(फोटो आभार : कल्याण वर्मा)
किसी समाज के स्वास्थ्य को गर जांचना हो तो उसके पर्यावरण को
देखना चाहिए. अगर उसकी नदियाँ प्रदूषित हैं, वन नष्ट हो रहे हों. मछलियाँ मर रही हैं
और पक्षी गुम हों तो वह कैसा समाज होगा ?
प्रकृति और पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी के अहसास के लिए कोई
एक दिन पर्याप्त नहीं पर उस दिन प्रकृति से मनुष्य के रिश्ते को समझने की हम शुरुआत
तो कर ही सकते हैं. इसे ही ध्यान में रखकर संयुक्त राष्ट्र संघ ५ जून को विश्व पर्यावरण
दिवस मनाता है.
अध्येता और कवि संतोष अर्श इस अवसर पर विचार के रूप में पर्यावरण
की अब तक की यात्रा पर हमे ले चलते हैं. प्रकृति
– प्रेम और पर्यावरणवाद अलग अलग हैं वह समझाते हैं. भारतीय समाज प्रकृति से जरुर प्रेम
करता है पर वह पर्यावरणवादी समाज तो बिलकुल भी नहीं है. इसके साथ ही वह तमाम वैश्विक सामाजिक
राजनीति की भी साहसिक विवेचना करते हैं.
आज आपके लिए यह आलेख
पृथ्वी के लिए शब्द
संतोष
अर्श
हमारे यहाँ अवध में विवाह से पूर्व एक बड़ी प्यारी रस्म ‘छेई’ की होती है. इसमें घर-गाँव के लोग गाँव से बाहर एक आम का पेड़ ढूँढ कर उसके तने पर बाँके या छोटी कुल्हाड़ी से हल्का घाव करते हैं. फिर उस घाव में हल्दी और गुड़ का मिश्रण भरते हैं. उसी जगह पेड़ के नीचे घी-लौंग का अगियार होता है. पेड़ को एक लोटा पानी दिया जाता है. तने के उस घाव के पास ही पेड़ को सिंदूर की टिकुली दी जाती है. फिर पेड़ के तने पर हल्दी और चौरीठे (चावल का आटा) के घोल की थापे देते हैं. यह हाथ के पंजे की थाप छेई में आए सभी लोग अपनी पीठ पर लेकर घर लौटते हैं. सभी में गुड़ बाँट कर खाया जाता है. यह ज़रूर कोई आदिम प्रथा है जो पेड़ को मनुष्यवत या देवोपम बनाती है.
पर्यावरणवाद की
सम्पूर्ण अवधारणाएँ प्रकृति को मनुष्य द्वारा दिये घावों पर मुनहसिर हैं. प्रकृति
को इतने घाव दिये जा चुके हैं कि अब उन्हें भर पाने में हमें अपने असामर्थ्य का
बोध होने लगा है. जैसे–जैसे
पूँजी का वर्चस्व और निजी संपत्ति की प्रवृत्ति बढ़ती गई, प्राकृतिक पर्यावरण
दूषित होता गया. यह एक खुली हुई स्पष्ट और सरल-सहज बात है. भौतिकशास्त्री और
ब्रह्मांडविद् स्टीफन हॉकिंग ने यहाँ तक कह दिया कि अगले सौ वर्षों के पश्चात हमें
दूसरी पृथ्वी की ज़रूरत होगी. इसे प्राकृतिक-पर्यावरण अवनयन, पारिस्थितिकी-असंतुलन, जलवायु परिवर्तन और
दिन-प्रतिदिन पृथ्वी की ख़राब हो रही सेहत को लेकर, विश्व नागरिकों को गंभीर कर देने वाला बयान माना जाना चाहिए.
रॉब निक्सन की
पुस्तक ‘स्लो वाइलेंस एंड दि
एनवायरमेंटलिज़्म ऑफ दि पुअर’ का भी उन्होंने उल्लेख किया है. यह भी गौरतलब है कि पारिस्थितिक
आलोचना के दायरे में केवल साहित्य न होकर फिल्में भी हैं. यान मर्टेल की ‘लाइफ ऑफ पाइ’ जैसी फिल्मों का
अध्ययन भी इस हवाले से किया जा चुका है. हम देखते हैं कि पश्चिमी साहित्यालोचन में
पर्यावरणवाद की संतोषजनक, सैद्धान्तिक पैठ हो चुकी है.
भाषा और पर्यावरण को
लेकर भी अनुपम मिश्र ने विचार किया है. ‘भाषा और पर्यावरण’ हिन्दी भाषा को लेकर लिखा गया उनका एक महत्वपूर्ण निबंध है, जिस पर ध्यान दिया
जाना चाहिए. इसमें उन्होंने सबसे बड़ा प्रश्न यह उठाया है कि अपने समाज को
जाने-समझे बिना हम उसका विकास कैसे कर सकते हैं ? वे लिखते हैं, ‘अपने को, अपने
समाज को समझे बिना उसके विकास की इस विचित्र उतावली में गज़ब की सर्वसम्मति है.’ यह बहुत बड़ी बात है.
उन्होंने भाषा और पर्यावरण के सम्बन्धों को भी अपने इस निबंध में रेखांकित किया
है. ‘किसी समाज का
पर्यावरण पहले बिगड़ना शुरू होता है या उसकी भाषा- हम इसे समझ कर संभल सकने के दौर
से अभी तो आगे बढ़ गए हैं.’ पर्यावरण के साथ भाषा भी या तो अवनयित, प्रदूषित होती रहती है, या जैव विविधता की तरह संकटग्रस्त रहती है. विलुप्त हो चुके प्राणियों
की तरह शब्द भी विलुप्त होते रहते हैं. पर्यावरण और भाषा का गहरा संबंध है. किसी
एक समय की भाषा जब उस समय के पर्यावरण के साथ विलुप्त हो जाती है तो हमारे पास
दो-चार मुहावरों के सिवाय कुछ नहीं बचता. अनुपम मिश्र का पर्यावरणवादी लेखन
प्रशंसनीय है किन्तु उसमें रोमांटिसिज़्म की अधिकता है. निरे रोमांस से भी पर्यावरण
नहीं बचाया जा सकता. पारिस्थितिकी और पर्यावरण विज्ञान भी हैं. विज्ञान
तर्कानुमोदित, तथ्यात्मक विश्लेषण
की माँग करता है.
“The poetry of the earth is
never dead.”______John Keats
हमारे यहाँ अवध में विवाह से पूर्व एक बड़ी प्यारी रस्म ‘छेई’ की होती है. इसमें घर-गाँव के लोग गाँव से बाहर एक आम का पेड़ ढूँढ कर उसके तने पर बाँके या छोटी कुल्हाड़ी से हल्का घाव करते हैं. फिर उस घाव में हल्दी और गुड़ का मिश्रण भरते हैं. उसी जगह पेड़ के नीचे घी-लौंग का अगियार होता है. पेड़ को एक लोटा पानी दिया जाता है. तने के उस घाव के पास ही पेड़ को सिंदूर की टिकुली दी जाती है. फिर पेड़ के तने पर हल्दी और चौरीठे (चावल का आटा) के घोल की थापे देते हैं. यह हाथ के पंजे की थाप छेई में आए सभी लोग अपनी पीठ पर लेकर घर लौटते हैं. सभी में गुड़ बाँट कर खाया जाता है. यह ज़रूर कोई आदिम प्रथा है जो पेड़ को मनुष्यवत या देवोपम बनाती है.
फोटो आभार : कल्याण वर्मा |
दूसरी पृथ्वी कहाँ
है ? अगर मिल भी गई तो
क्या आज के मुनाफ़ाख़ोर, लालची
और उपभोगवादी लोग उसे भी कुछ दिनों में ख़राब नहीं कर देंगे ?
साहित्य और पर्यावरण
के अंतर्संबंध पर्यावरण अवनयन के बोध के साथ बनने प्रारम्भ हुए. कुछ-कुछ
उत्तर-आधुनिक परिस्थितियों में. रचेल कर्सन की पुस्तक ‘साइलेंट स्प्रिंग’ 1962 में आई थी.
यहीं से साहित्य और पर्यावरण के अंतर्संबंधों का प्रस्थान माना जाता है. बैरी
लेविस ने 1960 से 1990 के मध्य के लेखन को ‘डोमिनेंट पोस्ट-मॉडर्निस्ट राइटिंग’ माना है. यह उत्तर-औद्यौगिक और उत्तर-औपनिवेशिक समय भी है. इसी समय के
दौरान हम पर्यावरण और साहित्य के बनते हुए संबंधों को देख सकते हैं. यह दुनिया भर
में पर्यावरणवादी आंदोलनों का भी समय था. कहीं न कहीं इन आंदोलनों का प्रभाव
भाषा-साहित्य की दुनिया पर भी पड़ा. धीरे-धीरे कैम्ब्रिज, हावर्ड जैसे
विश्वविद्यालयों में साहित्य और पर्यावरण का अंतरअनुशासनात्मक अध्ययन ज़ोर-शोर से
शुरू होता है. इकोलॉजी और साहित्य का यह इंटरडिस्प्लिनरी अध्ययन एक नवीन अनुशासन
के रूप में स्थापित हुआ. पर्यावरणवादी साहित्यालोचन को इकोक्रिटिसिज़्म कहा गया, जिसे हिन्दी में
पारिस्थितिक-आलोचना कह सकते हैं. ग्रेग गरार्ड जिनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘इकोक्रिटिसिज़्म’ 2004 में प्रकाशित
हुई, ने इसे ‘मनुष्य और मनुष्येतर
संबंधों का अध्ययन’ कहा
है.
पारिस्थितिकीवाद या
पर्यावरणवाद अब एक ऐसी वैश्विक विचारधारा बन चुकी है जिसमें मनुष्य के उन
तौर-तरीकों की आलोचना की जाती है, जिनके साथ वह पृथ्वी पर रह रहा है. पर्यावरण-चिंतन एक गंभीर विषय है.
बीसवीं सदी के अंतिम दशक में यह मान लिया गया था कि पृथ्वी को बचाए रखना इक्कीसवीं
सदी की सबसे बड़ी चिंता होगी. पर्यावरण-विज्ञान को एक अनुशासन बनाने के अतिरिक्त, मानविकी के प्रत्येक
क्षेत्र में इस विचारधारा को संश्लिष्ट रूप में थोड़ा-बहुत अपनाया गया. इसी
विचारधारा के अंतर्गत इको-क्रिटिसिज़्म या पारिस्थितिक-आलोचना आती है.
पारिस्थितिक-आलोचना वस्तुतः पर्यावरणिक दृष्टिकोण से साहित्य की आलोचना करना है.
मनुष्य के भौतिक वातावरण से उसके संबंध साहित्य में कैसे अभिव्यक्त हुए हैं यह इस
बात की तस्दीक़ करती है.
फोटो आभार : कल्याण वर्मा |
पर्यावरण-विज्ञान और
सौंदर्यशास्त्र के विकसित संयुक्त दृष्टिकोण के माध्यम से साहित्यालोचन, पारिस्थितिक-आलोचना
का आधार है. इस नज़रिये से यह साहित्य और पर्यावरण का अंतर्अनुशासनात्मक अध्ययन है, जिसमें साहित्य के
अध्येता यह अवलोकन करते हैं कि पाठ में पर्यावरण चिंतन किस प्रकार आया है, तथा यह आकलन करते
हैं कि लेखक ने प्रकृति के विषय को कैसे ग्रहण किया है. पारिस्थितिक-आलोचना का
स्पष्ट उद्देश्य ‘हरित सांस्कृतिक
अध्ययन’ है. यह अध्ययन
साहित्य को पर्यावरण से जोड़कर सामाजिक पारिस्थितिकी तक ले जाता है.
पारिस्थितिक-आलोचकों ने इसे समकालीनता के साथ पर्यावरणीय चिंतन को खँगालने में
सहायक माना है. यह सैद्धांतिकी साहित्य के पाठक में पर्यावरण-चेतना का विकास करती
है और वैश्विक पर्यावरणिक संस्कृति का उत्थान करती है.
यद्यपि पश्चिम में
भी साहित्य के प्रति पारिस्थितिक दृष्टिकोण देर से ही विकसित हुआ. इसके लिए
उत्तर-आधुनिक परिस्थितियों को बुनियाद के रूप में समझना चाहिए. लेकिन हिंदी
साहित्य में रामविलासीय आलोचना के प्रभाव से मुक्त न हो पाने वाले आलोचकों ने अपनी
तमाम ऊर्जा उत्तर-आधुनिकता के विरोध में ही खर्च कर डाली. संभवतः इसीलिए हिंदी
आलोचना में अब तक कोई पारिस्थितिक दृष्टिकोण विकसित नहीं हो सका. एकाध अधकचरी
पुस्तकें अहिंदीभाषी क्षेत्रों के अकादमीशियनों द्वारा अवश्य लिखी गईं. जिनमें
टोने-टोटकों, मिथकों का प्राचुर्य
और तार्किकता, वैज्ञानिकता का अभाव
है.
पश्चिम में जोसेफ़
मीकर की पुस्तक ‘दि कॉमेडी ऑफ
सरवाइवल’ ने साहित्य में
पर्यावरणवाद को स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई. 1970 का यह समय पर्यावरणवादी
रुचियों के विस्फोट का समय था. इस समय पश्चिम में कई पुस्तकें पर्यावरणवादी
रुझानों को लेकर लिखी गईं. 1990 में अमेरिका के ग्लेन लव ने इकोलोजिकल आलोचना की
आवाज़ उठाई. इसी समय ब्रिटेन में जोनाथन बेट के विचार ‘रोमांटिक इकोलोजी :
वर्ड्सवर्थ एंड दि एनवायरमेंटल ट्रेडिशन’ शीर्षक से प्रकाशित हुए. ग्लेन लव के प्रयासों से ही 1992 में अमेरिका
के युवा अध्येताओं ने मिलकर ‘एसोसिएशन फॉर द स्टडी ऑफ लिट्रेचर एंड एनवायरमेंट’ (ASLE) का गठन किया जिसका
प्रथम सम्मेलन 1995 में कोलराडो में हुआ. इन्हीं संगठनों और अभियानों के तहत
साहित्य और पर्यावरण का सम्मिलित अध्ययन विस्तृत और प्रासंगिक हुआ. हम पाते हैं कि
यही समय विश्व में पर्यावरणवादी आंदोलनों और पर्यावरण को लेकर हुए वैश्विक
सम्मेलनों का भी समय था. 1971 में रमसार कन्वेंशन (जो ईरान वेटलैंड को लेकर हुआ
था) और 1992 में आयोजित हुए संयुक्त राष्ट्र के रियो सम्मिट के मध्य में पर्यावरण
को लेकर कई संधियाँ, सम्मेलन
समझौते आदि हुए. अनेक मानवजनित पर्यावरणीय दुर्घटनाएँ भी इसी समय के दरम्यान हुईं.
भूमंडलीकरण या सार्वभौमीकरण में पर्यावरण और पारिस्थितिकी का मुद्दा ऐसा है जो
पूरी तरह से भूमंडलीकृत है. पर्यावरण का मुद्दा अमीर-गरीब, गोरे-काले, दलित-सवर्ण, पूरब-पश्चिम, मनुष्य-मनुष्येतर
सबके लिए ही अहम है.
फोटो आभार : कल्याण वर्मा |
यूरोपीय और अमेरिकी
अंग्रेज़ी साहित्य में हम पारिस्थितिक आलोचना को लेकर कुछ महत्वपूर्ण कार्य देख
सकते हैं. इनमें डाउनिंग क्लेस का ‘इकोलोजी एंड एनवायरमेंट इन यूरोपियन ड्रामा’ उल्लेखनीय है.
जिसमें ग्रीक ट्रेजडी से लेकर ब्रेख्त के नाटकों तक का पारिस्थितिक या हरित अध्ययन
हुआ है. इसमें लेखक ने साहित्य के पारिस्थितिक दर्शन और पारिस्थितिक इतिहास पर भी
विचार किया है. इसके परिचय में ही वे पर्यावरण एक्टिविस्ट, कवि और किसान ‘वेंडेल बैरी’ को उद्धृत करते हुए
लिखते हैं, ‘प्रकृति और
मानव-संस्कृति, जंगलीपन और घरेलूपन
एक दूसरे के विरोधी नहीं, अपितु परस्पर एक दूसरे पर निर्भर हैं.’
यह देखना दिलचस्प है
कि ‘हरित शेक्सपियर’ जैसे अध्ययन भी वहाँ
हो चुके हैं. लौरेंस बुएल जो प्राथमिक पारिस्थितिक आलोचकों में गिने जाते हैं, उनकी महत्वपूर्ण
पुस्तक ‘दि फ्यूचर ऑफ
एनवायरमेंटल क्रिटिसिज़्म’ है. इसमें इन्होंने साहित्यिक कल्पना और पर्यावरण अवनयन को लेकर विचार
किया है. यद्यपि पारिस्थितिक आलोचना की सैद्धांतिकी और शाब्दिकता कुछ नवीन है.
इसमें सामाजिक-पारिस्थितिवाद, गहन-पारिस्थितिवाद, इको-मार्क्सवाद, पारिस्थितिक-समाजवाद या हरित मार्क्सवाद, पारिस्थितिक-नारीवाद
प्रमुख हैं.
ग्राम्यवाद या
रोमानी ग्राम्यवाद, चरवाहा
संस्कृति, मानवेतरवाद, महाप्रलयवाद, देशजता, साकल्यता, जंगलीपन और आदिमपन
भी इसकी सैद्धांतिकी में सम्मिलित हैं.
आदिम ग्राम्यवाद और बंजारावाद पारिस्थितिक-आलोचना की दो ऐसी धाराएँ हैं जो मनुष्य की आधार संस्कृति से जुड़ती हैं. ये धाराएँ साहित्यिक आलोचना को लोकोन्मुखी बनाती हैं और ग्रामीण जीवन से लेकर महानगरीय जीवन तक एक समानान्तर रेखा खींचती है.
इसी प्रकार आवश्यकतावाद अथवा अपरिहार्यवाद पारिस्थितिक-आलोचना की एक ऐसी वैचारिक कड़ी है जो मानवीय अतियों, संपत्तिवाद, वर्चस्ववाद, बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद का निषेध करती है.
पारिस्थितिक-आलोचना का उद्देश्य मूल रूप से साहित्य में मनुष्य द्वारा प्रकृति के प्रति होने वाले व्यवहार और अलगाव को स्पष्ट करना है. यह मनुष्य के प्राकृतिक जीवन को मुखर करने के लिए एक प्रकार की हरित-सामाजिकता का विकास करती है तथा पारिस्थितिक संकट उत्पन्न करने वाले कारकों के विरुद्ध प्रतिरोध निर्मित करती है. विध्वंसक पूँजीवादी विकासवाद और सांस्कृतिक अतिक्रमण के समक्ष पारिस्थितिक-आलोचना भाषा, लिंग, मानवीय अस्मिता और पर्यावरण जैसे विषयों को संयोजित करके एक नवीन आलोचना का मार्ग विकसित करती है.
फोटो आभार : कल्याण वर्मा |
आदिम ग्राम्यवाद और बंजारावाद पारिस्थितिक-आलोचना की दो ऐसी धाराएँ हैं जो मनुष्य की आधार संस्कृति से जुड़ती हैं. ये धाराएँ साहित्यिक आलोचना को लोकोन्मुखी बनाती हैं और ग्रामीण जीवन से लेकर महानगरीय जीवन तक एक समानान्तर रेखा खींचती है.
इसी प्रकार आवश्यकतावाद अथवा अपरिहार्यवाद पारिस्थितिक-आलोचना की एक ऐसी वैचारिक कड़ी है जो मानवीय अतियों, संपत्तिवाद, वर्चस्ववाद, बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद का निषेध करती है.
पारिस्थितिक-आलोचना का उद्देश्य मूल रूप से साहित्य में मनुष्य द्वारा प्रकृति के प्रति होने वाले व्यवहार और अलगाव को स्पष्ट करना है. यह मनुष्य के प्राकृतिक जीवन को मुखर करने के लिए एक प्रकार की हरित-सामाजिकता का विकास करती है तथा पारिस्थितिक संकट उत्पन्न करने वाले कारकों के विरुद्ध प्रतिरोध निर्मित करती है. विध्वंसक पूँजीवादी विकासवाद और सांस्कृतिक अतिक्रमण के समक्ष पारिस्थितिक-आलोचना भाषा, लिंग, मानवीय अस्मिता और पर्यावरण जैसे विषयों को संयोजित करके एक नवीन आलोचना का मार्ग विकसित करती है.
सबसे प्रमुख है
पर्यावरणिक न्याय या एनवायरमेंटल जस्टिस, जो सामाजिक न्याय का सार्वभौमिक, वृहत्तर रूप है. इसके अंतर्गत मनुष्य ही नहीं मनुष्येतर प्राणी को भी
रखा गया है. पर्यावरणिक न्याय वस्तुतः पर्यावरण अवनयन से प्रभावित होने वाले
मनुष्यों और अन्य प्राणियों के न्याय की बात करता है. यह प्राकृतिक पर्यावरण को
नुकसान पहुँचा कर पाई गयी भौतिक सुविधा या मुनाफ़े में इससे प्रभावित होने वाले
लोगों की हानि को न जोड़े जाने पर विचार करता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि पर्यावरण को
नुकसान पहुंचाने वाले कुछ लोग ही होते हैं, किन्तु पर्यावरण अवनयन से उपजी जैविक विसंगतियों का सामना निर्दोष
मनुष्यों और मनुष्येतर जीवों के बड़े समुदाय को करना पड़ता है. यदि कोई पर्यावरण को
नुकसान नहीं पहुँचाता है, बावजूद इसके उसे पर्यावरण प्रदूषण का अतिक्रमणकारी आतंक सहन करना पड़ता
है तो यह उसके साथ अन्याय ही तो है ?
लुइज़ वेस्टलिंग ने
अपनी संपादित पुस्तक ‘दि
कैम्ब्रिज कैंपेनियन टु लिट्रेचर एंड द एनवायरमेंट’ के परिचय में पर्यावरणिक न्याय को लेकर किए गए महत्वपूर्ण कार्यों का
उल्लेख किया है. इनमें जॉनी एडमसन की 2001 में आई पुस्तकें ‘अमेरिकन इंडियन
लिट्रेचर, एनवायरमेंटल जस्टिस
एंड इकोक्रिटिसिज़्म’ और
‘दि एनवायरमेंटल
जस्टिस रीडर: पॉलिटिक्स, पोएटिक्स
एंड पेडागॉजी’ प्रमुख हैं.
फोटो आभार : कल्याण वर्मा |
भारतीय पर्यावरणवाद
भी संतोषजनक अवस्था में पहुँचा है. भारत में पर्यावरण को लेकर बड़े आंदोलन भी हो
चुके हैं. रामचन्द्र गुहा जैसे विचारक भारतीय पर्यावरणवाद को ‘गरीबों का
पर्यावरणवाद’ कहते हैं. कतिपय
भारतीय विचारकों का कहना है कि पश्चिम ने पूरब को लूट कर ही अपनी सारी समृद्धि
अर्जित की है, इसलिए पश्चिम का
पर्यावरणवाद अमीरों का पर्यावरणवाद है. यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि भारत के
पारिस्थितिक इतिहास में ब्रिटिश राज के दौरान ही सबसे अधिक वनों की कटाई हुई.
अलावा इसके, कई मौकों पर हम
कार्बन उत्सर्जन के मामले में अमेरिका और यूरोपीय देशों का रवैया देख चुके हैं.
अमेरिका के नए
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 2015 में हुई ‘पेरिस एग्रीमेंट ऑन क्लाइमेट चेंज’ से अमेरिका को बाहर कर लिया है. यानी सभी तरह के समझौतों को मानने से
इंकार कर दिया है. कारण यह है कि वह कार्बन उत्सर्जन में कटौती की शर्तों को मानने
के लिए तैयार नहीं हैं. जिस पर फ्रांस के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति मैक्रोन ने कहा
कि
अमेरिका की आबादी विश्व की छह प्रतिशत है, लेकिन वह विश्व के तीस से चालीस प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग अकेले करता है. इसे हम एक बड़े पर्यावरणिक अन्याय के रूप में देख सकते हैं. यूरोपीय देश भी उसी के पिछलग्गू हैं. फिर एशिया-अफ्रीका के लिए क्या बचता है ? वैश्विक हालात तो ऐसे हैं कि ग़रीब देशों को नर्क बना दिये जाने की पूरी तैयारी है. सोमालिया के समुद्र तट पर मिला ज़हरीला कबाड़ हो या विकासशील देशों में विकसित देशों द्वारा ई-कचरे की डम्पिंग, ये घटनाएँ पर्यावरणिक अन्याय का ही हिस्सा हैं.
‘जलवायु परिवर्तन पर कोई गलती नहीं हो तो बेहतर है, कोई दूसरा रास्ता नहीं है क्योंकि दूसरी पृथ्वी भी नहीं है.’
अमेरिका की आबादी विश्व की छह प्रतिशत है, लेकिन वह विश्व के तीस से चालीस प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग अकेले करता है. इसे हम एक बड़े पर्यावरणिक अन्याय के रूप में देख सकते हैं. यूरोपीय देश भी उसी के पिछलग्गू हैं. फिर एशिया-अफ्रीका के लिए क्या बचता है ? वैश्विक हालात तो ऐसे हैं कि ग़रीब देशों को नर्क बना दिये जाने की पूरी तैयारी है. सोमालिया के समुद्र तट पर मिला ज़हरीला कबाड़ हो या विकासशील देशों में विकसित देशों द्वारा ई-कचरे की डम्पिंग, ये घटनाएँ पर्यावरणिक अन्याय का ही हिस्सा हैं.
विकसित देश किसी तरह
भी कार्बन उत्सर्जन में कमी के लिए तैयार नहीं है. चीन और अमेरिका के बाद कार्बन
उत्सर्जन में भारत का तृतीय स्थान है. भारत पर भी कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए
वैश्विक दबाव है. इसीलिए कार्बन उत्सर्जन को लेकर जितने अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन
हुए उनमें कोई ख़ास नतीज़ा सामने नहीं आया. असल में कोई भी अपने हितों से समझौता
नहीं करना चाहता. पर्यावरण और पारिस्थितिकी-असंतुलन के ख़तरे पर सही और स्पष्ट बात
भी सामने नहीं आ पाती. यह पर्यावरणवाद की राजनीति और हिप्पोक्रेसी का
अंतर्राष्ट्रीय रूप है. भारत में भी पर्यावरण की राजनीति कुछ इसी तरह की है.
पर्यावरणीय आंदोलनों की आड़ में यहाँ ख़ूब राजनीति की गई है. इसीलिए साहित्य में
पर्यावरण चिंतन ढूँढने के लिए यहाँ जो शोध आदि हुए हैं वे वेदों पुराणों और
स्मृतियों तक पहुँच जाते हैं. जबकि उनमें
किसी तरह की पर्यावरण चेतना नहीं है. प्रकृति-प्रेम पर्यावरण-चिंतन नहीं
है. यदि ऐसा होता तो हिन्दी की सम्पूर्ण छायावादी कविता पर्यावरणवादी कविता बन
जाती. दरअसल वेदों-पुराणों में पर्यावरण-चिंतन ढूँढना दक्षिणपंथी राजनीति की एक
सोची समझी चाल है. बिना किसी वैज्ञानिक सैद्धांतिकी के पर्यावरणवाद केवल एक दिखावा
बनकर रह जाता है.
मुकुल शर्मा ने अपनी
पुस्तक ‘ग्रीन एंड सैफ़रान’ में भारतीय
पर्यावरणवाद की राजनीति पर पर्याप्त विचार किया है और इसे स्पष्ट भी किया है.
उन्होंने अपनी पुस्तक में बताया है कि हिंदुत्ववाद की राजनीति करने वाले विश्व
हिन्दू परिषद और आरएसएस जैसे संगठनों ने पर्यावरण आंदोलनों को अपनी राजनीति के लिए
इस्तेमाल किया है. उत्तराखंड के टिहरी डैम आंदोलन में विश्व हिन्दू परिषद शामिल
हुआ था. इसी तरह अन्ना हज़ारे द्वारा किए गए आंदोलन आरएसएस के समर्थन से किए गए
आंदोलन निकले. उत्तर प्रदेश में ‘वृन्दावन फॉरेस्ट रिवाइवल प्रोजेक्ट’ में भी हिंदुत्ववादी संगठनों के संलिप्त होने की बात सामने आई थी.
गंगा को लेकर स्वयं प्रधानमंत्री ने 2014 के आम चुनावों में राजनीतिक बातें कीं.
सत्ता में आने के बाद गंगा की सफाई की लिए बड़ा फंड और योजनाएँ आदि भी शुरू की गईं
लेकिन नतीज़ा सिफर रहा. ‘नमामि
गंगे परियोजना’ के लिए जो 2037 करोड़
रुए का बजट रखा गया था उसमें से अभी अठन्नी खर्च होने की भी जानकारी सामने नहीं आई
है. पर्यावरणवाद की इस राजनीति में दक्षिणपंथ एक बड़ा हिप्पोक्रेट है. एक तरफ तो वह
कार्पोरेट समर्थक पूँजीवाद को लेकर चलता है, दूसरी तरफ पर्यावरण को बचाने की बात करता है. विकास के नाम पर वोट
माँगना, गंगा को साफ़ करने की
बात करना और अतिउदारवादी रवैया अपना कर सौ प्रतिशत एफ़डीआई लागू करना पर्यावरण के
लिए अच्छे नहीं हो सकते.
वास्तव में विकास
पर्यावरण के लिए सबसे खतरनाक शब्द है. हाल ही में आर्ट ऑफ लिविंग वाले आध्यात्मिक
गुरु रविशंकर ने ‘विश्व संस्कृति
महोत्सव’ आयोजित किया था. इस
आयोजन की तैयारी में यमुना नदी के बहाव क्षेत्र का भारी नुकसान हुआ. यह बात स्वयं
नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल ने सिद्ध की. उन पर जुर्माना आदि लगाने की बात भी कही-सुनी
गयी. इसी तरह गुजरात में सरदार सरोवर डैम के नजदीक बन रही ‘स्टेच्यु ऑफ यूनिटी’ को लेकर भी
पर्यावरणवादियों का रुख़ साफ़ नहीं हो सका. पर्यावरणवाद के दिखावटी दाँत और हैं, असली और.
हिन्दी में
पर्यावरणवादी लेखन कम है. या फिर ये कहा जाय कि हिन्दी पट्टी ग़रीब और शोषित थी
इसलिए इसके साहित्य में गरीबों के शोषण और उसकी मुक्ति के मार्ग पहले तलाश किए गए.
हिन्दी का तमाम साहित्य मार्क्सवादी, प्रगतिशील-जनवादी माना जाता रहा है. विमर्शों के आने के बाद हिन्दी
साहित्य की यह एकरूपता समाप्त हुई और दलित-आदिवासी-पिछड़े-स्त्री स्वर भी साहित्य
में सुनाई दिए. यद्यपि विमर्शों को खड़ा करने के कारण राजेन्द्र यादव और हंस को
रामविलासीय आलोचक अब भी गरियाते पाए जाते हैं.
पर्यावरणवादी लेखन
हिन्दी में बहुत सीमित रहा. भारत में भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बाद इस ओर
रचनाकारों का ध्यान अधिक गया किन्तु एक दायरे में सिमटा हुआ. विमर्शों के आने से
पूर्व हिन्दी का तमाम साहित्य एक सीमित वर्ग द्वारा लिखा गया. उस लेखन में सीमित
वर्ग की वर्चस्ववादी राजनीति शामिल थी. हाशिये के रचनाकारों के पास भी अपने दु:ख, पीड़ाएँ, सामाजिक न्याय और
आत्मसम्मान की लड़ाई जैसे विषय थे. उनसे भी पर्यावरणवादी विषय अछूते रहे. दरअसल
रोटी और सम्मानजनक जीवन किसी भी व्यक्ति की प्रथम चिंता है. भारत में पर्यावरणवाद
दो तरह का है- एक तो इलीट वर्ग का एनजीओ आधारित साहित्येतर हिप्पोक्रेट
पर्यावरणवाद, दूसरा आदिवासियों का
आंदोलनकारी पर्यावरणवाद. आदिवासी साहित्य में उनके आंदोलनकारी पर्यावरणवाद की गूँज
है. इधर मुख्यधारा वाले हिन्दी के कुछ खाते-पीते कवि भी सामने आए हैं, जो सीसायुक्त
पेट्रोल जलाने वाली कारों में चलते हैं और पर्यावरण को लेकर चिंतित भी हैं.
विडंबना यह भी है कि उन्हें पता तक नहीं है कि उनके कार के धुएँ से कितनी गौरैया
मर गईं या किस तरह की तितलियाँ गायब हो गईं हैं, लेकिन वे इन पर कविताएँ चांपे रहते हैं.
भारत में सामाजिक
न्याय को लेकर यहाँ के प्रभु वर्ग में अच्छी धारणा नहीं रही है. तब वह पर्यावरणिक
न्याय को हज़म कर पाएगा इसमें संदेह है. भारत का पूँजीवाद जाति-आधारित पूँजीवाद है, जो ब्राह्मणवादी
व्यवस्था को समर्थन देता है. यद्यपि भारत की आदिम और लोक-संस्कृति पर्यावरण-प्रेमी
रही है. इसे हरित संस्कृति कहा जा सकता है. भारत के विविध लोक साहित्य में आस-पास
के परिवेश के प्रति अद्भुत सजगता है. हितोपदेश की कहानियों से लेकर जातक कथाओं तक
इसे देखा जा सकता है. भारत की लोक-कथाओं में पशु-पक्षियों, वनस्पतियों को
मनुष्य-जीवन के समतुल्य रखा गया है. जातक कथाओं में बोधिसत्व स्वयं कभी कठफोड़वा
बनते हैं, तो कहीं वानर. यह
मानवेतरवाद के सुंदर उदाहरण हैं. अगर हम भारत में पर्यावरणिक न्याय की बात करें तो
इसकी परिधि में स्लम रहने वाले लोग भी आयेंगे जो सभ्य और समृद्ध समाज द्वारा बनाए
गए कचरे से जीवन यापन करते हैं तथा वे आदिवासी भी आयेंगे जो पूँजीवादी समाज की लूट
से प्रभावित-विस्थापित होते हैं. पर्यावरण अवनयन न केवल हमारी जैविकी को प्रभावित
करता है बल्कि वह हमारी मानसिकता को आतंकित भी करता है. सौंदर्यबोध के निर्माण में
प्राकृतिक परिवेश का भी योगदान रहता है. रचनाकार बदलते हुए पर्यावरण से प्रभावित
होता है. अवनयित पर्यावरण हमें आतंकित करता है, भले ही हम इसको नज़रअंदाज़ करते हैं.
अनुपम मिश्र का
पर्यावरणवादी लेखन उल्लेखनीय है. उन्होंने भारत के लोक-जीवन की पर्यावरणप्रेमी या
इको-फ्रेंडली संस्कृति को पहचानने में कामयाबी हासिल की. ग्राम्यवाद अनुपम मिश्र
के विचार-चिंतन का आधार है, क्योंकि वे गाँधीवादी हैं. गाँधी कहते थे कि भारत गाँवों में बसता है.
ग्राम्यवाद पर्यावरणोन्मुखी अवधारणा है. उनकी पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ वस्तुतः ग्राम्यवाद
का ही एक हिस्सा है. तालाब आज भी गाँव के प्राण हैं. जल संरक्षण पर अनुपम मिश्र का
लिखा-पढ़ा गया सराहनीय है. गाँधीवाद हमें कुछ-कुछ पर्यावरणप्रेमी भी बना देता है यह
उसकी विशेषता है. ‘हिन्द
स्वराज’ इन बातों को लेकर
गाँधी जी की महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध पुस्तक है. गाँधी जी की यह उक्ति विदेशों में
भी लोकप्रिय है कि,
‘पृथ्वी प्रत्येक व्यक्ति की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है, लेकिन किसी एक भी व्यक्ति के लालच के लिए नहीं.’
फोटो आभार : कल्याण वर्मा |
वर्तमान हिन्दी
साहित्य में पर्यावरणवाद की आहटें हैं किन्तु प्रभु वर्ग या ज्ञान-सत्ताधारी वर्ग
की ओर से यह कम है. वास्तव में वह प्रकृति-प्रेम को ही पर्यावरणवाद समझ बैठता है, जबकि यह विलासी
अभिजात्य का सा प्रभाव पैदा करता है. हाशिये के समुदाय, विशेषतः आदिवासी
साहित्य में पर्यावरण के ख़तरे को लेकर गंभीर स्वर सुना जा सकता है. पर्यावरणवाद की
सारी सैद्धांतिकी आदिवासी साहित्य पर प्रयोग की जा सकती है. जल-जंगल-ज़मीन की लड़ाई
प्रकारांतर से पर्यावरण की भी लड़ाई है. आदिवासी गद्य-पद्य साहित्य में पर्यावरण को
लेकर विशेष चिंता सायास या अनायास ही आ जाती है. हमारे चिंतन में हमारी संस्कृति
का विशेष स्थान होता है. भारत के मध्य वर्ग की संस्कृति भी प्रदूषित हो चुकी है.
वह भी अब संस्कृति के प्रश्न पर हाशिए के समुदायों का मुँह ताकता है. आदिवासी
संस्कृति में पर्यावरण और प्राकृतिक परिवेश के प्रति विशेष सजगता है, इसलिए उसमें यह सब
स्वतः आ जाता है. एक स्लम में रहने वाले कवि, एक पॉश एरिया में रहने वाले कवि, एक जंगल में रहने वाले कवि, एक गाँव में रहने वाले कवि और एक महानगर में रहने वाले कवि की कविताओं
में हमेशा भिन्नता पायी जाएगी क्योंकि उनका प्राकृतिक परिवेश या भौतिक वातावरण
उनके सौंदर्यबोध को प्रभावित करेगा.
दुनिया में ही नहीं
भारत में भी कई प्राकृतिक प्राणियों की प्रजातियाँ जिसमें आदिम मनुष्य की
प्रजातियाँ भी शामिल हैं, बुरी तरह से संकटग्रस्त हैं. जैव-विविधताएँ, मानव- विविधताएँ, प्रजातीय-विविधताएँ, सांस्कृतिक-विविधताएँ
सभी संकट में हैं. साहित्य और पर्यावरण के संबंधों को भी और भी दृढ़ करके इन्हें
बचाने के प्रयास किए जा सकते हैं. एक हरित सौंदर्यबोध निर्मित किया जा सकता है.
अभी भारत में बहुत कुछ बचा हुआ है जो और बहुत कुछ बचा लेने का माध्यम बन सकता है.
बहुत कुछ बचाने के लिए मूल तक जाना होगा. मसलन यदि ध्रुवीय भालू को बचाना है तो पहले ग्लेशियर बचाने होंगे. जब ग्लेशियर बचेंगे तो बर्फ़ बचेगी, बर्फ़ बचेगी तो सील बचेगी, सील बचेगी तभी सुंदर हिम-भालू बचेगा. सीधे हिम भालू को बचाने की बात करने वाले लोग या तो मूढ़ हैं, या छलिया.
बहुत कुछ बचाने के लिए मूल तक जाना होगा. मसलन यदि ध्रुवीय भालू को बचाना है तो पहले ग्लेशियर बचाने होंगे. जब ग्लेशियर बचेंगे तो बर्फ़ बचेगी, बर्फ़ बचेगी तो सील बचेगी, सील बचेगी तभी सुंदर हिम-भालू बचेगा. सीधे हिम भालू को बचाने की बात करने वाले लोग या तो मूढ़ हैं, या छलिया.
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संतोष अर्श
(1987, बाराबंकी, उत्तर- प्रदेश)
ग़ज़लों के तीन संग्रह ‘फ़ासले से आगे’, ‘क्या पता’ और ‘अभी है आग सीने में’ प्रकाशित.
अवध के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक लेखन में भी रुचि
‘लोकसंघर्ष’ त्रैमासिक में लगातार राजनीतिक, सामाजिक न्याय के मसलों पर लेखन.
2013 के लखनऊ लिट्रेचर कार्निवाल में बतौर युवा लेखक आमंत्रित.
फ़िलवक़्त गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी भाषा एवं साहित्य केंद्र में शोधार्थी
poetarshbbk@gmail.com
एक बेहद जरुरी आलेख लेकिन इससे विनम्र असहमति कि वेदों में पर्यावरणीय चिंतन नही है।इस लेख में आये सारे उद्धरण पाश्चात्य विद्वानों के हैं ,केवल एक भारतीय स्व अनुपम मिश्र।अतः यह एकांगी दृष्टि है।अगर विद्वान साथी भारतीय चिन्तन परंपरा से कुछ उद्धरण देकर इसे साबित करते या करने की कोशिश करते क्तोई हमारी चिंतन परंपरा में इस तरह का चिंतन नही है तो यह आलेख और अधिक प्रभावी हो सकता था।फिर भी एक दृष्टि विशेष के आलोक को पूरी मेहनत के साथ रखने के लिये बधाई और व्यापक समाज तक उनकी बात पहुंचे इसलिए शेयर कर रहा हूँ ।अरुणजी के लिए क्या कहूँ वे तो रोज कुछ न कुछ ऐसा प्रस्तुत करते हैं कि दिल खुश हो जाता है और दुआएं तो उनके लिए दौड़ पड़ती है।
जवाब देंहटाएंपर्यावरण के बारे में जरूरी लेख । अर्श बहुत श्रम से तैयार किया है । सहित्य के अलावा ऐसे।लेखों की जरूरत है । अर्श और आप को साधुबाद ।
जवाब देंहटाएंजरूरी लेख प्रकाशित कर अरुण जी ने जरूरी काम किया है ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया लेख ..लेख के सृजन में अनेक विद्वानों के विचारो का समावेश लेख की उत्क्रष्ट्ता को दर्शाता है ..
जवाब देंहटाएंबहुत बधाई संतोष आपको। रामचन्द्र गुहा की एक जरूरी किताब है how much should a person Consume भारतीय परंपरा के बरअक्स पाश्चात्य चिंतन की पड़ताल करती है और पश्चिम के परिस्थिक विमर्श को औपनिवेशिक आलोक में देखती है।लेखक की आलोचकीय दृष्टि उत्तर आधुनिकता के बटखरों तक जाती है, इसी संदर्भ में रामचन्द्र गुहा का ज़िक्र मैंने किया है। 1990 के बाद उदारीकरण और भूमण्डलीकरण ने गांधी और बाद में सोशलिस्ट अप्रोच को दर किनार किया और उन्हें अतीतजीवी घोषित कर दिया।
जवाब देंहटाएंसंतोष , हमें इसी तरह समृद्ध करेंगे।
हिंदी पाठक को ऐसी चीजें कम मिलती हैं पढने को . आभार .
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