मलिक मोहम्मद जायसी (१३९८-१४९४
ई.) की कृति पदमावत पर आलोचक रवि रंजन का
आलेख– ‘साहित्य और पदमावत’ आपने समालोचन पर पढ़ा. अब
फ़िल्म पदमावत पर प्रस्तुत है लेखक रंग-समीक्षक सत्यदेव त्रिपाठी का आलेख ‘पदमावत : भव्यता की विद्रूपता’.
आक्रामक बाज़ार कृतियों की अतिवादी व्याख्या प्रस्तुत कर अपना दायरा
विस्तृत करता चलता है. भारतीय फिल्मों में
कालजयी कृतियों को भव्यता से प्रस्तुत करने की होड़ लगी हुई है चाहे इस होड़ में
कृति ही विकृत क्यों न हो जाए. फ़िल्म पदमावत को लेकर जो हुआ आपके समक्ष है.
सत्यदेव त्रिपाठी ने कृति और फ़िल्म के बीच कथा और किरदार की जो
दुर्गति हुई है उसे यहाँ प्रत्यक्ष किया है.
पदमावत :
भव्यता की विद्रूपता
सत्यदेव त्रिपाठी
आख़िर भंसाली के थैले से बिल्ली
बाहर आ ही गयी.(द कैट इज़ आउट ऑफ भंसालीज़ बैग)!! और थैले में हमेशा के लिए बन्द कर
रखने की मंशा रखने वालों ने भी देख लिया कि यह बिल्ली वैसी क़तई नहीं है, जैसा सोचकर उसे बाहर आने से रोका जा रहा था. हो सकता है, बल्कि ज्यादा उम्मीद इसी की है कि रोकने वालों की ताक़त से
डरकर गिरगिट ने रंग बदल लिया है और प्रेमी-युगल के अंतरंग दृश्य के बदले भर फिल्म
क़दम-क़दम पर राजपूती आन-बान-शान को भर दिया है, जिससे
रोकने वालों को भरमुँह का जवाब मिल गया है और अवाम की भावनाओं का दोहन भी हो गया
है. इस तरह अवरित नयी बिल्ली में संजय की लीला रंग ला रही है – पाँचवें दिन फिल्म सौ करोडी संघ (क्लब) में शामिल हो गयी
तथा आज (यह लिखते हुए) सातवें दिन भारतीय बाज़ार में डेढ सौ करोड एवं विश्व-बाज़ार
को मिला लिया जाये, तो ढाई सौ करोड की कमाई कर चुकी
है. ऐसे दोहन बहुत हैं फिल्म में, जो यहाँ आगे आते रहेंगे
और जिनके बल उनकी कमाई आगे बढती रहेगी.
अभी यह कि काट-छाँटक समिति (सेंसर
बोर्ड) की परीक्षा में ‘पद्मावती’ उत्तीर्ण हुई ‘पद्मावत’ होके, तो समिति को तसल्ली हो
गयी कि ‘अस्वीकरण’ (डिस्क्लेमर) के मुताबिक फिल्म को जायसी-काव्य का ही नाम मिल
गया और शीर्षक भी व्यक्तिवाची से भाववाची बनके अधिक उपयुक्तता पा सका, लेकिन इन (‘त’ और ‘ती’ आदि) से भंसाली को कोई फर्क़ नहीं पडा, क्योंकि बाज़ार को नहीं पडा. असली मक़सद पूरा हो रहा – साहित्यिक मिथकों पर बनी भंसालीजी की ‘देवदास’ व ‘बाजीराव मस्तानी’ से भी अधिक कमाई हो रही.... और इस
सफलता ने ‘थप्पड’ (यदि वह भी प्रायोजित न
रहा हो) का ग़म भी भुलवा दिया होगा. अब वे बेचने के लिए और भी साहित्यिक मिथकों की
खोज में लग जायेंगे.
‘पद्मावत’ : फिल्म बनाम काव्य‘फिल्म कोई ऐतिहासिक दस्तावेज़ नहीं है, न ही संजय ने बनाने की कोशिश की है’, जैसी गलतबयानी करने वाले आलोचक तीन तक नहीं गिन पा रहे कि मंगोलों को परास्त करने के उल्लेख व चाचा को मारकर सुल्तान बनने के अलावा पूरी फिल्म साहित्यिक मिथक है, इतिहास नहीं. फिर ‘अस्वीकरण’ (डिस्क्लेमर) में इसे जायसी के महाकव्य ‘पद्मावत’ पर आधारित बताया गया है. ऐसा कर देना निरापद होता है, क्योंकि अब जायसी या शरत बाबू तो आज रहे नहीं कि अस्वीकरण और असलियत को लेकर सवाल या मुक़दमा करें. उनके लिए लडने वाली कोई ‘करणी सेना’ भी नहीं. और उनका दुरुपयोग करने वालों में ऐसे कला-संस्कार व दियानत नहीं कि क्लासिक के नाम पर अपना उल्लू सीधा करने से बाज आयें. लिहाज़ा संजय भी अब ‘स्क्रिप्ट’ को सर्वोपरि मानने’ के लिए तो अपने कलाकारों को आगाह करते पाये जा रहे हैं (2 फरवरी, 2018 - ‘दैनिक जागरण’), परंतु यह नहीं बता रहे हैं कि जब स्क्रिप्ट के लिए आप किसी क्लासिक को आधार बनाते हैं, तो किसे सर्वोपरि मानते हैं - अपनी स्क्रिप्ट को या उस क्लासिक आधार को ? कुछ उदाहरण लें -
क्या जायसी ने रावल रतन सिंह को
सिंहल भेजा था नागमती के लिए नायाब मोती लाने या इसमें उनके बुद्धिशाली तोते व
रानी नागमती के बीच की कोई कहानी और तोते की कोई अहम भूमिका थी, जो ली जाती, तो फिल्म के लिए कहीं
ज्यादा मोहक होती. जिस निर्गुण सूफी मत के चलते ‘पद्मावत’ क्लासिक बना, उस दर्शन में ‘गुरू सुआ तेहिं पंथ बतावा, बिनु गुरु कहहु को निरगुन पावा’ कितना मायने रखता है...? लेकिन फिल्म में उस तोते का तो भ्रूण भी नहीं आने दिया और
उस दर्शन के संस्पर्श को भी शामिल करना आज की कमाऊ मंशा में कहाँ सम्भव था? सो, सब कुछ को रूपसी नायिका
के तीरन्दाज़ी के निखार पर वार दिया!! फिर उसके साथ एकांत गुफा में इलाज़ कराके सीधे
प्रेम पनपा दिया गया !!
क्लासिक में तो सिंहल का राजा यूँ
ही नहीं व्याह देता अपनी बेटी को, बल्कि ‘गुरू सुआ’ से सुनकर रतन सेन हजारों
सैनिकों को साधु वेश में लेकर सिंहल जाते हैं. पद्मिनी-सौन्दर्य के प्रथम दर्शन
में बेहोश भी हो जाते हैं, लेकिन लाते हैं उसे जीत
कर ही. परंतु संजय जी पद्मिनी के ग्लैमर के सामने रतनसेन की बुद्धि-बहादुरी को
क्यों दिखाते? सो, बस
गुडी-गुडी कर दिया....
काव्य के राघव चेतन ने तो
पण्डितों को अपना विद्या-बल दिखाने के लिए एकम के दिन ही दूज कर दी थी, इसलिए देश-निकाला दिया था स्वत: रतनसेन ने. पद्मिनी का तो
इससे कुछ लेना-देना ही न था. लेकिन फिल्म ने कथा के इस भाग को तोड-मरोड (ट्विस्ट)
करके तीन-तीन तानें तोडी हैं. एक तो पद्मिनी के शयन-कक्ष में राघव चेतन से
ताक-झाँक कराके और कुछ उसके हाव-भाव भी बदलवाके एक तांत्रिक को पद्मिनी के रूप पर
लट्टू या आशिक़ बना दिया है.
दूसरे यह कि देश-निकाला में
पद्मिनी की पहल दिखाकर उससे बदला लेने वाला फोक़स भर दिया है और इस तरह तीसरी बात यह बन गयी है कि
पद्मिनी के चरित्र की उठान के लिए रावल रतन प्रेमी नहीं, पत्नी-भक्त – मेहरबस (हेनपैक्ड) बन गया
है.
बन्दी रावल रतन को छुडा लाने में
अलाउद्दीन से बेतरह क्षुब्ध उसकी पत्नी मेहरुन्निसा की मदद से भी बाज़ार के कई तोड
जोडे गये हैं, पर यह महाकवि से एकदम ही टूट कर
मेहरुन्निसा और पद्मिनी दोनो के दुख से फिल्म के एक सुख वाली भंसाली की ही
स्क्रिप्ट हो गयी है.
कई मामले में निर्णायक भूमिका
वाला मलिक काफूर का किरदार कपोल कल्पना है. फिर बादशाह के लिए शूटर जैसा काम करने
वाला शख़्स और किन्नर!! गज़ब का विरोधाभास है तथा बादशाह की मलिका बनने की इच्छा में
विद्रूप भी.
ऐसी बहुतेरी बातें-वारदातें हैं, छोटी-छोटी ढेरों शृंखलाएं (सेक्वेंसेज़) हैं, जिन सबका उल्लेख यहाँ सम्भव नहीं, पर इन सबके मद्देनज़र यह सवाल उठता है कि जब सिर्फ प्रमुख
पात्रों एवं स्थलों के नामों तथा रतन सिंह की धोखे से गिरफ्तारी और रानियों के
जौहर जैसे कथा-ढाँचे के स्तम्भों के सिवा भंसाली को सबकुछ भहरा ही देना था, तो सरनाम साहित्यिक मिथकों को उठाया ही क्यों? अपनी कथा बनायें. जो चाहें, करायें.
लेकिन नहीं, लोकविश्रुत देवदास, बाजीराव मस्तानी और अब पद्मावती जैसे चरित्रों व कथाओं की
लोकप्रियता का जो बम्फर मुनाफा और नाम मिलता है, वह
कैसे होता? यदि पसन्दीदा साहित्यिक कृतियों
या मिथकों को साकार करने का जुनूँ (पैशन) होता, उन्हें
लेकर नयी व्याख्या की वैचारिक चेतना होती,
तो ‘आम्रपाली’, ‘तीसरी कसम’, ‘नटसम्राट’ या फिर ‘सूरज का सातवाँ घोडा’
ही
सही...जैसा कुछ बनाते. लेकिन वैसी ज़हनियत व नीयत से महरूम लोगों की क़ुदरत ही है -
सरनामों-सम्मान्यों को उठाना, विवाद पैदा करना और
कमाना.... पद्मावत-कथा पर ‘भारत : एक खोज’ की मात्र 25 मिनट की प्रस्तुति के समक्ष भुनाने और सृजन का
फर्क़ देखा जा सकता है. ख़ैर,
किरदार बनाम कलाकार
जब मूल कथा के प्रति कलात्मक
सरोकार की जवाबदेही ही ऐसी है, तो उसे व्यक्त करने वाले
किरदारों का क्या पूछना!! ‘जड-चेतन गुण-दोषमय’ का ऐसा विद्रूप है कि अच्छे को इतना अच्छा बनाया, जिसे देख स्रष्टा भी चकरा जाये और बुरे को इतना बुरा कि बुराई
भी त्राहि-त्राहि करने लगे.... यही जलजला है अलाउद्दीन खिलजी और रावल रतन के
किरदारों में. राजपूती उसूलों व शान-स्वाभिमान को भरने में रत्नसेन देवता हो जाते
हैं और अपनी सारी हविश को किसी भी कीमत पर पूरा करने में खिलजी राक्षस हो जाता है.
आज के दौर में यह विलोमी रूप आम दर्शक के लिए हिन्दू-मुस्लिम का पर्याय बने बिना न
रहेगा, जिसके लिए फिल्मकार ने कोई परहेज़
न बरता...क्या इरादतन? दोनो के धवल-कालिमा लिए
पहनावों में भी यह साफ है. शादी के दिन किसी अन्य के साथ देह-रति तथा पत्नी के साथ
जबरदस्ती सेक्स करने की हविश में मनमाना खिलजी बनाने के लिए रनवीर के चलने-बोलने व
ख़ासकर मांस खाने से लेकर सभी अदा-ओ-अन्दाज़ व मेकअप-वेश-भूषादि पर जितना काम किया
गया है, उसका दसवाँ हिस्सा भी रतन बने
शाहिद पर नहीं. मूल्यवता रत्नसेन की, पर फिल्म रनवीर की हो गयी
है. मूल्यों की मर्यादाएं लिये रतन बने शाहिद (विशाल भारद्वाज के हैदर के
मुक़ाबले) बुझे-बुझे व फ्लैट हैं; तो सबकुछ को ध्वंस करता खिलजी बना रनवीर डाँफ रहा है.
यही सलूक पद्मिनी बनी दीपिका
पडुकोण के समक्ष भी शाहिद का है. पद्मिनी पर ही फिल्म है और राजा रतन के मुक़ाबले
रानी के महिमा-मण्डन की थोडी झाँकी ऊपर दिखायी गयी. रतन के जीतेजी मृत्यु की आशंका
के साथ जौहर करने की आज्ञा लेने तक में महत्ता दिखती है दीपिका की ही. और इस सलूक
में सिनेमाई फितरत कम, टिकिट खिडकी पर इनकी औक़ात
से प्रेरित पसन्दगी का ही मामला ज्यादा है. बाकी कलाकारों को कोई ख़ास तवज्जो नहीं
दी गयी है. जैसे अलाउद्दीन के लिए काम-पूर्त्ति तक का साधन है राघव चेतन, उसी तरह पद्मिनी-खिलजी के अलावा सारे किरदार व कलाकार
भंसाली के लिए काम-पूर्त्ति तक ही कीलित हैं. गोरा-बादल को राजपूती शान में शरीक़
करके उनकी मिथकीय हैसियत का सम्मान किया जा सकता था. बादल की माँ में किंचित ऐसा
हुआ भी है, पर उसका भी ज्यादा हिस्सा दीपिका
के चरित्र को उभारने में परवान चढ गया है. नागमती का होना भी पद्मिनी के उठान की
बलि है. ऐसी पूर्वग्रही किरदारी और कलाकारियत के साथ ऐसा सलूक!! कम ही मिलेगा
कहीं.
भव्यता बनाम वास्तविकता
भव्यता भंसाली की फिल्मों की अपनी
ख़ासियत है. और यह भी अपने महिमा-मण्डन में वास्तविकता और सामाजिक चेतना को रौंदती
हुई नुमायां हुई है. नयनाभिराम दृश्य संयोजन हर चौखटे (फ्रेम) में मौजूद हैं, किन्तु भव्यता की ऐसी भी कैसी आत्मरति कि स्त्रियों, जिसमें गर्भवती भी शामिल हैं, के
सामूहिक अग्निस्नान के संवादहीन 15 मिनट सजी-धजी सुन्दरी नायिका की मारक गति और उस
पर जँचते पार्श्व-संगीत के साथ भंसालीजी जैसे निर्देशक के लिए ‘अविस्मरणीय क्लाइमेक्स’ (की
जुगाली) बन जायें. वरना खिलजी का सिर्फ आना और धुआं उठते राखों के ढेर को देखने भर
से इस लम्बी फिल्म के 15 मिनट तो बचते ही,
वह भीषण
त्रासदी जितनी गहराती, वो इस भव्यता में बह गयी
है....
सौन्दर्य-हानि और उससे छीजती
भव्यता के डर से शिकार करती नायिका के भी सर-कमर तो बँधते नहीं, केश भी खुले ही रहते हैं, पर
संजय की लीला ऐसी कि मज़ाल है जो आँचल तक खिसक जाये.... घूमर नृत्य दिखाने का कथित
उद्देश्य तो राजस्थानी संस्कृति के प्रतीक का निदर्शन है, पर हाय री भव्यता की लत (लस्ट) कि उसे रानी पर ही फिल्माना
है, जिससे वस्त्र-आभूषण की भव्यता का
निख़ार भी आ जाये - फिर चाहे भले महारानी को नचाने में उसी राजपूती संस्कृति का
पूरा विखण्डन ही क्यों न हो जाये...!! और विरोध न हुए होते, तो भंसाली की रानी पद्मिनी भरी महफिल में ही नाचती. और क्या
अब कहने की ज़रूरत रह जाती है कि इस पूरे प्रकरण की चाबी दीपिका-रूप के दोहन में
छिपी है. भव्यताओं की ऐसी विद्रूपतायें शयन-कक्ष में होली-गीत जैसी तमाम और भी हैं, जो 3डी की तकनीक में अधिक जगमगा उठी हैं.
फिल्म बनाम दर्शक
ऊपर से शालीन लगती फिल्म में बडी
चतुराई से पिरोये उक्त हॉट तत्त्वों से हिट हुई जा रही फिल्म को अधिकांश समीक्षाओं
में ढाई स्टार देने वालों ने शायद समझा भी है. लेकिन आम दर्शक को तो यही भाता है, जो और जिस तरह भंसाली परोस रहे हैं. और असल बात यही है कि
जायसी की कालजयी कृति, दीपिका पडुकोण के
सौन्दर्य व अलाउद्दीनी नृशंसता के नाम पर रनवीर सिंह के जलवे...आदि सब कारक मात्र
ही हैं. सच में दोहन तो हो रहा है अवाम की इसी मानसिकता का, जिसे भंसाली ने ‘देवदास’ से लेकर ‘पद्ममावत’ तक निरंतर बढाया है –
बल्कि ऐसे
तमाम फिल्मकार अवाम की सोयी हुई ईहाओं को जगाने का यही काम कर रहे हैं और इसी के
बल उसे लूट रहे हैं. इससे समाज और संस्कृति पर पडने वाले फर्क़ को भी वे जानते हैं, पर दुर्योधन के ‘जानामि धर्मं न च मे
प्रवृत्ति:’ की तरह उन्हें इसकी पडी नहीं और
अवाम को इसका पता नहीं. सो, आम दर्शक इन्हीं सब पर
दिल खोल कर पैसे लुटा रहा है और अपनी इसी लीला को लूट रहे हैं भंसाली..आदि.
लेकिन लूटने वाले भी काव्य, कला व सौन्दर्य को बज़ार में बेचने के बदले वही माँग-पा रहे
हैं, जिसके लिए बाबा तुलसी कह गये हैं – ‘का माँगौँ कछु थिर न रहाई’.
तो, नाम-दाम लेकर ये लोग भी ‘थिर न रहाई’ हो जायेंगे.... लेकिन छह
सौ सालों से जड जमाये ‘पद्मावत’ को हिला न सकेंगे, जैसे 16 साल हो गये ‘देवदास’ का विद्रूप बनाये, पर शरत् बाबू के ‘देवदास’ का कुछ न बिगडा. सच्ची कला व संस्कृति की फ़ितरत यह भी है.
पर बरवक़्त क्या हो इसका
कि रनवीर के कारनामे सडकों-नुक्क्डों पर सराहे जा रहे हैं. मूल्यों के लिए क़ुर्बान
हो जाने वाले रावल रतन बने शाहिद के साथ फिल्म ने जितनी अनवधानता बरती, वही जनता में उतर रही.... दीपिका की देहयष्टि पर फ़बते विविध
रूपरंगी लहँगों और विशिष्ट कोणों से नुमायां किये गये आंगिक सौन्दर्य व दिलक़श
अदाओं पर फ़िदा हैं लोग.
दुष्यंतकुमार के शब्द उधार लेकर कहूँ, तो इन तथाकथित ‘रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया, इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो....’.
दुष्यंतकुमार के शब्द उधार लेकर कहूँ, तो इन तथाकथित ‘रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया, इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो....’.
सत्यदेव जी का आलेख उत्कृष्ट है।'पद्मावत'फ़िल्म को निगल पाना किसी भी गंभीर पाठक /दर्शक के लिए असंभव है।कालिमा की पृष्ठभूमि में जायसी की कृति अपनी संवेदनशीलता के साथ और भी भास्वर हो जाती है और मजबूर करती है कि इसका mahkavyatmak पाठ हम बार बार करें ...दीन्ही उड़ाई पिरिथमि झूठी
जवाब देंहटाएंखरी खरी। जिन्हें विरोध और समर्थन -- दोनों में किसी को भी चुनना स्वीकार नहीं था, उन सभी का अभिनन्दन। 250 करोड़ की इस कमाई ( इसका रंग आप सोच लें) के पीछे इन लोगों का कोई योगदान नहीं है।
जवाब देंहटाएंVery true. It is a gross vulgaritu of a sensitive subject. I doubt that Bhansali has ability to handle such delicate subject. He just created mass hysteria around it to gain maximum commercial benefits. It was really very painful to watch it and regretted that why did I spend my precious time and money on it.
जवाब देंहटाएंवर्तमान की खिड़की से अतीत में झांकती बेहद सारगर्भित ,वैचारिक ,गहन और संतुलित व्याख्या .
जवाब देंहटाएंफ़िल्म के हर पक्ष की विस्तृत समीक्षा !
जवाब देंहटाएंभंसाली की इस करोडों वाली व्यावसायिक यात्रा में देवदास , मस्तानी ,ओर पदमावत के टाईटील तो फिर भी किसी स्थापित कथाओं के आधार लिये हैं लेकिन इन के पूर्व बनी '' रामलीला ' के टाईटील का आधार किस राम की लीला से सम्बंधित है .. और भी ज्यादा विवेचना का विषय है क्यूँकी भारतीय जन् मानस जिस राम लीला को सदियों से जानता रहा वह तो उस फ़िल्म की कथा से बिलकुल सम्बंधित नही था !
क्या भंसाली ने जानबूझ कर ' मजाक ' उडाया था ..??
������वाह मन की बात कह.दी।जबसे पद्मावत देखी तब से अजीब सी खीज थी भंसाली के लिये।पैसे की बरबादी और साहित्यिक कृतियों की ऐसी तैसी भंसाली से बेहतर कोई कर ही नहीं सकता।दीपिका पादूकोण एक भी द्रृश्य मे पद्मावती के अप्रतिम सौन्दर्य का लवलेश स्पर्श नही कर सकी।पांच करोड़ के गहनो से लदी एक मूर्ति।और संवादों का तो क्या कहना।छिछले उथले आज के खोखले युग की तरह हवा मे तैरते गुब्बारे जैसे संवाद।
जवाब देंहटाएंजानदार, धारदार और संतुलित समीक्षा।
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