कृति : Louise Bourgeois |
कथाकार मनीषा
कुलश्रेष्ठ के छह कहानी संग्रह और चार उपन्यास प्रकाशित हैं. लोकप्रिय कहानियों का
विदेशी एवं भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है. बिरजू महाराज पर एक पुस्तक शीघ्र प्रकाशित
होने वाली है. उन्हें कई प्रतिष्ठित पुरस्कार, सम्मान और फैलोशिप
मिले हैं.
'पॉलीगेमी’ को अक्सर हम
पुरुषों के नजरिये से देखते हैं और तरह-तरह से उसे जस्टिफाई भी करते हैं. स्त्रियों
के बहुगामी होने के अवसरों पर तमाम नियंत्रण
सभ्यताओं ने इजाद किये पर यह एक सच्चाई है कि जहाँ-जहाँ मनुष्यों की बस्तियां हैं
यह किसी न किसी रूप में मौज़ूद है.
इस कहानी के एक
कांफ्रेंस में यह बहस तमाम बुद्धिजीवियों के मध्य है पर ऐन इस बहस के बीच भी कुछ
हो रहा है – क्या उसे आप सिर्फ पॉलीगेमी कहेंगे ?
बौद्धिकता और भावना के बीच आकार लेती मनीषा की यह कहानी ख़ास समालोचन के लिए
सुनहरा फ्रेम
मनीषा कुलश्रेष्ठ
''कलात्मकता में देखा जाए तो पॉलीगेमी हमारे समाज के मूल में है. चाहे वो हमारी प्राचीन गुफाओं के भित्ति चित्र हों या खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों की मूर्तियां. रोमन और ग्रीक मूर्तिकला में भी वीनस और उसके प्रेमी मौजूद हैं.''
जिनमें देवी - देवता प्रेम में पलायन करके ओलंपस पर्वत पर भाग जाते हैं. वीनस (एफ्रोडाइट) हालांकि वल्कन से विवाहित थी मगर उसके दैहिक सम्बन्ध मार्स, मर्करी, नेप्च्यून, पिगमेलियन, एडानिस, नैरिटस और अन्यों से रहे और उसने उनकी सन्तानों को जन्म भी दिया. तुम प्रेम और सुन्दरता की देवी से और क्या उम्मीद कर सकते हो?
कुछ अलौकिक पलों को दुबारा निराकार
तौर पर जीने की आत्मछलना का ही दूसरा नाम है 'स्मृति'. एक स्मृति जिसमें वह खुद थी और वह था, अब वह उस
पर फ्रेम लगाने की कोशिश में है. एक सुनहरा फ्रेम. समय को पलटा लाना चाहती है, बिना मूवी
कैमरे की गुस्ताख आँख के. फरवरी के शुरु की हवा अब तक उसकी यादों में बह रही है, जब
मैदानों की घास धूप में नहा रही थी. वृक्षों की परछाइयां उनके करीब सरक रही थीं.
वे मानो अपने ही सपनों में मंडरा रहे थे.
वह आज भी हैरान है कि आखिर वो दोनों
शुरु कहां से हुए थे कि उन्होंने एक ही दिन में स्मृतियों की इतनी लम्बी रेल बना
ली, जो
आधी रात को बिना सिग्नल उसकी नींद से धडधडा कर गुजरती है और वह चौंक कर जाग उठती
है. वह कोई दूरी,
दर्द या उपेक्षा नहीं महसूस करती. बस स्मृतियों वह फ्रेम
लगाने की कोशिश में है. प्रकाश, लैन्स और कैमरे के एक बटन की हरकत से चुरा
लिए गए पलों की तरह, यादों की एलबम वह पीले पड चुके स्मृतिचित्र.
वह उस आदमी बारे में जानती ही क्या
थी? अधिक
नहीं बस यही कि जो कुछ उनके बीच घट रहा था वह असामान्य - सा था.
संस्कृति विभाग की इस राष्ट्रीय स्तर
की कॉन्फ्रेन्स में इतिहासकार, समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक, प्रकृतिविज्ञानी, कलाविज्ञ, शिक्षाविद
सभी तो शामिल थे. वह भी थी, एक प्रसिध्द इतिहासकार की शोध सहायक के तौर
पर. वह भी था, एक
टी वी चैनल के प्रमुख संवाददाता की हैसियत से. सेमिनार के दौरान किसी के आख्यान
में से उड क़र आया शब्द 'पॉलीगेमी' आवाज़ों के हूजूम में जल - बुझ रहा था. यह शब्द गेंद की
तरह उछाला जा रहा था. आधे अजनबी और आधे परिचितों के बीच रात के खाने से पहले यही 'शब्द' तो
अनौपचारिक बहस का बाइस बना था.
''आदमी तो नस्ल से ही बहुगामी है.'' कलाविज्ञ
ने गर्व से कहा था. वो दोनों चुप थे.
''कलात्मकता में देखा जाए तो पॉलीगेमी हमारे समाज के मूल में है. चाहे वो हमारी प्राचीन गुफाओं के भित्ति चित्र हों या खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों की मूर्तियां. रोमन और ग्रीक मूर्तिकला में भी वीनस और उसके प्रेमी मौजूद हैं.''
“हालांकि आधुनिक समाज हमें नैतिक तौर पर
स्वीकार्य एक साथी के साथ विवाह के सम्बन्ध की ही अनुमति देता है, मगर यह
स्वरूप संसार की समस्त संस्कृतियों में स्वीकार्य नहीं और यह जरूरी भी नहीं कि यह
विश्व की हरेक संस्कृति के लिए आदर्श ही हो.'' समाजशास्त्री का मत था.
''सच पूछो तो, विश्व भर के आंकडों के अनुसार 37 से 70 प्रतिशत पुरुष और 29 - 30 प्रतिशत
महिलाएं विवाहेतर सम्बन्ध रखते हैं. इससे
ऐसा लगता है कि विवाह की संस्था को अपना ठोस समर्थन देने वाले भी विवाह की
एकनिष्ठता को कायम नहीं रख पाते हैं.'' मनोवैज्ञानिक ने आँकड़ों के साथ अपना समर्थन
दिया. अभी स्त्रियां दूर से ही इस विषय पर अपने कान लगाए हुए थीं. पुरुषों की इस
बेपर की उडान पर वे खास ध्यान नहीं दे रही थीं. उन्हें पता था कि यह विषय उन्हें
उकसाने के लिए शुरु किया गया है.
''हजारों वर्षों से आदिवासी समाजों से लेकर
कुलीन समाजों तक में बहुपति या बहुपत्नी प्रथा का चलन रहा है. प्राचीन चीन के
ग्रन्थ पढ लो या प्राचीन ग्रीक ग्रन्थ या प्राचीन भारतीय ग्रन्थ उनमें बहुपति या
बहुपत्नी प्रथा का विवरण है. ग्रीक मायथोलॉजी में ऐसी कहानियां भरी पडी हैं,
जिनमें देवी - देवता प्रेम में पलायन करके ओलंपस पर्वत पर भाग जाते हैं. वीनस (एफ्रोडाइट) हालांकि वल्कन से विवाहित थी मगर उसके दैहिक सम्बन्ध मार्स, मर्करी, नेप्च्यून, पिगमेलियन, एडानिस, नैरिटस और अन्यों से रहे और उसने उनकी सन्तानों को जन्म भी दिया. तुम प्रेम और सुन्दरता की देवी से और क्या उम्मीद कर सकते हो?
हमारे यहां की देवदासियों की ही तरह
वहां की युवा महिलाएं सायप्रस के पेफोज में स्थित वेनुजियन मंदिरों में प्रेमकला
की शिक्षा लिया करती थीं ताकि वे अपने पति और अन्य पुरुषों को प्रसन्न कर सकें. ये
युवतियां औपचारिक विवाह से पूर्व कुमारियां कहलाती थीं. ठीक हमारे पुराणों की
पंचकन्याओं - अहिल्या, कुन्ती, द्रोपदी, मन्दोदरी और तारा की तरह. और विवाह पूर्व
सम्बन्धों के परिणाम स्वरूप संतानों को 'गोल्डन चिल्ड्रन' कहा जाता
था. वे मंदिरों में पुजारियों की पत्नियों द्वारा पाले जाते थे.
पुराने चीन के 'टाओइस्ट तन्त्र' में एक पुरुष और अनेक स्त्रियों के सम्बन्ध को मान्य माना है. क्योंकि 'येंग' फोर्स को साधने के बहुत सी स्त्रियों की क्रिएटिव फोर्स 'यिन' की जरूरत होती है.''
पुराने चीन के 'टाओइस्ट तन्त्र' में एक पुरुष और अनेक स्त्रियों के सम्बन्ध को मान्य माना है. क्योंकि 'येंग' फोर्स को साधने के बहुत सी स्त्रियों की क्रिएटिव फोर्स 'यिन' की जरूरत होती है.''
उसके बॉस, इतिहासकार
महोदय ने 'बहुगमन' का
सम्पूर्ण इतिहास पेश कर दिया. वह उन्हें हैरानी से देख रही थी. उसके जहन में उनकी
खुश्क, गंभीर
इमेज ही रही है हमेशा से.
''यह तो मेल शॉविनिस्ट थॉट आप लोगों का. इसका
काउंटर पार्ट हम बताएं मि. देव - हमारा
ओल्ड मायथोलॉजी में मिलता है. बाय द वे हमने भी स्टडी किया है थोरा - थोराओल्ड
मायथोलॉजी को. हमारे तांत्रिक योगा में 'डाकिनीज' एक साट कई मेलपार्टनर के साथ समन्ड बनाता
है. डाकिनी इज सेमीडिवाइन लेडी हू केन बिस्टो मिसफॉरच्यून एण्ड ब्लैसिंग. शी इज द
अनली सेक्सुआल पार्टनर ऑफ योगीज. (ड़ाकिनी एक देवीय गुणों युक्त महिला होती है जो 'दुर्भाग्य
तथा सौभाग्य दोनों प्रदान कर सकती है. यह योगियों की एकमात्र साथिन होती
है.)"
एंग्लोइण्डियन शिक्षाविद श्रीमति
ग्रेस वर्गीस जो इतिहासकार महोदय के पास बैठी थीं. चुप न रह सकीं. मगर वे दोनों
चुप थे.
''जहां तक मैं सोचती हूँ, पॉलीगेमी, जहां
पुरुष बहुत सी औरतों से सम्बन्ध रखता है, ज्यादा आम रहा है, पुराने
समय से आज तक. दुनिया की तमाम संस्कृतियों में. क्योंकि दो औरतें फिर भी एक हद तक
एक दूसरे को सहन कर लेती हैं. मगर पुरुषों के मामले में यह मसला बहुत नाजुक़ हो
जाता है, उसके
एकछत्र अधिकार की बात को लेकर, इसलिए एक स्त्री के बहुगामी होने को सदा
नकारा जाता रहा है. यह औरतों की मानसिकता को दमित करने का एक तरीका भी रहा है.''
एक काउंसलर ने बहुत देर तक सोचने के
बाद कहा.
''नहीं, नहीं, पोलीगेमी का अर्थ आप लोग सरासर गलत लगा रहे
हैं. पॉलीगेमी महज कई औरतों या आदमियों से शारीरिक सम्बन्ध पर आकर खत्म हो जाने
वाला विषय नहीं है. स्त्री - पुरुष का एक युगल, एक पारंपरिक विवाह संस्था में, सन्तानोत्पत्ति
के लिए आदर्श आधार हो सकते हैं. मगर यह ही
केवल एक पारिवारिक ईकाई नहीं है. विश्व भर के बहुत से आदिवासी समाजों में
-जिनमें भारत में फैले कई आदिवासियों के अलावा नेटिव अमरीकन, अफ्रीकन
और पेसिफिक आईलैण्ड के आदिवासी समाज भी शामिल है - वे अपने साथी आपस में बांटते
हैं, और
सब मिलकर उस अपनी संतति बढाने के लिए विस्तृत ईकाई के सभी बच्चों को बडा करने में
सहयोग करते हैं."
समाजशास्त्री ने बहुगमन की सामाजिक
व्याख्या कर डाली.
प्रकृति विज्ञानी - ''हां - हां, हाथियों
में भी तो यही तो होता है.''
''हां, ठीक ही तो है. वीनस एक यौन उनमुक्त स्त्री
के साथ साथ पोषण करती हुई मां की छवि की भी परिचायक है. वह सर्वश्रेष्ठ संतान को
जन्म देने के लिए हर बार अनूठा प्रेमी चुनती है. एक वीनस हर औरत के भीतर है.
इसीलिए हर औरत पति के अलावा भी अनूठे गुणों वाले पुरुष की तरफ बार बार आकर्षित
होती है.''
एक उपन्यासकार बोली. अब महिलाएं बहस
में शामिल हो चुकी थीं. वो दोनों चुप रहे, पर वह, उसके दांए कान की लौ के पास की नस के तनाव
को ध्यान से देख रहा था. उसे लगा कि उसने हल्के से सर हिलाया था, जाने
सहमति वह या असहमत होकर.
''हां , हां
क्यों नहीं. क्या औरत वैरायटी नहीं चाहती है?''
एक बिन्दास अजनबी औरत बोली थी.
''बेशक चाहती औरत भी है, लेकिन वही
तो एक है जिस पर नैतिक मान्यताओं को बेमानी न होने देने का जिम्मा अपरोक्ष रूप से
पडा रहता है. समाज को उसके वर्तमान और आधुनिक रूप में चलाने की जिम्मेदारी उसी की
है.''
उस कान्फ्रेन्स में आई एक और
समाजशास्त्री ने बात को तराशा.
''हाँ, ऐसा न हो तो सामाजिक आचार संहिताओं के मायने
ही क्या?'' उसके
पति ने उसे गर्व से देखते हुए समर्थन दिया.
“किन सामाजिक आचार संहिताओं की बात कर रहे
हैं आप? आचार
संहिताएं क्या औरतों के लिए ही हैं? मर्दों के लिए नहीं.''
अविवाहित उपन्यासकार ने कडा विरोध दर्ज
किया. बहस के दौरान गर्मी बढने लगी थी. महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग होकर
तरह - तरह से पैंतरे बदल रही थीं. कुछ पुरुष उनके भीतर छिपे अंगारों को हवा दे रहे
थे. कुछ मजा ले रहे थे. वे दोनों अब भी चुप थे.
उसने अपना पेय होंठों के पास लाकर
धीरे - धीरे पीना शुरु कर दिया था, और टैरेस से दिखते रोशनियों के हूजूम वह खुद
को गुम कर लिया. बहस का शोर उस तक पहुंचना बन्द हो गया था. वह अपनी दृष्टि से उसे
छू रहा था, या
यूं कहें उस शाम उसने उस पर से नजर हटाई ही नहीं तो! उसे लगा वह नहीं, उसके भीतर
जमा कोई तरल सिहर गया. उसकी शहद के रंग की आखों के बीच से रोशनी परावर्तित होकर
चिंगारियों में बदल गयी थी. उसके शरीर के बांए हिस्से में हरारत बढ ग़ई थी. और उसका
शरीर ऐसी भाषा बोल रहा था जिसका ककहरा तक वह चाह कर भी सीख ही नहीं पाई थी. वे चुप
थे, लेकिन
एक नजरों और दैहिक भाषा के मूक खेल को वह उपेक्षित करने में असमर्थ थी. हालांकि
उसका दिमाग इस खेल को वहीं खत्म करने की चेतावनी
बार - बार दे रहा था, लेकिन न जाने कैसा प्रलोभन था कि हाथ आई
बाज़ी वह खाली नहीं जाने देना चाहती थी.
लोग अब भी बेमतलब के बहस - मुबाहिसे
वह तल्लीन थे. टैरेस की हर दूसरी चीज, प्रकाश, फिसलती नजरें, ठहाके सब उसके लिए निराकार झुटपुटे वह बदल
गया था जिसके बीच उसका चेहरा अलग से दमक रहा था. वह ऐसी तन्द्रा वह थी कि उसे न
कुछ सुनाई दे रहा था, न दिखाई.
अचानक वेटरों की आवाजाही उन दोनों के
बीच से होकर कुछ ज्यादा ही बढ ग़ई थी. एक अमूर्त- सा संप्रेषण अवरुद्ध हो चला था.
डिनर लग चुका था. डिनर प्लेट के नीचे रखे नैपकिन के साथ उसने उसे कुछ पकडाया, पत्र था.
रहस्यमय भाषा वाला, कलात्मक.
कमरे में हल्का अंधेरा था, उसने घडी
क़ो गौर से देखा नियत वक्त से बहुत पहले उठ गई थी वह. उठ कर खिडक़ी के पार पसरे गाढे
अंधेरे को घूरने लगी. मन की सतह पर असमंजस गाढा - गाढा जमा था. अभी जाना ही कितना
है, अभी
देखा ही क्या है?
बस उतना ही तो जो सतह पर तैरता है या जो परछांइयों पर ठहरता
है. जो परछांइयों वह घुला होता है वह देखा? वह जो कल रात उन दोनों के देखने से चूक गया? वह दूसरा
जीवन जहां उन्हें लौट जाना है!
वह उस एक सादादिल, भावुक औरत
की तरह से सोच रही थी, सपनों में जिसकी ट्रेन अकसर छूटती रही है. जो नींदों वह मोजैक़
की बनी नीली मीनारों से कूदती है और जमीन तक पहुंचने से पहले उडने लग जाती है. पर
यूं किसी औरत का सादादिल होना ही उसे जटिल नहीं बनाता? वह खुद को
पारदर्शी कहती है,
क्या पारदर्शिता सबसे जटिल नहीं होती समझने को?
खरामा - खरामा, खिलती
सुबह की आहट किसी नाजुक़ मिजाज औरत के गाउन की सरसराहट में बदल रही थी, जिसे वह
सुन पा रही थी. डूब कर ब्रह्माण्ड वह गुम होते सितारों की सुगबुगाहट भी वह सुन पा
रही थी. धीरे - धीरे, एक - एक कर सारे तारे डूब जाएंगे और चन्द्रमा फिर भी अकेला, अनमना सा
टिका रहेगा आकाश के फलक पर. सुदूर आकाश की नीली गुफाओं के सपनीले छत्तों से सुनहरे
पंखों वाली रौशन तितलियां निकलती चली आ रही थीं.उस ने पैर रजाई से बाहर निकाल कर
ठण्डी चप्पलों में डाल लिए.
सुबह की सैर के बहाने वह उसे
संग्रहालय के पीछे बने एक विशाल पार्क में मिली. सलीके से कटी भीगी घास पर वे
टहलते रहे. उसका फोटोग्राफर मित्र भी वहां था, जिसका नाम वह परिचय के तुरन्त बाद भूल गई और
उसे उसके नाम से पुकारने से बचने के लिए बिना संबोधन ही औपचारिक और मूर्खतापूर्ण सवाल पूछ बैठी. मसलन आप करते क्या
हैं? उसने
जल्दी ही उन दोनों से इजाजत ले ली, किसी से मिलने का बहाना बना कर और यह चेता
कर कि आज का दिन मौसम का सबसे ठण्डा साबित हो सकता है. लेकिन वे दोनों पुलोवर उतारने
की जरूरत को शिद्दत से महसूस कर रहे थे. पार्क से ज़रा हट कर वे एक पगडण्डी पर चल
पडे. बिना कुछ बोले. बीच - बीच वह जब उसकी नजरें उससे टकरातीं वह मुस्कुरा देता, अर्थों की
भुलभुलैया वह फंसी मुस्कान, वह तुरन्त नजर फेर लेती थी क्योंकि कल रात
टैरेस पर नजरों के चौखटों पर एक महीन तिलिस्म जो उन्होंने बुन डाला था, उसे पूरा
होते देखने की ताब उसमें नहीं थी.
वे दो बडे - बडे पत्तों वाले
पेड़ों के नीचे बिछी बैंच पर जा बैठे थे.
उन पेड़ों पर पतझर आया था, वे अपनी
ही देह से पत्ते नोच कर फेंकने की तमाम कोशिशें रहे थे, मगर पत्ते
थे कि छंटने का नाम नहीं ले रहे थे. जमीन भूरे - लाल बडे पत्तों से अंटी थी. वह
नहा रही थी, उसकी
मुस्कान से. उसके वज़ूद की गुनगुनी तपिश में. झील की ठण्डी सांवली सतह पर सफेद
इकलौता कमल खिला था, जिसे हवा धीरे - धीरे डुला रही थी. झील के उस पार बने बोट
क्लब के पास रंगीन नावें बिना हिले - डुले बंधी थीं. बिना झिझके उसने उसे बांह से
करीब खींचा, उसने
उसकी दाईं जांघ खींच कर अपनी जांघों पर रख एक क्रॉस बना लिया, हम वे
आमने - सामने थे,
उसने पूरी सहजता से पलों को और उसे थाम कर एक दीर्घकालीन
चुम्बन लिया. उसकी बगलों वह कोई जंगली कमल खिल रहा था, कसैली मगर
मदहोश करने वाली गंध. प्रकाश और छाया के कतरे उन पर डोलते रहे. वह आंखें मूंदे, कल्पनाओं
में इस पेड से उस पेड तक बंधी डोरी पर क्रिस्टल के सैंकड़ों गुलाबी दिलों से बने विण्डचाईम्स की रुन - झुन
को सुनती रही.
शब्द विस्मृत हो जाते हैं. क्या उसने
उससे कहा था और क्या उसने उससे सब बेमानी है, सुगंध और स्पर्श त्वचा में अब भी बने हुए
हैं, यह
उन्हें विस्मृत नहीं करेगी क्योंकि यह उनकी भूखी है. इन्हीं स्पर्शों की चाह में
वे सुबह की भीषण सर्दी में, गुनगुने बिस्तरों से बाहर निकल आए थे.
पानी की सांवली सतह शांत थी. झील का
पानी आईना बना हुआ था, वे दूर तक फैले झील के गोल किनारों पर डोलते हुए एक दूरस्थ
चट्टान तक पहुंचने वह कोलम्बस बने हुए पथरीले - फिसलन भरे रास्ते खोज रहे थे.
चट्टान तक पहुंचने के लिए वह उसकी नीली चप्पलें हाथ में लिए उसके पीछे, मन ही मन
मुस्कुराता चला आ रहा था. यह वे ही जानते थे कि उस फिसलन भरी चट्टान, जिस पर दो
लोग एक दूसरे को बिना जकडे ख़डे नहीं रह सकते थे, कैसे खडे रहे. उनके वहां पहुंचने से
एन्टीगोनम की लतरों के पीछे छिपी सारी की सारी मुर्गाबियां शोर मचा कर उड ग़यीं
थीं.
वे फिर दो बरगदों के नीचे बिछी
पुरानी भूरी बैंच पर लौट आए. उनके पुलोवर कमर पर बंधे थे और भीगी जीन्स घुटनों तक
मुडी थीं. सडक़ पर यातायात शुरु हो चुका था, दफ्तर जाते लोग मुड - मुड क़र उन्हें देख रहे
थे. यह शहर पुरानी सोच का बडा शहर था, लेकिन वह शहर अजनबी था उनके लिए और वे शहर
के लिए. वे तब भी आलिंगन में थे जब उसने कहा कि उसकी रिपोर्टिंग पूरी हो चुकी
है.वह आज दोपहर ही लौट रहा है. उसे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे अलगाव की शिथिलता और
लिजलिजी भावुकता से बचना होगा? समय उन पर से बह चुका था और वे तल में बिछे थे
रेत की तरह.
_______
मनीषा
कुलश्रेष्ठ
manishakuls@gmail.com
यथार्थ को परिभाषित करती कहानी |
जवाब देंहटाएंअत्यंत संवेदनशील विषय पर एक संजीदा और सधी हुइ्र कहानी। कलात्मक बयानगी इस कहानी के कुल प्रभाव को और भी तरल बना देती है। बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत ही दुर्गम विषय है. इस पर लिखते हुए फिसलने या फिर चीप हो जाने का खतरा बना रहता है. मनीषा मास्टर हैं बहुत बारीकी से वे बची हैं. एक विचारोत्तेजक कहानी के लिए बधाई.
जवाब देंहटाएंकहानी कहाँ है! IT के ज़माने में नेट खंगाल कर कुछ आंकड़े, सूचना जुटाना और अमूर्त-अस्पष्ट-सी भाषा में बौद्धिक आतंक फैलाने का असफल प्रयत्न कहानी की श्रेणी में नहीं आ सकती। अरुण जी, आगे से कहानी के चयन में कहानी पर ध्यान दें, लेखक के नाम पर नहीं।
जवाब देंहटाएंkahani mai bhatkav bahut hai..mul vishya ko chodkar kahi aur hee nikal jaati hai..
जवाब देंहटाएंये वाकई समालोचना के काबिल है। पोलिगामी विषय होते हुए भी विषय नहीं है। गहरी सम्वेदनाएँ लिए कहानी इस तरह के विषय पर हो रही बहस को तुच्छ साबित करती है और ये सोचने का अवसर देती है कि आखिर कब तक आंकड़े या अन्य बौद्धिक बातों या तर्को से इस तरह के विषय पर वही पुरानी घिसायट चलती रहेगी?
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