उस नाम के पहले ना कोई शक्ल, और ना ही उसके बाद में. नाम भी केवल एक बार बोला गया. वह मेरे मन में बहुत देर तक ऐसे गूँजता रहा, जैसे उसने मेरे नाम की वह आवाज़ मेरे मन के गहरे और अतल पाताल में से लगाई हो.और वह रह रह कर मेरे भीतर ही गूँज रही हो. उसके पुकारे गए मेरे नाम में एक दर्द, एक कशिश महसूस हुई थी. लग रहा था जैसे कोई साथ में बैठकर मेरे हाथों को सहलाकर मुझे ना मालूम क्या तसल्ली दे रहा हो. पर सच तो यह है कि मुझे अच्छा लगा था. आख़िर इतना भी कौन करता है और क्यों करेगा.

अगर वह वास्तव में ऐसा कर रही थी, तो क्यों कर रही थी. क्या अपने बहुत सारे बिखरे हुए मन के किसी छोटे हिस्से में वह मुझे भी यूँ ही सहेजे हुए है. कभी कभी अपनी स्मृतियों को टटोलने के लिए.

क्या वह अपने स्वप्नों में इन स्मृतियों को खोजती होगी और कभी-कभी उन्हें स्पर्श भी करती होगी. क्या वह वैसा ही सानिध्य स्पर्श होता होगा, जब वह सब वास्तव में किसी मौसम में घट रहा होगा. तब की बजाय उस घटे हुए को स्वप्न में देखते हुए उसे स्पर्श करना अधिक सुखकर लगता होगा. उसके अवचेतन का कुछ हिस्सा भी इसी सुख में डूब जाता होगा.
(14 मार्च 2018 सुबह)






स्वप्न  की  ओट  में

वह किसी गांव के खेतों के बीच बनी बड़ी पगडंडी थी. उस परवह धीरे-धीरे बैलगाड़ी को खुद जोतते हुए जा रही थी.  मैं खेत के मुहाने पर वृक्षों के ऐसे झुरमुट के पीछे खड़ा था, जहां से मैं तो उसे देख सकता था, लेकिन वह मुझे नहीं देख पा रही थी.  वह बैलगाड़ी रोककर मुझे ही देख रही थी. मुझे लगा कि मैं उसके देखे जा रहे स्वप्न की ओट में कहीं दुबक कर खड़ा हूं.

स्वप्न की ओट में खड़े रहकर स्वप्न को देखना क्या स्वप्न में शामिल होना नहीं होता है? हम रहते भी हैं और नहीं भी रहते. जैसा कि प्रेम में अक्सर होता है. वह क्षुद्र किस्म के स्वार्थों और तात्कालिक फायदों में ही अपने को परिपूर्ण समझ लेता है. और हम सच की ओट में जैसे ठिठके खड़े रहते हैं.

भाषा-शास्त्र भले ही ना माने, जीवन में कई मर्तबा ऐसी अनुभूति होती है कि शायद प्रेम और स्वप्न  एक दूसरे के पर्याय हैं. कभी कोई स्वप्न प्रेम की तरह घटता रहता है, तो कभी प्रेम किसी स्वप्न की तरह.स्वप्न भी उसी तरह धीरे-धीरे अंतर्मन में रचता-बसता होगा, जैसा कि प्रेम. प्रेम क्या वास्तव में कुछ और नहीं है सिवाय स्वप्न के. थोड़े से अंतराल के बाद खत्म होने वाला.फिर स्वप्न में ही कभी-कभी अपने ही प्रतिरूप की तरह दिखाई देने वाला. या फिर स्वप्न में ही हमेशा घटने वाला. या जीवन में ही स्वप्न की तरह घटने वाला.
(14 मार्च 2018, दोपहर)






स्वप्न  की  काया


कभी-कभी लगता है कि समय तेजी से नष्ट होता जा रहा है. मैं वह नहीं कर पा रहा हूं, जो मैं सोचता रहता हूं. जैसे स्वप्न आते हैं और आपके जीवन में उससे कभी कुछ फर्क नहीं पड़ता.सिवाय उसकी मानसिकता में थोड़ा सा सकारात्मक या नकारात्मक बदलाव लाने के.

जब हम स्वप्न को याद कर रहे होते हैं, एक तरह से उसे स्पर्श कर रहे होते हैं. उसकी उसकाया को, जिसे हम बहुलता में कई अर्थों में हमारे सोचने में देख पाते हैं. स्वप्न को इस तरह से देखना ही स्वप्न का स्पर्श करना है. लेकिन क्या स्वप्न भी इस स्पर्श को महसूस कर पाता होगा. वह क्या हमारे देखने की काया को स्पर्श कर पाता होगा या फिर हमारी अपनी काया को. शायद दोनों को ही नहीं. हम तो स्वप्न को देख सकते हैं, लेकिन स्वप्न शायद हमें नहीं देख पाता होगा.

बीते समय के घने-बीहड़-अंधेरे जंगलों से होते हुए पर्वतों के सिरहाने रखी चट्टानों को पाटकर हमारे पास पहुंचते होंगे स्वप्न. उनकी पटकथा भी क्या वे ही लिखते होंगे या बीता हुआ समय अपने कुछ टुकड़ों को जोड़कर एक ऐसी फ़तांसी रच देता होगा, जिसमें सच क्या है? और झूठ क्या? घटा क्या है? और घटने वाला क्या है? यह स्वप्न देखने वाले को मालूम ही नहीं रहता. वह तो स्वप्न देखते समय केवल यही सोचता रहता है कि वह जीवन ही जी रहा है. जिसे बाद में शायद वह अपनी स्मृति में स्पर्श कर पाए.
(12 मार्च 2018)



by Brooke Shaden






समझ  से  परे  घटता  समय


एक बार उसने फोन पर कहा था  मैं अब समझ गई हूं आपको.अब यह याद नहीं कि उसने ऐसा वास्तव में कहा था या स्वप्न में.स्वप्न भी कभी-कभी सच बोल देता है और वास्तविक जीवन झूठ. लेकिन यह कौन करता है? बोलने वाला आया सुनने वाला. दोनों अगर एक मेल नहीं है तो कोई तो एक है जो गलत सोच रहा है, निरर्थक अर्थ निकाल रहा है. लेकिन यह कोई सर्वमान्य नियम नहीं है कि एक व्यक्ति के लिए जो गलत हो सकता है, वह खुद अपने को पूर्णतया सही मानता हो.

क्या एक-दो घटनाओं से कोई व्यक्ति किसी को ठीक-ठीक समझ भी सकता है. या ऐसा कहना उसकी सहज तात्कालिक प्रतिक्रिया होती है.यह भी भला कोई कैसे समझ सकता है?

हम किसी व्यक्ति के बारे में जो भी कुछ समझना चाहते हैं, दरअसल वह व्यक्ति खुद ना तो इसे समझ पाता है और ना ही समझना चाहता है. जीवन में बहुत कुछ समझ से परे भी घटता है और एकाएक इतनी जल्दी घटता है कि उसके घट जाने के बाद भी हम पूर्ववत उसकी तरफ से नासमझ ही होते हैं.अलबत्ता, कुछ दिनों तक वह घटा हुआ हमारे साथ इस तरह चस्पाँ रहता है कि हम उसे अलग करके खुद को देख ही नहीं पाते.

स्वप्न का स्पर्श भी हमारे मन की किसी अबूझ जगह पर चस्पाँ रहता है. हम नहीं, उसे केवल समय ही उखाड़ सकता है.

समय इतने सारे लोगों के अनगिनत स्वप्नों को उखाड़कर आखिर इस ब्रम्हांड में किस जगह एकत्र करता होगा.
(13 मार्च 2018)





कोई  दूसरा  ही  जीवन


लिखना अब मेरे लिए उतना ही जरूरी लगता है जैसे नींद आने के पहले अपना मनचाहा स्वप्न देखने की सहज इच्छा. लिखना मुझे अवचेतन स्थिति में ले आता है या फिर मैं अपनी अवचेतना में ही लिख पाता हूं. यह ठीक-ठीक पता नहीं. लेकिन फिलहाल यह गर्मी की शुरुआती  दोपहर  है  और  मैं  यह लिख रहा हूं.

कई दिनों से सड़क पर नहीं निकला हूं. ना ही किसी परिचित से कोई बात हो पाई है. फोन नहीं है, इंटरनेट का तो सवाल ही नहीं. अखबार देखे भी अरसा हो गया है. खुद के साथ रहते हुए ऐसा लग रहा है, जैसे खुद को ही सबसे अधिक भूल गया हूं. अलबत्ता खुद का नाम जरूर याद रहता है.

यह कोई दूसर ही जीवन है, जो मैं पहली बार जी रहा हूं. ना कोई इच्छा शेष है, ना कोई विस्मृति. कभी-कभी स्मृतियां अधनींद में जरूर खींचकर ले जाती हैं. लेकिन खुद ही मुस्कुराने का सिलसिला शुरू नहीं हो पाता.स्मृतियाँ पूरी देह को भिगो जरूर देती है. लेकिन आंखों तक आते-आते वह सारी नमी शुष्क हो जाती है. और पीछे की तरफ देखना जैसे किसी सूखे कोटर से झांकना हो.

अब कभी-कभी लगने लगता है कि किसी को याद करने से आखिर क्या होता है? क्या वह भी हमें याद करने लगे, यह जरूरी तो नहीं. लेकिन फिर भी याद करना एक भला, भोला और अच्छा काम लगता है.याद करना जैसे किसी पार्क की बेंच पर साथ-साथ चुप बैठे रहना.

किसी को याद करना भी अपने आप में चुपचाप हो जाना होता है. वैसे भी, चुप हुए बिना हम किसी को याद कर नहीं सकते.
(10 मार्च 2018)





स्पष्ट  भाषा  की बुदबुदाहट


उसके ऐसे बहुत सारे अनकहे शब्द मेरी अपनी स्मृतियों में किसी जादुई लिपि की तरह रखे हुए हैं. बीच-बीच में कुछ शब्द निकाल कर उसे अपने ही अर्थों में पढ़ लेता हूं और थोड़ी देर के लिए खुश हो जाता हूं.   क्या यह मेरा पागलपन है? या फिर कोई ऐसा विश्वास, जिसे मैं आजीवन संतुलित हो बनाए रखना चाहता हूं. भला इसमें किसी का नुकसान तो नहीं हो रहा है? उसका भी तो नहीं, जिसकी अनकही बातें मेरी स्मृतियों की गुफाओं में ना समझ आने वाली अस्पष्ट भाषा में बुदबुदा रही है. ऐसा करके क्या वह अपने आप से ही बात कर रही है. या फिर वह ऐसा कुछ बोलना चाह रही है जो कि वह बोल नहीं पा रही. उसके बुदबुदाया गए शब्दों की परिधि जब भी मेरे मन से टकराकर किसी प्रतिध्वनि की तरह उसकी तरफ लौटती होगी, तब भी क्या वह उसका अर्थ नहीं समझ पाती होगी.

क्या वैसे भी वह स्पष्ट रूप से बोले गए शब्दों का अर्थ कभी-कभी समझ पाती है? वह प्रतिक्रिया देने में इतनी तत्पर रहती है मानो वह केवल इस तरह के सवाल का ही इंतजार कर रही हो. अमूमन अतीत और भविष्य उसके जवाब में शामिल नहीं होता. वह तत्काल में उत्तर देती है और प्रायः तत्काल में ही गुम रहती है. अपने ही भविष्य के प्रति अनजाना डर ज़रूर उसके मन के किसी कोने में ना मालूम किन-किन फ़िक्रों के नीचे छिपा ज़रूर रहता होगा.
(11 मार्च 2018, सुबह)

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राकेश श्रीमाल
         (१९६३, मध्य-प्रदेश)
tanabana2015@gmail.com

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  1. कितनी सहजता से सरल भाषा में ..ज़िन्दगी का तकाज़ा बयां किया राकेश ...भीतर समाया अतीत रखा .....स्नेह .

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  2. अद्भुत लेखन... इन्हें कविताओं की तरह से पढ़ा जाय या फिर गद्य की तरह, हर स्थिति में यह नई अर्थ छवियों की तरफ ले जाती हैं। सपनों की ऐसी पड़ताल शायद ही पहले संभव हुई हो...

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  3. राकेश जी के गद्य की अपनी छटा है। वाह। आभार अरुण जी, मेरे प्राचीनकाल के दोस्त को अभिनव तरीके से प्रस्तुत करने के लिए...।

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