मैं कहता आँखिन देखी : प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी








संस्कृत भाषा का नाम लेते ही हमारे सामने एक शास्त्रीय पर पुरातनपंथी भाषा आ खड़ी होती है जिससे अब केवल धार्मिक अनुष्ठान भर सम्पन्न होते हैं. हम भूल चुके हैं कि इसमें चार्वाक और अश्वघोष (वज्र-सूची) जैसे विद्रोही विचारक भी हो चुके हैं.

आज भी अगर भारत के विचार को समझना है तो आपको संस्कृत समझनी चाहिए.

संस्कृत के प्रख्यात साहित्यकार और आधुनिक विचारक प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी से यह संवाद मूल संस्कृत में प्रवीण पंड्या ने संभव किया है, और फिर संस्कृत से इसका हिंदी अनुवाद भी उन्होंने ख़ास समालोचन के लिए किया है.

यह संवाद बहुत अर्थगर्भित है. यह केवल दर्शन और साहित्य पर ही नहीं है यह हिन्दू, वर्ण, जाति, साम्प्रदायिकता आदि तमाम समकालीन प्रश्नों से भी  गम्भीर मुठभेड़ करता है. जो लोग हर प्रगतिशील अवधारणा को पश्चिम से आयातित कह उसकी अवहेलना करते हैं दरअसल उन्हें अपनी परम्परा का भी ज्ञान नहीं है.

इस शानदार संवाद के लिए  प्रवीण पंड्या और उपलब्ध कराने के किये बलराम शुक्ल का हृदय से आभार.





संस्कृति और सृजन के संकट                        
(चिन्तक, अध्येता एवं प्रख्यात संस्कृत कवि आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी से प्रवीण पंड्या का संवाद)



(आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी भारतीय मेधा के प्रतिनिधि रचनाकारों एवं आलोचकों में गिने जाते हैं. संस्कृत की रचना एवं उसके शास्त्र दोनों में इन्होंने उल्लेखनीय योगदान दिया है. संस्कृत में छह काव्य संग्रहों, तीन उपन्यासों सहित अनके कृतियाँ देने वाले त्रिपाठी जी ने हिन्दी में भी प्रभूत, और गौर करने योग्य साहित्य सर्जन किया है. ज्ञानपीठ से प्रकाशित इनका हिंदी उपन्यास विक्रमादित्यकथा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की परम्परा को आगे बढ़ाता है. सबसे महत्त्वपूर्ण तो अभिनवकाव्यालंकारसूत्रम् नामक काव्यशास्त्र की रचना है, जिसमें वह काव्यालोचन को ऐतरेय महीदास आचार्य भरत की आर्षदृष्टि से जोड़ते हुए पश्चिम की सर्वभक्षी एकाधिपत्यवादी एकांगी दृष्टियों के बरक्स समग्रता, पूर्णता एवं वैकल्पिकता के मानदण्ड देते हैं.


कवि क्रान्तद्रष्टा होता है किन्तु उसका अध्येता होना आवश्यक नहीं है. राधावल्लभ त्रिपाठी गंभीरअधीतीहैं. साहित्य इस संसार के भीतर ही भीतर चलने वाला संवाद भी है, जिसमें आमने सामने उपस्थित हुए बिना सैंकडों (जो कि अन्तत: अनन्त हो जाते हैं) लोग शामिल होते हैं. बस, इसी के बल पर वह कुछ जोड़ता है और कुछ निरस्त करता है. मेरे पूर्वत: चिन्तित, निश्चित प्रश्रों का उत्तर देते हुए त्रिपाठी जी जिस व्यापक एवं उदात्त दृष्टि को लेकर उपस्थित होते हैं, वह उपयुक्त धारणा को पुष्ट करता है)  प्रवीण पंड्या

 १. जन्म बन्धन है, यह वैदिक दृष्टि या उसके बाद में उपजी हमारी धारणा है.  क्या यह शून्यवाद की वह नींव नही हैं, जिसके सहारे श्रमण व वैष्णव --इन दो तटों वाली हिन्दुदृष्टि अब वर्तमान है.

जन्म बन्धन है, यह दृष्टि वैदिक तो किसी भी तरह नहीं है. यह जीवन बन्धन है और इससे मुक्ति पानी चहिए, यह विचार वेदों में मूलत: नहीं है. धर्म, अर्थ, काम ये तीन पुरुषार्थ हैं. चौथे मोक्ष को तो त्रयी में जग़ह ही नहीं मिली. उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्इस मन्त्र में जिस बंधन का संकेत है, वहाँ भी जीवन के बन्धन होने का तो भाव नहीं है. 

मौत का डर ही बंधन है, जीवन तो अमृतमय है, यहीं ऋषियों को आशय प्रतीत होता है. संन्यास नामक चौथे आश्रम की व्यवस्था भी बाद में जाकर शुरू हुई. वैदिक ऋषि तो संन्यासी ही  नहीं होते थे. उपनिषदों के ऋषि वानप्रस्थ हैं, संन्यास की तो वहाँ कथा ही शुरू नहीं हुई.

चौथे वेद अथर्ववेद में वेदान्तदर्शन निरूपित हुआ है, वहाँ भी बन्ध मोक्ष का उस तरह से विचार नहीं है, जिस तरह परवर्ती वैष्णवादि मतों में हुआ है. अत: जन्म बंधन है, यह विचार वैदिक तो नहीं है. वैदिक संस्कृति की समवर्ती/ समकालीन किसी संस्कृति में ऐसा विचार था, यह संभावना की जा सकती है. वैदिक संस्कृति के समानान्तर चलने वाली कुछ संस्कृतियाँ थीं. वैदिक व्रत, आचार, यज्ञादि में श्रद्धा न रखने वाले व्रात्य थे. वैदिक मन्त्रों में ही व्रात्यों की बड़ी महिमा की गई है.

अर्थववेद में बहुत से सूक्त व्रात्यमाहाम्त्य का मण्डन करने वाले हैं. यह एक व्रात्य संस्कृति है, जो वैदिक संस्कृति से बाहर है. श्रमण संस्कृतियाँ, आर्येतर लोगों की संस्कृतियाँ, और भी संस्कृतियाँ इस देश में प्रचलित थीं. वहाँ यदि जीवन बन्धन है, यह सिद्धान्त के तौर पर माना गया हो, तो उस बारे में मैं ठीक से नहीं जानता और न साधिकार बोल सकता हूँ. यह अवश्य साधिकार कहता हूँ कि भारतीय दृष्टि एक दृष्टि, एक संस्कृति नहीं है, वह अनेक संस्कृतियों का समुच्चय है. सर्वदृष्टि स्वीकार या सर्वदृष्टिस्वातन्त्र्य से हमारी दृष्टि बनती है. इस तरह सभी संस्कृतियों के स्वीकार या सभी संस्कृतियों के निषेध के साहस में भारतीय संस्कृति प्रतिष्ठित है.


भारतीय चिन्तनधारा के दो प्रवाह आनन्दवाद और दु:खवाद विद्वानों ने माने हैं. पहले प्रवाह के प्रतिनिधि इन्द्र हैं और दूसरे के वरुण, यह मत जयशंकर प्रसाद ने व्यक्त किया है.

वैदिक परम्परा में जो दर्शन या शास्त्र विकसित हुए हैं, उनमें भी मनुष्य तो स्वतंत्र है किन्तु वह अपने को बद्ध सा मानता हैयही विचार आता है. तस्मान्न बध्यतेऽद्धा न मुच्यते न वा संसरति कश्चित्. बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृति:यह सांख्यकारिकाकार ने कहा है. बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन ने तो निवार्ण ही संसार है एवं संसार ही निर्वाण हैका उद्घोष किया ही.


२. भारतदेश तो जम्बूद्वीप का भाग ही है न. संस्कृतधारा तो शक, प्लक्ष आदि द्वीपान्तरों में व्याप्त हुई है. हम संस्कृताश्रित संस्कृतिको भारतीय संस्कृतिकैसे कह सकते हैं? भारत शब्द सप्तद्वीपा वसन्धुराका वाचक तो नहीं है.

यह प्रश्र भ्रान्ति पैदा करता है. संस्कृताश्रित संस्कृति या संस्कृतधारा क्या है, यह जब  तक स्पष्ट नहीं किया जाता, तब तक स्पष्ट उत्तर नहीं दिया जा सकता. केवल, कोई एक संस्कृति संस्कृत के आश्रित रही, यह नहीं कहा जा सकता. और न कोई एक ही धारा संस्कृत से प्रवाहित हुई. संस्कृत अति विशाल क्षेत्र है, जिसमें नाना संस्कृतिधाराएँ प्रवाहित हुईं और हो रही हैं. यदि वैदिक संस्कृति ही संस्कृताश्रिता संस्कृति है, यह माना है तो वह ठीक नहीं है. क्योंकि संस्कृत में वैदिकतेर परम्पराओं से संबद्ध बौद्ध, जैनों, चार्वकों, मुसलमानों और ईसाइयों का प्रचुर साहित्य है. 

संस्कृत की कोई एक संस्कृति नहीं है, एक धारा भी नहीं. संस्कृतिवैविध्य और प्रवाहवैविध्य है. वहाँ जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्मानते हुए ऋषियों ने बहुत पहले इसकी पृष्टि कर दी थी.

संस्कृताश्रित संस्कृति की कुछ धाराएँ भारत से बाहर भी फैलीं और इन धाराओं ने उन उन देशों की धाराओं के साथ संगम रचाया. संस्कृतधारा तो शक प्लक्ष आदि द्वीपान्तरव्यापिनी हैयह जो कहा गया, इसमें मेरी दो तरह की आपत्तियाँ हैं. पहली तो यह कि कोई एक धारा नहीं है जो भारतेतर देशों में व्याप्त हुई. वहाँ नाना धाराएँ व्याप्त हुई थीं. और दूसरी यह कि आपकी अवधारणा के अनुसार यह संस्कृतधारा अथवा मेरी अवधारणा के अनुसार बहुत सी संस्कृताश्रित संस्कृति की धाराओं ने ही भारतेतर देशों की संस्कृति को बनाया, यह भी मैं नही मानता. उन उन देशों की संस्कृतियों ने संस्कृताश्रित संस्कृतियों या उनके प्रवाहों के कुछ तत्त्वों को अंगीकार किया तथा संस्कृतधाराओं ने भी उन उन देशों को संस्कृतप्रवाहों के संगम से अपना विकास किया.

बर्मा, थाईलैंड, मलयेशिया, जापान, इण्डोनिशिया, वियतनाम, लाओस आदि देशों की संस्कृतियाँ केवल संस्कृतमात्र या भारतीय संस्कृति मात्र की उपजीविनी नहीं हैं. उन देशों की अपनी स्थानीय परम्पराएँ, अपनेआख्यान और अपनी जीवनपद्धतियाँ हैं. इन परम्पराओं, इन आख्यानों अथवा इन जीवनपद्धतियों ने संस्कृताश्रित परम्पराओं से संगम कर उन उन देशों की संस्कृति को बनाया तो प्रत्येक देश की एक भिन्न, विशिष्ट संस्कृति बन गई. यह संस्कृति विभिन्न संस्कृतियों के पारस्परिक आदान-प्रदान से विकसित हुई, जिनमें संस्कृत से निःसृत संस्कृतियाँ भी थीं और इतर संस्कृतियाँ भी. संस्कृत भाषा, संस्कृत साहित्य परम्परा, संस्कृताश्रिता संस्कृति या संस्कृतियों ने जम्बूद्वीप के मध्य गणनीय भारतेतर देशों अथवा जम्बूद्वीपेतर देशों की संस्कृतियों के निर्माण में बहुत बडा योगदान किया है, इसमें कोई संशय नहीं है.

यहाँ यह समझने की बात है कि भारत देश या एशियामहाद्वीप या संस्कृत की एक संस्कृति नहीं है, क्योकि उसमें अनके संस्कृतियाँ गुँथी हुई हैं. तथापि जाति में एक वचन के विधान के अनुसार लाघवार्थ संस्कृताश्रित संस्कृति या भारतीय संस्कृति संज्ञा के प्रयोग का अनुमोदन किया जा सकता है. एशिया महाद्वीप की एक विशिष्ट संस्कृति है. उसके निर्माण, विकास और समुल्लास में संस्कृताश्रित भारतीय संस्कृति का भी अवदान है. वह ईसाई सम्प्रदाय का आधार लेकर प्रवर्तित योरोपीय संस्कृति से अलग पड़ती है, तथापि यह संस्कृति, केवल संस्कृताश्रिता है, ऐसा कहना उचित नहीं है.

संस्कृताश्रित संस्कृति का भारतेतर देशों में भी प्रसार होने पर हम उसे भारतीय संस्कृति कैसे कह सकते है, इस प्रश्र में आपका आशय यह प्रतीत होता है कि संस्कृताश्रित संस्कृति भारतीय संस्कृति से व्यापकतर है. इसके उलट कर मैं तो यह कहता हूँ कि भारतीय संस्कृति ही संस्कृताश्रित संस्कृति की अपेक्षा अधिक व्यापक है. 

भारतीय संस्कृति के निर्माण, विकास एवं समुल्लास में आदिम जनजातियों, वैदिकेतर परम्पराओं, तमिलादि भाषाओं पर अवलम्बित संस्कृतियों, इस्लामपरम्पराओं, ईसाईपरम्पराओं का भी बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण अवदान है. जैसे वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, कपिल-कणाद गौतम आदि दर्शनिक, बुद्धमहावीर आदि महापुरुष, कालिदासादि महाकवि उसके निर्माता हैं, वैसे ही सीलप्पकादिरम् या  तोलकाप्यम् के काव्यकार, तुलसी, गालिब, सुब्रह्मण्य भारती आदि सुकवि भी उसके निर्माता हैं.

यदि भाषा आश्रय, अधिकरण या अधिष्ठान है तो वह आश्रित या आधेय से भिन्न है. संस्कृत संस्कृतियों का आश्रय है, वह संस्कृतियों से पृथक् है. भाषा व्यापक होती है और संस्कृति व्याप्य. पृथ्वी या देश अनेक भाषाओं का आश्रय स्थान है, अत: पृथ्वी या देश भाषा से व्यापक है और भाषा उससे व्याप्य है. भारतीय संस्कृतियाँ संस्कृताश्रित संस्कृतियों अतिरिक्त भी हैं, यह कह सकता हूँ.


३. संस्कृत  कैसे परम्परा से जुड़ी हुई है? क्या  वह बीते हुए घटनाचक्र का इतिवृत्त मात्र है अथवा उसके सहित या उसके बिना, उसके विशेष से विमुक्त कोई चिन्तन है ? और संस्कृति यदि परम्परा का अनुवचन ही है तो सर्जक का सर्जन क्या रहा ?

कोई एक परम्परा संस्कृत से जुड़ी हुई नहीं है. नाना परम्पराएँ अनुस्यूत हैं. केवल प्राचीन इतिवृत्त में संस्कृत का परम्पराबाहुल्य कैसे खप सकता है? वहाँ राम भी है, कृष्ण भी, बुद्ध भी, तथा मोनालिसा भी. योरोपभ्रमण की अनुभूतियाँ हैं, वहाँ  भावान्तराणि जननान्तरसौहृदानिभी समुल्लसित है, बुद्ध के भिक्षापात्र में डूबकी लगता अणुबम्ब से जला हुआ शहर है, वहाँ विषुवियस की लपटें और वेनिस नगर की कुल्याएं भी हैं. (इस वाक्य के बिंब त्रिपाठी जी ने हर्षदेव माधव की संस्कृत कविताओं से संदर्भित किये हैं.)


४. बीत चुकी वर्णाश्रमसभ्यता स्मृतिबल से संस्कृत सर्जक व सर्जन के सामने खडी है और हम युग की वर्तमान सभ्यता को जी रहे है. इस सभ्यता को पाश्चात्य कहें या पाश्चात्यप्रभाव से प्रभावित, किन्तु उसी को जीते हुए हमारी सात पीढियाँ बीत चुकी हैं. अत: क्या सर्जक के लिए क्या मार्ग है?

यह प्रश्र काफी जटिल है. वर्णव्यवस्था से क्या आशय है, यह पहले बतलाना चाहिए. जो वर्णव्यवस्था का समर्थन करते हैं, वे प्रच्छन्नरूप से जातिवाद का समर्थन करते हैं. वे बड़ी ऊँची किन्तु खोखली बातें करते हैं, वे कहते हैं: जाति, जन्म से नहीं होती है. चातुर्वर्ण्य तो भगवान ने गुणकर्मविभागश: सिरजा है. जो ज्ञानगरिमा से सम्पन्न हैं, वे ब्राह्मण हैं. जो रक्षाकर्म कुशल हैं, वे क्षत्रिय हैं, जो शिल्प व कला में कुशल हैं, वे शूद्र हैं. इस तरह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि जन्म से नहीं होते हैं. दूसरे वर्णव्यवस्था की उससे भी गूढ गंभीर व्याख्या करते हैं. वे कहते हैं- देखिये, कितनी सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि यहाँ पर भारतीय चिन्तकों की है. मनुष्य की चार प्रकार की प्रवृत्तियाँ होती हैं-- ज्ञान, रक्षण, व्यवसाय और कला, उस अनुसार उसका वर्ण होता है. 

ये वचन कितने मनोरम प्रतीत होते हैं. परन्तु जो इन बातों को कहते हैं, वे व्यवहार में प्राय: जन्म से ही जाति का पोषण करते हैं. फलत: ये वचन सिद्धान्त में ही रह जाते हैं, व्यवहार में तो ब्राह्मणों के बेटे ब्राह्मण ही होते हैं और क्षत्रियों के बेटे क्षत्रिय. हमारे जीवन में सिद्धान्त व्यवहार का जैसा द्वैध है, वैसा शायद ही अन्यत्र हो. वर्णाश्रम व्यवस्था जातिवाद से जुड़ गई. 

अति प्राचीन काल में ही जातियों में सांकर्य उत्पन्न हो गया था. जातिगत शुद्धता का आग्रह मिथ्या हो गया. महाभारत के जातिरत्र महासर्पइत्यादि वचनों से इसकी पृष्टि होती है. स्मृतिकारों ने वर्णाश्रमव्यवस्था की जैसी अवधारणा की है, वर्तमान में वैसी अभ्यास या व्यवहार में नही है. व्यवहार में वर्णव्यवस्था धूल चाट रही है, व्यवहार में जातियाँ उखड़ चुकी हैं. हमारे संस्कारों में जातिवाद का दुराग्रह जरूर मुँह फैलाये खड़ा है.

संस्कृत साहित्यकारों के  समाज में वर्णाश्रमव्यवस्था और जातिवाद के संस्कार जागरित हैंसाहित्य रचते समय तो सरस्वती जागती है, वही अवांछित संस्कारों को उखाड़ फैंकती है और सर्जनोत्प्रेरक भावों या संस्कारों को उन्मीलित करती है. साहित्य रचना के लिए सारे पूर्वाग्रह, आग्रह, धारणाएँ, पूर्वनिर्मित विचार प्रत्यवाय ही हैं. उनको उपेक्षित करके ही साहित्यसाम्राज्य में स्थित होना चाहिए, वहाँ अन्य का आदेश नहीं हो.


५. पद पद पर पार्थिव मूर्ति की स्तुति करने वाले यत् किञ्चित् संस्कृतसाहित्य का सम्प्रदायगत विधि से विवश होने के कारण मुस्लिम जन निषेध क्यों कर न करें ?

प्रश्न में सारे मुस्लिम समाज का जो साधारणीकरण किया गया है, उसमें मेरी आपत्ति है. वहाँ सभी लोग मूर्तिभंजक नहीं होते हैं. उनमें सभी मूर्तिभंजक सम्प्रदाय से संबद्ध नहीं होते हैं. रहीम आदि मुसलमानों ने संस्कृत में, रसखान, नज़ीर आदि ने ब्रज या उर्दू में भक्तिभाव से तन्मय होकर कृष्णभक्ति परक अत्यन्त रमणीय काव्य रचे हैं. उससे उनका मुस्लिमत्व नष्ट नहीं हो गया. पाँच बार निष्ठा के साथ नमाज पढ़ेगें और कीर्तन में भी सम्मलित होंगे ऐसे लोग भी उस समाज में हैं.


राजस्थान में जहाँ आप हैं, मुस्लिम समाज के कुछ पारंपरिक  कलाकार कई पीढियों से केवल रामायण गायन का काम करते रहे हैं. हमारा सांस्कृतिक वैभव और वैविध्य ऐसे लोगों की निष्ठा और खुली दृष्टि से बना है. दूसरी बात यह कि पार्थिवमूर्ति के स्तुतिपरक संस्कृत काव्यों को वर्जित करने वाले लोग मुसलमानों में ही हैं, ऐसा नहीं है. देवताओं के पार्थिव विग्रह को मन में रख यदि उनकी स्तुति में कोई कवि कविता करता है तो वहाँ सबका समान रूप से रसास्वाद नहीं हो सकेगा. 

ऐसे स्तुति काव्य उनके लिए समान रूप से रसनीय नहीं रह जाते जिनकी स्तुत्य देवों में आस्था नहीं है. कभी कभी भावसौन्दर्य के कारण उन काव्यों के अनुशीलन में अनास्थाशील की भी रुचि हो जाती है यह बात अलग है. अनास्थाशील होते हुए भी मैंने सौन्दर्यलहरी, स्तुतिकुसुमाञ्जलि आदि के पाठ से सौन्दर्यधारा से आप्लवित भावों साक्षात् किया है. फिर भी धार्मिक सम्प्रदायविशेष के भीतर रचे जाने वाले काव्य या साहित्य की सबके लिए समान रसनीयता नहीं हो सकती. वहाँ न तो पूर्ण साधारणीकरण होता है और न तादात्म्य.

रसास्वाद की यह भी एक कोटि है. इस कोटि में अवस्थित होकर जो काव्यानुशीलन करते हैं, वे अरसिक होते हैं, यह भी नहीं मानना चाहिए. वे रसिकोत्तम हो सकते हैं. क्योंकि वे अपने विवेक को विसर्जित कर काव्यास्वादन नहीं करते हैं. यदि विवेकविसर्जन पूर्वक साहित्य का रसास्वादन किया जाता है तो सतृणाभ्यवहारिता हो जाती है अत: पुराने पण्डितों ने ठीक ही भक्ति का रसत्व अस्वीकार किया. जिसकी श्रीकृष्ण में भक्ति नहीं है, उसके लिए गौडीय भक्ति संप्रदाय के अनुगामी कवियों द्वारा रचे गए काव्य कदाचित् वैरस्यजनक हो सकते हैं. सारे श्रोता या पाठक हमारे काव्य के रसास्वाद हेतु कृष्णभक्त हों, जो नहीं होते है, वे निन्दनीय है, साहित्य में ऐसा अनुशासन कोई नहीं चला सकता, भले ही वह महाकवि हो या महान् समीक्षक.

हमारी संस्कृति में तो जो पार्थिवमूर्तिपूजा को धिक्कारते हैं, उन दयानन्द आदि, चार्वाकों आदि का भी महनीय स्थान है. संस्कृतपरम्पराओं में, हमारी चिन्तनधाराओं में और संस्कृत साहित्य में मुसलमानों की जग़ह कैसे हो सकती है, इसके विरुद्ध में मैं कुछ अन्य कहना चाहता हूँ. जो जडबुद्धि संस्कृत परम्पराओं में मुसलमानों के लिए जग़ह नहीं है, ऐसा विचार भी मन में लाते हैं, वे वस्तुत: असंस्कृत हैं, भले ही वे कितने बड़े विद्वान् बुद्धिजीवी पण्डित या विषयविशेष के विशेषज्ञ शास्त्रज्ञ क्यों न हो. इन मन्दबुद्धियों की दुष्टता से सरस्वती क्षीण होती हैं, मुस्लिम-ईसाई मतावलम्बी संस्कृत को सम्प्रदायविशेष की भाषा मानते हुए उसके अध्ययन से विमुख हो जाते हैं. फिर भी आज भी उनमें भी अल्बेरूनी, अब्दुलरहीम खानखाना और दाराशिकोह सदृश लोग हैं ही.

शुक्रस्मृति में बत्तीस विद्याएँ गिनाई गई  हैं. उन बत्तीस विद्याओं में एक विद्या के रूप में यवनदर्शन भी गिना गया है. नवमी शताब्दी में तुर्कों, मुसलमानों का भारत में आक्रान्ता के रूप में आगमन नहीं हुआ था. परन्तु इस्लाम की उस काल में संस्कृत विद्याओं में जग़ह है. ताजिक विद्या का अध्यययन करने के लिए उसी काल में नीलकण्ठ काश्मीर गए थे.

धर्म के नाम पर आतंक पुष्ट किया जाता है. उस के कारण इस तरह की विडम्बना खड़ी हो जाती है. साहित्य तो इस प्रकार के आंतकवाद का प्रतिरोधी है.

६. सहस्राब्दियों पहले रचे गए,चाहे वह लैटिन का हो या यहूदी का अथवा संस्कृत का, साहित्य का इस युग के सर्जकों के  कैसा संबंध हो सकता है? उन युगों का तात्कालिक और इस युग का एतत्कालिक समाज समाकारिता कैसे हो सकती है? यह सही है तो फिर कैसी संस्कृतिसंरक्षा संस्कृत लेखन से अथवा तो तदानीन्तन युगदृष्टि की पृष्टि अधुनातन सर्जन से क्यों कर होगी.


ग्रीक लैटिन आदि भाषाओं के प्राचीन साहित्य से आजकल के योरोपीय साहित्यकारों का कदाचित् दृढ संबंध नहीं है. परन्तु संस्कृत के पुरातन साहित्य से वर्तमान संस्कृत सर्जकों का गहरा संबंध है. कहीं कहीं तो आवश्यकता से भी ज्यादा संबंध है, यह हम देखते हैं. इसका खास कारण है. ग्रीक लैटिन आदि भाषाओं का जो प्राचीन स्वरूप था, वह अब बदल चुका है. उन भाषाओं का पुरातन साहित्य आधुनिक काल के साहित्य सर्जन से नहीं जुड़ेगा. 

संस्कृतभाषा पाणिनि से लगाकर आज तक अपने स्वरूप में मौजूद है. उसका साहित्य अधुनातन संस्कृत सर्जकों के मानस के साथ संशिष्ट हो जाता है. इस संश्लेष के नाना रूप हैं. वाल्मीकि कालिदास आदि के काव्य अब भी हमारे लिए सहज बोधगम्य हैं, किन्तु उनका अनुसरण करते हुए या उनके अनुरूप संस्कृत में नयी रचना करनी चाहिए, ऐसी बात नहीं है. उनका अतिक्रमण करके अथवा उनसे आगे जाकर हम रच सकते हैं, यह संभावना बनती है.

७. हिन्दुत्व के साथ संस्कृत की अन्विति कितनी है? है अथवा नहीं  हैउसका हिन्दुत्व से भिन्न स्वरूप हैसमकालिक रचनाओं से क्या तथ्य प्रकट होता है?

जिस संस्कृत भाषा में मैं काव्य करता हूँ या रचता हूँजिस संस्कृत भाषा के साहित्य को पढ़ कर मैं परितोष प्राप्त करता हूँ, उस संस्कृत भाषा और उसके साहित्य का हिन्दुत्व के साथ कोई संबंध नहीं है. वहाँ तो सब कुछ हिन्दुत्व से व्यतिरिक्त ही है. वेदों से लेकर, व्यास-वाल्मीकि से लेकर, पुराणों से लेकर, कालिदास से लेकर, भवभूति से लेकर, राधावल्लभ से लेकर आज तक के संस्कृत साहित्य में तथाकथित हिन्दुत्व भावना से हिन्दू शब्द का ही प्रयोग नहीं है. हिन्दू शब्द ही संस्कृत शब्द नहीं है. संस्कृत साहित्य में उसके प्रयोग  का अवकाश या कारण भी नहीं था, अत: उसका प्रयोग नहीं है. 

अरबदेशीयों या विदेशियों ने सिन्धुतट प्रदेशों में निवास के कारण भारतीयों के लिए ये हिन्दू हैंऐसा निरादर पूर्वक हिन्दू शब्द का प्रयोग किया था. उन विदेशियों द्वारा जूठे के रूप में उगले हुए हिन्दू शब्द को हमने अङ्गीकृत कर लिया. बाद में योरोपीय संस्कृतिविदों, जिन्होनें संस्कृत साहित्य का अनुशीलन किया, संस्कृत साहित्य को प्राय: हिन्दूसाहित्य कह कर निर्दिष्ट किया. यह कैसी दुरभिन्सन्धि या मतिमान्द्य है कि वात्स्यायन के कामसूत्र को भी ए हिन्दू बुक आफ सेक्स कहा जाता है. सभी मानव इस शास्त्र का अभ्यास कर सुखी हों, इस बुद्धि से यह शास्त्र रचा गया था. जिसने इस शास्त्र का प्रणयन किया, वह तो हिन्दू इस नाम को भी नहीं जानता था.

यह हिन्दू शब्द नानाविध अभिप्रायों से नाना अर्थों में आजकल प्रयुक्त होता है. इसका अतिव्याप्ति, अव्याप्ति, असम्भव-- इन तीन दोषों से रहित लक्षण भी सभव नहीं है. मुस्लिम, ईसाई, यहूदी आदि शब्दों में वैसा नहीं है. उनका लक्षण किया जा सकता है. जो कुरान और मोहम्मद साहब के पैगम्बरत्व में विश्वास करता है, वह मुसलमान है. जो बाईबिल और ईसामसीह के ईश्वरपुत्र होने में आस्था रखता है, वह ईसाई है, ऐसा सुगमलक्षण हो सकता है. 

इस तरह यहूदी आदि शब्दों में भी है. परन्तु हिन्दू कौन, इस प्रश्न का क्या उत्तर है? कहा जाय कि जो वेद में श्रद्धा रखता है, वहतो किस वेद में? वेद तो विविध हैं. शैवागम भी वेद हैं. यदि जो भारत में रहता है वह हिन्दू है तो भारत में रहने वाला भारतीय है, ऐसा सीधा कहिए, इतना घुमा फिर क्यों कहा जाए. भारत को हमारे संविधान में परिभाषित किया गया है, वह सुविदित ही है. भारत को हमारे पुराणकार ऋषियों ने परिभाषित किया है, वह भी सब जानते हैं.


इस प्रकार विदेशियों में कुछ ने अनादर भावना से और दूसरे कुछ ने दुरभिसन्धि, दुष्टतापूर्ण मूर्खता या विशुद्ध मूर्खता से हिन्दू संज्ञा का प्रयोग हम भारतीयों के लिये किया. इस शब्द को हमने अपने जात्यभिमान के साथ स्वीकार और महिमा मण्डित किया. यह हमारी विवशता हो सकती है. क्योंकि मुसलमानों, तुर्कों, ईसाईयों के समाज में सांगठनिक रूप से रिलीजन अर्थ में जैसा धर्म था, वैसा कोई एक धर्म भारतीय समाज में नहीं था. हमारे समाज में तो अनेक वेद, अनेक स्मृतियाँ, बौद्ध, जैन, चार्वाक आदि अनेक मत, वैष्णव शैव, शाक्त आदि सैकड़ों संप्रदाय थे.

एक पैगम्बर, एक मसीहा हमारे समाज में नहीं था. हमारे तो सैकड़ों पैगम्बर, हजारों मसीहा होगें. यह विविधता, यह बहुलता और सर्वस्वीकार ही हमारी संस्कृति का प्राणतत्त्व और धर्मपरम्पराओं का वैशिष्ट्य था. परन्तु मुस्लिमों, यहूदियों या ईसाइयों द्वारा तुम्हारा धर्म क्या है’, यह पूछने पर क्या कहेंकी ऊहापोह में हिन्दू धर्म’  ऐसा सरल समाधान हम ने स्वीकार लिया. हिन्दुत्व उपाधि को हमने स्वयं आरोपित किया, यह हमारा सहज धर्म नहीं है. एक तो करैला, और नीम चढ़ा, इस तर्ज पर इस आरोपित उपाधि को राजनैतिक प्रपञ्च/ पचड़े में संकीर्णबुद्धियों द्वारा बहुत बड़ा वितण्डावाद खड़ा करने हेतु बार बार दोहराया जाता है. अज्ञानता और विदेशियों के अन्धानुकरण करते हुए हम हमारी उदार और प्रातिस्विक परम्पराओं को भूल रहे हैं, यह विडम्बना है.

मैं ऋषियों के कुल में जन्मा हूँ. मैंने भी तप तपा है. विदेशियों के जूठे को मैं कैसे अकारण निगल जाऊँ? मैं हिन्दुस्थान में नहीं रहता हूँ. हिन्दुस्थान मेरा देश है, ऐसा उपदेश किसी भारतीय ऋषि, दार्शनिक या तत्त्वचिन्तक ने मुझे नहीं दिया. मैं भारत देश में रहता हूँ और उस कारण भारतीय हूँ. यही उपदेश भी मेरे ऋषियों ने बार बार मुझे दिया है

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्.
वर्षं तद् भारतं नाम भारती तत्र सन्तति:.., ऐसा कहते हुए.

मेरी रचनाओं में कोई हिन्दुत्वभाव स्फूर्त नहीं होता है, वहाँ भारतीयता का भाव प्रकट होता है, यह मैं साहित्यकार के स्वभाव से कह सकता हूँ. अन्य साहित्यकार भी परास्वादन इच्छा से विरत होकर अपने स्वभाव का अनुशीलन करें.


८. वेदों से लेकर अब तक संस्कृत रचनाकारों का विचारगत कोई परिवर्तन क्रम है अथवा नहीं.

परिर्वतन तो नियति का विधान है. वेदों या उपनिषदों में ही परिवर्तमान संसार स्फूर्त  हेता है. ऋग्वेद के दसवें मंडल में विचारकोश अलग पड़ता है, जीवनदर्शन में बदलाव आता है. मेरे अपने साहित्य में परिवर्तन दिखलायी पडता है. साहित्य यात्रा के कितने कितने पथ परिवर्त नहीं हुए, तथापि कोई सनातनता यहाँ अनुस्यूत है. वैदिकों ने इसे ऋत नाम से कहा है. प्रकारान्तर से ऋतकी भावना हम सबके अच्छे साहित्य में चली आ रही है. बाहरी  दूनियाँ मे जो बदलाव होते हैं, उनसे हमारी रचनाएँ अछूती नहीं रह पाती हैं.





९. तथाकथित सवर्णों से भिन्न संस्कृत लेखकों को गिनाया जा सकता है?

आधुनिक संस्कृत साहित्य में ये सवर्ण और ये असवर्णऐसा भेद दिखलायी नहीं पड़ता है. यह उचित भी है. मैं तो उन पण्डितों और महाकवियों को जानता हूँ और बहुत मानता हूँ जिन्होनें वर्णव्यवस्था की तीखी निन्दा की है, उसे धिक्कारा है. छात्रपतिसाम्राज्य जैसे सर्वांग रमणीय महाकाव्य के लेखक, काशी के पण्डित, उमाशंकरशर्मा त्रिपाठी का काव्य अस्पृश्यान्तर्निवेदितम् को देखिए. वहाँ किस तरह अंगारों-से भमभते और वेदना से सने शब्दों के माध्यम से वर्णव्यवस्था को धिक्कारा गया है. साहित्यकार जब साहित्य रचता है तो वह उस समय सवर्ण या असवर्ण नहीं होता है. वह विश्वजनीन कारुण्य में डूबता है. 

संस्कृत में असवर्ण साहित्यकार अब हैं या नहीं, इसका मैंने नोटिस नहीं लिया. कदाचित् न भी हों. प्राय: जाति या जन्म से संस्कृत साहित्यकार ब्राह्मण होते हैं. उनमें जो विप्रकुल में नहीं जन्मे हैं, वे भी संस्कृत जानने के अभिमान से अपने को ब्राह्मण घोषित कर देतें हैं तथा ब्राह्मणवाद का पोषण करते हैं. जबकि दूसरी तरफ़ उमाशंकर शर्मा, राधावल्लभ, महाराजदीन पाण्डेय आदि विप्रकुल में जन्म लेकर भी साहित्य में दलितों, असवर्णों, अन्त्यजों की व्यथा प्रकट करते हैं.


वैदिक ऋषियों  में ऐतरेय ब्राह्मण के रचयिता ऐतरेय महीदास इतरा नामक दासी के बेटे थे.बाला  दासी का बेटा सत्यकाम जाबाल ऋषि हुआ था. इसी तरह कवष, ऐलूष आदि, और अन्य भी अन्त्यजकुल में जन्मे ऋषि और कवि तब हुए थे. राजा श्रीहर्ष के दरबार में धावक धोबी जाति और मातंग दिवाकर चाण्डाल कुल में जन्मे थे. ये दोनों महाकवि थे. हमारे पाँच हजार वर्षों के इतिहास में ये चार या पाँच उदाहरण अन्त्यज ऋषियों या कवियों के हैं. आधुनिक संस्कृत साहित्य में भी बाद में अध्ययन करने पर उल्लेखार्ह चार या पाँच उदाहरण मिल ही जायेंगे.

१०धर्मशास्त्र अपने युग का नियामक होता है. प्रत्येक युग अपना धर्मशास्त्र संविधान उस समय की प्रतिष्ठित भाषा में रचता है, जैसा कि इस समय हम भारतीयों का धर्मशास्त्र अँगरेजी में लिखा हुआ है. संविधान व काव्य एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, किन्तु उतने ही एक दूसरे के आमने सामने भी होते हैं. संस्कृत में लिखे गए धर्मशास्त्र संविधानों का तत्कालीन या उत्तरवर्ती काल में काव्य द्वारा प्रतिरोध कोई परम्परा दिखाई देती है.

भवभूति प्रतिष्ठित मीमांसक कुल में जन्मे. नाटकादि की रचना में लगे होने से धर्मशास्त्रियों ने उनकी उपेक्षा करने पर आक्रोश में भर कर उन्होंने ʻये नाम केचिददिह न: प्रथयन्त्वज्ञाम्ʼ यह श्लोक लिखा, यह तत्त्वप्रदीपकार के प्रामाण्य से कह सकते हैं. शंकराचार्य को धर्मशास्त्रानुरोध से अपनी माँ का और्ध्वदैहिक कर्म करने से रोका गया, परन्तु उन्होनें धर्मशास्त्रावलम्बी ब्राह्मणों के मत का अनादर करके स्वेच्छानुसार अपनी माँ का अन्तिम संस्कार किया. धर्मशास्त्रों में कहीं पर दी गई विधवा विवाह, समुद्र यात्रादि के निषेध इत्यादि अनेक व्यवस्थाओं का विरोध आधुनिक संस्कृत साहित्य में हुआ है.

ईश्वरचंद विद्यासागर ने विधवाविवाह के समर्थन में संस्कृत में निबन्ध लिखा और छपाया. भट्ट मथुरानाथ शास्त्री आदि साहित्यकारों ने विधवा जीवन के बारे में उपन्यास, कहानियों की रचना की है. वहाँ भी प्रकारान्तर से परोक्ष रूप से संकीर्ण धर्मशास्त्रियों का विरोध है ही. महिलाओं में संस्कृत विदुषी पण्डिता रमा देवी ने मनुस्मृति का प्रखर विरोध किया. क्षमा देवी के साहित्य में विरोध के स्वर गुंजायमान हैं.

११. संस्कृत समाज के लिए आधुनिकता, युगीनता क्या संरचना के क्षेत्र में नवोत्कर्ष ही हैं कि विधाप्रवर्तक भट्ट मथुरानाथ शास्त्री को जो संमान दिया, वह विचारप्रवर्तक क्षमा देवी राव को नहीं मिल सका. हर्षदेव माधव की वैचारिकता की अपेक्षा उनके तान्का, हाइकु आदि की चर्चा अधिक की जाती है?

संस्कृत पण्डितों के समाज में जितना श्रम शास्त्रों में किया जाता है, उतना चिन्तन का प्रकर्ष साधने में नहीं. और नयी विचारधाराओं का अवबोध-अभ्यास भी नहीं होता है. अत एव कवि की रीति, शैली या उसके द्वारा स्वीकृत विधा की जैसी चर्चा होती है, वैसी चर्चा उसकी वैचारिकी की नहीं हो पाती है. तथापि आशा के लिए अवकाश है. मैं संस्कृत में बहुत से उदीयमान विद्वानों और विदुषियों को देख रहा हूँ जो संरचनावाद को एक तरफ कर तत्त्वदृष्टि से साहित्यानुशीलन के लिए जुटे हुए हैं.

१२. आपके अन्यच्चऔर ताण्डवम्दोनों उपन्यासों में वस्तुतत्त्व विगतकालिक है. लहरीदशक की वसन्त, निदाघ आदि लहरियों में वर्तमान अप्रकृत है. विद्यमान देश और काल आपके साहित्य में सुदृढ गृहीत होने के बावजूद अप्रस्तुत है. अप्रकृत-अप्रस्तुत में सुरसामुख-से विस्तीर्ण देश-काल को निक्षिप्त कर रचना करना क्या प्रत्यक्ष से आमने-सामने की टकराहट से पलायन तो नहीं है?

प्रस्तुत, प्रकृत और वर्तमान का साक्षात् ग्रहण भी मैंने किया है. मेरे पहले काव्यसंग्रह सन्धानम् की धर्माचार्य:, ‘कविगोष्ठीइत्यादि कविताओं का उदाहरण दिया जा सकता है. स्मितरेखामें संकलित मेरी समस्त कहानियाँ सीधे वर्तमान को विषय बनाती है. इसी तरह प्रेक्षणकसप्तकम्में संकलित सभी रूपक भी. उपाख्यानमालिका और अभिनवशुकसारिका में तो पुराकाल और सांप्रतकाल --दोनों को एकसाथ उभारा गया है. आपका जानकीजीवनमहाकाव्य विषयक लेख मैंने पढ़ा है. सीता के चरित्र के उपस्थान में अभिराज राजेंद्र मिश्र ने महान् साहस और क्रान्तदर्शित्व प्रदर्शित कया, यह उसे पढ़ कर ही जाना. रामायण को आधार बना कर लिखे काव्य में यदि पलायन नहीं माना जाता है तो अन्यच्च, ताण्डवम् आदि के बारे में भी उस दृष्टि से विचार कीजिए. कश्मीर में जो दुःखद स्थिति  आज दिखलायी पड़ती है, उसके स्पष्ट संकेत दोनों उपन्यासों में हैं.

वस्तुत: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेकर  इन उपन्यासों की रचना का मेरे लिए एक कारण यह भी था कि आज की विसंगतियों का बोध मर्म को छूने वाला हो. भवभूति ने उत्तररामचरित, भारवि ने किरातार्जुनीय और विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस में पुराकालिक वस्तु को लेकर भी अपने देश-काल के जो संकेत किये हैं, वे मर्म को अधिक छूते हैं.

कहीं  वर्तमान से, अथवा टी. एस. इलियट् के अनुसार अपने अन्त:पुरुष से पलायन करके और ज्यादा साहसिक कटाक्ष वर्तमान पर किया जा सकता है. फिर भी यह प्रश्र विचारणीय है. सांप्रतिक संस्कृत साहित्य में कितना सांप्रतिकत्व है और कितना रामायणादि की वस्तु के बहाने पलायन, यह गवेषणा करनी चाहिए. आपके जैसे युवा अधीती इस काम को करें.

Pro.Radhavallbh Tripathi
Address: 21, Land mark city,
(Near Bhel Sangam Society

Bhopal-462 026
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डॉ. प्रवीण पंड्या
शास्त्रीनगर सांचौर
जिला जालौर राज 343041
mob- 9602081280

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  1. महत्वपूर्ण संवाद। साझा करने के लिए आभार।

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  2. आचार्य त्रिपाठी की स्वस्थ दृष्टि की आवश्यकता संस्कृत तथा संस्कृतेतर दोनों समूहों के लिए बहुत अधिक है। इस साक्षात्कार के भाषा-करण के लिए प्रवीण जी का तथा सर्वसुलभ बनाने के लिए अरुण देव जी को बहुत धन्यवाद!!
    - बलराम शुक्ल

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  3. आज के इस दौर में जब संस्कृत को लेकर अनेक प्रकार के भ्रम फैलाए जा रहे हैं,संस्कृत को एक खास धर्म सम्प्रदाय से जोड़ कर देख रहे हैं, ऐसे समय में भ्रान्तियां दूर करना ज़रूरी है। वह भी जब डा. राधावल्लभ त्रिपाठी की ओर से इस विषय को उठाया गया हो। साधुवाद के साथ धन्यवाद।

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  4. प्रशंसनीय कार्य। उत्तम।

    #विजयसिंह गौतम

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  5. त्रिपाठी जी को बधाई और इसे उपलब्ध करवाने के लिए आपको साधुवाद।संस्कृत में तीन ऐसे नाम हैं इस समय जो अपनी पूरी भंगिमा में उर्ध्वमुखी चेतना से सम्पन्न हैं:कमलेश दत्त त्रिपाठी,राधाबल्लभ त्रिपाठी और बलराम शुक्ल।मेरा सौभाग्य है कि अलग अलग पीढ़ियों के इन तीनों रचनाकारों से जुड़ा हूँ।एक सहृदय पाठक/श्रोता के रूप में।

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  6. अजित वडनेरकर10 अक्तू॰ 2017, 7:32:00 pm

    वाह...सुबह सुबह अनमोल उपहार !!!
    बहुुत आभार मित्र। त्रिपाठी जी का प्रशंसक हूँ। इत्मीनान से पढ़ूंगा।

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  7. बहुत अच्छी और सार्थक सामग्री।राधावल्लभ जी को पढ़ना हमेशा संस्कृति को नए दृष्टि से देखना है।बहुत धन्यवाद।

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  8. बहुत अच्छा साक्षातकार है .राधावल्लभ जी को मैंने प्रतयक्ष रुप से सुना है , उनका ग्यान उनके विचार उच्च हैं . भारतीय समाज को उनसे लाभानवित होना चाहिए .

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  9. किसी ना-ख़्वांदा बूढ़े की तरह ख़त उस का पढ़ता हूँ
    कि सौ सौ बार इक इक लफ़्ज़ से उँगली गुज़रती है
    अतहर नफीस का यह शेर त्रिपाठी जी के हर लिखे को पढ़ने के समय महसूस करता हूँ त्रिपाठी जी को सामने सुनना या उनका लिखा पढ़ना हमेशा नया सीखाता है यह आलेख संस्कृत में तो पढ़ा ही था अब हिंदी में भी पढ़ कर आनंद द्विगुणित हो गया ऐसे प्रश्न पंड्या जी ही पूछ सकते थे और ऐसे जवाब सिर्फ त्रिपाठी जी ही दे सकते थे उत्तम चर्चा तभी संभव है जब पूछने वाला और जवाब देने वाला दोनों शानदार हो मित्र Praveen Pandya जी Balram Shukla जी और अरुण देव जी को हार्दिक साधुवाद जय जय जय

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  10. A wonderful interview of a great scholar! Congratulations, Tripathiji.

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  11. Thank you so much ! Enjoyed every bit of it. Such an eye opener

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  12. समालोचन ने संस्कृत के क्षेत्र में 2 बेहतर कार्य किए हैं पहला बलराम जी की कविताएं फिर दूसरा यह साक्षात्कार आपको जितना शुक्रिया कहा जाय कम है त्रिपाठी जी के यूँ तो कई साक्षात्कार प्रकाशित हुए हैं लेकिन बलराम शुक्ल जी Balram Shukla द्वारा कुछ समय पूर्व लिया गया साक्षात्कार और पंड्या जी Praveen Pandya द्वारा लिया गया यह साक्षात्कार संस्कृत जगत के लिए धरोहर है

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  13. आदरणीय राधावल्लभ त्रिपाठी जी पर केन्द्रित अच्छी सामग्री है|वस्तुत:संस्कृत की प्रगतिशील परंपरा को हमारे समाज के धर्मशास्त्रियों ने ही छिन्न भिन्न कर दिया|त्रिपाठी जी हिन्दी संस्कृत की परंपरा के जीवंत सन्दर्भ कोश हैं|उन्हें जितना सूना पढ़ा जाय उतना ही ज्ञान लाभ किया जा सकता है|

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  14. अत्यंत ज्ञानवर्धक साक्षात्कार। आदरणीय त्रिपाठी जी की कुछ रचनाये मैंने पढ़ी हैं, अद्भुत रचना कौशल देखने को मिलता है।त्रिपाठी जी भारतीय संस्कृति को गौरवान्वित करने वाले प्रत्यक्ष उदाहरण है।।
    सादर नमन।।

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  15. मुग्ध हूँ। सार गर्भित।
    अपर्णा

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  16. TripathI ji very correct analysis and logical conclusion .wish you all the best .

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  17. यह एक बेहद सारगर्भित और महत्वपूर्ण साक्षात्कार है|इसे प्रस्तुत करने के लिए समालोचन का आभारी हूँ |

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  18. An excellent interview. Thanks a lot. However, the word 'Hindu' can hardly be called a foreign word. This Persian word seems to be a derivation or rather a distortion of 'Sindhu' which is both the name of a river and a Sanskrit word. The Sanskrit word 'Sindhu' means an ocean, a large water body, even a river, among others. The Persians turned it into 'Hindu' because they could not pronounce 'Sindhu'. The Greeks seem to have turned 'Hindus' into 'Indos' from where ultimately the word 'India' seems to have emerged. 'Indus' is, it seems, the Romanised version of 'Indos'. 'Hindustan' initially meant the place or the land beyond the river Sindhu. The point is this: the word went from 'India' (call it Bharat) and Sanskrit to Persia and came back in a changed form.

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  19. बहुत सुंदर साक्षात्कार, प्रवीण जी को इस कार्य के लिए बधाई...

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  20. आचार्य शिवबालक राय की पुस्तक है-‘वाल्मीकि रामायण: काव्यानुशीलन’। इसमें वे कहते हैं, ‘कला जो है सो है; बात है, कि हम उससे बतियाते कैसे हैं।’ उनके अनुसार ‘बतियाना’ तीन चीजों के अधीन है: वाक्यज्ञता, गुणज्ञता और रसज्ञता। भावक इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है। गुरु या अध्यापक के प्रति भारतीय चिंतन-दर्शन में विशेष महत्त्व, वरीयता और प्रतिष्ठा ज्ञापित है; क्योंकि वह शब्दकोश में संचयित शब्द-अर्थ रूपों से सर्वथा भिन्न; नव-नव अर्थ की भाववीचियों का उद्गाता है; अपरिमित संकेत-विधानों का सर्जक है। इस साक्षात्कार में भारतीय ज्ञान आधारित लोकवृत्त का संस्कृत वाङमय के साथ शानदार साधारणीकरण हुआ है। शायद इसीलिए भारतीय परम्परा ने भाषा की मानसिक तथा वाचिक दोनों क्रियाओं को महत्त्व प्रदान किया है-‘मनसा चिन्तितं कर्मः वचसा न प्रकाशयेत।’

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  21. Tripathiji is a respectable scholar of our time....

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  22. राधावल्लभ त्रिपाठी जी के सम्पूर्ण लेखन और चिंतन पर 'विभाष' की यह उद्घोषणा सटीक प्रतीत होती है-
    औरसेनासृजा पोषिता लेखनी
    लोकरागोष्मणा शोधिता लेखनी।
    कलम को प्राणों के रक्त से पोसा है, लोकराग की ऊष्मा से इसका शोधन किया है।
    जनकल्याण की भावना से आपूरित प्रवीण पंड्या ने राधावल्लभ जी से स्मरणीय साक्षात्कार लिया है। यहाँ संस्कृत का शिवत्व अपनी समूची गरिमा और विस्तार के साथ उपस्थित है। ऐसी दृष्टि-परिवर्तक बातचीत के लिए दोनों विद्वानों को कोटिशः साधुवाद।

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