परिप्रेक्ष्य : २१वीं सदी का पहला महत्वपूर्ण साहित्यिक आन्दोलन : डेमियन वाल्टर्स

courtesy by revengeforwanda

२१ वीं सदी में क्या कहीं कोई साहित्यिक आन्दोलन चल रहा है ?
देश–विदेश कहीं भी.
इस जिज्ञासा के कारण मैं तमाम पत्र पत्रिकाएं टटोल रहा था कि मेरी नज़र ‘the guardian में प्रकाशित डेमियन वाल्टर्स के  इस लेख (Transrealism : the first major literary movement of the 21st century?) पर पड़ी.
  
समालोचन के लिए इसका अनुवाद बड़े मन से अनुराधा सिंह ने किया है, उन्होंने अपनी तरफ से कुछ फुटनोट भी दिए हैं, जिससे कि  विषय स्पष्ट हो सके.

पुनरीक्षण के लिए अपर्णा मनोज का भी समालोचन आभारी है.


परायथार्थवाद (ट्रांसरियलिस्म)
२१वीं सदी का पहला महत्वपूर्ण साहित्यिक आन्दोलन      
डेमियन वाल्टर्स
अनुवाद – अनुराधा सिंह    



यह कोई विज्ञान कथा शैली नहीं है और यथार्थवाद भी नहीं वरन् इन दोनों के मध्य मंडराती हुई एक अस्थिर अवधारणा है.  फ़िलिप के.डिक से लेकर स्टीफ़न किंग के दौरान पनपे परायथार्थवाद नामक इस महत्वपूर्ण प्रत्यय की विकास यात्रा पर निकले हैं डेमियन वाल्टर्स. यह उभरती हुई नवीन कथा शैली, साहित्य में पूर्वस्थापित यथार्थ की अवधारणा को समाप्त करने का लक्ष्य साध रही है.  



डेमियन वाल्टर्स


परिसीमा अतिक्रमण

‘ए स्कैनर डार्कली’1 जिसे लिखा तो १९७३ में गया था लेकिन जो १९७७ में छप सका, फ़िलिप के. डिक का सबसे प्रसिद्ध उपन्यास होने के साथ- साथ उनके सम्पूर्ण रचनाकार्य को वर्गीकृत करने वाला उपन्यास भी है. यह निश्चित तौर पर उनके लेखन कैरियर के पूर्वार्ध तक लिखे गए ‘द मैन इन द हाई कैसल’ और ‘डू एंड्राइड्स ड्रीम ऑफ़ इलेक्ट्रिक शीप?’ जैसे विज्ञान कथा श्रेणी के उपन्यासों और फिर इन्हें पीछे छोड़ने वाले उनके उत्तर रचनाकाल के लेखन जिसमें परायथार्थवादी उपन्यास ‘वैलिस’ और ‘द डिवाइन इनवेज़न’ भी शामिल हैं, के बीच एक विभाजक का काम करता है. ‘ए स्कैनर डार्कली’ दो कहानियों का सम्मिश्रण है – बाह्य रूप से यह एक विज्ञान कथा लगती है जबकि हकीक़त में यह फ़िलिप के. डिक द्वारा मानसिक क्षमता का नाश करने वाली नशीली दवाओं और नशे के व्यसनियों के बीच गुज़ारे गए समय की कठोर यथार्थवादी आत्मकथात्मक प्रस्तुति है.

लेखक, अलोचक और गणितज्ञ रूडी रकर ने 1983 में अपने निबंध ‘ए ट्रांसरियलिस्ट मेनीफेस्टो’२ में पहली बार इसे परायथार्थवादी साहित्यिक आन्दोलन नाम से नवाज़ा. आज तीन दशक बाद रकर का वह निबंध समकालीन साहित्य के परिप्रेक्ष्य में पहले से भी अधिक प्रासंगिक है. फर्क इतना है कि जिन दिनों रकर लिख रहा था उन दिनों विज्ञान कथा साहित्य और मुख्य धारा साहित्य परस्पर भिन्न धाराएं थीं ऐसा आभास हो रहा है कि रकर ने २१वीं सदी के आरंभ में जिस आन्दोलन का आवाह्न किया था वह अंततः फलीभूत हो गया है. 

परायथार्थवाद आधारभूत स्तर पर एक पूर्णतः यथार्थवादी उपन्यास लिखे जाने की पैरवी करता है. यह बनावटी रूपरेखा और आद्यप्रारूपीय पात्रों जैसी कृत्रिम संरचनाओं की बनिस्बत लेखक के खुद के अनुभवों से उठाई गयी घटनाओं और चरित्रों को तरज़ीह देता है. लेकिन फिर इसी यथार्थवादी ताने-बाने में वह एकदम अविश्वसनीय और अनूठे काल्पनिक विचारों को बुनता चलता है, जैसे उन्हें किसी काल्पनिक विज्ञानकथा, फंतासी और दहशतअंगेज़ रोचक कथा-किताब से उठाया गया हो.    और वह परायथार्थवादी लेखक जो अभी एक अमरीकी हाई स्कूल के जीवन का विस्तृत और वास्तविक वर्णन कर रहा था अचानक अपने कथानक में अनजाने ग्रह की उड़न तश्तरी ले आता है और एक बहुत मामूली लगने वाला लड़का अतिमानवीय ताकतों से लैस हो जाता है, ताहम पूरा यथार्थवादी कथानक चकनाचूर हो जाता है.

कुछ काम ऐसे हैं जो रकर की मंशा के अनुरूप परयाथार्थवाद में खरे नहीं उतरते. बेहद लोकप्रिय विज्ञान कल्पना आधारित कहानियों जैसे ‘हैरी पॉटर’ या ‘द हंगर गेम्स’ में यथार्थ का चित्रण इतना कम है कि उनकी चर्चा परायथार्थवाद के सिद्धांतों के तहत नहीं की जा सकती. ‘स्पाई थ्रिलर्स’ जैसे उच्च तकनीकी आधारित उपकरण जो आभासी तौर पर सच्ची घटनाओं के वास्तविक आख्यान लगते हैं, वे भी अपनी कृत्रिम रूपरेखा और आद्यप्रारूपीय पात्रों के चलते वास्तविकता से बहुत दूर हैं. परायथार्थवाद एक विशिष्ट प्रयोजन के अंतर्गत कल्पना और वास्तविकता के विशिष्ट संयोजन पर लक्ष्य साधता है, जो समकालीन पाठकों के लिए बेहद प्रासंगिक सिद्ध हुआ है.

परायथार्थवादी लेखकों की संभावित सूची विवादास्पद और आकर्षक दोनों है. जैसे मार्गरेट ऐटवुड का ‘द हैण्डमेड्स टेल’ और उसके उपन्यास ‘ओरिक्स’ तथा ‘क्रेक’ आदि. स्टीफन किंग अपनी रचनाशीलता का सर्वोत्तम दे रहे होते हैं जब वह कामगार अमरीकियों का चित्रण करते-करते उन्हें अतिमानवीय भयों से ग्रस्त कर ध्वस्त कर देते हैं. थॉमस पिंचन, डॉन डीलिलो और डेविड फ़ॉस्टर वालास आदि अन्य उल्लेखनीय नाम हैं.  अमरीका के कुछ प्रबुद्ध लेखकों के बीच ‘द हैण्डमेड्स टेल’ तथा ‘ओरिक्स’ और ‘क्रेक’ जैसे उपन्यासों के लिए मशहूर मार्गरेट ऐटवुड, संभ्रांत अमरीकी जीवन के एक आक्रांता पराशक्ति द्वारा हो रहे विनाश का बेहतरीन वर्णन करने वाले स्टीफन किंग, थॉमस पिंचन, डॉन डीलिलो और डेविड फ़ॉस्टर वैलेस आदि उल्लेखनीय हैं. विज्ञान कथा शैली से जन्मे लेखकों में ह्विट और ‘द ब्रिज’ उपन्यासों के लेखक इएन बैंक्स, जे जी बालार्ड और मार्टिन एमिस का नाम भी परयाथार्थवादी तकनीकी के प्रवर्तकों में अग्रणी है.

समकालीन कथा साहित्य में चमत्कार तत्व के प्रसार को बहुधा ‘विज्ञान कथा का मुख्यधाराकरण’3 नाम भी दिया जाता है. लेकिन साइ फाइ यानि विज्ञान कथाएँ हमेशा से उन पाठकों के लिए पलायनवादी कल्पनाओं की जन्मदात्री रही हैं जो जीवन की कठिन वास्तविकताओं से कुछ समय के लिए भागकर अपना मनोरंजन करना चाहते हैं. इसके अलावा बुकर पुरस्कारों से सम्मानित शुद्ध यथार्थवादी उपन्यासों की भी आज कमी नहीं है. साइ फाइ और यथार्थवाद दोनों ही दो अलग अलग तरह से अपने पाठकों को राहत प्रदान करते हैं- पहला, उन्हें जीवन की नीरस वास्तविकता से उबार कर और दूसरा उन्हें यह विश्वास दिला कर कि यथार्थ, जिस पर हम भरोसा करते हैं वह स्थिर, दृढ़ और अपरिवर्तनशील है. जबकि परायथार्थवाद का विचार ही असुविधाजनक है, यह हमें आभास कराता है कि न केवल हमारी वास्तविकता एक हद तक कृत्रिम है, बल्कि देखा जाये तो उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है और यह हमें इस असुखद अनुभूति से कभी मुक्त नहीं होने देता.

परायथार्थवाद एक क्रांतिकारी कला शैली है. यथार्थ की पूर्वस्थापित अवधारणा का मिथक सामूहिक विचार नियंत्रण का महत्वपूर्ण औजार रहा है. ‘सामान्य इन्सान’ की पूर्वनिर्धारित परिभाषा भी इसी मिथक से कदम से कदम मिला कर चलती है. रकर द्वारा परायथार्थवाद का एक क्रांतिकारी विचारधारा के रूप में निरूपण और भी अधिक सार्थक हो जाता है जब इसकी समीक्षा इसके सर्वश्रेष्ठ रचनाकारों द्वारा किये गए विविध उपयोगों के आधार पर की जाती है. ऐटवुड, पिंचन, फ़ॉस्टर-वालास ने पारंपरिक सर्वमान्य यथार्थवाद के द्वारा परिभाषित, स्त्रियों के राजनैतिक उत्पीड़न से लेकर उपभोक्तावादवाद द्वारा जबरन थोपी गयी आध्यात्मिक मृत्यु जैसी घटनाओं की सामान्यता और असामान्यता को चुनौती देने के लिए परायथार्थवादी तकनीकों का उपयोग किया.

आज परायथार्थवाद समकालीन साहित्य लगभग सभी मौलिक और चुनौतीपूर्ण कार्यों को आधार प्रदान कर रहा है.  जैसे ‘द इंट्यूशनिस्ट’ में कोलोज़न वाइटहेड्स द्वारा जातीयता को आधार प्रदान करने वाली व्यवस्था का प्रबुद्ध विश्लेषण और ज़ोम्बियों के सर्वनाश पर आधारित उपन्यास ‘ज़ोन वन’ में न्यूयॉर्क टाइम्स के ढब का परायथार्थवादी मोड़. मोनिका बर्न द्वारा वर्णित विकासशील देशों के भविष्य के पार तक की गयी मतिभ्रमकारी सड़क यात्रा और ‘द गर्ल इन द रोड’ में गरीबी और तेज़ रफ़्तार तकनीकी परिवर्तनों के बीच फंसी स्त्रियों की ज़िन्दगी. मैट हेग का सशक्त युवतर उपन्यास, ’द ह्यूमन्स’, जो लोगों को आमंत्रित करता है कि वे मानव जीवन को परग्रहवासियों की दृष्टि से देखें . परायथार्थवाद का अपना ३० वर्ष पुराना इतिहास है लेकिन हम देखेंगे कि आने वाले ३० वर्षों में यह साहित्य की दिशा और दशा भी तय करेगा.
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1. A Scanner Darkly is a BSFA Award-winning 1977 science fiction novel by American writer Philip K. Dick. The semi-autobiographical story includes an extensive portrayal of drug culture and drug use (both recreational and abusive).
2.             A Transrealist Manifesto— Appeared in The Bulletin of the Science Fiction Writers of America, #82, Winter, 1983. (The Transrealist writes about immediate perceptions in a fantastic way- Rudy Rucker)
3.            http://www.tor.com/2012/01/18/what-is-genre-in-the-mainstream-why-should-you-care/ (What is Genre in the Mainstream? Why Should You Care?)  - Ryan Britt 
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अनुराधा सिंह
११ सालों से मुंबई और दूसरे शहरों के झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले साधनहीन छात्रों के लिए रोज़गारपरक शिक्षा हेतु कार्य कर रही हैं. लेखन और अनुवाद भी साथ- साथ.  

पता : बी 1504 , ओबेरॉय स्प्लेंडरजोगेश्वरी ईस्ट मुंबई.   
ईमेल: anuradhadei@yahoo.co.in

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  1. बहुत सुन्दर! परायथार्थवाद की अच्छी अवधारणा! संभवतः यह जादुई यथार्थवाद के निकट है।

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  2. अरुण जी,
    हिंदी में इसकी अधिक चर्चा नहीं हुई है इसलिए इससे लोगों को परिचित कराने के लिए आपको और अनुवादक अनुराधा जी को धन्यवाद । हालाँकि न तो यह २१वीं सदी का है, न पहला । बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही पश्चिम में साहित्य के हलकों में साहित्य की विधा विशेष के सीमित अर्थों में इसका जिक्र होता रहा है ।

    जहाँ तक नए सिद्धांत के अर्थ में किसी विचार को लेने का सवाल है तो नए साहित्य या सौंदर्यशास्त्रीय सिद्धांत के लिए जरूरी होता है कि वह जीवन-रचना-लेखक-पाठक के रिश्तों को पुनःपरिभाषित करे और आस्वाद-व्याख्या-विश्लेषण-मूल्यांकन का सर्वथा नया और मुकम्मल सिद्धांत, सैद्धांतिकी या पद्धति प्रस्तावित करे । वह ज्ञान के किसी एक क्षेत्र या उस क्षेत्र की किसी विशेष विधा के लिए नहीं होता बल्कि विस्तृत स्पैक्ट्रम को अपनी परिधि में लेता है । यथार्थवाद ऐसा ही सिद्धांत है जो प्लेटो से लगाकर आज तक ज्ञान-विज्ञान के व्यापक विमर्शों में रहा है और उसमें लगातार नई-नई अवधारणाएँ सामने आती रही हैं । परायथार्थवाद उसी परंपरा में एक माना जा सकता है ।

    लेकिन कई ऐसे नए सिद्धांत और सैद्धांतिकियाँ २० वीं सदी के अंतिम दशकों में उत्तर-आधुनिक विमर्शों के बाद सामने आई हैं जिनपर हिंदी में एकदम विचार नहीं हुआ है । ये २१ सवीं सदी के नए जगत की नई समस्याओं के उत्तर देने का प्रयास करते हैं और इस अर्थ में पहले के तमाम सिद्धांतों से अलग हैं ।

    यथार्थवाद के इस नए आयाम से हिंदी के साहित्यिकों को परिचित कराने के लिए आप दोनों को एक बार पुनः धन्यवाद ।

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  3. Transrealism के बारे में बताने के लिए धनयाबाद, विश्वस्तर पर हो रही साहित्यिक गतिविधियों के बारे में बताई धन्यवाद, पारायथार्थ वाद के बारे पहली बार जानकारी पाया, उम्मीद है इसी तरह हमारे जानकारी के स्तर को बढ़ाते रहेंगे।

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  4. अपर्णा मनोज8 जन॰ 2017, 1:27:00 pm

    परायथार्थवाद :
    रूडी रकर का परायथार्थवाद का घोषणापत्र:

    1.
    रूडी रकर ने परायथार्थवाद के अपने घोषणा पत्र में विज्ञान कथा की वकालत करते हुए लिखा है कि विज्ञान कथा को हमें अवाँ गार्द साहित्य का एक रूप मानना चाहिए और परायथार्थवाद उसी की एक शैली है। यदि हम रूडी रकर के इस कथन का विखंडन करते हैं तो पाते हैं कि परायथार्थवाद किसी पारिस्थितिकी की उपज मात्र नहीं है, बल्कि साहित्य-विशेष की परम्परा का ही विस्तार है। लेकिन इसके स्वरुप पर गौर करें तो यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि साहित्य की यह धारा आपको पूरी तरह इतिहास और स्मृतियों से विमुख कर देने का प्रयास है। यह आपको नितांत अकेला बना देती है – एक तरह का सिम्युलेशन कि आप इस दुनिया की लैब में अकेले हैं और ठीक आपके सामने जो व्यक्ति बैठा है, वह कब, क्या करेगा? उसकी प्रतिक्रियाएं, उसका व्यवहार क्या होगा- आप बिलकुल नहीं जानते। परिणामस्वरूप आपके और उसके रिश्ते में घोर अजनबीपन पैदा हो जाएगा। जो भी आप दोनों के बीच घटेगा, वह एक आकस्मिक घटना की तरह होगा। समाज में इस तरह आप एक तरह से हिस्टीरिया पैदा कर रहे होते हैं और हर पात्र एक किस्म का न्यूरोटिक प्रोटोगोनिस्ट है।
    मेनीफेस्टो परायथार्थवादी की हिमायत करते हुए इस बात को ख़ास रेखांकित करता है कि परायथार्थवादी अपने तात्कालिक अनुभवों को विलक्षण रूप से परोसता है। सपाट यथार्थवाद की शैली आज चुक चुकी है। वह आज निस्तेज हो चुकी है। कौन आजकल एकरेखीय यथार्थ को पढ़ना चाहता है? फंतासी और विज्ञान कथा के औज़ार यथार्थ को घनीभूत करते हैं। यथा, विज्ञान कथा में जिन बातों को ख़ास तरह से समावेशित किया जाता है, वे हैं – टाइम ट्रेवल, एंटी ग्रेविटी, परस्पर दूसरी दुनियाएं एवं दूरबोध। यथार्थ में इनका घालमेल और तालमेल बिठाया जाता है और एक बिना कथानक का जीता-जागता यथार्थ मायाजाल की तरह हावी हो जाता है। लेकिन आपकी सामूहिक चेतना का क्या होता है? आपकी खुद की चेतना का क्या होता है? आपको काटकर एकदम अलग कर दिया जाता है। आपके सारे आद्यबिम्ब जो आपके रचनात्मक जीवन की मनोवैज्ञनिक विरासत हैं, एक क्षण में ध्वस्त हो जाते हैं और आपके पास जीवन का एक ही विकल्प बचता है – विज्ञान का अकेलापन! स्मृतियों का नाश! रूडी रकर जो तर्क देता है वे भ्रमित करने के लिए काफी हैं। उसके लिए समय में सफ़र घनिष्ठ स्मृति है; गुरुत्वाकर्षण के विपरीत उड़ान एक आह्लाद है; दूसरी दुनियाओं का स्वप्न कई नज़रियों की खुली खिड़कियाँ हैं और दूरबोध यानी टेलीपैथी एक मुकम्मल संवाद। वह इन तत्वों को एक साथ प्रत्यारोपित करके साहित्य के यथार्थ को विस्तार देना चाहता है। पर हमें ध्यान देना चाहिए कि कहीं पूंजीवादी कारक अपना कोई खेल तो नहीं खेल रहे?
    परायथार्थवादी उपन्यासों में लेखक खुद मुख्य पात्र बन जाता है और बाकी जितने भी चरित्र हैं वे सब किसी न किसी रूप में लेखक के चरित्र के विविध रूपों की अनेकार्थक छवियाँ हैं। एक साथ कई डिस्टोर्शन वह जीता है। इससे एक तरह की आत्ममुग्धता का बोध होता है, लेकिन रूडी रकर का तर्क है कि वास्तव में ऐसा है नहीं। यह इन उपन्यासों की अपरिहार्यता है। अपनी तत्काल अनुभूतियों को लेखक पकड़ कर चल रहा है, उन्हीं का कायांतर कर रहा है। उपन्यास जैविक रूप से आगे बढ़ता है –जिसमें सब कुछ एक समान नहीं। विच्छिन जीवन है, कई धुंधलके हैं और किसी तरह का कोई बंधा-बंधाया ख़ाका नहीं है और यही शैली इसे प्रबोधन काल से अब तक चली आ रही शैलियों से अलग करती है। यह शैली किसी तरह के सामंजस्य के मिथक को धाराशायी करती है। कहीं भी कुछ कोहेरेंट नहीं, सब बेतुका है। हम सभी कहीं न कहीं न्योरोटिक हैं। ऊपर से ठीक लगते हुए, पर भीतर बहुत कुछ हमें घेरे हुए है। हम सब असामान्य की गठरी लिए चलते हैं – लेकिन क्या असामान्यता की गठरी लिए हम युगों से जीने को विवश हुए हैं? क्या रूडी रकर को पलटकर उस इतिहास और समय को नहीं देखना चाहिए? क्या सामूहिकता और सामाजिकता का कोई यथार्थ नहीं? टेलीपैथी शब्द ही हमें एकदम अकेला बना देता है। यह आपमें जिज्ञासा के साथ भय भी पैदा करता है और आपको मजबूर करता है कि अपने अपने सलीब आप खुद उठायें –यह उन सारी शव यात्राओं का भी प्रत्याख्यान है जो चार कन्धों की जरूरत पर आज भी टिकी हैं।

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  5. अपर्णा मनोज8 जन॰ 2017, 1:28:00 pm

    २.
    रूडी रकर हर दिमाग को तब तक अपने में अकेला यथार्थ मानता है जब तक कि बाक़ायदा एक झूठ रचकर आप उसे बाध्य न करें कि छ: बजकर तीस मिनिट के समाचार प्रसारण ने लोगों को सूचित किया है कि राष्ट्रपति ने अभी-अभी न्यूक्लीयर युद्ध की धमकी दी है और आप सब भेड़ों की तरह एक जगह जमा होने के लिए मजबूर हैं। मृत्यु के डर से आप पागलों की तरह दौड़ लगा रहे हैं और आने वाले समय के लिए उपभोज्य वस्तुएं जमा करने के लिए मजबूर हैं। जबकि होना यह चाहिए कि आप मज़े से टी.वी बंद करें, मौज से खाएं, घूमने निकल पड़ें और असीम विचारों से अपने को लकदक करें।
    रूडी रकर से मेरा प्रश्न है कि जब आप सीरिया जैसे संकट से गुज़र रहे हों तो आपका यह कुर्रम-कुर्रम फ़लसफ़ा कौन-सी राह प्रशस्त कर सकेगा?

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  6. शुक्रिया अरुण जी। और हाँ, ये एक झटके में सारे विमर्शों को झपट लेता है। मेरी देशजता की यह धज्जियाँ उड़ाता है। मुझे किसी परंपरा से जुड़ने से रोकता है। यह यथार्थवादी लेखन का एकदम उलट है, उसका विस्तार नहीं।

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  7. एक बात और रखना चाहती हूँ। यह मेरी भाषा और मेरे अभिलेखों पर अपरोक्ष रूप से हमला करता है। साईं फाई के बहाने यह मेरे पैरों में बेड़ियां डालता है। मेरी शंका है कि कहीं यह विकास और उत्पादन का नया मिथक तो नहीं रच रहा, जहाँ विज्ञान के बहाने आप वस्तु में बदल जाएंग!

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  8. अनुराधा जी को बधाई। बढ़िया अनुवाद किया है उन्होंने।

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