मैं कहता आँखिन देखी : निर्मला पुतुल




























निर्मला पुतुल से संतोष अर्श के इस संवाद में लेखन प्रक्रिया, वैचारिक संरचना और स्त्री की सामाजिकता (जेंडर) के कई स्तरों की चर्चा है.
एक आदिवासी स्त्री के तथाकथित मुख्य धारा से मुठभेड़ के अनुभव हैं.
तमाम स्त्रीवाद के बावज़ूद एक उदास और हतप्रभ करने वाला समय हमारे समक्ष अपनी नग्नता के साथ यहाँ मौज़ूद है.
यह एक रचनाकार का संघर्ष तो है ही एक आदि स्त्री के असमाप्त संघर्ष का भी एक नुमांया हिस्सा है.

युवा कवि और अध्येता संतोष अर्श ने निर्मला पुतुल से पूरी तैयारी के साथ यह बातचीत की है.
ख़ास आपके लिए.




इस ऊबड़-खाबड़ धरती पर रहते, कितनी सीधी हो बाहामुनी            
(निर्मला पुतुल से संतोष अर्श की बातचीत) 


संतोष अर्श : जोहार निर्मला जी !! सर्वप्रथम तो मैं यह चाहता हूँ, पाठकों तक यह बात पहुँचे कि, किन परिस्थितियों में आपने लिखना प्रारम्भ किया और पारिवारिक स्थितियाँ क्या थीं उस समय ? कैसे लेखन की ओर रुझान हुआ ? अपनी शुरुआती शिक्षा के बारे में भी कुछ बताएँ.
निर्मला पुतुल : हमारी शिक्षा तो रुक-रुक कर हुई है. जिस तरह तारतम्य के साथ पढ़ा जाता रहा है या पढ़ रहे हैं अभी विद्यार्थी, उस तरह से नहीं हो पायी. चूँकि पारिवारिक स्थिति बहुत दयनीय थी तो उस तरह से माता-पिता सक्षम नहीं थे पढ़ाने-लिखाने में. तो रुक-रुक कर पढ़ाई हुई. और साहित्य में रुझान तो अपने फील्डवर्क के दरम्यान, जो अनुभव सामने आए एनजीओ में काम करते-करते, जो हमने देखा-सुना-भोगा, उनसे पैदा हुआ. और इन्हीं अनुभवों से साहित्यिक रुचि में प्रगाढ़ता आई. ज़मीन में काम करने पर ही हमारी दृष्टि आदिवासी स्त्रियों पर केन्द्रित हो सकी, कि किस तरह से आदिवासी समाज की महिलाएँ संघर्ष कर रही हैं. और उनका यह संघर्ष हमने भी भोगा है, हम भी भुक्तभोगी रहे हैं. तो यह लगा कि इस सम्पूर्ण संघर्ष को डायरी लेखन के रूप में लिया जा सकता है, या लिखा जा सकता है. इस प्रकार हमने पहले डायरी लिखना शुरू किया. डायरी लिखते-लिखते ही कविता की ओर रुख होने लगा. जो हमारी पहली कविता आई बिटिया मुर्मू के लिए वो डायरी लेखन के जरिये ही आई. डायरी लिखते-लिखते ही हमारी कविता आगे बढ़ी. आज भी हमारा फील्डवर्क का अनुभव ही हमारे काम आता है. जिसको हमने देख-भोगा-जिया है, वही हमारी कविता बन गई है.

संतोष अर्श : शिक्षा-दीक्षा आपकी कहाँ से हुई ?
निर्मला पुतुल : मैट्रिक लेवल तक की पढ़ाई तो एक दुधानी मिशन स्कूल था उससे हुई. शेष पढ़ाई इग्नू के माध्यम से हुई.

संतोष अर्श : तो आपकी शिक्षा कहाँ तक हो पायी ?
निर्मला पुतुल : ग्रेजुएशन तक. फिर उसके बाद से पढ़ाई-लिखाई आगे नहीं बढ़ पायी. चाह कर भी हम नहीं पढ़ पाये. पारिवारिक बोझ था, इसलिए पढ़ाई उस तरह से नहीं हो पायी.

संतोष अर्श : निर्मला जी शुरुआती रचना-प्रक्रिया कैसी रही ? क्या भाषा की समस्या सामने आई ? क्या संथाली भाषी होने से कोई अवरोध उत्पन्न हुआ ?
निर्मला पुतुल : भाषा की कोई समस्या सामने नहीं आई. लोग कहते हैं कि वो आदिवासी है. लेकिन हमारी पढ़ाई का माध्यम तो हिन्दी ही है. जो भी एबीसीडी, क ख ग घ वर्णमाला आपने पढ़ी, वही हमने भी पढ़ी. संथाली हमारे घर पारिवार-समुदाय की भाषा है. हमारी मातृभाषा है, वह भी हमारे पाठ्य-क्रम में थी, लेकिन इस कारण हिन्दी में लिखने में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं हुआ.

संतोष अर्श : आपने लिखना प्रारम्भ संथाली में किया या सीधे हिन्दी में ?
निर्मला पुतुल : संथाली में ही बातों को लिखना शुरू किया. उसके बाद डायरी-लेखन वगैरह तो हिन्दी में ही किया.

संतोष अर्श : साहित्यिक दुनिया में आपको पहचान संथाली कविताओं के माध्यम से मिली या हिन्दी कविताओं से ?

निर्मला पुतुल : संथाली कविताओं के माध्यम से. अभी इसी पर चर्चा भी हो रही थी कि किस प्रकार यह अदला-बदली हुई. पहले आप संथाली में लिखती थीं, फिर हिन्दी में लिखने लगीं. अनुवाद और रूपान्तरण की इसमें विशेष भूमिका रही. यही बात है. हमारे जो अनुवादक हैं उन्हें संथाली आती थी और हमें हिन्दी और संथाली दोनों आती थीं. इसलिए रूपान्तरण का कार्य बहुत अच्छे ढंग से हो सका. रूपान्तरण का संपादन भी हम स्वयं कर सकते थे.

संतोष अर्श : अच्छा तो संथाली से शुरू हुआ सफ़र हिन्दी की ओर बढ़ता गया. क्या संथाली की भी पत्र-पत्रिकाएँ वहाँ निकलती थीं ?
निर्मला पुतुल : हाँ संथाली की भी पत्र-पत्रिकाएँ हुआ करती थीं. एक-दो आदिवासी पत्रिकाएँ भी थीं. वहाँ लोकल में तो नहीं थीं, किंतु कोलकाता से छप कर आती थीं. चूँकि बहुत भारी-भरकम भाषा का इस्तेमाल नहीं करना था, सीधी-सरल भाषा में लिखना था, इसलिए कोई समस्या आड़े नहीं आई. वैसे तो हम हिन्दी और संथाली दोनों ही में सक्षम हैं.

संतोष अर्श : आपने लेखन डायरी से शुरू किया फिर कविताओं की ओर बढ़ीं. उस समय आपके सामने क्या चुनौतियाँ थीं ? आप क्या सोचती थीं कि आप हिन्दी कविता की दुनिया में एक दिन इतनी प्रसिद्ध होंगी ? या केवल स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए यह यात्रा शुरू हुई थी ?
निर्मला पुतुल : हमने कभी साहित्यकार बनने के लिए रचनाएँ लिखी ही नहीं. हम केवल इतना चाहते थे कि हमारी चीज़ें सामने आएँ. हम स्वयं को कैसे अभिव्यक्त कर पाएँ. यही सोचकर हम लिखते थे. हम अपने को साहित्यकार मान कर कभी नहीं लिख पाए. बाद में जब पाठकों के मध्य हमारी रचनाएँ पहुँची तो वे पसंद की गईं. लोग कहने लगे कि यह तो अच्छी रचनाएँ हैं और आदिवासी समाज की बहुत सी बातें सामने आ रही हैं. हमारी रचनाओं को साहित्य का दर्ज़ा पाठकों से मिला तो हमने भी मान लिया कि यह हमारा साहित्य है.

संतोष अर्श : आपका पहला संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था. हिन्दी की साहित्यिक दुनिया ने आपको कैसे ग्रहण किया ?
निर्मला पुतुल : हमारा पहला संग्रह ज्ञानपीठ से प्रकाशित ज़रूर हुआ लेकिन इसके ठीक बाद रमणिका फाउंडेशन ने भी मेरी रचनाएँ छापीं. क्योंकि वही पाण्डुलिपि दोनों के पास जाती है. पहले प्रभाकर श्रोत्रिय जी ज्ञानपीठ में थे उन्होंने ऑफर किया था कि आप अपनी पाण्डुलिपि भेजिये हम उसको देखेंगे और पुस्तक रूप में प्रकाशित भी करेंगे.

संतोष अर्श : यानी भारतीय ज्ञानपीठ ने आपको स्वयं अवसर दिया ?
निर्मला पुतुल : जी बिलकुल ! भारतीय ज्ञानपीठ और प्रभाकर श्रोत्रिय ने मुझे पहले-पहल अवसर दिया. पाण्डुलिपि देने के बाद भी उन्होंने पुस्तक तुरंत नहीं छापी. उसको ढाई-तीन साल तक अपने पास रखा, उसे गहराई से देखा-जाँचा-पढ़ा गया, तब जाकर उसे पुस्तक का रूप मिला. उसके पहले रमणिका फाउंडेशन ने हमसे पाण्डुलिपि ले ली थी और उसे बहुत दिनों तक अपने पास रखा. लेकिन जब प्रभाकर श्रोत्रिय ने छापने की घोषणा कर दी तब उन्होंने भी छापने की जल्दी की. (मुस्कराते हुए) रमणिका जी को लगा होगा कि अरे! हम तो पीछे हो रहे हैं. उन्होंने भी उसी समय हड़बड़-हड़बड़ में पुस्तक छाप दी. इसलिए दोनों संग्रह आगे-पीछे ही प्रकाशित हुए. रमणिका फाउंडेशन से छपे संग्रह की ख़ासियत ये है कि उसमें अधिक कविताएँ हैं. हिन्दी संथाली दोनों में हैं, जबकि ज्ञानपीठ से छपे 'नगाड़े की तरह बजते शब्द' में कवितायें कम और केवल हिन्दी में हैं. यही अंतर है.

संतोष अर्श : निर्मला जी भारत का बहुत बड़ा जनसमूह हाशिए पर है. इसमें आदिवासी समुदाय तो ख़ैर है ही. दलित समाज है, पिछड़ा वर्ग है, अल्पसंख्यक हैं. मैं स्त्री को लेकर प्रश्न करना चाहता हूँ, आदिवासी स्त्री को लेकर. कथित मुख्यधारा की स्त्री और आदिवासी स्त्री में आप क्या अंतर महसूस करती हैं ?
निर्मला पुतुल : देखिए चाहे वे मुख्यधारा की स्त्रियाँ हो या हाशिए की स्त्रियाँ ! स्त्रियाँ तो स्त्रियाँ हैं. चाहे वे आदिवासी समाज की स्त्री हो या अन्य समाज की. फ़र्क जो है वह इतना है कि आदिवासी समाज की स्त्री सड़क पर पिटाती (पीटी जाती) है और मुख्यधारा की स्त्री बेडरूम में पिटाती है, घर में पिटाती है. प्रताड़ित दोनों होती हैं. केवल भीतर और बाहर का अंतर है.

संतोष अर्श : कथित मुख्यधारा की जो स्त्री है, मेरा ज़ोर सवर्ण स्त्री पर है. उसमें और आदिवासी स्त्री में क्या अंतर है ? सवर्ण स्त्री के बरक्स आप आदिवासी स्त्री को किस प्रकार प्रस्तुत करेंगी ?
निर्मला पुतुल : उनका रहन-सहन तो अलग ही है, जो सवर्ण स्त्रियाँ हैं. और जो आदिवासी स्त्रियाँ हैं उनका अपना अलग रहन-सहन है. इस चीज़ को हम फर्क करते हैं. (हँसते हुए) और हम जानते हैं कि इनका तालमेल कभी उस तरह से (रहन-सहन के स्तर पर) नहीं हो सकता. चूँकि हम जानते हैं कि उसके पास अपना बंधन है. आदिवासी स्त्री के पास किसी तरह का बंधन नहीं है. वह स्वतंत्र है. स्वतंत्र किस रूप में है ? वह बाहर जा सकती है. स्वयं कमा-खा सकती है. कमाकर बच्चों को खिला सकती है. अपनी हड़िया-ताड़ी का जुगाड़ भी कर सकती है और अपने पुरुषों के लिए भी. तो इस मायने में बहुत फ़र्क है. आदिवासी स्त्री बहुत स्वतंत्र है. उसके पास फ़्रीडम है. सवर्ण स्त्री का हाल सवर्णों जैसा है. स्त्री को लेकर सवर्ण दृष्टिकोण बहुत भिन्न है आदिवासी समाज की तुलना में. तो सवर्ण स्त्री और आदिवासी स्त्री का कोई ताल-मेल नहीं है. और यह कभी हो भी नहीं सकता. क्योंकि सवर्ण नज़रिया बदल नहीं सकता. यह बदलने वाला नहीं है.

संतोष अर्श : यानी आप ये मानती हैं कि स्त्रियों में भी जाति-वर्ग भेद मौज़ूद है. स्त्रियों में जो सार्वभौमिक बहनापे की एक बात होती है वह भारतीय स्त्रियों में नहीं है.
निर्मला पुतुल : बिलकुल नहीं है !!

संतोष अर्श : मेरा प्रश्न स्त्री की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को लेकर भी था. नई सदी में जब भारत की आर्थिक परिस्थितियाँ बदलीं तो उससे भारत की जिन थोड़ी सी स्त्रियों को आर्थिक मुक्ति मिली वे सवर्ण स्त्रियाँ थीं. लाभ के अवसर भी सवर्ण स्त्री को ही अधिक मिले. आप इसको किस प्रकार देखती हैं ?
निर्मला पुतुल : लाभ के अवसरों की दृष्टि से यदि आप देखिएगा, तो वह सवर्ण स्त्री को ही मिले हैं. प्रत्येक तरह से. और दलित-आदिवासी स्त्रियाँ चीखती-चिल्लाती रहीं. उन्हें कुछ नहीं मिला. इसका एक पहलू यह है कि स्त्री के पक्ष में आवाज़ भी दलित-आदिवासी स्त्रियाँ अधिक उठाती हैं, भले ही उनको कुछ न मिले. सवर्ण स्त्री तो सवर्ण स्त्री है. यहाँ भेद-भाव हो जाता है. दलित-आदिवासी स्त्री की हक़तलबी होती है जिसका लाभ सवर्ण स्त्री को मिलता है.

संतोष अर्श : आप स्वीकारती हैं कि भारत की स्त्रियों में भी जातिगत और वर्गीय विषमताएँ, भिन्नताएँ हैं ?
निर्मला पुतुल : बिलकुल हैं !!

संतोष अर्श : निर्मला जी मेरा अगला प्रश्न हिन्दी की साहित्यिक दुनिया के स्त्री-विमर्श को लेकर है. जो हिन्दी साहित्य का स्त्री-विमर्श है अथवा भारतीय समाजविज्ञान का जो स्त्री-विमर्श है, उसमें दलित-आदिवासी, या अन्य कामगार-मज़दूर स्त्रियों को कहाँ तक स्थान मिल पा रहा है ? क्या इस संपूर्ण विमर्श में हाशिये की स्त्रियों के लिए स्थान निर्मित हो पाया ?
निर्मला पुतुल : देखिए ! (कुछ सोचकर) स्त्री-विमर्श का बड़ा हिस्सा मुख्यधारा की स्त्री के लिए है. उसमें दलित-आदिवासी स्त्री को स्थान नहीं मिल पाता. और यह मुख्यधारा की हाशिए वाली बात भी मनगढ़ंत लगती है. हाशिया उन्होंने अपनी रक्षा के लिए बनाया है. आदिवासी स्त्री की वर्गीय और सामुदायिक स्थिति भिन्न है इसलिए मुख्यधारा के स्त्री विमर्श में उसके लिए स्थान नहीं निर्मित हो पाता. स्त्री की सामुदायिक स्थितियों में अंतर है. इसलिए सपाट स्त्री विमर्श में दलित-आदिवासी स्त्री की चर्चा नहीं हो पाती. आदिवासी स्त्री जहाँ पर है यदि वहीं उसका शैक्षिक सामाजिक विकास हो जाए तब वह हाशिए की स्त्री कहाँ रहेगी ? नहीं न रहेगी !!

संतोष अर्श : निर्मला जी अब मैं आपकी कविताओं पर लौटूँगा. आपकी कविताओं में स्त्री का श्रमिक रूप बड़े सौष्ठव के साथ चित्रित हुआ है. यह चित्रण वैश्विक नेटिव साहित्य जैसा और अमेरिकन रेड इंडियन लेखिकाओं के स्तर का है. स्त्री के श्रम को इस प्रखर सौंदर्यबोध के साथ देखने की दृष्टि आपको कैसे मिली जो 'बाहामुनी' की पत्तल बनाने वाली स्त्री और 'पहाड़ी स्त्री' जैसी कविताओं में दिखती है.
निर्मला पुतुल : देखिए आदिवासी स्त्री मुख्यधारा की स्त्री या सवर्ण स्त्री की तरह कोमलांगी, फ़ैशनपरस्त या सुंदरता की पोटली बनाकर नहीं रखी जाती है. वह मर्दों की तरह खटती है और कभी-कभी तो मर्दों से भी अधिक श्रम करती है. तब जाकर वह अपना दाना-पानी जुटा पाती है. बड़ी मुश्किल से उसकी रोज़ी-रोटी का जुगाड़ हो पाता है. आदिवासी स्त्री बहुत श्रम करती है. उसके सपने सवर्ण स्त्री जैसे नहीं होते. उसे केवल दो जून का खाना चाहिए. इतने में ही वह ख़ुशहाल रहती है. मुझे आदिवासी स्त्री का यह श्रमिक जीवन अपने परिवेश से मिला है और वहीं से इसे मैंने ग्रहण किया है. मेरा अपना जीवन भी ऐसा ही है. तो यह दृष्टि तो मुझे अपने परिवेश से मिली हुई है. इसके लिए कुछ विशेष प्रयत्न नहीं करने पड़ते.

संतोष अर्श : आपने कभी ऐसा महसूस किया कि आदिवासी स्त्री कथित मुख्यधारा की स्त्री की तुलना में अधिक मुक्त है ?
निर्मला पुतुल : हाँ !! आदिवासी स्त्री अपना निर्णय लेने में अधिक स्वच्छंद है. वह अपने डिसीज़न स्वयं ले सकती है यद्यपि पुरुष और घर-परिवार का दबाव उस पर कुछ कम नहीं होता. कभी-कभी वह भी इन परिस्थितियों में पराजित होती है. किंतु अन्य मामलों में वह मुख्यधारा की स्त्री से अधिक स्वतंत्र है. श्रम में उसे कोई पराजित नहीं कर सकता. पुरुष भी नहीं ! वह पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर श्रम करती है.

संतोष अर्श : कविता के लिए आपको प्रेरणा कहाँ से मिलती है ? हिन्दी कविता में आपने काफ़ी कवियों को पढ़ा भी होगा. लिखने के लिए पढ़ना भी पड़ता है. हिन्दी के कौन-कौन से कवि आपने पढ़े ? कौन-कौन से आपको अच्छे लगे ? किनसे आपको प्रेरणा मिली ?
निर्मला पुतुल : सबसे पहले तो मैंने तस्लीमा नसरीन की कविताएँ पढ़ी थीं. जो बांग्ला से हिन्दी में अनूदित थीं. वे कविताएँ मुझे बहुत अच्छी लगीं. उन्हें मैंने बहुत बारीक़ी से पढ़ा. एक-एक चीज़ को ध्यान से समझा. अमृता प्रीतम को पढ़ा. अनामिका जी की कविताएँ भी मुझे पसंद हैं, उन्हें भी पढ़ा. पूरी तरह से तो नहीं, लेकिन थोड़ा-थोड़ा ज़रूर पढ़ा.

संतोष अर्श : और पुरुष कवियों में किन-किन को पढ़ा ?
निर्मला पुतुल : पवन करण की कविताएँ हमें अच्छी लगती हैं. विशेष कर उनका 'स्त्री मेरे भीतर' संग्रह अच्छा लगा था. इसका शीर्षक ही बहुत अच्छा है. इधर नीलोत्पल और बोधिसत्व  की भी कुछ कविताएँ पढ़ीं थीं. पुरुष कवियों की भी थोड़ी-बहुत कविताएँ हम पढ़ लेते हैं.

संतोष अर्श : कवयित्रियों में अनामिका के अलावा और किसी का भी ज़िक्र करना चाहेंगी? जिन्हें आपने इधर पढ़ा हो और उनकी कविताएँ आपको पसंद आई हों. जो आपकी दृष्टि में अच्छा लिख रही हों. 
निर्मला पुतुल : सिर्फ़ एक परिधि में ही सीमित होकर नहीं कि हम केवल कविता पर ही बात करें. मैत्रेयी पुष्पा जी का लेखन भी मुझे पसंद है. उनको हम बेहद मानते हैं. उनकी रचनाओं में वह सब मिलता है जो आम जीवन में घटित होता है. उनके लेखन से हमारा जुड़ाव है और उन्हें पढ़ना हमें पसंद है. उनसे हम मिले भी हैं और उनके घर-परिवार से भी जुड़ाव है. उन्होंने वही लिखा जो उनके जीवन में घटित हुआ. प्रायः हमने देखा है कि कुछ लोग लिख लेते हैं तो उन्हें लगता है वे बहुत बड़े लेखक हैं या मठाधीश हैं. उनमें ऐसी कोई बात नहीं है. वे बेहद सरल हैं.

संतोष अर्श : निर्मला जी हिन्दी साहित्य की दुनिया एक प्रकार से ब्राह्मणवाद से आतंकित और पुरुषवाद से अतिक्रमित रही है. आपने महसूस किया होगा कि कुछ मठाधीश हैं, कुछ मठ-गढ़ हैं, कुछ हिन्दी माफ़िया और उनके गिरोह-गुर्गे हैं, पंडे-पाखंडी हैं. एक स्त्री, विशेषकर एक आदिवासी स्त्री होते हुए हिन्दी की साहित्यिक दुनिया के आपके अनुभव कैसे रहे ? हिन्दी साहित्यकारों से आपके संबंध कैसे रहे ? 
निर्मला पुतुल : हिन्दी साहित्य की दुनिया में कुछ विशेष अनुभव रहे हैं. फील भी हुआ है. जैसे कभी विष्णु खरे से मिलना हुआ या कभी विश्वनाथ त्रिपाठी वगैरह से मिलना हुआ. जैसे मैं दिल्ली आई कविता पाठ के लिए तो विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि अरे निर्मला पुतुल आई है ज़रा देखते हैं कि आदिवासी स्त्री कैसी होती है ? उन्होंने सोचा होगा कि आदिवासी स्त्री है तो फिर थोड़ा अलग ही होगी. तो हम कहाँ अलग हैं ? हमने उनसे कहा कि सर हम तो बिलकुल आम स्त्री की तरह ही हैं. उन्होंने कहा, ‘तुम आम स्त्री की तरह ही हो लेकिन तुम्हारी नाक थोड़ी सी चपटी है. तो इसी में उन्होंने आदिवासी आँक लिया. मान लिया हमारी नाक चपटी है लेकिन औरों की तो नहीं भी चपटी हो सकती है न ? तो इस तरह की बहुत सी प्रतिक्रियाएँ मिलीं.

मठाधीशपन तो वहाँ के साहित्यकारों के सिर पर सवार ही रहता है. बड़े-बड़े लेखक हैं वहाँ पर, जो अपने को मठाधीश समझते हैं. लेकिन दूसरी तरफ राजेंद्र यादव जी जैसे लेखक भी थे. जो देखने में तो मठाधीश लगते थे लेकिन थे बहुत अलग. उनसे मिलने के बाद हमें लगा कि वे बहुत सरल हैं. कम बोलते थे किन्तु व्यवहार में बहुत सरल थे. इसी तरह बहुत सारे कवि भी थे जो स्वयं को न जाने क्या समझते थे. यहाँ पर उनका नाम नहीं लेंगे लेकिन उन्हें चिह्नित कर रखा है. कविता की दुनिया में तो मठाधीश भरे हुए हैं. कुछ वैचारिक हैं, कुछ चुप्पा हैं, कुछ बहुत बोलते हैं. कई बार हमने वक्तव्यों में मंच से भी मठाधीश शब्द का इस्तेमाल किया है जो कुछ लोगों को चुभ गया और कुछ लोगों ने हँस कर उड़ा दिया यह सोचकर कि, अभी नई-नई आई है बोलने दो इसे. लेकिन यह सब तो है ही. और परिवर्तन भी होते ही रहना है न !!

संतोष अर्श : अभी आपने मरहूम राजेन्द्र यादव जी का नाम लिया. हिन्दी साहित्य में विमर्शों को खड़ा करने में राजेंद्र यादव का बहुत बड़ा योगदान है. लेखिकाओं में वे बेहद लोकप्रिय रहे. राजेन्द्र जी के विषय में आपके अनुभव कैसे रहे ? यदि आप उनके विषय में कोई टिप्पणी करना चाहें तो क्या कहेंगी ?
निर्मला पुतुल : हम तो ये टिप्पणी करेंगे कि स्त्री विमर्श का स्तम्भ खड़ा करने वाला कोई है तो वे राजेन्द्र यादव जी हैं. उनका बहुत बड़ा नाम रहा है हिन्दी साहित्य की दुनिया में और वे इसी कारण बदनाम भी बहुत हुए. स्त्री कवियों, लेखिकाओं को आगे बढ़ाने में वे बदनाम हुए. उनका कई स्त्रियों के साथ नाम भी जुड़ा लेकिन यह बहुत बड़ा योगदान है उनका कि आज इतनी लेखिकाएँ हमारे सामने आईं. उन्होंने पत्रिकाओं के माध्यम से हिन्दी साहित्य में स्त्रियों के लिए एक स्थान बनाया और स्त्रियों को आगे बढ़ाया. सामान्य जीवन में तो वे बहुत अच्छे और सरल व्यक्तित्व थे, (मुस्कराते हुए) यद्यपि देखने में मठाधीश लगते थे, किन्तु वैसे थे नहीं.  

संतोष अर्श : आपकी कविताओं की अंतर्वस्तु पर अगर बात करें, तो विषय-वस्तु आप कहाँ से ग्रहण करती हैं ? आपके प्रतीक और बिम्ब कहाँ से आते हैं ? क्या निजी अनुभव भी उनमें शामिल होते हैं ? जैसे आपकी एक बहुत प्रसिद्ध और सुंदर कविता है, ‘उतनी दूर मत ब्याहना बाबा क्या वह निजी अनुभवों से प्रेरित है ? क्या अपनी ही शादी-ब्याह को लेकर ऐसे ख़यालात आए थे मन में ?  
निर्मला पुतुल : हमारी कविताओं को अगर आप उठाकर देखिएगा तो उसमें हमारे निजी और व्यक्तिगत जीवन के अनुभव ही अधिक मिलेंगे. जब हमने आदिवासी स्त्री के लिए क़लम उठाई तो अपने परिवेश को सर्वप्रथम अभिव्यक्त करने की कोशिश की. वह इसलिए कि जो एक आदिवासी स्त्री के आस-पास घट रहा है वह क्या है, लोग इसे जानें. ऐसा इसलिए भी कि हमारे समाज के अनुभव वहाँ तक पहुँच सकें जिसे मुख्यधारा कहा जाता है. अतः जीवन के यथार्थ को शेयर करने की ज़रूरत अधिक थी. आदिवासी समाज क्या है, आदिवासी स्त्री क्या है, उसके यहाँ क्या घटित हो रहा है इसे बताने के लिए व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों को कविता में लाना आवश्यक था. आदिवासी स्त्री किस तरह से अपने परिवेश की पुरुष सत्ता और राजसत्ता से एक साथ संघर्ष कर रही है इसको भी सामने लाने का प्रयास किया. कुल मिलाकर ये व्यक्तिगत और सामाजिक अनुभव दोनों ही हैं, जो हमारी कविता में आए हैं.

संतोष अर्श : यानी उतनी दूर मत ब्याहना बाबा में निर्मला पुतुल स्वयं ही अपने बाबा से यह कह रही हैं ?
निर्मला पुतुल : जी बिलकुल ! वो अपनी ही बात को अपनी ही कविता में अभिव्यक्त कर रही है. 

संतोष अर्श : हिन्दी साहित्य में विचारधारा का बहुत ज़ोर रहता है. यदि आपसे आपकी विचारधारा पूछिए जाए तो आप क्या कहेंगी ? आपकी वैचारिकी क्या है ?
निर्मला पुतुल : हमारी विचारधारा यह है कि लेखक का उसका अपना समय उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है. अपने समय को चिह्नित कर उसे साहित्य में अभिव्यक्त कर पाना लेखक के लिए ज़रूरी है. तो अभी जो चीज़ें सामने आ रही हैं, वे मेरे विचार-चिंतन में स्थान पाती हैं. विचार और निजी अनुभवों में ताल-मेल भी ज़रूरी है. बहुत से लेखक होते हैं जो बंद एसी कमरों में काल्पनिकता से ही सबकुछ तय कर लेते हैं, और उस कल्पनालोक से ही गाँव-जंगल का सब कुछ उठा लाते आते हैं. तो उनमें उस तरह की वास्तविकता नहीं आ पाती, जबकि विचारधारा तो उनके पास भी होती है. हमने ग्लोबलाइज़ेशन से हुए परिवर्तनों को महसूस किया और उन्हें अपने निजी अनुभवों के साथ मिलाकर देखा, तो इसका हमारे विचारों पर प्रभाव है. थोड़ा सा भटकाव भी होता है कभी-कभी.

संतोष अर्श : आदिवासी आंदोलनों का बहुत बड़ा भाग मार्क्सवादियों से प्रभावित रहा है. इसे आप किस तरह देखती हैं ? क्या आज भी आदिवासी साहित्य मार्क्सवाद से प्रभावित है ?
निर्मला पुतुल : पूरी तरह से तो नहीं ! लेकिन आज भी आदिवासी साहित्य का कुछ हिस्सा मार्क्सवाद से प्रभावित है.

संतोष अर्श : कविता में आप स्वयं को पूरी तरह से अभिव्यक्त कर पा रही हैं या आगे गद्य लेखन की भी कोई योजना है ?
निर्मला पुतुल : अभी तक जितना लेखन हम कर पाएँ हैं, उसमें तो नहीं लगता है कि अपने को पूरी तरह से अभिव्यक्त कर पाये हैं इसलिए आगे हम गद्य लेखन के लिए क़लम उठाना चाह रहे हैं और उसकी योजना बनाएँगे.

संतोष अर्श : आपकी कविताओं में एक विशेष बात और है. हिन्दी की पारंपरिक कवयित्रियों की तरह उसमें कोमलकान्त पदावली नहीं है. अधिकतर देखा जाता रहा है कि उनकी भाषा पर छायावादी प्रभाव है और शब्द-चयन सतर्कतापूर्ण है. यहाँ तक कि यह प्रभाव इस समय की भी कवयित्रियों में देखा जा सकता है. आप की कविताओं की भाषा हार्डकोर है. आपकी कविताओं की शब्द-समृद्धि की प्रशंसा होती रही है. यह बात कहाँ से आती है ? ऐसी भाषा आपको कैसे मिलती है ?
निर्मला पुतुल : हमारी भाषा तो बहुत सीधी-सरल है. उसमें किसी तरह की क्लिष्टता या कृत्रिमता आप नहीं पाएंगे. तो वह हार्ड तो हो ही नहीं सकती. दूसरी कविताओं से मेरी भाषा का मिलान करेंगे तो आप उसे बहुत सरल पाएंगे. हमारी हार्ड शब्दावली नहीं है. हाँ हमारा प्रेजेंटेशन थोड़ा अलग हो सकता है, क्योंकि उसमें भावावेग होते हैं.

संतोष अर्श : नहीं, नहीं !! मेरा कहना यह था कि छायावादी टाइप की सूफियाना या रहस्यमयी भाषा आपकी नहीं है, जिसमें प्रेम-अश्रु-अनंत-राग प्रभृति शब्दावली होती है. शब्द-चित्रों और पूँजीवादी रूपवाद का अतिरेक होता है. मैं उस तरह के प्रभावों से मुक्त होने के बारे में जानना चाहता था.    
निर्मला पुतुल : प्रेम कविताओं को लेकर भी यदि आप देखना चाहेंगे तो हमारी प्रेम कवितायें, प्रेम कविताओं जैसी नहीं लगतीं. जैसे कि स्पष्ट पहचाना जा सके कि यह प्रेम-कविता है. तो उस तरह से उसमें नहीं है जैसा कि अन्य कवि लिखते हैं. 
 
संतोष अर्श : यानी आदिवासी स्त्री का जीवन ही वैसा कोमल नहीं है कि उसमें कोमलकान्त पदावली आ सके?
निर्मला पुतुल : भाषा तो जीवन से गहरे जुड़ी होती है न ! आदिवासी स्त्री का संघर्षों भरा जीवन कोमल नहीं, कठोर है. तो उसमें कोमलकान्त पदावली कहाँ से आएगी ? आदिवासी ग़म भुलाने के लिए जो नाच-गाना करता है उसमें भले ही थोड़ी सी कोमलता आ जाये, बाक़ी जीवन तो उसका कठोर है. तो ये बातें हैं.

संतोष अर्श : आदिवासी के मुक्ति के सवाल पर आप क्या कहेंगी? आदिवासियों की मुक्ति कैसे हो सकती है?
निर्मला पुतुल : आदिवासी यदि मुक्ति चाहेंगे तो उनकी मुक्ति ज़रूर होगी. यदि नहीं चाहेंगे तो मुक्ति कैसे होगी ? जब तक वे अपने से नहीं आगे आएंगे तब तक मुक्ति संभव नहीं. मुक्ति चाहने से मुक्ति होगी, आदिवासी स्वयं को स्वयं ही मुक्त करेगा.

संतोष अर्श : कविता-लेखन के साथ-साथ क्या आप जनांदोलनों से भी जुड़ी रही हैं?
निर्मला पुतुल : गाँव स्तर पर जो छोटे-छोटे आंदोलन होते हैं, उनसे जुड़ जाते हैं. लेकिन हम  निरंतरता के साथ जनांदोलन कर रहे हों, ऐसी कोई बात नहीं है. जहाँ जब लगा कि उस आंदोलन से हमें जुड़ जाना चाहिए तो जुड़ जाते हैं, किन्तु यह परमानेंट नहीं है.

संतोष अर्श : निर्मला जी आपसे बहुत अच्छी बातचीत हुई. अंत में बस यह पूछना चाहता हूँ कि अपने पाठक/पाठिकाओं से क्या कहेंगी ? उनके लिए क्या संदेश है ?

निर्मला पुतुल : स्त्री-पाठकों से यही कहना चाहेंगे कि वे चकाचौंध और दुष्प्रचार से बचें. जो बातें स्त्री को हीन बनाती हों, उसके अधिकारों और आज़ादी के विरुद्ध हों- उनका विरोध ज़रूर करें.  स्त्री-जीवन से गहरे जुड़ें और उसे अनुभव करने की कोशिश करें. वे जिन चीजों से जुड़ना चाहती हैं उनसे ज़रूर जुड़ें और स्वयं को साबित करने का कोई भी मौका न खोएँ. वे अपनी मुक्ति के बारे में सोचती रहें.
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संतोष अर्श (1987बाराबंकीउत्तर- प्रदेश)
ग़ज़लों के तीन संग्रह फ़ासले से आगे, ‘क्या पता और अभी है आग सीने में प्रकाशित.
अवध के ऐतिहासिकसांस्कृतिक लेखन में भी रुचि
लोकसंघर्ष त्रैमासिक में लगातार राजनीतिकसामाजिक न्याय के मसलों पर लेखन.
2013 के लखनऊ लिट्रेचर कार्निवाल में बतौर युवा लेखक आमंत्रित.
फ़िलवक़्त गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी भाषा एवं साहित्य केंद्र में शोधार्थी 
poetarshbbk@gmail.com 

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  1. अच्छा साक्षात्कार ।निर्मला पुतुल जी की कविताएं बोलती कविताएं होती है ।उनसे रूबरू होना अच्छा लगा

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