परख : अपना ही देश (मदन कश्यप)








'बन्नी दाई बन्नी दाई 
मुझे बचाओ मुझे बचाओ 
मेरी आंखों पर बंधी पट्टी खोलो 
मेरे अंतस पर जड़ा ताला तोड़ो
मेरा पूरा वज़ूद दब रहा है बज्र किवाड़ से

मुझे बचाओ बन्नी दाई ?'



अपने ही देश में बेगाने                          
अर्पण कुमार 


दन का कवि सूक्ष्म मनोभावों को बड़े करीने से उकेरता रहा है. अपने आसपास को लेकर सजग कवि अपनी कविताओं में मुख्यतः अपनी दृष्टि और अपने अनुभव के दो सन्दर्भ बिंदुओं को लेकर चलता है. कविता उसकी इसी यात्रा का हासिल होती है. इससे उसकी रचनाओं का 'लोकेल' हमारे सामने आता है. 'लेकिन उदास है पृथ्वी' (1992) से लेकर प्रस्तुत संग्रह 'अपना ही देश' (2015) तक मदन के कवि की यात्रा ज़ारी है. यद्यपि इस बीच मदन के आलेखों के कई संग्रह भी हमारे समक्ष आए.

प्रस्तुत संग्रह 'अपना ही देश' में उनकी एक कविता है 'बहुरुपिया'. बहुरुपियों से भरे इस समाज में हमारा आए दिन ऐसे मुखौटाधारी लोगों से वास्ता पड़ता रहता है. कवि इनके मुखौटों को उतार फेंकने का काम करता है. कुछ समय पहले तक आदर्श रहे शख़्स का असली चेहरा हमारे सामने प्रकट हो जाता है. ऐसे में इन सबके बीच एक नटी 'बहुरुपिए' को लाकर कवि इस विषय की व्यंजना को बहुगुणित कर देता है. इस कविता के माध्यम से हमारे परिवेश और समय में होते तमाम परिवर्तनों के बीच कवि एक लाचार बहुरुपिए के दर्द को समझने की कोशिश करता हैं. एक व्यक्ति जो हनुमान का वेश धारण कर और अपने करतबों से लोगों को आकर्षित कर कुछ पैसे कमा लेना चाहता है. मगर उसका यह रूप बहुत प्रभावी नहीं बन पाता है और लोगों के लिए उसके इस रूप का अब कोई ख़ास कौतुक नहीं रह गया है. कवि उसकी इस बेबसी को

देखिए किस तरह पकड़ता है :-
'बनने की विवशता
और नहीं बन पाने की असहायता के बीच
फंसा हुआ एक उदास आदमी था वह
जो जीने का और कोई दूसरा तरीक़ा नहीं जानता था'
('बहुरुपिया', पृष्ठ 26)

चर्चित कवि मदन कश्यप का यह नवीनतम काव्य संग्रह 'अपना ही देश' कई मायनों में एक उल्लेखनीय संग्रह बन पड़ा है. निरंतर कविता-लेखन में सक्रिय मदन का यह पाँचवा काव्य-संग्रह कविता के प्रति हममें आश्वस्ति का भाव उत्पन्न करता है और कविता-विरोध के कथित किसी स्वर पर कुछ विराम भी लगाता है. हमारे समय की क्रूरता और उसके बहुरूपिएपन को बेबाकी से उजागर करता हुआ एक कवि, वर्तमान समय के अवसरवाद, उसकी असंवेदनशीलता और कट्टरता  के खिलाफ अपनी रचनाओं में स्वयं लामबंद होता अपनी रचनाओं से हमें सचेत करता दिखता है.

(मदन कश्यप)
'बिजूका', ‘दिल्ली में गैंडा’, ‘मेटाफर’, ‘हवाई थैला’, ‘पुरखों का दुःखजैसी कविताएँ इसका प्रमाण हैं. इस संग्रह में कई कविताएँ लड़कियों/स्त्रियों और उन पर होने वाले अत्याचारों पर है. निठारी हत्याकांड में बलात् मारी गईं और दुष्कर्मों की शिकार हुईं लड़कियों को केंद्र में लिख कर लिखी गई कविताएँ 'निठारी : एक अधूरी कविता', ‘निठारी की बच्ची’, ‘निठारी में ज़रथुष्ट्रसंग्रह की महत्वपूर्ण और आवश्यक कविताएँ है. अन्यथा दिल्ली के सब-अर्बन के रूप में जाने जाने वाले नोएडा और उसके ग्रामांचल को दिल्ली के घुटने के रुप में एक कवि ही चित्रित कर सकता है. अभिव्यक्ति की यह वक्रता मदन के लेखन में कई जगहों पर दिखती है. 'अपना ही देश' कविता, इस संग्रह की शीर्षक कविता है, जो एक तरह से कवि की पूरी काव्य यात्रा की प्रस्तावना प्रस्तुत कर देती है. यह कविता न सिर्फ़ इस संग्रह के बीज वक्तव्य की सी है, बल्कि इसके माध्यम से कवि ने ऐसे कई अनुत्तरित सवालों को उठाया है जो लंबे समय से अपना जवाब ढूँढ़ रहे हैं :-

'ये नदियाँ हमारी बहनें हैं
इन्हें इंगलिश बियर की तरह गटकना बंद कीजिए'
(पृष्ठ संख्या 98).

मदन की कविताओं में जीवट है, जो ज़िंदगी और साहित्य दोनों का ही जीव-द्रव्य है. सपनों के पाले जाने, कुछ बड़े सपनों को बनाए रखने की ज़िद के साथ वहाँ बेबसी आती है मगर उस बेबसी के साथ कवि का हौसला और उसकी उम्मीद भी संग होती है. दर्दनाक चित्रण में भी कवि कुछ बेहतर की संभावनाओं को तलाशता है. इसे और प्रभावी रूप में हम उनकी कविता 'करीम भाई' में देख सकते हैं. करीम भाई को संबोधित इस कविता का 'विट' बड़ा प्रभावी है. हवा में लाठी भांजते और पसीने से लथपथ होते करीम भाई से कवि कई सवाल करता है और साथ ही कुछ कुछ टिप्पणी करता चलता है. इस सवाल -जवाब में कुछ ऐसी बारीकियां हैं कि वहां संवाद में ही कवित्व संभव हो पाता है.  एक तरफ़ संवेदनशीलता की यह बारीक़ी देखें :-

हवा तो वैसे भी पिटती रहती है
बंदूक की गोली छाती भेदने से पहले
हवा को छेदती है
चांटा हवा को पीट कर ही
किसी के गाल पर बरसता है
फिर भला हवा को अलग से क्या पीटना
(पृष्ठ 23)

मगर कवि खुद ही इसका उत्तर देता है. वह लिखता है :-

मान गया करीम भाई
जब हर चीज़ के साथ हवा पिटती है
तो क्यों न कोई हवा को पीटे
कि उसके पिटने से एक दिन वह भी पिट जाएगा
जिसे हम पीटना चाहते हैं.
(पृष्ठ 24)

ज़ाहिर है यहाँ कवि और करीम भाई  दोनों एक हो गए हैं या कहिए स्वभावतः कवि दुनिया के सभी करीम भाइयों के साथ खड़ा है. एक मामूली आदमी के आक्रोश को इससे बेहतर ढंग से नहीं लिखा जा सकता है. जब अपने से बड़े किसी ताकतवर से लड़ना होता है तो उसके लिए हौसला एक दिन में नहीं आ जाता. यह एक सुदीर्घ प्रक्रिया होती है. कवि अपनी इस कविता में उस मनोविज्ञान को हवा पीटने जैसे बहुप्रचलित मुहावरे का उपयोग करते हुए उसमें कई रंग भर देता है. फिर हवा पीटना कोई निरर्थक कार्य नहीं रह जाता है. कह सकते हैं की निरर्थकता के भीतर सार्थकता ढूंढ़ लेना ही सच्चा कवि कर्म है और मदन इसमें दीक्षित नज़र आते हैं.

मदन यथार्थ के साथ आशा के और करुणा के साथ संबल के कवि हैं. मगर उनकी आशा कोरी नहीं है और उनका संबल निराधार नहीं है. 'नीम रोशनी में'( 2000) फैली 'दूर तक चुप्पी' (2014) उनके इस कवि-स्वभाव से हमारा परिचय करा देती है.  'कुरुज' (2006) में संकलित कविताओं की अंतर्धारा से हम सभी अवगत हैं, जहाँ शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की गई है. कह सकते हैं कि मदन का कवि देशजता की भंगिमाओं से लैस है और स्थानिकता के चटख रंगों के साथ राष्ट्र के एक बड़े, समरूप और प्रगतिशील फलक की उनकी रचनाओं में आकांक्षा व्यक्त की गई है. निःसंदेह कवि के लिए देश एक भौगोलिक इकाई मात्र तो है नहीं.

वह इसके साथ सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक इकाई भी है और इन इकाइयों के भी कई उपभेद हैं. देश जिसमें कोई कवि रहता है, वह उसे समग्रता में देखता हुआ, उसकी संपूर्णता को जीता हुआ उसकी विडंबनाओं की ओर भी इशारा करता है. कवि कर्म की चुनौती भी यही है. इससे उसके देशप्रेम में कोई कमी नहीं आती  है, जैसा कई बार उसके ऊपर आरोप लगा दिया जाता है. हाँ, वह अपने देश-परिवेश के प्रति सजग और 'क्रिटिकल' होता है और उसे सचमुच में लोकतांत्रिक और अत्याचार-मुक्त स्वरूप में देखने की अभिलाषा रखता है.

यहीं पर अल्बेयर कामू की यह पंक्ति याद हो आती है, "मैं अपने देश को इतना प्यार करता हूँ कि राष्ट्रवादी नहीं हो सकता." ज़ाहिर हैनिष्ठा बहुत हद तक एक व्यक्तिगत नज़रिया है. चीज़ों को अलग अलग तरीके से देखने के पीछे आपसी असहमति तो हो सकती है, मगर इसके आधार पर किसी को खांचाबद्ध करना उचित नहीं है. राजनीतिक एवं सामाजिक रूप से सजग मदन अपनी कविताओं में कई बड़ी ख़बरों को अपनी कविता का विषय बनाते हैं.

तब वे तथ्यों की पुनरावृति मात्र नहीं कर रहे होते बल्कि लोमहर्षक घटनाओं से आहत एक कवि अपने समय को अपने तईं पूरी संवेदना में दर्ज कर रहा होता है और कई बार उन पक्षों की ओर भी इंगित कर रहा होता है जो कविता में ही आत्मीय और भावपरक रूप में प्रकट हो सकते हैं. मतलब यह कि एक तरफ़ कवि घटनाओं से प्रभावित होता है तो दूसरी तरफ़ उसपर यह ज़िम्मेदारी भी आ जाती है कि घटनाएँ कविता में उस तरह सीधे-सीधे और कोरे अभिधात्मक रूप में दर्ज़ मात्र न हो जिस तरह वे ख़बरों में हो पाईं थी. यहीं पर साहित्य और पत्रकारिता के बीच की बारीक़ रेखा हमारे सामने आती है और तात्कालिकता से आगे जाने की साहित्य की चुनौती भी.

'पुरखों का दुःख' और 'अपना ही देश' कविताओं को अगर मिलाकर पढ़ा जाए तो कवि की करुणा और उसकी सम्यक दृष्टि का भान सहज ही हो पाता है.

एक पुरुष की स्वीकारोक्ति पर लिखी 'हलफ़नामा' शीर्षक कविता स्त्रियों की संवेदनशीलता को समर्पित एक समर्थ कविता है, जहाँ पुरुष खुले मन से अपनी असहनशीलता और अस्थिरता को स्वीकारता है. इस तरह की उद्दात स्वीकारोक्ति हलफ़नामाकविता को एक बड़ी कविता बनाती है. 'सड़क किनारे तीन बच्चे', 'छोटी लड़कि', 'बड़ी होती बेटीसरीखी कविताएँ रागात्मकता को उसके पूरे परिवेश और परंपरा के बीच प्रस्तुत करती हैं.

मदन कश्यप बड़ी रेंज के कवि हैं और ऐसा कवि छोटे प्रसंगों, अन्यथा अलक्षित रह जाते कई निरीक्षणों और अल्प चर्चित मुद्दों में भी ऐसी सजीवता उत्पन्न कर देता है, देखे हुए को इतने कोणों से हमें दिखाता है और अपनी प्रस्तुति को एक ऐसी ऊंचाई पर ले जाता है कि वह कविता न सिर्फ़ भाषाई स्थापत्य के दृष्टिकोण से बल्कि भावपरक संप्रेषणीयता की कसौटी पर भी एक बड़ी कविता सिद्ध होती है.

लोककथा के परिचित सुपरिचित पात्रों गोनू ओझा और बन्नी दाई को आधार बनाकर  लिखी गई कविता 'बज्र किवाड़' इस संग्रह की उपलब्धि है. इसमें बन्नी दाई की उमंगों को अधूरा रहने पर कवि  को क्षुब्ध होता दिखाया गया है. गोनू ओझा की बेबसी भी यहाँ प्रकट है. ऐसे में कवि आगे आता है और ईमानदारीपूर्वक चाहता है कि वह बन्नी दाई को अँधेरे की कालकोठरी से आज़ाद करे. उसे खुली दुनिया में ताज़ा हवा लेने दे मगर उसकी आज़ादी का आकांक्षी कवि ख़ुद कैसे बेबस हो उठता है, कविता का अंत हमें यही दिखाता है. जो कवि बन्नी दाई को आज़ाद करने निकला था, कविता के अंत अंत तक आते हुए वह स्वयं बन्नी दाई से सहायता मांगने लगता है. निश्चय ही इस कविता में एक कलमकार की सीमा को मदन कश्यप ने मार्मिक और कारुणिक रूप में अभिव्यक्त किया है.लेखक बदलाव चाहता है मगर बदलाव कर नहीं पाता है. मदन ने इस काव्य-संवाद में इसे बख़ूबी उकेरा है. वे कहते हैं:-

'बन्नी दाई बन्नी दाई 
मुझे बचाओ मुझे बचाओ 
मेरी आंखों पर बंधी पट्टी खोलो 
मेरे अंतस पर जड़ा ताला तोड़ो
मेरा पूरा वज़ूद दब रहा है बज्र किवाड़ से
मुझे बचाओ बन्नी दाई ?' 
(पृष्ठ 56)

कहीं न कहीं यहाँ  लेखकों के  क्रांतिकारी होने से शुरु होकर सुविधाभोगी होने तक की  परिणति को भी  कवि दिखाना चाहता है.

मदन के भीतर आत्म-पड़ताल बहुत गहरे तक समाहित है. ऐसे में छोटी बड़ी हर चीज़ का पोस्टमार्टम करती ये कविताएँ सच्ची और प्रभावी बन पड़ी हैं. ये बहुधा हमें भी आत्म-निरीक्षण करने की ओर प्रेरित करती हैं.ऐसी ही एक कविता 'माफ़ीनामा' में कवि कहता है :-

'हमारे कंधे पर वेताल की तरह चढ़ा है
तुम्हारे दुराचारों का इतिहास
अब तुम्हीं बताओ इसे कहां ले जाऊं
किस आग से जलाऊँ
किस नदी में बहाऊँ'
(पृष्ठ 91)

कई बार यथार्थ की विसंगतियां इतनी उद्धिग्न कर देने वाली होती हैं कि व्यक्ति के मुँह से सहसा गाली  निकल जाती है. इसे आप राही मासूम रज़ा के उपन्यास 'आधा गांव ' और अन्यत्र दूसरे लेखकों की कृतियों में देख सकते हैं. मगर यह तो आम आदमी की बात हुई, जिनके माध्यम से लेखक व्यवस्था के प्रति हमारे आक्रोश को वाणी प्रदान करता है. मगर कविता में जब हम किसी पात्र के माध्यम से नहीं बल्कि सीधे अपनी बात रख रहे होते हैं तो क्या किया जाए! ऐसे में कवि व्यंग्य का सहारा लेता है. जब संश्लिष्ट  सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों के गहरे और पुराने मकड़जाल को दिखाना हो तो व्यंग्य के तेवर से लैस कई आधुनिक कविताओं ने इसे समुचित रूप में दिखाना संभव किया है.

कई बार लंबी कविताओं में इसे  'फंतासी' द्वारा भी सफलतापूर्वक अभिव्यक्त किया गया है. 'अँधेरे में'  कविता इसका एक बड़ा उदाहरण है. मगर छोटी कविताओं में जब हम कुछेक बिंदुओं पर फोकस करना चाहते हैं, ऐसे में अपनी भावाभिव्यक्ति को व्यंग्य के झूले पर बिठाकर कवि ज़ोर से एक धक्का मार देता है. ऊपर जाने और नीचे आने की इस आवृत्तिमूलक प्रक्रिया में कवि अपने हिसाब से हमें हमारे आसपास के कई रंगों से अवगत कराता है. फिर यह झूले की एक पेंग मात्र नहीं रह जाती है बल्कि हमारे देखे भोगे अनुभव का कैनवस कुछ और बड़ा हो जाता है. अपने कोरी परंपराओं और रूढ़ियों से आसक्त और उनपर तंज़ कसता कवि लिखता है

'हम एक ऐसी बंधी हुई नाव हैं
जिसका लंगर पाताल तक धंसा है और
रस्सी अपनी गांठ सहित पत्थर हो चुकी है'
('बँधी हुई नाव', पृष्ठ 35).

किसी बदलाव को नकारते और स्थावर हो जाते समाज को देख कवि आक्रोशित है मगर अपने भीतर के उस कसैलेपन को पचाता कवि अपनी बात कुछ इन बिंबों के माध्यम से कहता है. रस्सी का पत्थर में तब्दील होना चलने,ठहरने और फिर आगे बढ़ने की हमारी पूरी प्रक्रिया का स्थगित होना है.  विकसित और शिक्षित होकर भी अंधविश्वास की आग में खुद को और औरों को जलाना मात्र है. अनावश्यक शौर्य गाथाओं से लिपटे रहने और कुछ न करने की जगह वर्तमान समय के अनुरूप खुद को ढालने में कवि का अधिक विश्वास है.  'मध्यवर्ग का कोरस', 'लोकतंत्र का राजकुमार' आदि ऐसी ही कविताएँ हैं.

2015 में प्रकाशित इस संग्रह में अमूमन वर्ष 2003 से लेकर 2012 तक लिखी कवि की कविताएँ संकलित हैं. कविता के साथ इनके ज़िक्र से पाठकों और आलोचकों को यह जानने में सहूलियत होती है कि कवि अपने समय के साथ कितना संपृक्त है और और अपने आसपास की घटनाओं से कितना अनुप्राणित है! आख़िरकार साहित्य सृजन का कच्चा माल हम इसी समाज से लेते हैं और उसे वापस किसी खास विधा या रूप में ढालकर इसी समाज को लौटा देते हैं. कुछ लेने और लौटाने का यह कर्म ही साहित्य कर्म है. मदन की कविता में तभी तो निठारी हत्याकांड बार बार अलग अलग रूपों में लौट आता है. आदिवासियों से छिनते जंगल, जल जंगल और ज़मीन पर पूंजीपतियों के कब्जे और उनके दोहन के कई प्रकट  कारनामे और अप्रकट साज़िशों का उनके यहाँ ज़िक्र होता है.

'उदासी के बीच', 'तानाशाह और जूते’, 'धर्मनिरपेक्ष हत्यारा' जैसी कविताओं से गुज़रना मानो कहीं न कहीं अपने जीवनानुभवों से भी गुजरना है. कहने की ज़रूरत नहीं कि भाषाई देशज गंध हमें हमारी मिट्टी की सोंधी महक की याद दिलाते हैं. इस धरातल पर 'बड़ी होती बेटी' उनकी एक यादगार कविता सिद्ध होगी.

'मकई के दानों को बचाता है छिलकोइया
चावल को कन और भूसी 
ढोलने को बचाता है रेशम का तागा
तुझे कौन बचाएगा मेरी बेटी!'
(बड़ी होती बेटी-3, पृष्ठ 17).

बड़ी होती बेटी के साथ बदलते समय को यहाँ पूरी व्यंजना के साथ दिखाया गया है.  ग्रामीण जगत के चिरपरिचित माहौल में आते बदलाव के साथ कठिनतर होते वक़्त की बात की गई है. प्रकृति और कृषि जगत के विभिन्न रंगों के माध्यम से कवि ने बड़ी होती बेटी के साथ अपेक्षित खुशियों की जगह तमाम दुश्वारियों और आशंकाओं के आ जाने को दिखाया है. मूलतः ग्रामीण परिवेश में अंकित यह कविता अपने असुरक्षा बोध में शहरी परिवेश तक भी आती है. लड़कियों के माता-पिता दोनों जगहों पर समान रूप से चिंतित नज़र आते हैं.

ग्रामीण लोकोक्तियों के प्रयोग से कवि ने अपने कहन का बेहतर काव्यपरक प्रयोग संभव किया है. उदाहरणतः पुरसा भर पानी’, ‘बिला जाता था अतृप्ति की रेत में’, ‘मकई के झौरे’, 'कठही संदूक' आदि वाक्यांशों को देखा जा सकता है.
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अर्पण कुमार  (जयपुर)
मो: 9413396755/ arpankumarr@gmail.com

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आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. मदन कश्यप जी की काव्य भाषा जो एक 'सहज' आंचलिकता लिए हुए है वह दुर्लभ है. उनकी मसृण,स्निग्ध शब्दावली उनकी देशज भाषा का ज्ञान न रखने वालों तक भी कविता के पूरे भाव संप्रेषित कर देती है.यही उनकी विशेषता है कि उनकी कविता पर उनके समय के या किसी अग्रज कवि की परछाईं नहीं दिखेगी, उन्होंने अपनी कविता के लिए एक पूरी नयी भाषा और शैली ही गढ़ डाली है. समालोचन को और अर्पण जी को बहुत बधाई.

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