हिंदी दिवस पर (४) : हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न – भाग २ : संजय जोठे



भाषाएँ समाज की निर्मिति होती हैं. 
भाषाओँ की दशा–दिशा को समझने के लिए समाज भी परखा जाता है. क्या हिंदी की वर्तमान स्थिति का सम्बन्ध उसके अपने बोलने वालों की संस्कृति, सामजिक-मनोवैज्ञानिक-आर्थिक  स्थिति से नहीं है ? भाषा सम्प्रेष्ण का माध्यम होने के साथ ही संस्कृति की वाहक भी होती है. 

हिंदी दिवस पर इस संवाद की यह चौथी कड़ी आपके लिए –



हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न – भाग २                                
संजय जोठे.







हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न – इस विषय पर मेरे पहले लेख की संरचना ही मैंने ऐसी बुनी थी जिसमे भारत के मौलिक मनोविज्ञान में बसी संस्कृति, सभ्यता, शुचिता, विकास और समन्वय की धारणा और उसकी कमजोरी को उजागर किया जा सके. इसका शीर्षक भी मैंने इसी तरह रचा था कि सनातन शब्द को एक समस्या की तरह सामने रखा जा सके. यह बहुत जरुरी है कि भारत को या भारत की भाषाओँ को इन शब्दों और इन रुझानों के साथ रखकर देखा जाये. भाषा एक गरीब और कमजोर विधा है जिसपर अन्य शक्तियों के कुकर्मों का ठीकरा फोड़ा जाता है. हिंदी की दरिद्रता के या इंग्लिश की समृद्धि के विमर्श भी इसी तरह है. न तो ये दरिद्रता भाषा की पैदा की हुई है न वो समृद्धि भाषा के द्वारा पैदा की हुई है. भाषा सिर्फ वह पर्दा है जिस पर किन्हीं अन्य शक्तियों के प्रोजेक्टर कुछ कुछ प्रोजेक्ट करते रहते हैं. आइये उन प्रोजेक्टरों की खबर लेते हैं.

असल में किसी भी देश की भाषा सहित उसकी सफलता असफलता का प्रश्न उस देश की संस्कृति और समाज मनोविज्ञान की सफलता असफलता का प्रश्न होता है. उस देश के सांस्कृतिक आग्रहों के गर्भ से ही उसकी भाषा या सृजन का भविष्य निर्देशित होता है. भाषा को सिर्फ भाषा के प्रश्न की तरह देखेंगे तो आप एक छोटे से विस्तार में कुछ भी सिद्ध या असिद्ध कर सकते हैं. भाषा की पाचन क्षमता और ज्ञान विज्ञान का सृजन कर पाने की क्षमता पर प्रश्न उठाने की प्रवृत्ति को भाषा की निंदा भी माना जा सकता है जैसा कि अधिकाँश लोग मानते हैं. हालाँकि यह बहुत स्पष्ट है कि मैं हिंदी की निंदा नहीं बल्कि उसकी और उसको निर्देशित करने वाली बड़ी शक्तियों की क्षमता की समालोचना कुछ ऐसे विस्तार में करना चाह रहा हूँ जो इस भाषा और उससे जुडी संस्कृति के अतीत वर्तमान और भविष्य पर गंभीर प्रश्नों को उजागर करता है.

इस विस्तार में जाए बिना अगर हम भाषा को राजभाषा या राष्ट्रभाषा की तरह बढ़ावा देने के एकांगी उद्देश्य से ही विचार करते रहेंगे तो लगभग उन्ही निष्कर्षों तक पहुंचेगे जहां तक राजभाषा उत्थान की परियोजना चलाने वाली चिंताएं पहुँचती रही हैं. हालाँकि इस परियोजना बुद्धि के वे निष्कर्ष और उनके प्रस्थान बिंदु भी बहुत महत्वपूर्ण हैं. उनका यथोचित सम्मान होना चाहिए. लेकिन यह ध्यान में रखकर सम्मान होना चाहिए कि इस सम्मान के मूल में हिंदी को राजभाषा या राष्ट्रभाषा की तरह “बढ़ावा देने की परियोजना का आग्रह” छुपा है. यह आग्रह भी महान है, इसका भी सम्मान होना चाहिए. लेकिन पुनः ध्यान में रखा जाए कि इस आग्रह की परिधि में जो एकायामी विमर्श आ रहा है वही मेरे द्वारा की गयी हिंदी की “समालोचना” को “हिंदी का विरोध और अंग्रेजी का समर्थन” बतला रहा है. यह आरोप एकदम गलत है और दुराग्रही है. इस आरोप के ठीक विपरीत मेरी प्रस्तावना का केन्द्रीय आग्रह यह है कि हिंदी भाषा का प्रश्न असल में एक संस्कृति के आग्रहों, दुराग्रहों सहित उस संस्कृति के सृजन के रुझान और उस सृजन की क्षमता का प्रश्न है जिस पर कुछ विशेष तरह की सांस्कृतिक, धार्मिक मान्यताओं की धुंध फ़ैली है. जब तक इस धुंध को नहीं छांटा जाता तब तक हिंदी का प्रश्न एक सरकारी परियोजना एक आन्दोलन (राष्ट्रवाद या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद) का गुलाम ही बना रहेगा. निश्चित ही भाषा और सृजन का प्रश्न परियोजनाओं और आंदोलनों का नहीं बल्कि आम आदमी की दैनिक जिन्दगी का प्रश्न होना चाहिए. क्या आम आदमी इस प्रश्न को अनुभव कर रहा है? या उसने अन्य संस्कृतियों और भाषाओँ में अपने समाधान खोज लिए हैं?

आइये इसे थोडा विस्तार में जानें. कोई भाषा कब समादृत होती है? या भाषा छोडिये कोई भी चीज कब समादृत होती है? तभी न जबकि उसका आपकी जिन्दगी को कोई सीधा सीधा लाभ हो रहा हो. इस विषय में भाषा से किस लाभ की अपेक्षा होती है? यही न कि इससे आपको अन्य मनुष्यों से जुड़ने की सुविधा मिले संवाद और संचार सहित सम्मान विकास और सशक्तीकरण का भी अवसर और सुविधा मिले. मोटा मोटी यही वे बातें हैं जो किसी भाषा या बोली से अपेक्षित है. अब गौर से देखिये कि मनुष्यों से जुड़ने, संवाद, संचार, सम्मान विकास और सशक्तिकरण को भाषा के अलावा और कौनसी चीज नियंत्रित कर रही है? क्या भाषा इन सद्गुणों को साकार करने की दृष्टि से स्वतंत्र समर्थ और सक्षम है? यही मेरा केंद्रीय प्रश्न है. इसे और सरल करूँ तो कहना होगा कि जिस कमजोरी या ताकत को हम भाषा की कमजोरी या ताकत मान रहे हैं वो वाकई उस भाषा के मत्थे मढ़ी जा सकती है? या किसी अन्य बड़ी शक्ति के मत्थे मढने योग्य है? क्या किसी संस्कृति, धर्म, आध्यात्मिक रुझान या समाज मनोविज्ञान की विशेषता के वाहक के रूप में भाषा अनावश्यक रूप से किसी अनचाहे दंगल का अखाड़ा तो नहीं बन रही है? यह मेरा प्रश्न है. और इसी के उत्तर की तरफ ले जाने के लिए मेरा पहला लेख था. अब इस दुसरे लेख में इसे और विस्तार देना चाहता हूँ.

मैं कोई भाषा विज्ञानी नहीं हूँ न साहित्यकार हूँ और न ही साहित्य का गंभीर पाठक ही हूँ. मैं सिर्फ समाजशास्त्र, धर्म के मनोविज्ञान और डेवेलपमेंट स्टडी के लेंस से भाषा और सृजन के प्रश्न को देख रहा हूँ. समाजशास्त्र जिस समाज मनोविज्ञान और विकास के मनोविज्ञान को उजागर करता है उसमे आप संस्कृतियों के आग्रहों दुराग्रहों के संगत उस समाज विशेष के विकास या पतन सहित इन्हें साधने वाली शक्तियों की विशिष्ट दिशाओं को देख सकते हैं. सामाजिक विकास और इस विकास के एक उपकरण की तरह लोकभाषा या मातृभाषा में ज्ञान विज्ञान के सृजन का प्रश्न मेरे लिए केंद्रीय प्रश्न है. मैं जब इसे सुलझाने निकलता हूँ तो मुझे यह नजर आता है कि भारतीय विश्वविद्यालय (जो किसी अर्थ में भारतीय नहीं बल्कि पश्चिमी मोडल पर बने हैं – यह भी सम्मान की बात है) किसी भी ढंग से भारतीय भाषाओँ में ज्ञान विज्ञान का सृजन नहीं कर रहे हैं. सृजन तो छोडिये अनुवाद भी नहीं कर रहे हैं. इसकी जिम्मेदारी आप किसपर डालेंगे? क्या यह प्रश्न हिंदी को कमजोर करता है? या हिंदी सहित इसके सर पर बैठी अन्य ऐतिहासिक शक्तियों की कमजोरी को प्रकाश में लाने का काम करता है? किसी बीमार की बीमारी को उजागर करके उसकी बदहाली का इलाज ढूंढना कोई पाप है? इस बिंदु पर गहरे जाने की आवश्यकता है.

अक्सर ही राजभाषा या राष्ट्रभाषा को समर्थ बनाने की “परियोजनायें” और “परियोजना का मनोविज्ञान” एक ख़ास लक्ष्य की तरफ निर्देशित रहता है. इस लक्ष्य की परिभाषा हालाँकि पुनः स्वयं इस भाषा के गर्भ से नहीं आती बल्कि इस भाषा को अपनी सांस्कृतिक विजय का उपकरण बनाने वाली और अतीत वर्तमान और भविष्य की व्याख्याओं को मनचाहे रंग में रंगने वाली एक अन्य ऐतिहासिक शक्ति के गर्भ से आती है. उदाहरण के लिए राष्ट्रभाषा या राजभाषा का भारत में जो घोषित लक्ष्य है वो भारत का एक राष्ट्र के रूप में एकीकरण है और भाषा को देशव्यापी संवाद का माध्यम बनाने का आग्रह है. अब ध्यान से देखिये हिंदी के रूप में राजभाषा का यह उपयोग उस बीमारी के इलाज के लिए अपेक्षित है जिस बीमारी का कारण स्वयं भाषा में ही नहीं है बल्कि भाषा से इतर किन्ही अन्य शक्तियों में निहित हैं, और मजा ये कि वे शक्तियां  भाषा को भी बीमारी फैलाने के उपकरण की तरह ही इस्तेमाल करती आयीं हैं. भाषा से बड़ी या भाषा को इस्तेमाल करने वाली वे शक्तियां अर्थात धर्म, संस्कृति और आध्यात्मिक परम्पराएं – जो वास्तव में ही संगठित रूप से भाषा को अपने विशिष्ट लक्ष्यों के अनुरूप दिशा देती आई हैं और राष्ट्र सहित समाज की कल्पना और सीमाओं को आकार देती आई हैं – उनके द्वारा पैदा की गयी बीमारी को क्या आप सिर्फ भाषा के जरिये ठीक कर लेंगे? हाथी के पूरे शरीर ने जो अपराध किया है वह आप उसकी पूँछ को दंड देकर अनकीया कर लेंगे? क्या भारत में ज्ञान के सृजन की प्रेरणा का न होना और विज्ञान के प्रति ये सनातन वैरभाव और बांझपन केवल भाषा की समस्या है? क्या भाषा की क्षमता और सीमाओं के इतर हम इन प्रश्नों को सीधे सीधे देख सकते हैं?  

यह देखना असल में भाषा के विमर्श की सीमा को लांघने का आग्रह करता है. इसीलिये मैंने अरबिंदो घोष के उद्धरणों को चुना. उनकी प्रसिद्द किताब है जो हिंदी में “भारतीय संस्कृति के मूल आधार” के नाम से प्रकाशित हुई है. उसमे वे भाषा की क्षमता को और उसकी सामर्थ्य को अपने आध्यात्मिक मनोविज्ञान के जरिये तौल रहे हैं और ऐसा करते हुए वे न केवल भाषा से अपनी अपेक्षाओं का स्पष्ट वर्णन कर रहे हैं बल्कि भाषा में इश्वर की काव्यमयी स्तुतिगान की सामर्थ्य की तुलना में वैज्ञानिक और तर्कपूर्ण ज्ञान के सृजन की सामर्थ्य को दोयम सिद्ध कर रहे हैं.

अरबिंदों घोष मूलतः कवि और योगी थे और इसी कारण वे प्राचीन भारतीय काव्य साहित्य में इतनी गहराई से प्रवेश कर सके थे. उन्होंने अपने रुझान और सामर्थ्य से भारतीय दर्शन और उस दर्शन से जन्मे समाज मनोविज्ञान का जो नक्शा बनाया है वह वास्तव में बहुत सटीक और महत्वपूर्ण है. उनकी किताबें देखिये. हीगल की भाषा जितनी दुरूह है उतनी ही दुरुहता का जाल वे अपनी किताबों में रचते हैं और बड़ी उपमाओं इत्यादि का उपयोग करते हुए वेदान्तिक दर्शन और रहस्यवाद को भारत के अनजाने अतीत से उठाकर अनिश्चित से भविष्य में प्रक्षेपित करते रहते हैं. यही भारत की सनातन पुराण बुद्धि है. यह बुद्धि जब स्पष्ट रूप से भाषा पर टिप्पणी कर रही है तो भाषा की चिंता करने वालों को इसे बड़े अक्षरों में अपनी दीवार पर लिख लेना चाहिए. उनकी टिप्पणी को नोट करते हुए मैं असल में भारत के पौराणिक मनोविज्ञान द्वारा भाषा के सचेतन उपयोग के रुझान को नोट कर रहा हूँ. किन्हीं मित्र को यह लग सकता है कि मैं विषय की सीमा से बाहर जा रहा हूँ. लेकिन मेरे लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है. जब आप एक दुधमुंहे बच्चे के अपराधों की चर्चा उसके माँ बाप के रुझानों की चर्चा के बिना करते हैं तो किसी को तो बच्चे की फ़िक्र छोड़कर मान बाप की गर्दन पकडनी ही होगी न?

अब इन माँ बाप के रुझानों को देखिये. हिंदी अगर छोटा बच्चा अहै तो माँ बाप हुए इस देश की संस्कृति अध्यात्म और धर्म. अब ठीक से देखिये जिस एकीकरण और सृजन को आप हिंदी भाषा के जरिये साधना चाहते हैं या जिस एकीकरण और सृजन के लिए हिंदी की सबलता का स्वप्न देखते हैं वह एकीकरण और सृजन किसके जरिये रोका गया है? क्या हिंदी ने लोगों को विभाजित किया है और ज्ञान विज्ञान के सृजन के प्रति अनुर्वर बनाया है? क्या कोई भी समझदार आदमी ये आरोप लगा सकता है? मेरे ख्याल से जिसे भारत का थोड़ा भी ज्ञान होगा वह ऐसा नहीं करेगा. गौर से देखिये असल में किन्ही बड़ी शक्तियों ने भारत को विभाजित और बाँझ बनाया है और फिर इस बाँझ भीड़ के हाथों में संस्कृत तमिल या हिंदी पकड़ा दी गयी है. अब हम बांझपन के इलाज की चर्चा करते हुए संस्कृत या हिंदी के गर्भाशय का परीक्षण कर रहे हैं. यह एकदम भ्रांत दिशा है विचार विमर्ष की. हमें उस गर्भाशय का परीक्षण करना चाहिए जहां से स्वयं संस्कृत या हिंदी जन्मी है. इस स्थिति में हिंदी की सामर्थ्य का विमर्ष स्वयं भाषा के विमर्श की परिधि को लांघ जाएगा. तब इसे आप कोई भी नाम दें लेकिन मेरी दिशा यही है.

हिंदी हो या कोई भी भाषा हो- वो स्वयं में आत्यंतिक रूप से सृजन को संभव या असंभव नहीं बनाती. हाँ उसके रुझान गद्य या पद्य सहित काव्य या तर्क के प्रति लगाव को फेसिलिटेट जरुर कर सकते हैं. लेकिन भाषा की सामर्थ्य किसी संस्कृति की सृजन सामर्थ्य को तय नहीं कर सकती. बल्कि इससे उलटा ही सत्य है, अर्थात किसी संस्कृति की सृजन क्षमता ही उसकी भाषा को बाँझ या उर्वर बनाती है. हालाँकि यहाँ एक और बड़ा प्रश्न है जिसे अभी नहीं उठाना चाहिए- वो प्रश्न है कि इस सृजन की दिशा भी क्या होनी चाहिए? कहने को तो भारतीय भाषाओँ में और संस्कृत में भयानक रूप से विस्तृत और अन्धविश्वासी आलौकिक पुराण साहित्य रचा गया है लेकिन क्या यह सृजन वास्तव में सृजनात्मक है? इस प्रश्न को अभी छोड़ते हैं. फिर भी इस प्रश्न का एक अंश हमारी चर्चा के लिए उपयोगी है.

वह अंश इस अर्थ में उपयोगी है कि यदि पुराण साहित्य के विस्तार को रचने में जिस भाषा ( ठीक से कहें तो भाषा की प्रवृत्ति) और जिस मनोविज्ञान का उपयोग किया गया है क्या उस मनोविज्ञान और भाषा से हमने पर्याप्त दूरी बना ली है? ध्यान रहे कि पुराण रचने का आरोप दुनिया की सभी भाषाओँ पर लगता है लेकिन यूरोप की सबसे प्रमुख भाषा इंग्लिश ने अपने उस अतीत और उस रुझान से दूरी बना ली है. क्या भारतीय भाषाओँ ने ऐसा कुछ किया है? हालाँकि फिर से यहाँ कहना चाहूंगा कि यह चुनाव भी स्वयं भाषा नहीं करती बल्कि भाषा रुपी इस बच्चे के वो माँ बाप करते हैं जिनकी चर्चा हमने ऊपर की है.  
     
हिंदी और हिंदी में ज्ञान विज्ञान के सृजन के संबंध में मेरी चिंताओं को इस अर्थ में मैं रखता हूँ. मैं नहीं जानता यह भाषा का विमर्श है या संस्कृति का विमर्श है. लेकिन जमीन पर भाषा और संस्कृति के बांझपन  को देखने का यह तरीका मुझे जरुरी लगता है. अनजाने या “प्रक्षेपित महान अतीत” और भविष्य के रोमांटिसिज्म की चकाचौंध में हिंदी और उसकी चिंताए जैसी नजर आती है या उससे जुड़े समाधान जैसे नजर आते हैं उन प्रश्नों या समाधानों की जिम्मेदारी स्वयं हिंदी पर है ही नहीं- इस बात को गहराई से समझना होगा.

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sanjayjothe@gmail.com

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  1. 'क्या भारत में ज्ञान के सृजन की प्रेरणा का न होना और विज्ञान के प्रति ये सनातन वैरभाव और बांझपन केवल भाषा की समस्या है?' बढ़िया पड़ताल, भाषाई ढांचे और समस्याओं पर भाषा से इतर शक्तियों के दूरगामी और गहन प्रभाव की सटीक व्याख्या।

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  2. संजय जोठे बहुत confused दिखते हैं! अव्वल तो उन्हें हिन्दी और राजभाषा हिन्दी में साफ-साफ फर्क करना नहीं आ रहा! वह बार-बार राजभाषा (और 'राजभाषा परियोजनाओं') की स्थिति को हिन्दी की स्थिति बताने की चूक कर रहे हैं। दूसरी बात, वह इस लेख में भी अंग्रेजी का नाम लिए बिना ही, अंग्रेजी को ही आधार बनाकर, हिन्दी, संस्कृत और भारतीय भाषाओं को उनकी औकात (यानि बांझ) बताने पर तुले हुए हैं! अगर हिन्दी, संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाएँ यदि भारत में सनातन काल से सक्रिय धर्म, संस्कृति और राजनीति से संचालित होकर बांझ बनी या बना दी गई हैं तो क्या अंग्रेजी भाषा या कोई भी भाषा इनसे सर्वथा मुक्त रही हैं? तीसरी बात, माना कि अंग्रेजी बहुत समादृत है, इसलिये उसमे ज्ञान-विज्ञान का विपुल सृजन हो रहा है! पर क्या अगर हिन्दी और बंगला, मराठी, गुजराती, तमिल, कन्नड, मलयालम, तेलगु, उड़िया आदि अन्य भारतीय भाषाओं में ज्ञान-विज्ञान का सृजन नहीं हो रहा है तो क्या वे समाज और उनके प्रान्तों में समादृत नहीं हैं? क्या वहाँ वे तिरस्कृत हैं? वैसे क्या भारत में आयुर्वेद, ज्योतिष शास्त्र, अर्थशास्त्र, चिकित्सा, खगोल विज्ञान, गणित, ज्यामिति, बीजगणित आदि विषयों पर कोई किताब ही नहीं लिखी गई है? भले ही वे संस्कृत में ही क्यों न हों? आर्यभट्ट, चाणक्य, चरक, भास्कराचार्य, वराहमिहिर, नागार्जुन,सुश्रुत आदि आदि ने क्या अंग्रेजी में ज्ञान-विज्ञान की किताबें लिखी थीं? चौथी बात, जब वह मानते हैं कि - 'अनजाने या “प्रक्षेपित महान अतीत” और भविष्य के रोमांटिसिज्म की चकाचौंध में हिंदी और उसकी चिंताए जैसी नजर आती है या उससे जुड़े समाधान जैसे नजर आते हैं उन प्रश्नों या समाधानों की जिम्मेदारी स्वयं हिंदी पर है ही नहीं'- तो वह 'हिन्दी की दुर्दशा' जैसा जुमला क्यों इस्तेमाल कर रहे हैं? पाँचवी बात, यदि वह भाषा पर आधिकारिक तौर पर मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्रीय नजरिए और मानदंडों से बात कर रहे हैं तो उन्हे भाषा और अंग्रेजी भाषा के इतिहास को भी ध्यान में रखना ही होगा! वह यह कहकर नहीं बच सकते कि -'मैं कोई भाषा विज्ञानी नहीं हूँ न साहित्यकार हूँ और न ही साहित्य का गंभीर पाठक ही हूँ. मैं सिर्फ समाजशास्त्र, धर्म के मनोविज्ञान और डेवेलपमेंट स्टडी के लेंस से भाषा और सृजन के प्रश्न को देख रहा हूँ.' तो फिर यह किसी रसोइये द्वारा संगीत शास्त्र पर चर्चा जैसा ही होगा। यह मैं नहीं कह रहा कि आप भाषा पर बहस नहीं कर सकते । मैं बस यह कह रहा हूँ कि भाषा पर आप एकतरफा आरोप मत लगाइए। यदि संस्कृति को कटघरे में खड़ा करना है तो उसको ही खड़ा कीजिये। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को इस बहाने मत घसीटिए! मैं फिर कह रहा हूँ कि जोठे जी जाने-अनजाने अंग्रेजी को ही पृष्ठभूमि मे रखकर हिन्दी, संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं का मूल्यांकन कर रहे हैं! यदि वे ऐसा कर भी रहे हैं तो उन्हें अंग्रेजी के लिए और अन्य भाषाओं के लिए एक समान मानदंड अपनाने चाहिए।

    - राहुल राजेश, कोलकाता।

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  3. यह लेख पूरा पढ़ा और पसन्द आया । हिन्दी की सनातन दुर्दशा शब्दावली से लगा कि हिन्दी की दुर्दशा सनातन काल से चली आ रही है और सदा बनी रहेगी । क्या अँगरेजी की दशा आज जैसी है सनातन काल में भी वैसी उन्नत थी ? इंग्लिश शब्द भी यू के का अपना नहीं है । कोई जर्मन कबीला वहाँ अपनी विजय यात्रा में वहाँ आ कर बसा और अपनी भाषा चालू कर दी जो आज इंग्लिश कहलाती है । वहीं उस क्षेत्र में जम गई तो उस क्षेत्र की भाषा
    कहलाने लगी । साम्राज्य की स्थापना और विस्तार के साथ वह विश्व भाषा बन गई । पर क्या अपने आदिकाल में भी ऐसी थी क्या ? नही । तब वह विजयी क़बीले की बोली अर्थात मूलत: जर्मन क़बीले की बोली थी । बोली विकसित हो कर भाषा बनी । तो हिन्दी की दुर्दशा का सनातन कारण यह है कि वह साम्राज्यवादी नहीं बनी और न बनेगी । हर भाषा किसी समाज में विकसित होती है । तो हिन्दी जिस समाज और संस्कृति में विकसित हुई वह यूके
    और यूरोप की परिस्थितियों के समान विकसित नहीं हो सकती थी । पश्चिमी समाज शास्त्र से आप को हिन्दी की सनातन दुर्दशा दीखती है उस का आधुनिक विस्तार नहीं दीखता । हिन्दी में ज्ञान का साहित्य अब तक कितना छपा है , इस का अध्ययन करें तो आप निराश नहीं होंगे ।

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  4. सनातनी मानसिकता ने जिस तरह संस्कृत को देवलोक तक सीमित रखा और रघुवीर सहाय स्टाइल हिंदी बनाकर भद्रलोक तक सीमित रखा उसी कारण ये भाषाएँ मरी हैं और मर रही हैं।

    हिंदी साम्राज्यवादी नहीं बनी क्योंकि हिन्दू आक्रमण तो क्या रक्षा के लिए भी कभी इकट्ठे नहीं हो सके। यही असली बिंदु है। जब कोई कौम बाँझ होती है तो वह सृजन सहित आक्रमण और आत्मरक्षा में भी अक्षम हो जाती है।

    यही बांझपन हिंदी सहित भारतीय भाषाओँ मेबना हुआ है।

    और हमें निश्चित ही इंग्लिश अपनी से तुलना करनी होगी ताकि हम सही चिंतन कर सकें।

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  5. राहुल जी मेरे दृष्टिकोण को नहीं समझ पा रहे हैं। हिंदी की और अन्य भाषाओँ की बात हो रही है और मेरा प्रस्थान बिंदु यह है कि भाषा की सृजन की क्षमता असल में उस भाषा को जन्मने वाले समाज की सृजन क्षमता है। इसीलिये हिंदी का नहीं बल्कि हिंदुस्तान मूल्यांकन होना चाहिए। अतीत में ह्यां विज्ञानं का सृजन हुआ है और आज भी हो रहा है। लेकिन क्या इस बात से हम सन्तुष्ट हो जाएँ? तो फिर हिंदी दिवस और पख्वादों पर चिंताएं जताने की क्या आवश्यकता है? संस्कृत और हिंदी को जिस सनातनी मानसिकता ने सृजन से दूर किया या सृजन मात्र को एक हेय विषय बना डाला उसकी चर्चा करनी ही होगी। आर्यभट्ट चाणक्य आदि ने जो रचा उसके परिणाम में भारत में क्या पैदा हुआ? क्या स्पूतनिक भारत में बना या कम्प्यूटर भारत में बना? ये मूल प्रश्न हैं, हो सकता है ये आपको भाषा के प्रश्न की तरह नहीं बल्कि संस्कृति पर उठाये प्रश्न जैसा लगे लेकिन जब भाषा के सृजन की बात आती है तो सृजनकारी मन का प्रश्न पहला प्रश्न होता है और वो किस भाषा में सृजन करेगा वह दूसरा प्रश्न है।

    अब पूछना ये है कि भारत में मानक किताबें और शोध भारतीय भाषाओँ में क्यों नहीं हो रहे हैं? इसके उत्तर पर विचार करेंगे तो सारी बात स्वयं साफ़ हो जाती है।

    मैंने बहुत स्पष्ट कहा है कि मैं भाषा पर प्रश्न नहीं उठा रहा। भाषा तो एक कमजोर और लाचार विधा है जिसके जरिये दूसरी शक्तियां खेलती हैं। हिंदी में सृजन नहीं हो रहा - केवल यही मेरा प्रश्न नहीं है। पूरा का पूरा हिन्दुस्तान क्या और किस स्तर पर सृजन कर पा रहा है? 140 करोड़ लोग नए ज्ञान, नए सौंदर्यशास्त्र, नए वैज्ञानिक सिद्धांत, नई तकनीक या चिकित्सा आदि में क्या योगदान दे रहे हैं? किसी केमिस्ट्री के छात्र से पूछिये आवर्त सारणी में सौ से अधिक तत्व हैं उनमे से कितने भारतीयों ने खोजे हैं? एक भी नहीं!

    इस स्थिति में खोज और शोध विकास आदि करने वाले लोग जिस भी भाषा में लिखेंगे वो ही भाषा दुनिया और देश पर छा जायेगी। हिंदी या संस्कृत की क्षमता पर दावे करने वालों ने बीती कुछ सदियों में और आज भी क्या दिया है?

    ये भाषा का नहीं संस्कृति की सृजन क्षमता का प्रश्न है।

    हम यह मानकर खुश हो सकते हैं कि बहुत सृजन हुआ है लेकिन हकीकत को बच्चे भी जानते हैं।

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  6. भाई संजय, आप जरा भारत के मध्यकाल पर नजर डालें और यह समझने का कष्ट करें कि क्यों आर्यभट आदि के प्रयोगों-उद्यमों की कोई कड़ी नहीं बन पाई। आपका ध्यान इस बात पर भी नहीं जा रहा कि तीन सौ साल का औपनिवेशिक शासन रहा हम पर, और उसी दौर के उपनिवेश निर्माता यूरोप के ज्ञानोदय का परिणाम है भाप का इंजन से लेकर स्पूतनिक और कम्प्यूटर आदि-आदि। आत्मालोचन अच्छा है, बशर्ते कि कि वह आत्महीनता में न बदल जाए। हम भारतीयों ने ऐसी प्रतिकूल, विषम ऐतिहासिक परिस्थितियों के रहते भी आज दुनिया के गिने-चुने वैज्ञानिकउपलब्धियों वाले देशों में स्थान बनाया है । पढ़ने-लिखने और ज्ञानार्जन की उत्कंठा और उद्यमशीलता के बिना यह संभव नहीं था, और इसकी एक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भी जरूर थी, बल्कि है।

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  7. सर आपकी बात ठीक है... मध्यकाल में ऐसी उद्यम की कड़ी नहीं बन सकी... लेकिन आर्यभट्ट के अपने समय में क्या बन सकी थी? आर्यभट्ट की विरासत और गणित सहित खगोल को ज्योतिष में बदल डालने वाली सनातनी बुद्धि पर मैं प्रश्न उठा रहा हूँ... खगोल को ज्योतिष न बनाकर खगोल ही रहने दिया गया होता तो न सिर्फ गणित और खगोल विकसित होता बल्कि भाषा भी उन उन दिशाओं में विक्सित होती। आयुर्वेद को लीजिये, पहली सर्जरी के प्रमाण हमारे पास हैं लेकिन पुनः सनातनी ब्राह्मणी बुद्धि ने चिकित्सा को शूद्रों का काम बनाकर चिकित्सा और चिकित्सा की भाषा दोनों को बाँझ बना दिया... मध्यकाल तक आते आते तो भारत एकदम बाँझ हो चूका था। मध्यकाल भारत के विमर्श के लिए उतना ठीक केस स्टडी नहीं है.. और आजकल स्वदेशी इंडोलॉजी के विशेषज्ञ भारत की अनुर्वरता का सारा दोष मुस्लिमों अंग्रेजों पर ही मढ़ रहे हैं। ये गलत है। हमें प्राचीन काल से ही देखना होगा। क्या संस्कृत कभी जन भाषा रही? कभी सार्वजनिक शिक्षण प्रणाली रही? क्या शिक्षा तक सभी की पहुँच रही?

    यूरोप के लिए मध्यकाल की बहस ठीक है क्योंकि वहां पुनर्जागरण के नतीजे में ये सब हुआ। लेकिन भारत के विशाल अतीत में पुनर्जागरण को कहाँ लॉकेट करेंगे? भारत की उर्वरता का या भारतीय भाषा की उर्वरता का विमर्श और पीछे जाएगा। हाँ यह ठीक है कि जिस हिंदी या हिंदुस्तानी की हम बात कर रहे हैं वो बहुत हाल ही में दयानन्द सरस्वती जैसों की हिंदी से निकली है। लेकिन इस हिंदी को जन्म देने वाले आग्रह तो बहुत पुराने हैं... ज्ञान विज्ञान और सृजन को नियंत्रित करने वाला धर्म दर्शन या समाज दर्शन तो सनातन कहा गया है... उसी का परीक्षण होना चाहिए।

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  8. अरब या चीन में ही वह वैज्ञानिक विकास हो सका जिसकी अपेक्षा आप यहाँ कर रहे हैं? वहाँ भी क्या सनातनी ब्राह्मण बुद्धि काम करती रही? वहाँ भी संस्कृत जैसी क़िसी अभिजात्य भाषा ने हाल तक उन्हें आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से सृजनहीन या 'बंजर' बनाए रखा? आखिर एक भाषा के रूप में संस्कृत में कोई बात रही होगी जैसी कि आज अंगरेजी में लगती है.। क्या अंगरेजी आज भी जभाषा है? एक और बात पर ध्यान दें कि खगोल शास्त्र के प्रति केवल भारत नहीं लगभग सारी एशियाई सभ्यताएँ आकर्षित रहीं। देखिए, हर समाज में किसी न किसी बहाने शिक्षा पर प्रभु वर्ग का वर्चस्व रहा, आज भी है, वरना फ्रेरो को 'वंचितों का शिक्षाशास्त्र ' क्यों लिखना पड़ता है! हममें बहुत कमियाँ हैं लेकिन सोचकर दे

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  9. अंग्रेजी तो उस समाज की जनभाषा है ही जहाँ उसका जन्म हुआ। संस्कृत तो कभी कहीं जनभाषा नहीं रही। अंग्रेजी को न पढ़ने देने का कृत्य कहीं भरसक ही हुआ होगा जबकि ब्राह्मण धर्मी समाज में शूद्रों एवं स्त्रियों को यह न पढ़ने दिया गया। अम्बेडकर तक का अनुभव हमारे सामने है।

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  10. सर, जिस चीज को ब्राह्मणवाद कहा गया है वैसा अनुर्वर अभिजात्य और परलोकी आग्रह अरब और चीन में रहा है... इस्लाम और अरबी ने वही खेल खेला है जो ब्राह्मणवाद और संस्कृत ने खेला है। अरबी संस्कृत की तरह मुर्दा नहीं है वो जीवित भाषा है और करोडो लोगों द्वारा बोली जा रही है। अरब और चीन में विज्ञानं के न जन्मने का कारण बहुत हद तक वही रहा है जो भारत के ऐतिहासिक बांझपन के लिए रहा है। हमें तुलना अच्छे लोगों से करनी चाहिए। अगर हम बलोच पश्तो और एस्किमो से तुलना करेंगे तो शायद बहुत अच्छा परिणाम निकाल ला सकते हैं। अंग्रेजी अपने उद्गम स्थान में निश्चित ही जनभाषा है। संस्कृत की तरह या भद्रलोकि संस्कृतनिष्ठ हिंदी की तरह देवलोक की भाषा नहीं है। इससे आगे बढ़कर चूँकि इंग्लिश एक उर्वर समाज की भाषा है इसलिए वो न केवल भाषा के रूप में उर्वर बन रही है बल्कि ज्ञान के उपकरण के लिये भी अधिक समर्थ हो रही है।

    लेकिन संस्कृत सिर्फ स्वर्गलोक या शास्त्रिं या कर्मकांडों और अन्धविश्वास की भाषा बनी हुई है। हिंदी भी गरीब की भाषा बनी हुई है। आप आंकड़े देखिये देश के दस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों ने पिछले पचास सालों में हिंदी में क्या रचा है? किन विषयों में हिंदी में उच्चस्तरीय शोध हुआ है? गुरुकुल कांगड़ी या शांतिकुंज हरिद्वार की पारलौकिक रिसर्च को एक तरफ हटाकर असली ज्ञान केंद्रों को देखिये। ये दुनिया में कहीं नाहइन ठहरते। हिंदी तो छोड़िये इंग्लिश में भी ये कुछ नया नहीं कर पा रहे हैं।

    सृजन भाषा का विषय नहीं है... भाषा गलती से इस बहस में फस जाती है। भाषा को माफ़ करके संस्कृती और समाज के गर्भाशय का परीक्षण कीजिये तब बांझपन का सही इलाज हो सकेगा।... सादर.

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  11. मतलब यह निकला कि एक बाझ संस्कृति ने आज भारत को यहाँ पहुँचाया है ! सृजन हमेशा और हमेशा किसी न किसी भाषा में ही होता है, भ।षा ही संस्कृति का वाहक होती है, दोनों दो ध्रुवों पर नहीं होतीं।
    आप colonniser से colony की तुलना करेंगे तो अन्य colonies पर नजर डालने का औचित्य बनता है। वैसे भी यह तुलना आज के संदर्भ में नहीं ज्ञानोदय काल के संदर्भ में थी। तुलना की इतनी तमीज तो मुझे है। धन्यवाद।

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  12. जी सर.. मैं जोर देकर कहूँगा कि बाँझ संस्कृति ने भारत को यहां पहुंचाया है। सृजन किसी भाषा में होता है लेकिन भाषा द्वारा नहीं होता। भाषा संस्कृति की वाहक होती है, इसका अन्य अर्थ यह भी है कि भाषा जिन मुद्दों पर कटघरे में खड़ी है वे मुद्दे संस्कृति के मुद्दे हैं! अन्य कोलोनिज पर नजर डालना जरुरी हैंलेकिन वे अन्य कहाँ हैं? उनके बांझपन और हिंदुस्तान के बांझपन में एकदम समानता है, वे अन्य नहीं हैं!

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  13. यदि हिंदी एक दरिद्र भाषा है तो उसका ज्वलंत उदाहरण संजय सोठे का यह लेख है. हिंदी भाषा सनातन है ही नहीं तो इसके सनातन प्रश्न का सवाल कहाँ से उठता है. यह अंकुरित ही महज दो हजार साल पहले हुई. यह अभी प्रौढ़ता को प्राप्त ही हो रही है और इसके प्रश्न सनातन के स्तर को छूंने लगे!

    "भाषा एक गरीब और कमजोर विधा है" "भाषा सिर्फ वह (एक) पर्दा है" यह प्रगतिवादियों की तरह के चिंतकों का इल्हाम है. हमको अभी तक यही पता था कि भाषा एक माध्यम है और बहुत ही सशक्त माध्यम है, संपर्क का, परस्पर जुड़ाव का, अपनी बातों को कहने का, अपनी स्थिति स्पष्ट करने का. भाषा के अर्थ में एक व्यापकता भी है. भावनाओं की अभिव्यक्ति के और भी माध्यम हैं- इशारा, चित्र, कार्टून वगैरह. किन्तु अक्सर यहाँ भी भाषा का प्रयोग करते हैं. जैसे संकेत की, चित्र की भाषा आदि. लेकिन इस लेखक को एक नया ज्ञान हुआ है, कि भाषा एक विधा है वह भी गरीब और कमजोर. उसने यह भी जाना है कि भाषा एक पर्दा है जिसपर प्रक्षेपण होता है. यह ज्ञान कुछ वैसा ही अबूझ लगता है जैसे अज्ञेय की उलझी संवेदना.

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