निज घर : पिता : अखिलेश




































(Painting : “Father” by Gwenn Seemel )



पिता पर लिखना हमेशा से मुश्किल होता है.
बाप–बेटे के रिश्ते अहमं के भी होते हैं.  पिता अक्सर पुत्रों के लिए पीछे हट जाते हैं.
पिता के न रहने पर  पुत्र यह पाता है कि वही तो उसके सच्चे मित्र थे.
यह जो लौटती हुई रुलाई है. यही पुत्र में रह गए पिता की स्मृतियों पर उसका संदेश है.
विष्णु खरे अपनी एक कविता - ‘और नाज़ मैं किस पर करूँ’ में लिखते हैं-

‘तुम उस अटपटाहट से पिता का नाम बतलाते थे
जो उनका नाम लेते या लिखते वक्त अब तक नहीं गई है’

प्रसिद्ध चित्रकार अखिलेश का यह घनिष्ठ स्मृति – अंश आपके लिए. 

पिता                                      
अखिलेश


जिस्म जमीं पर रखा था, उनकी मौत की सूचना मुझे अलस्सुबह फ़ोन पर मिली. कमला पार्क से गुज़रते वक्त हज़ारों कव्वों की काँव-काँव सुनकर मुझे कुछ अजीब ही लगा कि इन विशाल वृक्षों पर चमगादड़ रहते हैं. इस वक्त कव्वे कहाँ से आ गए?

वे सफ़ेद कपड़ों में लिपटे रखे थे. मैं उनके पास बैठ गया और शायद अन्तिम बार उन्हें देख रहा था. उन्हें अन्तिम बार देखना पहली बार की तरह लग रहा था. बहुत कुछ अनजाना-सा. मैंने पहले नहीं देखा था कि अमूमन उनके सफ़ेद दिखने वाले दाँत इतने पीले हैं या उनकी चमड़ी इतनी काली है या उनके नाखून लगातार इतना जीवन जी लेने के कारण कुछ पीले से पड़ गए हैं और उनमें सफ़ेद लकीरों सी खिंच आयी हैं. उनके सफ़ेद बाल जिन पर उनको नाज था और मुझे ईर्ष्या कि ऐसे सफ़ेद मेरे बाल क्यों नहीं है, कई जगहों से पीले से हो गए थे. उनका चेहरा शान्त और क्लान्त था. एक लम्बी यात्रा की थकान और यात्रा से पाया गया सुख दोनों ही चेहरे पर था. वे बहुत दत्तचित्त और एकाग्र दीख रहे थे जिस तरह अक्सर मैं उन्हें पाया करता था. जीवन में ऐसा मौका पाया ही नहीं जब उन्हें विचलित देखा हो. मैंने कभी उन्हें हैरान परेशान नहीं देखा. उनका जीवन संयमित और सुचारित रहा जिसमें किसी गड़बड़ी की आशंका ही नहीं थी. वे एक साफ़ शफ़्फ़ाक जीवन के मालिक रहे, जो अपने लिए नहीं बल्कि खानदान और अपने विद्यार्थियों को समर्पित कर दिया गया जीवन था. वे उदार थे और ऐसा नहीं था कि अपनी उदारता परिचितों तक ही सीमित रखते रहे. 

वे सड़क चलते व्यक्ति की मदद के लिए भी उतने ही तत्पर रहते थे.पिता को यात्राओं का बड़ा शौक था. नई जगहों पर जाना और अक्सर अकेले नहीं, घूमना-फिरना उनका शगल था, शादी के बाद वे नयी दुल्हन और अपने एक मित्र दम्पत्ति के साथ कुछ दिनों के लिए ओंकारेश्वर चले आये. वे साथ एक महाराज ले जाना नहीं भूले जिसका काम दोनों वक्त का खाना तैयार करना था. आदतन कुछ ही समय बाद उनके निवास पर तीर्थ यात्रियों के लिए भोजन बनने लगा. इस तरह अब कई तीर्थ यात्री खाना खाने वहाँ रोज आने लगे. कुछ दिन बीत गए, पास का पैसा खत्म होने लगा, उन्हें चिन्ता हुई. अपने दोस्त से सलाह-मशविरा कर बचे हुए पैसों से अगले दिन उन्होंने साथ आये महाराज को इन्दौर रवाना किया और दोस्त को लेकर नर्मदा तट पर गए, जहाँ दोनों ने नदी में डुबकियाँ लगाकर परिश्रम से कुछ पैसे तलहटी से निकाले. टिकट लायक पैसे पास रख शेष वापस नदी में डाल अगली बस से वे चारों इन्दौर लौट आये. पिता ऐसी अनेक यात्राओं में लगातार दोस्तों, परिवार के साथ व्यस्त रहे. इन यात्राओं में वे ताम-झाम के साथ जाते और मित्रों, विद्यार्थियों को भी ले जाते रहे. वे छात्रों को सांस्कृतिक यात्राओं पर ले जाया करते. अजन्ता, एलोरा, हेलाबिड बेलूर, राजस्थान या ऐसी ही अनन्त कला यात्राओं पर, जहाँ छात्र परिचित होते देश के विविध सांस्कृतिक आयामों से, लोगों से और खुद से. मृत्यु के एक साल पहले वे अपने एक दोस्त के साथ कोलकाता गया और बनारस की यात्रा कर लौटे थे. इसी यात्रा में उन्होंने अपने पिता और भाई का पिण्डदान भी किया. किन्तु अपनी अन्तिम यात्रा में वे बिना ताम-झाम के अकेले गये.

उनकी नियमित दिनचर्या थी. सुबह सैर को जाना फिर तैयार होकर स्कूल. पूरा दिन विद्यार्थियों के साथ गुज़रता और शामें दोस्तों के लिए होती जिसमें समय, शराब, शतरंज, ताश, दावतें और कैवेंडर सिगरेट के साथ बिताया जाता था. ताश के लम्बे खेल के बाद देर रात उनके साथ मिठाई खाने मथुरा वाले के यहाँ जाने का मौका मुझे भी कई बार मिला. ये शामें सिर्फ़ मनोरंजन भर नहीं होती बल्कि यहाँ कई मसले सुलझते आपसी मन-मुटाव दूर किये जाते. नए अनुभव और ताजे राजनैतिक विवादों पर खुलकर बातचीत होती. कला पर गम्भीर बहसें और मज़ाक साथ-साथ चलते रहते. वे दोस्तों के बीच इतना निर्विवाद थे कि आपसी दुश्मन अपनी-अपनी बात निस्संकोच उन्हें कहते और सन्तुष्ट सलाह भी पाते.

शतरंज इन्हीं दिनों मैंने उनसे सीखी.


वे इस कदर खातिर नवाज़ थे कि लगता है अपनी मौत को भी दावत खुद ही दी. उस दोपहर उन्हें पहला हल्का हृदय का दौरा पड़ा. उनका हृदय जो ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ गया था उसे दिखाने, बहुत इसरार के बाद, पहली बार किसी डॉक्टर के पास गए और दो घण्टे बैठे रहने के बाद भी जब उनका नम्बर नहीं आया तो डॉक्टर को गरियाते हुए घर वापस आ गए. गर्मी की भरी दोपहर में उनका गुस्सा ठण्डी बीयर से ही शान्त हो सकता था, सो उन्होंने भयंकर ठण्डी बीयर पी और वह सब किया जो हार्ट अटैक के मरीज़ को नहीं करना चाहिए. देर-रात अपने पोते के साथ खेलते रहे, फिर सो गए. सुबह करीब दो बजे भाई ने देखा कि वे पलंग पर एक तरफ गिरे से लटके हैं. उसे कुछ अजीब लगा और उठाने पर भी जब वो नहीं जागे सो डॉक्टर को बुला लिया गया उनकी मृत्यु की घोषणा की औपचारिकता के लिए.



गर्मी की सुबह मैं घर पहुँचा और घर से किसी के जाने की निशब्द आहट सुनाई दी. यह आहट थी उनके दुनियावी यथार्थ से स्वप्न में चले आने की.



उसी वक्त यह भी अहसास हुआ कि इस मृत्यु का गम नहीं किया जाना होगा. मैंने उनसे अब कभी न मिल पाने का दुःख महसूस नहीं किया.

उसके बाद से मेरे सपनों में पिता अक्सर आने लगे और जो सलाहें मैंने कभी उनसे नहीं लीं और जो बापपन झाड़ने की गरज से कभी नहीं दी गयी थीं. वे सलाहें मुझे बिन माँगे मिलने लगी.

हम सबने उनका स्नेह जितना पाया उतना ख़्वाब नहीं देखा.

घर की हवा में उनके गुस्से का एक अदृश्य तार खिंचा रहता था. वे गुस्सा न हो जाये के तार पर लटके सूखते हम दस बच्चे न जाने किस गुस्से की कल्पना में अपना सब काम संयमित ढंग से चलाते रहते. हमारा संयुक्त परिवार है और उन दिनों हर दो-तीन साल में एक नए सदस्य को हमने घर में बढ़ते देखा. इस तरह हम जब दस हो गए तब किसी प्राकृतिक घटना की तरह सदस्यों का बढ़ना रुक गया. मेरा नम्बर दूसरा था और घर के रहस्यों में लिपटी जगहों पर सबको ले जाने की योजनाएँ बनाने का काम भी. चाहे वो भण्डार घर में रखी दवाईयों की ढेरों बरनियों को खोलना हो, सौ या दो सौ साल पुराने गाय के घी को सूँघना-सुँघाना हो, शस्त्रागार में दिया जला कर एक-एक तलवार निकाल कर दिखाना हो या फिर अर्धमूर्छित पारे को ज़मीन पर गिरा कर बूँद-बूँ बटोरने का लम्बा सुख हो. शेष अजूबे के दर्शक.

इसी रोमांचक रहस्य में रखे कीमती सामान को तोड़ने-फोड़ने का जिम्मा भी मेरा ही रहा, किन्तु मैं जिस भी डर से उन टूटी-फूटियों को बाहर फेंक आया करता था, पिता के मँगाने पर वापस भी ले आता था और वे कभी नाराज़ नहीं हुए, न ही कभी मार पड़ी, किन्तु उनके गुस्से का अदृश्य तार हमेशा खिंचा रहा. इसके ठीक उलट वे उत्सवधर्मी थे. छोटी-छोटी बातों-घटनाओं का जश्न मनाना दोस्तों को खिलाना-पिलाना और घर भर के लिए खुशनुमा माहौल उन्हें पसन्द था. पहली तारीख को वे कभी समोसों, केक या मिठाई के बगैर घर नहीं लौटते थे. छोटी-सी पिपरमिंट की गोली भी जश्न के लिए मिठाई की तरह रख दी जाती और हम सब तृप्त होते. उनके सान्निध्य में हमारा बचपन हरा-भरा था. उनके रहते कभी किसी तरह की परेशानी, जिम्मेदारी का अहसास ही नहीं हुआ. वे थे एक विशाल वृक्ष की तरह जिस पर हम सब चिड़ियों की मानिन्द फुदकते रहते.

सिरहाने जल रही अगरबत्ती की खुशबू और धुएँ से आगे का कमरा डबडबा गया था.

घर के इस कमरे का नाम ही आगे का कमरा था. बीच का कमरा, मम्मी का कमरा, दालान, चच्ची का कमरा, दवाखाना, चौका और आँगन, इस तरह छोटे से विशाल घर में कई और जगहें थी जहाँ हम लोग अपने बचपन के दिनों को खपा आये. आज इसी आगे के कमरे में कई अपरिचित चेहरे दिखाई दे रहे थे और सबसे अपरिचित चेहरा पिता का ही लग रहा था. मुझे यह भी महसूस हुआ कि पिछले कई सालों से मैंने उनके चेहरे को देखा ही नहीं. यह भी नहीं मालूम हो रहा था कि किस तरह उनका चेहरा इस अपरिचित चेहरे को धारण कर चुका था या कि यह लम्बी अवधि में पाया गया था. हमारे संयुक्त परिवार के बाहर सिर्फ़ मैं रह रहा था. भोपाल वे अक्सर आ जाते और एक-दो दिन रुककर चले जाते. इन प्रवासों में उन्होंने कभी मुझसे कुछ चाहा नहीं, न ही माँगा, वे खुद्दार थे और रहे. उनके कम ही शौक थे. उनकी ज़रूरतें भी कम रहीं इन्हें पूरा करने के लिए कभी उधार नहीं लिया या किसी दोस्त पर बोझा नहीं बने. वे शान से शौक पूरा करते रहे और उसमें दोस्त, घर सभी को शामिल कर लेते.

खुशबू से उनका प्रेम सर्वविदित था. Chamilion नामक इत्र या बंगाल केमिकल्स का प्रियादोनों में से किसी एक की भीनी महक उनके इर्द-गिर्द महकती-मँडराती रही. उनकी तिजोरी या अलमारी खोलते ही हवा में घुस आयी सुगन्ध किसी को मदहोश कर सकती थी. वे सम्भ्रान्त थे, सुरुचि सम्पन्न थे और इस पर उन्हें नाज़ था. घर में किसी तरह की अव्यवस्था उन्हें पसन्द न थी. वे खुद साफ़ और हम सबको सुथरे देखना-रखना रखते रहे. कभी-कभी उस प्रियाका प्रसाद हम लोगों का भी मिल जाय करता. उस वक्त मैं अपने को दुनिया का सबसे खुशकिस्मत इंसान महसूस किया करता था. वे खुशबूदार पान भी खाते रहे और शायद उस दिन भी खाया था अन्तिम पान.

उनके बाद ये खुशबूएँ भी मिलना बंद हो गयी. हवा खुश्क और शुष्क होने लगी. अदृश्य तार गायब हो गया.

कई बातें उनके जाने के बाद पता चलीं. मुझे लगा, मैं अपने पिता को बहुत ही कम जानता हूँ.
मैंने उनको कभी अटपटाते लटपटाते छटपटाते नहीं देखा.

वे कभी उलझे नहीं दिखे और बेबस नहीं हुए. अपना सम्मान बेचा न किसी का अपमान किया. किसी के सामने झुके नहीं. दुनिया और दुनियादारी से प्यार खूब किया. खूब जिया दरियादिली से. वे मध्यप्रदेश के पहले स्वर्ण पदक पाने वाले कलाकार थे, इस बात का दम्भ कभी भरा नहीं और हॉउस टैक्स चुकाने के लिए उसे बेचने में देर भी नहीं की. उनके पिता, विजय बहादुर सिंह आयुर्वेद के प्रसिद्ध चिकित्सक थे और शहर में पहला सार्वजनिक अखाड़ा भी उन्होंने ही शुरू किया. उन्हें शिकार का शौक था उनके पास एक दोनाली बन्दूक, जो उन दिनों कीमती अब दुर्लभ हुआ करती है, थी. एक दूरबीन भी. यह बन्दूक भी टैक्स भर गयी और दूरबीन मैं भोपाल ले आया जिसे मेरा एक दोस्त मार ले गया. अपने पिता की वसीयत से उनका कोई लगाव नहीं था, न वे चिकित्सक बने न ही अखाड़े का काम देखा. उन्होंने अपना अलग रास्ता चुना. खुद का मुकाम पाया और बाकी जीवन, घर परिवार के लिए खर्च कर दिया. वे एक अच्छे शिक्षक के रूप में माने जाने जाते रहे और चित्रकारी का कोई भी मौका उन्होंने हाथ से जाने नहीं दिया. वे अच्छे चित्रकार होने का दावा भी नहीं भरते थे. वे छात्रों के बीच प्रसिद्ध शिक्षक रहे और उन्होंने पढ़ाने के लिए चित्रकार होना लगभग छोड़ दिया.

पिता ने अपनी रुचि से चित्रकला चुनी. वे कुशल चितेरे थे और उनके हाथ में सफाई थी. वे योजनाएँ बनाते और उन पर काम करते. वे अपने साफ़-सुथरे, दुनियावी अनुभव की चाशनी में डूबे हुए खुले विचारों से किसी को भी प्रभावित कर लेते और उनकी सुन्दर लिखाई के मुरीद सभी थे. उनकी नफासत और बेबाक उपस्थिति किसी को भी आकर्षित कर लेती. बेन्द्रे, हुसेन, रज़ा से लेकर हरचन्दन सिंह भट्टी तक अनेकों चित्रकार उनके मित्र रहे और सभी से मित्रता सहज रखी. इसी के चलते वे मेरे दोस्तों और मेरे बाद के चित्रकारों के साथ भी सहज दोस्ती कर लेते. उनके सम्बन्ध ज़िन्दा और जबान शायद इन्हीं जीवनानुभव के रहते हुआ करते थे. वे उन्हें भी उतना ही स्नेह करते और बराबरी का व्यवहार रखते.
मैंने उन्हें बीमार नहीं देखा.

मैंने पिता को कभी बिस्तर पर पड़े एक मरीज़ की तरह नहीं देखा. मुझे सिर्फ़ एक ही वाक़या याद है जब उन्हें पिंडली का बाल तोड़ हुआ था. उस पर भी वे रोज़ स्कूल जाया करते और जाने के पहले उस घाव की सफाई और उबली हुई डबल रोटी मैं ही बाँधा करता था. उन्होंने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया कि मैं क्या और कैसे कर रहा हूँ. वे अपना अख़बार खोल पढ़ते रहते और मैं उस दर्द को भूल जो उन्हें हो रहा होगा, मवाद बेदर्दी से साफ़ किया करता. गर्म पानी और उबली डबल रोटी बाँधने में मेरी उँगलियाँ जलन महसूस करतीं, किन्तु वे चिकित्सा से निरपेक्ष अख़बार पढ़ते रहते. पूरा हो जाने पर ठीक समय अपनी सायकिल ले स्कूल चले जाते. वे अपने संसार में इतना मसरूफ थे और हम सब भी उसमें कुछ ऐसे शामिल थे कि कभी ये ख्याल ही नहीं आता कि उनकी भी कोई तकलीफ होगी. हमने उन्हें कभी अपना रोना रोते नहीं देखा. वे हर हाल में खुश और दूसरों के दुःख से चिन्तित दिखे.

वे कला के अध्येता थे, उसमें गहरे पैठे-बैठे थे. भारतीय शिल्प कला के बारे में या शालभंजिकाकी बात करते वक्त उनका चेहरा इस तरह चमक उठता जैसे उन्होंने ही बनाया हो. वे मुग़ल चित्रकार मंसूरकी बात करते या विस्तार से लघुचित्रों के उत्कर्ष के कारण, उसमें बदलाव क्यों आये, और कैसे भारतीय चित्रकला में पारदर्शिता आयी या अलंकरण की तरफ रुझान बढ़ा आदि अनेक बातें कुछ इस ढंग से बतलाते मानो इन चित्रकारों के साथ बैठ समय साझा किया हो. बिहारी के कवित्त और खजुराहो के शिल्पों का सम्बन्ध वे सहज ही बिखेर देते. वे बतलाते रहे कविता और चित्र का सम्बन्ध या की साहित्य और संगीत की दोस्ती. वे हमेशा इतराते रहे कलाओं की बात करते वक्त. महादेवी वर्मा की कविताओं और भारतेन्दु के किस्सों से उनका गहरा लगाव था. शरतचन्द्र, रवीन्द्रनाथ टैगोर, निराला की बातें और उन पर गर्व वे बिलावजह भी कर सकते थे. किसी भी अच्छी कलाकृति के गुण बखान  में उनकी शाम गुज़र जाया करती थी. वे हमें संगीत सभाओं में ले जाते, जहाँ कुछ समय बाद हम बिछे गद्दों पर सो जाया करते. देर रात वे हम दोनों को अपनी साइकिल पर लगातार जगाते लौटते कि कहीं नींद में हम गिर न जाये.

संगीत सभा में जाते हुए वे यह बतलाते रहते कौन कलाकार आज गाने-बजाने वाला है. आमिर ख़ाँ, डागर बन्धु, मोईनुद्दीन ख़ाँ, सावनेरकर आदि कई कलाकारों से परिचय उन्हीं के कारण हुआ और रविशंकर, विलायत ख़ाँ, शामता प्रसाद, अली अक़बर, अमज़द अली और सितारादेवी, निखिल बैनर्जी, भीमसेन जोशी आदि अनेक कलाकारों को उनके ही कारण हम लोग जान-सुन पाए. इन सभाओं से लौटते हुए उनकी बातें कभी खत्म नहीं होती दिखाई देती, वे बहुत रुचि और गहराई से इन पर बात किया करते जो हम लोगों के लिए उस वक्त कुछ ज़्यादा हुआ करता था. उन दिनों का इन्दौर बहुत खुला और फैला हुआ था. दूर-दूर तक खाली मैदान और खुलापन अब दुकान बन गए इन्दौर के बरक्स ठण्डा और गर्म एक साथ था. देर रात साइकिल पर लौटते वक्त घर आता नज़र नहीं आता था. नींद और पिता की बातें गड्ड-मड्ड होती जाती और मुझे उन काल्पनिक जगहों पर ले जाती जहाँ भूत-प्रेत के किस्से रहा करते हैं. जो उतने ही ज़िन्दा और बेधड़क घूमते थे जितने ज़िन्दा लोग. इसी काल्पनिक यथार्थ के सच होने और सचाई पर कल्पना का मुलम्मा चढ़ाये इन संगीत सभाओं में आने-जाने के अलावा घर पर भी संगीत सभाएँ होती थी.

पिता कोई मौका नहीं छोड़ते संगीत सभा जुटाने का.

आज यह सब लिखते हुए मैं सोचता हूँ उनके दोस्तों के बारे में जो उतनी ही रुचियों और प्यार से भरे थे. उन सबके स्नेह ने हमारा बचपन कीमती कर दिया था. वे भी अधिकार के साथ पिता को कहते ‘‘मैं कुछ सुनाना चाहता हूँ किसी शाम’’ और वह शाम जल्दी ही जम जाती. दोस्तों को बुलाया-बतलाया जाता, खाने-पीने के इन्तज़ामात होते और उस महफ़िल में हम लोग भी शामिल होते. अन्तहीन दोस्तों के बीच वे धुरी की तरह रहे. उनके साथ गप्पें, शतरंज, ताश, पिकनिक, यात्राएँ, सभाएँ आदि बहुत कुछ निर्बाध गति से चलता रहता जिसमें वे अपने बारे में कम दूसरों की ज़्यादा बात करते रहे. शौक से खाना खाते और खिलाते रहे. वे दावत प्रिय थे और दावतें हमारे घर की दिनचर्या में शामिल. शिकार का गोश्त पक रहा हो या डॉक्टर कौल के कबाब, दावत देर तक चलेगी. इन दावतों में उनके ठहाके और बिन्दास हँसी भरी होती. सबका ध्यान और हम लोगों का ख्याल उनके हर काम में दिखाई देता. 

मुझे याद नहीं कि दूध पीना मैंने किससे सीखा किन्तु शराब पीना उन्होंने सिखाया. विदेश से लौटे हुए उनके किसी दोस्त ने स्कॉच व्हिस्की लायी है तब यह तय है कि पहले दो छोटे पैग हम दोनों भाइयों के लिए बनेंगे और देते वक्त वे हमें उसकी ख़ासियत बताते हुए अपनी दावत शुरू करेंगे. उनका भाव यही होता कि संसार की इस अच्छी चीज़ से परिचय समय रहते हो जाये.
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(समास के किसी अंक में प्रकाशित, आभार सहित) 
Photograph by : Preeti LS Mann 

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  1. यह एक चित्रकार का अद्भुत और आत्मीय गद्य है । पिता के बारे में इतनी बेबाकी से कौन लिख सकता है

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  2. पाठ में एक जगह 'बखान' की जगह 'बाखन' टंकित हो गया है. बहरहाल,यह कहानी ज्ञानरंजन की 'पिता' और से.रा.यात्री की 'केवल पिता'से अलग कहानी है.स्कूल मास्टर पिता का अपने बच्चों को शराब पिलाना पाठक को शायद अविश्वसनीय प्रतीत हो.

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    1. आप एक बार फिर से पढ़ जाएं मेरे पिता एक चित्रकार थे। इसका अर्थ ये नहीं है यह किसी किस्म की सफाई है। प्रकृति के रहस्यों का समनायिकर्ण नहीं हो सकता।

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  3. रवि रंजन जी शुक्रिया. ठीक किया है.
    एक फुलटाइमर प्रूफ रीडर की जरूरत तो है. पर यहाँ इंतजाम मुश्किल है.

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  4. मैंने उन्हें इन्दौर के अनेक कार्यक्रमों में देखा था. उनके लगभग सारे सफ़ेद किंतु विपुल केश, कुर्ता-पायजामा और एक झोला मुझे याद हैं. यह एक कलाकार, एक शिक्षक और एक पिता का जीवन है.बहुत अच्छा स्मृति गद्य.

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  5. मन गीला हो गया, ताज़े रंगो की तरह।

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  6. वाकई, उस खुशबु का एहसास होता है जब कोई अपना न हो और वो खुशबु कहीं मिल जाए उनकी याद तरोताजा हो जाती है जैसे वो अब भी यहीं है पास। उस खुशबु में आगोश में ले लेने का एहसास बसता है

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  7. महेश शर्मा8 मार्च 2017, 8:28:00 pm

    अरुण जी एक चीज़ की तारीफ करना चाहूँगा. लेख या कविताएँ या जो कुछ भी आप देते हैं - वह तो उच्च कोटि का होता ही है उसकी प्रस्तुति पर भी आप मेहनत करते हैं. यह सब कुल मिलकर एक क्रिएशन की तरह है. पेंटिग फिर आपकी टिप्पणी फिर आलेख और फिर लेखक का चित्र. और सब एक तरह से संतुलन में. अब यहाँ ही इस आलेख पर पिता की जो पेंटिग आप नें दी है कमाल की है. कहाँ कहाँ से तलाश करते हैं यह सब. और फिर लेखक का क्या सुंदर फोटो. यह जो आप कर रहे हैं हमेशा याद किया जाएगा. सच में आप अद्भुत हैं.

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  8. ओह,अद्भुत व्यक्तित्व, आत्मीय स्मरण।

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  9. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 09-03-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2603 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  10. दो बार पढ़ा, जो गद्य अखिलेश लिखते हैं, वैसा अच्छे अच्छे अभ्यस्त लेखक नहीं लिख सकते। चाहे वह संस्मरण हो या कोई लेख, या चित्र पर कलात्मक गद्य। एक कलाकाराना शऊर जो दुर्लभ है, वह उनमें है।

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  11. वाकई! पिता का वह चित्र और पिता का यह शब्दचित्र - दोनों मुग्ध करने वाले! देर तक मन की आँखों में बसे रहेंगे ये!अखिलेश जी को बधाई! भोपाल में युवा-5 के दौरान कुछ पल उनसे मिलकर बहुत अच्छा लगा था!

    -राहुल राजेश, कोलकाता।

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  12. लेखक का नाम एक स्तर पर रचना में निमित्त मात्र होता है। पाठ की अपनी मज्जा होती है। यह संयत नियति रूपायित हो जाए तो राहत महसूस होती है अजीब उदासी भरी पाठ-क में। बोलते शब्दों में अबोले शब्दों को कुछ पल का अवकाश मिलता है। आप का यह लिखा(स्मरण-चित्र) आसक्ति की निस्संगता की प्रौढ़ता है। ज्ञापित मौन से परे कोई चुप की चोपाल है मध्य रात्रि में, जिस में विरहाकुलता का अधीर धीरज का पाट है। एकान्त के शव के आसपास स्मृतियों के कण्ठ भीगते हैं। हम इस पाठ को 'पढ़ते' नहीं हैं। हम इस पाठ को'सुनते' नहीं हैं। हम इस पाठ को 'देखते' नहीं हैं। हम....'हम' के भार से निर्भार उस 'होने' की हो चुकने की 'गति' को अपने व्यतीत को प्राप्त होते पाते हैं।
    धवल का अपना कोई विकल श्याम रंग है।
    परछाइयों की परछाइयों को खुरचते रहने देना चाहिए।

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