अन्यत्र : किन्नौर और स्पीति में कुछ दिन : कल्पना त्रिपाठी पंत

(buddha at langza)











किन्नौर और स्पीति का यह यात्रा-वृतांत जिजीविषा और जीवट की भी यात्रा है. दुर्गम जगहों को इसी जीवट ने  मनुष्य की बस्तियों में बदल दिया है. कल्पना पंत ने  बड़े सधे ढंग से इस यात्रा को लिखा है.
नीरज पंत द्वारा खींची गयीं तस्वीरों से यह और भी मोहक लगता है.




अन्यत्र

किन्नौर और स्पीति में कुछ दिन                       

कल्पना त्रिपाठी पंत 
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न् दो हजार चौदह मई का अंतिम सप्ताह. सूरज का ताप चरम पर है, पारा पैंतालीस पार कर चुका है  बच्चों की परीक्षाएँ समाप्ति की ओर थीं और  अपने आवास के वातानु्कूलित कक्ष में दुबके रहने की अपेक्षा  सपरिवार  हिमालय के किसी  शीतल, शान्त  और  जनाकुलता से मुक्त  अपेक्षाकृ्त  मुक्त  क्षेत्र की तलाश कर ही रहे थे कि लगा क्यों न इस बार  इन सभी तत्वों से  लगभग परिपूर्ण किन्नर भूमि का दीदार किया जाय.

ऋषिकेश से सोलन, सरहां होते हुए शिमला. शिमला से किन्नौर की ओर बढ़ने पर पहले देवदार और बाँज के घने जंगलों से होते हुए  संजोली , ढल्ली ,चैल, ठियोग, कुफ्री, ज़ुर फिर सेब के बागानों के बीच से नारकण्डा रामपुर बुशहर से सतलज के किनारे -किनारे होते हुए किन्नौर में स्थित कल्पा.

कल्पा जाते समय हमने दोपहर का भोजन टापरी नामक जिस स्थान पर किया, उस भोजनालय की स्थानीय ताजा दाल-चावल का स्वाद और भोजनालय के मालिक का स्वयं खाने के लिए आग्रह एवं बार-बार आवश्यकता पूछना अभी तक मन में बसा हुआ है.

यहाँ से आगे करछम नामक स्थान पर बसपा और सतलज के संगम में बाँध बना हुआ है, करछम से आगे एक ओर सांगला घाटी है और दूसरी ओर किन्नौर के मुख्यालय रिकांगपिओ होते हुए कल्पा.  रिकांगपिओ में पिओ स्थानीय निवासी का बोधक है, यहाँ से बौद्ध पताकाएँ और पूजास्थल दिखाई देने लगते हैं. यह नाम तिब्बती -चीनी भाषाओं से आया लगता है.

(kalpa)
रिकांगपिओ से हमारी यात्रा का अत्यंत खूबसूरत पड़ाव  था कल्पा.  सतलज नदी से ऊपर  स्थित हरी- भरी वादियों, सेब के बागानों से सुशोभित कल्पा 2758 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है, मार्ग में कई गोम्पा और छोटे मंदिर भी विद्यमान हैं यहाँ हम जिस आवास में रुके वहाँ से किन्नर कैलाश का दृश्य अत्यंत नयनाभिराम प्रतीत हो रहा था.कैलाश के समान ही मान्य किन्नर कैलाश या किन्नौर कैलाश. किन्नौर कैलाश 6050 मीटर है, इसके शिखर पर एक 70 मीटर ऊँची शिवलिंगाकृति सी  है. ,स्थानीय निवासियों  के अनुसार अनुसार  शिव कुछ समय तक किन्नर के रूप में इस स्थान पर रहे ( प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार किन्नौर के वासी को किन्नर कहा जाता है. जिसका अर्थ है- आधा नर और आधा ईश्वर .महाकवि भारवि ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ किरातार्जुनीय महाकाव्य के हिमालय वर्णन खण्ड (पांचवा सर्ग, श्लोक १७) में किन्नर, गन्धर्व, यक्ष तथा अप्सराओं आदि देव-योनियों के किन्नर देश में निवास होने का वर्णन किया है ) और अब भी उनके चरणचिह्न इस स्थान पर विद्यमान हैं  यही तो कालिदास के यक्ष  ने मेघ को बताया था :

"तत्र व्यक्तं दृषदि चरणन्यासमर्धेन्दुमौले:
शश्वत्सिद्वैरूपचितबलिं भक्तिनम्र:परीया:
यस्मिन् दृष्टा करणविगमादूर्ध्वमुदधूतपापा:
कल्पिष्यन्ते स्थिरगणपदप्राप्तये श्रद्दधाना:

(उस हिमालय की किसी एक शिला में भगवान शंकरका चरणचिन्ह स्पष्ट दिखाई देता है जिसकी सिद्ध लोग निरन्तर पूजा करते है और जिसका दर्शन होनेपर श्रद्धालु भक्तजन मरनेके बाद पाप रहित होकर स्थायी रुपसे शिवजीके पार्षद होनेके लिये समर्थ हो जाते है. तुम भी उसकीभक्तिपूर्वक प्रदक्षिणा करना-मेघदूत पूर्वमेघ छन्द (59)

किन्नर कैलाश में एक गोम्पा के पास हमारी मुलाकात संगीता और उनकी माँ से हुई वे दोनों एक गोम्पा के पास दीवार पर सुस्ताने के लिए रुके हुए थे. संगीता सलवार कुर्ते और किन्नौरी  टोपी  धारण किए हुईं थीं  जबकि  उनकी माँ ने किन्नौर का  पारंपरिक  परिधान पहन रखा था. उन्होंने हमें स्थानीय परिधानों और परम्पराओं के बारे बताते हुए एक किन्नौरी टोपी अपनी स्मृति के तौर पर भेंट में दी.

शिमला से जिस वाहन  में हम चले थे उसके चालक कुकी भाई को इस सम्पूर्ण क्षेत्र के भूगोल,  जन-जीवन, रीति -रिवाज और परम्पराओं का विशद ज्ञान था, कुकी भाई इस बात से अत्यंत प्रसन्न थे  कि हम लोग केवल जरूरी सामान लेकर ही इस यात्रा में चले थे, उनका कहना था कि कई बार लोग इतने साजो सामान के साथ आते जाते हैं कि पूरे समय सामान ही सहेजते रह जाते हैं. कुकी भाई ने बताया कि पारिवारिक कठिनाईयों के कारण मात्र नौ वर्ष की अवस्था में वे यात्रियों को लेकर लद्दाख चले गए थे, साथ ही कारगिल और अन्य मार्गों पर भी वे निरन्तर वाहन चलाते रहते हैं, उनका कहना था कि उन्हें कहीं भी आम जिन्दगी में किसी प्रकार का साम्प्रदायिक वैमनस्य नहीं दिखा.उनकी माता मुस्लिम और पिता हिन्दू हैं,किन्तु माँ का बचपन में ही देहावसान हो चुका था, हमारे साथ नौ  वर्षीय हमारा सुपुत्र भी था, मैं कुकी भाई की कहानी सुन रही थी और यकींन नहीं कर पा रही थी कि उसी उम्र का बच्चा और इतनी दुष्कर यात्रा!! खैर ज़िन्दगी की कठिनाईयाँ सब सिखा देती हैं.

कल्पा में एक दिन ठहरने के बाद अगली सुबह हम ताबो मठ के लिए निकले ,यहाँ से हम रिकांगपिओ, पीओ के बाद कांसग नाला व खारो पुल आता है.(खारो पुल के सामने लगे हुए एक सूचना पट्ट  पर लिखा था कि आप इस समय विश्व के सबसे दुर्गम मार्ग पर यात्रा कर रहे है.)
(kaza)

रिकांगपिओ से उनहत्तर किमी. की दूरी पर खाब  में स्पीति और सतलज नदी का संगम है. कुकी भाई ने बताया कि खाब सुई को कहते हैं .यहाँ से आगे नाको की ओर घुमावदार चढ़ाई वाला रास्ता है. रास्ता दुष्कर था लेकिन पर्वतीय अंचल की खूबसूरती बेमिसाल थी नाको की समुद्र सतह से ऊँचाई लगभग तीन हजार छ: सौ बासठ मीटर है ,नाको का प्रमुख आकर्षण नाको झील है, जिसके किनारे पत्थरों पर तिब्बती लिपि में  ओम नमो मणिपद्मोहं में  लिखा हुआ है, अत्यंत सरल पहाड़ी जीवन और नीले आसमाँ के नीचे नीली झील का  अनुपम दृश्य! नाको चीन की सीमा के पास है, और यहीं से नांबिया छिपकिला का पुराना ट्रैक भी है. नाको गाँव में हमने रुककर दोपहर का भोजन किया चटपटी चटनी के साथ मोमोज, थुप्पा और स्थानीय तरीके से बने हुए चाउमीन का ,झील के चारों ओर घर बने हुए थे, उनकी छतों पर संरक्षित किया हुआ अनाज था.

नाको में एक दो घंटे विचरण करने के पश्चात खतरनाक मलिंग नाला पार कर हमने ताबो की ओर चलना प्रारंभ किया, यहाँ धूसर रेतीले पहाड़ो की तलहटी में यदा- कदा बमुश्किल उग पाई वनस्पति और वनस्पतिहीन  पथ से गुरजती स्पीति की धारा सूरज की रोशनी में चाँदी की तरह चमकती हमारे  विपरीत बह रही  थी.

यहाँ से हम खुरदांगपो, चाँगो, शलखर होते हुए सुमदो पहुँचे, यहीं आगे हुरलिंग और चंडीगढ़ नामक दो स्थान नाम भी मिले. सुमदो स्पीति की ओर को किन्नौर का अंतिम गाँव है. सुमदो में हमें कुकी भाई ने गीयू गाँव की प्रसिद्ध ममी के बारे में बताया जो किन्हीं बौद्ध भिक्षु की ममी मानी जाती है. यहाँ की ममी के बारे में किंवदंती भी हमने सुनी कि ममी के नाखून और बाल भी बहुत समय तक बढ़ते रहे.
(tabo monastery)

हमारे सफर का अगला मुकाम था ताबो मठ , यह मठ एक हजार साल पुराना है, इस मठ के स्थापना रिचेन जंगपो द्वारा नौ सौ साठ ईसवी में बौद्ध धर्म के साध -साथ  वैविध्यपूर्ण शिक्षा के उद्देश्य से की  गयी थी, मिट्टी और ईंट से निर्मित ताबो मठ काफी बड़ा है, यहाँ मे मिट्टी से निर्मित कई स्तूप भी हैं साथ ही यहाँ अत्यंत सुन्दर चित्रवीथी से अलंकृत मंदिर विद्यमान है.  मंदिर के भीतर अमिताभ बुद्ध, पद्मसंभव, ग्रीनतारा सेर लेखांग इत्यादि के चित्रों से अलंकृत चित्रवीथी है, चित्रों में चटख रंगों का प्रयोग है, मंदिर की छत भी चित्रों से सुशोभित है, इनके रंगों की चमक बनाये रखने के लिए मंदिर का निर्माण इस भाँति किया गया है कि वहाँ अंधकार रहे,  रंग प्राकृतिक वस्तुओं से निर्मित हैं और उनका संयोजन अद्भुत है. यहां बुद्ध की एक मूर्त्ति भी स्थापित है. यह मूर्ति कश्मीरी शैली में बनी हुई है. अनेकानेक धर्मग्रन्थ भी विद्यमान है. तुस्लांग यहां का प्रमुख मठ है. इस स्थल में अभी भी बौद्ध शिक्षाएँ दी जाती हैं, शाम को हम जब वहाँ पहुँचे तो बौद्ध भिक्षुओं की कोई सभा चल रही थी, धूसर  मटमैली प्रकृति ,जीवन में सादगी और अपराजेय जिजीविषा. एक स्थानीय निवासी ने बताया कि सेबों के बागानों से प्रतिवर्ष वहाँ करोड़ों की आय होती है, यह उनके जीवट और सुनियोजित विकास का नतीजा है कि मरूस्थल में भी धरती जीवन से भरपूर है और हम हरी-भरी धरती को मरुस्थल में तब्दील कर दे रहे हैं.

ताबो मठ के सामने पहाड़ी पर प्रकृति निर्मित गुफाएँ हैं, शांति और ज्ञान की तलाश में बौद्ध भिक्षु इन गुफाओं में एकांतवास करते थे. हमारे सहयात्री नीरज पंत फोटोग्रैफी के लिए इन गुफाओं के भीतर गए. उन्होंने बताया कि बाहर से भले ही ये गुफाएँ अलग -अलग दिखतीं हैं, लेकिन सब अंदर से जुड़ी हुई हैं, गुफाओं की दीवारों पर चित्राकृतियाँ सुशोभित हैं. ये सारी गुफाएँ अलग -अलग भागों में विभाजित हैं,कहीं ध्यान कक्ष तो कहीं भोजन के लिए.
(DANKHAR MONASTERY)
ताबो से दोपहर में चलकर हम बारह सौ साल पुरानी धनकर मॉनेस्ट्री में पहुँचे,जो काजा जाने के मार्ग में पड़ती है, यह मठ अपरदन से बनी हुई विलक्षण संरचनाओं के बीच अवस्थित है,यहाँ से स्पीति और पिन नदी अविरल बहती हुई दिखाई देतीं हैं, लेकिन यह मठ एक खतरनाक भू संरचना पर अवस्थित है, जिसका धीरे-धीरे क्षरण हो रहा है. इसे विश्व की सौ लुप्तप्राय धरोहरों के अंतर्गत रखा गया है. मठ में अन्दर घुसते ही बाँयी ओर बने मिट्टी की सीढ़ियों से होकर ऊपर जाना होता है. इस रास्ते से बालकनी में पहुँच हमने पिन व स्पीति नदी के संगम का दीदार किया. पिन घाटी में नेशनल पार्क है,  यहाँ स्नो लैपर्ड मिलता है. पिन घाटी में ही मुद गाँव है, जहाँ नन मॉनेस्ट्री है. हम इस यात्रा में पिन घाटी नहीं जा पाए. खैर अगली बार सही. पिन नदी, पिन- पार्वती दर्रे से निकलती है और काज़ा से कुछ ही किलोमीटर पहले रंगती गांव में , स्पीति नदी में मिल जाती है.

बालकनी के बाद वापस आकर मुख्य मठ देखा वहाँ अत्यंत पुरानी वस्तुएँ रखी हुई थी. किंवदंती है कि पुराने समय में जब कभी स्पीति घाटी में बाहरी आक्रमण होता था तो यहाँ किले में विद्यमान सैनिक या मठ में लामा आग जलाकर धुआँ कर देते थे. धुआँ देखकर घाटी में संदेश पहुँचने में देर नहीं लगती थी कि हमला हो गया है. नीचे स्पीति से मठ तक पैदल पथ से भी आया जा सकता है. सत्रहवीं शताब्दी में यह छोटा सा गांव स्पीति की राजधानी हुआ करता था.

धनकर मठ से ऊपर की ओर चढ़ाई चढ़कर धनकर झील  दिखाई देती है, हमने दोपहर में धनकर झील की ओर चढ़ाई प्रारंभ की, निरंतर आठ महीने बर्फ से ढके रहने वाले वनस्पतिहीन, भूरे मटियाले इस इस शीत मरुस्थल में दिन का ताप प्रचंड लग रहा था .गला प्यास से सूख रहा था और पानी की बॉटल की रिक्ति देख कलेजा मुँह को आ रहा था मुझे वर्षों पहले की राजस्थान की अपनी उन यात्राओं की स्मृति हो आई, जिन दिनों घुमक्कड़ी का जुनून होने की वजह से मैं अरावली में विद्यमान छोटी -छोटी गढ़ियों और टीलों पर भी गर्मी के कारण प्यास से गला सूखते हुए भी चढ़ कर ही दम लेती थी. इस भाव ने मुझे साहस दिया और हम धनकर झील तक पहुँच गए, धनकर से एक बिसलरी की बॉटल में हम पानी भी लेकर आए. किन्तु उसको धनकर मठ में ही भूल आने का अफसोस हमें बहुत समय तक रहा.

धनकर मठ से जाते समय एक लामा ने हँसते हुए हमारे पुत्र को लामा बनने का आमंत्रण दिया और  वह इस बात के लिए तैयार होकर हमारे साथ आने में आनाकानी करने लगा. काजा की ओर शिचलिंग, लालुंग, लिंगटी ,अत्तरगु, रिदांग(लिदंग) ,शेगो होते हुए काजा में 'स्नो लायन' नामक जिस स्थान पर हमने पड़ाव डाला,वहाँ के मालिक छेरिंग शाक्य के आत्मीय व्यवहार ओर विशद ज्ञान ने हमें अभिभूत कर दिया,  वे स्पीति के राजाओं के वंशजों में से एक  हैं. उन्होंने बताया कि जिन महीनों में समस्त स्पीति घाटी बर्फ से ढक जाती है, और बाहर कोई कार्य करना संभव नहीं होता,  उन दिनों में वे निरन्तर अध्ययन करते हैं. यहाँ स्पीति में यह मई जून का यह मौसम खेती का होता है, इन दिनों ज्यादातर स्कूलों में भी अवकाश रहता है, सर्दियों में स्कूल खुले रहते हैं. यहाँ हम तीन दिवस तक रुके. अगली सुबह हमने काजा से चालीस किमी0 दूर की मठ के लिए प्रस्थान किया, मार्ग में की की ओर जाते हुए हर  सात, आठ किमी. पर गाँव पड़ते हैं, इन गाँवों में पचास-साठ घर हैं,  रांगरिक पहले स्पीति का सबसे बड़ा गाँव था इसकी ऊँचाई 3800 मी0 है. 
komic monastery and village


काजा  से 14 किलोमीटर दूर खुरिक पंचायत रंगरिक गाव की आबादी 640 है .की मठ हिमाचल का सबसे बड़ा मठ है, यह लगभग नौ सौ वर्ष प्राचीन है, सभी मठों में एक बात एक सी थी बीच में अलाव और चारों तरफ रखी लकड़ी की अल्मारियों में ताँबे काँसे और पीतल के चमचमातेे हुए पात्र सजे हुए थे, यहाँ हमारी नवांग छेरिंग लामा से मुलाकात हुई उन्होंने बताया कि वे पन्द्रह बरस से वहाँ हैं, उनके साथ ही उनकी शिष्या केसंग से भी हम मिले जिनकी जीवन्त मुस्कुराहट ने हमारी यात्रा की सारी थकान हर ली, वहाँ हर्बल चाय पीने से ताजगी और स्फूर्ति का आभास हुआ सच में किसी का व्यक्तित्व ही ऐसा होता है कि  उसके आसपास का समस्त परिवेश खुशनुमा हो जाता है. केसंग ने हमें अपने नाम का अर्थ भी बताया -खुशनसीब, खुशनसीब तो नहीं पता पर वे खुशियाँ देने वाली अवश्य हैं. मेरी बेटी ने केसंग के साथ उनकी ताजगी देने वाली मुस्कुराहट को याद  रखने के लिए तस्वीर खिंचवाई. छेरिंग का अर्थ स्पीति की भाषा में लम्बी उम्र है. यही, यहाँ हमने सात सौ साल पुराने लिखे हुए भोजपत्र भी देखे. इस मठ में चाम उत्सव मनाया जाता है मठ में हथियार भी रखे हुए है. मठ के ऊपर यहाँ से दूर -दूर तक फैले हुए खेत दिखाई देते हैं. वहीं से पहाड़ के रास्ते गेते गाँव से नीचे उतरते एक दो लोग भी दिखाई दिए. यह पगडंडी सड़क बनने से पूर्व यहाँ के निवासियों के आवागमन का मार्ग रही होगी.

की’ मठ से  हम चार हजार दो सौ पचास मीटर की ऊंचाई पर विद्यमान गेते गाँव को चले, यहाँ केवल छ: परिवार और कुल तीस -चालीस लोग रहते हैं. यहाँ की प्रधान फसल आलू, जौं और मटर है, घरों की छतों पर शीतकाल के लिए जौं ,चौलाई इत्यादि अनाज  संरक्षित करके रखा गया था, घर मिट्टी  और  पत्थर से निर्मित हैं, घरों की खिड़कयों पर काले पेंट की पट्टियाँ हैं, ये पट्टियाँ समस्त स्पीति की पहचान हैं, किन्नौर से स्पीति की ओर जब हम बढ़े तो वहाँ सभी स्थानों में मकानों में इसी तरह की पट्टियाँ नजर आईं.

(volleyball at langza)
गेते गाँव में हम सिड.डुमा से मिले, जिस समय हम वहाँ पहुँचे वे अपने खेतों में काम कर रहीं थीं, वहीं खेत के पास याक का एक बच्चा बँधा हुआ था. बच्चे याक के साथ खेलने लगे और मुझे सिड.डुमा ने अपने घर के भीतर बुला लिया, घर की छत पर जाड़ों के लिए संरक्षित किया हुआ अनाज रखा था, यहाँ पर हमने चोटियों के समीप की बर्फ को भी छुआ. बर्फीली चोटियों के बीच विद्यमान वह घर अंदर से कुनकुना गर्म था. सीढ़ियों के ऊपर छोटे कमरे में चातप था, उन्होंने मुझे बताया  कि स्पीति भाषा के चातप का अर्थ हिन्दी में तंदूर है.सिड.डुमा ने मुझे चाय थुंग-थुंग का अर्थ भी बताया, -चाय पीयेगा? गन मन -नहीं पीयेगा? उनकी उम्र साठ-इकसठ साल थी, उनका कहना था कि वे गेते गाँव से कभी बाहर नहीं गयीं, यहाँ तक कि काज़ा भी नहीं, जहाँ उनका बेटा रहता है, उनकी एक पुत्री खेतों में काम करती है और दूसरी सड़क मजदूर है, गेते जाते समय हमें सड़क निर्माण के काम में लगे स्थानीय लोग दिखे, शायद उनकी मेहनत और जीवट का ही नतीज़ा है कि इस ऊँचाई तक स्पीति में सब जगह सड़कें विद्यमान हैं, भले ही ऊपर जाते हुए नीचे देखने पर भयमिश्रित रोमांच होता है, (यहाँ मार्ग में हमने रतनजोत के पौधे भी उगे हुए देखे.)


गेते से हम किब्बर गाँव की ओर चल दिए. पहले केवल किब्बर गाँव तक ही सड़क थी, इसलिए किब्बर को ऐशिया का सबसे ऊँचा गाँव माना जाता था, किन्तु अब कॉमिक गाँव तक सड़क बन चुकी है. यहाँ हर गाँव में गाँव की ऊँचाई और जनसंख्या लिखी हुई है, किब्बर की ऊँचाई चार हजार दो सौ सत्तर मीटर और जनसंख्या सौ है किब्बर का मुख्य आकर्षण यहाँ के लोक नृत्य हैं, कुकी भाई ने हमें बताया कि किब्बर में दक्कांग मेला लगता है जिसमें युवतियाँ मनमोहक परिधानों में नृत्य करतीं हैं चुस्त पायजामा, ल्हम (एक विशेष प्रकार का जूता) शमो (फर की टोपी) इत्यादि यहाँ के मुख्य परिधान हैं. विवाह लड़के-लड़कियों की परस्पर सहमति से होते हैं.


पुन: हम काजा लौटे शाम को मैं काज़ा के बाजार में घूम कर आई, जहाँ यद्यपि जरूरत का सारा सामान मिल रहा था, पर कई वस्तुओं और कुछ दवाओं के बारे में पूछने पर स्थानीय दुकानदारों ने बताया कि यहाँ सामान की उपलब्धता आसान नहीं है.
(langza village life)

अगली सुबह काजा़ मठ जाते समय हमें मार्ग में कई स्तूप मिले, साथ ही एक पहाड़ी पगडंडी जो घरों के बीच से होकर गुजर रही थी, वहाँ हमें एक पेड़ के नीचे बड़ी-बड़ी पूड़ियाँ जो हमारे घरों में विवाह आदि अवसरों पर बनने वाले रोट जैसी लग रहीं थीं, और साथ में थुप्पा बना रहीं थीं,बहुत सी स्त्रियाँ जीम रहीं थीं. पूछने पर पता चला कि उस घर में किसी की मृत्यु हो गयी थी, यह मृत्यु भोज था, उन्होंने भोजन ग्रहण करने के लिए हमसे भी आग्रह किया. उनसे विदा लेकर हमने मठ का अवलोकन किया, उनसे विदा लेकर हमने काजा में विद्यमान स्तूपों और मठ का अवलोकन किया. यह मठ अत्यंत भव्य है.

अगले दिन हम हिक्किम लांग्जा और  कॉमिक गाँव  गए. लांग्जा चार हजार चार सौ मीटर ऊँचा है, यह कनामो पर्वत की तलहटी पर बसा हुआ है. यहाँ की जनसंख्या एक सौ अड़तालीस है. यहाँ बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा है जो दूर-दूर से दिखाई देती है, लांग्जा में हमने देखा कि ऊपर चारों ओर से पहाडियों पर विद्यमान घरों के बीचों -बीच नीचे एक स्कूल के मैदान में लड़के-लड़कियाँ वालीबॉल खेल रहे थे.लांग्जा में हमें कुछ फॉसिल भी मिले. -भूगर्भविज्ञानियों के अनुसार यहाँ फॉसिल मिलने का कारण यह है कि स्पीति घाटी का निर्माण भारतीय और यूरेशियन प्लेटो के टकराने से हुआ था, ये जीवाश्म टैथिस सागर के अवशेषों में से हैं. लांग्जा से से दुनिया के सबसे ऊँचे सड़क मार्ग से जुड़े गाँव कॉमिक की ओर जाते समय हमने बर्फ से ढकी चोटियों के नीचे  हरे -भरे घास के मैदान में याक  और चँवर  गाय के  चरते हुए झुंड देखे. 


वहीं एक चट्टान पर चरते हुए भरल  (ब्लू शीप) के  झुंड दिखाई दिए. छोटे बच्चों को पीठ पर बाँधे कर ले जाती हुई तीन चार युवतियों ने बताया कि ऊपर कोई नहीं मिलेगा, क्योंकि वहाँ किन्ही बौद्ध गुरु की मृत्यु हो गयी है,  कॉमिक में उस दिन कोई व्यक्ति नहीं दिखा, शव को मठ के भीतर रख वहाँ कुछ धार्मिक क्रियाएँ चल रहीं थीं,किन्तु अपनी इस यात्रा में यह पहला मठ मैंने देखा, जहाँ महिलाओं का जाना निषिद्ध था.  कॉमिक के पश्चात हमने वापसी की यात्रा प्रारंभ की,  काजा, ताबो होते हुए कल्पा लौटे. अब सांगला घाटी हमारा अगला आकर्षण थी, यहाँ एक जल सुरंग है इसका एक सिरा करछम में है और दूसरा वांगतू में.
(yak in spiti)

करछम में सांगला घाटी से आती हुई बास्पा नदी सतलुज में मिल जाती है. करछम सांगला घाटी का अत्य़ंत सुंदर द्वार है. करछम से सांगला की ओर की यात्रा में चारों ओर बर्फ से ढकी चोटियाँ, हरे-भरे पर्वत, घास के मैदान, झरने, घने जंगल और, लकड़ी के बने खूबसूरत शिखरों वाले घर दिखाई देते हैं.  कुकी भाई ने  बताया कि अब  लकड़ी के खूबसूरत शिखरों वाले मकानों को बनाने वाले कारीगर बहुत  थोड़े से ही रह गये हैं, नई पीढ़ी इस परंपरा को  छोड़ रही है, सुनकर मन उदास हुआ सांगला की ओर से लमखगा दर्रे से जाने पर दूसरी ओर हरसिल में उतरते हैं. हमने रात्रि रकछम में व्यतीत की. रकछम.

सात जून को हम किन्नौर के रकछम गाँव में थे. देर शाम मै और मेरा बेटा हम दोनों एक झरने के किनारे थे.वह पानी में उतरने की जिद करने लगा. मैने उसे समझाया कि पहाड में मान्यता है कि शाम होने के बाद नदी और गाड़ -गधेरों के पानी में नहीं उतरते . इसका कारण यह है कि शाम होने के साथ-साथ नदियों नालों में पानी बढने लगता है.इसलिये यात्रा में यह सावधानी जरूरी है कि कभी भी शाम होने के समय और अनजान जगह में नदियों में ,  पहाडी गधेरों में न उतरें
Nako Lake

काजा से छितकुल जाकर हमने शमशेर देवता का लकड़ी का बना हुआ भव्य मंदिर देखा, यहाँ के दरवाजों और खिड़कियों में लकड़ी  पर अत्यंत कलात्मक  नक्काशी है ,सांगला से लेकर छितकुल तक घरों और मंदिरों के शिखर एक ही शैली के हैं. छितकुल से तिब्बत की ओर किन्नौर का अंतिम गाँव है, यहाँ से तिब्बत बस थोड़ा ही दूर है, मुझे राहुल साकृत्यायन की तिब्बत यात्रा के संस्मरण फिर से पढ़ने का मन हो रहा था, और कुकी भाई हमें खाम्पाओं के बारे में बता रहे थे, खेतों में आलू बोए जा चुके थे, कुछ किसान  खेतों में हल जोत रहे थे, कुछ महिलाएँ हैरो ( Harrow-खेती का एक उपकरण) लिए हुए खेतों की ओर जा रहीं थीं, और कुछ गुड़ाई कर रहीं थीं,और कुछ मिट्टी के ढेले तोड़ रहीं थीं. यहाँ  भी पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं के हिस्से  अधिक काम है. हमने छितकुल से नीचे गुजरती हुई बसपा नदी को देखा एक ओर तिब्बत और दूसरी ओर गढवाल हिमालय.


प्रकृति ने कितनी धरोहरों से नवाज़ा है हमें, पर हमने तो उसे ही समेटना प्रारंभ कर दिया है, यह सोचते हुए मैं चल रही थी कि नन्ही भतीजी को पीठ पर बाँधे खिलंदड़ी नदी की तरह बहती अदिति की चाची से मुलाकात हुई,जो अपनी सहज मुस्कुराहट के साथ शीघ्र ही हमारी मित्र बन गयी, उन्हें यह वचन देकर की हम जल्दी ही छितकुल दोबारा आएंगे, हमने वापसी की यात्रा प्रारंभ की, और चंडीगढ़  मार्ग होते हुए वापस ऋषिकेश  लौटे.

आज पूरे तीन वर्ष के उपरांत अपनी स्मृतियों को  लिपिबद्ध करते हुए भी मै  स्पीति और किन्नौर के विलक्षण सौन्दर्य, वहाँ के निवासियों के जीवट, प्रकृति के साथ एकमेक होकर चलने की उनकी लगन को महसूस कर रही हूँ , इच्छा है कि ऐसा ही विकास उत्तराखंड का भी हो. उन्होंने वहाँ प्रकृति को नुकसान पहुँचाए बिना रोजगार पैदा किए हैं और पलायन को रोका है, स्पीति के ठंडे मरुस्थल की दुर्गम परिस्थितियों के निवासी प्रसन्न होकर जीने का हौसला रखते हैं, वे रेगिस्तान को नखलिस्तान में तब्दील करने की जुगत में लगे हुए हैं और हम आधुनिकता की अंधी दौड़ में प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं,  किन्नौर जाते हुए स्थान-स्थान पर रेन शैल्टर दिखाई देते हैं, और किन्नौर और स्पीति में कहीं भी  पान गुटखा के खोमचे नहीं दिखाई देते, हिमाचल की यात्रा फलों से आपका स्वागत करती है. 


पर्वतीय अंचल की बीहड़ कठिनाइयों के मध्य सामंजस्य करते हुए जीने के अवसर तलाशना मनुष्य की जीवनी शक्ति का सच्चा प्रतिबिम्ब है.
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kalpanapnt@gmail.com

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  1. Arch Ana बहुत जीवंत यात्रा-वृतांत । अस्सी के दशक में हम लोगों ने भी किन्नौर की यात्रा की थी, वह याद आ गई ।लगातार हो रही बारिश के कारण लाहौल-स्पीती के रास्ते बंद थे । आगे कभी जाना हो शायद।

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  2. बहुत पठनीय वृत्तान्त हे । किन्नर आधा नर आधा ईश्रर है , यह प्रचलित अर्थ से कितना अलग है । किन्नौर यदि किन्नरोँ का क्षेत्र है और वहाँ नर और नारी दोनोँ रहते हैँ । यह भी रोचक लगा कि किन्नर , गन्धर्व आदि देव जातियाँ थीँ ।

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  3. बहुत आकर्षक वृतांत

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  4. टूरिस्ट के लिए आकर्षक , लेकिन यहाँ का मूलनिवासी होने के नाते मेरे लिए ट्रांसहिमालय को. पर्यटक की नज़र से देखना हमेशा जिज्ञासा और हंसी का विषय हो जाता है ।

    पूरा वृत्तांत पढ गया । बाहर का आदमी हिमालय के भीतर को कैसे देखता है , यह जानना सच मे अद्भुत अनुभव रहेगा मेरे लिए

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  5. मेरा जन्म से लेकर आज तक का जीवन कुमाऊँ और गढ़वाल (मध्य हिमालय)बीता है। सौंदर्य और संघर्ष कोटियों से परे है।

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  6. बेहतरीन यात्रा वृतांत, पढ़कर लगा स्पीति की इस यात्रा में मैं सहयात्री थी । जीवंत

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  7. सचमुच मौसी बहुत सुंदर लिखा आपने! इसे यात्रा वृतांत को पढ़कर इस यात्रा के हर एक पल को महसूस किया और फोटोग्राफ के माध्यम से देख भी लिया:)बहुत बहुत बहुत अच्छा लगा यह पढ़कर!

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  8. बेहद उत्साहित करने वाला विवरण।
    दोबारा जाएं तो पुनः लिखें।

    शुभकामनाएं।

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