सहजि सहजि गुन रमैं : पंकज चौधरी

(पंजाबी फ़िल्म चौथी कूट का एक दृश्य) 






















लेखक अपने समय की सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों को आलोचनात्मक ढंग से देखता है, आक्रोश और आकांक्षा को वह उसके सम्यक यथार्थ में ग्रहण करता है और उसका यह बोध ही चेतना के विस्तार में सहायक बनता है.
ऐसी रचनाओं में सम्बोधन और सम्प्रेष्ण पर ख़ास ज़ोर दिया जाता है.
युवा कवि पंकज चौधरी ऐसी ही कविताएँ लिखते हैं.
साहित्य के लिए जो असुविधाजनक है वह उनकी पहली प्राथमिकता है.
वह इस या उस के साथ नहीं खड़े हैं वह मनुष्यता के साथ खड़े हैं.


पंकज चौधरी की कविताएं                                     






हेडलेस पोइट्री

एक श्रोत्रिय ब्राह्मण ने कहा
कि हम श्रोत्रिय जो होते हैं
वे ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाकी ब्राह्मण शूद्र

एक वत्स भूमिहार ने कहा
कि हम वत्स जो होते हैं
वे भूमिहारों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाकी भूमिहार अधम

एक चौहाण राजपूत ने कहा
कि हम चौहाण जो होते हैं
वे राजपूतों में सबसे बड़े होते हैं
और बाकी राजपूत नीच

एक अम्बष्ठ कायस्थ ने कहा 
कि हम अम्बष्ठ जो होते हैं
वे कायस्थों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाकी कायस्थ निम्न

एक भगत कलबार ने कहा 
कि हम भगत जो होते हैं
वे कलबारों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाकी कलबार अंत्यज

एक कृष्णायत यादव ने कहा
की हम कृष्णायत जो होते हैं
वे यादवों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाकी यादव कमीन

एक अवधिया कुर्मी ने कहा
कि हम अवधिया जो होते हैं
वे कुर्मियों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाकी कुर्मी चांडाल

एक मौर्य कोयरी ने कहा
कि हम मौर्य जो होते हैं
वे कोयरियों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाकी कोयरी अज्ञात-कुलहीन

एक बालियांन जाट ने कहा
कि हम बालियान जो होते हैं
वे बालियानों में सर्वोच्च कुलोत्पन्न होते हैं
और बाकी जाट शुद्रातिशूद्र

एक नागर गुर्जर ने कहा
की हम नागर जो होते हैं
वे गुर्जरों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाकी गुर्जर अछूत

एक रविदासिये चमार ने कहा
कि हम रविदासिये जो होते हैं
वे चमारों में ब्राह्मण होते हैं
और बाकी चमार अश्पृश्य

एक मधेशी पासवान ने कहा
कि हम मधेशी जो होते हैं
वे पासवानों में राजपूत होते हैं
और बाकी पासवान पिछड़े

एक नावरिया खटिक ने कहा
कि हम नावरिया जो होते हैं
वे खटिकों के राजा होते हैं
और बाकी खटिक उनकी प्रजा

एक किस्कू आदिवासी ने कहा
की हम किस्कू जो होते हैं
वे आदिवासियों में शेर होते हैं
और बाकी किस्कू गीदड़


जिस देश को
इतनी जातियों और उपजातियों में
बांट दिया गया हो
और जहां पर
एक ही जाति के कुछ लोग
अपने को सर्वश्रेष्ठ और सबसे बड़ा बताते हों
और अपने ही भाई-बंधुओं को अधम और नीच
उसके लिए
भारत क्या ख़ाक सर्वश्रेष्ठ और सबसे बड़ा होगा!




संगठन

ब्राह्मण
ब्राह्मण के नाम पर
हत्यारे को नायक कह देता है

भूमिहार
भूमिहार के नाम पर
बूचर को दूसरा गांधी कह देता है

राजपूत
राजपूत के नाम पर
बलात्कारी को क्लीन चिट देने लगता है

कायस्थ
कायस्थ के नाम पर
भ्रष्टाचारी को संत कहने लगता है

बनिया
बनिया के नाम पर
यत्र-तत्र मूतने लगता है

जाट
जाटों के नाम पर
खापों को न्यायसंगत ठहराने लगता है

गुर्जर
गुर्जर के नाम पर
सर फोड़ देता है

यादव
यादव के नाम पर
अपराधियों की दुहाई देने लगता है

कुर्मी
कुर्मी के नाम पर
बस्तियां उजाड़ देता है

कोयरी
कोयरी के नाम पर
खून का प्यासा हो जाता है

चमार
चमार के नाम पर
अछूतानंद को दलितों का सबसे बड़ा कवि मानने लगता है

खटिक
खटिक के नाम पर
उदितराज को सबसे बड़ा दलित नेता मानता है

पासवान
पासवान के नाम पर
पासवान को एकमुश्त वोट दे देता है

वाल्मीकि
वाल्मीकि के नाम पर
वाल्मीकियों को ही असली दलित मानता है

और मीणा
मीणा के नाम पर
आदिवासियों का सारा डकार जाता है

अब सवाल यह पैदा होता है
कि क्या भारत में
जाति से भी बड़ा कोई संगठन है?


  


किस-किस से लड़ोगे यहां

किस-किस से लड़ोगे यहां
कोई यहां ब्राह़मणवादी है तो
कोई यहां राजपूतवादी
कोई यहां कायस्थववादी है तो
कोई यहां कोयरीवादी, कुरमीवादी
कोई यहां यादववादी है तो
कोई यहां बनियावादी
कोई यहां जाटववादी है तो
कोई यहां वाल्मीदकिवादी, खटिकवादी
कोई यहां हिन्दूदवादी है तो
कोई यहां मुस्लिमवादी, ईसाईवादी
कोई यहां पूंजीवादी है तो
कोई यहां इगोवादी
कोई यहां आभिजात्यीवादी है तो
कोई यहां कलावादी
कोई यहां बिहारवादी है तो
कोई यहां यूपीवादी, एमपीवादी
कोई यहां अवसरवादी है तो
कोई यहां तलवावादी
कोई यहां बकवादी है तो
कोई यहां इस्तेमालवादी
कोई यहां अफसरवादी है तो
कोई यहां कुलीनवादी, दयावादी

सब यहां आदमी के वेष में वादी है
और वाद का कवच ओढ रखा है
इंसानियत का ताज गिरा रखा है
आदमी बने भी तो बने कैसे
सब ने ऐसे-ऐसे वादों का मल खा रखा है.



लड़ना जरूरी है

लड़ो...
क्योंकि लोगों ने लड़ना छोड़ दिया है

लड़ो...
क्योंकि बगैर लड़े कुछ नहीं मिलता

लड़ो...
क्योंकि बगैर लड़े घुट-घुटकर जीना पड़ता है

लड़ो...
क्योंकि अभी तक तुम्हें जो कुछ भी मिला है
लड़कर ही मिला है

लड़ो...
क्योंकि लड़ने वाले का इंतजार होता है

लड़ो...
क्योंकि नहीं लड़ने से ही जंगलराज कायम होता है

लड़ो...
क्योंकि बगैर लड़े इंसान पिटठू बन जाता है

लड़ो...
क्योंकि जो लड़ेगा वही बचेगा

लड़ो...
क्योंकि बगैर लड़े इंसान को अंधा, बहरा, गूंगा और लूला माना जाता है

लड़ो...
क्योंकि नहीं लड़ोगे तो लोग तुम्हें खा लेंगे

लड़ो...
क्योंकि बगैर लड़े अग्नि स्वर्ग से पृथ्वी पर नहीं लाई जाती

लड़ो...
क्योंकि तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ भी नहीं

लड़ो...
क्योंकि पाने के लिए ही तुम्हारे पास सारा जहान है.



मां

मां और बच्चा के बीच में
यह खेल
बहुत देर से चल रहा है

मां बार-बार अपनी ओढ़नी को
छाती पर संभालती है
लेकिन बच्चा  है कि हरेक बार
ओढ़नी को छाती पर से गिरा देता है
और लगता है वह खिल-खिलाकर हंसने
मां बस बच्चा को
आंख भर दिखा देती है

बच्चा कई शरारतों के बीच
एक शरारत और कर बैठता है
इस बार वह
अपनी मां के बाल को
जोर से तिर देता है
मां थोड़ा-सा चिंघाड़ उठती है
और हल्की-सी चपत
अपने लाडले को लगा देती है
बच्चा रोने का नाटक शुरू करता है
अपने लाडले को रोता देख
मां की आंखों में आंसू छलछला आते हैं
और लगती है वह
अपने लाडले को ताबड़तोड़ चूमने.



कविता में

कविता में
स्त्रीवादियों ने
स्त्री को ढूंढा

दलित स्त्रीवादियों ने
दलित स्त्री को ढूंढा

आदिवासी वादियों ने
आदिवासी को ढूंढा

दलितों ने
दलित को ढूंढा

ओबीसी वादियों ने
ओबीसी को ढूंढा

कम्युनिस्टों ने
मार्क्स को ढूंढा

कांग्रेसियों ने
गांधी-नेहरु को ढूंढा

संघियों-भाजपाइयों ने
राम को ढूंढा

लेकिन कविता में
कविता को किसी ने नहीं ढूंढा.

______________________________ 

पंकज चौधरी
सितंबर, 1976 कर्णपुर, सुपौल (बिहार

प्रकाशन : कविता संग्रह 'उस देश की कथा' तथा  पिछड़ा वर्ग और आंबेडकर का न्याय दर्शन (संपादित)
बिहार राष्ट्रंभाषा परिषद का 'युवा साहित्यकार सम्मान', पटना पुस्तक मेला का 'विद्यापति सम्मान' और प्रगतिशील लेखक संघ का 'कवि कन्हैोया स्मृति सम्मान'.
कुछ कविताएं गुजराती और अंग्रेजी में अनूदित

कार्यकारी संपादक, युद्धरत आम आदमी, नई दिल्ली
348/4, दूसरी मंजिल गोविंदपुरी
कालकाजी, नई दिल्ली/ मोबाइल नंबर-9910744984 

13/Post a Comment/Comments

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  1. जातिवाद को केंद्र में रख कर रची गयी आक्रामक तेवर वाली ये कवितायें पहले पाठ में ही दिलोदिमाग को तिलमिला देती हैं। बस पंकज भाई से यही उम्मीद है कि उनकी कवितायें इस पैटर्न का स्थायी शिकार न हो जाएँ क्योंकि कविता का फ़लक बहुत बड़ा है। शुभकामनाओं सहित।

    -राहुल राजेश, कोलकाता।

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  2. बेहतरीन कविताएँ । समाज और समय की पड़ताल करती । पहली बार पंकज जी की कविताएं पढ़ी हैं । समालोचन का आभार ।।

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  3. बेशक यह कविताएं दलित चेतना पर अपनी बात कहती हैं पर इनका कहन बेहद पुराना है शैली मानो पैराग्राफ/पंक्तियों को बार-बार दुहराने जैसी है पहली कविता में कुछ अधिक पैरा हो गए हैं पाठक पहले के दो पैरा पढ़ कर बाकी के बारे में अनुमान लगाता है कविता में ऐसा दुहराव निराश करता है यद्यपि पहली कविता का अंतिम भाग प्रभावित करता है. बाद की कविताओ में कुछ मिथ्याओ को तथ्यात्मक रूप से प्रचारित किया गया है जैसे की खटिकों के नेता उदितराज हैं

    वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है संभवतः वह एक कवि के रूप में खटीक जाति की मानसिकता का अंदाजा लगाने में चूक कर गए... चूँकि मैं खुद खटीक हूँ तो जानता हूँ कि ऐसा कुछ भी नहीं है!

    इन असहमतियों के बाद भी कवि की दलित चेतना प्रभावित करती है जिसके लिए उन्हें बधाई दी जा सकती है

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  4. कविताएँ बढ़िया हैं ! ऐसी कविताएँ कोई लिखता भी है ?

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  5. संगठन कविता मुझे खास तौर पर पसंद है। इसके साथ समाजशास्त्र और इतिहास की मजबूती है। बधाई पंकज भाई।

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  6. बहुत ही अच्छी कविताएं पंकज भाई को ढेर सारी बधाइयां

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  7. पंकजचौधरी की कविताएँ भारत में मौजूद जाति व्यवस्था पर पुरजोर ढंग से चोट करती हैं। जहाँ जाति के नाम पर समाज बंटा हो और अपने अपने जाति से आने वाले को ही नायक बनाने का चलन बनता जाये ऐसे में इनकी कविताएँ समाज को आगाह करती हैं कि हम किस दिशा में चल पड़े हैं।

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  8. पंकजचौधरी की कविताएँ भारत में मौजूद जाति व्यवस्था पर पुरजोर ढंग से चोट करती हैं। जहाँ जाति के नाम पर समाज बंटा हो और अपने अपने जाति से आने वाले को ही नायक बनाने का चलन बनता जाये ऐसे में इनकी कविताएँ समाज को आगाह करती हैं कि हम किस दिशा में चल पड़े हैं।

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  9. ज़रुरत से बहुत ज़्यादा विवरणात्मक तो हैं,मगर अच्छी हैं.'हेडलेस पोएट्री'थोड़ी कम...'संगठन' थोड़ी ज़्यादा.

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  10. समय-समाज-साहित्य से हमें जोड़े रखने के लिए 'समालोचन' का आभार !

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  11. पंकज चौधरी की कविताएं दुर्व्यवस्था की आंखों से आंखें मिलाकर संवाद करती हैं। उनकी कविताओं की खासियत यह है कि कविताओं की हर पंक्ति एक विचारोत्तेजक मुद्दे को उठाती प्रतीत होती है। हर पंक्ति में झकझोर देने वाले शब्दों को पिरो देना कवि के लिए आसान नहीं होता लेकिन पंकज इसमें माहिर हैं। उनकी कविताओं में शोषित इंसान का विद्रोह अंतर्मन को झकझोर देता है।
    यहां प्रस्तुत कविताएं भी बेहद प्रभावशाली हैं।
    ऐसे ही लिखते रहिए पंकज साहब।
    -गुलज़ार हुसैन

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  12. हिंदी यानी देव नागरी में ही कहूँगी, लिखूंगी टिपण्णी अपनी, इस वजह से देर लगाई, लेकिन अच्छा रहा, ज़्यादा गुनती धुनती रही इन कविताओं को, हेडलेस पोएट्री को सबसे ज़्यादा, ---कितना बड़ा है हमारी अस्मिता में जाति का हिस्सा, और क्या हमारी बगवातें कामयाब होती हैं? मैंने भूमिहार होकर एक कायस्थ से शादी की, टिकने नही दी गयी, पुरानी बात, तलाक को बीहड़ बनाने जर्मन पहुंचे----आपकी दूसरी कविता संगठन भी उतनी ही अद्भुत--मैंने इन कविताओं का प्रेस क्लब की कवि गोष्ठी में भी ज़िक्र किया---उम्दा कवितायेँ सभी---लड़ो क्योंकि---हज़ार कारण---अच्छी, लेकिन सबसे मुकम्मल आज के पठन की राजनीति पर---जो केवल कुछ नया, अलग होने पर कहती है, आत्मसात नहीं, आसपास का होने पर कहती है, परिचित है---सशक्त कविताओं के लिए बधाई

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  13. Ramesh Gupta बहुत-बहुत बधाई अनुज। आज हिन्दी कविता में ऐसी ही बेबाकी और साहस की जरूरत है; जो हमारे दौर के समाज एवं व्यक्ति के पाखंड एवं छद्म को सीधे-सीधे उजागर कर सकें। तुम अपने विचारों एवं लेखनी को ऐसे ही धार देते रहो-देखना एक दिन यह दुनिया तुम्हारी तेजस्विता एवं तेवर को सलाम करेगी। मेरी समस्त शुभकामनाएँ हमेशा तुम्हारे साथ हैं।

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