(पेंटिग : कैंसर ; melissa-anne-carroll)
मृदुला शुक्ला का पहला कविता संग्रह ' उम्मीदों के पाँव भारी हैं ' बोधि प्रकाशन से २०१४ में प्रकाशित है.
रचनात्मक लेखन में वह इधर लगातार सक्रिय हैं.
कैंसर पर केन्द्रित इन सधी हुई कविताओं
में मृदला ने इस बीमारी को तरह-तरह से देखा है.
इस त्रासद रोग के दारुण प्रभावों की मार्मिकता बेचैन करती है.
१० कविताएँ
मृदुला शुक्ला
की कविताएँ
हम चूहे ही साबित हुए है अब तक.
वो देखती है
गहरे स्वप्न में
करोंदे सी दो लल्छहूँ गांठे
जो द्विगुणित बहुगुणित होते हुए
पसर जायेंगी पूरी देह में
विच्छेदन के बाद वहां बने ब्लैक होल में
एक - एक कर समा जा रहे हैं
सुख दाम्पत्य
अंत में जीवन भी
वो चौंक कर जागती है
धीरे से खिसका देती है है
पयोधरों पर रखे प्रिय के हाथ
बालकनी में बैठ ताकती है
सितारों के बीच
अपने लिए भी खोजती टिमटटिमाती
हुई सी एक जगह
मकान बनाने के लिए
जमीन चुनने के दिन याद आते हैं.
पैसे जमा करवाते हुए
पहले वो जमा करता है
पांच सौ के नोट की गड्डी
फिर सौ की
फिर दस और बीस रूपये के नोट
अंत में
काउंटर खनक उठता है सिक्के से
स्ट्रेट बालों वाली मेबेलीन की लिपस्टिक
लगाए रिसेप्शन पर बैठी तन्वंगी
कांपते हांथो से गिनती है वो सिक्के
कहना चाहती है
इसे आप रख लो
ऐसा
आज चौथी बार हुआ है सुबह से
उसने सी लिया है मुहं
कलेजा हो गया है
पत्थर का.
__________________
mridulashukla11@gmail.c
कैंसर
1.
शिकार को कस कर
दबोचने के बाद
वो नहीं करता परवाह
एक- एक कर टूटते जाते हैं उसके लिम्ब
असहाय जीव में अपने दांत गड़ाए
केकड़ा
अंतिम यात्रा तक जाता है साथ
मेरी ज्ञात भाषाओं में उसे
कर्कट, कर्क या कैंसर कहा गया.
दबोचने के बाद
वो नहीं करता परवाह
एक- एक कर टूटते जाते हैं उसके लिम्ब
असहाय जीव में अपने दांत गड़ाए
केकड़ा
अंतिम यात्रा तक जाता है साथ
मेरी ज्ञात भाषाओं में उसे
कर्कट, कर्क या कैंसर कहा गया.
2.
कैंसर केकड़ा न होता
शायद
होता एक बिल्ली
आता दबे पांव चुपके से
कई बार झपट्टा मारने पर भी
बाल-बाल
बच जाता है शिकार
मगर वो बरसों बरस
रहता प्रतीक्षा में
अपने पैने पंजे साधे
कैंसर केकड़ा नहीं
चालाक बिल्ली है
शायद
होता एक बिल्ली
आता दबे पांव चुपके से
कई बार झपट्टा मारने पर भी
बाल-बाल
बच जाता है शिकार
मगर वो बरसों बरस
रहता प्रतीक्षा में
अपने पैने पंजे साधे
कैंसर केकड़ा नहीं
चालाक बिल्ली है
हम चूहे ही साबित हुए है अब तक.
3.
पतली सिरिंज के सहारे
रगों में उतर
नसों में दौड़ते
केकड़े से लुका छिपी है
कीमोथेरेपी
जिंदगी की बाट जोहते
किश्तों में मिली मौत है
कीमोथेरेपी.
रगों में उतर
नसों में दौड़ते
केकड़े से लुका छिपी है
कीमोथेरेपी
जिंदगी की बाट जोहते
किश्तों में मिली मौत है
कीमोथेरेपी.
4.
अस्पतालों के चक्कर काटते पिता
थोड़ी - थोड़ी देर में
तर कर लेते हैं अपना गला
घर से लायी पानी की बोतल से
बायोप्सी की रिपोर्ट के इंतज़ार में
उतारते हुए अपने होंठो की पपड़ी
नोच लेते हैं थोडा मांस भी
बेखबर बैठे रहते हैं
ठुड्डी तक बह आये
रक्त से.
थोड़ी - थोड़ी देर में
तर कर लेते हैं अपना गला
घर से लायी पानी की बोतल से
बायोप्सी की रिपोर्ट के इंतज़ार में
उतारते हुए अपने होंठो की पपड़ी
नोच लेते हैं थोडा मांस भी
बेखबर बैठे रहते हैं
ठुड्डी तक बह आये
रक्त से.
5.
बहन
घर ऑफिस निबटा
पति बच्चो को सुला
देर रात फोन लगाती है माँ को
दोनों बेतुकी बातों पर हंसती हैं
हँसना आश्वस्ति है
सब ठीक है, सब ठीक होगा.
घर ऑफिस निबटा
पति बच्चो को सुला
देर रात फोन लगाती है माँ को
दोनों बेतुकी बातों पर हंसती हैं
हँसना आश्वस्ति है
सब ठीक है, सब ठीक होगा.
6.
दादी
दिन भर बुदबुदाती है
महामृतुन्जय मन्त्र
नीद में भी करवट लेने पर आती हैं आवाज
"मृत्योर्माम्रतम भव "
दिन भर बुदबुदाती है
महामृतुन्जय मन्त्र
नीद में भी करवट लेने पर आती हैं आवाज
"मृत्योर्माम्रतम भव "
7.अभिसार के क्षणों के सुख को आधा कर
वो देखती है
गहरे स्वप्न में
करोंदे सी दो लल्छहूँ गांठे
जो द्विगुणित बहुगुणित होते हुए
पसर जायेंगी पूरी देह में
विच्छेदन के बाद वहां बने ब्लैक होल में
एक - एक कर समा जा रहे हैं
सुख दाम्पत्य
अंत में जीवन भी
वो चौंक कर जागती है
धीरे से खिसका देती है है
पयोधरों पर रखे प्रिय के हाथ
बालकनी में बैठ ताकती है
सितारों के बीच
अपने लिए भी खोजती टिमटटिमाती
हुई सी एक जगह
मकान बनाने के लिए
जमीन चुनने के दिन याद आते हैं.
8.
बेड नम्बर आठ की पुष्पा
कीमो से गंजे हुए सर पर भी टीक लेती है
सिन्दूर
अभी भी सुहागन मरने की इच्छा के जीव ने
कीमो से गंजे हुए सर पर भी टीक लेती है
सिन्दूर
अभी भी सुहागन मरने की इच्छा के जीव ने
उसे बचाए रखा है .
९.
अचानक से घर पर ख़त्म हो जाती है
अड्डेबाजी
सब् जानते हैं साथ छूने खाने से
नहीं आता केकड़ा पास
अब तक तो कीमो भी नहीं शुरू हुई है
मगर एहतियात फिर भी जरुरी है
बस वो बचपन का पगला सा दोस्त
आता है बिला नागा
बहुत देर बैठा रहता है चुपचाप
थाम कर हाथ
गहरे अँधेरे में
माँ अचानक आकर जला देती हैं
बत्ती .
अड्डेबाजी
सब् जानते हैं साथ छूने खाने से
नहीं आता केकड़ा पास
अब तक तो कीमो भी नहीं शुरू हुई है
मगर एहतियात फिर भी जरुरी है
बस वो बचपन का पगला सा दोस्त
आता है बिला नागा
बहुत देर बैठा रहता है चुपचाप
थाम कर हाथ
गहरे अँधेरे में
माँ अचानक आकर जला देती हैं
बत्ती .
ओपरेशन के लिए
१०.
पैसे जमा करवाते हुए
पहले वो जमा करता है
पांच सौ के नोट की गड्डी
फिर सौ की
फिर दस और बीस रूपये के नोट
अंत में
काउंटर खनक उठता है सिक्के से
स्ट्रेट बालों वाली मेबेलीन की लिपस्टिक
लगाए रिसेप्शन पर बैठी तन्वंगी
कांपते हांथो से गिनती है वो सिक्के
कहना चाहती है
इसे आप रख लो
ऐसा
आज चौथी बार हुआ है सुबह से
उसने सी लिया है मुहं
कलेजा हो गया है
पत्थर का.
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mridulashukla11@gmail.c
आह ही निकलती है वाह नही कह सकती ...
जवाब देंहटाएंमार्मिक रचा... सत्य है हँसना आश्वस्ति है सब ठीक है सब ठीक रहेगा
सभी कवितायें कैंसर के दर्द को बयां करती हैं पर पहली, पाँचवी, सातवीं, आठवीं और नौवीं कवितायें बेहद मार्मिक हैं। कविताओं में कुछ मुद्रण त्रुटियाँ रह गई हैं, जिन्हें एक बार दुबारा पढ़कर ठीक कर ली जाए तो बेहतर।
जवाब देंहटाएं-राहुल राजेश, कोलकाता ।
ये बेरंग होते जीवन की कितनी उदास कविता है यार �� इसे धीरे धीरे पढ़ते हुए धीरे धीरे मरा जा सकता है । ( एक ताकत वाली बेलौस मुस्कराहट इसे हरा भी सकती है ) आपको जोर से झप्पी पहुचे।
जवाब देंहटाएंइस कविता के पाठ का भी साक्षी रहा हूँ । मास्टरपीस। आज इस बीमारी का प्रभाव इतना अधिक हो गया है कि लगभग हम सब लोगों ने अपने किसी नजदीकी को इसकी गिरफ्त में आते देखा है । अक्सर समझ ने नहीं आता कि उसे कैसे दिलासा दिया जाए । शब्द चुके जाते हैं । गला रूंधने लगता है । लौकिक पारलौकिक सत्ताओं पर से भरोसा उठने लगता है । और अधिकतर मामलों में हम हाथ मलते रह जाते हैं ।
जवाब देंहटाएंऐसे विषय को कविता में लाना और उसे इतने संवेदनशील तरीके से व्यक्त करना आसान नहीं है । मृदुला जी ने यह काम किया है । उन्हें हमारा सलाम पहुंचे ।
मेरी ज़िंदगी का कुछ हिस्सा जैसे दोहराया जा रहा हो , दर्द फिर फफक पड़ा बहुत ही सटीक चित्रण लेखिका को बधाई
जवाब देंहटाएंमृदुला जी को मेरी बहुत बहुत शुभ कामनाएं। बहुत अच्छी कविताएँ है.
जवाब देंहटाएं...
इन कविताओं ने मेरी दोस्त और मराठी कवयित्री अरुणा देशमुख की यादों को ताजा कर दिया। अरुणा भी केंसर से ग्रस्त थी. लेकिन उसकी उम्मीद तारीफ़े काबिल थी. बहुत हिम्मत से वह केंसर के साथ लड़ी. अपनी जिजीविषा अंतिम क्षणों तक बरक़रार रखती गयी. वैसे तो वह मराठी में समीक्षा लिखती थी. उसकी समीक्षा की किताबें भी प्रकाशित हो चुकी थी. कविता की बहुत अच्छी समझ उस में थी. लेकिन केंसर से लड़ाई के अंतिम दिनों में मानो उसे कविता के कोंपल फूट गए. एक आवेग में उस ने पूरा संग्रह लिख दिया. बहुत ही सटीक कविताएँ थी. अपने जीते जी आग्रहपूर्वक उन कविताओं का प्रकाशन भी किया. उसके 'केंसरच्या कविता' इस संग्रह के प्रकाशन के लिए मुझे हक़ से बुलाया। मैं भी अपनी दोस्ती का और उसकी कविता का लिहाज रखने के लिए गया और उसकी कविता के बारे में अपनी बात रखी. बहुत खुश थी वो उस दिन. नागपुर के विदर्भ साहित्य संघ का पूरा सभागार भरा हुआ था. केंसर सोसायटी के कई लोग आये थे. मराठी के कई जाने माने साहित्यकार भी सभागार में उपस्थित थे। बहुत हिम्मत के साथ उसने उस प्रसंग को निभाया. मानो उसका एक सपना उस वक्त पूरा हो रहा था. मैं सोच ही रहा था के उस के कविता संग्रह के बारे में कहीं कुछ लिखू तो अचानक खबर आयी की अरुणा नहीं रही. बाद में कुछ भी लिख नहीं पाया. बहुत गहराई तक सोचता हूँ, उन अंतिम क्षणों की लड़ाई में कविता की संगत ने उसे थोड़ी सी तो राहत दी होगी।
Mitr Mridula की इन कविताओं से गुजरते हुए मन उदास हो गया.. :( कैंसर जैसे राजरोग को बहुत नज़दीक से देखा है जब मेरा छोटा भाई मात्र 35 बरस की उम्र में नहीं रहा, फिर मेरे स्वसुर जी.. :( इस कड़वे यथार्थ को कविता में अनामिका जी भी लायी थीं, उसके पहले और भी लोग। कहते हैं कि किसी भी कला का चरम 'मृत्यु' से गुजरकर मुकम्मल होता है, इस विषय पर कुछ भी पढ़ते हुए उदय प्रकाश जी कहानियां 'नेलकटर', 'दरियाई घोडा' भी याद आती हैं । मृदुला की इन कविताओं को उनसे सुन चुके हैं हम कई मित्र, इन कविताओं की तासीर में अजब सी उदासी के साथ डर है जो लगातार पीछा करता है।
जवाब देंहटाएंअच्छी लगीं कविताएँ । एक मित्र को तिल तिल एक भयावह मौत को पाते देखा है । कुछ कविताएँ अपनी ऐंद्रिकता में उस पीड़ा के आसपास मंडराती हैं ।
जवाब देंहटाएंमेरे लिए इन कविताओं से गुजरना ठीक वैसा है जैसे किसी अपने को दर्द की बेचैनी को सहते देखना।ये कविताऐं कथ्य और शिल्प में बेजोड़ हैं।बधाई मृदुला दी.....
जवाब देंहटाएंKuchh din andar gahare se bechain rahunga...
जवाब देंहटाएंBahut bechain.
Mridula Madam Ji ki samvedna ko mera Salaam !! Shukriya samalochan.
- Kamal Jeet Choudhary .
मार्मिक रचनाएँ
जवाब देंहटाएंजीवन की एक तल्ख़ सच्चाई को बयां करती बेहद मार्मिक रचनाएँ ।
जवाब देंहटाएंअत्यंत मर्मस्पर्शी कवितायेँ। बार बार पढ़ने के बाद भीतर पैठ सी गयी हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत बधाई।
डर लगता है इन्हें पढ़ते हुए, बहुत नजदीक से देखा है, और जीतने वालों को भी
जवाब देंहटाएंयूं मृदुला जी से पूर्व परिचित हूं किन्तु औपचारिक कमोवेश ब्लॉग "समालोचन" के संपादक श्री अरूण देव का आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होने हमारे समकालीन समय की मृदुला शुक्ल जी की कविताओं को स्थान दिया।मृदुला जी के भाषिक कौशल से पूर्व विज्ञ रहा हूं, हां यह अलग बात जल्दी प्रतिक्रिया दर्ज न की गयी उनकी किसी भी कविता पर.
जवाब देंहटाएं"कैंसर" जैसा विषय चयन करना ही मानवीय संवेदना को और संपदित करता जाता है।कैंसर विषय पर वैविध्य प्रस्तुत करते हुये इन्होने इस कैंसर शब्द पर कई छोटे कविता लिखी है।सभी का अर्थबोध, अस्वादन पाठकीय मन पर अलग अलग भाव जनित करता है।प्रत्येक रचना दूसरी रचना से ठीक दूजा भाव लिये है। रचना में जरा मरण की कशमकश, जीवन का मोह।
शिकार के कस कर दबोचने के बाद/वो नहीं करता परवाह
एक एक कर टूटते जाते हैं उसके लिम्ब.....
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बेहद गंभीर अर्थ साधती है।जीवन की अन्तिम परिणति और मृत्यु के बीच का फासला सहज दीखता है।
कविता में यहां पैर शब्द की भरपाई अर्थवत्ता देते पग शब्द से की जा सकती थी। "लिम्ब" शब्द का प्रयोग कविताई प्रवाह को सशक्त करता दीखता है।ये शिकंजे में कसे गये शिकार के साथ इसे साधने के दौरान छटपटाहट को व्यक्त करता है, तब तक जब तक शिकार दम ना तोड़ दें और शिकारी श्लथ ना पड़ जाये।
एक हद तक कैंसर बीमारी में भी तो पीड़ित को ऐसी ही मरने से पूर्व जीने की लालसा या छटपटाहट को महसूसा जा सकता एक अन्य कविता तुलनात्मक रूप में इनकी दूसरी में भी देख पाता हूं।कविता में भाषागत शिल्प प्रयोग व प्रतीक चयन पाठक को पीड़ित के दर्द से सहानुभूति कराता चलता है।इनकी एक अन्य कविता कैंसर जैसी दुरूह बीमारी के यथार्थ को हू ब हू बताती है।कई छोटी किन्तु कारूण्य भाव से ओत प्रोत है।
कैंसर की बीमारी के समय शरीर का क्षय, बांलों का गिरना, शरीर की बायोप्सी, कीमोथैरेपी पर केन्द्रित अन्य कवितायें भी मन को भीतर तक द्रवित कर जाती है।एक कविता में दादी को कैंसर पीड़ित होने के समय पुराने संस्कार परम्परा निभात देखनेे का वर्णन जिन्दगी की महत्ता, उसके प्रति जद्दोजेहद के विषयक चिंतन करने को विवश करता है।
मृदुला जी स्तरीय कविताओं के लेखन हेतु बधाई।
कैंसर केंकड़ा नहीं बिल्ली है जो दबे पाँव आती है ...यह शब्द ऐसा है की सुनते ही दिमाग शून्य और ह्रदय धडकना भूल जाता है |मृदुला जी की यह पुस्तक पढ़ी है ,दर्द को लिखना सहज नहीं होता लेकिन इन कविताओं में संवेद पूर्ण सधे हुए शिल्प के साथ पाठक से रूबरू हो रहा है |अत्यंत मर्मस्पर्शी कवितायें है ,शुभकामनाएं मृदुला जी |
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