सहजि सहजि गुन रमैं : परमेश्वर फुंकवाल






















(कृति - Mark-Jenkins)



परमेश्वर फुंकवाल ने कविता की दुनिया में हालाँकि देर से प्रवेश किया पर अब उन्होंने पिछला सब पूरा कर लिया है. शिल्प और कथ्य दोनों स्तरों पर वह अब ‘समकालीन’ कवि हैं.  उनकी कविताओं में वह सब है जिसे एक सह्रदय पाठक कविता से चाहता है.
उनकी कुछ नई कविताएँ.  




परमेश्वर फुंकवाल  की कविताएँ                                                          




 
परिचय  

यदि मेरे पुरखे पहाड़ थे
तो मैं अनंत काल से घिसते पिटते हुए
अब बन गई उपजाऊ मिट्टी हूँ

मैं उदासी में
बस अब टूटने ही वाले पत्ते के मन का भाव
और खुशी में जमीन की परत तोड़कर
अभी अभी निकली कोंपल

मनुष्यों में 
ऐसा महत्वाकांक्षाविहीन
जो दौड़ से हट गया है
किसी घायल धावक को उठाने

चिट्ठी में वह पंक्ति हूँ
जो है उसका मंतव्य
पर जो लिखी नहीं गई है
प्रेम में वह जो अनकहा रह गया 
हिंसा में वह शस्त्र 
जो उठ न सका 

आँखों में ऑंखें डालकर मुझसे
मिलने वाले
पूरी दुनिया से बतियाते हैं 

मित्रता में मैं दो गले लगे दोस्तों के बीच
बची जगह की ऊष्मा 
दुश्मनी में वह मीठी प्रशंसा जो टाली जाती रही

संभव में
मैं कहानी से निकला हुआ
एक ऐसा पात्र जो कुछ भी कर सकता है
और असंभव में
क्रूरता के चक्रवात से
भागते अनगिनत शरणार्थियों की
समंदर में पलटी हुई नाव

जीवन में मैं
एक विस्मृत हो चुकी हंसी का आगमन हूँ
और मृत्यु में
तट पर मुंह के बल पड़ी एक मृत देह 
जिसकी तस्वीर आपको बेचैन करेगी कल के अखबार में

कविता को आपसे मिलाने की
मुझे यही प्रस्तावना सूझी.





नया वर्ष 

मैं बैंक गया था
किसे पढ़े लिखे आदमी ने
मेरी पासबुक
मशीन में डाली
तीन सौ पैंसठ प्रविष्ठियों के साथ वह निकली
उसमें खर्चे ही खर्चे थे

केशियर से बहुत मिन्नतें की
ठीक से देखो
बहुत सा इसमें जमा होने से छूट गया है

उसने पन्ने पलटे
लेजर में कुछ न था

लौटते हुए मैंने
भारी मन से अन्दर की जेब टटोली

अँधेरा आतिशबाजी में डूबा हुआ था 
संगीत धुआं बनकर उड़ रहा था

सपनों की चिल्लर मेरे पास अब भी थी
अब भी मैं प्रेम कर सकता था

घंटाघर की घड़ी जब बारह कदम चली
मैंने आसमान की ओर देखा

एक वर्ष मेरे खाते में
जमा हो रहा था.



काम 

दीवार थी वह
नगर निगम के एक स्कूल की
उसके एक ओर भावी पीढियां
स्वच्छता का पाठ पढ़ रही थीं 
और दूसरी ओर वर्तमान निवृत्त हो रहा था

पता नहीं किसका आईडिया था
पर एक दिन 
उस दीवार पर बना दिए गए
तमाम देवी देवताओं के चित्र

अब सब सिर झुकाते हुए
वहां से गुजरते 
कोई और दीवार खोजते 
आगे बढ़ जाते 

पर समय के आगे देवता भी बेबस थे 
तस्वीरों ने रंग छोड़े
कम हो चला सिरों का झुकाव
प्लास्टर और पेंट कमजोर क्या हुए
डोलने लगी आस्थाएँ 

पिछले हफ्ते की
तेज़ बारिश में तो
खाली ही हो गई दीवार
फिर लोग उस रास्ते से
नाक पर रुमाल रख कर
जाने लगे अपने अपने काम पर

आज सुबह से
फिर उकेरी जा रही हैं
तस्वीरें दीवार पर
फिर काम पर लौट रहे हैं
कुछ दिन के विश्राम के बाद
सारे देवता.



रोज़ी स्टारलिंग (1)

यह फरवरी का महीना है
लेकिन कालूपुर(2) रेल स्टेशन पर
भीड़ है बहुत इन दिनों

प्लेटफार्म और कोंकोर्स तो ठीक
प्लेटफार्म शेल्टर की गर्डरों पर
बिजली के खम्भों, तारों, पानी की टंकी
और झूलती मीनारों के बुर्जों पर भी

सूदूर यूरोप से उड़कर
अभी आई हैं
लाखों रोज़ी स्टारलिंग

दिन भर पूछती हैं प्रश्न
देती हैं उत्तर
बतियाती हैं
जीवन के सहयात्रियों से
यहाँ शाम और सुबह उड़ती है हज़ारों के झुंडों में
सरसपुर, दिल्ली दरवाजा
साबरमती रिवरफ्रंट के आसमान पर
इस अनूठे एयर शो को देख
पूरा शहर पक्षी हो जाता है

मैं चकित होता हूँ  
वर्ष दर वर्ष क्यों उतरती हैं ये
इस स्टेशन पर

गुलाबी मैना के पंखों में लिपटा हुआ 
आता है यहाँ वसंत
एक अटूट चहचह घोलती है 
इसमें प्रेम की अद्भुत मिठास
असीम दूरियां लांघने का हौंसला है इनका आना  
सबक असंख्यों के मिल जुल कर रह सकने का 
ढाढस कि नहीं हो तुम
अपनी कठिन से कठिन यात्रा में अकेले
आशा कि धरती और आसमान सबका है

कितने चित्र खींचती है
इनकी उड़ान नीले केनवास पर 
खुलते बंद होते पंखों की मौन सिम्फनी पर 
थिरकता रहता है आकाश

इन अनथक हवाई यात्राओं में कोई एअरपोर्ट इनका नहीं 
कालूपुर ही बिठाता है हर साल इनको सर आँखों पर
इनके आ जाने पर ही जैसे पूरे होते हों 
यात्री संख्या के वार्षिक लक्ष्य
लम्बी दूरी के इन यात्रियों से
यहाँ कोई प्लेटफोर्म टिकट तक
नहीं पूछता

जब ये चली जाती हैं
यह शहर गर्मी की लपटों में झुलसता है.

(1)गुलाबी मैना
(2) कालूपुर- अहमदाबाद शहर का मुख्य रेल स्टेशन




कालुपुर की एक सुबह

सर्दी शहर की चौखट पर थी
धुंध दीवारें फांद रही थी 
जब मैंने गोरैय्या के झुण्ड को देखा
कालूपुर पुल की मुंडेर पर

और दिनों जहाँ
मिलते थे केवल कबूतर और कौए 
वहां चार साल में मुझे
पहली बार दिखी थी गोरैय्या

शहर की मुट्ठी से समय की तरह फिसले
जुवार, मकई और सिंगदानों पर
उनकी नज़र थी
कौए ऐसी हड़बड़ी में निगल रहे थे ये सब 
जैसे शहर निगल रहा हो हरियाली 
बाज हाई मास्ट पर बैठा
रखे हुए था 
चारों ओर पैनी नज़र

कालूपुर स्टेशन के सरसपुर द्वार से  
निकलने वालों में
शहरियों से कहीं अधिक थे 
मुंह अँधेरे
पूरब की सवारी गाड़ियों से उतरे कामगार
अपनी गठरियाँ लिए
पूरे कुनबे के साथ

उन्हें ले जाने को
खड़े थे कई ट्रक
स्टेशन के बाहर फूटपाथ पर ढाबे वाले
ब्रिस्क बिसनेस कर रहे थे

ठेकेदार का मुंशी कर रहा था गिनती

शहर बहेलिया हमेशा की तरह
मुस्कुरा रहा था.



किताबें

वह लगा था
मेट्रो सिक्यूरिटी की कतार में
शाम के पीक टाइम में 
लोग ताबड़तोड़ फेंक रहे थे
अपना सामान एक्सरे मशीन के पट्टे पर
सब जल्दी में थे
वह सबसे जल्दी में

हाथ उठाकर उसने चेक करवाया
अपना पूरा शरीर 
सामान के ढेर में उसका बैग भी
जांच से निकल आया
जैसे ही बैग पीठ पर टांगा
कि देखा एक बच्चे को
ठीक उसके जैसा स्कूल बैग उठाते
ठिठककर उसने पीछे टंगे बैग पर हाथ रखा
उसका शक सही था

आनन फानन में उसने बच्चे से बैग छीना 
और उलटे पैर भाग खड़ा हुआ
पुलिस जब तक उसका पीछा करती
वह स्टेशन के पास के खाली मैदान में था
पलक झपकते ही उसके चीथड़े उड़ गए

भीड़ ने देखा
जीवन के छिन्न भिन्न टुकड़ों से 
दूर छिटका पड़ा एक बैग
पुलिस को उसमें
तीसरी कक्षा की किताबें मिलीं.




भौतिकी में प्रकाश

आधी रात बीत चुकी है
शहर की सड़कें रोशनी से सरोबार हैं 
रोशनी के कतरों से टपक रही है नमी
नहीं जान सकते हम
कौन से प्रकाश कण के पीछे है
कोयला खदानों के मजदूरों की दबी आवाज़
और किस किरण ने डुबो दिए हैं
कितने गाँव, खेत और घर
इस वक़्त खम्भों से गिरते
उजालों के शंकु
मौन हैं

अन्धकार एक पूरे ब्रम्हांड पर फैला साम्राज्य है
संभव नहीं इससे लड़ना
बिना अस्तित्व की आहुति दिए
करोड़ों आकाशगंगाएं
तारे, सूर्य
हाइड्रोजन और हीलियम अपने अंतस में लिए
अनंतकाल से लगातार युद्ध में हैं

रोशनी के सामने खड़े होकर
मैं भी रचता हूँ अँधेरा
अपनी छाया से
और बस एक ही है उपाय
इससे बचने का
जल उठूं मैं भी
हो जाऊं रोशनी

इस पूरी दुनिया में प्रकाश
हो सकेगा तभी
जब तप रहे होंगे हम सब
छंट सके दीपक तले अँधेरा
इसके लिए जलना होगा एक और दीप को
और कई और को

अरबों वर्षों से दबे हुए जंगल
तेल बनकर फूटते हैं
पृथ्वी की कोख से
और धुआं हो जाते हैं
बाती की देह नहीं हो पाती फिर से कपास 
कोयले की राख से बहुत हुआ तो
ईंट बनती है बीज नहीं
साढ़े चार अरब वर्षों से
स्वाहा कर रहा है सूर्य अपना सब कुछ
अब इतना ही और बचा है उसका जीवन 

विज्ञान के अनुसार
एक रासायनिक परिवर्तन है प्रकाश का बनना
जबकि बटन दबाकर प्रकाश कर लेना है
एक भौतिक क्रिया मात्र
इतनी कि स्कूल कालेजों में प्रकाश विषय को
सदियों से भौतिक शास्त्र में पढाया जा रहा है.



मानसून की तारीख

बहुत देर से टकटकी लगाकर देख रहा था
मुंशी ने दया देखी
अब 25 जून की तारीख लगी है काका

इतनी लम्बी
कुछ जल्दी लगवा देते बेटा
बहुत तैयारी की है
वकील को फीस भी दे दी है

अब काका जमीन के मसले कहाँ सुलझते हैं इतनी जल्दी
फौज़दारी होता
कुछ पेपर वेपर में छपता
तो फ़ास्ट ट्रेक पर डलवा देता  

25 को कोर्ट की छुट्टी हो गई
काका वहीं बरामदे में जम गए

15 जुलाई को जब पेशी हुई
वकील ने कहा
खारिज हो गई है अर्जी
ऊपर की कोर्ट में जाना पड़ेगा

इस बरस भी?
हाँ काका
सदियाँ लग जाती हैं
समय को पसीजने में
अभी तो सूखे का
तीसरा ही बरस है

काका ने देखा
पसीना पसीना सूरज
गर्मी की छैनी से
धरती को लगातार चीर रहा है 
बदला ले रहा हो जैसे
जंगलों के कंक्रीट होते जाने का
काली मिट्टी के चीरों में नहीं था खून
वह बस एक सूखी अनुर्वर मृत देह थी

ऊपर की कोर्ट में जाने से पहले उसने सोचा
धरती के आगे
अपने दुःख उसे कुछ कम लगे
और अपराध अधिक
उसने वकील से फ़ाइल वापस ली
और सारे कागज रास्ते के सूखे नाले में
उड़ा दिए.






 ____________________

परमेश्वर फुंकवाल
16 अगस्त 1967, नीमच (म.प्र)
आई आई टी कानपुर से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातकोत्तर
मंतव्य, परिकथा, यात्रा, प्रयागपथ, समालोचन, अनुनाद, अनुभूति, पूर्वाभास, आपका साथ साथ फूलों का, नवगीत की पाठशाला आदि में कविताएँ. कविता शतकमें नवगीत संकलित. पटरियां कुछ कहती हैंकाव्य संकलन का संपादन.
भारत सरकार की सेवा में.
pfunkwal@hotmail.com

9/Post a Comment/Comments

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  1. ओह! बहुत प्यारी, मार्मिक कवितायें! अहमदाबाद की यादें ताजा हो गईं.... घर से बस दूर था, पर बहुत प्यारा था वह शहर! अब तो मुझे भी कहने का मन करता है- अपणु अम्दाबाद !!

    - राहुल राजेश, कोलकाता।

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  2. अपनापन लिए कविताएं। कालूपुर पर उतरने वाली गुलाबी मैना को आने वाली हज़ारों पीढियां देख सकें, वर्ना हम जान रहे हैं कि हमने क्या क्या खो दिया तरक्की की आँधी में।
    परमेश्वर जी, बढ़िया कविताएं। मिल बैठकर सुने काफ़ी समय हो गया।

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 23-03-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2609 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  4. अत्यंत मार्मिक एवं गहरी सोच के धनी हैं मेरे परम मित्र परमेश्वर

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  5. कवितायें सीधे हृदय में लगती है । बहुत ही सुंदर व विचारणीय हैं ये सारी कवितायें । धन्यवाद

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  6. बहुत बहुत धन्यवाद राहुल जी. सचमुच यह शहर बहुत जल्दी अपना बना लेता है. आपकी टिप्पणी से आश्वस्ति मिली.
    आ अपर्णा जी, आपकी चिंता स्वाभाविक है. आगे बढ़ते हुए हम कितना कुछ खोते जा रहे हैं यह समझना बहुत आवश्यक है. आपकी बात सच हो और आने वाली हर पीढी इन परिंदों को यहाँ देख सके. आपकी टिप्पणी से उर्जा मिली. वाकई बहुत दिन हो चले हैं, कोई गोष्ठी जल्द ही प्लान करते हैं. आपका हार्दिक आभार.
    दिलबाग जी, धन्यवाद.
    रजनीश, एक सच्चे मित्र की प्रतिक्रिया से बढ़कर कुछ नहीं. धन्यवाद भाई.
    मंजुल मनोज जी आपका शुक्रिया.
    अरुण जी इस प्रतिष्ठित मंच पर स्थान देने के लिए आपका आभारी हूँ. समालोचन पर होना रोमांच से भरता है.

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  7. हर कविता अच्छी है. अरुण जी आपने कहा है न सहृदय पाठक....आज यह सहृदय पाठक ऐसी सुन्दर कविताएँ ढूंढ ढूंढ कर पढवाने के लिए आपको भी हार्दिक धन्यवाद देती है.

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  8. कविता में आप का कद पहले भी बड़ा था और वक़्त ने इसे कभी कम होने नहीं दिया. - विनीत राज कपूर

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  9. आपकी उदार टिप्पणी का बहुत बहुत धन्यवाद अनुराधा जी.
    विनीत आपने मुझे 1984 की कोलेज की स्मृतियों में लौटा दिया. आपके साथ ‘लेखनी’ पत्रिका के संपादन का वह समय याद हो आया. आपकी इस आत्मीय टिप्पणी का आभार.

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